Tuesday, February 11, 2014

भारत दुनिया का सबसे जीवन्त लोकतन्त्र है:पुरूषोत्तम अग्रवाल



    दस फरवरी को देहरादून शहर की अलसाई बौद्धिक दुनिया का सन्नाटा तोड़ते हुए आचार्य गोपेश्वर कोठियाल व्याख्यानमाला के पहले  संस्करण में “लोकतन्त्र का भविष्य” पर जोरदार चर्चा हुई.  खचाखच भरे टाउन हाल में  प्रसिद्ध आलोचक और चिन्तक पुरूषोत्तम अग्रवाल का व्याख्यान हुआ.शुरूआत में ही डा.अग्रवाल ने  इस बात को रेखांकित किया कि दुनिया में आत्म-निंदक समाज भारत के सिवा कहीं नहीं है.राजनैतिक रूप से सजग, जागरूक और सक्रिय समाज भी भारत ही है.भारत में आप कहीं भी चले जाइये,आप सिनेमा,क्रिकेट और राजनीति पर बात कर सकते हैं.भारत का नागरिक निरक्षर होते हुए भी राजनैतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से पूर्णतः शिक्षित है.यह दुनिया का सबसे जीवन्त लोकतन्त्र है.

         अमेरिका को स्वाधीनता पाने के बाद एक समानतामूलक  समाज बनने में दो शताब्दियाँ लग गयीं जबकि भारत में इसके बीज स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान पड़ गये थे.१९३४ की कांग्रेस के करांची प्रस्ताव में स्वाधीन भारत की आर्थिक ,सांस्कृतिक और विदेश नीति के बीच दिख जाते हैं.लोकतन्त्र सिर्फ संख्याओं का मामला नहीं है.सिद्धान्ततः भारतीय लोकतन्त्र में एक अकेली आवाज के लिये भी जगह है.चीन से बार-बार तुलना करने की प्रवृत्ति पर कटाक्ष करते हुए डा. अग्रवाल ने चीन में अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल उठाया.

      डा. अग्रवाल  के अनुसार लोकतन्त्र सिर्फ़ संख्या ही नहीं है.संख्या बल सत्य और नैतिकता का निर्णय नहीं कर सकता.लोकतन्त्र में बहुमत की तानाशाही के लिये कोई जगह नहीं हो सकती.लोकतन्त्र संख्याओं के साथ संस्थाओं की गरिमा और मर्यादा का संतुलन है.

डा अग्रवाल का स्पष्ट मानना था कि भारतीय संविधान में  बुनियादी इकाई व्यक्ति है,समूह नहीं.सत्ता की भी एक मर्यादा है.नेता सिर्फ  जनता का प्रतिनिधि नहीं है.नेतृत्व के पास जनता को शिक्षित और मर्यादित करने की भी जिम्मेदारी है.भारत जैसे देश में बहुत से आधुनिक मूल्य हमारी परंपरा में सहज ही मौजूद हैं.राज्य के पास दंड का सिद्धान्त जो यूरोप में  रूसो के सोशल काण्ट्रेक्ट की शक्ल में बहुत बाद में आया महाभारत के शान्ति पर्व में भीष्म के मुख से सुनायी पडता है.    

            लगभग एक घण्टे के व्याख्यान में डा अग्रवाल ने श्रोताओं को पूरी तरह से बाँधे रखा.उनके व्याख्यान के बाद श्रोताओं से प्रश्नोत्तर का डेढ़ घण्टे लम्बा दौर चला जो बेहद रोचक , विचारोत्तेजक और किंचित सनसनीखेज भी कहा जा सकता है.प्रश्नकर्ताओं में छात्र, महिलायें, राजानेता, सामाजिक-सांस्तृतिक कार्यकर्ता और पाठक शामिल थे.समयाभाव के कारण इस दौर को श्रोताओं की अनिछ्छा के बावजूद रोक देना पड़ा.पुरूषोत्तम अग्रवाल के साहित्य से लेकर दिल्ली और तेलंगाना की राजनीति से उठे सवाल पूछे गये.जिनमें से कुछ सवालों की बानगी

  क्या कोई व्यक्ति सत्ता प्राप्त करते  ही प्रतिरोध के अपने लोकतान्त्रिक अधिकार से वंचित हो जाता है?

  क्या प्रत्यक्ष लोकतनत्र की कोई संभावना?

