Thursday, January 10, 2013

कभी यहां बहुत सारे रास्ते थे!



(यहां - यमुना किनारे सुबह के कोहरे में जब बाहर निकलना बहुत मुश्किल हुआ जाता है तो घर के भीतर बैठे पुराने कागजों को खंगाल ही लेना चाहिये.कम्प्यूटर के वाइरस की चिन्ता करने वाली नयी पीढी को दीमकों के भय का शायद अन्दाजा हो. कुछ जगहें तो दीमकों के लिये बहुत ही सुरक्षित हुई जाती हैं. 1988 या 89 में लिखी कुछ रचनायें मिलीं. शायद हर कहानी लिखने वाला शुरूआत कविताओं से करता है.उन्हीं में से एक यहां किंचित संकोच के साथ प्रस्तुत है. –नवीन कुमार नैथानी)
रास्ते


कौन गया होगा इन रास्तों से होकर

जब आगे कुछ नहीं रहा होगा

जीवन में वनस्पति के सिवा.



मृत अवशेषों के साथ किसने बिताये होंगे

खत्म होने वाले दिन?



कौन जाता होगा इन रास्तों से होकर

जब समय में उतना शेष नहीं है जीवन

जितना हम जी लिये.

वनस्पति के दरकने से बनी पगडंडी पर कौन चलता होगा?



कौन जायेगा इन रास्तों से होकर

जब आगे कुछ नहीं रहेगा

हवा

वनस्पति

प्राणि.



जब फिर से शुरू होगा जीवन तो

कौन बतायेगा

कि कभी यहां बहुत सारे रास्ते थे!


Wednesday, January 2, 2013

क्या यह एक जरूरी काम नहीं है?

