Wednesday, June 4, 2014

फैशनेबुल लेखन भी क्या कोई लेखन है


विजय गौड़


शर्मिला इरोम किसी भी फैशनेबुल लेखन का विषय नहीं हो सकती। कम से कम हिन्दी भाषा में लिखे जा रहे साहित्य का जहां इतनी जलालत भरे समय में धकेली जा रही दुनिया के बावजूद फिर भी कुछ मूल्य ऐसे हैं जिन्हें प्रगतिशीलता की कसौटी पर खरा उतरना ही लेखन का एक उद्देश्य तो तब भी है। साहित्य इसीलिए फिर भी एक उम्मीद की जगह है। फिर वर्षों से नाक में लगी नली वाली किसी स्त्री- छवी में संघ्ार्षरत इस योद्धा का वर्णन करना यूं कोई बहुत लोकप्रिय होना जैया भी तो नहीं। अशोक कुमार पाण्डे के हाल ही में प्रकशित कविता संग्रह ''प्रलय में लय जितना" इसीलिए महत्वपूर्ण है कि शर्मिला इरोम वहां अपनी मुमल उपस्थिति के साथ दर्ज होती है और उसकी छवी के साथ ही हम उस राष्ट्रीय चेतना को परखने के साथ होते हैं जो निर्मम होकर एक स्त्री का स्नै:-स्नै: मरना तस किसे दिखायी देती है।
किसी भी ऐसे रचनाकार का मूल्यांकन, जो बहुधा अपने रचनाकर्म के साथ-साथ सामाजिक, राजनैतिक गतिविधियों का हिस्सा भी हो रहा होता है, निश्चित ही कठिन काम हो जाता है। ऐसे व्यक्तित्व की आलोचना में उसका एक न एक पक्ष हमेशा छूट जाता है। रचना का विवेचन करते हुए उसके व्यक्तित्व गौण हो सकता है तो व्यक्तित्व की आलोचना करते हुए रचनात्मक प्रतिबद्धता अलक्षित रह सकती है। जबकि रचना और व्यक्तित्व को एक साथ रखे बगैर मूल्यांकन की कोई कसौटी मुझे उचित नहीं लगती। ग्वालियर से दिल्ली तक की यात्रा के दौरान भी अपनी हर गतिविधि के साथ दिखायी देते रहे इस कवि सारी छवियां उसकी कविताओं में जगह पा रही हैं, यह न सिर्फ व्यक्ति की रचनात्मकता के लिए बल्कि समकालीन पीढ़ी की उम्मीदों को लिए एक सहारा बन रही है। अशोक के जीवनानुभवों की छाया से उसकी रचनाएं बची न रही होंगी, ऐसा मानते हुए यदि हाल में प्रकाशित उसकी उपरोक्त संदर्भित पुस्तक की रचनाओं से गुजरें तो उनमें दिखायी देते बिम्ब और प्रतीकों का खुलासा जिस समझदारी की ओर इशारा करता है, उसमें हर गलत के प्रति एक तीखापन, उससे टकराने की ललक एवं दुनिया को अंधेरे ऐ उजाले में ले जाने के बेचैनी भरे रास्ते की शिनाख्त करता रचनाकार नजर आता है। ये ऐसे रास्ते हैं जिन पर बहुत दूर तक साथ चलते रहने की स्थितियों के बावजूद यदि वह छूटता हुआ लगता है तो भी उसमें अपने उद्देश्य से विमुख होना नहीं बल्कि समझदारियों में असहमतियों का उपजना ही है। बहुत कुछ कहने की बजाय अशोक की कुछ काव्य पंक्तियों के साथ उसे प्यार:
अब ऐसा भी नहीं
कि बस स्वप्न ही देखते रहे हम
रात के किसी अनन्त विस्तार सा नहीं हमारा अतीत
उजालों के कई सुनहरे पड़ाव इस लम्बी यात्रा में
वर्जित प्रदेशों में बिखरे पदचिन्ह तमाम
हार और जीत के बीच अनगिनत शामें धूसर
निराशा के अखंड रेगिस्तानों में कविताओं के नखलिस्तान तमाम
तमाम सबक और हजार किस्से संघ्ार्ष के

