Wednesday, January 2, 2013

क्या यह एक जरूरी काम नहीं है?

मेरा कमरा

- अल्पना मिश्र

स्त्री का कोई अपना कमरा हो सकता है क्या, जहॉ बैठ कर वह अपने आप को जी सके? ऐसा कोई एकांत कोना ही, जहॉ वह अपनी तरह से दुनिया जहान पर विचार कर सके? मेरी समझ से यह हमारे वक्त का अभी भी एक जरूरी सवाल है। स्त्री जहॉ खड़ी होती है, वहीं अपना कमरा मतलब अपना स्पेस रच लेती है। मेरा भी हाल यही है। अलग से कोई जगह, कोई कुर्सी मेज नहीं मिली कि लिखने के सारे साजो सामान के साथ लेखक की भव्यता को महसूस करते हुए लिख सकूं ।
            बालपन और युवापन के बीच के समय की बात है, जब अपने में मगन होने को जी चाहता और कोई कविता सूझ रही होती तो बिना पलस्तर की नई बन रही किसी ऊंची दीवार पर चढ़ कर बैठ जाती। यह हमारे घर की दीवार होती, जो उस समय बन रहा था। उसमें एक अलग सी नमी और ठंडक मिलती। मिट्टी, सीमेंट और ईंटों की अद्भुत सी गंध बिखरी होती। यहॉ यह भी बता दूं कि जो कविता मुझे सूझ रही होती, वह किसी रोमानियत से नहीं निकल रही होती, बल्कि गुस्से और प्रतिरोध के लिए वह एक बेचैन माध्यम होती। धीरे धीरे यह माध्यम मुझे बेहद मजबूत माध्यम लगता चला गया और मैं कविता से गद्य की तरफ आती गयी। गद्य में आ कर लिखने के लिए ज्यादा स्थिर जगह की जरूरत पड़ती। पर जगहें तो वही मयस्सर थीं, थोड़ी सी प्रकृति, थोड़ी सी रसोई, कुछ बरतन, आटे का बड़ा वाला कनस्तर, बिस्तर पर अरवट करवट कि कहीं छोटे भाई बहन जग न जायें, बाद में बच्चे जग न जायें, रजाई के भीतर मद्धिम रोशनी -- - और हॉ, टॉयलेट, वह सोचने की सबसे मुफीद जगह थी। खैर तो मेरी ढूंढ़ाई होती और मैं एकदम निश्चित पते पर मिल जाती। फिर मुझे तरह तरह के भाषा प्रयोगों से बताया जाता कि मैं किस तरह के फालतू काम में लगी हूं। अगर इतने समय में अपनी पाठ्यपुस्तकें पढ़ती तो किसी की मजाल नहीं थी कि मुझे टॉप करने से रोक पाता। फिर एक दो और भी जगहें थी, जहॉ कलम कागज लिए पॅहुच जाती। आम के पेड़ की छॉव थी। वहॉ बहुत एकान्त होता। यह पेड़ घर के ठीक पीछे के अहाते में लगा था। और भी बहुत से पेड़ पिता जी ने लगाए थे। पर यह आम का पेड़ बड़ा शानदार लगता। इसकी छाया मेरा वह खुशबूदार कमरा थी, जहॉ बैठ कर शादी के बाद भी मैंने कई कहानियॉ लिखीं। 'मुक्तिप्रसंग" कहानी का पहला ड्राफ्ट  यहीं तैयार हुआ था। यह कहानी 'कथादेश ’04 में आई थी। 'मिड डे मील" तो यहीं की हवा में फैली मिलेगी आपको। मेरे पहले कहानी संग्रह 'भीतर का वक्त" की तमाम कहानियॉ ऐसे ही इधर उधर से समय और जगह निकालते लिखीं गयीं। अब तो आम की इस घनी छाया पर, न जाने किस लोक से आकर बंदरों ने अपना आधिपत्य जमा लिया है और मुझसे मेरा वह निजी बिन दीवारों का कमरा छीन लिया है।
                एक बात और हुई। शादी के बाद पेड़ की किसी डाल पर चढ़ कर विचार मग्न होना और किसी टूटी फूटी या बनती हुई दीवार पर चढ़ना मर्यादा विरूद्ध बना दिया गया। लेकिन मेरी अनुशासनहीनता को बॉध पाना इतना आसान था क्या? 'जो मुझे बॉधना चाहे मन तो बॉधे पहले अनंत गगन---" कुछ इसी तर्ज पर लेखन चल रहा था। कभी रसोई तो कभी डाइनिंग टेबल तो कभी थोड़ा सा दोपहर का समय चुरा कर धूप में कुर्सी खींच खींच कर लिखना। कभी सीढ़ियों के आखिरी उपरी पायदान पर बैठ कर, छिप कर लिखना और वह रात रात भर जाग कर बिस्तरें में सोते जागते हुए लिखते रहना। तब तक लिखना, जब तक कि द्रारीर पूरी तरह आपका साथ न छोड़ दे। यह रात भर जागना किसी तपस्या से कम न होता। लिखना शुरू करने के लिए विचारों को जल्दी जल्दी कोई भी काम करते हुए नोट करते जाना होता, जैसे कि रोटी बनाते हुए कागज कलम धरे हैं पास में और विचारों के उफान में से कुछ कतरे नोट कर ले रहे हैं कि जब फुरसत के क्षण आऐंगे तब इसी थाती को खोल कर काम ले लेंगे। फुरसत का क्षण आता, जब पति और बच्चे सो जाते। तब तक कम से कम रात के गयारह, साढ़े ग्यारह होने लगते। कभी बारह भी बज जाता। नौकरी और बच्चों के स्कूल दोनों ही कारणों से सुबह जल्दी उठने को जरा भी टालना असंभव होता। पति सेना में अधिकारी हैं और प्राय: बार्डर पर पोस्टिंग होती रहती। उनकी नौकरी ऐसी कि जब वे छुट्टी आते तो वे दिन उत्सव के दिन बन जाते और बच्चों समेत उस समय को कितना पा लिया जाए, इसी पर बल होता। बहुत काम रोजमर्रा की जरूरतों से बचे होते। वे प्राय: बचे ही रह जाते। इस तरह वे बहुत मददगार होना चाह कर भी नहीं हो पाते। पर जितना सपरता, उतना मदद करते ही। बच्चों की हर तरह की