Saturday, July 25, 2015

हमारा आस पास

यादवेन्‍द्र


शाम से गहरे सदमे में हूूं,समझ नहीं आ रहा इस से कैसे निकलूँ । देर तक सिर खुजलाने के बाद लगा उसके बारे में लिख देना शायद कुछ राहत दे।

मुझे किसी व्यक्ति या समाज की आंतरिक गतिकी और गुत्थियों को समझने के लिये गम्भीर अकादमिक निबन्ध पढ़ने से ज्यादा ज़रूरी और मुफ़ीद लगता है उसके कला साहित्य की पड़ताल करना। पर हिंदी के अतिरिक्त सिर्फ़ अंग्रेज़ी जानने की अपनी गम्भीर सीमा है । भारत की हिन्दीतर भाषाएँ हों या विदेशी भाषाएँ, इनके बारे में अंग्रेज़ी में उपलब्ध सामग्री मेरा आधार है।

आज शाम बड़े परिश्रम से ढूँढ कर मैंने ग्रीस के बड़े लेखकों की दो कहानियाँ पढ़ीं।दोनों रचनाएँ सात आठ साल से आर्थिक बदहाली से जूझ रहे ग्रीक समाज की भरोसे की कमी से जूझती आत्मा की हृदय विदारक पीड़ा का बयान करती हैं।एक कहानी डांवा डोल भविष्य से घबराये हुए पड़ोसी नौजवान की ऊँची इमारत से छलाँग लगा देने के दृश्य से लगभग विक्षिप्त हो जाने वाली स्त्री की अत्यंत मर्मस्पर्शी कहानी है,दूसरी कहानी आर्थिक संकट के कारण बगैर कोई नोटिस दिए नौकरी से बाहर कर दिए गए एक कामगार की भावनात्मक अनिश्चितता का जिस ढंग से ब्यौरा प्रस्तुत करती है वह कोल्ड ब्लडेड मर्डर सरीखा झटका देती है। उसके बाद जाने किसका नम्बर आ जाये,इस आशंका का रूप इतना मुखर है कि पाठक को लगने लगता है कहीं कल उसका इस्तीफ़ा न ले लिया जाये।

मैंने पिछले महीने मेडिकल साइंस के एक प्रतिष्ठित जर्नल में छपे अध्ययन के बारे में पढ़ा कि 2011-2012 के दो सालों में ग्रीस में आत्महत्या की दर में 35फीसदी से ज्यादा बढ़ोतरी हुई है।बेरोज़गारी ऐसी कि हर चौथा व्यक्ति काम से बाहर है।ऐसे समाज को विद्वानों से ज्यादा अंतरंगता के साथ लेखक कवि कलाकार समझ सकते हैं,और उनके तज़ुर्बे संकट के समय हमें उबरने में मदद कर सकते हैं।मानव समाज इसी साझेपन से चलता और विकसित होता है।