मेरा कमरा

- अल्पना मिश्र

स्त्री का कोई अपना कमरा हो सकता है क्या, जहॉ बैठ कर वह अपने आप को जी सके? ऐसा कोई एकांत कोना ही, जहॉ वह अपनी तरह से दुनिया जहान पर विचार कर सके? मेरी समझ से यह हमारे वक्त का अभी भी एक जरूरी सवाल है। स्त्री जहॉ खड़ी होती है, वहीं अपना कमरा मतलब अपना स्पेस रच लेती है। मेरा भी हाल यही है। अलग से कोई जगह, कोई कुर्सी मेज नहीं मिली कि लिखने के सारे साजो सामान के साथ लेखक की भव्यता को महसूस करते हुए लिख सकूं ।
            बालपन और युवापन के बीच के समय की बात है, जब अपने में मगन होने को जी चाहता और कोई कविता सूझ रही होती तो बिना पलस्तर की नई बन रही किसी ऊंची दीवार पर चढ़ कर बैठ जाती। यह हमारे घर की दीवार होती, जो उस समय बन रहा था। उसमें एक अलग सी नमी और ठंडक मिलती। मिट्टी, सीमेंट और ईंटों की अद्भुत सी गंध बिखरी होती। यहॉ यह भी बता दूं कि जो कविता मुझे सूझ रही होती, वह किसी रोमानियत से नहीं निकल रही होती, बल्कि गुस्से और प्रतिरोध के लिए वह एक बेचैन माध्यम होती। धीरे धीरे यह माध्यम मुझे बेहद मजबूत माध्यम लगता चला गया और मैं कविता से गद्य की तरफ आती गयी। गद्य में आ कर लिखने के लिए ज्यादा स्थिर जगह की जरूरत पड़ती। पर जगहें तो वही मयस्सर थीं, थोड़ी सी प्रकृति, थोड़ी सी रसोई, कुछ बरतन, आटे का बड़ा वाला कनस्तर, बिस्तर पर अरवट करवट कि कहीं छोटे भाई बहन जग न जायें, बाद में बच्चे जग न जायें, रजाई के भीतर मद्धिम रोशनी -- - और हॉ, टॉयलेट, वह सोचने की सबसे मुफीद जगह थी। खैर तो मेरी ढूंढ़ाई होती और मैं एकदम निश्चित पते पर मिल जाती। फिर मुझे तरह तरह के भाषा प्रयोगों से बताया जाता कि मैं किस तरह के फालतू काम में लगी हूं। अगर इतने समय में अपनी पाठ्यपुस्तकें पढ़ती तो किसी की मजाल नहीं थी कि मुझे टॉप करने से रोक पाता। फिर एक दो और भी जगहें थी, जहॉ कलम कागज लिए पॅहुच जाती। आम के पेड़ की छॉव थी। वहॉ बहुत एकान्त होता। यह पेड़ घर के ठीक पीछे के अहाते में लगा था। और भी बहुत से पेड़ पिता जी ने लगाए थे। पर यह आम का पेड़ बड़ा शानदार लगता। इसकी छाया मेरा वह खुशबूदार कमरा थी, जहॉ बैठ कर शादी के बाद भी मैंने कई कहानियॉ लिखीं। 'मुक्तिप्रसंग" कहानी का पहला ड्राफ्ट  यहीं तैयार हुआ था। यह कहानी 'कथादेश ’04 में आई थी। 'मिड डे मील" तो यहीं की हवा में फैली मिलेगी आपको। मेरे पहले कहानी संग्रह 'भीतर का वक्त" की तमाम कहानियॉ ऐसे ही इधर उधर से समय और जगह निकालते लिखीं गयीं। अब तो आम की इस घनी छाया पर, न जाने किस लोक से आकर बंदरों ने अपना आधिपत्य जमा लिया है और मुझसे मेरा वह निजी बिन दीवारों का कमरा छीन लिया है।
                एक बात और हुई। शादी के बाद पेड़ की किसी डाल पर चढ़ कर विचार मग्न होना और किसी टूटी फूटी या बनती हुई दीवार पर चढ़ना मर्यादा विरूद्ध बना दिया गया। लेकिन मेरी अनुशासनहीनता को बॉध पाना इतना आसान था क्या? 'जो मुझे बॉधना चाहे मन तो बॉधे पहले अनंत गगन---" कुछ इसी तर्ज पर लेखन चल रहा था। कभी रसोई तो कभी डाइनिंग टेबल तो कभी थोड़ा सा दोपहर का समय चुरा कर धूप में कुर्सी खींच खींच कर लिखना। कभी सीढ़ियों के आखिरी उपरी पायदान पर बैठ कर, छिप कर लिखना और वह रात रात भर जाग कर बिस्तरें में सोते जागते हुए लिखते रहना। तब तक लिखना, जब तक कि द्रारीर पूरी तरह आपका साथ न छोड़ दे। यह रात भर जागना किसी तपस्या से कम न होता। लिखना शुरू करने के लिए विचारों को जल्दी जल्दी कोई भी काम करते हुए नोट करते जाना होता, जैसे कि रोटी बनाते हुए कागज कलम धरे हैं पास में और विचारों के उफान में से कुछ कतरे नोट कर ले रहे हैं कि जब फुरसत के क्षण आऐंगे तब इसी थाती को खोल कर काम ले लेंगे। फुरसत का क्षण आता, जब पति और बच्चे सो जाते। तब तक कम से कम रात के गयारह, साढ़े ग्यारह होने लगते। कभी बारह भी बज जाता। नौकरी और बच्चों के स्कूल दोनों ही कारणों से सुबह जल्दी उठने को जरा भी टालना असंभव होता। पति सेना में अधिकारी हैं और प्राय: बार्डर पर पोस्टिंग होती रहती। उनकी नौकरी ऐसी कि जब वे छुट्टी आते तो वे दिन उत्सव के दिन बन जाते और बच्चों समेत उस समय को कितना पा लिया जाए, इसी पर बल होता। बहुत काम रोजमर्रा की जरूरतों से बचे होते। वे प्राय: बचे ही रह जाते। इस तरह वे बहुत मददगार होना चाह कर भी नहीं हो पाते। पर जितना सपरता, उतना मदद करते ही। बच्चों की हर तरह की जिम्मेदारी मेरे उपर होती। इस सब