  तेलंगना के मुख्य-मत्रि के पास धरने पर बैठने के अलावा और कौन से रास्ते हैं?

   क्या नामावर सिंह ने निर्मल वर्मा की उपेक्षा की?

   इधर कहानियों में सक्रिय हुए पुरूषोत्तम अग्रवाल की कहानियों में तो उनके इस व्याख्यान में व्यक्त विचारों की कोई झलक नहीं है?




Monday, November 18, 2013

ओम प्रकाश वाल्मीकि पर विजय गौड़



मनहूस खबरें लड़ने नहीं देतीं: विजय गौड़

(देहरादून वह शहर है जहाँ ओम प्रकाश वाल्मीकि ने एक  कवि के रूप में अपनी यात्रा शुरू करते हुये हिन्दी समाज के सामने  प्रमुख दलित चिन्तक और कथाकार के रूप में  ख्याति प्राप्त की.उनकी इस यात्रा  की शुरूआती कथा देहरादून के बाहर प्राय: अल्प-ज्ञात है.हाल ही में देहरादून से कलकत्ता स्थानान्तरित हुए साथी विजय गौड़ न सिर्फ वाल्मीकि जी के शुरूआती साहित्यिक सफ़र के हमराह रहे बल्कि उनसे कार्य-स्थल (नौकरी से संबन्धित)पर भी जुड़े रहे .यह बहुत कम लोग जानते हैं कि वाल्मीकि जी कभी रंगमंच पर भी सक्रिय रहे.यहाँ विजय गौड़ वाल्मीकि जी को याद करते हुए एक तरह से देहरादून को भी याद दिला रहे हैं कि मुज्फ़्फ़रनगर में जन्मे  वाल्मीकि दरअल देहरादून के ही थे.)
 

मैं उनसे लड़ना चाहता था। ठीक वैसे ही जैसे हम तब लड़ पाते थे जब मुझे उनकी उम्र का अंदाजा नहीं था। वे मुझसे बड़े थे। कितने बड़े, यह मैं नहीं जानता था और इसे जानने की कोई उत्सुकता भी मुझे कभी न थी। उनकी उम्र का अंदाज तो मुझे पिछले पांच वर्ष पहले हुआ था। जब वे देहरादून से जबलपुर और जबलपुर के बाद स्थानांतरित होकर दोबारा देहरादून आ चुके थे और उनमें पहले का वह दोस्तानापन उस रूप में थोड़ा कम हो गया था जिस रू्प में हम पहले लड़ सकने के साथ होते थे। चंदा भाभी ने मजाक में मुझे कुछ कहा था जिसमें आपसी छेड़-छाड़ का वह बहुत करीबी अपनापा तो था लेकिन तीव्रता में वह पहले वाला उतना नहीं था। भाभी के छेड़ने को उतनी ही चतुराई से मैंने भी जवाब दिया था। तब तक मैं जान चुका था कि अगले 3-4 साल बाद वाल्मीकि जी सेवा-निवृत्त हो रहे हैं, यानी अगले कुछ सालों में साठ के हो जायेगें। चेहरे पर मुस्कराहट बिखेरते हुए मैंने कहा था,
''देखो भाभी मुझे अब इतना छोटा न समझो और मेरे साथ पेश आने का अपना अंदाज थोड़ा बदल लो, मैं उम्र में आप दोनों से ही बड़ा हूं, ये जान लो ।"
हमारी छेड़-छाड़ के निशाने पर वाल्मीकि जी ही थे तो उनका चौंकना स्वभाविक था। वे कुछ कहते, इससे पहले ही मैंने अपनी कही गयी बात का खुलासा कर देना चाहा,
 