Tuesday, July 14, 2015

मित्र हो तो असहमति को रखने में संतुलन बरतना ही होगा




हमेशा इस पसोपेश में रहता हूं कि मन की बातों को कह दूं या नहीं। संकट है कि कहने का वह सलीका कहां से लाऊं जो शालीन बनाये रखे। फिर भी कोशिश में तो रहता ही हूं कि मेरे भीतर का मनुष्‍य, जो वैसे ही वाचाल है, और वाचाल न नजर आये। यूं कहने का साहस तो अब भी नहीं जुटा पा रहा हूं। बस इतना जाने कि जो कुछ कह रहा हूं किंचित जमाने से असहमतियों के कारण कह रहा हूं।
कह पा रहा हूं तो यह भी स्‍पष्‍ट जानिये असहमत हूं जिनसे/जिससेए जरूर है वह कोई मित्रवत स्थिति ही होगी। मेरे ऐसा स्‍पष्‍टीकरण न देने पर भी आपकी सह्रदयता उसे दुश्‍मन तो नहीं ही मानेगी, मित्र ही समझेगी। ज्‍याद ही अपने अनुमानों के घोड़ो पर दौड़ेगे तो इतना ही कह पायेंगे कि किसी मित्र से संवादरत हूं शयद। तात्‍कालिक समय में रूठे हुए किसी मित्र से। यानि स्‍थायी दुश्‍मनाने में असहमति को रखने का भी कोई औचित्‍य नहीं।
बेशक आप जो भी माने पर मित्र को सिर्फ मनुष्‍य की शक्‍ल में न देखें। बस, अपने दायरे को थोड़ा विस्‍तार दें और जीवन जगत में व्‍याप्‍त किसी पेड़, पक्षी, फल जानवर, कंकड़, पत्‍थर, शैवाल, फफूंद और निर्मितियों की अजब गजब दुनिया को भी- भौतिक या, अभौतिक तरह से भी जो अपनी ताकत दिखाते हुए मौजूद हैं, अपनी निगाह में उतार लें। मेरे कहे के साथ चलते हुए पायेंगे कि असहमति का मसला सैद्धान्तिक नहीं बल्कि व्‍यवाहरिक होता है। सैद्धान्तिक असहमतियां तो मित्रवत दायरे में ही निपट चुकी होती है। उनके प्रकटीकरण तो स्‍वंय व्‍यवहार से ही उपजी असहम‍तियां हो जाती हैं। कई बार प्रकटीकरण की कोई स्‍पष्‍ट वजह भी नहीं होती, तो भी वे तो न जाने कब हिंसक हो जाती हैं। ऐसी असहमतियां निश्चित ही  हत्‍यारेपन की प्रवृत्ति है, विरोध की असभ्‍य आवाज और सांस्‍कृतिक हत्‍यारेपन में उनके अर्थ एक ही होते हैं। यूं लिजलिजे समर्थन में तो अराजक हिंसा ही प्रश्रय पाती है।
आप जानना चाहते हैं ये सांस्‍कृतिक हत्‍यारापन क्‍या है ? विश्‍वास दिलाइये कि हिसंक न होंगे। हो सकता है मैं अपनी वाचालता में आपको जाने क्‍या-क्‍या कह बैठूं, वैसे भी इस वक्‍त तो असहमति की असभ्‍य आवाज और उसकी तीव्र हिंसकता ही मुझे वाचाल हो जाने को मजबूर कर रही है, आपका सांस्‍कृतिक हत्‍यारापन उतना नहीं। फिर भी जानने चाहे तो जान ले- ठेकेदार, दलाल और बिल्डिरों वाले टुच्‍चेपन को ही आप जो थोड़ा नफासत भरा अंदाज दे देते हैं, वह तो निश्चित ही सांस्‍कृतिक हत्‍यारापन है- संवाद के लिए छटपटाती किसी पुकार को सुनने लेने के बाद भी अनुसनापन ही जाहिर करना, विरोध की स्थितियां निगाह में निगाह डाल कर न रखी जा सके, गर्दन पहले ही घुमा देना।

चलिये छोडि़ये क्‍या-क्‍या कहूं। वैसे भी दुनिया संबंधों को कायम रखने की जितनी आधुनिकता से सुसज्जित हो रही है, असहमति का हत्‍यारापन उतना सांस्‍कतिक हुआ जा रहा है, बहुधा असभ्‍य आवाज के साथ साथ कदमताल करता हुआ भी।    

Friday, July 10, 2015

वक्त बचा है कम, कुछ बोल लेना चाहिए

अतियथार्थ की स्थितियों का प्रकटीकरण व्‍यवस्‍थागत कमजोरियों का नतीजा होता है, कला, साहित्‍य के सृजन ही नहीं उसके पुर्नप्रकाशन की स्थितियों में भी इसे आसानी से समझा जा सकता है। हिन्‍दी साहित्‍य में कविता कहानियां ही भरमार में हैं। यह यथार्थ ही नहीं बल्कि अतियथार्थ है। देख सकते हैं कि व्‍यवस्‍थागत सीमाओं के बावजूद, कविता और कहानी के दम पर साहित्‍य की पत्रिकाएं निकालना आसान है। इतर लेखन पर केन्‍द्रीत होकर काम करने के लिए पत्रिकाओं को अपनी व्‍यवस्‍थागत सीमाएं नजर आ सकती हैं, या आती ही हैं। इसलिए कविता कहानी वाले अतियथार्थ के साथ समझोता करते हुए ही उनका चलन जारी रहता है, बल्कि बढ़ता हुआ है। ऐसे में पुस्‍तक आलोचना पर केन्‍द्रीत होकर अंक निकालने के लिए जैसी वैचारिक दृढ़ता चाहिए, वह अपने आपमें सांगठनिक कार्यपद्धति की ओर बढ़ने की मांग करत है। 

