Friday, March 24, 2017

गरीब का नंगापन उसकी आर्थिक दरिद्रता है तो अमीर का नंगापन उसकी प्रदर्शन प्रियता

पारिवारिक जिम्मेदारियों के साथ-साथ अध्‍ययन-अध्यापन के क्षेत्र से जुड़ी गीता दूबे मूलत: कवि हैं। कोलकाता के साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियों में अपनी बेबाक आलोचनाओं के साथ सक्रिय रहने वाली गीता दूबे, प्रगतिशील लेखक संघ (हिन्दी इकाई) कोलकाता की सचिव भी हैं। अपनी बातों को साफ तरह से रखने का बौद्धिक साहस गीता दूबे के लेखन की ही नहीं, व्‍यवहार की भी एक विशेषता है। रचनाओं को प्रकाशन के लिए भेजने का संकोच गीता दूबे के भीतर मौजूद आलसपन को भी दिखाता है। कई बार के आग्रह के बाद गीता दूबे ने अपने मन से ‘आपहुदरी’ पर लिखी समीक्षात्माक टिप्पणी भेजकर इस ब्लाग को अनुग्रहित किया है। इस आशय के साथ कि आगे भी उनके सहयोग से यह ब्लाग आगे भी समृद्ध होता रहेगा, उनकी लिखी समीक्षा प्रस्तुत है। हमें उम्मीद है कि गीता दूबे की बेबाक समीक्षा पर पाठकों की बेबाक राय भी इस ब्लाग को समृद्ध करेंगी। 

वि.गौ.

'आपहुदरी' (रमणिका गुप्ता की आत्मकथा) के हवाले से


गीता दूबे 

आज का समय साहित्य के क्षेत्र में विस्फोट के साथ साथ सनसनी का भी समय है। अधिकांश रचनाकार शायद इसलिए लिख रहे हैं कि छपते ही छा जाएं। न भी छाएं तो एक सनसनी जरूर पैदा कर दें। सुजाता चौहान लिखित 'पतनशील पत्नियों के नोट्स' या फिर क्षितिज राय लिखित 'गंदी बात' जैसे किताबों ने इस क्षेत्र में नयी धारा का सूत्रपात किया है। अब यह धारा कितनी दूर जाएगी और इसमें क्या क्या बहेगा या बचेगा ,यह मुद्दा गौरतलब है और इस पर बहस जरूर होनी चाहिए लेकिन फिलहाल कुछ बातें मैं 'आपहुदरी' के बहाने स्त्री आत्मकथाओं पर करना चाहती हूं। 