“भाई सहाब ये बताओ जब आप और मैं पहली बार निकट आये थे तब आपकी उम्र कितनी थी ?"
वे कुछ गिनती सी करने लगे तो मैंने ही बता देना उचित समझा था,
  “उस वक्त आपकी उम्र मात्र पैंतीस के करीब रही होगी और भाभी जी को बता दीजिये मैं इस वक्त चालीस साल का हो चुका हूं।"
मेरे जवाब पर चंदा भाभी भी जोर से हंसी थी और देर तक हंसते हुए हम तीनों ही कुछ क्षणों के लिए पिछले बीस साला अतीत में थे। उस अतीत में कथाकार मदन शर्मा और सुखबीर विश्वकर्मा यानी कवि जी सरीखे हमारे दो बुजुर्ग थे। वाल्मीकि जी की वजह से ही मैं भी दोनों के करीब तक गया था। और वैसी ही करीबी महसूस करता था जैसी वाल्मीकि जी की बातों में इन दोनों के प्रति रहती थी। मदन शर्मा जी का साथ और उनके प्रति आदर का भाव फिर भी कार्यालयी कारणों से रहा होगा, शायद लेकिन कवि जी के प्रति वाल्मीकि जी गहरी श्रद्धा व्यक्त करते थे। देहरादून की साहित्यिक बिरादरी में कवि जी अपने दौर के सबसे ज्यादा जिंदादिल इंसान हैं, ये उनका ही मानना नहीं था,, मैंने भी खुद करीब से महसूसा था। वैनगार्ड जैसे बहुत ही कम जाने जाने वाले अखबार के वे संपादक थे और कविताऐं लिखते थे। मेरे बचपन के साथी विपिन के वे पिता थे, मैं उस वक्त यह नहीं जानता था जब पहली बार वाल्मीकि जी ने मुझे उनसे मिलवाया था। उनसे मिलने हुए जो आदर वाल्मीकि जी दे रहे थेे प्रत्युतर मेें वैसा ही स्नेह बिखेरते कवि जी की खरखरी आवाज को मैं सम्मोहित-सा सुन रहा था। देहरादून की साहित्यिक बिरादरी के किसी भी व्यक्ति से यह मेरा पहला परिचय था जिन्हें मैं शुद्ध रूप में एक लेखक के तौर पर देख रहा था। मदन शर्मा जी से मुलाकात का आधार वह आयुध कारखाना भी था जहां मैं, वाल्मीकि जी और मदन जी काम करते थे। वाल्मीकि जी उस वक्त ड्राफ़्ट्समैन के पद पर थे और मैं कारखाने में कारीगर हो जाने के गुर सीख रहा था। ड्राफ्टसमैन वाल्मीकि जी से उस दिन मैं खूब लड़ा था जब 17 सितम्बर 1989 की हड़ताल वाले दिन वे मुझे उन लोगों के साथ दिखे थे जो हड़तालियों से निपटकर कारखाने में प्रवेश करने की मंशा रखने वाले थे। उन लोगों के साथ ही वाल्मीकि जी भी उस बेरिकेड तक पहुंचे थे जहां मैं स्वंय तैनात था। वाल्मीकि जी को वहां देखकर मैं चौंकता नहीं, क्योंकि उनके व्यक्तित्व में लड़ाकूपन की तस्वीर से वाकिफ था। पर झुंड के साथ उन्हें देखकर मुझे आश्चर्य हुआ था। जब बेरिकेड पर तैनात दूसरे साथी आगे बढ़ने वालों को रोक रहे थे वे दूसरों की तरह आगे बढ़कर कारखाने की ओर जाने वाले रास्ते पर आगे जाने की जिद नहीं कर रहे थे बल्कि मेरे साथ खड़े हो गये थे। मुझे उनका साथ खड़ा हो जाना भला तो लगा था लेकिन कारखाने के भीतर घुसने वालों के साथ उनके वहां पहुंचने की वजह से दूसरे साथियों के सामने मैं खुद को शर्मिंदा महसूस कर रहा था। वाल्मीकि जी और मेरे बीच के करीबी संबंध से परिचित दूसरे साथियों को वाल्मीकि जी का वहां तक पहुंचना बेशक मुझसे मिलने आना जैसा ही लगा हो शायद लेकिन मेरे भीतर की हलचलों में वे अपने वास्तकिव रूप में था। यही वजह थी कि हड़ताल निपट जाने के बाद मैंने उनसे जम कर झगड़ा किया था। उनकी उस कार्रवाई को निशाने पर रख मैंने उन्हें दूसरे डरपोक किस्म के स्टॉफ के रूप में चिह्नित किया था। वे मेरे सारी उलाहनाओं को सुनते रहे थे। विरोध तो नहीं लेकिन अपनी सफाई में उन्होंने अपनी सर्विस कंडिशन का सहारा लेने की कोशिश की तो मैं उन पर बुरी तरह बिफर पड़ा था। वह हमारी लड़ाई का ऐसा दिन था जब मैं घर पहुंच कर भी शांत नही रह पाया था।