जिम्मेदारी मेरे उपर होती। इस सब में यह भी होता कि कई बार याद आने पर बच्चों के जूते रात के किसी पहर में उठ कर पॉलिश करती। फिर बड़े होते हुए बच्चों ने बहुत से काम अपने उपर ले लिए और जूते पॉलिश जैसे तमाम छोटे कामों से मैं मुक्त हो गयी। इस तरह सब काम निबटाने के बाद लिखने का नम्बर आ पाता। जबकि मैं मानती हूं कि लिखना एक जरूरी काम है और दुनिया को बदलने का ख्वाब देखने वालों को बोलना तो पड़ेगा ही। हस्तक्षेप करने की इच्छा रखने वालों का माध्यम कुछ भी हो सकता है, पेंटिंग, लेखन या राजनीतिक सक्रियता या जन आन्दोलन या सामाजिक, सांगठनिक आन्दोलन। यह सब अलग अलग नहीं आपस में जुड़ी-गुंथीं चीजें हैं। इसके बावजूद कि मैं यह मानती थी, लिखने का वक्त सबसे आखिरी में मिल पाता या लिखने का वक्त सबसे आखिरी में निकाल पाती, कुछ भी कह लें , यही जीवन की सच्चाई रही। तो रात भर जाग कर काम करना पड़ता। बड़े जुनून में काम होता। 'छावनी में बेघर" कहानी ऐसे ही चार रात जग कर लिखी गयी। सोए हुए बच्चों को साथ लिपटाए दो तकिए पीठ के पीछे रख कर लिखी गयी यह कहानी।
इसी तरह देहरादून के घ्रर का, लिखने के जुनून का एक और दृश्य याद आ रहा है। मेरे बेटे की हाईस्कूल की परीक्षा थी। वह चाहता था कि मैं कुछ देर उसके पास रहूं। लेकिन नौकरी समय बहुत खींच लेती, फिर परम्परागत सारे काम होते ही। उसका कमरा ऊपर था। मैंने वहीं जमीन पर अपना बिस्तर लगा लिया था। काम खतम कर के, उसके लिए काफी बना कर लाने और ऊपर पॅहुचने में हमेशा रात के ग्यारह बजने लगते। बेटा कहता-''तुम भी पढ़ो।"" मैं पढ़ती, सुबह का लेक्चर तैयार करती। एक बार ऐसा हुआ कि मेरे दिमाग में विचार बड़े आवेगात्मक तरीके से आ रहे थे। मैंने कुछ कतरे रसोई में काम करते हुए नोट भी किया। लेकिन विचार थे कि रूकते ही न थे। तब मैंने बेटे के लिए कॉफी बनाई और एक कॉख में कागज कलम दबाए और दूसरे हाथ में कॉफी का मग ले कर उपर पॅहुची। थोड़ी देर तो पढ़ाई लिखाई चली। फिर बेटे ने कहा कि -''मॉ , आज रेस्ट नहीं किया । अब सोउंगा।"" मैंने कहा-''ठीक है।"" और बत्ती बुझा कर हम सो गए। लेकिन मेरे दिमाग की सिलाई तो उधड़ चुकी थी। ठाठे मार कर विचार का समुद्र बहा जा रहा था। मैंने अंधेरे में सादे पन्ने पर नोट करने की कोशिश  की। लेकिन जैसे ही मैंने कलम चलाया, बेटे ने भॉप लिया। तुरंत उठ बैठा। जल्दी से लाइट जला दी। ''अम्मॉ, तुम अंधेर में  लिख रही हो। यहॉ बैठ कर लिखो।"" उसने तुरंत अपनी टेबल कुर्सी मुझे ऑफर की। मैंने मना कर दिया। थके बच्चे के साथ यह अन्याय होता। मैंने कहा-'' तुम चिंता क्यों कर रहे हो। ऐसे ही कुछ दिमाग में आ गया तो नोट कर लिया।"" वह आश्वस्त हुआ। हम फिर से सोए। लेकिन यह तो मेरा दिमाग था! काहे को माने! फिर से वही हाल। फिर पन्ने पर बहुत धीरे से कुछ घसीटा। फिर बेटा उठ गया। उसने लाइट जला दी। फिर मैंने कागज कलम दूर रख दिया और कहा कि '' यह आज की आखिरी पॅक्ति थी, जो सूझी थी।"" इस पर बेटे ने कहा कि -''तुम कह रही थी कि कुछ बम बिस्फोट और आम आदमी की बात लिख रही हो। क्या यह एक जरूरी काम नहीं है? उठो और काम करो।"" मैं उसकी संवेदनशीलता पर दंग रह गयी। इसके बाद उस रात नहीं लिखा मैंने। सुबह जब फुरसत के क्षण में ठीक किया तो पाया कि यह एक अलग ढंग की कहानी तैयार हो रही थी। यह कहानी 'बेदखल" नाम से छपी 'बया" के पहले अंक में और फिर इसे कई जगह मित्रों ने बार बार प्रकाशित किया। चर्चा खूब मिली। वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह ने दू्रदर्शन  पर कहा कि 'यह हिंदी की पहली कहानी है, जो बम बिस्फोट और आतंकवाद की समस्या उठाती है।" उनका यह वक्तव्य 'पब्लिक ऐजेंडा" ने छापा भी।
अब तो ज्यादा काम लैपटॉप पर करने लगी हूं। कागज कलम अब भी है। पर टाइपिंग ने ज्यादा जगह पा ली है। इंटरनेट और मेल की सुविधा जुड़े होने से यह आसान लगने लगा है। खुद टाइप करते हुए कई बार कहानी का पहला ड्राफ्ट भी सीधा कम्प्यूटर पर ही लिखने लगी हूं। लैपटॉप पर काम करने के बावजूद आज तक लिखने की जगहें बिखरी हुई ही हैं। तो बिन दीवारों के इन्हीं कमरों में लगता है मन मेरा, जिसका विस्तार इतना हो कि सारी दुनिया समा जाए और एक ही पल में आदमी अकेला भी हो ले, अपने में डूब ले या सबमें डुबकी लगा कर बाहर आ ले।
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अल्पना मिश्र
एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, दिल्ली विच्च्वविद्यालय, दिल्ली-7
मो। 9911378341