इस समय आत्मकथाएं खूब लिखी जा रही हैं और उनके प्रकाशन के साथ साथ विवाद भी चलते रहते है। शायद ही कोई आत्मकथा ऐसी होगी जिसके प्रकाशन के बाद बहस का तूफान न उठा हो या आरोपों प्रत्यारोपों के दौर न चले हों। सवाल यह है कि आत्मकथाएं क्यों लिखी जानी चाहिए ? आत्मकथाओं का उद्देश्य किसी रचनाकार के सिर्फ और सिर्फ व्यक्तिगत अनुभवों से रूबरू करवाना ही है या तत्कालीन इतिहास की अनुगूंज भी उसमें सुनाई देनी चाहिए। इस संदर्भ में गांधी और नेहरू द्वारा लिखित आत्मकथाओं का जिक्र जरूरी है जिनमें सिर्फ उनके निजी अनुभव ही नहीं हैं बल्कि उनके समय का इतिहास भी झांकता है। कुछ वर्षों पूर्व प्रकाशित कुलदीप नैय्यर की आत्मकथा भी कई मायने में इतिहास की तरह पढ़ी और संजोई जा सकती है। स्त्री आत्मकथाओं के संदर्भ में बात करें तो पहले पहल जब स्त्रियों ने अपनी कहानी अपनी जुबानी सुनाने का फैसला किया तो लोगों को यह सहज उत्सुकता हुई कि ये औरतें भला कहना क्या चाहती हैं ? और कहेंगी भी तो आखिर क्या वही घर गृहस्थी के घरेलू किस्से और कहानियां। रही बात उनके सामाजिक अवदान या भूमिका की तो वह तो साहित्य में कहा और लिखा ही जा रहा है।पुरूष रचनाकार बड़े अनुग्रहपूर्ण ढंग से भारतीय स्त्रियों के त्याग और बलिदान को महिमामंडित करते हुए यदा कदा उनके दुख दर्द, शोषण और संघर्ष को भी वाणी दे ही रहे थे। लेकिन इसके बावजूद स्त्रियों ने तय किया कि अपने देखे और भोगे यथार्थ को वह खुद पूरी प्रामाणिकता से पाठकों के सामने रखेंगी। हालांकि प्रेमचंद द्वारा संपादित हंस के आत्मकथा विशेषांक में यशोदा देवी और शिवरानी देवी के आत्मकथ्य प्रकाशित हो चुके थे लेकिन पुस्तकाकार रूप में प्रतिभा अग्रवाल की दो खंडों में प्रकाशित आत्मकथा 'दस्तक जिन्दगी की' (1990) और मोड़ जिन्दगी का(1996) से स्त्री आत्मकथा लेखन की शुरुआत हुई । इसी क्रम में क्रमश: 'जो कहा नहीं गया'(1996) कुसुम अंसल, 'लगता नहीं है दिल मेरा'(1997) कृष्णा अग्निहोत्री, 'बूंद बावड़ी' (1999) पद्या सचदेव, 'कस्तूरी कुण्डल बसै'(2002)मैत्रेयी पुष्पा आदि ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। चंद्रकिरण सौनरेक्सा की 'पिंजरे की मैना' (2005) छपकर आई तो पाठकों ने उसे हाथों हाथ लिया क्योंकि पराधीनता की जंजीरों में जकड़ी नारी की मुक्ति कामना के साथ ही उसकी पीड़ा और संघर्ष को लेखिका ने बड़ी शिद्दत से उकेरा था। जानकी देवी बजाज की 'मेरी जीवन यात्रा'(2006) में मारवाड़ी परिवार की स्त्रियों का जीवन ही नहीं वर्णित हुआ बल्कि स्वाधीनता आंदोलन के कई कोलाज भी बड़ी ईमानदारी से अंकित हुए हैं। मन्नू भंडारी की 'एक कहानी यह भी'(2007) , प्रभा खेतान की 'अन्यार से अनन्या'(2007) मैत्रेयी पुष्पा की 'गुड़िया भीतर गुड़िया'(2008), कृष्णा अग्निहोत्री 'और और औरत' (2010) इस सिलसिले की अगली कड़ियां थीं। इसे उर्मिला पंवार के 'आयदान' (2003) कौशल्या बैसंत्री के 'दोहरा अभिशाप' (2009) और सुशीला टांकभौरे के 'शिकंजे का दर्द' (2011) ने एक नया आयाम दिया। 