में यह भी होता कि कई बार याद आने पर बच्चों के जूते रात के किसी पहर में उठ कर पॉलिश करती। फिर बड़े होते हुए बच्चों ने बहुत से काम अपने उपर ले लिए और जूते पॉलिश जैसे तमाम छोटे कामों से मैं मुक्त हो गयी। इस तरह सब काम निबटाने के बाद लिखने का नम्बर आ पाता। जबकि मैं मानती हूं कि लिखना एक जरूरी काम है और दुनिया को बदलने का ख्वाब देखने वालों को बोलना तो पड़ेगा ही। हस्तक्षेप करने की इच्छा रखने वालों का माध्यम कुछ भी हो सकता है, पेंटिंग, लेखन या राजनीतिक सक्रियता या जन आन्दोलन या सामाजिक, सांगठनिक आन्दोलन। यह सब अलग अलग नहीं आपस में जुड़ी-गुंथीं चीजें हैं। इसके बावजूद कि मैं यह मानती थी, लिखने का वक्त सबसे आखिरी में मिल पाता या लिखने का वक्त सबसे आखिरी में निकाल पाती, कुछ भी कह लें , यही जीवन की सच्चाई रही। तो रात भर जाग कर काम करना पड़ता। बड़े जुनून में काम होता। 'छावनी में बेघर" कहानी ऐसे ही चार रात जग कर लिखी गयी। सोए हुए बच्चों को साथ लिपटाए दो तकिए पीठ के पीछे रख कर लिखी गयी यह कहानी।
इसी तरह देहरादून के घ्रर का, लिखने के जुनून का एक और दृश्य याद आ रहा है। मेरे बेटे की हाईस्कूल की परीक्षा थी। वह चाहता था कि मैं कुछ देर उसके पास रहूं। लेकिन नौकरी समय बहुत खींच लेती, फिर परम्परागत सारे काम होते ही। उसका कमरा ऊपर था। मैंने वहीं जमीन पर अपना बिस्तर लगा लिया था। काम खतम कर के, उसके लिए काफी बना कर लाने और ऊपर पॅहुचने में हमेशा रात के ग्यारह बजने लगते। बेटा कहता-''तुम भी पढ़ो।"" मैं पढ़ती, सुबह का लेक्चर तैयार करती। एक बार ऐसा हुआ कि मेरे दिमाग में विचार बड़े आवेगात्मक तरीके से आ रहे थे। मैंने कुछ कतरे रसोई में काम करते हुए नोट भी किया। लेकिन विचार थे कि रूकते ही न थे। तब मैंने बेटे के लिए कॉफी बनाई और एक कॉख में कागज कलम दबाए और दूसरे हाथ में कॉफी का मग ले कर उपर पॅहुची। थोड़ी देर तो पढ़ाई लिखाई चली। फिर बेटे ने कहा कि -''मॉ , आज रेस्ट नहीं किया । अब सोउंगा।"" मैंने कहा-''ठीक है।"" और बत्ती बुझा कर हम सो गए। लेकिन मेरे दिमाग की सिलाई तो उधड़ चुकी थी। ठाठे मार कर विचार का समुद्र बहा जा रहा था। मैंने अंधेरे में सादे पन्ने पर नोट करने की कोशिश  की। लेकिन जैसे ही मैंने कलम चलाया, बेटे ने भॉप लिया। तुरंत उठ बैठा। जल्दी से लाइट जला दी। ''अम्मॉ, तुम अंधेर में  लिख रही हो। यहॉ बैठ कर लिखो।"" उसने तुरंत अपनी टेबल कुर्सी मुझे ऑफर की। मैंने मना कर दिया। थके बच्चे के साथ यह अन्याय होता। मैंने कहा-'' तुम चिंता क्यों कर रहे हो। ऐसे ही कुछ दिमाग में आ गया तो नोट कर लिया।"" वह आश्वस्त हुआ। हम फिर से सोए। लेकिन यह तो मेरा दिमाग था! काहे को माने! फिर से वही हाल। फिर पन्ने पर बहुत धीरे से कुछ घसीटा। फिर बेटा उठ गया। उसने लाइट जला दी। फिर मैंने कागज कलम दूर रख दिया और कहा कि '' यह आज की आखिरी पॅक्ति थी, जो सूझी थी।"" इस पर बेटे ने कहा कि -''तुम कह रही थी कि कुछ बम बिस्फोट और आम आदमी की बात लिख रही हो। क्या यह एक जरूरी काम नहीं है? उठो और काम करो।"" मैं उसकी संवेदनशीलता पर दंग रह गयी। इसके बाद उस रात नहीं लिखा मैंने। सुबह जब फुरसत के क्षण में ठीक किया तो पाया कि यह एक अलग ढंग की कहानी तैयार हो रही थी। यह कहानी 'बेदखल" नाम से छपी 'बया" के पहले अंक में और फिर इसे कई जगह मित्रों ने बार बार प्रकाशित किया। चर्चा खूब मिली। वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह ने दू्रदर्शन  पर कहा कि 'यह हिंदी की पहली कहानी है, जो बम बिस्फोट और आतंकवाद की समस्या उठाती है।" उनका यह वक्तव्य 'पब्लिक ऐजेंडा" ने छापा भी।
अब तो ज्यादा काम लैपटॉप पर करने लगी हूं। कागज कलम अब भी है। पर टाइपिंग ने ज्यादा जगह पा ली है। इंटरनेट और मेल की सुविधा जुड़े होने से यह आसान लगने लगा है। खुद टाइप करते हुए कई बार कहानी का पहला ड्राफ्ट भी सीधा कम्प्यूटर पर ही लिखने लगी हूं। लैपटॉप पर काम करने के बावजूद आज तक लिखने की जगहें बिखरी हुई ही हैं। तो बिन दीवारों के इन्हीं कमरों में लगता है मन मेरा, जिसका विस्तार इतना हो कि सारी दुनिया समा जाए और एक ही पल में आदमी अकेला भी हो ले, अपने में डूब ले या सबमें डुबकी लगा कर बाहर आ ले।
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अल्पना मिश्र
एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, दिल्ली विच्च्वविद्यालय, दिल्ली-7
मो। 9911378341