Friday, May 9, 2014

बारिश मेरा घर है


कुमार अनुपम की कविताओं का अपना मिजाज है जो न सिर्फ उनके शिल्प की बुनावट से बनता है बल्कि कथ्य में इतना तरल है कि एकाग्रचित हुए बिना पढ़े जाने पर जो कटोरे से छलकते पानी की तरह इधर उधर बिखर सकता है. यहां  तमगा लूटने के लिए लगाये जाते निशाने को साधने वाली एकाग्रता से कोई लेना देना नही. वह पारे की सी तरलता है जो उतनी ही ठोस है जितना किसी ठोस को होना चाहिए अपनी तरलता को बचाये रखते हुए.
माना कि दिल्ली में इस वक्त धूप तीखी पड़ रही. बेहद गरमी. उमस और चिपचिपापन. तो क्या उसे चुनौति देने के लिए हमें भी दोहराना होगा कवि के साथ बारिश मेरा घर है? कुमार अनुपम की कविता का यह पद तेज रफ्तार वाली दिल्ली को बारिश के पानी के कारण हो जाने वाले घिचपिचेपन  में फंसा देना चाहता है.चौकन्ने होकर सुनो वह कितना कुछ कह रहा. मसलन
यह
धार्मिकता का
सुपीरियारिटी का सत्यापन

फासिस्ट गर्व और भय
की हीनता का उन्मांद

यह
जाति धारकों
के निठल्लेपन का पश्चाताप

यह तत्काल टिप्पणी है. विस्तार से लिखने का मन है.

Thursday, May 8, 2014

चाय की प्याली में तूफान उठा देने वालों

हमारे सहयोगी यादवेन्द्र जी का यह आलेख उनके लेखन की ऐसी बानगी है कि हमारा आसपास बज बजाता हुआ सामने आने लगत है.



आज सुबह चाय बना कर पीने ही जा रहा था कि एक मित्र का फ़ोन आ गया -- आम तौर पर देर से उठने के आदी मित्रों और परिजनों के फ़ोन से मुक्त रहती हैं मेरी सुबहें ,पर कुछ चुनिंदा लोगों को सुबह सुबह मुझे पकड़ लेने की तरकीब मुफ़ीद लगती है। मित्र ने मुझसे कुछ पढ़ कर सुनाने का आग्रह किया सो चाय किनारे रखनी पड़ी -- हाँलाकि बीच बीच में चुस्कियाँ लेने से खुद को रोक नहीं पा रहा था।
पर अंत में बची हुई चाय ने अपने हाव भाव ( स्वाद और गंध) से साफ़ साफ़ कह दिया कि पीनी है तो ढंग से चाय पियो प्यारे.... कई काम एक साथ करते हुए सब के साथ नाइंसाफ़ी और तौहीनी करते हो .... मुझे यह बिलकुल पसंद नहीं।
चाय ने सचमुच इस बेरुखी पर क्रोधित होकर अपना स्वाद बदल लिया था -- सुबह की ताज़गी के बदले उसमें उबा देने वाला बासीपन घर कर गया था। दिलचस्प बात ये कि एक घूँट ख़राब चाय पी कर चार पाँच बार अच्छी चाय पी भी लें तो मामला बनता नहीं -- चाय मेरे लिए ऐसी प्रेमिका की मानिंद है जो पल पल समझाती रहती है कि मेरे जीवन में जो कुछ भी श्रेष्ठ और चमकदार है उसमें उसका स्थान हमेशा सबसे ऊपर रहेगा … जिसका मूड ख़राब करने का जोखिम आप उठा नहीं सकते .... और ऐसी गलती कर ही बैठे तो आपको  एड़ी छोटी का जोर लगाना पड़ेगा , फिर भी सब कुछ सहज सामान्य हो ही जाएगा इसकी कोई गारण्टी नहीं।
दरअसल चाय के इतने रूप रंग होते हैं कि एक से दूसरे के बीच के अंदर को मैं पहचान तो सकता हूँ पर शब्दों में उनका वर्णन नहीं कर सकता .... जैसे सुबह सुबह बनायी चाय के ही थोड़े से अंतराल के बाद बदल गये दो अलग अलग स्वाद को ही लें। यदि चाय किसी पतली गर्दन वाले बर्तन में बनाई जाये तो भगौने जैसे चौड़े मुँह के बर्तन में बनाई गयी चाय से उसका स्वाद बिलकुल अलग होगा। वैसे ही उबलते पानी में चाय की पत्ती डाल कर ढक्कन से ढँक दिया जाए तो उसका स्वाद बगैर ढक्कन के देर तक उबाल कर बनायीं गयी चाय से बिलकुल अलहदा होगा। जो लोग पानी और दूध बगैर नापे अंदाज से डाल कर चाय बनाते हैं उनकी चाय का स्वाद सब कुछ नाप तोल कर डाली गयी सामग्री की चाय से जुदा होगा। पानी दूध और चीनी का अनुपात  बदल जाने से ज़ाहिर है चाय का स्वाद बदल जाता है। गाय ,भैस और डेयरी के दूध ( वह भी टोन्ड और फ़ुल क्रीम ) से बनायीं गयी चाय एकदम अलग स्वाद और गंध की होती है। इतना ही नहीं अलग अलग व्यक्ति की बनायीं चाय में अलग अलग स्वाद मिलेगा। शाम को दफ़्तर की थकान के बाद मिलने वाली दैनिक रूटीन वाली चाय का स्वाद वह हो ही नहीं सकता जो लिखाई पढ़ाई में तल्लीन रहने पर देर रात मिलती है .... या रात भर अच्छी नींद लेकर उठने के बाद दिन की पहली चाय ( आहार) का होता है।यानि चाय पानी दूध चीनी चाय की पत्ती को फेंट कर तैयार किया गया महज़ एक द्रव नहीं होती बल्कि एक जीवंत शख्सियत होती है --- और मन के भावों के प्रति बेहद संवेदनशील होती है।