आज जब खबर सुनी कि वाल्मीकि जी नहीं रहे तो मुझे उनका वही चेहरा क्यों याद आया ? जबकि उस दिन तो मैं उनसे जम कर लड़ लिया था। लड़ाई के बाद की सुलह का आलम यह था कि वे हमेशा कि तरह जब करनपुर चौक पर खड़े होकर दफ्तर जाने वाली बस का इंतजार कर रहे थे मैं धर्मपुर से करनपुर चौक तक लगातार उठती चढ़ाई पर साइकिल पर हर रोज की तरह पहुंचा था। लेकिन रोज की तरह वहां तब तक रुक कर जब तक कि उनकी बस नहीं आ जाती, उनसे गपियाने के लिए आंखें मिला पाने की स्थिति में न था और इस तरह से पेश आते हुए मानो मैने उन्हें खोजने पर न भी पाया हो, बस का इंतजार कर रहे लोगों पर निगाह फिराकर आगे बढ़ जाना चाह रहा था, एक बेहद आत्मीय आवाज में मैंने अपने नाम की पुकार सुनी थी। चौंकने का सा अभिनय करते हुए मैंने साइकिल रोक दी थी। बहुत ही खुश होकर वे मुझे सूचना दे रहे थे कि बिहार के मुंगेर जिले से निकलने वाली 20-24 पेजी पत्रिका ''पंछी"" के नये अंक में मेरी भी कवितायें प्रकाशित हैं इस बार। लघु पत्रिकाओं के आंदोलन का वह अभूतपूर्व दौर था। पत्रिकाओं के किताबनुमा संस्करणों की बजाय पतली-पतली सी पुस्तिकायें बल्कि एक ही बड़े कागज को घ्ाुमाव देकर पेज दर पेज निर्मित करते कितने ही कविता फोल्डर उस वक्त देश भर से प्रकाशित हो रहे थे। यदा कदा उनमें हमारी रचनाओं के प्रकाशित होने के कितने ही उत्साही क्षण हमारे संबंधों को गति देने वाली बात-चीत का हिस्सा रहे। देहरादून से ही अरविन्द शर्मा उस वक्त ''संकेत"" निकालते थे। जिस पर सम्पर्क का पता वही ''टिप-टॅाप"" लिखा होता था जहां चौकड़ी जमा कर बैठते हुए दिन में शाम वाली स्थितियों का मजा लेने के इंतजार में अरविन्द, अवधेश और हरजीत का इंतजार करने वाले नवीन नैथानी ने उसे इस कदर आबाद कर दिया था कि बाद-बाद के किस्सों में यह तलाशना मुश्किल हो जाता रहा  कि देहरादून की साहित्यिक बिरादरी में ''टिप-टॉप"" की लगातार उपस्थिति का जिक्र आखिर सबसे पहले कब और कहां से होने लगा। अरविन्द के लिये तो ""टिप-टॉप"" उसको दी जाने वाली सूचनाओं का ड्राप बाक्स पहले से ही था। छूत के किटाणु लेकर घूमने वाला अरविन्द ''टिप-टॉप""  के संचालक प्रदीप गुप्ता को कविता लिखाने का रोग पहले ही लगा चुका था। वाल्मीकि जी के साथ ही किसी रोज शायद मैं भी ''टिप-टॉप"" पहुंचा था। जहां देहरादून के बहुत से दूसरे अपने जैसे बदतमीजों से सम्पर्क हुआ। वाल्मिकी जी के मार्फत ही मैं जान पाया था कि देहरादून से हस्तलिखित पत्रिका ''अंक" का पहला अंक प्रकाशित हुआ है। अतुल शर्मा और नवीन कुमार नैथानी के सम्पादन में निकलने वाली वह ऐसी पत्रिका थी जिसके शायद दो ही अंक निकले थे। पहले अंक की गोष्ठी का आयोजन सहस्त्रधारा में किया गया था। कवि जी से मैं परिचित हो चुका था जो उस दिन ही पहली बार राजेश सेमवाल और नवीन नैथानी से भेंट हुई थी। लगातार की ऐसी सक्रियतायें वाल्मीकि जी और मुझे करीब से करीब लाती जा रही थी। साहित्य की उठा-पटक से लेकर दुनिया जहान की कितनी ही बातें जो हमारे भीतर गुस्सा पैदा करतीं, हमारी बातचीतों के किस्से थे। हर स्थिति से लगातार टकराते रहने और टकराहट के दौरान लगने वाले आघ्ाातों से भी विचलित होने की बजाय फिर-फिर टकराने की जिद रखने वाले वाल्मिकि के व्यक्तित्व का प्रभाव मेरे ऊपर भी पड़ता जा रहा था और गैर बराबरी की अवधारणओं को ही दुनिया के संचालन की एक मात्र दिशा मानने वाले विचारों से मेरी टकराहट बढ़ती जा रही थी।
