Friday, March 18, 2016

मेरी, तेरी, सबकी मां की जय हो भारत

विजय गौड़

 
भारत माता की जय, तू-तू, मैं-मैं की हदों को पार कर रही है। यहां तू-तू, मैं-मैं को मुहावरे की तरह ही देखें। वैसे भी मैं राष्‍ट्रद्रोही नहीं हूं। राष्‍ट्रदोह का सार्टिफिकेट बांटने वालों से अपील है कि वे अपनी सील-मुहर को अभी थैले से बाहर न निकाले और घ्‍यान से पढ़ें।

अब देखिये न एक तरफ वे महाशय जिद ठाने बैठे हैं कि मैं भारत माता की जय नहीं बोलूंगा, दूसरी ओर माता के सच्‍चे पुत्र हैं, जो यूं तो अक्‍सर ही मां का नाम भूल जाते हैं, और वक्‍त बेवक्‍त के हिसाब से कुछ भी पुकार लेते हैं, जिद्द ठाने हैं कि भारत माता की जय तो बुलवा कर ही रहेगें। देखिये मैं राष्‍्ट्रदोही पुकार दिये जाने का खौफ खाये बगैर बता देना चाहता हूं कि कभी किसी क्रिकेटकर, किसी विराटरू या मोनी-जॉनियों के कलात्‍मक अंदाजों पर, खासतौर पर उस वक्‍त जब वे भारतीय जनता के करोड़ो रूपयों के कजर्दार किसी शराब के व्‍यापारी की खरीद पर बनायी गयी एक टीम हों या अन्‍यथा भी, जब वे विरोधी टीम के धुर्रे उड़ा रहे हों और उनका मालिक व्‍यपारी चीयर्स गर्ल्‍स की कमर में हाथ डालकर यम यम करता हो, तो औपनिवेशिक पहचान कराती भाषा में गूंजने वाले नाम के साथ माता को याद करते हुए लगाया जाने वाला जयकारा भी उनकी दमित इच्‍छाओं का यम यम हो जाता है। एक बात ओर है कि संसद, कानून और जब चाहे तब बेखौफ सरहदों के आर-पार निकल जाने वाले और सब तरफ से विजय पाये व्‍यापारी के राष्‍ट्रद्रोह को भी यदाकदा पहचान लेने वाले चैनलों के एंकर भी तू-तू, मैं-मैं को हवा देने में कम नहीं।

मजेदार है कि कितने ही चैनेलों के एंकर भी गले की नसें फुलाफुलाकर उस टोपीबाज को बिल्‍कुल सामने-सामने देशद्रोही और जाने क्‍या क्‍या बोल रहे हैं, मुकदद्दमें का डर दिखा रहे है, लेकिन वह तब भी भरत माता की जय न बोलने की जिद्द पर अड़ा बैठा है और अपने ही धर्म के एक सांसद के भावनात्‍मक इजहार तक को धत्‍ता बताकर कभी जय हिन्‍द तो कभी इंक्‍लाब जिंदाबाद ही कहे जा रहा है। भारत माता की जय का तर्जुमा करके मंद मंद मुस्‍कराते हुए वह और भी चिढ़ाऊ कार्रवाई करने में माहिर है। उसके अंदाज पर तो नसें फुलाकर बोलने वाले एंकरों से प्रभावित और देश प्रेम के क्रोध से उबल रहे भले मानुस भी कभी-कभी सारे मामले को खुद ही नूरा कुश्‍ती के रूप में देख सकते हैं।

