Sunday, October 29, 2017

रनर

"नवरंग" के वार्षिकांक (2017) में प्रकाशित कहानी ‘रनर’- पूंजीवाद चुनाव तंत्र के उस रूप से साक्षात्कार कराती है जिसमें चुनाव प्रक्रिया एक ढकोसला बनती हुई दिखती है। 
नील कमल मूलत: कवि है, और ऐसे कवि हैं जिनकी निगाहें हमेशा अपने आस पास पर चौकन्नी बनी रहती हैं। कहानी एवं उनके आलोचनात्‍मक लेखन पर भी यह बात उतनी ही सच है। यह भी प्रत्यक्ष है कि उनकी रचनाओं की प्रमाणिकता एक रचनाकार के मनोगत आग्रहों से नहीं, बल्कि वस्‍तुगत स्थिति के तार्किक विश्ले षण के साथ अवधारणा का रूप अख्तियार करती है। कवि, कथाकार एवं आलोचक नील कमल की यह महत्व पूर्ण रचना ‘रनर’, जिसको पढ़ने का सुअवसर मुझे उसके प्रकाशन के पूर्व ही मिल गया था, इस ब्लाग के पाठकों के लिए प्रस्तु त है। कथाकार का आभार कि कहानी को प्रकाशित करने की सहर्ष अनुमति दी। आभार इसलिए भी कि उनकी इस रचना से यह ब्‍लाग अपने को समृद्ध कर पा रहा है।

वि.गौ.

कहानी 

 नील कमल



दिनभर के चुनाव कार्य के बाद मतगणना समाप्त हो चुकी थी | विजयी उम्मीदवारों को पुलिस अपनी हिफाजत में बाहर ले जा रही थी | रास्ते के दोनों ओर लोग लगभग दहशत में खड़े थे | उस लड़के ने उसी समय अपने स्मार्ट फोन का कैमरा ऑन कर लिया था | थाना प्रभारी जो मौके पर सुबह से ही मौजूद था लड़के की इस हरकत पर आपे से बाहर हो गया | थाना प्रभारी ने लड़के का गिरेबान पकड़ कर उसे खींचा और उसके ऊपर जोरदार प्रहार किया | लड़का नीचे गिर पड़ा | लड़के का स्मार्ट फोन जब्त करने के बाद उसे पुलिस की जीप में लेकर वह थाने की तरफ निकल गया | इस काम को बिजली की गति से अंजाम दिया गया था लिहाजा इससे पहले कि वहाँ जमा लोग कुछ भी समझ पाते, लड़का पुलिस हिरासत में था |
1.
बड़ा ही खूबसूरत सा गाँव है यह | पक्की सड़क के दोनों तरफ धान के विस्तीर्ण खेत | एकदम हरे भरे | गाँव के निवासी यातायात की सुविधा के लिए सड़कों के किनारे आ बसे हैं | वरना गाँव की मूल आबादी पहले इस सड़क से काफी भीतर की ओर बसती थी | सड़क बमुश्किल 12 फीट चौड़ी है | यह सड़क गाँव से निकल कर पूरब दिशा में एक भेरी पर समाप्त हो जाती है और पश्चिम दिशा में शहर की तरफ जाने वाले मुख्य मार्ग से जुड़ती है | भेरी, मतलब विशाल जलाशय | सड़क के दाहिने-बाँये, जहां-तहां गहरी खाईं है जो इस वक़्त शैवाल से भरी पड़ी थी | यह खाईं शायद मकानों के निर्माण के लिए निकाली गई मिट्टी के कारण बन गई होगी जिसमें बरसात का पानी ठहर जाता होगा | इस क्षेत्र में ऐसी खाँइयों को खाल कहते हैं | आधुनिक आर्किटेक्चरल डिजाइन वाले भवनों को देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि गांव में सम्पन्न लोग भी अच्छी संख्या में होंगे | लेकिन इस संपन्नता के बीच ही मिट्टी के परंपरागत घर भी हैं जिनपर टिन या पुआल की छप्पर पड़ी है | इन घरों के बाहर मुर्गियों के चूज़े, बत्तखें और बकरियाँ दिख जाती हैं | ये आदिवासी परिवार हैं जो विकास की दौड़ में तमाम सरकारी योजनाओं और घोषणाओं के बावजूद जीवन स्तर के मामले में अभी भी पिछड़े हुए हैं और छोटे मोटे काम के लिए सम्पन्न घरों की तरफ देखते रहते हैं |

इस गाँव के किसी किसान ने आज तक आत्महत्या नहीं की | पढ़े लिखे युवा गाँव छोड़कर नौकरियों की तलाश में शहर जरूर निकल गए थे पर कुल मिलाकर यह एक खुशहाल गाँव था | खेती यहाँ आजीविका का मुख्य साधन थी | धान की तीन फसलों के अलावा आलू, सरसो की खेती यहाँ के किसान बड़ी कुशलता के साथ करते | अधिकांश परिवारों से कोई न कोई व्यक्ति उस बैंक का सदस्य था जिसके बोर्ड के गठन के लिए यह चुनाव हो रहा है | ये किसान अपनी फसलों का बीमा कराते थे | उन्नत किस्म के बीज, रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक के प्रयोग में ये निपुण थे | यह बैंक इनकी अपनी संस्था थी जो इन्हें खेती के लिए आवश्यकतानुसार ऋण भी उपलब्ध कराती थी | बैंक का सालाना लाभ दस लाख रुपए तक निश्चित ही हो जाता था | एक करोड़ रुपए की रकम गाँव के किसानों ने अपनी गाढ़ी कमाई और बचत से बैंक के पास अमानत के तौर पर जमा रखी थी जिससे बैंक की व्यावसायिक जरूरत पूरी होती थी | गाँव की महिलाएँ किसी न किसी स्वनिर्भर समूह से जुड़ी थीं और आर्थिक रूप से स्वच्छंदता को महसूस करती थीं | गाँव में एक सरकारी स्कूल और स्वास्थ्य केंद्र भी ठीक ठाक काम कर रहे थे |

2.
दिनभर के चुनाव कार्य के बाद मतगणना समाप्त हो चुकी थी | विजयी उम्मीदवारों को पुलिस अपनी हिफाजत में बाहर ले जा रही थी | रास्ते के दोनों ओर लोग लगभग दहशत में खड़े थे | उस लड़के ने उसी समय अपने स्मार्ट फोन का कैमरा ऑन कर लिया था | थाना प्रभारी जो मौके पर सुबह से ही मौजूद था लड़के की इस हरकत पर आपे से बाहर हो गया | थाना प्रभारी ने लड़के का गिरेबान पकड़ कर उसे खींचा और उसके ऊपर जोरदार प्रहार किया | लड़का नीचे गिर पड़ा | लड़के का स्मार्ट फोन जब्त करने के बाद उसे पुलिस की जीप में लेकर वह थाने की तरफ निकल गया | इस काम को बिजली की गति से अंजाम दिया गया था लिहाजा इससे पहले कि वहाँ जमा लोग कुछ भी समझ पाते, लड़का पुलिस हिरासत में था | यह बैंक के प्राक्तन सचिव का इकलौता बेटा था जो शहर के प्रतिष्ठित कॉलेज में पढ़ता था और खास तौर पर इस चुनाव में वोट डालने के लिए गाँव आया हुआ था |

राजनीति उस जोरन की तरह है जो सद्भाव रूपी दूध में जब पड़ जाता है तो वह दूध अपना प्राकृतिक स्वरूप ही खो देता है | उसे दही में बदलते बहुत देर नहीं लगती है | राजनीति की जोरदार पैठ इस गाँव में भी थी | महिला पुरुष समेत कम से कम 2000 की आबादी का गाँव था यह | पिछले तीस वर्षों से इस बैंक के बोर्ड में एक ही दल के लोग काबिज रहते आए थे | बैंक के पिछले बोर्ड ने सदस्यता बढ़ाने में कोई रुचि नहीं दिखाई क्योंकि उसे इस बात की आशंका थी कि नए सदस्यों की राजनैतिक समझ उनसे भिन्न भी हो सकती है और ऐसी स्थिति में बैंक पर से उनका वर्चस्व भविष्य में कभी भी समाप्त हो सकता था | सदस्यता के नए आवेदन को वे यह कर कर टाल देते कि उस परिवार से एक सदस्य तो पहले ही है | नई उम्र के लोग बात को बहुत तूल न देकर शहर के निजी बैंकों में खाता खोले हुए थे हालांकि शहराती बैंकों की अपेक्षा यह बैंक अधिक सुविधाजनक था | उन्हें उम्मीद थी कि कभी जब बोर्ड बदलेगा तो उनके आवेदन भी मंजूर कर लिए जाएँगे |

इधर पिछले कुछ वर्षों में रियासत में निजाम बदलने के बाद गाँव-दखल , पंचायत- दखल, जिला-दखल जैसे नारे ज़ोर शोर से समाचार माध्यमों में सुर्खियों में आ रहे थे | बदले हुए निजाम में बैंक के बोर्ड पर शासक दल अपना कब्जा चाहता था | इतिहास अपने आप को शायद इसी तरह दोहराता है | खेल वही चलता रहता है | खिलाड़ी बदल जाया करते हैं | नहीं बदलता है कुछ तो वह है खेल का नियम | चुनाव पंचायत स्तर का था जिसमें कुल मतदाता महज 726 की संख्या में थे | गाँव की पंचायत, विरोधी दल के कब्जे में थी जबकि विधान सभा में इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व शासक दल का विधायक कर रहा था | गाँव के किसानों के इस बैंक में अब तक बोर्ड के सारे सदस्य विरोधी दल से ताल्लुक रखने वाले थे | जिस दिन से नए बोर्ड के गठन के लिए चुनाव की घोषणा हुई थी उसी दिन से शासक दल ने इसे जीतने के लिए जोड़ तोड़ शुरू कर दी थी | स्वतःस्फूर्त और निष्पक्ष चुनाव की सूरत में इस बदली परिस्थिति में  शासक दल की हार निश्चित थी जिसे अगले ही साल होने वाले विधानसभा चुनावों के मद्देनजर शासक दल किसी भी सूरत में जीत में बदलने के लिए दृढ़संकल्प था | इसकी तैयारियां बहुत पहले ही शुरू हो गई थीं