मुझे याद है जब 1995 में मैं पहली दफ़ा विदेश ( अमेरिका ) गया और वहाँ पहुँच कर होटल में चाय की माँग की तो मुझे मिंट ( पुदीना ) की गंध वाली चाय का पैकेट दिया गया --- जबरदस्त तलब के बावज़ूद मैं उस चाय को स्वीकार नहीं कर पाया ,क्योंकि अपने चालीस साल के जीवन में पहले कभी चाय के साथ पुदीने की गंध /स्वाद का अनुभव नहीं किया था। जब मुझसे पुदीने वाली चाय नहीं चली तो बार बार माँगने पर दूसरी गंध वाले टी बैग्स मिले , सादा चाय मिली ही नहीं। जैसे तैसे कुछ घंटे होटल में गुज़ारने के बाद मैं निकल कर खुद डिपार्टमेंटल स्टोर गया और सादा चाय के लिए मगजपच्ची करता रहा। पूछ ताछ करने पर मुझे बताया गया कि दार्जिलिंग टी का पैकेट खरीदो ,यहाँ सादा चाय वही मानी जाती है --- हाँलाकि मुझ जैसे इंसान के लिए उबाल कर बनायी गयी सादा  चाय ही चाय का स्थायी भाव है ,दार्जिलिंग चाय तो कभी कभार मिल जाने वाली लग्ज़री है। इसी यात्रा में मेरा सामना काँच के पारदर्शी प्याले में बर्फ़ और नींबू की पतली फाँक तैरती हुई ठण्डी चाय से हुआ --- तज़ुर्बे के तौर पर मेरी स्मृति में सिर्फ़ आग पर उबली हुई चाय मौज़ूद थी और बर्फ़ वाली चाय मुझे बड़ी अटपटी लगी थी पर बाद के दिनों में जब भारत में नेस्ले ने आइस टी बेचनी शुरू की तो इसका स्वाद मेरे मुँह को खूब लगा।

पिछले साल राजस्थान में नाथद्वारा जाने पर पुदीने वाली चाय पी और खूब छक कर पी -- यह वहाँ की वैसी ही खासियत है जैसे सैकड़ों की संख्या में बनी दूकानों में बिक रहा मंदिर में दिन में सात बार चढ़ाया गया प्रसाद। जब जब वहाँ चाय पीता  हूँ मुझे अमेरिका का वह अनुभव याद आता है और अचरज होता है कि वहाँ जिसको स्वीकार करना मुश्किल था वहीँ नाथद्वारा पहुँचते ही मुझे पुदीने वाली चाय की जबरदस्त तलब होती है।
 
पचमढ़ी में खूब देर तक अदरक के साथ उबाल कर तीन चरणों में बनायीं गयी चाय लोगों के इतने मुँह लगी रहती है कि एक कप चाय के लिए बीस पच्चीस मिनट तक इन्तज़ार करते हैं-- इस प्रक्रिया को पूरा होने में आधे घंटे तक का समय लगता है।पहली बार में मुझे तेज अदरक वाली यह चाय इतनी कड़वी लगी कि एक दो घूँट के बाद छोड़ दी पर थोड़ी देर बाद उसमें ही अनूठा स्वाद आने लगा।