       

Monday, November 26, 2012

मटर का मौसम और राजेश सकलानी की कविता



   (मटर का मौसम आते ही राजेश सकलानी की कविता ‘गेंद की तरह’  चेतना में कौंध जाती है.आज इस कविता का स्वाद लीजिये)



गेंद की तरह
                                                                       -राजेश सकलानी




कौन से देश से आयी हो
किसके हाथों उपजाई हो
गदराई हुई मटर की फलियों
जैसे धूप टोकरी से कहती हो

मैं लगा छीलने फलियां
एक दाना छिटक कर गया यहां-वहां
लगा ढूंढने उसे मेज के नीचे
वह नटखट जैसे छिपता हो

फिर सोचा एक ही दाना है
लगा दूसरी फलियों को छूने
लेकिन नहीं,बार-बार वह आंखों में कौंधता

आखिर गया तो गया कहां
वह कसा-कसा हरियाला
मिल जाये तुरत उसे छू लूं

काग़ज़,किताब,जूते सब उठा पलट कर
मैं लगा देखने

एक और मेरा समय
दूसरी और मटर के दाने का इतराना

ज्यों-ज्यों आगे लगा काम में
लगता जैसे अभी-अभी वह गेंद की तरह
टप्पा खाकर उछला है.


Friday, November 9, 2012

मुझेसे मेरी आज़ादी छीन ली गयी है

48 वर्षीय नसरीन सतूदेह इरान की बेहद लोकप्रिय मानव अधिकार वकील और कार्यकर्ता हैं जो अपने कट्टर पंथी शासन विरोधी विचारों के लिए सरकार की आंख की किरकिरी बनी हुई हैं.अपने छात्र जीवन में खूब अच्छे नंबरों से पास होने के बाद उन्होंने कानून की पढाई की पर वकालत करने के लाइसेंस के लिए उन्हें आठ साल का लम्बा इंतजार करना पड़ा.उन्होंने सरकारी महकमों और बैंक में भी नौकरी की पर इरान के पुरुष वर्चस्व वाले समाज में आततायी पिताओं के सताए हुए बच्चों और शासन के बर्बर कोप का भाजन बने राजनैतिक कार्यकर्ताओं के लिए क़ानूनी सहायता प्रदान करने के कारण उन्हें दुनिया भर में खूब सम्मान मिला.पिछले राष्ट्रपति चुनाव की कथित धांधलियों में उन्होंने खुल कर विरोधी पक्ष का साथ दिया...नतीजा सितम्बर 2010 में उनकी गिरफ़्तारी और अंततः जनवरी 2011 में ग्यारह साल की एकाकी जेल की सजा... कैद की सजा के साथ साथ उनके अगले बीस सालों तक वकालत करने पर भी पाबन्दी लगा दी गयी जो बाद में अपील करने पर छह साल (कैद) और दस साल (वकालत से मनाही) कर दी गयी। जेल में रहते हुए उन्हें अपने परिवार से भी नहीं मिलने दिया जाता इसलिए कई बार उन्होंने विरोध स्वरुप अन्न जल ग्रहण करने से इंकार कर दिया...इन दिनों भी वे अन्य कैदियों की तरह खुले में परिवार से मिलने के हक़ के लिए भूख हड़ताल पर हैं और उनकी सेहत निरंतर बिगडती जा रही है.दुनिया में मानव अधिकारों के लिए आवाज उठाने वाले अनेक लोगों और संगठनों ने उनकी रिहाई की माँग की है.जेल की अपनी एकाकी कोठरी से उन्होंने अपने बेटे के लिए जो चिट्ठी लिखी,उसका अनुवाद यहाँ प्रस्तुत है: मई 2011 में एविन जेल में 9 महीने तक बंद रहने के बाद नसरीन सोतुदेह ने अपने तीन साल के बेटे नीमा को यह मार्मिक ख़त लिखा। प्रसुत है नीमा का लिखा खत-