हाल ही में प्रकाशित एवं वितरित होता हुआ अकार का 41वां अंक इसकी बानगी है। आपसी सहयोग की सांगठनिक पद्धति ही उसे महत्‍वपूर्ण स्‍वरूप देती हुई देखी जा सकती है। अकार-41 का यह अंक पुस्‍तक समीक्षाओं पर केन्‍द्रीत है और राकेश बिहारी के अतिथि सम्‍पादन में प्रकाशित हुआ है। 
अकार का यह अंक मेरे हाथ में उस वक्‍त आया है, जब मैं अपनी प्रिय पत्रिका पहल के 100 अंक का इंतजार कर रहा था। हालांकि पहल का 100 वां अंक तो आज भी रतजगे करवाता हुआ है बल्कि अब तो लगने लगा है कि संभवत: डाक की गड़बड़ी में हो न हो, मुझे इन्‍टरनेट के जरिये ही उसे उसी तरह पढ़ने को मजबूर होना पड़े, जैसे पहल 99 के लिए हो चुका हूं। मेरी इस चिन्‍ता से डाक व्‍यवस्‍था को क्‍या लेना देना कि कुछ पत्रिकाएं ऐसी होती है जिन्‍हें पढ़ने ही नहीं बल्कि सहेजने का भी अपना सुख होता है। पहल के अभी तक के संग्रहित अंको में पहल-99 मेरे पास हमेशा हमेशा के लिए नदारद रह जाने की स्थितियों में है।
अकार-41 कर चर्चा के बीच में पहल का जिक्र मैं क्‍यों करने लग गया ?
यह सवाल किसी ओर से नहीं, मैं खुद से पूछ रहा हूं।
अपनी दिनचर्या के हिसाब से सुबह दफ्तर जाने के पहले बचने वाले समय को मैंने, आमतौर अपने छुट-पुट लेखन और कुछ ऐसी जरूरी चीजें पढ़े जाने के लिए सुरक्षित रखा हुआ है जो ज्‍यादा धैर्य की मांग करती हैं। सुबह के उस वक्‍त में पत्रिकाओं पर सरसरी निगाह डालने का भी कोई अवकाश नहीं। हां, पिछली शाम पलटी गयी पत्रिका में यदि नजर आ गया कोई आलेख वैसे ही धैर्य की मांग करता दिखा तो उसे जरूर शामिल कर लेना होता है। लेकिन मुझ तक पहुंचने वाली हिन्‍दी की पत्रिकाएं में ऐसे पढ़े जाने की स्थितियां सीमित ही हैं। पहल और समयांतर ही दो ऐसी पत्रिकाएं हैं, जो  मेरे इस सुबह के वक्‍त पर डाका डालने में अभी तक अव्‍वल मानी जा सकती हैं। समयांतर का इंतजार तो हर महीने का इंतजार है। अभी तक अनुभव के आधार पर वह किसी भी महीने की 27 तिथि तक पहुंच ही जाती हैपहल के 100 वे अंक से संबंधित कार्यक्रम के दिन वाली अनुगूंज खरों ओर है और मैं उसके अंक 99 से ही अभी वंचित हूं। अब मानने को विवश हो जा रहा हूं कि शायद मुझे 100 वें अंक से भी वंचित हो जाना होगा। क्‍यों अब तक पहुंची नहीं है। मित्रों की सूचनाओं में उसका पढ़ जाना पूरा होता हुआ है। मित्रों से बातचीत के बहाने ही मैं उसके कई सारे पृष्‍ठों के स्‍वाद और प्रभाव को महसूस कर चुका हूं। अकार-41 ने मेरे उस वक्‍त पर आजकल कब्‍जा किया हुआ है।
यहां एक अन्‍य बात, जो प्रासंगिक जान पड़ रही है, कह देना चाहता हूं-
पिछले दिनों अपने एक मित्र से इस प्रस्‍ताव पर बात की, ''भाई क्‍या संयुक्‍त प्रयासों वाली किसी पहलकदमी से कुछ-कुछ पहल और कुछ-कुछ समयांतर वाले स्‍वर के बीच से गुजरती किसी पत्रिका को हम शुरू कर सकते हैं ?'' यद्यपि यह भी कह देना मैं जरूरी जान रहा हूं, यहां स्‍मृतियों में पहली पारी वाली पहल मौजूद है। पहली पारी वाली पहल का प्रकाशन स्‍थगित हो जाने का वक्‍त मेरे लिए स्‍तब्‍धकारी था। क्‍योंकि मेरा मानना रहा कि कविता, कहानियों वाली हिन्‍दी पत्रिकाओं की प्रगतिशील दिशा को बांधे रखने में पहल एक हद तक महत्‍वपूर्ण भूमिका निभा रही थी। उसका प्रकाशन बंद नहीं होना चाहिए था। समयांतर का स्‍वरूप एवं मिजाज थोड़ा भिन्‍न है और जरूरी है।  कविता, कहानियों वाले दायरे की पत्रिकाएं उसके दबाव से मुक्‍त होकर कहीं भी छलांग लगाने को स्‍वतंत्र हैं। दूसरी पारी की पहल को भी अपनी उस भूमिका में अभी उतना नहीं पाता हूं। मित्र ने पत्रिका के प्रकाशन संबंधि अपनी सहमति जाहिर की है। फिर भी अभी बहुत सी दिक्‍कतें हैं कहा नहीं जा सकता कि क्‍या ऐसा संभव होगा भी या नहीं अड़चन के कारण हमारी कमजोर इच्‍छाशक्ति में भी छुपे हो सकते हैं और वास्‍तविक भी हो ही जायें तो वैसा भी हो सकता है।   
इसीलिए अकार-41 का जिक्र करते हुए पहल का जिक्र हो जाना स्‍वाभाविक सी बात है। लेकिन मेरे कहे से ये अनुमान न निकाले जाएं कि बेताबी भरे इंतजार की घडि़यों में अकार का 41वां अंक डाक में अचानक नजर आ जाना, किसी भी पत्रिका के मिल जाने की सी वजहों के कारण यहां जगह पा रहा है। ऐसे होने के अनुमान तो इस बात से भी निर्मूल हो जाते हैं कि पहल-99 के अलम्बित इंतजार में भी अकार के 40वें अंक ने दस्‍तक दी थी। हालांकि अकार के 40वें अंक ने भी उस वक्‍त ठिठकाया था। ज्ञात रहे कि अकार का वह पहला अंक था जो शुद्ध रूप से कविता, कहानी वाले अतियथार्थ का घेरा तोड़ रहा था लेकिन इतिहास संबंधित जानकारियों की अतिमार में बदले हुए स्‍वरूप के प्रभाव बहुत गहरे नहीं पड़ रहे थे। अकार-41 के बारे में अपनी राय व्‍यक्‍त कर देने की जो बेचैनी अभी महसूस हो रही, वैसा तब नहीं हुआ था। बल्कि उस वक्‍त यदि कुछ कह देने की जल्‍दबाजी कर देता तो आज अकार-41 की संभावनाओं पर टिप्‍पणी कर लेने में शायद अब हिचकिचाहट तो महसूस होती ही। 