खैर हमें इस चिन्‍ता में नहीं घुलना है और न ही तू-तू, मैं-मैं करने वालों के झांसे में आकर कभी राष्‍ट्रवाद का सार्टिफिकेट बांटने वालों के साथ होना है और न ही हर सेकैण्‍ड के हिसाब से बांटे जा रहे उन सार्टिफिकेटों को फाड़ने में जुटे नूरा कुश्‍ती लड़ते हुए मुस्‍कराने वालों के साथ होना है। खतरा तो दोनों ही ओर है। निश्चित ही है। वैश्विक पूंजी से दोनों का ही प्रेम इतना अनूठा है कि अपनी अपनी जरूरत के हिसाब से दोनों ही जनता की एक मुश्‍त गाढ़ी कमाई के पैसे को वैश्विक पूंजी द्वारा बाजार में उतारी हुई मशीनों पर लुटा देना चाहते हैं। उनकी जरूरत को पूरा करने के लिए सार्टिफिकेट बांटने वाली मशीन प्रति सैकेण्‍ड की दर से सार्टिफिकेट बांटेगी और फाड़ने वाली प्रति सैकेण्‍ड की दर से उन्‍हें फाड़ती जायेगी1 खबरों की तलाश में जुटे चैनलों को विकास के आंकड़े पर सुबह से शाम तक मजमा-ए-बहस जुटाना आसान होगा। वे बता पायेगें कि आज सार्टिफिकेट बांटने वाली मशीन प्रति सैकेण्‍ड चार सार्टिफिकेट की दर से कुल तीस हजार सार्टिफिकेट ही बांट पायी जबकि सार्टिफिकेट फाड़ने वाली मशीन ने प्रति सैकेण्‍ड पांच सार्टिफिकेट की दर से सारे के सारे सार्टिफिकेट कुल समय से दो घंटे पहले ही फाड़ दिये। तय मानिये मजमा-ए-बहस के निर्णय आंकड़ो को इस तरह से परिभाषित करने में साहयक रहेंगे कि गठित समीक्षा कमेटी सिफारिशें दे पाये कि मशीन की कार्यक्षमताओं को परिमार्जित करना आवश्‍यक है। अत: एफ डी आई का प्रतिशत 51 कर दिया जा रहा है।

मित्रों बहुत हुई तू-तू, मैं-मैं।

यह बताइये कि आपकी भाषा में मां को क्‍या कहते हैं ?
मैं तो गढ़वाल का रहने वाला हूं, मेरी मातृभाषा में तो ‘ब्‍वै‘ बोला जाता है।
कल एक मित्र बोले कि उनकी भाषा में ‘दइया’, ‘महतारी’, ‘माई’, तीनों ही शब्‍द प्रचलित हैं।
वैसे मेरा दोस्‍त पाटिल तो ‘आई’ ही बोलता है।
आपको सच बताऊ गढ़वाल के पड़ोस में ही कुमाऊ है वहां ‘ईजा’ बोला जाता है।
आपकी मातृभाषा में क्‍या बोलते हैं ? जो भी बोलते हों बोलिये उस मां की भी जय।

 

Sunday, March 13, 2016

सांस्‍कृतिक आयोजनों का ‘राष्‍ट्रवादी’ चेहरा


बंगला दलित धारा के कवि कालीपद मणि की कविता का यह स्‍वर व्‍यापक दलित, शोषित समाज को दायरे में रखकर लिखी जाने वाली किसी भी भाषा की कविताओं के ज्‍यादा करीब है। यही वजह है कि वैश्विक स्‍तर पर इस देश को सिर्फ अध्‍यात्‍मवादी नजरिये से सिरमौर होते देखने की चाह रखने वाले सांस्‍कृतिक आयोजनों के ‘राष्‍ट्रवादी’ विचार से यह सीधे मुठभेड़ कर रही है। शिक्षा व्‍यवस्‍था का वह ढकोसला भी यहां तार तार हो रहा, जिसका यूं तो आमजन के जीवन को संवारने में वैसे भी कोई बड़ा दृष्टिकोण नहीं, पर जिसकी उपस्थिति से यदा कदा की कोई संभावना जन्‍म ले जाती है। तय जानिये यदा कदा की वे संभावनायें भी उनकी आंखों की किरकिरी है, मुनाफे की सोच के चलते जो, उन सरकारी विद्यालयों को भी पूरी तरह बंद कर देना चाहते हैं। उनकी साजिशों का खेल ही ‘सांस्‍कृतिक’ होता हुआ आर्ट ऑफ लीविंग है।

कालीपद मणि 

अनुवाद – कुसुम बॉंठिया 


प्रश्‍न का तीर-इस्‍पात

   
एक शिशु कंठ सुबह शाम
फुटपाथ पर तैरता रहता है
छ: रुपया किलो, बाबू, ताजा खीरे
खत्‍म हो गये तो पछताओगे।
खींच-खींच कर लगाए रट्टा
ठीक जैसे बचपन की पाठशाला में  
पढ़ाई की रटंत
एक कौड़ी पा गंडा
दो कौड़ी आध गंडा।