वाल्मीकि जी महाराष्ट्र के चंद्रपुर इलाके में एक लम्बा समय गुजार कर देहरादून स्थांनतरित हुए थे। महाराष्ट्र के दलित आंदोलनों का प्रभाव उन्हें खुद के भीतर के हीनताबोध से बाहर निकाल चुका था। हिन्दी में दलितधारा नाम की कोई स्थिति उस वक्त न थी। कवि जी की कविताओं के प्रभाव भी वाल्मीकि जी कविताओं में थे। मिथ और इतिहास से टकराने की दलित साहित्य की शुरूआती प्रवृत्तियों वाला प्रभाव यदि कहें तो कवि जी कविताओं के वे मुख्य विषय थे। शंभुक, सीता, अहिल्या और किंवदंत कथाओं के ऐसे कितने ही उपेक्षित पात्र सुखबीर विश्वकर्मा की कविताओं में मौजूद रहते थे। वाल्मीकि जी की कविताओं में ही नहीं मैं उस दौर की अपनी कविताओं में भी उनके प्रभावों को पाता हूं। बाद में कहानीकार कहलाये जा रहे वाल्मीकि जी मूलत: एक कवि थे। और कवि के साथ कुछ और कहा जाये तो नाटककार। मेरे और उनके बीच लगातार की करीबी का एक कारण नाटक भी था। कहानियां लिखना ही नहीं उन पर दिलचस्प तरह से बात करने की कोई स्थिति भी मैं याद नहीं कर पाता। मदन शर्मा, वाल्मीकि जी और मैं जो एक ही जगह पर नौकरी करने के कारण अक्सर साथ-साथ मुलाकातों के अवसर वाली स्थिति पा जाते थे, मदन शर्मा जी ही हम तीनों के बीच एक स्वीकृत कहानीकार रहे। मदन जी उन दिनों पंजाब केसरी के स्टार लेखक थे। वीरवार को निकलने वाले पंजाब केसरी के साहित्यिक पृष्ठ में जिसमें हर हफ्ते चार से पांच कहानियां छपती थी, मदन जी कहानी अक्सर ही मौजूद रहती। अपने अनुभवों को आधार बनाकर कहानी लिखने की वाल्मीकि जी की वे कोशिशें मदन जी की ही सलाहों पर पंजाब केसरी के वीरवारी पन्नों में दर्ज हुई जिनके छप जाने के बावजूद भी वाल्मीकि जी एक कवि के रूप्ा में ही जाने जाते थे। पंजाब केसरी के पन्नों में छपी वे कहानियां कहानियों के रूप्ा में नहीं दिखायी दी बल्कि उन कहानियों में अन्य प्रंसगों को पिरोकर वाल्मीकि जी ने ''जूठन"" एक ऐसी कृति रचि जिसने हिन्दी में दलित धारा के उपस्थित होने की स्थिति का बयान ही नहीं किया बल्कि उसको बाहर आने के आधार भी प्रदान किये। हालांकि जूठन से पहले मोहनदास नैमिशराय की ''अपने-अपने पिंजरे"" छप चुकी थी। वह एक ऐसी आत्मकथा जिसे खुद वाल्मीकि जी ने मुझे उस वक्त पढ़ने को दिया था जब मैं उनसे लेकर पढ़ी जा चुकी दया पंवार की ''अछूत"" पर बात कर रहा था।
जूठन में लिखी भूमिका को पढ़ते हुए जब मैं उसके लिखे जाने की स्थिति में जो कुछ नाम पढ़ रहा था तो वे देवत्व को प्राप्त लोगों भर के होने पर मैं भीतर ही भीतर तिलमिला गया था। वाल्मीकि जी से लड़ना चाहता था। लेकिन लड़ने का अवसर मौजूद न था। वैसी स्थितियां सृजित होने के हालात कभी बन नहीं पाये। बल्कि ऐसी बातों पर लड़ने की दूसरी-दूसरी स्थितियां ही, जो लगातार बढ़ती ही गयी, मेरे भीतर गुस्सा जज्ब करती रही। इस बार मैं तय कर चुका था कि अबकि इस कदर लड़ूंगा कि चाहे जो जाये। लेकिन वैसी ही मनहूस खबर जो पिछले 2012 नवम्बर के एक दिन मुझे सुनने को मिली जब बड़े भाई का निधन हुआ और नवम्बर 2013 में जो अपनी पुनर्वावृत्ति कर रही है, मुझे वाल्मीकि जी से लड़ने को वंचित कर दे रही है। सिर्फ रोने, सुबकने और गले लग कर न लड़ पाने के इस दुख को मैं लेखकीय संबंधों की साझेदारी के साथ लिख कर निपटा नहीं पा रहा हूं। काश मेरे शब्द मेरी उस स्थिति को बयां कर पाते जो मुझे लगातार एक छोटे भाई को उसे अपने बड़े भाई पर गुस्से की रूलाहटों से भर रही है।