आज का समय साहित्य के क्षेत्र में विस्फोट के साथ साथ सनसनी का भी समय है। अधिकांश रचनाकार शायद इसलिए लिख रहे हैं कि छपते ही छा जाएं। न भी छाएं तो एक सनसनी जरूर पैदा कर दें। सुजाता चौहान लिखित 'पतनशील पत्नियों के नोट्स' या फिर क्षितिज राय लिखित 'गंदी बात' जैसे किताबों ने इस क्षेत्र में नयी धारा का सूत्रपात किया है। अब यह धारा कितनी दूर जाएगी और इसमें क्या क्या बहेगा या बचेगा ,यह मुद्दा गौरतलब है और इस पर बहस जरूर होनी
अब बात करना चाहूंगी 2016 में सामयिक प्रकाशन से प्रकाशित रमणिका गुप्ता की आत्मकथा 'आपहुदरी' की । चूंकि यह शब्द पंजाबी भाषा का है संभवत इसी लिए नीचे एक पंक्ति में इसका आशय भी भी साफ कर दिया गया है , एक जिद्दी लड़की की आत्मकथा'। यहां यह बताना जरूरी है कि इसके पहले रमणिका अपनी एक और आत्मकथा 'हादसे'(2005) लिख चुकी हैं जिसमें मजदूर नेता के रूप में उनके एक्टिविस्ट और उसके साथ राजनीतिक जीवन की झलक मिलती है और उसे पढ़कर पाठक उनके जुझारू व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता । उनके जीवन संघर्ष से उपजा यथार्थ , उनकी स्त्रीवादी विचार धारा और बेबाक व्यक्तित्व पाठकों के मन पर निस्संदेह गहरी छाप छोड़ता है। उनके निष्कर्षों से सहमत भी होता है कि, " पुरूष नारी को उसी हालत में बर्दाश्त करता है जब उसे यकीन हो जाए कि वह पूरी तरह उसी पर आश्रित है और खुद कोई निर्णय नहीं ले सकती या वह स्वयं उस औरत से डरने लगे तो उसे सहता है।" चूंकि इस आत्मकथा में उनके व्यक्तिगत जीवन के अनुभवों को अभिव्यक्ति नहीं मिली थी शायद इसी वजह से उन्होंने 'आपहुदरी' रचना की। किताब के फ्लैप पर लिखी घोषणा बरबस ध्यान खींचती है, "विविधता भरे अनुभवों की धनी रमणिका गुप्ता की आत्मकथा की यह दूसरी कड़ी 'आपहुदरी' एक बेहद पठनीय आत्मकथा है।उनकी आत्मकथा की पहली कड़ी हादसे से कई अर्थों में अलग है। सच कहें, तो यही है उनकी असल आत्मकथा....।" जाहिर है कि इस घोषणा से आकर्षित या प्रेरित होकर पाठक बड़े चाव से इस रचना से मुखातिब होता है कि उसे कुछ नया जानने या समझने को मिलेगा। निस्संदेह मिलता है । रमणिका या रमना या रम्मो के परिवार का संक्षिप्त इतिहास , देश- विभाजन के एक आध चित्र और मजदूर आंदोलन के साथ साथ भारतीय राजनीति की कुछ झलकियां भी। पर सबसे अधिक पन्ने इस जिद्दी लड़की ( ?) ने अपनी प्रेमकथा के वर्णन में खर्च किए हैं। बचपन में हुए यौन शोषण और परिवार वालों द्वारा की गयी अपनी उपेक्षा के कारण वह आजीवन प्रेम की तलाश में भटकती रही और यौनेच्छाओं की पूर्ति के साथ साथ अपने विलास पूर्ण जीवन के खर्चों को पूरा करने के लिए वह लगातार एक के बाद एक साथी बदलती रहीं। रमणिका की तारीफ इस बात के लिए तो होनी ही जानी चाहिए कि वह अपने इन भटकावों , विचलनों को ईमानदारी से स्वीकारती हैं और बिना किसी अफसोस के लिखती हैं, "पीछे मुड़कर देखती हूं तो महसूस होता है, मैंने जिंदगी को भरपूर जिया। तुमुल कोलाहल के बीच भी मैंने अपने मन को कभी बनवास नहीं दिया।मेरी प्रेम यात्राएं कभी रुकी नहीं।.... कुछ ग्रंथियां और कुछ हादसे मेरे अंतर्मन में ऐसे पैठ गये थे कि मैं उनसे उबर नहीं पा रही थी। उनसे पीछा छुड़ाने के लिए मैं रास्ते तलाशने लगी और रास्ते की खोज में मैंने तय कर डाली कई यात्राएं।.....कितनी यात्राएं गिनाऊं।" इसके आगे वह लिखती हैं, "कई सच्चे और वक्ती मित्र आए और गये पर मेरी यात्रा जारी रही। दर असल तब तक मैं यह समझ न पाई थी कि यह जद्दोजहद मेरी अस्मिता की ललक का अंग है।.... बहुत बाद में मुझे स्त्री की अलग पहचान का विमर्श समझ में आया।" मेरी दिक्कत यहीं से शुरू होती है जब रमणिका अपनी यौनाकांक्षा को स्त्री मुक्ति के साथ जोड़कर देह विमर्श को ही स्त्री विमर्श के रूप में स्थापित करना चाहती हैं। स्त्री मुक्ति के साथ साथ देह पर उसके अधिकार की बात तो उठती रहती है पर जहां देह ही मुख्य हो जाती है और बाकी चीजें गौण तो माफ कीजिएगा इस मुक्ति से स्त्री हो पुरूष दोनों अर्थात् पूरे देश और समाज की भी कोई बहुत ज्यादा तरक्की होनेवाली नहीं। और डर इस बात कार्यक्रम भी है कि इस देह विमर्श की आंधी में स्त्री विमर्श के जरूरी मुद्दे कहीं उड़ न जाएं। 