3.
बैंक के पुराने बोर्ड के सचिव गाँव के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे और उनकी लोकप्रियता असंदिग्ध थी | उन्हें मतदान में हराना असंभव था | इधर शासक दल के समर्थकों ने उन्हें धमकाना शुरू कर दिया था जिससे वे उम्मीदवार ही न बनें | लेकिन जब धमकियों से बात बनती न दिखी तो थाने में प्राक्तन सचिव के खिलाफ महिला यौन उत्पीड़न का केस दर्ज करा दिया गया | केस गैर जमानती था | स्थानीय विधायक भी इस चुनाव में पूरी दिलचस्पी ले रहा था | मजे की बात यह कि इलाके का थाना प्रभारी विधायक का साला था | खेल जम गया | सचिव को गाँव छोड़ कर भूमिगत हो जाना पड़ा | किन्तु किसी तरह नामांकन पत्र उनका जमा हो चुका था इसलिए उम्मीदवारी तय हो गई थी | इधर शासक दल गाँव के प्राइमरी स्कूल के एक दबंग अध्यापक को नए सचिव के तौर पर प्रोजेक्ट कर रहा था सबसे पहले विभागीय जिला अधिकारी पर दबाव बनाने का काम शुरू किया गया | मंत्री से लेकर जिला परिषद अध्यक्ष और स्थानीय विधायक की तरफ से स्पष्ट वार्ता दे दी गई कि शासक दल का बोर्ड ही वहाँ सुनिश्चित करना होगा | विभागीय अधिकारी सरकार पक्ष की तरफ से गठित चुनाव आयोग के द्वारा रिटर्निंग ऑफिसर नियुक्त थे | मामले की गंभीरता को समझते हुए इस चुनाव के लिए एक विश्वस्त असिस्टेंट रिटर्निंग ऑफिसर को उन्होने ज़िम्मेदारी सौंप दी | चुनाव के लिए ड्राफ्ट वोटर लिस्ट तैयार करने और चुनावी कार्यक्रम की अधिसूचना जारी करने के दौरान स्थानीय थाना प्रभारी और विधायक के साथ असिस्टेंट रिटर्निंग ऑफिसर की कई बैठकें हुईं |
बैठक के दौरान थाना प्रभारी के प्रस्ताव को सुनकर असिस्टेंट रिटर्निंग ऑफिसर को यकीन हो चला कि यह चुनाव इतना आसान नहीं होने वाला | भविष्य में उसकी नौकरी खतरे में पड़ सकती है, अगर ऐसे विकट प्रस्ताव पर अमल किया गया | थाना प्रभारी ने अपने चैंबर में सिगरेट का कश खींचने के बाद धुंवा छोडते हुए जो प्रस्ताव रखा था वह भयानक था |
देखिए, आप ऐसा कीजिए कि दो सेट बैलट छपवाइए | एक सेट पर आप बूथ पर मतदान करवाइए | दूसरे पर हमारे लोग मुहर लगाएंगे | काउंटिंग से पहले आप बक्से बदल देंगे” |
“इसकी जरूरत क्या है” ? असिस्टेंट रिटर्निंग ऑफिसर ने असहज होते हुए अपना पैंतरा बदला , “आपको जीतने से ही मतलब होना चाहिए | तरीका हमें तय करने दीजिए” |
चुनाव को लेकर गाँव का माहौल उत्तप्त था | पिछली रात को ही थाना से पुलिस की जीप में सिपाही आए थे और विरोधी दल के चार युवा समर्थकों को ले जाकर लॉक अप में डाल दिया | उन पर आपराधिक मामले ठोंक दिए थे पुलिस ने | सुबह नौ बजे से मतदान आरंभ होना था | आठ बजे के लगभग जब चुनाव कर्मियों को लेकर तीन चार गाड़ियों ने गाँव की सीमा में प्रवेश किया तो मंजर किसी बड़े चुनावी जंग जैसा नजर आया | बूथ के सौ मीटर के रेंज में पुलिस ने बैरीकेटिंग कर रखी थी |  सौ डेढ़ सौ की संख्या में पुलिस कर्मी परिसर को घेरे हुए थे | मतदान के लिए बने तीन बूथों के साथ एक बड़ा सा पंडाल बनाया गया था जिसमें प्रवेश करने वालों की जांच पड़ताल चल रही थी | डी वाई एस पी मौके पर खुद मौजूद थे | थाना प्रभारी सुरक्षा व्यवस्था का जायजा लेते हुए टहल रहे थे | बूथ संलग्न इलाके में धारा 144 लगी हुई थी |
सुबह सात बजे से ही बूथ संख्या तीन पर भारी संख्या में लोग कतार में खड़े थे | इनमें महिलाएँ और बुजुर्ग बड़ी तादाद में थे | कुछ महिलाओं की गोद में शिशु भी थे जो टुकुर टुकुर देख रहे थे और समझ नहीं पा रहे थे कि आस पास क्या हो रहा है | अन्य बूथों पर भी वोटर कतार में खड़े थे | जिला स्तर के कुछ नेता जो शासक दल की तरफ से जिला परिषद सदस्य भी थे मोटर बाइक पर गश्त लगा रहे थे | लगभग चार पाँच सौ की संख्या में लोग बूथ के सौ मीटर के दायरे में फैले हुए थे | रिटर्निंग ऑफिसर बूथ के बाहर ही थाना प्रभारी के साथ बैठे स्थिति पर नजर बनाए हुए थे | ठीक नौ बजे मतदान शुरू हुआ |
बैलट पेपर पर उम्मीदवारों के नाम और उनके चुनाव चिन्ह सिलसिलेवार छपे हुए थे | चूंकि यह किसानों के एक बैंक का चुनाव था इसलिए राजनैतिक दलों के चुनाव चिन्ह यहाँ व्यवहार में नहीं लाए जा सकते थे | बैंक के बोर्ड के लिए छह सदस्यों को इनमें से चुना जाना था |

4.
शुरू के डेढ़ दो घंटे मतदान लगभग शांतिपूर्ण ढंग से चलता रहा | पहचान पत्र के साथ लोग आते और मतदान करके चले जाते | इसके बाद पीठासीन अधिकारियों ने लक्षित किया कि लगभग हर दूसरे वोटर के साथ एक कंपेनियन वोट डालने आने लगा | कंपेनियन वोटर ! यह कुछ कुछ वैसा ही था कि जैसे क्रिकेट मैच के दौरान किसी बल्लेबाज को चोट आ जाए तो वह अपनी सहायता के लिए एक रनर बुलावा सकता है | बल्लेबाज शॉट खेलता है और रनर उसके बदले दौड़ कर रन बनाता है | चुनाव की नियमावली में इसी तरह कंपेनियन वोटर का एक प्रावधान होता है | यह उनके लिए प्रयोज्य है जो अंधे हों, शारीरिक रूप से अक्षम हों या निरक्षर हों | वे अपनी सहायता के लिए एक सहायक या कंपेनियन बूथ तक ले जा सकते हैं | आम चुनावों में ऐसे कंपेनियन उसी बूथ के वोटर भी हों यह अनिवार्य नियम होता है लेकिन इस चुनाव में ऐसी किसी अनिवार्यता कि बात स्पष्ट नहीं थी | तो कोई भी व्यक्ति जो उस वोटर को पसंद हो वह उसका कंपेनियन हो सकता था , भले ही वह किसी दूसरे गाँव का ही क्यों न हो | नियमावली की यह फाँक शासक दल को विभागीय अधिकारी ने दिखला दी थी | बाहर के गांवों से चार पाँच सौ लोग इसी तैयारी के साथ बुलवा लिए गए थे | यह बात पुलिस और प्रशासन के संज्ञान में पहले से ही थी | इस प्रक्रिया में ग्यारह बजे के बाद मतदान की गति धीमी होती गई और लोगों का जमावड़ा बढ़ता गया | कतार में लगभग हर दूसरे वोटर के साथ एक बहिरागत साये की तरह लगा हुआ था | वोटर की पहचान होती, उसे बैलट इशू होता और उस बैलट के साथ वह बहिरागत कंपेनियन मतदान कक्ष में प्रवेश कर जाता | वोटर बेचारा असहाय देखता रह जाता | यह दृश्य बदस्तूर चल रहा था | तभी दो नंबर बूथ पर अचानक तनावपूर्ण स्थिति बनती हुई नजर आई | बूथ के पीठासीन अधिकारी ने पूछताछ आरंभ कर दी थी |
महिला वोटर थी | जैसे ही बैलट उसके हाथ में आया उसके साथ वाले व्यक्ति ने उसे लपक लेना चाहा | लेकिन उसने तभी पीठासीन अधिकारी की तरफ देखते हुए उससे फरियाद की |
“साहब, मैं अपना वोट खुद डाल सकती हूँ लेकिन ये ज़बरदस्ती मेरे साथ घुसे चले आ रहे हैं” |
“क्यों भाई, आप कौन” ?
“सर, मैं इनका वोट डालूँगा” |
“क्यों, अप क्यों इनका वोट डालेंगे जबकि ये कह रही हैं कि ये अपना वोट खुद डाल सकती हैं” |
“ऐ, बैलट मुझे दे” |
“अरे, अरे, आप इधर आयें ... क्या तकलीफ है आपको ? आखिर वोटर ये हैं या आप .. आप बाहर जाएँ..” |
वह व्यक्ति जो कंपेनियन वोटर की हैसियत से बूथ के भीतर दाखिल हुआ था अब अपने रौद्र रूप में आ चुका था | दाहिने हाथ से उसने पीठासीन अधिकारी की छाती पर धक्का देते हुए बाँये हाथ से महिला से बैलट छीन लिया और बूथ के भीतर जाकर मुहर लगाने लगा | पीठासीन अधिकारी इस आकस्मिक हमले से बड़ी मुश्किल से संभला | तभी बूथ संलग्न पंडाल के बाहर विधायक की गाड़ी पूरे लाव लश्कर के साथ आकार रुकी | विधायक को बूथ की हर घटना की पल पल की खबर दी जा रही थी | गाड़ी से उतरते ही वह डी वाई एस पी पर भड़क उठा |
“आप लोग यहाँ क्या कर रहे हैं ! आपसे कहा गया था कि यहाँ पुलिस फोर्स कि जरूरत नहीं है” |
“सर, हम तो बस अपना काम कर रहे हैं” |
“तुम लोग ऐसे नहीं समझोगे बात को .. लातों के भूत हो तुम सब | अभी हटाओ फोर्स को यहाँ से” !
इसके बाद विधायक रिटर्निंग ऑफिसर की तरफ बढ़ा |
“और .. आप कर क्या रहे हैं यहाँ ! आखिए सरकार किसलिए पोस रही है आपलोगों को .. जनता के पैसे से वेतन दिया जाता है आपको” !
“सर, सबकुछ शांतिपूर्ण ढंग से हो रहा है” |
“क्या शांतिपूर्ण हो रहा है ! यहाँ क्या लोकसभा का चुनाव हो रहा है ! सुन लीजिए , कोई पहचान पत्र नहीं चेक किया जाएगा यहाँ..” |
विधायक की गाड़ी के हटते ही बूथ परिसर का माहौल एकदम से बदल गया | पुलिस बूथ छोड़ कर सड़क पर कुर्सियाँ डाल कर बैठी रही | दूसरे गांवों से आए चार पाच सौ लोग पंडाल के भीतर आ गए | धारा 144 की धज्जियां, धुनी जा रही रुई के फाहों सी उड़ती रहीं |