फ्लैट संख्या: 91, 12वां तल,टाइप-III, केन्द्रीय सरकारी आवास परिसर, ग्राहम रोड़, टॉलीगंज, कोलकाता-700040             
mob : 09474095290   

Sunday, November 17, 2013

ओमप्रकाश वाल्मीकि को विनम्र श्रद्धाँजलि

(साथी रतिनाथ योगेश्वर की टिप्पणी के साथ वाल्मीकि जी की शुरूआती दौर की कविता के साथ लिखो यहां वहां की विनम्र श्रद्धाँजलि)
 
  बहुत ही प्यारे इन्सान बड़े भाई ओमप्रकाश बाल्मीकि का वो स्नेह अब कहाँ...कैसे...किससे मिलेगा ----गहरे सदमें में हूँ...देहरादून के साहित्यिक परिवेश में --जब मैं अ आ की वर्णमाला सीख रहा था ---उनका प्रोत्साहन प्यार --उफ़ --वो सृजनात्मक छटपटाहट के बीच ---सार्थक साहित्य की पहचान --जनसाहित्य से जुडाव संभव न हो पता ----अगर हम युवाओं के बीच बाल्मीकि जी --हमें निर्देशित न करते --सुझाव देकर सहायता न करते ---उन दिनों भाई विजय गौड़ ने एक महत्वपूर्ण कविता फोल्डर ''फिलहाल'' का प्रकाशन हम सभी की कविताओं को लेकर किया था--- भाई विजय गौड़ ने ही अनौपचारिक रूप से बाल्मीकि जी के पहले कविता संग्रह '' सदियों का संताप'' को प्रकाशित करने का प्रस्ताव हम सब के बीच रखा ---और फ़िलहाल प्रकाशन, देहरादून से हम लोगों ने उसे प्रकाशित किया ---उसके आवरण डिजायन का दायित्व मुझे सौपा गया था ---जिसे मैंने पूरी निष्ठा और लगन से निभाया --अच्छा बन पड़ा था आवरण ---बहुत चर्चित हुई थी ''सदियों का संताप '' की कवितायेँ ----करीब करीब रोज शाम को मिलना होता था ---कितनी सार्थक और खूबसूरत होती थी वे शामें ----उसी श्रंखला में मैंने और जनकवि नवेंदु जी ने एक कविता संकलन '' इन दिनों'' सम्पादित करने का विचार किया जिसमे बाल्मीकि जी की कविताओं सहित हम सभी देहरादून के १७ कविओं की कवितायेँ संकलित हुई ---जिसकी भूमिका चौथा सप्तक के कवि अवधेश कुमार भाई ने लिखी और फ्लैप ''उन्नयन'' पत्रिका के संपादक वरिष्ठ कवि श्रीप्रकाश मिश्र जी ने---'' इन दिनों'' कविता संकलन का विमोचन किया प्रख्यात जन कवि बाबा नागार्जुन ने ---बहुत ही आत्मीय भाई ओमप्रकाश बाल्मीकि को मैं भरे मन से श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ --- 
---रतीनाथ योगेश्वर










ठाकुर का कुँआ

-ओमप्रकाश वाल्मीकि




चूल्हा मिट्टी का

मिट्टी तालाब की

तालाब ठाकुर का.



भूख रोटी की

रोटी बाजरे की

बाजरा खेत का

खेत ठाकुर का.



खेत ठाकुर का

बैल ठाकुर का

हल ठाकुर का

हल की मूठ पर हथेली अपनी

फसल ठाकुर की.