प्रस्तुति एवं अनुवाद:  यादवेन्द्र





मेरे सबसे प्यारे नीमा, 
तुम्हें ख़त लिखना ...मेरे प्यारे...बेहद मुश्किल काम है...मैं तुम्हें कैसे बताऊँ कि मैं कहाँ हूँ, इतने छोटे और नादान हो तुम कि कैद, गिरफ़्तारी, सजा, मुकदमा, सेंसरशिप, अन्याय, दमन , आज़ादी, मुक्ति , न्याय और बराबरी जैसे शब्दों के मायने कैसे समझ पाओगे. मैं इसका भरोसा खुद को कैसे दिलाऊं कि जो मैं तुम्हें बताउंगी उसको तुम्हारे स्तर पर जा कर सही ढंग से तुम तक पहुंचा और समझा भी पाऊँगी... बड़ी बात है कि मैं आज के सन्दर्भ में बात कर रही हूँ...आगे आने वाले सालों के बारे में कल्पना नहीं कर रही हूँ.मैं कैसे तुम्हें समझाऊं मेरे प्यारे कि अभी घर लौट कर आ जाना मेरे लिए मुमकिन नहीं..मुझेसे मेरी यह आज़ादी छीन ली गयी है. मुझतक यह खबर पहुंची है कि तुमने अब्बा से कहा है कि अम्मी से अपना काम जल्दी ख़तम करने और घर लौट आने को कह दो...मैं कैसे तुम्हें समझाऊं मेरे बच्चे कि दुनिया का कोई भी काम इतना जरुरी नहीं है कि मुझे इतने लम्बे अरसे तक तुमसे जुदा रख सके...किसी का मेरे ऊपर ऐसा इख्तियार नहीं है कि मुझे मेरे बच्चों के हकों से बेफिक्र कर दे.मैं कैसे तुम्हें समझाऊं कि पिछले छह महीनों के दौरान मुझे सब मिला कर एक घंटा भी तुमसे मुलाकात का नहीं दिया गया. अब मैं तुमसे क्या कहूँ मेरे बेटे? पिछले हफ्ते की ही तो बात है जब तुमने मुझसे पूछा था: आज शाम का अपने काम निबटा के हमारे पास घर आ रही हो ना अम्मी?इसका जवाब मुझे मज़बूरी में जेल के गार्डों के सामने ही देना पड़ा था: बच्चे, मेरा काम थोड़ा और बाकी है, जैसे ही ख़तम होगा मैं फ़ौरन घर आ जाउंगी. मुझे लगा था जैसे तुम सारी असलियत समझ गये हो और फिर महसूस हुआ जैसे तुमने मेरा हाथ प्यार से थामा और मुँह तक लाकर अपने नन्हें नन्हें होंठों से उसको चूम लिया हो. मेरे प्यारे नीमा, पिछले छह महीनों में सिर्फ दो मौके ऐसे आये जब मैं पूरी कोशिश के बाद भी अपनी रुलाई नहीं रोक पाई...पहली बार जब मेरे अब्बा का इन्तिकाल होने की खबर मुझे मिली थी पर मुझे उनके लिए अफ़सोस करने का और उनके जनाजे में शामिल होने की इजाज़त की अर्जी ठुकरा दी गयी थी....दूसरा वाकया उस दिन का है जब तुमने मुझे अपने साथ साथ घर चलने की गुजारिश की थी और मैं उसको पूरा कर पाने से लाचार थी...तुम्हारे उदास होकर चले जाने के बाद मैं जेल की अपनी कोठरी में वापिस आ गयी...उसके बाद मेरा खुद पर से सारा नियंत्रण ख़तम हो गया.... बहुत देर तक मेरी सिसकियाँ रुक ही नहीं पा रही थीं. मेरे सबसे प्यारे नीमा, बच्चों के मामले में एक के बाद एक अनेक फैसलों में कोर्टों ने कहा है कि तीन साल के बच्चों को पूरे पूरे दिन ( चौबीस घंटे)सिर्फ उनके पिताओं के साथ नहीं छोड़ा जा सकता..बार बार कोर्टों ने यह बात इसलिए दुहराने की दरकार समझी है क्योंकि उनको लगता है कि छोटे बच्चों को उनकी माँ से पूरे पूरे दिन के लिए दूर रखना बच्चों की मानसिक सेहत के लिए वाजिब नहीं होगा. विडम्बना है कि वही कोर्ट आज एक तीन साल के बच्चे के कुदरती हक़ की परवाह नहीं करती...बहाना यह है कि उसकी माँ देश की सुरक्षा के खिलाफ काम करने की कोशिश कर रही है. मुझे मेरे बेटे तुम्हें यह सफाई देने की जरुरत नहीं समझ आती...मुझे यह लिखते हुए बेहद पीड़ा भी हो रही है कि मैंने किसी भी सूरत में "उनकी "राष्ट्रीय सुरक्षा के खिलाफ जा कर कोई भी काम कभी नहीं किया...हाँ, एक वकील होने के नाते मेरे सामने हरदम सबसे बड़ा लक्ष्य यही रहा कि अपने मुवक्किलों की कानून में दिए हुए प्रावधानों के मुताबिक हिफाजत करूँ.