5.
ठीक दो बजे मतदान समाप्त हुआ | अब मतगणना कि बारी थी | ऐसे चुनावों में मतदान के तुरंत बाद ही गणना आरंभ कर देनी होती है | चुनाव के फलाफल भी मतगणना के अंत में घोषित कर दिए जाते हैं | बूथ नंबर एक पर शासक दल के पैनल को ठीक ठाक बढ़त मिल रही थी | बूथ नंबर दो पर भी यह बढ़त बनी रही | तीसरे बूथ के परिणाम में विलंब हो रहा था | इधर शासक दल के पैनल के जीत की गंध मिलते ही उनके तमाम समर्थक एक दूसरे के चेहरे पर गुलाल मलने लगे | उत्सव का दृश्य बन रहा था | लेकिन बूथ नंबर तीन के परिणाम ने गणित को उलट दिया था | मुक़ाबला कांटे का हो रहा था | अंतिम राउंड की मतगणना के मुताबिक छह सदस्यों वाले नए बोर्ड में शासक दल के तीन और विरोधी दल के पैनल से तीन सदस्य जीत रहे थे | पिछले बोर्ड के सचिव जो भूमिगत रह कर चुनाव लड़ रहे थे उनके जीतने की खबर चौंकाने वाली थी सबके लिए | 726 वोटरों में से 233 कंपेनियन वोट पड़े थे |
परिणाम घोषित किए जाने का वक़्त आ गया था | नए बोर्ड में दोनों पैनलों से तीन-तीन सदस्य जीते थे | शासक दल के समर्थक उत्तेजित थे | पीठासीन अधिकारियों को मारने की खुली धमकी देने लगे |
“साले, हमारी सरकार से वेतन लेते हो .. किसी काम के नहीं .. टाँगें तोड़ कर वापस भेजेंगे आज तुम सबको” !
इस परिणाम ने स्थिति को जटिल बना दिया था | बैंक के नियमों के मुताबिक छह सदस्यों के बोर्ड में किसी जरूरी फैसले के लिए कम से कम चार का समर्थन जरूरी था | इतना ही नहीं बोर्ड की मीटिंग के लिए भी कोरम भी चार सदस्यों की उपस्थिति से ही पूरा होता था | मिलजुल कर काम करने की संभावना नहीं दिख रही थी | लेकिन इस जटिलता का कोई जादुई हल निकालना ही होगा रिटर्निंग ऑफिसर को | चलते चलते उसने फोन पर विधायक को आश्वस्त करते हुए बड़ी मुलायमियत भरी आवाज़ में कहा, “सर, सात दिन के बाद ही ऑफिस बियरर इलेक्ट कर देंगे हम .. आप बिलकुल चिंता न करें सर ..” | इस बीच उसे उस लड़के का ख्याल आया जिसे पुलिस जीप में थाना प्रभारी थोड़ी देर पहले ले गया था | थाना प्रभारी से कह तो दिया था, “बच्चा है, केस मत दीजिएगा.. कैरियर खराब हो जाएगा बच्चे का ..” पर क्या वह उसकी बात मानेगा ?
सूरज ढलने को था | चुनाव कर्मी गाड़ियों में वापस लौट रहे थे | हाथ में गुलाल लिए कुछ लोग किंकर्तव्यविमूढ़ भाव से खड़े थे | चुनावी आंकड़ों के आधार पर यह साबित करने में कोई कठिनाई नहीं थी कि गाँव के 726 मतदाताओं में से 233 या तो अंधे थे या शारीरिक रूप से अक्षम या फिर निरक्षर | चुनाव कि भाषा में ब्लाईंड, इंफर्म ऐंड इल्लीटेरेट वोटर्स ! क्रिकेट की भाषा में इतने ही रनर !
संपर्क : 
नील कमल
244, बांसद्रोणी प्लेस (मुक्त धारा नर्सरी स्कूल के निकट) 
कोलकाता – 700070

मोबाइल – (0) 9433123379          

Tuesday, October 24, 2017

प्रेम के पाठ

कहानी 

रमेश उपाध्याय
कहे अनकहे रूप में पिछले दिनों प्रेम कहानियों का खूब जोर रहा। बहुत सी पत्रिकाओं ने विशेषांक भी निकाले। बहुत सी अच्छीा कहानियां भी पढ़ने को मिली। लेकिन विशेषांकों से इतर प्रकाशित हुई कथाकार रमेश उपाध्या़य की कहानी ही स्मृोतियों में उछलती रही। बहुत ही सहजता और थोड़े खिलंदड़े अंदाज में लिखी गई इस कहानी पर भिन्नत राय भी हो सकती है कि यह तो प्रेम कहानी है ही नहीं। मैं भी यहां इसे इस दावे के साथ नहीं प्रस्तु त कर रहा हूं। पर एक बात तो है कि प्रेम को परिभाषित करने की चेष्टात तो इसमें साफ दिखती है। कथाकार रमेश उपाध्या य जी का आभार कि उन्होंतने हमारा मान रखा और कहानी को पुन: प्रकाशित करने की अनुमति प्रदान की।

वि.गौ. 


हमारे जीवन का मूल मंत्र था मजे में रहना। और इसका तरीका हमने बचपन में ही सीख लिया था: थोड़ा-सा बेवकूफ (होना नहीं) दिखना। लोग आपको थोड़ा-सा बेवकूफ समझते रहें और आप मजे में रहते रहें, इसमें क्या बुराई है? 

हमारे परिवार में परीक्षाओं में प्रथम आने की परंपरा थी। पिताजी हमेशा हर कक्षा में प्रथम आये थे। भाईसाहब भी उनके नक्शे-कदम पर चलते थे और वे भी हमेशा हर कक्षा में प्रथम आते थे। हमेशा हर कक्षा का मतलब है कि क्लास टेस्ट हो, तिमाही, छमाही या सालाना इम्तिहान हो, फस्र्ट ही आना है। पिताजी अपने जमाने के फस्र्ट क्लास फस्र्ट बी.ए. पास थे। भाईसाहब भी हमेशा फस्र्ट आते थे। आगे चलकर वे एम.ए. फस्र्ट क्लास और ऊपर से गोल्ड मेडलिस्ट हुए। जाहिर है कि पिताजी और भाईसाहब ने हमारे सामने अपना-अपना आदर्श प्रस्तुत करते हुए हमसे भी इसी परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए कहा। लेकिन हमारी जीजी के लिए प्रथम आने की कोई शर्त नहीं थी, क्योंकि उनकी पढ़ाई हाई स्कूल तक ही होनी थी, जिसके बाद उनकी शादी कर दी जाने वाली थी।

प्रेम करने का निश्चय करने के बाद हमारे सामने समस्या उठी कि प्रेम किस लड़की से किया जाये। हमारी देखी हुई फिल्मों और पढ़ी हुई कहानियों के अनुसार लड़की सुंदर तो होनी ही चाहिए थी, साथ ही ऐसी भरोसेमंद भी अवश्य होनी चाहिए थी, जो प्रेम-प्रसंग में गोपनीयता के महत्त्व को समझती हो। अगर उसने स्कूल में या अपने घर जाकर हमारी शिकायत कर दी, तो पिटाई निश्चित थी। बाहर पिटकर हमारे बदनाम होने की और उस बदनामी के कारण पुनः घर में पिटने की प्रबल आशंका थी। हम जानते थे कि जब पिताजी के करकमलों से हमारी पिटाई होगी, तब भाईसाहब यह भूल जायेंगे कि वे भी कभी प्रेम करते थे और हम उनके कासिद बनकर उनकी सेवा किया करते थे। ऐसी सुंदर और भरोसेमंद प्रेमिका खोजने के लिए हमने गली-मुहल्ले की लड़कियों से लेकर स्कूल में साथ पढ़ने वाली लड़कियों तक खूब नजर दौड़ायी, पर इन दोनों गुणों से युक्त कोई लड़की नजर न आयी। जो लड़कियाँ सुंदर थीं, वे भरोसेमंद नहीं थीं। जो भरोसेमंद हो सकती थीं, वे सुंदर नहीं थीं। अंततः हमें अपनी ममेरी बहन माधुरी याद आयी, जो बहुत सुंदर थी और अपने जेबखर्च के लिए मामा-मामी से मिले पैसे कभी-कभी चोरी से हमें सिनेमा देखने के लिए दिया करती थी। मामा-मामी सिनेमा कभी-कभार ही देखते थे और बड़ी होती इकलौती लड़की को सिनेमा के दुष्प्रभावों से बचाने के लिए उसे प्रायः धार्मिक फिल्में ही दिखाते थे। माधुरी हमें सिनेमा देखने के लिए चोरी-चोरी पैसे क्यों देती थी?
लेकिन हमेशा फस्र्ट आने का जो तरीका पिताजी और भाईसाहब ने हमें बताया, बालबुद्धि होते हुए भी हमें काफी मूर्खतापूर्ण लगा। टाइमपीस में चार बजे का अलार्म लगाकर सोओ। घंटी बजते ही उठ बैठो। उठते ही लोटा भर पानी पियो और पाखाने जाओ। लोटा भर से जरा भी कम पिया, तो पेट साफ नहीं होगा। पेट साफ नहीं हुआ, तो नींद आयेगी या सिर में दर्द होगा या यूँ ही पढ़ाई में मन नहीं लगेगा। पाखाने से निकलते ही गर्मी हो या कड़ाके की सर्दी, ठंडे पानी से नहा डालो। नहाकर साफ धुले हुए कपड़े पहनो और पढ़ने बैठ जाओ। बिस्तर पर नहीं, बाकायदा मेज-कुर्सी पर। पिताजी कहते थे, ‘‘तुम तो बड़े खुशकिस्मत हो कि मेज-कुर्सी और बिजली की रोशनी जैसी सुविधाएँ उपलब्ध हैं। हमारे जमाने में तो किरासिन की ढिबरी या लालटेन की रोशनी में जमीन पर बोरी बिछाकर पढ़ने बैठना पड़ता था।’’ 