दूसरी महत्वपूर्ण बात जो मेरी समझ में आती है कि आत्मकथा लेखन सच में जोखिम और साहसभरा काम है क्योंकि खुद को लोगों के बीच उघाड़ने और उधेड़ने के लिए साहस की जरूरत तो पड़ती ही है पर जब इसमें सनसनी वाला तत्व भी जुड़ जाता है तो यह जोखिम मजे या प्रचार के लिए उठाए जोखिम में जरूर बदल जाता है । और साहित्य या समाज के लिए यह स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं मानी जा सकती है। एक गरीब का नंगापन जहां उसकी आर्थिक दरिद्रता को दर्शाता है तो वहीं अमीर का नंगापन उसकी प्रदर्शन प्रियता या फैशन को। रमणिका ने जिस तरह से रस लेते हुए अपने प्रेम प्रसंगों या देह गाथा को उकेरा है उसे प्रेम कथा के रूप में तो पढ़ा जा सकता है पर उसे स्त्री मुक्ति का आख्यान मानने में मुझे आपत्ति है। कुछ पाठकों को इस तरह की कथा में रस भले ही मिले पर सिर्फ और सिर्फ यही पढ़ना हो तो इस विषय पर प्रचुर साहित्य सहज ही उपलब्ध है। आश्चर्य होता है कि देह की भूख क्या इतनी प्रबल है कि ट्रेन में सफर के दौरान एक अजनबी के साथ भी बड़ी सहजता से निसंकोच उसे तृप्त किया जा सकता है। इसके साथ ही एक ही समय में एकाधिक साथियों के साथ अपने संबंधों को भी लेखिका ने गर्व के साथ स्वीकारा है। लगता है लेखिका सिर्फ देह का उत्सव मनाते हुए , उसे गरिमा मंडित करते हुए हर हाल में सही ठहराना चाहती हैं। हालांकि अपनी कमजोरियों को रमणिका सहज भाव से स्वीकारती हैं, " सत्य तो यह है कि मुझे खुद ही खुद से मुक्त होना है । मैं अपनी ही कमजोरी काम शिकार होकर फिसल जाती रही हूं ।जिन कमजोरियों के खिलाफ मैं झंडा बुलंद करती रही, उन्हीं कार्यक्रम शिकार मैं खुद होती रही। पुरुष मेरी ग्रंथि है।औरत को खुद अपने को ही मुक्त करना है पुरुष ग्रंथि से।" पता नहीं लेखिका इस ग्रंथि से मुक्त हो पायीं या नहीं पर अपनी प्रेम कथाओं के साथ साथ उन्होंने अपने पारिवारिक सदस्यों की कथाओं का भी खुलकर वर्णन किया है। ऐसा लगता है कि संसार की एकमात्र सच्चाई देह ही है और दैहिक तृप्ति ही वास्तविक तृप्ति है। 

ईमानदारी से कहना चाहती हूं कि रमणिका की यह आत्मकथा पढ़ते हुए मुझे तसलीमा याद आती रहीं जिन्होंने 'द्विखंडित' (2004) में अपने पुरुष मित्रों के साथ अपने संबंधों को खुल कर स्वीकारा था और यौन प्रसंगों का सतही और उत्तेजक वर्णन भी किया था। और शायद उसपर लगे बैन और विवादों के कारण लोगों ने उसे खूब पढ़ा भी था पर पसंद शायद ही किया था। और एक किताब का नाम लेना चाहूंगी वैशाली हलदणकर की 'बारबाला' (2009)। उसमें भी ऐसे प्रसंग भरे पड़े हैं। प्रश्न यह भी है कि ऐसी आत्मकथाएं क्या सिर्फ इसीलिए पढ़ी जानी चाहिए कि इनमें यथार्थ के नाम पर मुक्त यौन चित्र हैं भले ही इनसे स्त्री मुक्ति की रूपरेखा बने या न बने । या फिर इससे किसी को प्रेरणा मिले न मिले। एक जिद्दी लड़की क्या सिर्फ पैसों , शोहरत, ऐशो आराम या सत्ता के गलियारे में पैठ बनाने के लिए अपने शरीर को इस्तेमाल करने में ही अपनी जिद और स्वाभिमान की इंतहा मानती है ? उसका स्वाभिमान क्या छोटे छोटे सुखों पर न्योछावर किया जा सकता है,? क्या पेट की भूख और शरीर की भूख में कोई अंतर नहीं है ? और इस भूख की आग में रिश्ते नाते भी जला दिए जाएं ? आखिर हमें कहीं तो रुकना पड़ेगा, या इस भूख या छद्म मुक्ति की तलाश में हम यूं ही भटकते रहेंगे ? इस तरह के कई सवाल इस आत्मकथा को पढ़ते हुए मन में उपजते हैं। सच में अगर स्त्री का संघर्ष और उसकी उपलब्धियों से रूबरू होना ही है तो क्यों न हम एक विकलांग पर जुझारू महिला नसीमा हुरजूक की आत्मकथा 'कुर्सी पहियों वाली' (2010) जैसी किताब पढ़े जो पूरे समाज को उद्वेलित ही नहीं प्रेरित भी करती हैं। और अगर देह गाथा ही पढ़नी है तो उसके लिए एक दूसरी तरह काम साहित्य सहज ही उपलब्ध है।