कुछ देर खड़ा रहता हूं उसके पास
नंगे बदन, पैबन्‍द लगी बेहद बदरंग पैंट
पास ही उकड़ू बैठी उसकी माँ
पके बालों में जूं तलाशती हुई।
अचानक ही उससे पूछ बैठा
लड़का स्‍कूल क्‍यों नहीं जाता ?
बुढि़या फुफकार उठी निष्‍फल आक्रोश से
प्रश्‍न के तीर से इस्‍पात छिटक रहा था
गिरस्‍ती फिर कइसे चलाऊँगी
बताइए आप ?
क्‍यों, बोलते क्‍यों नई ?
उत्‍तरहीन पृथ्‍वी
मुँह पर ताला जड़े
निर्वाक् चलती जा रही है।
शिशुकंठ की रट्टा बंधी पुकार सुनाई दे रही है
छ: रुपया किलो बाबू ताजा-ताजा खीरे।

Saturday, March 12, 2016

उसका नाम कन्हैया है

संस्समरण

सुनील कैंथोला

बकरोला जी श्याम को कुत्ता घुमाते हैं, कोई सात बरस पहले एक मलाईदार विभाग से सेवानिवृत हुए हैं, यहीं वसंत विहार एन्क्लेव में बंगला है, ऐशो आराम की कमी नहीं. बकरोला जी का कुत्ता उनसे जायदा हट्टा-कट्टा है. एक तो उम्र में कम है और दूसरा कुत्ता शराब नहीं पीता. जब वे घूमते हुए कुत्ते के मलत्याग हेतु कोई उपयुक्त स्थान ढूँढने की फिराक में होते हैं तो लगता ऐसा है कि मानो उनका कुत्ता उन्हें घुमा रहा हो.

बकरोला जी की एक खासियत है कि बात कहीं से भी शुरू हो उसका अंत I.A.S. व्यवस्था को फटकारने और यदि दो-चार पेग अन्दर हों तो माँ-बहन की गालियों पर समाप्त होती है. ये बकरोला जी की I.A.S. से व्यक्तिगत खुन्नस है. इसकी तह में जायेंगे तो आक्रोश शायद इस बात का है कि वे I.A.S. बनने से वंचित कैसे रह गए.
बकरोला जी अच्छे आदमी हैं. इलाके में सत्संग के आयोजन में हमेशा आगे रहते हैं. क्रिकेट में जब भारत पाकिस्तान से जीतता है तो अपनी जेब से आतिशबाजी का आयोजन करवाते हैं. पंद्रह अगस्त हो या छब्बीस जनवरी, बकरोला जी सोसाइटी के पार्क में होने वाले झंडारोहण कार्यक्रम का अहम् हिस्सा होते हैं. वे कड़क स्वाभाव के हैं. झंडारोहण के पश्चात् मिष्ठान वितरण के दौरान बगल की मलिन बस्ती का कोई बच्चा यदि दोबारा लड्डू मांग ले तो उसके कान गर्म करने में देर नहीं लगाते. बकरोला जी सेवानिवृत होने के बाद भी आजादी की रक्षा में संलग्न हैं. देश की आज़ादी को लेकर बकरोला जी बहुत भावुक हैं. यही वो आज़ादी है जिसने उनको वसंत विहार एन्क्लेव के इस बंगले में विराजमान किया अन्यथा सूखी तन्खवाह में भला ऐसा कहाँ संभव था. जब तक उनकी कलम में ताकत रही बकरोला जी ने उसे पूरी निष्ठा से आज़ादी की रक्षार्थ समर्पित किया. ये बात अब सार्वजनिक हो ही जानी चाहिए कि जब से उन्होंने उस नासपीटे कन्हैया को आज़ादी के नारे लगाते देखा उसी क्षण से बकरोला जी के भीतर एक हाहाकारी किस्म की उथल पुथल शुरू हो गयी है. अब कोई माने या न माने इसका श्रेय उस कमबख्त कन्हैया को ही जायेगा जिसने उन्हें अपनी आज़ादी से प्राप्त होने वाले फलों के प्रति जागृत किया और उस पर पड़ने दुष्प्रभावों के प्रति उन्हें सतर्क किया . बकरोला जी को अपनी आजादी की चिंता है. अब वे सीरियल कम और इंडिया टीवी जायदा देखने लगे हैं.