बताना चाहता हूं कि डाक में मिले अकार-41 को पहली शाम सरसरी निगाह से पूरी तरह पलट लेने में मैं मात खा गया था। फेसबुक से पहले ही मिल चुकी सूचना के आधार पर, मैं अपने मित्र सुभाष चंद्र कुशवाह की किताब चौरीचौरा पर हितेन्‍द्र पटेल के लिखे आलेख से गुजर कर अन्‍य सामाग्री तक गुजर जाना चाहता था। लेकिन उस शाम हितेन्‍द्र पटेल के आलेख ने मुझे छूट ही नहीं दी और पूरा पढ़े जाने से शेष रह गया। इस तरह आलेख ने अकार-41 को मेरी अगली सुबह के वक्‍त में धकेल दिया। मित्रों का लिखा, या उन पर लिखे को सबसे पहले पढ़ने की अपनी कमजोरी को मैं छुपाना नहीं चाहता। आलेख तो पूरा हो गया लेकिन उस सुबह अकार की दूसरी समाग्री से गुजरना तो अधूरा ही रह गया था। शाम को उसे फिर से पलट कर किनारे रख देना चाहता था। पर दिखाये दे गये एक ओर भरोसे के लेखक, बसंत त्रिपाठी ने भी उस शाम अटका दिया। दलित चिंतक तुलसीराम की आत्‍मकथाओं के बहाने लिखे गये उस आलेख को धैर्य से पढ़ लेने के लिए अकार फिर से अगली सुबह के वक्‍त पर हावी थी। ग्रंथ शिल्‍पी से प्रकाशित ई एम एस आत्‍मकथा और वाम राजनीति के कुछ जटिल प्रश्‍न पर लिखे उर्मिलेश के आलेख से ही अभी तक निपट पाया हूं और अकार का 41वां अंक मुझे अभी भी ठिठकाये हुए है। 