       

Monday, November 26, 2012

मटर का मौसम और राजेश सकलानी की कविता



   (मटर का मौसम आते ही राजेश सकलानी की कविता ‘गेंद की तरह’  चेतना में कौंध जाती है.आज इस कविता का स्वाद लीजिये)



गेंद की तरह
                                                                       -राजेश सकलानी




कौन से देश से आयी हो
किसके हाथों उपजाई हो
गदराई हुई मटर की फलियों
जैसे धूप टोकरी से कहती हो

मैं लगा छीलने फलियां
एक दाना छिटक कर गया यहां-वहां
लगा ढूंढने उसे मेज के नीचे
वह नटखट जैसे छिपता हो

फिर सोचा एक ही दाना है
लगा दूसरी फलियों को छूने
लेकिन नहीं,बार-बार वह आंखों में कौंधता

आखिर गया तो गया कहां
वह कसा-कसा हरियाला
मिल जाये तुरत उसे छू लूं

काग़ज़,किताब,जूते सब उठा पलट कर
मैं लगा देखने

एक और मेरा समय
दूसरी और मटर के दाने का इतराना

ज्यों-ज्यों आगे लगा काम में
लगता जैसे अभी-अभी वह गेंद की तरह
टप्पा खाकर उछला है.


Friday, November 9, 2012

मुझेसे मेरी आज़ादी छीन ली गयी है

48 वर्षीय नसरीन सतूदेह इरान की बेहद लोकप्रिय मानव अधिकार वकील और कार्यकर्ता हैं जो अपने कट्टर पंथी शासन विरोधी विचारों के लिए सरकार की आंख की किरकिरी बनी हुई हैं.अपने छात्र जीवन में खूब अच्छे नंबरों से पास होने के बाद उन्होंने कानून की पढाई की पर वकालत करने के लाइसेंस के लिए उन्हें आठ साल का लम्बा इंतजार करना पड़ा.उन्होंने सरकारी महकमों और बैंक में भी नौकरी की पर इरान के पुरुष वर्चस्व वाले समाज में आततायी पिताओं के सताए हुए बच्चों और शासन के बर्बर कोप का भाजन बने राजनैतिक कार्यकर्ताओं के लिए क़ानूनी सहायता प्रदान करने के कारण उन्हें दुनिया भर में खूब सम्मान मिला.पिछले राष्ट्रपति चुनाव की कथित धांधलियों में उन्होंने खुल कर विरोधी पक्ष का साथ दिया...नतीजा सितम्बर 2010 में उनकी गिरफ़्तारी और अंततः जनवरी 2011 में ग्यारह साल की एकाकी जेल की सजा... कैद की सजा के साथ साथ उनके अगले बीस सालों तक वकालत करने पर भी पाबन्दी लगा दी गयी जो बाद में अपील करने पर छह साल (कैद) और दस साल (वकालत से मनाही) कर दी गयी। जेल में रहते हुए उन्हें अपने परिवार से भी नहीं मिलने दिया जाता इसलिए कई बार उन्होंने विरोध स्वरुप अन्न जल ग्रहण करने से इंकार कर दिया...इन दिनों भी वे अन्य कैदियों की तरह खुले में परिवार से मिलने के हक़ के लिए भूख हड़ताल पर हैं और उनकी सेहत निरंतर बिगडती जा रही है.दुनिया में मानव अधिकारों के लिए आवाज उठाने वाले अनेक लोगों और संगठनों ने उनकी रिहाई की माँग की है.जेल की अपनी एकाकी कोठरी से उन्होंने अपने बेटे के लिए जो चिट्ठी लिखी,उसका अनुवाद यहाँ प्रस्तुत है: मई 2011 में एविन जेल में 9 महीने तक बंद रहने के बाद नसरीन सोतुदेह ने अपने तीन साल के बेटे नीमा को यह मार्मिक ख़त लिखा। प्रसुत है नीमा का लिखा खत-