बकरोला जी उस सामाजिक परिवेश से आते हैं जिसमे महिलाएं अपने बड़े बुजुर्गों का नाम अपनी जुबान पर लाना पाप समझती हैं. मसलन यदि किसी महिला के ससुर का नाम इतवारी लाल हुआ तो वह इतवारी लाल जैसे पवित्र शब्द को अपनी जुबान पर लाना तो दूर इतवार के दिन को इतवार न बोल कर कुछ और बोलना शुरू कर देगी जैसे कि तातबार! इसी प्रथा का कुछ हैंगओवर बकरोला जी पर भी है. बकरोला जी आजकल बहुत हिंसक हो रहे हैं. पर अपने तरकश में भरी चुनिदा गालियों से लैस होने के उपरांत भी वे कन्हैया को गाली देने में इसलिये असमर्थ हैं क्योंकि उसका नाम कन्हैया जो है!



Friday, March 11, 2016

अभिव्यक्ति का झूला

“शब्द हथियार होते हैं, और उनका इस्तेमाल अच्छाई या बुराई के लिए किया जा सकता है; चाकू के मत्थे अपराध का आरोप नहीं मढ़ा जा सकता।“ एडुआर्डो गैलियानो का यह वक्तव्य डा. अनिल के महत्‍वपूर्ण अनुवाद के साथ पहल-102 में प्रकाशित है।
 
इस ब्लाग को सजाने संवारने और जारी रखने में जिन साथियों की महत्वतपूर्ण भूमिका है, कथाकार दिनेश चंद्र जोशी उनमें से एक है।
 
जोशी जी, भले भले बने रहने वाली उस मध्य वर्गीय मानसिकता के निश्छल और ईमानदार व्य।वहार बरतने वाले प्रतिनिधि हैं, जो हमेशा चालाकी भरा व्यवहार करती है और लेखन में विचार के निषेध की हिमायती होती है। पक्षधरता के सवाल पर जिसके यहां लेखकीय कर्म के दायरे से बाहर रहते हुए रचनाकार को राजनीति से परहेज करना सिखाया जाता है और रचना को अभिव्यक्ति के झूले में बैठा कर झुलाया जाता है, इस बात पर आत्म मुगध होते हुए  कि चलो एक रचना तो लिखी गयी। जोशी जी का ताजा व्यंग्य लेख इसकी स्पष्ट मिसाल है।
 
असहमति के बावजूद लेख को टिप्‍पणी के साथ प्रस्तुत करने का उद्देश्य स्पष्‍ट है कि ब्लाग की विश्ववसनीयता कायम रहे। साथ ही अभिव्यक्ति की आजादी की हिफाजत हो सके, एवं ऐसे गैर वैचारिक दृष्टिकोण बहस के दायरे में आयें, जो अनर्गल प्रचारों से निर्मित होते हुए गैर राजनैतिक बने रहने का ढकोसला फैलाये रखना चाहते हैं लेकिन जाने, या अनजाने तरह से उस राजनीति को ही पोषित करने में सहायक होते हैं, जिसके लिए ‘लोकतंत्र’ एक शब्द मात्र होता है- जिसका लगातार जाप भर किया जाना है, ताकि अलोकतांत्रिकता को कायम रखा जा सके।

वि.गौ.