मुझे तुम्हें उदाहरण देकर समझाने की दरकार नहीं जिस इंटरव्यू को मुझे यातना देने के लिए आधार बनाया जा रहा है वो आम जनता के लिए पूरा का पूरा उपलब्ध है...कोई भी उसको पढ़ सकता है....वकील की भूमिका में मैंने कुछ फैसलों की आलोचना जरुर की है पर मेरा वकील होना मुझे इसकी इजाज़त देता है.इसी को आधार बना कर अब मुझे ग्यारह साल तक बेड़ियों में जकड़ कर रखने का फ़रमान सुनाया गया है. मेरे प्यारे बेटे...पहली बात, मैं चाहती हूँ कि तुम्हारे मन में यह मुगालता बिलकुल नहीं रहना चाहिए कि देश में पहला इंसान मैं ही हूँ जिसको इतनी कठिन और बेबुनियाद सजा दी गयी हो...और न ही मुझे इसका कोई औचित्यपूर्ण आधार दिखाई दे रहा है कि तुमसे कहूँ कि मेरे बाद कोई इस ज्यादती का शिकार नहीं होगा. दूसरी बात, मुझे यह देख जान का ख़ुशी हो रही है...ख़ुशी न भी कहो तो इसको संतोष और शांति कहा जा सकता है कि मुझे उसी जगह कैद किया गया है जिस जगह मेरे बहुत सारे मुवक्किल रखे गये हैं...इनमें से तो कई वो लोग हैं जिनका मुकदमा मैं जीत के अंजाम तक पहुँचाने में नाकाम रही...आज वो सब भी इस देश की अन्यायपूर्ण क़ानूनी व्यवस्था के कारण इसी जेल में बंद हैं. तीसरी बात, मेरी ख्वाहिश कि तुमको जरुर पता चलनी चाहिए कि बतौर एक स्त्री मुझे दी गयी कठिन सजा का मुझे गुमान है...मुझे इसका भी नाज है कि इन सबकी परवाह न करते हुए मैंने पिछले चुनावों की गड़बड़ियों का विरोध करने वाले अनेक कार्यकर्ताओं का क़ानूनी बचाव किया.मुझे इस बात की भी ख़ुशी है कि और चाहे कुछ हो मुझे उनकी तुलना में ज्यादा कड़ी सजा दी गयी है क्योंकि मैंने उनके वकील की हैसियत से उनका मुक़दमा पूरी निष्ठा से लड़ा था. इस पूरे मामले में यह तो पूरी तरह से साबित हो गया कि औरतों की निरंतर चल रही लड़ाई आखिर में रंग लायी...आप आज की तारीख में इसका समर्थन करें या विरोध करें, एक बात तय है कि औरतों को अब नजर अंदाज करना मुमकिन नहीं रहा. मैं समझ नहीं पा रही हूँ कि तुमसे किस ढंग से कहूँ मेरे प्यारे नीमा...तुम मुझे सजा देने वाले जज के लिए भी खुदा से दुआ माँगना...उनके लिए भी जिन्होंने मुझसे लम्बी लम्बी जिरह की...और इस पूरी न्यायपालिका के लिए भी. मेरे बेटे खुदा से उनके लिए इबादत करो कि उनके दिलों के अंदर भी शांति और न्याय का बास हो जिस से उन्हें जीवन में कोई न कोई दिन ऐसा जरुर नसीब हो जब दुनिया के अनेक अन्य देशों के लोगों की तरह वे चैन का जीवन बसर कर सकें. मेरे सबसे प्यारे बच्चे, ऐसे मामलों में यह बहुत मायने नहीं रखता कि जीत किसकी हुई...क्योंकि फैसले का पक्ष या विपक्ष के लिए की गयी कोशिशों और दलीलों के साथ कोई अर्थपूर्ण ताल्लुक नहीं होता...और इस से भी कि मेरे वकीलों ने मुझे बचाने की कोशिशों में कोई कोताही तो नहीं बरती..दरअसल असल मुद्दा यहाँ तो ये है कि अजीबोगरीब खयालातों को आधार बना कर निर्दोष लोगों को परेशान जलील और नेस्तनाबूद किया जा रहा है.मुझे फिर से यहाँ यह दुहराने की जरुरत नहीं मेरे प्यारे कि आदिम समय से चलते आ रहे जीवन के इस खेल में उन्ही लोगों को अंतिम तौर पर जीत हासिल होगी जिनका दमन पाक साफ़ है...जो वाकई निर्दोष हैं ... इसी लिए मेरे प्यारे नीमा तुमसे मेरी यही गुजारिश है कि जब खुदा से दुआ माँगना तो बाल सुलभ मासूमियत को बरकरार रखते हुए सिर्फ राजनैतिक कैदियों की रिहाई की दुआ मत माँगना...खुदा से उन सबकी आजादी की दुआ मांगना मेरे बेटे जो निर्दोष और मासूम लोग हैं. बेहतर दिनों की आस में... 
नसरीन सोतुदेह

Sunday, November 4, 2012

फिल्मकार की दुनिया वास्तविकता और स्वप्नों के बीच के अंतर संबंधों से निर्मित होती है