प्रस्तुति एवं अनुवाद:  यादवेन्द्र





मेरे सबसे प्यारे नीमा, 
तुम्हें ख़त लिखना ...मेरे प्यारे...बेहद मुश्किल काम है...मैं तुम्हें कैसे बताऊँ कि मैं कहाँ हूँ, इतने छोटे और नादान हो तुम कि कैद, गिरफ़्तारी, सजा, मुकदमा, सेंसरशिप, अन्याय, दमन , आज़ादी, मुक्ति , न्याय और बराबरी जैसे शब्दों के मायने कैसे समझ पाओगे. मैं इसका भरोसा खुद को कैसे दिलाऊं कि जो मैं तुम्हें बताउंगी उसको तुम्हारे स्तर पर जा कर सही ढंग से तुम तक पहुंचा और समझा भी पाऊँगी... बड़ी बात है कि मैं आज के सन्दर्भ में बात कर रही हूँ...आगे आने वाले सालों के बारे में कल्पना नहीं कर रही हूँ.मैं कैसे तुम्हें समझाऊं मेरे प्यारे कि अभी घर लौट कर आ जाना मेरे लिए मुमकिन नहीं..मुझेसे मेरी यह आज़ादी छीन ली गयी है. मुझतक यह खबर पहुंची है कि तुमने अब्बा से कहा है कि अम्मी से अपना काम जल्दी ख़तम करने और घर लौट आने को कह दो...मैं कैसे तुम्हें समझाऊं मेरे बच्चे कि दुनिया का कोई भी काम इतना जरुरी नहीं है कि मुझे इतने लम्बे अरसे तक तुमसे जुदा रख सके...किसी का मेरे ऊपर ऐसा इख्तियार नहीं है कि मुझे मेरे बच्चों के हकों से बेफिक्र कर दे.मैं कैसे तुम्हें समझाऊं कि पिछले छह महीनों के दौरान मुझे सब मिला कर एक घंटा भी तुमसे मुलाकात का नहीं दिया गया. अब मैं तुमसे क्या कहूँ मेरे बेटे? पिछले हफ्ते की ही तो बात है जब तुमने मुझसे पूछा था: आज शाम का अपने काम निबटा के हमारे पास घर आ रही हो ना अम्मी?इसका जवाब मुझे मज़बूरी में जेल के गार्डों के सामने ही देना पड़ा था: बच्चे, मेरा काम थोड़ा और बाकी है, जैसे ही ख़तम होगा मैं फ़ौरन घर आ जाउंगी. मुझे लगा था जैसे तुम सारी असलियत समझ गये हो और फिर महसूस हुआ जैसे तुमने मेरा हाथ प्यार से थामा और मुँह तक लाकर अपने नन्हें नन्हें होंठों से उसको चूम लिया हो. मेरे प्यारे नीमा, पिछले छह महीनों में सिर्फ दो मौके ऐसे आये जब मैं पूरी कोशिश के बाद भी अपनी रुलाई नहीं रोक पाई...पहली बार जब मेरे अब्बा का इन्तिकाल होने की खबर मुझे मिली थी पर मुझे उनके लिए अफ़सोस करने का और उनके जनाजे में शामिल होने की इजाज़त की अर्जी ठुकरा दी गयी थी....दूसरा वाकया उस दिन का है जब तुमने मुझे अपने साथ साथ घर चलने की गुजारिश की थी और मैं उसको पूरा कर पाने से लाचार थी...तुम्हारे उदास होकर चले जाने के बाद मैं जेल की अपनी कोठरी में वापिस आ गयी...उसके बाद मेरा खुद पर से सारा नियंत्रण ख़तम हो गया.... बहुत देर तक मेरी सिसकियाँ रुक ही नहीं पा रही थीं. मेरे सबसे प्यारे नीमा, बच्चों के मामले में एक के बाद एक अनेक फैसलों में कोर्टों ने कहा है कि तीन साल के बच्चों को पूरे पूरे दिन ( चौबीस घंटे)सिर्फ उनके पिताओं के साथ नहीं छोड़ा जा सकता..बार बार कोर्टों ने यह बात इसलिए दुहराने की दरकार समझी है क्योंकि उनको लगता है कि छोटे बच्चों को उनकी माँ से पूरे पूरे दिन के लिए दूर रखना बच्चों की मानसिक सेहत के लिए वाजिब नहीं होगा. विडम्बना है कि वही कोर्ट आज एक तीन साल के बच्चे के कुदरती हक़ की परवाह नहीं करती...बहाना यह है कि उसकी माँ देश की सुरक्षा के खिलाफ काम करने की कोशिश कर रही है. मुझे मेरे बेटे तुम्हें यह सफाई देने की जरुरत नहीं समझ आती...मुझे यह लिखते हुए बेहद पीड़ा भी हो रही है कि मैंने किसी भी सूरत में "उनकी "राष्ट्रीय सुरक्षा के खिलाफ जा कर कोई भी काम कभी नहीं किया...हाँ, एक वकील होने के नाते मेरे सामने हरदम सबसे बड़ा लक्ष्य यही रहा कि अपने मुवक्किलों की कानून में दिए हुए प्रावधानों के मुताबिक हिफाजत करूँ.