Saturday, January 28, 2017

बनारस कालिज के प्रिन्सिपल और प्रोफेसर(3)







संस्कृत विभाग के उपाचार्य पहले एक साहब थे जिनका नाम संस्कृत के आन्दोलन में कुछ-कुछ लिया जाता है.ग्रिफिथ साहव के स्थान में, उनके प्रिन्सिपल बनने पर, डाक्टर थीवी जर्मनी से लाये गये.उनकी विद्या और विशेषतः परिश्रम की धूम मची हुई थी.गर्मियों में रात की आँधी में न बुझने वाला लैम्प जलाकर ग्यारह बजे तक उन्हें पढ़ते देख एक आदमी ने आश्चर्य प्रकट किया.उत्तर मिला कि रात को गणित का फिर से अभ्यास किया करते हैं और इस प्रकार किसी भी पढ़े हुए विषय का ज्ञान बासी नहीं होने देते.आते ही पं० बालशास्त्री से दर्शनशास्त्र का पढ़ना और संस्कृत संभाषण का अभ्यास आरम्भ कर दिया.थोड़े दिन पीछे ही षाण्मासिक परीक्षा में संस्कृत के परीक्षक हुए.एक भी अनुत्तीर्ण न हुआ.यह पहले यूरोपियन थे जिनकी दाढ़ी के साथ मूँछों का भी सफाया मैंने देखा.प्रसिद्ध यह था कि धर्मशास्त्र में उच्चिष्ट की निन्दा सुनकर इन्होंने मूँछ मुड़ा ली है , जिससे बालों में उच्चिष्ट न फँस जाए.
गणित के प्रोफेसर मिस्टर राजर्स भी अपने विषय में निपुण थे और उन्हीं के पढ़ाये हुए, उनके शिष्य, लक्ष्मी नारायण मिश्र सहायक प्रोफेसर थे और पीछे से गणित-साइन्स, दोनों के प्रोफेसर हो गये.
इतिहास के प्रोफेसर इङ्लिस्तान से एक सिफारिशी युवक बुलाये गये,जिनको अयोग्यता के कारण कोई डिग्री न मिल सकी तो उन्हें बनारस कालिज के गले मढ़ा गया.इनको विद्यार्थी बहुत तंग किया करते थे और इनकी इतिहास से अनभिज्ञता की पोल खोला करते थे.
अंग्रेजी के सहायक प्रोफेसर दो हिन्दुस्तानी एम०ए० थे-एक बाल्कृष्ण भट्ट और दूसरे उमाचरण मुकर्जी.ये दोनों भी अपने विषय में बहुत योग्य थे, जिनमें भट्टजी तोसदाचार की मूर्ति थे.दोनों ही कालिज के अतिरिक्त एण्ट्रेंस की दोनों कक्षाओं को भी पढ़ाया करते थे.रह गये दो प्रोफेसर उन विषयों के जो गौण सस्मझे जाते हैं .अंग्रेजी उस समय मुख्य भाषा समझी जाती थी.ब्रिटिश गवर्नमेंट के स्कूलों और कालिजों में अब भी मुख्य भाषा अंग्रेजी और संस्कृत तथा फारसी-अरबी दूसरी वा गौण भाषा समझी जाती हैं.संस्कृत के उपाध्याय पण्डित रामजसन थे जो प्रिन्सिपल ग्रिफिथ को संस्कृत से अंग्रेजी उल्था में भी सहायता देते थे.इसके अतिरिक्त किसी विशेष आश्रय पर इनका ग्रिफिथ साहब पर बड़ा अधिकार था.यही कारण था कि इनके बड़े लड़के लक्ष्मीशंकर मिश्र एम०ए०पास करते ही प्रोफेसर बन गये.दूसरे उमाशंकर अंग्रेजी में फ़ेल होकर बिजनौर जिला के ताजपुर के राजा के पुत्रों के अध्यापक नियत  होकर भेजे गये और तीसरे रमाशंकर मिश्र एम०ए० परीक्षोत्तीर्ण होते ही पहले बनारस कालिज केमें गणित के सहायक प्रोफेसर और फिर अलीगढ़ मेंस्थापित नये  ऐंग्लो महम्मडन कालिज के गणित के मुख्य प्रोफेसर बन कर गये.