हमें आदेश था कि स्कूल जाने के समय से एक घंटा पहले तक कल का पढ़ाया गया सब कुछ इस तरह दिमाग में बैठा लो कि क्लास में जो भी पूछा जाये, फौरन बता सको। जो भी सवाल दिया जाये, फटाफट हल कर सको। अब जो एक घंटा तुम्हारे पास है, उसी में तुम्हें अपना बस्ता लगाना है, नाश्ता करना है, ब्रश करना है, यूनिफाॅर्म पहननी है और स्कूल पहुँचना है। स्कूल में हर पीरियड में पूरा मन लगाकर पढ़ना है, रिसेस में टिफिन खाना है, खेल के पीरियड में खेलना है। घर आकर, कपड़े बदलकर, हाथ-मुँह धोकर, खाना खाकर एक घंटे सोना है। शाम को एक घंटा खेलने जा सकते हो, पर एक घंटे से एक मिनट भी फालतू नहीं। खेलकर आने के बाद अगर गर्मियाँ हैं तो नहाकर और सर्दियाँ हैं तो हाथ-मुँह धोकर भीगे हुए बादाम चबाते हुए एक गिलास दूध पीकर होम वर्क करने बैठ जाना है। चाहे आधी रात ही क्यों न हो जाये, उसे पूरा करके ही खाना और सोना है। वैसे मन लगाकर पढ़ोगे, तो होम वर्क फटाफट निपटा सकोगे और जल्दी से खाकर जल्दी सो सकोगे। भाईसाहब इस आदेश में अंग्रेजी की एक लाइन भी जोड़ दिया करते थे, ‘‘अर्ली टु बेड एंड अर्ली टु राइज, मेक्स अ मैन हैल्दी वैल्दी एंड वाइज।’’ 

भाईसाहब ने पता नहीं कैसे पिताजी के नक्शे-कदम पर चलना या उनके उपदेशों पर अमल करना सीख लिया होगा! हमें तो यह अनुशासन कड़ी सजा जैसा लगा और लगा कि ऐसी जिंदगी जीने में क्या मजा। हमेशा हर कक्षा में प्रथम आना आखिर क्यों जरूरी है? फस्र्ट क्लास फस्र्ट ही क्यों? सेकेंड क्लास फस्र्ट या फस्र्ट क्लास सेकेंड में क्या बुराई है? पिताजी पुराने जमाने के हैं, इसलिए कहते हैं, ‘‘पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे-कूदोगे होगे खराब’’। उनके जमाने में नवाब होते होंगे, अब कहाँ होते हैं। होते भी हों, तो नवाब रामपुर या नवाब धामपुर कौन बनना चाहेगा? नवाब ही बनना है, तो क्रिकेट वाले नवाब पटौदी न बनेंगे! पढ़ेंगे-लिखेंगे, पास भी अच्छे से होंगे, लेकिन फस्र्ट क्लास फस्र्ट आने के लिए की जाने वाली कठोर तपस्या नहीं करेंगे। खेलेंगे-कूदेंगे, पर खराब नहीं होंगे। होंगे नहीं, पर थोड़े-से बेवकूफ दिखेंगे और मजे में रहेंगे। जैसा किसी लोकोक्तिकार ने कहा भी है, ‘‘जो सुख चाहे जीव को, तो हौलू बनके रह!’’ 

अपने इस मूल मंत्र के मुताबिक हमने तय किया कि फेल नहीं होंगे, लेकिन फस्र्ट आने के चक्कर में नहीं पड़ेंगे। पहली बार सेकेंड आये, तो पिताजी ने हमारे दोनों कान उमेठकर उनमें खूब सदुपदेश भरे और भाईसाहब ने रिजल्ट देखकर हमारे गाल पर एक थप्पड़ जड़ते हुए अपना आदर्श हमारे सामने रखा। कान के दर्द और गाल की चोट के अनुपात में हम कुछ ज्यादा ही जोर से रोये, ताकि अम्मा और जीजी का कोमल नारी हृदय पसीज उठे और वे हमारी रक्षा के लिए सन्नद्ध हो उठें। वैसे भी हम अम्मा के ‘पेटपोंछना’ और जीजी के दुलारे ‘छुटकू भैया’ होने के कारण दोनों के लाड़ले थे। घर में सबसे छोटे होने के कारण सबका प्यार-दुलार पाने के न्यायोचित अधिकारी भी थे ही। अतः पिताजी और भाईसाहब ने एक लिमिट में रहकर ही हम पर सख्ती बरती। 

लेकिन उन्होंने हमें यह समझाने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी कि हम सेकेंड आने वालों में सबसे अधिक नंबर लाये हैं, इसलिए हम में बुद्धि और प्रतिभा कम नहीं है, केवल थोड़ी मेहनत और करने की जरूरत है; फिर हमें फस्र्ट आने से कोई नहीं रोक सकता। लेकिन हमने अगली दो-तीन कक्षाओं में सेकेंड आना और उन दोनों ने हल्की सजा और भारी उपदेश देना जारी रखा, तो हमने अगले साल थोड़ा प्रयास किया और थर्ड आ गये। परिणाम जो होना था, हुआ। सख्त सजा मिली और पहले से भी ज्यादा वजनी उपदेश सुनने पड़े। लेकिन भविष्य में सेकेंड आते रहने का हमारा रास्ता साफ हो गया, क्योंकि थर्ड से सेकेंड आना बेहतर समझा गया। हमारे परीक्षकों ने भी हम पर दया दिखायी कि पूरे शिक्षाकाल में हमें हमेशा फस्र्ट क्लास सेकेंड आने लायक नंबर दिये और दो बार तो गोल्ड मेडल जैसा भी दिया कि दो-दो नंबर कम देकर हमारी फस्र्ट डिवीजन रोक ली। 

हमारे परिवार में सब पढ़े-लिखे थे। अम्मा अंग्रेजों के जमाने की मिडिल पास थीं, पिताजी अंग्रेजों के जमाने के बी.ए. पास। भाईसाहब और जीजी भी आजादी से पहले पैदा हुए थे। एक हम ही थे, जो उसी साल पैदा हुए, जिस साल देश आजाद हुआ। कारण यह था कि भाईसाहब और जीजी की उम्र में तो दो ही साल का अंतर था, पर हम जीजी के छह साल बाद पैदा हुए थे। इस प्रकार जब हम पाँच साल के थे और पहली में पढ़ते थे, जीजी ग्यारह साल की थीं और छठी में पढ़ती थीं, जबकि भाईसाहब तेरह साल के थे और आठवीं में पढ़ते थे। पिताजी अध्यापक थे और एक इंटर काॅलेज में पढ़ाते थे। 

पिताजी पढ़ाने के बड़े शौकीन थे। बाहर तो पढ़ाते ही थे, घर में भी खूब पढ़ाते। उन्होंने हमें शुरू से ही प्रेम के पाठ पढ़ाये थे। उन असंख्य पाठों में से कुछ थे: अपने परमात्मा से प्रेम करो। अपने धर्म से प्रेम करो। अपनी जाति से प्रेम करो। अपनी भाषा से प्रेम करो। अपनी सभ्यता से प्रेम करो। अपनी संस्कृति से प्रेम करो। अपनी परंपराओं से प्रेम करो। अपने परिवार से प्रेम करो। अपने पड़ोसियों से प्रेम करो। अपने देश और देशवासियों से प्रेम करो। अपनी दुनिया और दुनिया भर के लोगों से प्रेम करो। 

अजीब बात थी कि जिन से प्रेम करने को कहा जाता था, वे या तो अमूर्त होते थे, या पुरुष, क्योंकि स्त्रियों से प्रेम करने का कोई पाठ हमें नहीं पढ़ाया गया। स्त्रियों को हमारे यहाँ पूज्य माना जाता था, प्रेम्य नहीं। हमें शिष्टाचार के जो पाठ पढ़ाये गये थे, उनमें से एक यह था कि गुरुजन यानी बड़े तो पितातुल्य आदरणीय होते हैं--जैसे पिताजी, भाईसाहब और तमाम तरह के दादा, बाबा, चाचा, ताऊ, मामा, मौसा, शिक्षक, साधु, संत, पुजारी इत्यादि--किंतु स्त्रियाँ बड़ी हों या छोटी, सभी माता के समान पूजनीय होती हैं। ‘‘मातृवत परदारेषु’’ का अर्थ समझाते हुए पिताजी हमसे कहा करते थे कि परायी स्त्रियों को माँ के समान मानना चाहिए, अर्थात् तुम्हारी एक संभावित पत्नी को छोड़कर संसार में जितनी भी स्त्रियाँ हैं, सब माँ के समान हैं और माँ पूजनीय होती है, इसलिए वे सब भी पूजनीय हैं। वे तुमसे उम्र में बड़ी हों या छोटी, सब माँ के समान हैं।