अभी तक के आखिरी आलेख से कुछ सहमत और कई जगहों पर असहमति के बावजूद अकार अभी भी मुझे सरसरी निगाह से गुजरने नहीं दे रहा है। हां, शुद्ध साहित्‍य की चयन वाली पुस्‍तकों पर लिखे आलेख तो मेरे सुबह के वक्‍त पर हमला नहीं ही कर रहे। उनके भरोसे अतियथार्थ वाली व्‍यवस्‍थागत कमजोरियां तो नजर आ ही रही है, अकार को सोचना है उससे कैसे निपटे। कविता, कहानियों में मिठू-मिठू अंदाज की आलोचना से ज्‍यादातर साहित्यिक पत्रिकाएं, जगमग दुनिया पहले ही बनाये है। हिन्‍दी साहित्‍य की हमारी दुनिया का यही वह मर्मस्‍थल है जहां मुझे अकार-41 का बदला हुआ स्‍वरूप 1994 के फुटबाफल वर्ल्‍ड कप प्रतियोगिता में अचानक से उभर आयी कैमरून की टीम की सी तात्‍कालिक चमक वाला लग रहा है। उम्‍मीद है भविष्‍य का अकार कैमरून की तात्‍कालिक चमक वाला नहीं बल्कि हिन्‍दी साहित्‍य से संबंधित पत्रिका की दुनिया में स्‍थायी रोशनी वाली आकृति हो।

पहल-100 का इंतजार अभी बाकी है। समयांतर के न पहुंचने की आशंका से ग्रसित नहीं हूं, पंकज जी को फोन करने पर डाक की गडबड़ी के बावजूद वह दुबारा पहुंच ही जायेगी।    

      विजय गौड़     

Thursday, June 25, 2015

प्रेम, प्रकृति और मिथक का अनूठा संसार


हमारे द्वारा पुकारे जाने वाले नाम प्रीति को स्‍वीकारते हुए भी हमारी साथी प्रमोद कुमारी ने अब प्रमोद के अहमदपुर के नाम से लिखना तय किया है। अहमदपुर उनके प्रिय भूगोल का नाम है। प्रीति का वर्तमान भूगोल यद्यपि देहरादून है। डॉ शोभाराम शर्मा द्वारा अनुदित ओर संवाद प्रकाशन से प्रकाशित उपन्‍यास जब व्हेल पलायन करते हैं की समीक्षा प्रीति द्वारा की गयी है। रचनात्‍मक सहयोग के लिए प्रीति का आभार ।
वि गौ
 