फिल्मकार की दुनिया वास्तविकता और स्वप्नों के बीच के अंतर संबंधों से निर्मित होती है.यह आस पास बिखरी सच्चाइयों को फिल्म निर्माण के लिए प्रेरणा के तौर पर ग्रहण करता है, फिर अपनी कल्पना शक्ति से इनमें रंग भरता है और उम्मीदों और स्वप्नों को अच्छी तरह से मिला कर फिल्म को जन्म देता है. सच्चाई ये है कि मुझे पिछले पाँच सालों से फिल्म निर्माण से वंचित रखा गया है और अब तो आधिकारिक तौर पर आने वाले अगले बीस सालों तक मुझे फिल्मों को भूल जाने का फ़रमान जारी किया गया है.पर मुझे मालूम है कि अपनी कल्पना में मैं अपने स्वप्नों को फिल्म की शक्ल देता रहूँगा.सामाजिक रूप में चैतन्य फिल्मकार होने के नाते मैं अपने आस पास के लोगों के दैनिक जीवन और उनकी चिंताओं को फिल्म की विधा में चित्रित नहीं कर पाऊंगा पर मैं ऐसे स्वप्नों को अपने से परे क्यों धकेलूं कि आने वाले बीस सालों में आज के दौर की तमाम समस्याएं सुलझ जायेंगी और इसके बाद मुझे फिर से फिल्म बनाने का अवसर मिला तो अपने देश में व्याप्त अमन और तरक्की के बारे में फिल्म बनाऊंगा. सच्चाई ये है कि उन्होंने मुझे बीस सालों के लिए सोचने और लिखने से मना कर दिया पर इन बीस सालों में वे मुझे स्वप्न देखने से कैसे रोक सकते हैं--- इन बीस सालों में ऐसी पाबंदियाँ और धमकियाँ काल के गर्त में समा जायेंगी और इनकी जगह आज़ादी और मुक्त चिंतन की बयार बहने लगेगी. उन्होंने मुझे अगले बीस सालों तक दुनिया की ओर नजर उठा कर देखने की मनाही कर दी.मुझे पूरी उम्मीद है कि जब मैं इसके बाद खुली हवा में साँस लूँगा तो ऐसी दुनिया में विचरण कर सकूँगा जहाँ भौगोलिक,जातीय और वैचारिक आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जायेगा और लोगबाग अपने विश्वासों और मान्यताओं को संरक्षित रखते हुए मिलजुल कर अमन और आज़ादी से जीवन बसर कर रहे होंगे. उन्होंने मुझे बीस सालों तक चुप रहने की सजा सुनाई है.फिर भी अपने स्वप्नों में मैं उस समय तक शोर मचाता ही रहूँगा जब तक कि निजी तौर पर एक दूसरे को और उनके नजरियों को धीरज और सम्मान से सुना नहीं जाता. अंततः मेरे फैसले की सच्चाई यही है कि मुझे छह साल जेल में बिताने पड़ेंगे.अगले छह साल तो मैं इस उम्मीद में जियूँगा ही कि मेरे सपने वास्तविकता के धरातल पर खरे उतरेंगे.मेरे अरमान हैं कि दुनिया के हर कोने में बसने वाले फिल्कार ऐसी महान फिल्म रचना करेंगे कि जब मैं सजा पूरी होने के बाद बाहर निकलूं तो मैं उस दुनिया में साँस और प्रेरणा लूँ जिसके बनाने के स्वप्न उन्होंने अपनी फिल्मों में देखे थे. अब से लेकर आगामी बीस सालों तक मुझे जुबान न खोलने का फ़रमान सुनाया गया है...मुझे न देखने का फ़रमान सुनाया गया है...मुझे न सोचने का फ़रमान सुनाया गया है...फ़िल्में न बनाने का फ़रमान तो सुनाया ही गया है. बंदिश और मुझे बंदी करने वाले हुक्मरानों की सच्चाई से मेरा सामना हो रहा है.अपने स्वप्नों को जीवित रखने के संकल्प के साथ मैं आपकी फिल्मों में इनके फलीभूत होने की कामना करता हूँ--- इनमें वो सब मंजर दिखाई दे जिसको देखने से मुझे वंचित कर दिया गया है