मुझे तुम्हें उदाहरण देकर समझाने की दरकार नहीं जिस इंटरव्यू को मुझे यातना देने के लिए आधार बनाया जा रहा है वो आम जनता के लिए पूरा का पूरा उपलब्ध है...कोई भी उसको पढ़ सकता है....वकील की भूमिका में मैंने कुछ फैसलों की आलोचना जरुर की है पर मेरा वकील होना मुझे इसकी इजाज़त देता है.इसी को आधार बना कर अब मुझे ग्यारह साल तक बेड़ियों में जकड़ कर रखने का फ़रमान सुनाया गया है. मेरे प्यारे बेटे...पहली बात, मैं चाहती हूँ कि तुम्हारे मन में यह मुगालता बिलकुल नहीं रहना चाहिए कि देश में पहला इंसान मैं ही हूँ जिसको इतनी कठिन और बेबुनियाद सजा दी गयी हो...और न ही मुझे इसका कोई औचित्यपूर्ण आधार दिखाई दे रहा है कि तुमसे कहूँ कि मेरे बाद कोई इस ज्यादती का शिकार नहीं होगा. दूसरी बात, मुझे यह देख जान का ख़ुशी हो रही है...ख़ुशी न भी कहो तो इसको संतोष और शांति कहा जा सकता है कि मुझे उसी जगह कैद किया गया है जिस जगह मेरे बहुत सारे मुवक्किल रखे गये हैं...इनमें से तो कई वो लोग हैं जिनका मुकदमा मैं जीत के अंजाम तक पहुँचाने में नाकाम रही...आज वो सब भी इस देश की अन्यायपूर्ण क़ानूनी व्यवस्था के कारण इसी जेल में बंद हैं. तीसरी बात, मेरी ख्वाहिश कि तुमको जरुर पता चलनी चाहिए कि बतौर एक स्त्री मुझे दी गयी कठिन सजा का मुझे गुमान है...मुझे इसका भी नाज है कि इन सबकी परवाह न करते हुए मैंने पिछले चुनावों की गड़बड़ियों का विरोध करने वाले अनेक कार्यकर्ताओं का क़ानूनी बचाव किया.मुझे इस बात की भी ख़ुशी है कि और चाहे कुछ हो मुझे उनकी तुलना में ज्यादा कड़ी सजा दी गयी है क्योंकि मैंने उनके वकील की हैसियत से उनका मुक़दमा पूरी निष्ठा से लड़ा था. इस पूरे मामले में यह तो पूरी तरह से साबित हो गया कि औरतों की निरंतर चल रही लड़ाई आखिर में रंग लायी...आप आज की तारीख में इसका समर्थन करें या विरोध करें, एक बात तय है कि औरतों को अब नजर अंदाज करना मुमकिन नहीं रहा. मैं समझ नहीं पा रही हूँ कि तुमसे किस ढंग से कहूँ मेरे प्यारे नीमा...तुम मुझे सजा देने वाले जज के लिए भी खुदा से दुआ माँगना...उनके लिए भी जिन्होंने मुझसे लम्बी लम्बी जिरह की...और इस पूरी न्यायपालिका के लिए भी. मेरे बेटे खुदा से उनके लिए इबादत करो कि उनके दिलों के अंदर भी शांति और न्याय का बास हो जिस से उन्हें जीवन में कोई न कोई दिन ऐसा जरुर नसीब हो जब दुनिया के अनेक अन्य देशों के लोगों की तरह वे चैन का जीवन बसर कर सकें. मेरे सबसे प्यारे बच्चे, ऐसे मामलों में यह बहुत मायने नहीं रखता कि जीत किसकी हुई...क्योंकि फैसले का पक्ष या विपक्ष के लिए की गयी कोशिशों और दलीलों के साथ कोई अर्थपूर्ण ताल्लुक नहीं होता...और इस से भी कि मेरे वकीलों ने मुझे बचाने की कोशिशों में कोई कोताही तो नहीं बरती..दरअसल असल मुद्दा यहाँ तो ये है कि अजीबोगरीब खयालातों को आधार बना कर निर्दोष लोगों को परेशान जलील और नेस्तनाबूद किया जा रहा है.मुझे फिर से यहाँ यह दुहराने की जरुरत नहीं मेरे प्यारे कि आदिम समय से चलते आ रहे जीवन के इस खेल में उन्ही लोगों को अंतिम तौर पर जीत हासिल होगी जिनका दमन पाक साफ़ है...जो वाकई निर्दोष हैं ... इसी लिए मेरे प्यारे नीमा तुमसे मेरी यही गुजारिश है कि जब खुदा से दुआ माँगना तो बाल सुलभ मासूमियत को बरकरार रखते हुए सिर्फ राजनैतिक कैदियों की रिहाई की दुआ मत माँगना...खुदा से उन सबकी आजादी की दुआ मांगना मेरे बेटे जो निर्दोष और मासूम लोग हैं. बेहतर दिनों की आस में... 
नसरीन सोतुदेह