प्रमोद के अहमदपुर 

प्रेम की ताकत पशु को भी मनुष्य बना सकती है। प्रेम की ताकत को दुनिया भर की आदिम जनजातियां भी सभ्यता का प्रकाश फैलने से पहले ही पहचान चुकी थीं जो उनकी दंतकथाआें में आज भी देखने को मिलता है। एेसी ही प्रेम की ताकत की कथा है यह उपन्यास। दुनिया के विभिन्न हिस्सों में मनुष्यता का इतिहास सदियों से संजोई गई एेसी ही दंतकथाआें में परतदर परत दर्ज हैजो बुद्ध की तरह प्रेम और करुणा से मनुष्य के मनुष्य हो जाने में विश्वास करती हैं। इन्हीं जीवन मूल्यों में रचा बसा प्रेम प्रकृति और मिथक का अनूठा संसार है उपन्यास जब व्हेल पलायन करते हैं।' 
ऐसे समय में जब समूचा विश्व हिंसा से ग्रस्त हो। दुनिया के ताकतवर देश अपनी वस्तुआें के लिए बाजार पैदा करने के लिए अपने से कमजोर देशों पर अपने मूल्य लादने में जुटें हो और संकीर्णता व सनक के मारे कुछ लोग अपने ही इतिहास को नष्ट करने में जुटे होंसिर्फ इसलिए दूसरों की हत्या कर देते हों कि वे उनके जैसे नहीं दिखते। एेसे में डॉ. शोभाराम शर्मा द्वारा अनुदित उपन्यास जब व्हेल पलायन करते हैं का प्रकाशन एकसुखद अनुभूति देता है। यह उपन्यास बताता है कि प्रेम की ताकत से ही मनुष्यता आज तक जीवित है। दरअसल प्रेम ही मनुष्य की जीवन शक्ति है। प्रेम उसके सभी क्रियाकलापों का केंद्र बिंदु है। जब भी मनुष्य इस सत्य को भुला देता है या उससे दूर हो जाता हैमानवता का खून बहने लगता है। 
जब व्हेल पलायन करते हैं साइबेरिया की अल्पसंख्यक चुकची जनजाति की अद्भुत कलात्मक दंत कथाआें व लोक विश्वासों पर आधारित उपन्यास है। वह दंतकथा जो साइबेरिया के चुकची कबीले के लोग ठिठुरती ध्रुवीय रातों में यारंगा (रेनडियर की खाल के तंबू) के भीतर चरबी के दीयों की हल्की रोशनी में न जाने कितनी सदियों से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सुनाते आ रहे हैं। चुकची जनजाति के लोगों का भोलासा विश्वास है कि वे व्हेलों के वंशज हैं। इस जनजाति के पहले लेखक यूरी रित्ख्यू की इस पुस्तक का ईव मैनिंग द्वारा किया गया अंग्रेजी अनुवाद 19७7 में सोवियत लिटरेचर में प्रकाशित हुआ था। यह लघु उपन्यास या कहें आधुनिक दंत कथा मौखिक कथा कहने का एक बहुत ही सुंदर नमूना है। व्हेलों और इंसानों के बीच के रिश्तों की कवितामयी कहानी कहता यह लघु उपन्यास उन लोगों के लिए भी अहम है जो पुराने लोगों की कथाआें को हंसी में उड़ा देते हैं और मनुष्य के अनुभवजन्य ज्ञान की उपेक्षा कर मुनाफे और लालच के मारे अपने ही पर्यावरण का विनाश करते हैं।
मनुष्य के ह्वेल में बदल जाने और व्हेल के मनुष्य में बदल जाने की यह कथा मौजूदा दौर के एक चुकची व्यक्ति द्वारा आधुनिक संदर्भों में फिर से कही गई दंतकथा है। जो एक कथा वाचक की तरह अपनी लोक कथा को अपने समय के संदर्भ में पेश करता है। यह उपन्यास इस तरह से विकास के आधुनिक पश्चिमी विचार की भी तीखी मानवीय आलोचना करता है। यह दंतकथा मौजूदा लालच और मुनाफे की व्यवस्था पर भी प्रहार करती है और बिना किसी घोषणा के बताती है कि प्रकृति से मनुष्य का तादात्म्य कितना जरूरी है और यदि मनुष्य के हृदय में प्रेम न हो तो प्रकृति से तादात्म्य भी असंभव है। यूरी रित्ख्यू ने भी अपनी मूल भूमिका में लिखा है''जब एक पुस्तक लिखी जाती है तो कभी कभी वह एेसे पहलुआें और विशेषताआें को प्रदर्शित कर बैठती हैजिस पर लिखते समय लेखक ने सोचा तक न हो। मैं इस पुस्तक में कुछ एेसा ही पाता हूं।'' डॉ. शोभाराम शर्मा ने इस उपन्यास को अंग्रेजी से  हिंदी में प्रस्तुत किया है। पुस्तक की खास बात यह है कि इसमें उपन्यास की यूरी रित्ख्यू की मूल भूमिका के साथसाथ यूरी रित्ख्यू के दो लेख स्वर लहरी के संगसंग और सदियों की छलांग भी शामिल हैंजो उपन्यास लिखे जाने की पृष्ठभूमि समझने में पाठक की मदद करते हैं। अनुवादक की भूमिका और परिशिष्ट में उनके द्वारा दिया गया यूरी रित्ख्यू का साहित्यिक परिचय स्पष्ट कर देता है कि मनुष्य के मनुष्य बने रहने के लिए लोक विश्वासों व दंतकथाआें पर आधारित एेसी कृतियां कितनी जरूरी हैं। अनुवादक डॉ. शोभाराम शर्मा ने भी अपनी भूमिका में लिखा है—''यदि हमारे लेखक भी अपने लोक साहित्य और दंतकथाआें की बहुमूल्य थाती का उपयोग कर एेसी निर्दोष कलाकृतियां प्रस्तुत कर सकें तो कितना अच्छा हो।''