एम.ए. फाइनल में हमारे साहित्यकार प्रोफेसर हमें मध्यकालीन काव्य और उसका इतिहास पढ़ाते थे। जब से उन्होंने हमारी कविताएँ प्रकाशित करायी थीं, हम उन्हें अपना साहित्यिक गुरु मानने लगे थे। वे प्रगतिवादी माने जाते थे, लेकिन हमें वे खासे परंपरावादी लगते थे। हम से कहते थे, ‘‘अच्छे कवि बनना चाहते हो, तो मध्यकालीन काव्य को ध्यान से पढ़ो। रीतिकाल और भक्तिकाल की कविता को समझे बिना तुम न तो हिंदी कविता को समझ सकते हो, न हिंदी में अच्छी कविता लिख सकते हो--खासकर प्रेम कविता--क्योंकि प्रेम और प्रेम कविता के अच्छे-बुरे तमाम तरह के रूप तुम्हें उसी में मिलेंगे, जिनसे तुम यह सीख सकते हो कि अच्छी प्रेम कविता क्या होती है। और देखो, एम.ए. के पाठ्यक्रम में जितना रीतिकालीन और भक्तिकालीन काव्य लगा हुआ है, उतना ही पढ़ने से दूसरे छात्रों का काम शायद चल जाये, तुम्हारा चलने वाला नहीं है। इसलिए उसे विस्तार से और गहराई से पढ़ो।
‘‘उम्र में छोटी भी?’’ यह पूछने पर पिताजी बताते थे, ‘‘परदारा वही नहीं है, जो विवाहित होकर परायी हो चुकी है। जो कल विवाहित होकर परायी बनने वाली है, वह भी परदारा है। इसलिए उम्र में छोटी कुँवारी लड़की भी मातृवत है और पूजनीय है। वैसे ही, जैसे छोटी बहनें, सगी छोटी बहनें और अपनी बेटियाँ भी पूज्य होती हैं। राखी बँधवाते समय छोटी बहन के भी पाँव छुए जाते हैं, बेटी के विवाह के समय उसके भी पाँव छुए जाते हैं। क्यों? इसलिए कि वे भी परदारा हैं। इसीलिए उन्हें पराया धन कहा जाता है।’’

हमें याद था कि जब तक जीजी की शादी नहीं हुई थी, हम अम्मा के साथ जीजी के भी पाँव छुआ करते थे। हमारी कोई छोटी बहन तो थी नहीं, इसलिए कानपुर में ही रहने वाले हमारे मामा की बेटी माधुरी हमें राखी बाँधती थी। राखी बँधवाते समय हम उसके भी पाँव छुआ करते थे और वह नटखट हमें बड़ी-बूढ़ियों की तरह आशीर्वाद दिया करती थी। जीजी की शादी हो गयी और भाभी आ गयीं, तो हमें उनके भी पाँव छूकर प्रणाम करने को कहा गया। समझाया भी गया, ‘‘बड़ा भाई पिता के समान होता है, तो भाभी माँ के समान हुई न!’’

किशोरावस्था से निकलकर युवावस्था में प्रवेश करते समय ही हमें फिल्में देखने के साथ-साथ ‘माया’ और ‘मनोहर कहानियाँ’ नामक पत्रिकाओं में प्रेम कहानियाँ पढ़ने का चस्का लग चुका था। संक्षेप में, हम चाहने लगे थे कि हम भी किसी से प्रेम करें। लेकिन पिताजी ने ‘‘परदारेषु मातृवत’’ का पाठ पढ़ाकर हमारे लिए मानो प्रेम के सभी मार्ग बंद कर दिये थे, क्योंकि उस पाठ के अनुसार हमारी दूर भविष्य में संभावित पत्नी के अतिरिक्त संसार की समस्त स्त्रियाँ परदारा या तो थीं या भविष्य में हो जाने वाली थीं। मुहल्ले-पड़ोस की और स्कूल में हमारे साथ पढ़ने वाली वे सुंदर-सुंदर लड़कियाँ भी, जिनसे प्रेम करने को हमारा मन मचलता था, पराया धन की श्रेणी में आती थीं और ‘‘परदारेषु मातृवत’’ वाले श्लोक में ही आगे का सूत्र था ‘‘परद्रव्येषु लोष्टवत’’ अर्थात् पराये धन को ‘लोष्ट’ यानी मिट्टी के ढेले के समान मानना चाहिए। इसके अनुसार जैसे रास्ते में पड़े ढेलों की तरफ ध्यान नहीं दिया जाता, वैसे ही हमें लड़कियों की तरफ ध्यान नहीं देना चाहिए था। आखिर हम अभी विद्यार्थी थे और पिताजी द्वारा बार-बार सुनाया हुआ ‘‘काकचेष्टा वकोध्यानम्’’ वाला वह श्लोक हमें हमेशा याद रखना था, जिसके अनुसार विद्यार्थी के पाँच लक्षणों में सबसे मुख्य लक्षण यह है कि वह अपनी पढ़ाई पर (केवल कोर्स की पढ़ाई पर) ही ध्यान केंद्रित किये रखने वाला हो। मगर हम नासमझ-से दिखते हुए भी यह समझ चुके थे कि पिताजी की बातें और उनके श्लोक-फिश्लोक ‘‘सब कहने-सुनने की बातें’’ हैं, उन पर अमल-वमल करना जरूरी नहीं है। 