Sunday, November 4, 2012

फिल्मकार की दुनिया वास्तविकता और स्वप्नों के बीच के अंतर संबंधों से निर्मित होती है

फिल्मकार की दुनिया वास्तविकता और स्वप्नों के बीच के अंतर संबंधों से निर्मित होती है.यह आस पास बिखरी सच्चाइयों को फिल्म निर्माण के लिए प्रेरणा के तौर पर ग्रहण करता है, फिर अपनी कल्पना शक्ति से इनमें रंग भरता है और उम्मीदों और स्वप्नों को अच्छी तरह से मिला कर फिल्म को जन्म देता है. सच्चाई ये है कि मुझे पिछले पाँच सालों से फिल्म निर्माण से वंचित रखा गया है और अब तो आधिकारिक तौर पर आने वाले अगले बीस सालों तक मुझे फिल्मों को भूल जाने का फ़रमान जारी किया गया है.पर मुझे मालूम है कि अपनी कल्पना में मैं अपने स्वप्नों को फिल्म की शक्ल देता रहूँगा.सामाजिक रूप में चैतन्य फिल्मकार होने के नाते मैं अपने आस पास के लोगों के दैनिक जीवन और उनकी चिंताओं को फिल्म की विधा में चित्रित नहीं कर पाऊंगा पर मैं ऐसे स्वप्नों को अपने से परे क्यों धकेलूं कि आने वाले बीस सालों में आज के दौर की तमाम समस्याएं सुलझ जायेंगी और इसके बाद मुझे फिर से फिल्म बनाने का अवसर मिला तो अपने देश में व्याप्त अमन और तरक्की के बारे में फिल्म बनाऊंगा. सच्चाई ये है कि उन्होंने मुझे बीस सालों के लिए सोचने और लिखने से मना कर दिया पर इन बीस सालों में वे मुझे स्वप्न देखने से कैसे रोक सकते हैं--- इन बीस सालों में ऐसी पाबंदियाँ और धमकियाँ काल के गर्त में समा जायेंगी और इनकी जगह आज़ादी और मुक्त चिंतन की बयार बहने लगेगी. उन्होंने मुझे अगले बीस सालों तक दुनिया की ओर नजर उठा कर देखने की मनाही कर दी.मुझे पूरी उम्मीद है कि जब मैं इसके बाद खुली हवा में साँस लूँगा तो ऐसी दुनिया में विचरण कर सकूँगा जहाँ भौगोलिक,जातीय और वैचारिक आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जायेगा और लोगबाग अपने विश्वासों और मान्यताओं को संरक्षित रखते हुए मिलजुल कर अमन और आज़ादी से जीवन बसर कर रहे होंगे. उन्होंने मुझे बीस सालों तक चुप रहने की सजा सुनाई है.फिर भी अपने स्वप्नों में मैं उस समय तक शोर मचाता ही रहूँगा जब तक कि निजी तौर पर एक दूसरे को और उनके नजरियों को धीरज और सम्मान से सुना नहीं जाता. अंततः मेरे फैसले की सच्चाई यही है कि मुझे छह साल जेल में बिताने पड़ेंगे.अगले छह साल तो मैं इस उम्मीद में जियूँगा ही कि मेरे सपने वास्तविकता के धरातल पर खरे उतरेंगे.मेरे अरमान हैं कि दुनिया के हर कोने में बसने वाले फिल्कार ऐसी महान फिल्म रचना करेंगे कि जब मैं सजा पूरी होने के बाद बाहर निकलूं तो मैं उस दुनिया में साँस और प्रेरणा लूँ जिसके बनाने के स्वप्न उन्होंने अपनी फिल्मों में देखे थे. अब से लेकर आगामी बीस सालों तक मुझे जुबान न खोलने का फ़रमान सुनाया गया है...मुझे न देखने का फ़रमान सुनाया गया है...मुझे न सोचने का फ़रमान सुनाया गया है...फ़िल्में न बनाने का फ़रमान तो सुनाया ही गया है. बंदिश और मुझे बंदी करने वाले हुक्मरानों की सच्चाई से मेरा सामना हो रहा है.अपने स्वप्नों को जीवित रखने के संकल्प के साथ मैं आपकी फिल्मों में इनके फलीभूत होने की कामना करता हूँ--- इनमें वो सब मंजर दिखाई दे जिसको देखने से मुझे वंचित कर दिया गया है