व्यंग्य लेख

                                 वाह कन्हैया, आह कन्हैया

         दिनेश चन्‍द्र जोशी
          9411382560
 
एक कन्हैया द्वापर युग में पैदा हुए थे, दूसरे आज के साइबर युग में प्रकट हुए है। द्वापर वाले कन्हैया गोपियों के साथ रास नचाते थे, ये नये वाले जे.एन.यू की गोपियों के साथ विचारधारा रूपी प्रेमवर्षा में स्नान करते हैं। ये बौद्धिकता की वंशी बजा कर जे.एन.यू के ग्वाल बालों को सम्मोहित करते हैं, देश उनके लिये कागज में बना नक्सा भर है, जिसको रबर से मिटा कर बदला जा सकता है। उनका लक्ष्य है, ''देश से नहीं, देश में आजादी,''  उनका नारा है, ''आजादी, आजादी'', मुह खोलने की आजादी, मन जो कहे उसे उड़ेलने की आजादी। क्योंकि उनका मन अभिव्‍यक्ति के लिये छटपटाता रहता है, इसी छटपटाहट के तहत उनकी संगत कुछ देश द्रोही किस्म के ग्वाल बालों से हो गई थी। वे आजादी के मामले में इससे दो हाथ और आगे थे, वे नारे लगा रहे थे, देश के टुकड़े टुकड़े कर देंगे, मुटिठयां उछाल रहे थे, हुंकारा भर रहे थे, आग उगल रहे थे, कन्हैया भी उनके झांसे में फंस गये, उस भीड़ में प्रकट नजर आये, नैतिक समर्थन देने को उत्सुक से। टुकड़े टुकड़े करने का नारा लगाने वाले भूमिगत हो गये।   छात्रसंघ के अघ्यक्ष होने के नाते  कन्हैया धर लिये गये। हवालात में, सुनते हैं, कन्हैया की ठुकाई भी हुई। उनका मोरमुकुट बंशी वंशी सब तोड़ दी गई होगी, जाहिर सी बात है। उन पर राजद्राोह का आरोप लगाया गया। कन्हैया की गिरफ्तारी पर बवाल मच गया। सारे जे.एन.यू के ब्रजमंडल सहित वामदल,पुष्पकमल दहलवादी विफर पड़े। देशभक्ति  की भाावुकता को संघियो का षडयन्त्र बताया, तर्क,विचार, ज्ञान,शोध आजादी के अडडे की श्रेष्ठता को बदनाम करने की साजिश बताया। सेक्युलरवादियों ने भी बहती गंगा में हाथ धोये। राहुल बाबा की बैठे बिठाये मौज हो गई। नितीश बोले, ये मथुरा वाला नहीं ,हमारे  बेगूसराय वाला कन्हैया है, इसको हिन्दूवादी तंग कर रहे हैं, अलबत्‍ता लालू जी के गोल मटोल ढोल से कुछ मौलिक किस्म का प्रहसन नहीं झरा। दक्षिणपंथियों ने देशभक्ति की विशाल रैली निकाली, तिरंगे फहराये, केशरिया लहराये, कहा, बन्द कर देने चाहिये देशद्रोह के जे..एन.यू जैसे अडडे, जहां पर शराब, ड्रग्स, कंडोम बहुतायत में पाये जाते हैं। ऊपर से देश के टुक्ड़े टुकड़े करने के नारे भी लगाये जाते हैं। आंतकवादी इनके आदर्श हैं, हाफिज सईद इनका सरगना है, इन सबको पाकिस्तान खदेड़ देना चाहिये। मीडिया की बहार हो गई, देशभक्ति व देश द्रोह की परिभाषायें खंगाली गई,कानूनी टीपें खोजी गई। इन विषयों के वक्ता प्रवक्ताओं की दुकानें चैनलों पर जम कर चलने लगी। भगत सिंह, गोलवलकर, गांधी, गोडसे सब लपेटे में लिये गये। कुछ ने सोनियां को महान देशभक्त बताया। उधर हनुमनथप्पा सियाचीन में बफ्र्र के नीचे दबे कराहते रहे, इधर जे.