Friday, January 27, 2017

स्वामी श्रॄद्धानन्द की अद्भुत आत्मकथा (२)



    बनारस कालिज के प्रिन्सिपल और प्रोफेसर
बनारस में विद्यार्थी बनकर मैं संवत१९३० के पौष मास से लेकर संवत१९३४ के ज्येष्ठ मास तक बराबर रहा.इस अन्तर में केवल संवत१९३२ का पूरा वर्ष रेवड़ी तालाब के स्कूल ‘जयनारायनज कालेज’ में गुजारा, शेष साढ़े तीन वर्ष बनारस कालिज की चारदीवारी में ही व्यतीत किये.रेवड़ी तालाब के स्कूल में एक वर्ष मेहमान बनकर ही काटा,असली विद्यागृह मैं कुइन्स कालिज को ही समझता रहा.
एक बात यहाँ बतला देनी आवश्यक है.उन दिनों संयुक्त प्रान्त में कोई यूनिवर्सिटी न थी  और ना पंजाब में ही .दोनों प्रान्तों के विद्यार्थी एण्ट्रेंस से लेकर एम.ए.  तक की परीक्षा कलकत्ता यूनिवर्सिटी के अधीन देते थे.हाँ,संस्कृत विद्यालय विभाग अपने आप में अवश्य स्वतन्त्र था.
कालिज के प्रिन्सिपल ग्रिफिथ साहब थे जो वाल्मीकीय रामायण का अनुवाद इंग्लिश पद्य में करने के अतिरिक्त चारों वेदों के भी अनुवादक थे.पाँच फीट से शायद एक आध इंच ही लम्बे हों,परन्तु थे नख-शिख से दुरूस्त.जैसे वामन आप थे वैसा ही बौना भृत्य आपको मिला हुआ था.उसने भी साहब बहादूर के अनुकरण में गमुच्छे रक्खे हुए थे.ग्रिफिथ साहब एक टांग से लंगड़े हो चुके थे.इसका कारण भी विचित्र था.कवि ही तो ठहरे, टमटम इतनी ऊँची बनवाई कि जब एक सड़क से दूसरी सड़क की ओर घुमाने लगे तो गला तार में फंस गया और साहब शेष जीवन भर के लिये लंगड़े हो गये.लंगड़ी टांग की एड़ी जरा ऊंची रखवाते और ऐसी सावधानी से चलते कि देखने वाले को टांग का व्यंग प्रतीत न होता.शौकीन ऐसे थे कि नया कोट वा नई पतलून पहिरते समय यदि तनिक भी बेढब मालूम हुई तो ब्बाहर के बरामदे में फेंक दी गई.जो भी भृत्य उपस्थित हुआ उसके भाग्य उदय हो गये.बंगले की सजावट जगत-प्रसिद्ध थी.ऐसा कोई ही हतभाग्य विद्यार्थी होगा जिसने गल्मुच्छ वाले बौने भृत्य को अठन्नी वा रूपया देकर ,प्रिन्सिपल साहब की अनुपस्थिति में उनकी नरम गद्देवाली कोचों और कुर्सियों का आनन्द न लूटा हो.कवि ने विवाह तो किया नहीं था, परन्तु बीच के सड़क की दूसरी ओर एक कोठी किराये पर  लेकर अपनी सदा साहागिन प्रिया को रखा हुआ था.नाजुक इतने कि यदि कोई उनकी ओर बढ़े तो पीछे हटते जाते थे.साधारण पुरूष के मुँह से निकली अपावायु को सहन नहीं कर सकते थे.प्रायः बोते बहुत धीरे थे और इसीलिए मिलने वाले को आगे बढ़ना पड़ता था,परन्तु जब पढ़ाते तो गरज ऐसी होती कि एक-एक शब्द स्पष्ट सुनाई देता.शायद गरज की सारी शक्ति का संचय उसी समय के लिये कर छोड़ते थे.मेरे अंग्रेजी प्रोफेसर की बीमारी पर एक बार , संवत १९३४ मेंउन्होंने मेरी कक्षा को एक सप्ताह तक इंग्लिश पद्य पढ़ाया था,जिसे मैं कभी नहीं भूला.