यूरोपीय संसद द्वारा स्थापित विचारों की आज़ादी के लिए प्रदान किया जाने वाला सखारोव पुरस्कार इसबार ईरान के दो ऐसे जुझारू और दुर्दमनीय लोकतान्त्रिक योद्धाओं को दिया गया है जिन्होंने अपने सामाजिक सरोकारों की रक्षा के लिए देश की बदनाम जेलों में सर्वाधिक अमानवीय यातनाएं सहीं पर टस से मस नहीं हुए।पुरस्कारों की घोषणा करते हुए यूरोपीय संसद के अध्यक्ष मार्टिन शुल्ज ने इनके बारे में कहा कि सरकारी दमन और धमकी के आगे झुकने से इनकार करते हुए इन निर्भीक नायकों ने अपने देश के भविष्य का अपनी किस्मत से ज्यादा ध्यान रखा।अपने कामों से घनघोर निराशा और दमन के वातावरण में भी सकारात्मक आशावाद की ज्योति जलाये रखने वाले ये दोनों नायक हैं: विश्व प्रसिद्द फ़िल्मकार जफ़र पनाही और मानवाधिकार एक्टिविस्ट और वकील नसरीन सोतुदेह। 52 वर्षीय विश्वप्रसिद्ध फ़िल्मकार जफ़र पनाही ईरान में शांतिपूर्ण ढंग से अभिव्यक्ति की आज़ादी और लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए अनुकरणीय संघर्ष करने वाले लोगों की फेहरिस्त में अग्रणी हैं जिन्हें छः साल की कैद (अभी वे अपने घर में नजरबन्द हैं पर उनकी सजा माफ़ नहीं हुई है और कभी भी उनको जेल में डाला जा सकता है) और बीस सालों तक फिल्म निर्माण,निर्देशन,लेखन न करने का फरमान सुनाया गया है साथ ही किसी भी तरह का इंटरव्यू देने और विदेश यात्रा करने से रोक दिया गया है।पिछले दिनों दुनिया के एक बेहद प्रतिष्ठित फिल्म समारोह के जूरी का सदस्य बनने पर उनकी अनुपस्थिति पर एक कुर्सी खाली छोड़ कर उनके प्रति सम्मान प्रकट किया गया था। उनकी सभी फ़िल्में विभिन्न समारोहों में प्रशंसित और पुरस्कृत हुई हैं पर अपने देश में आधिकारिक तौर पर प्रतिबंधित हैं। फिल्म बनाने से बीस सालों तक दूर रहने की सजा सुनाये जाने के बाद जफ़र पनाही की प्रतिक्रिया-

 -यादवेन्द्र
मानवाधिकार एक्टिविस्ट और वकील नसरीन सोतुदेह के अनुदित खत को अगली पोस्ट में प्रस्तुत किया जायेग।  

अनुवाद एवं प्रस्तुति यादवेन्द्र।