तिरुपति में चाय बनाने का अलग ढंग है -- कॉफी के लिकर की तर्ज पर चाय का भी लिकर बना कर ताम्बे के लम्बे गोल बर्तन में रखा जाता है और ग्राहक के आने पर दूध और चीनी मिला कर दे दिया जाता है।

हालिया अनुसंधान से मालूम हुआ कि हमारी नाक लाखों अलग अलग गंधों को पहचान सकती है ,यह अलग बात है कि हम अपनी इस क्षमता का उपयोग करना भूलते जा रहे हैं। वैसे ही हमारी जीभ और स्वाद पहचानने वाली ग्रंथियाँ भी भिन्न भिन्न प्रकार के स्वाद पहचान सकती हैं पर हम उनका प्रयोग करना भूलने लगे हैं .... और  उनके बारीक अंतर को शब्दों में बयान करना तो बिलकुल असंभव है।

कैसी विडंबना है कि चाय के  इतने सारे भिन्न स्वरुपों को समेट कर हम देशवासियों पर यह धौंस जमा रहे हैं कि चाय पीनी है तो सिर्फ़ नमो चाय पियो ,वरना पाकिस्तान जाओ।    

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यादवेन्द्र
*Mob.*    *+ 09411100294*

Friday, April 18, 2014

सो गया दास्ताँ कहते-कहते



        उसने अपनी आत्मकथा में एक जगह लिखा है-उस वक्त हर कोई युवा था लेकिन हम हमेशा अपने से अधिक युवा लोगों से मिल रहे थे. पीढियाँ एक दूसरे से आगे निकलने को आतुर थीं ,खासतौर से कवियों और अपरधियों की;जब तक आप कुछ नया करते कोई और शख्स प्रगट हो जाता जो आपसे भी बेहतर करते हुए दिखाये देता.

          सतासी साल की भर-पूर जिन्दगी जीने वाले गैब्रीयल गार्सिया मार्खेज़ के लेखन का जादू यह साबित करने के लिये पर्याप्त है कि उनके फ़न में उनसे आगे निकलने की कोई कोशिश भी नहीं कर सका.हिन्दी की दुनिया में शायद ही कोई हो जिसने अस्सी के दशक की शुरूआत में साहित्य की दुनिया में प्रवेश लिया हो और मार्खेज़ के जादुई यथार्थ का नाम सुना हो.‘एकान्त के सौ वर्षकी चर्चा के साथ लैटिन अमेरिका के कथा साहित्य की तरफ पूरी दुनिया का ध्यान गया हालाँकि इसी दुनिया में बोर्खेज़ जैसे विद्वान,जटिल और बीहड़ लेखक  की भी बसाहट है.पत्रकारिता से कैरियर की शुरूआत करने वाले मार्खेज़ ने किस्सागोई की नायाब शैली विकसित की.हालाँकि एक साक्षात्कार में वह बताते हैं कि जिसे दुनिया जादुई कह रही है वह लैटिन अमेरिकी दुनिया का सहज यथार्थ है.पौराणिक पात्रों और मिथकीय सन्दर्भों से संवेदित भारतीय समाज के लिये यह बात इतनी अजूबी थी भी नहीं.अस्सी के दशक में हम टेलीविजन में रामायण के प्रसारण के साथ टीवी सेट के सम्मुख सिक्कों का चढ़ावा भी देख ही रहे थे!हम एक साथ दो अलग-अलग समय में जी रहे थे!(आज भी जी रहे हैंमंगल पर यान भेज रहे हैं  और मन्दिर में सफलता की कामनायें कर रहे हैं!)