Thursday, January 26, 2017

‘कल्याण मार्ग का पथिक’- स्वामी श्रॄद्धानन्द की अद्भुत आत्मकथा (१)



(‘कल्याण मार्ग का पथिक’ स्वामी श्रॄद्धानन्द की अद्भुत आत्मकथा है. यह हिन्दी की संभवतः पहली आत्मकथा है.इस पुस्तक को भाषा  और वर्णन की रोचकता तथा उन्नीसवीं सदी में भारतीय समाज के जीवन्त चरित्रों से परिचय के लिये तो पढ़ा ही जाना चाहिये , आत्मकथा की बेबाकी और ईमानदारी के लिये भी यह एक जरूरी सन्दर्भ है. इस शॄँखला में डेढ़ सदी पुराने भारतीय समाज के कुछ चित्र देने का प्रयास रहेगा)
वकालत की परीक्षा में रिश्वत
मार्गशीर्ष संवत १९४३ के उत्तरार्ध(दिसम्बर सन १८८६ ई.के आरम्भ) में मैंने वकालत की परीक्षा दी थी और परिणाम महिनों तक रुका रहा.इसका कारण यह था कि  पंजाब यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार मिस्टर लार्पेण् ने इस वर्ष दोनों हाथों से लूटना शुरू कार दिया था.गतवर्ष तो अभी साहब बहादूर नव-शिक्षित थे इस्लिये कोई इक्का-दुक्का ही उनके काबू चढ़ा, इस वर्ष वे किसी को सूखा छोड़ना नहीं चाहते थे.वकालत में पास होने के लिये १५०० रूपये प्रति याचक की खुली शरह थी.साहब बहादूर ने दलाल वा एजेण्ट भी रख छोड़ा था जिसका नाम गण्डा सिंह था.२०० रूपये भाई गण्डासिंह की भेंट होते ही १०० अंग्रेज देवता की पूजा में स्वीकार हो जाता और वकालतरूपी  स्वर्ग-प्राप्ति की अदृश्य हुण्डी उसी दम मिल जाती.मुखतारी के प्रार्थियों से शायद १००० रूपये,बी.ए.,एम.ए. से कुछ कम लिया जाता था.कोई-कोई एफ़.ए. भी लार्पेण्ट गर्दी चक्कर पर चढ़्ने से न बच सके.कोई-कोई तो अक्ल के  ऐसे पुतले निकले कि पास होने तक ही शान्त न हुए प्रत्युत पहले-दूसरे होने की ठान ली.वकालत में पहले होनेवाले के लिये ३५०० और दूसरे होनेवाले के लिये २५००रूपये.यह चढ़ावा केवल उन्हीं को नहीं चढ़ाना पड़ा जो सचमुच अनुत्तीर्ण थे बल्कि जो पास थे उनके भी घर पहुँच-पहुँचकर साहब के दूत ने उनकी जेबें भी खाली कीं.यह रोग यहाँ तक बढ़ा कि मेरे कुछ मित्रों ने मुझे पत्र लिखकर लाहौर बुलाया, क्योंकि गण्डासिंह मुझे ढूँढता और कहता फिरता था कि यद्यपि मैं पास हूँ तो भी बिना १००० रूपये दिये मुझे भी प्रमाणपत्र से वंचित रहना पडेगा.मैं यह दृढ़ संकल्प करके लहौर पहुँचा कि इस अनाचार का भण्डा फोड़कर रहूँगाअ, किन्तु मेरे पहुँचने से पहिले ही हिसार के प्रसिद्ध वकील लाला चूड़ामणि ने गण्डासिंह की खूब खबर लेकर सर विलियम रैटिंगन (उस समय वाइस चाँसलर) के यहाँ दुहाई जा मचाई.वाइस चाँसलर ने उसी समय सायंकाल को परिणाम की सारी फाइल सँभाल ली.लाला चूड़ामणि भाग्यशाली थे कि पहल उनकी ओर से हुई.विश्व्विद्यालय सभा ने अकेले लाला चूड़ामणि को पास करके बाकी सबको फेल कर दिया, और मैं भी बलवे की भीड़ में निरपराध बालक की तरह गोली का शिकार हो गया