यूरोपीय संसद द्वारा स्थापित विचारों की आज़ादी के लिए प्रदान किया जाने वाला सखारोव पुरस्कार इसबार ईरान के दो ऐसे जुझारू और दुर्दमनीय लोकतान्त्रिक योद्धाओं को दिया गया है जिन्होंने अपने सामाजिक सरोकारों की रक्षा के लिए देश की बदनाम जेलों में सर्वाधिक अमानवीय यातनाएं सहीं पर टस से मस नहीं हुए।पुरस्कारों की घोषणा करते हुए यूरोपीय संसद के अध्यक्ष मार्टिन शुल्ज ने इनके बारे में कहा कि सरकारी दमन और धमकी के आगे झुकने से इनकार करते हुए इन निर्भीक नायकों ने अपने देश के भविष्य का अपनी किस्मत से ज्यादा ध्यान रखा।अपने कामों से घनघोर निराशा और दमन के वातावरण में भी सकारात्मक आशावाद की ज्योति जलाये रखने वाले ये दोनों नायक हैं: विश्व प्रसिद्द फ़िल्मकार जफ़र पनाही और मानवाधिकार एक्टिविस्ट और वकील नसरीन सोतुदेह। 52 वर्षीय विश्वप्रसिद्ध फ़िल्मकार जफ़र पनाही ईरान में शांतिपूर्ण ढंग से अभिव्यक्ति की आज़ादी और लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए अनुकरणीय संघर्ष करने वाले लोगों की फेहरिस्त में अग्रणी हैं जिन्हें छः साल की कैद (अभी वे अपने घर में नजरबन्द हैं पर उनकी सजा माफ़ नहीं हुई है और कभी भी उनको जेल में डाला जा सकता है) और बीस सालों तक फिल्म निर्माण,निर्देशन,लेखन न करने का फरमान सुनाया गया है साथ ही किसी भी तरह का इंटरव्यू देने और विदेश यात्रा करने से रोक दिया गया है।पिछले दिनों दुनिया के एक बेहद प्रतिष्ठित फिल्म समारोह के जूरी का सदस्य बनने पर उनकी अनुपस्थिति पर एक कुर्सी खाली छोड़ कर उनके प्रति सम्मान प्रकट किया गया था। उनकी सभी फ़िल्में विभिन्न समारोहों में प्रशंसित और पुरस्कृत हुई हैं पर अपने देश में आधिकारिक तौर पर प्रतिबंधित हैं। फिल्म बनाने से बीस सालों तक दूर रहने की सजा सुनाये जाने के बाद जफ़र पनाही की प्रतिक्रिया-

 -यादवेन्द्र
मानवाधिकार एक्टिविस्ट और वकील नसरीन सोतुदेह के अनुदित खत को अगली पोस्ट में प्रस्तुत किया जायेग।  

अनुवाद एवं प्रस्तुति यादवेन्द्र।

Sunday, October 28, 2012

गुमशुदा



- अल्पना मिश्र
  09911378341


जो तेज नहीं था, वह स्मार्ट भी नहीं था।
स्मार्ट होना, आज के लोग होना था।
स्मार्ट लोग, और स्मार्ट होना चाहते थे।
इस तरह जो, जो था, उससे अलग हो जाने को बेचैन था।

शासकीय खौफ पैदा करती किसी भी भाषा के विरूद्ध ठेठ देशज आवाज की उपस्थिति से भरी भारतीय राजनीति का चेहरा बेशक लोकप्रिय होने की चालाकियों से भरा रहा है। लेकिन एक लम्बे समय तक आवाम में छायी रही उस लोकप्रियता को  याद करें तो देख सकते हैं कि उस दौरान औपनिवेशिक मानसिकता से जकड़ी तथाकथित आधुनिकता उस देशज ठसक का कैरीकेचर बनाकर भी कुछ बिगाड़ पाने में नाकामयाब रही है।
अल्पना मिश्र की कहानियों के पात्रों का देखें तो ठेठ देशज चेहरे में वे भी तथाकथित आधुनिकता के तमाम षड्रयंत्रों का पर्दाफाश करना चाहते हैं। लेकिन उनकी कोशिशें भारतीय राजनीति में स्थापित हुई सिर्फ भाषायी ठसक वाली लोकप्रिय शैली से इतर सम्पूर्ण अर्थों में लोक की स्थापना का स्वर होना चाहती हैं। अल्पना के पहले कथा संग्रह ''भीतर का वक्त" को पढ़ते हुए उनकी कहानियों का एक भरपूर चित्र करछुल पर टंगी पृथ्वी के रूप में देखा जा सकता है। सामूहिक उल्लास की प्रतीकों भरी गुजिया या दूसरे देशज पकवानों वाली दुनिया जिस तरह से उनकी कहानियों का हिस्सा हो जाती है, वह विलक्षण प्रयोग कहा जा सकता है। यह चिहि्नत की जाने वाली बात है कि अल्पना, ऐसे ही देशज पात्रों के माध्यम से घटनाक्रमों से भरी एक सम्पूर्ण कहानी को भी काव्यात्मक अर्थों तक ले जाने की सामार्थ्य हासिल करती है। 
प्रस्तुत है अल्पना मिश्र की कहानी- गुमशुदा।