     हिन्दी में मार्खेज़ के उपन्यास का अनुवाद बहुत बाद  में आया लेकिन उनकी कहानियों के अनुवाद लगातर प्रकाशित होते रहे.मार्खेज़ ने इतने विषयों पर कलम चलायी कि आश्चर्य होता है.तनाशाहों  के जीवन पर आटम आफ़ पैट्रिआर्क जैसा उपन्यास लिखने वाले मार्खेज़ पौ गायिका शकीरा पर भी मुग्ध कर देने वाला गद्य  लिखते हुए दिखायी देते हैं .पत्रकारिता का त्वरित लेखन बहुत से महान कथाकारों की अभ्यास स्थली तो रहा है लेकिन किसी  स्थापित उपन्यासकार को उसी शिद्दत से पत्रकारिता करते देखना अजूबे से कम नहीं. किसी जमाने में उनके लघु उपन्यास ‘क्रोनिकल आफ अ डेथ फ़ोरटोल्ड’ की  हिन्दी जगत में खूब चर्चा रही जिसके प्रभाव के अनुमान कुछ रचनाओं पर भी लगाये गये.लेकिन यहाँ राजेन्द्र यादव जैसे लेखक भी हुए जिन्हें यह रचना पढ़ते हुए इससे बहुत पहले लिखी गयी रघुवीर सहाय की कविता पंक्ति ‘रामदास की हत्या होगी’ याद आती रही.

     नोबुल पुरस्कार मिलने के बाद मार्खेज़ का अद्भुत उपन्यास ‘लव इन द टाइम आफ कोलरा’ आता है.इस उपन्यास में मार्खेज़ ने दिल टूटने के बाद इक्यावन वर्षों की लम्बी प्रतीक्षा करने वाले अद्भुत प्रेमी की सृष्टि की है.फ़्लोरेन्तीनो अरीजा जैसा दृढ़,धैर्यवान और बेशर्म आशिक विश्व-साहित्य में दूसरा नहीं जो उम्र की सीमाओं को लांघते हुए उस रात के एकान्त में अपना प्रणय सन्देश सद्य:विधवा प्रेमिका के सम्मुख रखने में नहीं हिचकता  !प्रेमिका फ़र्मिना दाज़ा के पति डाक्टर अर्बीनो की मृत्यु अचानक घटित होती है-प्रिय तोते का पीछा करते हुए एक डाल से फिसलने के बाद…मृत्यु और जीवन के इस शाश्वत द्वन्द्व में भग्न-हृदय फ़्लोरेन्तीनो अरीजा की जिन्दगी की आधी सदी की हलचलों के साथ कैरेबियन द्वीपों की जीवन्त दुनिया में प्रेम का मादक संगीत बजता है.

             मार्खेज़ की दुनिया में  उद्दाम प्रेम के बहुरंगी दृश्य हैं;न खत्म होने वाली बारिशें हैं;पसीनों की और अमरूदों की और समुद्रों की नम हवाओं वाली गन्ध है;दुपहरियों की अलसायी नींद भरी झपकियाँ हैं. जीवन के जादू को साहित्य में बहुत सारे लेखक लाते रहे हैं लेकिन मार्खेज़ का होना हमें बताता है कि जीवन को साहित्य में किस तरह जादुई बनाया जा सकता है!

     नवीन कुमार नैथानी

Saturday, March 8, 2014

यह पेड़ों के कपड़े बदलने का समय ह


अपने स्ारकारी आवास, टॉलिगंज से निकलकर नेताजी नगर के स्टूच्यू पर मिलने के वायदे के साथ पहुंचते हुए कोलकाता के सचेत नागरिक और हिन्दी के कवि नील कमल से मिलकर लौटा हूं। आज शनिवार है। कदम दर कदम मन्दिरों की अनंत श्रृंखला वाले कोलकाता में शनिपूजा की धूम है। ऋत्विज प्रकाशन, कोलकता से प्रकाशित भाई नील कमल का सद्य प्रकाशित कविता संग्रह हाथ में है ''यह पेड़ों के कपड़े बदलने का समय है""। छपाई में आकर्षक और नये में नये की भव्यता का आतंक न मचाते रंग वाले कागज पर छपी इस किताब के लिए नील कमल को बधाई एवं शुभ कामनायें।  


सुना आपने


कभी आप विचार को
जनेऊ की तरह धारण करते हैं

कभी आप जनेऊ को
विचार को की तरह धारण करते हैं

दोनों ही स्थितियों में सुविधानुसार
Vichaar को कान पर टांग लेने की सुविधा है
कविता की दुनिया में बस यह एक सुविधा है

फिलहाल
कविता के कान पर
टंगा हुआ एक धागा
ख्ाता मुआफ़ हो मेरे दोस्तो
आप जो बनते हैं कविता के हिमायती
सबसे ज्यादा सांसत में कविता की जान
आप से।।। हां आ ही से है।।। सुना आपने ?