कुंआ ठाकुर का

पानी ठाकुर का

खेत खलिहान ठाकुर के

गली मुहल्ले ठाकुर के

फिर अपना क्या?

गाँव?

शहर?

देश?


Sunday, October 13, 2013

कोरस

लिखे जा रहे उपन्यास का एक छोटा सा हिस्सा-      विजय गौड़



संगरू सिंह रिकार्ड सप्लायर था और रिटायरमेंट की उम्र तक पहुंचने से काफी पहले ही मर चुका था। अनुकम्पा के आधार पर संगरू के बेटे को अर्दली की नौकरी पर रख लिया गया था। उस वक्त उसकी उम्र मात्र बीस बरस थी। वह संगरू सिंह का बेटा था पर संगरू नहीं। संगरू सिंह ने उसे पढ़ने के लिए स्कूल भेजा था। वह एक पढ़ा लिखा नौजवान था और दूसरे पढ़े लिखों की तरह दुनिया की बहुत-सी बातें जानता था। बल्कि व्यवहार कुशलता में उसे कईयों से ज्यादा सु-सभ्य कहा जा सकता था। उसका नाम ज्ञानेश्वर है और धीरे-धीरे डिपार्टमेंट का हर आदमी उसे उसके नाम से जानने लगा था।
अर्दली बाप का नौजवान ज्ञानेश्वर दूसरे नौकरी पेशा मां-बाप की औलादों की तरह रूप्ाये कमा लेने और तेजी से बैंक बैलेंस बढ़ा लेने को कामयाबी का एक मात्र लक्ष्य मानता था और जमाने भर में चालू, अंधी दौड़ में शामिल होने के हर हुनर से वाकिफ हो जाना चाहता था। उसकी कोशिशें इन्वेस्टमेंट के नये से नये प्लान, और हर क्षण खुलते नम्बरों के साथ लाखों के वारे न्यारे कर लिए जाने के साथ रहती। इकाई के अंकों में ही अनंत दहाइयों का रहस्य छुपा है और जीवन का गणित ऐसे ही सवालों को चुटकियों में हल करने के साथ ही सफल हो सकता है, उसका जीवन दर्शन बन चुका था। सुबह से शाम तक कभी अट्ठा, कभी छा तो कभी चव्वे की आवाजें उसके भीतर हर वक्त गूंजती रहती थी। गोल्डन फारेस्ट से लेकर गोल्डन ओक, गोल्डन पाइन जैसे नामों वाली वित्तिय गतिविधियों के कितने ही गोल्डन-गोल्डन एजेंट उसके साथी थे। फुटपाथों पर कम्पनी के शेयर संबंधी कागजों की भरमार और कानाफुसी का चुपचाप बाजार जब खरीद पर भी कमीशन देने की उपभोक्तावादी नयी संस्कृति को जन्म दे रहा था, ज्ञानेश्वर अपने मित्रों परिचितों को अपनी अदाओं के झांसे में फंसाकर उनके भीतर के ललचाघ्पन को और ज्यादा उकसाने में माहिर होता जा रहा था। खामोश रहने और मंद-मंद मुस्कराने की निराली अदाओं को उसने इस हद तक आत्मसात कर लिया था कि उसके मोहक आकर्षण का दीवाना, कोई परिचित, रिश्तेदार जब उसके करीब आता तो वह उसे चुपके से और करीब से करीब आने का आमंत्रण दे चुका होता। ऐसे ही करीब आ गये प्रशंसक को वह किसी होटल की भव्यता के दायरे में लगती विस्तार वादी बाजार की कक्षाओं के महागुरूओं के हवाले कर देता। ब्रोकरो, स्टाकिस्टों और बिचौलिये के बीच बंटकर गुम हो जा रहे मुनाफे से बचने की चेतावनी को जरूरी पाठ मान लेने वालों की एक लम्बी श्रृखंला तैयार कर लेने की उसकी कोशिशें बेशक उसे आसानी से कामयाब बना देने में सहायक थी लेकिन साल-छै महीने के अन्तराल में ही उसे एहसास होने लग जाता कि महागुरूओं की आवाज का जादुईपन एक सीमा ही है। लगायी गयी रकम का रिर्टन न मिलने से निराश हो चुके परिचितों को दोपहिया से चोपहिया तक ले जा सकने के सपने दिखाना फिर उसके लिए आसान न रहता और धंधा बदलने को मजबूर हो जाना पड़ता।