एन.यू के मुकितकामी, देशभक्ति को छदम अवधारणा ठहराने का तर्क गढ़ते रहे।  कन्हैया को कोर्ट में पेश किया गया, वहां काले कोट वालों ने उन पर लात घूंसे जड़ने की चेष्टा की, कुछ इस अभियान में सफल भी हुए,कुछ निराश जो देशभक्ति का कर्ज नहीं चुका पाये। बड़ा विलोमहर्षक –दृश्य था, जनता भौचक्की रह गई, उसकी समझ में ही नहीं आ रहा था कि आखिर देशभक्ति होती क्या चीज है, तिरंगा फहराना या काले झंडे दिखना। जनता बिचारी को खुद अपनी देशभक्ति पर शक होने लगा। इधर कन्हैया को जमानत भी मिल गई, वे हवालात से हीरो बन कर लौटे, उनका इन्टरव्यू लेने को मीडिया में होड़ मच गई है।  कन्हैया ने जे.एन.यू के ग्वालबालों को भाषण दिया,उनको देशभक्ति की व्याख्या समझाई, वे काले जैकिट के भीतर सफेद टी शर्ट में सलमान खान वाले अंदाज में नमूदार हुए। जे.एन.यू की गोपियां उसकी रोमानिटक बौद्धिकता पर फिदा हुई। कन्हैया ने अपनी मां की गरीबी का हवाला दिया। उसने स्वयं को विधार्थी व बच्चा भी कहा, इस बच्चे ने फिर राजनीतिक भाषण दिया,उसका भाषण सुन कर तीसियों साल वामपंथ में खपा चुके बूढ़े कुंठित हुए। कन्हैया ने कहा, हमें मुक्ति चाहिये, गरीबी से, बेरोजगारी से, साम्प्रदायिकता से, सामन्तवाद से मुक्ति। हमें छदम देशभक्ति से मुक्ति चाहिये, असहिष्णुता से मुक्ति। मुक्ति का पाठ पढ़ाता कन्हैया, बच्चे से एक घाघ नेता में तब्दील नजर आया। उसकी नेतागिरी से प्रभावित हो कर सीताराम येचूरी ने उसको अपना चुनाव प्रचारक घोषित कर दिया,बंगाल के चुनाव हेतु। केजरीवाल उसके मुक्ति पाठ से प्रेरित होकर कहने लगे,हमें भी मुक्ति चाये,राज्यपाल जंग से। उसका मुक्ति पाठ इतना प्रभावशाली था कि उस पाठ ने कइयों को अपनी जद में ले लिया। स्त्रियां पतियों से मुक्ति चाहने लगीं,कर्मचारी बास से, बच्चे अभिभाावकों से, कांग्रेसी सोनियां राहुल से, विपक्षी मोदी सरकार से मुक्ति चाहने लगे,सत्‍ताधारी सहिष्णुता के ठेकेदारों से। गीतकार आधुनिक कविता से मुक्ति चाहने लगे, कहानीकार,लम्बी कहानी लाबी से। कन्हैया का मुक्ति पाठ वायरल हो गया। कन्हैया का देशद्रोह सफल हो गया, हालांकि उसकी मुक्ति व स्वच्छन्दता का राग कइयों के गले नहीं उतर रहा है,वे उसकी ठुकाई तैयार बैठे है, उसके सिर पर इनाम घोषित हो चुका है, ये उसको कंस बना कर छोड़ेंगे।
 