उदाहरण हमें अपने घर में ही मिल चुके थे। नन्हे-मुन्ने कासिद के रूप में हमने जीजी के प्रेमपत्र उनके प्रेमी तक और भाईसाहब के प्रेमपत्र उनकी प्रेमिका तक पहुँचाने का काम किया था और ऐसी होशियारी से किया था कि अम्मा और पिताजी को कभी भनक भी नहीं पड़ी थी। (हमारी सेवाओं के बदले में जीजी और भाईसाहब द्वारा इनाम या रिश्वत के रूप में जो पैसे चोरी-चोरी हमें दिये जाते थे, उनसे हम चोरी-चोरी फिल्में देखकर प्रेम के पाठ पढ़ते थे।) हालाँकि जीजी की शादी उनके प्रेमी से और भाईसाहब की शादी उनकी प्रेमिका से नहीं हुई, लेकिन दोनों ने प्रेम तो किया ही न! इसलिए हमने सोच लिया था कि हम भी प्रेम करेंगे।
प्रेम करने का निश्चय करने के बाद हमारे सामने समस्या उठी कि प्रेम किस लड़की से किया जाये। हमारी देखी हुई फिल्मों और पढ़ी हुई कहानियों के अनुसार लड़की सुंदर तो होनी ही चाहिए थी, साथ ही ऐसी भरोसेमंद भी अवश्य होनी चाहिए थी, जो प्रेम-प्रसंग में गोपनीयता के महत्त्व को समझती हो। अगर उसने स्कूल में या अपने घर जाकर हमारी शिकायत कर दी, तो पिटाई निश्चित थी। बाहर पिटकर हमारे बदनाम होने की और उस बदनामी के कारण पुनः घर में पिटने की प्रबल आशंका थी। हम जानते थे कि जब पिताजी के करकमलों से हमारी पिटाई होगी, तब भाईसाहब यह भूल जायेंगे कि वे भी कभी प्रेम करते थे और हम उनके कासिद बनकर उनकी सेवा किया करते थे।
ऐसी सुंदर और भरोसेमंद प्रेमिका खोजने के लिए हमने गली-मुहल्ले की लड़कियों से लेकर स्कूल में साथ पढ़ने वाली लड़कियों तक खूब नजर दौड़ायी, पर इन दोनों गुणों से युक्त कोई लड़की नजर न आयी। जो लड़कियाँ सुंदर थीं, वे भरोसेमंद नहीं थीं। जो भरोसेमंद हो सकती थीं, वे सुंदर नहीं थीं। अंततः हमें अपनी ममेरी बहन माधुरी याद आयी, जो बहुत सुंदर थी और अपने जेबखर्च के लिए मामा-मामी से मिले पैसे कभी-कभी चोरी से हमें सिनेमा देखने के लिए दिया करती थी। मामा-मामी सिनेमा कभी-कभार ही देखते थे और बड़ी होती इकलौती लड़की को सिनेमा के दुष्प्रभावों से बचाने के लिए उसे प्रायः धार्मिक फिल्में ही दिखाते थे।
माधुरी हमें सिनेमा देखने के लिए चोरी-चोरी पैसे क्यों देती थी?
बात यह थी कि तब तक भारत में टी.वी. नहीं आया था और मनोरंजन का मुख्य साधन सिनेमा या फिर रेडियो था, जिस पर रेडियो सीलोन से प्रसारित और अमीन सायानी द्वारा प्रस्तुत बिनाका गीतमाला नाम का फिल्मी गानों का कार्यक्रम लड़कियों के बीच सबसे लोकप्रिय कार्यक्रम था। माधुरी फिल्मों और फिल्मी गानों की दीवानी थी। वह फिल्मी गाने सुनती थी, याद करती थी और गाती-गुनगुनाती रहती थी। उन दिनों खारी बावली दिल्ली से छपी फिल्मी गानों की किताबें एक-एक आने में बिकती थीं। तब तक दशमलव प्रणाली शुरू नहीं हुई थी और बाजार से लेकर गणित की पुस्तकों तक में रुपया-आना-पाई, मन-सेर-छटाँक और गज-फुट-इंच वाला हिसाब चलता था। एक रुपये में सोलह आने होते थे और एक आने में हर फिल्म के गानों की सोलह पेजी किताब मिलती थी। वह किताबदरअसल किसी घटिया प्रेस में बेशुमार गलतियों के साथ सस्ते अखबारी कागज पर छपा एक सोलह पेजी फर्मा होता था, जिसे किसी प्रकार की कटिंग-बाइंडिंग के बिना सिर्फ मोड़कर किताबबना दिया जाता था। लेकिन ये किताबें बहुत बिकती थीं और बाजार में उनकी माँग हमेशा बनी रहती थी। ब्याह-शादी में गाने-बजाने की शौकीन महिलाएँ और लड़कियाँ उन्हें खरीदती थीं और सहेजकर रखती थीं। खुद बाजार जाकर फिल्मी गानों की किताबें खरीदना उनके लिए ‘‘हाय बेहया-बेशरम’’ वाली बात थी, इसलिए वे किसी बच्चे को इकन्नी-दुअन्नी पकड़ाकर बाजार दौड़ा देती थीं कि वह जाकर आन’, ‘अंदाज’, ‘दीदार’, ‘अनारकलीया नया दौरके गाने ले आये। लड़कियों में तो नयी से नयी फिल्मों के गाने खरीदने की होड़ भी लगी रहती थी।
हमारी ममेरी बहन माधुरी जेबखर्च के लिए रोजाना मिलने वाली इकन्नी फिल्मी गानों की किताबें खरीदने और नयी फिल्मों की स्टोरी सुनने पर खर्च किया करती थी। वह जेबखर्च के लिए प्रतिदिन मामा या मामी से मिलने वाले एक आने को चटोरी लड़कियों की तरह चाट-पकौड़ी या गोलगप्पे खाने पर खर्च नहीं करती थी। (उन दिनों अधन्ने में चाट का पूरा पत्ता या दोना आता था और एक आने के आठ गोलगप्पे मिलते थे।) वह उन पैसों को बचाती थी और एक रुपया पूरा हो जाने पर चुपके से हमें थमा देती थी। वह हमसे एकाध साल ही छोटी थी और हमसे एक ही क्लास पीछे थी, लेकिन अपने घर में उसने हमारी विद्वत्ता के झंडे गाड़ रखे थे। वह स्वयं को पढ़ाई में कमजोर बताती थी और हमारे बारे में कहती थी कि हम बहुत अच्छा पढ़ाते हैं। मामा-मामी ने उसके लिए ट्यूशन लगाने के बजाय हमारी मुफ्त सेवाएँ इस प्रकार ले रखी थीं कि हम छुट्टी वाले दिन आकर घंटे-दो घंटे उसे पढ़ा दिया करें। सो जब हम उसे पढ़ाने जाते, वह चुपके से एक पुड़िया में बँधी सोलह इकन्नियाँ या आठ दुअन्नियाँ या चार चवन्नियाँ या दो अठन्नियाँ हमें पकड़ा देती। उसके दिये एक रुपये में से हम सिनेमा का सेकेंड क्लास का दस आने वाला टिकट लेकर नयी फिल्म देखते थे और बाकी छह आनों की फिल्मी गानों वाली किताबेंखरीदते थे। अगली बार जब हम उसे पढ़ाने जाते, अपनी किसी किताब में छिपाकर ले जायी गयी वे किताबेंउसे दे देते और पढ़ाने के बहाने देखी हुई फिल्म की पूरी स्टोरी उसे सुना देते। वह हमारे शब्दों के सहारे अपनी कल्पना में पूरी फिल्म देख लेती, उसके संवाद याद कर लेती, उसके गानों की सिचुएशंस अच्छी तरह समझ लेती, अगले दिन स्कूल जाकर अपने साथ पढ़ने वाली लड़कियों पर शान से नयी फिल्म देखने का रौब जमाती और उनके खर्चे पर चाट-पकौड़ी खाकर उसकी स्टोरी उन्हें सुनाती।
इस प्रकार हम और माधुरी ममेरे-फुफेरे भाई-बहन होते हुए भी एक-दूसरे के राजदार थे और हमें लगा कि पे्रम के लिए वह उपयुक्त पात्र है। सुंदर तो है ही, भरोसेमंद भी है। हमें भी अपने घर से जेबखर्च के लिए एक आना प्रतिदिन मिलता था। हमने पाँच दिन के पाँच आने बचाये, माधुरी के लिए फिल्मी गानों की पाँच किताबें खरीदीं और चुपके से उसके हवाले करते हुए प्रेम निवेदन कर दिया।
माधुरी पहले तो हक्की-बक्की रह गयी, फिर उसकी आँखें डबडबा गयीं। टूटे-फूटे शब्दों में उसने जो कहा, उसका सार यह था कि हम बहुत अच्छे हैं, उसे बहुत अच्छे लगते हैं, फर्क यही है कि वह जो कह नहीं पा रही थी, हमने कह दिया। और कि वह हमारे प्रेम को अपना सौभाग्य मानकर स्वीकार कर लेती, मगर क्या करे, भाई-बहन का पवित्र रिश्ता बीच में आ गया। ममेरी ही सही, वह हमारी बहन है और भाई-बहन के बीच प्रेम नहीं हो सकता। उसने यह भी कहा कि काश हम लोग मुसलमान होते, जिनमें ममेरे-फुफेरे भाई-बहन में शादी हो जाती है। हमारा (और शायद अपना भी) दिल टूटने से बचाने के लिए उसने यह भी कहा कि वह भगवान से प्रार्थना करेगी कि अगले जनम में हमें फिर मिलाये, मगर हिंदू भाई-बहन न बनाये।
दिल-विल तो हमारा नहीं टूटा, लेकिन प्रेम का पहला पाठ हमने पढ़ लिया: प्रेम करने से पहले अच्छी तरह देख-भाल लेना चाहिए कि कोई पवित्र रिश्ता तो बीच में नहीं आ रहा।
जब हम नवीं कक्षा में पढ़ते थे, एक इंग्लिश टीचर स्कूल में नयी-नयी आयी थीं। वे इतनी सुंदर थीं कि उन्हें देखते ही हमें उनसे प्रेम हो गया। कक्षा में उनके आते ही हम उन्हें देखने लगते और देखते ही रह जाते। वे क्या पढ़ाती थीं, हमारे पल्ले कुछ नहीं पड़ता था। वे कई बार हमसे पूछ चुकी थीं कि हम कहाँ खोये रहते हैं। लेकिन हम उनके द्वारा पूछे जाने वाले पढ़ाई से संबंधित सवालों की तरह इस सवाल का जवाब भी नहीं दे पाते थे। हम चीजों के खो जाने या उन्हें खो देने का मतलब तो जानते थे, क्योंकि हमारी चीजें अक्सर खोती रहती थीं; एक बार हम दशहरे के मेले में खुद भी खो गये थे और बड़ी मुश्किल से पाये गये थे, इसलिए भीड़ में खो जाने का मतलब भी जानते थे; लेकिन कक्षा में अपनी जगह पर बैठा-बैठा कोई कैसे खो सकता है, यह नहीं जानते थे। हम उन्हें एकटक देखते रहकर बड़ा सुख पाते थे। लेकिन यह नहीं बता सकते थे कि हम क्या पाते हैं। जानते और बातें बनाना भी जानते होते, तो शायद उनसे कहते--मैम, यह पूछिए कि हम क्या पाये रहते हैं!
एक दिन कक्षा के बाहर कहीं जाते हुए हम उन्हें अकेले में मिल गये, तो रोककर बोलीं, ‘‘तुम क्लास में मुझे घूरते क्यों रहते हो?’’