Monday, January 9, 2017

रिश्ता

ब्राजीली कहानी

       --- लोरेना लियान्द्रो 

मैंने जरा भी बुरा नहीं माना जब तुम मुझे बड़ी बेरुखी से पीठ दिखा के दूसरे कमरे में चले गए थे , मैं ठगी सी वहीँ खड़ी की खड़ी रह गयी।  मैं तुम्हारी मिन्नतें करती रही और तुम मुझे अनसुना कर के अपने मन की ऊल ज़लूल करते रहे ,तब भी मुझे बुरा नहीं लगा। तब भी नहीं जब तुम मेरी आँखों के सामने खुली सड़क पर यहाँ वहाँ भागते रहे और उन तमाम आज़ादियों का लुत्फ़ उठाते रहे जिनकी मेरे घर के अन्दर तो बिलकुल गुंजाइश नहीं थी। कई बार ऐसा भी हुआ कि तुम अपना गुस्सा थाम न पाए और मुझपर झपट पड़े … मुझे नोंच खाया , तब भी मैंने सहज भाव से सब स्वीकार करती रही। 

देखो , मैंने उन मौकों को भी बिलकुल तूल नहीं दिया जब घर आये मेहमानों की आँखों के सामने तुमने मेरी इज्ज़त तार तार कर डाली।  रात रात भर जब तुम खुराफ़ात और मौज में घर में धमा चौकड़ी मचाते रहे और एकपल को भी मुझे सोने नहीं दिया ,तब भी मैंने धैर्य नहीं खोया…. उस समय भी नहीं जब तुमने मेरे घर के फर्नीचर और दूसरी चीजों  की बिलकुल परवाह नहीं की और तोड़ फोड़ करते रहे। यहाँ तक कि सर्दी की रातों में मेरे साथ सोते हुए तुम मुझे कम्बल से धकेल धकेल कर बाहर खिसकाते रहे ,तब भी मैंने तुम्हें कुछ नहीं कहा। एक एक कर के मेरी प्रिय चीजों पर जैसे तुम हक़ जताते रहे ,तब भी मैं बगैर किसी बात का बतंगड़ बनाये सब कुछ शान्त भाव से सहती रही। कई बार तुम्हारे साथ रहते हुए खीझ भी होती कि फलाँ चीज तुम्हें पता क्यों नहीं ,पर उसका भी बुरा नहीं लगा। दिनभर की थकान के बाद जब मैं थकी हारी बिस्तर पर निढ़ाल हुई और तब तुम्हें खेल ठट्ठा सूझने लगता ,तब भी कोई मौका ऐसा नहीं आया जब मैंने तुमपर कोई गुस्सा दिखाया हो। दीनार की मेज पर मुझे इमोशनली ब्लैकमेल का तुम्हारा ढब मुझे आहत करता था ,फिर भी मैंने यह सब तुम्हें करने दिया। 
निपट अकेले रह कर मनमर्जी जीवन जीने के तमाम मौके तुमने मुझसे छीन लिए ,पर मुझे इनका भी अफ़सोस नहीं हुआ। पर अब जब इन सारी बातों और मौकों के बावजूद आज मैं चारों ओर भाग भाग के तुम्हें ढूँढ रही हूँ … तुम मुझसे दूर भागते जा रहे हो , कहीं तुम्हारा नामो निशाँ नहीं दिखाई दे रहा है। अब मुझे समझ आने लगा है कि तुम्हारा लौटना मुमकिन नहीं… अब मैं तुम्हें  देख नहीं  पाऊँगी। 

ओ मेरे प्रिय कुत्ते ,और कुछ तो नहीं पर अब तुम्हारी गैर मौजूदगी मुझपर भारी पड़ने लगी है …. तुम्हारे रहते कभी मुझे बुरा नहीं लगा ,अब तुम्हारी अनुपस्थिति मुझे बेहद खल रही है। 

       ( "Contemporary Brazilian Short Stories" संकलन से साभार )

अनुवााद एवं प्रस्‍तुति : यादवेन्‍द्र