Friday, February 19, 2016

खाकी निक्कर

सुनील कैंथोला
 
खुर्शीद, मास्टर का दूसरे नंबर का बेटा है. बड़ा वहीद और छोटा मुस्तकीम. मुस्तकीम से पहले एक लड़की है, जिसका नाम मुझे याद नहीं. ये सारे बच्चे चोराहे के उसी खोके में पैदा हुए जिसके एक हिस्से में मास्टर अपनी नाई की दुकान चलाता था. मास्टर अब नहीं है, उसकी मौत उस ज़माने में हुई जब दारू के नाम पर टिंचरी दवाई की दुकानों में खुलेआम बिका करी थी. मास्टर के अनेक किस्से हैं जैसे कि वो आँखों की कोई दवा मुफ्त बांटा करता था. या कि उसका खोका बेरोजगारों को छुपकर बीडी पीने की निशुल्क आड़ प्रदान किया करता था. पर छोड़ो, ये किस्सा मास्टर के बारे में नहीं बल्कि खुर्शीद और उसकी खाकी निक्कर के बारे में है.

मास्टर जैसा भी रहा हो, पर उसने अपने बच्चों को स्कूल जाने और पढने से रोका नहीं. ये अलग बात है कि वो जायदा पढ़े नहीं, पर थोडा बहुत विद्यार्थी जीवन सभी बच्चों के  हिस्से आया.  स्कूली दिनों में हिन्दू-सिख बच्चों की संगत में रहते हुए खुर्शीद को अपना नाम अटपटा लगने लगा. फिर किशोरावस्था में कदम रखते हुए जब उसने कैंची और उस्तरा संभाला  तब उसने खुर्शीद के खुरदुरेपन को दूर करने की ठान ली. उन्ही दिनों वो मेरे संपर्क में आया था. तब मास्टर सेमी रिटायरमेंट मोड में था और दुकान अब वहीद और खुर्शीद चलाने लगे थे. छोटा  मुस्तकीम अभी भी स्कूल जा रहा था और उनकी बहिन छोटी उम्र में ब्याही जा चुकी थी. जब से खुर्शीद दुकान में बैठने लगा तब से वहां उसके हम उम्र हमेशा ही भिनभिनाते रहते थे.  जाहिर है कि उसके दोस्त शत -प्रतिशत हिन्दू और सिख परिवारों से थे. दिलचस्प बात ये है कि उसका कोई भी दोस्त उसे खुर्शीद के नाम से नहीं बुलाता था. सब उसे अज्जु कहते थे. पूछने पर उसने बताया कि अज्जु नाम उसी ने रखा है क्योंकि खुर्शीद बड़ा अटपटा और खुरदरा सा है. अज्जु हंसमुख और हाजिर जवाब था. दुकान पर अब वेटिंग लिस्ट भी लगने लगी थी. लोग नंबर लगा कर बगल की चाय की दुकानों में बैठ जाते और उनकी बारी  आने पर अज्जु उन्हें बुला लेता. कभी कोई शेव के लिए जल्दी मचाता तो अज्जु बोल देता ‘अभी तो टाइम लगेगा भाई जी, जल्दी है तो बनी बनाई ले लो’.

धीरे धीरे अज्जु और उसकी मित्र मण्डली की गतिविधियाँ  मुहल्ले की गलियों से बाहर बड़े मैदानों तक होने लगी. वे क्रिकेट और फ़ुटबाल खेलने मातावाला बाग़ जाने लगे. अपने दोस्तों की ही तरह अज्जु सब कुछ करना चाहता था. दुकान पर अब ब्रूसली का पोस्टर लग चूका था. अज्जु को कराटे भी सीखनी थी और बॉडी बिल्डिंग में भी हाथ अजमाना था. चूंकि दूकान देर रात तक चलती थी इसलिये अज्जु अब सुबह मातावाला बाग जाने लगा. निरंतर पसरते देहरादून में अब मातावाला बाग ही ऐसी जगह बची थी जहाँ अलग अलग मुहल्लों की कई टीमे एक साथ क्रिकेट खेल सकती थी. लोग जोगिंग कर सकते थे, शादियों के सीजन से पहले ब्रास बैंड वाले प्रैक्टिस कर सकते थे. अखाडा चलता था, शाखा लगती थी. मातावाला बाग का यह  मजमा पौ फटने से पहले ही शुरू हो जाता था. अज्जु और उसकी टोली को यह सब भाने लगा और मातावाला बाग उनके रूटीन का हिस्सा बनने लगा.
मातावाला बाग में पिछले कोई दो एक बरस से शाखा लगने लगी थी जिसमें अधिकांशतः जनसंघ के ज़माने के बुजुर्ग और युवावस्था खर्च कर चुके वरिष्ठ कार्यकर्ता ही शिरकत करते थे. रंगरूटों का अच्छा अभाव था. उस समय तक हालाँकि इंटों की एक किश्त अयोध्या भेजी जा चुकी थी पर रामभक्तों की जमात से संघी उत्पादन की प्रक्रिया कमोबेश धीमी ही थी. अज्जु और उसके साथियों की टोली के लिये शाखा की प्रक्रिया कोतुहल का विषय होती और वे दूर से खड़े होकर उनके कर्मकांड को देखते. इसी फेर में शाखा संचालक की नज़र इस टोली पर पड़ गयी और मेल-मिलाप बढ़ने लगा. अज्जु, अब अज्जु जी बनने की दिशा में बढ़ने लगे. इसी दौर में अज्जु ने अपनी टेंशन मुझ से साझा की.  हुआ यूँ कि अपनी पूरी मण्डली के साथ अज्जु मियां ने भी शाखा में भाग लेना शुरू कर दिया. सुबह की नींद सब से प्यारी होती है. जिसने अल सुबह बिस्तर का मोह छोड़ दिया उसने समझो पहली लड़ाई तो जीत ही ली. पर हर कोई कहाँ उठ पता है. इसलिये शाखा के सयाने नये रंगरूटों के घर घर जा कर उन्हें उठाते है ‘पांडे जी उठ जाईये, शाखा का समय हो चूका है’. अज्जु को शाखा का ऐसा नशा लगा कि उसकी नींद ही गायब हो गयी. अपनी टोली के अन्य साथियों को उठाने की साथ साथ वह शाखा संचालक के दरवाज़े पर भी पहुँच जाता. पहले एक-दो दिन तो झंडा-डंडा भी उसी ने ढोया. पर  इसी बीच बात खुल गयी कि अज्जु उस बिरादरी का नहीं है जिसके लिये ये आयोजन होता है. अज्जु को किनारे कर के उसकी टोली से बात की गयी की भईया इसे मत लाओ. पर टोली कहाँ मानती और किसी की भी समझ में ये नहीं आया की अज्जु को लाने से मना क्यों किया जा रहा है. एक तरफ नए रंगरूटों को खोने का डर तो दूसरी तरफ अज्जु को भीतर लाने की समस्या,  कुछ दिन इसी तरह बीत गए और अज्जु शाखा में हिस्सा लेता रहा.