उनका सुंदर चेहरा क्रोध में ऐसा तमतमाया हुआ था कि भयभीत होकर हमने सच बोल दिया, ‘‘मैम, आप हमें बहुत अच्छी लगती हैं।’’
‘‘मतलब, तुम्हें मुझसे प्रेम हो गया है?’’
हमने पहली बार जाना कि घिग्घी बँध जानाऔर सिट्टी-पिट्टी भूल जानाक्या होता है।
तब उन्होंने वहीं खड़े-खड़े हमें समझाया कि प्रेम हो जाने वाली बात बकवास है। प्रेम होता नहीं, किया जाता है। और वह कभी भी, कहीं भी, किसी से भी नहीं किया जाता।
‘‘अभी तुम्हारी उम्र मन लगाकर पढ़ाई करने की है। बड़े हो जाओ, पढ़-लिखकर कुछ बन जाओ, तब अपने लायक कोई लड़की देखकर उससे प्रेम और विवाह कर लेना।’’ कहकर वे मुस्करायीं और हमारी पीठ थपथपाकर आगे बढ़ गयीं।
इस प्रकार हमने प्रेम का दूसरा पाठ पढ़ा: प्रेम होता नहीं, किया जाता है, उसे करने की एक उम्र होती है, उससे पहले कुछ बनना होता है, और प्रेम जो है सो विवाह के लिए किया जाता है।
उस दिन हमने अपनी इंग्लिश टीचर को ही नहीं, किसी भी स्त्री या लड़की को घूरकर न देखने की, देखकर उसे देखते ही न रह जाने की और अपनी सुध-बुध भूलकर उसी में खोये न रह जाने की कसमें खा लीं और मन लगाकर पढ़ाई करने की, पढ़-लिखकर कुछ बन जाने की और उसके बाद अपने लायक कोई लड़की देखकर उससे प्रेम और विवाह करने की प्रतिज्ञाएँ कर लीं।
हमारी कसमें न टूटें और प्रतिज्ञाएँ पूरी हों, इसका उपाय हमें यही सूझा कि स्त्रियों या लड़कियों के सामने या तो हम नीचे देखें या इधर-उधर। मगर वास्तव में हम उनकी ओर न देखते हुए भी उन्हें बहुत ध्यान से देखते थे, क्योंकि आज नहीं तो कल, हमें प्रेम और विवाह तो करना ही था और करने से पहले इन दोनों चीजों को समझना था। ममेरी बहन माधुरी ने जो पाठ हमें पढ़ाया था, उसके अनुसार हमने पवित्र रिश्तोंवाली स्त्रियों और लड़कियों को अपने अध्ययन का विषय बनाया और यह ज्ञान पाया कि उनमें से प्रायः सभी का कभी न कभी, किसी न किसी से प्रेम रहा है, लेकिन एकाध को छोड़कर किसी का भी प्रेम विवाह के रूप में सफल नहीं हुआ है।
स्कूल की पढ़ाई पूरी करके काॅलेज में आ जाने पर भी हमने लड़कियों को देखते ही नजरें झुका लेना या इधर-उधर देखने लगना जारी रखा, तो हमारे बारे में मशहूर हो गया कि हम बहुत शरमीले हैं। हमारे सहपाठी हमें बुद्धू समझते थे और समझाते थे कि लड़कियों की तरफ देखो, उनसे आँखें मिलाकर बात करो, क्योंकि उनमें से कुछ तुमसे नैना मिलाना और अँखियाँ लड़ाना चाहती हैं। मगर हम अपनी कसमों और प्रतिज्ञाओं के चलते शरमीले बने रहे। यहाँ तक कि हम पर एक चुटकुला भी बन गया कि हम फिल्म देखते समय भी, जब कोई लड़की परदे पर आती है, नीचे या इधर-उधर देखने लगते हैं।
इस प्रकार हम न तो प्रेम में अंधे हुए न पागल। हमेशा शरमीले और शरीफ कहलाये। लेकिन हमारे आसपास--सहपाठियों और शिक्षकों के बीच, मुहल्ले और पड़ोस में, नगर और प्रदेश में, देश और विदेश में--जो प्रेमलीलाएँ होती थीं, उनके समाचार-श्रोता के रूप में प्रत्यक्ष और साहित्य-पाठक के रूप में परोक्ष साक्षी बनकर प्रेम के विविध रूपों का हमारा अध्ययन बराबर जारी रहा। हम अंतरजातीय, अंतरवर्णीय, अंतरधार्मिक, अंतरप्रांतीय तथा अंतरदेशीय प्रेम विवाहों के बारे में पढ़ने, सुनने और जानने को विशेष रूप से उत्सुक रहते थे। ज्यों-ज्यों हम इस प्रकार के प्रेम और विवाह से संबंधित विभिन्न काॅमिक, रोमांचक और मार्मिक किंतु भयानक रूप से हिंसक पक्षों से परिचित होते जा रहे थे, त्यों-त्यों प्रेम हमारे लिए बड़ी और उससे भी बड़ी गुत्थी बनता जा रहा था।
प्रेम के हिंसक पक्ष हमने फिल्मों में भी देखे थे, कहानियों और उपन्यासों में भी पढ़कर जाने थे, लेकिन समाचारों और उन पर बनी सत्यकथाओं में प्रेम से संबंधित हिंसा के जो रूप हमारे सामने आते थे, बिलकुल भिन्न होते थे। फिल्मों और कहानियों में प्रेम से जुड़ी हिंसा के तीन रूप प्रचलित थे: काॅमिक, जैसे प्रेम करने वाली लड़की के दकियानूसी बाप द्वारा की जाने वाली हल्की-सी पिटाई; रोमांचक, जैसे नायक और खलनायक के बीच लड़की को लेकर होने वाली मारामारी; या मार्मिक, जैसे प्रेम में असफल रहने पर नायक-नायिका में से किसी एक की आत्महत्या से अथवा दोनों की बेदर्द जमानेद्वारा की जाने वाली हत्या। मगर हिंसा के ये तीनों रूप अंततः मनोरंजक होते थे। इसलिए उन्हें देख-पढ़कर हम हँसें चाहे रोयें, वे हमें अच्छे लगते थे। उनसे हमें डर नहीं लगता था, बल्कि जोश आता था कि ‘‘चाहे सिर फूटे या माथा’’ हम भी प्रेम करेंगे। लेकिन समाचारों और सत्यकथाओं में प्रेम से जुड़ी हिंसा कभी प्रेम करने वाली लड़की को उसके रूढ़िवादी माता-पिता और भाई-भाभी द्वारा ही जलाकर मार डालने या काटकर घर में ही गाड़ देने के रूप में सामने आती थी; कभी जातिवादी पंचों-सरपंचों द्वारा प्रेमी-प्रेमिका दोनों को लाठियों से पीट-पीटकर या कुल्हाड़ियों से काट-काटकर या गोलियों से भून-भूनकर मार डालने के रूप में सामने आती थी; तो कभी सांप्रदायिक नेताओं द्वारा कराये गये भयानक दंगों के रूप में सामने आती थी। तब प्रेम के ये हिंसक पक्ष हमें भयानक रूप से आतंकित करने के साथ-साथ घोर घृणा से भर देते थे।
इस प्रकार हमने प्रेम का तीसरा पाठ पढ़ा: प्रेम कहानियाँ काल्पनिक होती हैं, वे मजा तो दे सकती हैं, मार्ग नहीं दिखा सकतीं; इसलिए प्रेम के इन काल्पनिक रूपों से बचकर और हिंसक रूपों से लड़कर हमें प्रेम का मार्ग स्वयं बनाना पड़ेगा।
और हमने निश्चय किया कि हम प्रेम और विवाह तो अवश्य करेंगे, लेकिन यह देखकर करेंगे कि लड़की और उसके माता-पिता या अभिभावक रूढ़िवादी, जातिवादी और संप्रदायवादी न हों। ऐसा प्रेम और विवाह स्वतंत्र और आत्मनिर्भर होने पर ही किया जा सकता था, इसलिए हमने निश्चय किया कि पढ़ाई करके हम भाईसाहब के साथ नहीं रहेंगे (पिताजी इस बीच गुजर चुके थे), किसी दूसरे शहर में नौकरी करेंगे और वहीं रहकर प्रेम और विवाह करेंगे।
लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हमने कानपुर में रहते हुए प्रेम के सारे रास्ते बंद कर रखे थे। हमने अपनी तरफ से बाहर जाकर किसी से प्रेम करने का रास्ता बंद कर रखा था, लेकिन बाहर से कोई हमसे प्रेम करने आये, तो उसके आ सकने का रास्ता खुला रखा था। उस रास्ते से हमारे जीवन में तीन लड़कियाँ और दो स्त्रियाँ आयीं। अर्थात् तीन भावी परदाराएँ और दो वर्तमान परदाराएँ। पाँचों एक साथ नहीं, एक-एक करके आयीं, लेकिन पाँचों ही यह घोषणा-सी करती हुई आयीं कि उन्हें ‘‘मातृवत परदारेषु’’ वाली दृष्टि से नहीं, बल्कि ‘‘मित्रवत परदारेषु’’ वाली दृष्टि से देखा जाये। मगर उनकी मित्रता कुछ नहीं, काफी अजीब थी।
एक मामले में वह मित्रता जब तक शादी नहीं हो जाती, तब तक की वक्तकटी या मौज-मस्ती थी।
दूसरे मामले में वह मित्रता स्वयं अपना वर खोजकर स्वयंवर रचाने निकली आधुनिका की तलाश थी।
तीसरे मामले में वह मित्रता धोखा दे भागे पूर्व प्रेमी के विरुद्ध हमें सच्चा प्रेमी बनाने की चुनौती थी।
 चौथे मामले में वह मित्रता परदेस में रह रहे पति के अभाव में देह की भूख मिटाने की कोशिश थी।
पाँचवें मामले में वह मित्रता पति की नपुंसकता के कारण सूनी गोद को संतान से भर देने की करुण पुकार थी।
हम तब भी नहीं जानते थे और आज भी नहीं जानते--शायद भविष्य में भी कभी नहीं जान पायेंगे--कि प्रेम वास्तव में क्या होता है। मगर यह जानने में हमने देर नहीं लगायी कि यह और जो भी हो, प्रेम नहीं है। इसलिए हम ऐसे प्रेम को हमेशा हाथ जोड़कर विदा करते रहे। इसमें हमारे हौलूपन का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा।
जब हम एम.ए. में पढ़ रहे थे और भाईसाहब की इच्छा के विरुद्ध अंग्रेजी भाषा और साहित्य की जगह हिंदी भाषा और साहित्य पढ़ रहे थे, तब एक दिन अचानक हमने पाया कि हम प्रेम के कवि हैं। हुआ यह कि काॅलेज की वार्षिक पत्रिका के लिए छात्रों से रचनाएँ माँगी गयीं, तो हमने यह तो प्रेम नहींशीर्षक से पाँच खंडों वाली एक कविता लिखी और उन प्रोफेसर साहब के पास ले गये, जो पत्रिका के हिंदी खंड के संपादक थे। वे हिंदी के प्रोफेसर ही नहीं, साहित्यकार भी थे। जिस समय हम उनके पास गये, काॅलेज में छुट्टी होने का समय था और वे स्टाफ रूम में अकेले बैठे छात्रों की रचनाएँ पढ़ रहे थे। वे हमें पढ़ाते थे, जानते थे और अच्छा विद्यार्थी मानते थे। उन्होंने सरसरी नजर से हमारी कविता देखी और कहा, ‘‘बैठो।’’