जब व्हेल पलायन करते हैं : मूल लेखक यूरी रित्ख्यू
अनुवाद : डॉ. शोभाराम शर्मा
संवाद प्रकाशन, आई-499 शास्त्रीनगर मेरठ-250004 (उ.प्र.)
संवाद प्रकाशन, ए-4, ईडन रोज,वृन्दावन एवरशाइन सिटी वसई रोड (पूर्व)
ठाणे (महाराष्ट्र.) पिन-401208

Thursday, June 11, 2015

घुसपैठियों से सावधान


प्रिय मित्र यादवेन्‍द्र जी से मुखातिब होते हुए

हम, जो दुनिया को खूबसूरत होते हुए देखना चाहते हैं-  किसी भी तरह के शोषण और गैर-बराबरी के विरूद्ध होते हैं, चालाकी और षड़यंत्र की मुनाफाखोर ताकतों का हर तरह से मुक्कमल विरोध करना चाहते हैं । यही कारण है कि अपने कहे के लिए उन्‍हें  ज्‍यादा जिम्मेदार भी माना जाना चाहिए, या उन्‍हें खुद भी इस जिम्मेदारी को महसूस करना चाहिए । ताकि उनके पक्ष और विपक्ष को दुनिया दूरगामी अर्थों तक ले सके और उनकी राय से व्‍युत्‍पन्न होती नैतिकता, आदर्श को विक्षेपित किया जाना संभव न हो पाये। पर ऐसा अक्सर देखने में आता नहीं। खास तौर पर तब जब प्रतिरोध के किसी मसले को  शासक वर्ग द्वारा भिन्‍न अंदाज में प्रस्तुत कर दिया गया हो। ऐसे खास समय में प्रतिरोध का हमारा तरीका कई बार इतना वाचाल हो जाता है कि खुद हमारे अपने ही मानदण्‍डों को संतुष्‍ट 0कर पाना असंभव हो जाता है । कई बार ऐसा इस वजह से भी होता है कि शासकीय चालाकियों को पूरी तरह से पकड़ पाना हमारे लिए मुश्किल होता है और उसका लाभ उठाकर शासक वर्ग के घुसपैठिये भी प्रतिरोध का नकाब पहनकर अपनी भूमिका को बदल चुके होते हैं ताकि हमारे हमेशा के वास्‍तविक प्रतिरोध को अप्रसांगिक कर सके । उस वक्‍त उनके प्रतिरोध की आवाज इतनी ऊंची होती है कि एकबारगी वे हमें जनता के पक्षधर नजर आते हैं जो हमारे ही मन के प्रिय भावों को प्रकट करने में साथ दे रहे होते है। उनकी इस भूमिका पर हम उन पर कोई सवाल नहीं उठा सकते बल्कि उनके ही नारों, उनके ही तर्कों के साथ खुद प्रतिरोध में जुट जाते हैं। लेकिन एक दिन जब वे पाला बदलकर फिर से अपने पूर्व रंग में होते हें तो पाते हैं कि उनके अधुरे तर्कों के कारण और उनके ही पीछे पीछे डोलने के कारण हम खुद ही अप्रसांगिक हो चुके हैं।

घुसपैठियों के तर्कों में बहने की बजाय हमें प्रतिरोध की अपनी भूमिका को स्पष्ट रखते हुए  निशाना ठीक से साधना आना चाहिए। मैगी के समर्थन में आ रहे विचारों के मद्देनजर बात न भी की जाये तो ओसामा बिन लादेन की हत्‍या के समय को देखिये जब एक वैश्विक पूंजी के विरोध में किया जा रहा हमारा प्रतिरोध हमें अप्रसांगिक बना दे रहा था । हम लादेन के पक्षधर नहीं हो सकते पर अनायास वैसा दिख रहे थे। हाना मखमलबॉफ की फिल्‍म एक बार फिर याद आ रही है