फिर शाखा संचालक की तरफ से निर्णय सुनाया गया कि जो भी शाखा में नियमित होना चाहता है उसे शाखा की ड्रेस पहन  कर आना पड़ेगा. विशेष रूप से खाकी निक्कर तो सिलवानी ही पड़ेगी. अज्जु की टोली के सभी सदस्यों ने सहमती दे दी और उनके परिवार ने भी हाँ बोल दिया. इस बीच अज्जु ने होमवर्क किया तो पता चला की कम से कम सत्तर रूपये का खर्चा है. कुछ पैसे उसने जोड़ लिये थे और बाकि का जुगाड़ कर रहा था. इसी सिलसिले में अज्जु ने मुझ से ये बात साझा की थी. चूंकि मैं शेव और कटिंग अज्जु से ही करवाता था तो वह मुझे टटोलना चाह रहा था कि क्या में कुछ पैसे एडवांस में दे पाऊंगा जो की बाद में एडजस्ट हो जायेंगे. क्या गज़ब का उत्साह था अज्जु में, इतने दिनों में उसे  नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे’ पूरी कंठस्थ हो गयी थी. टोली अब भी साथ जाती थी पर अज्जु  शाखा में भाग न लेकर आस-पास उछल –कूद करता और सभी साथ-साथ वापस आ जाते. मैंने उसे कितने पैसे दिए ये याद नहीं, पर दिए जरूर थे. अज्जु का मिशन  ‘खाकी निक्कर’ कायम था. निक्कर सिलवाने को दी जा चुकी थी. जब कोतुहलवश पुछा तो उस ने मुझे यही बताया था.

अब हुआ यूं कि निक्कर की डिलीवरी होने से पहले बाबरी मस्जिद दहा दी गयी और आर. एस.एस. पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया. इस घटना के दो-चार दिन बाद मैं शेव करवाने अज्जु की दुकान पर गया तो पाया की वह बहुत उत्तेजित है. कारण पूछने पर उस ने बताया कि उसकी निक्कर कल मिल गयी थी. इसलिए वो आज सुबह उसे पहन कर महेंद्र जी के घर गया था जगाने के लिये. उसने आवाज लगाई तो महेंद्र जी ने डांट कर भगा दिया की कोई शाखा वाखा नहीं लगेगी. जाओ यहाँ से, हल्ला मत करो. फिर मैं मातावाला बाग चला गया. वहां शाखा के सभी लोग आये थे पर मेरे सिवाय निक्कर किसी ने भी नहीं पहनी थी. वहां उन लोगों ने मुझे फिर पकड़ लिया ओर धमकाया कि ये निक्कर मत पहन वर्ना पुलिस पकड़ लेगी. अज्जु का मेरे से एक ही सवाल था कि 'भाई जी इतने मुश्किल से पैसे जमा कर के निक्कर सिलवाई है, मेरी निक्कर है, बताओ मैं इसे क्यों नहीं पहन सकता'.

बरस, 1992 से 2016 के बीच कितना समय बीत गया है पर अज्जु का सवाल मेरे जेहन में कभी कभार उठता ही   रहता है.  वहीद और छोटा मुस्तकीम अभी भी भंडारी बाग के चोराहे पर उसी खोके से अपनी दुकान चला रहे हैं जहाँ वे पैदा हुए थे. अज्जु उनसे अलग हो चूका है.  उसे आखरी बार अनुराग नर्सरी के तिराहे पर एक तिरपाल  के नीचे हजामत बनाते देखा था. वो मुझे खुर्शीद लगा, उसमें अज्जु जैसा कुछ भी नहीं था.