स्टाफ रूम में छात्र जा तो सकते थे, शिक्षकों से बातचीत भी कर सकते थे, लेकिन खड़े-खड़े ही। इसलिए हम बैठने का आदेश पाकर भी खड़े ही रहे। उन्होंने फिर बैठने के लिए कहा, तो हम सकुचाते हुए उनसे कुछ हटकर उसी सोफे पर बैठ गये, जिस पर वे बैठे थे। उन्हांेने हमारी कविता ध्यान से पढ़ी और पूछा, ‘‘प्रेम किया है?’’
‘‘जी, नहीं।’’ हमने दोटूक उत्तर दिया।
‘‘और प्रेम पर कविता लिखते हो!’’ उन्होंने व्यंग्यपूर्वक कहा।
‘‘यह कविता प्रेम पर नहीं है, सर!’’ हमने विनम्र किंतु मजबूत स्वर में कहा, ‘‘इसका शीर्षक ही है यह तो प्रेम नहीं’’
‘‘जो प्रेम नहीं है, उसे वही कहो, जो वह है।’’ हमें लगा कि हमारी कविता अस्वीकृत हो गयी, लेकिन उन्होंने कहा, ‘‘लो, इसे ले जाओ। यह एक कविता नहीं, पाँच अलग-अलग कविताएँ हैं। इनके अलग-अलग शीर्षक दो। सोचो कि जो प्रेम नहीं है, वह क्या है। उसे वही नाम दो, जो वह वास्तव में है।’’
हम कविता लेकर उठने लगे, तो उन्होंने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘तुम्हारी ये कविताएँ तो हम काॅलेज की पत्रिका में छाप देंगे। लेकिन तुम कुछ ऐसी कविताएँ लिखो, जिनमें प्रेम हो और जिन्हें प्रेम की कविताएँ कहा जा सके। अच्छी होंगी, तो उन्हें हम किसी साहित्यिक पत्रिका में प्रकाशित करायेंगे।’’
हमने उस कविता की पाँच कविताएँ तो बनायीं, लेकिन शीर्षक एक ही रखा--प्रवंचना: पाँच कविताएँ। उनके शीर्षक हमने अलग-अलग रखे: प्रवंचना-1, प्रवंचना-2, प्रवचंना-3 इत्यादि। यह काम आसानी से हो गया, लेकिन प्रेम कविताएँ लिखने में बड़ी मुश्किल पड़ी। अंततः हमने मूर्खता-1’ और मूर्खता-2’ शीर्षक से दो कविताएँ लिखीं। पहली कविता हमने अपनी ममेरी बहन से प्रेम निवेदन करने की मूर्खता पर लिखी और दूसरी अपनी इंग्लिश टीचर को सुध-बुध भूलकर एकटक देखते रहने की मूर्खता पर।
साहित्यकार प्रोफेसर हमारे दोनों कारनामों से खुश हुए। उन्होंने हमारी पहली पाँच कविताएँ काॅलेज मैगजीन में छापीं और दूसरी दो कानपुर से ही निकलने वाली एक साहित्यिक पत्रिका में छपवायीं। आश्चर्य कि उन दो कविताओं के छपते ही हम प्रेम के कवि मान लिये गये।
इस प्रकार हमने प्रेम का चौथा पाठ पढ़ा: प्रेम के नाम पर ऐसा बहुत कुछ होता है, जो प्रेम नहीं होता और प्रेम मूर्खता कहलाने पर भी प्रेम ही रहता है।
एम.ए. फाइनल में हमारे साहित्यकार प्रोफेसर हमें मध्यकालीन काव्य और उसका इतिहास पढ़ाते थे। जब से उन्होंने हमारी कविताएँ प्रकाशित करायी थीं, हम उन्हें अपना साहित्यिक गुरु मानने लगे थे। वे प्रगतिवादी माने जाते थे, लेकिन हमें वे खासे परंपरावादी लगते थे। हम से कहते थे, ‘‘अच्छे कवि बनना चाहते हो, तो मध्यकालीन काव्य को ध्यान से पढ़ो। रीतिकाल और भक्तिकाल की कविता को समझे बिना तुम न तो हिंदी कविता को समझ सकते हो, न हिंदी में अच्छी कविता लिख सकते हो--खासकर प्रेम कविता--क्योंकि प्रेम और प्रेम कविता के अच्छे-बुरे तमाम तरह के रूप तुम्हें उसी में मिलेंगे, जिनसे तुम यह सीख सकते हो कि अच्छी प्रेम कविता क्या होती है। और देखो, एम.ए. के पाठ्यक्रम में जितना रीतिकालीन और भक्तिकालीन काव्य लगा हुआ है, उतना ही पढ़ने से दूसरे छात्रों का काम शायद चल जाये, तुम्हारा चलने वाला नहीं है। इसलिए उसे विस्तार से और गहराई से पढ़ो। उसके साथ-साथ उस समय के इतिहास को भी पढ़ो। वह जिन भाषाओं में लिखा गया है, उनके विकास और ह्रास को भी पढ़ो। इसके लिए तुम्हें एक तरफ संस्कृत की तरफ जाकर हिंदी की तरफ आना पड़ेगा और दूसरी तरफ अरबी-फारसी की तरफ जाकर उर्दू तक आना पड़ेगा। और यह काम एक-दो या दस-बीस साल का नहीं, जिंदगी भर का काम है। बड़ा काम है। बोलो, करना चाहोगे?’’
‘‘चाहें, तो क्या कर पायेंगे?’’ हमने डरते-डरते पूछा।
‘‘मन से चाहोगे, तो कर पाओगे।’’
‘‘तो बताइए, कहाँ से शुरू करें?’’
‘‘उर्दू आती है?’’ उन्होंने पूछा, लेकिन अगले ही क्षण शायद हमारी पारिवारिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखकर बोले, ‘‘कहाँ से आती होगी! लेकिन उर्दू सीखना ज्यादा मुश्किल नहीं है। जल्दी सीख जाओगे। हम अपने एक मित्र का पता तुमको देते हैं। उनके पास चले जाओ। वे उर्दू साहित्य के जानकार ही नहीं, खुद भी उर्दू के शायर हैं। उनको उस्ताद बनाकर उर्दू शायरी पढ़ोगे, तो हिंदी में अच्छी प्रेम कविता लिखना अपने-आप सीख जाओगे।’’
उनके दिये पते पर काॅमरेड अंसारी को खोजते हुए हम जहाँ पहुँचे, वह कानपुर का एक ऐसा इलाका था, जो हमने अभी तक नहीं देखा था। वह औद्योगिक क्षेत्र की एक मजदूर बस्ती थी।
काॅमरेड अंसारी ने हमारा परिचय पाकर स्वागत करते हुए कहा, ‘‘अहा, आ गये आप! आपके प्रोफेसर साहब ने फोन पर हमें बता दिया था कि आप आयेंगे। कहिए, पहले कभी आप इस तरफ आये हैं?’’
‘‘जी, नहीं।’’
‘‘ठीक तो है!’’ काॅमरेड अंसारी व्यंग्यपूर्ण मुस्कान के साथ बोले, ‘‘आप उस कानपुर में रहते हैं, जो इस कानपुर की तरफ कम ही आता है।’’
फिर उन्होंने बताया कि यह एक मजदूर बस्ती है, जो तब बसी थी, जब कानपुर एक बड़ा औद्योगिक शहर बना था; जब कानपुर में एक जबर्दस्त मजदूर संगठन और आंदोलन हुआ करता था; जब कानपुर में रहने वाले गरीब और दूर-पास गाँवों-कस्बों के भूमिहीन किसान और कारीगर पहली बार कारखानों के मजदूर बने थे; जब हर धर्म और हर जाति के लोगों ने मिलकर मजदूर आंदोलन खड़ा किया था और सर्वहारा वर्ग की शुरुआती लड़ाइयाँ लड़ी थीं। यों कानपुर अब भी एक औद्योगिक शहर है और यहाँ ऐसी कई मजदूर बस्तियाँ हैं, मगर वह आंदोलन इतिहास बन गया है, जो शहर के दूसरे हिस्सों को ही नहीं, बल्कि देश के दूसरे हिस्सों को भी प्रभावित करके अपने होने का अहसास कराया करता था।
काॅमरेड अंसारी उस बस्ती के एक पुराने मगर बड़े-से मकान में रहने वाले संपन्न बुजुर्ग थे। पेशे से वकील थे और सिर्फ मजदूरों के मुकद्दमे लड़ते थे। उनकी बेटियों की शादियाँ हो चुकी थीं और बेटों ने दूसरे शहरों में अपने घर बसा लिये थे। वे खुद यहाँ अपनी बेगम, एक नौकर, एक नौकरानी और अपने दफ्तर के एक सहायक के साथ रहते थे। वकालत अब ज्यादा नहीं चलती थी, फिर भी गुजर-बसर हो रही थी। फालतू वक्त काफी बचता था, सो उसमें वे पढ़ने और लिखने का काम करते थे।
अपने बारे में विस्तार से बताकर उन्होंने हमारे बारे में, हमारी पढ़ाई-लिखाई के बारे में, हमारे घर-परिवार के बारे में और अंततः हमारे कविता लिखने के बारे में पूछा।
शायद हमारे द्वारा दी गयी जानकारी से संतुष्ट होकर उन्होंने कहा, ‘‘आप प्रेम की कविता लिखना चाहते हैं, तो प्रेम कीजिए। करते हैं? अभी नहीं? कोई बात नहीं, हम उस प्रेम की बात कर भी नहीं रहे। हम उस प्रेम की बात कर रहे हैं, जो खुद से किया जाता है; जो हमें अपनी खुदी से मिलाता है और बेखुदी तक ले जाता है। खुदी के बारे में इकबाल का शेर आपने सुना होगा--खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले, खुदा बंदे से खुद पूछे, बता तेरी रजा क्या है।खुदी को बुलंद करने का मतलब है खुद को इतना बड़ा बना लेना कि आप सारी दुनिया से, सारी कायनात से प्यार कर सकें। मगर इसका मतलब खुदा बन जाना या खुद को खुदा समझने लगना नहीं है। खुदा कौन है, क्या है, आप यह जानने के चक्कर में न पड़ें। उसे न कोई जान सका है, न जान ही सकता है। जिस चीज को आप जानते नहीं और जान भी नहीं सकते, वह चीज आप कैसे बन सकते हैं? बन नहीं सकते और फिर भी समझते हैं कि आप वह हैं, तो समझिए कि आप से बड़ा बेवकूफ कोई नहीं। खुदी को बुलंद करने का मतलब अहंकार नहीं है, खुद को औरों से या सबसे बड़ा समझने लगना नहीं है; बल्कि खुद को ऐसी ऊँचाई तक ले जाना है, जहाँ से आप सारी कायनात को देख सकें, उसे बाँहों में लेकर उससे प्यार कर सकें। जो वहाँ पहुँच जाता है, वह खुद को भूल जाता है। यही बेखुदी है। और दुनिया भर की अच्छी प्रेम कविता इसी बेखुदी के आलम में लिखी गयी है।’’
इस प्रकार हमने प्रेम का पाँचवाँ पाठ पढ़ा। लेकिन वह ऐसा निकला कि खत्म ही नहीं होता। उसे हम आज तक पढ़ रहे हैं और शायद ताउम्र पढ़ते ही रहेंगे।



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