वि.गौ. 
''मम्मी, ओ मम्मी!"" भोलू ने दो तीन बार आवाज लगाई, लेकिन कोई असर दिखाई न दिया। तब वह चिल्लाया - '' मम्मिया---या---आ---आ---।""
उपेक्षा से उपजे आवाज के गुस्से का असर तत्काल हुआ। सॉंवले से गोल चेहरे वाली एक औरत बाहर आई। बिना बोले उसने झुंझलाया हुआ चेहरा भोलू की तरफ किया।
''वो तरफ।" भोलू चहक उठा।
औरत ने उधर, उस दिशा की तरफ देखने की बजाय भोलू की खबर ली -'' ठीक से बोलो। शहर में आने का क्या फायदा? अब से मम्मिया बोला तो चार झापड़ जड़ूंगी। डैडी से कहूंगी तो अपने सुधर जाएगा।"
चार झापड़ की बात पर भोलू ने ध्यान नहीं दिया, पर डैडी की बात पर वह संभल गया।
''मम्मी! ऐ मम्मी! तू बेकार है।"  भोलू ने संभलने के बावजूद अपना गुस्सा दिखया और पल भर में लोहे का गेट खोल कर गली के अंधेरे की तरफ खड़ा हो गया।
’बेकार’ शब्द उछल कर पत्थर की तरह औरत की छाती में लगा। औरत ने अपनी चोट दबा ली और बाहर की तरफ झपटी।
''इस समय बाहर मत जा बाबू। अंधेरा हो गया है।"
जिस तरफ औरत खड़ी थी, उधर कुछ उजाला था। मकान मालिक के बारामदे में जलते शून्य वॉट के बल्ब के उजाले का आखिरी हिस्सा गेट पर गिर रहा था। उनके दो कमरे पीछे की तरफ थे। लेकिन गेट एक ही था। इसलिए गेट का इस्तेमाल वे भी करते थे और बारामदे के शून्य वॉट के बल्ब का भी । मकान मालिक के घर में कोई नहीं रहता था। वे लोग कभी कभी  अपना घर देखने आते थे। 
भोलू की तरफ अंधेरा था।
''ये देखो कंचा!" भोलू ने किसी काली, गुदगुदी चीज को छूआ। कंचे जैसी दो ऑखें चमक रही थीं।
'' अरे बाप रे पाड़ा!" खुशी, हैरानी और आवेग में भोलू को झपट कर पकड़ी औरत के मुंह से निकला।
''देखा, शहर में पाड़ा होता है मम्मी!" भोलू ने पाड़ा यानी बछड़े के गले में हाथ डाल कर कहा।
''छूओ मत। चलो, चलो!" औरत ने भोलू को घर की तरफ खीचा। पाड़ा गंदा था। मिट्टी, घास और गोबर उस पर चिपका था और इनकी मिली जुली गंध उसके चारों तरफ लिपटी थी। गॉव में यह गंध बुरी नहीं लगती थी। शहर में आते ही बुरी लगने लगी थी। कहीं भोलू के कपड़ों में यह गंध चिपक न जाए, औरत को चिंता हुई। इसीलिए पाड़ा को देख कर हुई अपनी खुशी और हैरानी को उसने दबा लिया। इसीलिए भोलू को खीच कर उसने भीतर चलने को कहा।
''गाय भी होगी?"
''होगी ही, नहीं तो दूध कहॉ से आता।"
''सब कुछ होगा, बस दिखता नहीं है!"
औरत ने बछड़े पर हाथ फेर दिया, फिर कुछ उदास हो उठी। इस इतने बड़े महानगर में गाय गोरू है, गोबर भी होगा ही। बछड़ा है तभी तो दिखा। न देखने पर ऐसा लगता रहता है कि महानगर में बछड़ा नहीं होता। बछड़ा नहीं होगा तो उसकी गंध भी नहीं होगी।
इसतरह सब कुछ साफ सुथरा होने का आभास बना रहेगा।
साफ सुथरा करने से, साफ सुथरा होने का आभास ज्यादा बड़ा था।
इसी पर उसे अपना गॉव भी याद आया और यह भी कि बछड़ा, गाय और गोबर--- ये सब पिछड़ेपन की निशानी है। औरत अपने लिए पिछड़ापन नहीं चाहती थी। उसके पिछड़ेपन के कारण ही उसे दस साल तक, गॉव में सास ससुर की सेवा करते हुए गुलामों का कठोर जीवन जीना पड़ा था। लड़का, यही भोलू छ: साल का हो गया तो इसके पिता को ख्याल आया। इसके पिछड़ जाने का भय इतना भारी था कि वे भोलू को पढ़ाने शहर ले आए। पीछे पीछे सेवा सुश्रुसा के लिए वह भी आयी। आयी तो इस हिदायत के साथ कि कोई गॅवई बात न सिखाई जाए, बल्कि अब तक सीखी गॅवई हरकतों को झाड़ पोछ कर साफ कर दिया जाए। भाषा में सावधानी रखी जाए, जैसे कि दूध को मिल्क बोला जाए, पानी को वॉटर, पाठशाला को स्कूल, किताब को बुक---।
तभी तो लड़का अंग्रेजी के युद्ध में हारने से बच सकता है।
तभी तो लड़का पढ़ लिख कर बड़ा आदमी बन सकता है।
औरत ने इस पर काफी मेहनत की। वह भी नहीं चाहती थी कि उसकी तरह बच्चा गॅवई और पिछड़ा माना जाए। लेकिन कभी कभी यह सब धरा रह जाता। किसी आवेग वाले क्षण में, दुख या खुशी में, उसके मुंह से वही ठेठ बोली निकल जाती। तब वह कुछ शर्मिंदा हो उठती, जैसे कि अभी कुछ देर पहले 'अरे बाप रे पाड़ा!’ खुशी, हैरानी और आवेग में उसके मुंह से निकल पड़ा था। उसने गॅवार होने के कारण पति द्वारा गॉव में छोड़ दिए जाने का लम्बा कठोर दंड झेला था। इस दंड ने उसे सावधान किया था। भोलू के लिए वह कोई दंड नहीं चाहती थी, इसीलिए अगले पल संभल गयी।
''और इ गाय का बेबी रास्ते में यहीं रात भर बैइठा रहेगा मम्मी?"
''इ मत बोलो। और यह गाय का बेबी---।"
''अच्छा, अच्छा, इसको घर ले चलो मम्मी।"
लड़के ने मम्मी को बीच में ही टोक दिया।
''पता नहीं किसका है? खोजेंगे वो लोग।"
इतने में एक मोटर साइकिल आयी और बछड़े से टकराते टकराते बची। मोटरसाइकिल सवार ने गुस्से में बछड़े को देखा और आगे बढ़ गया।
गली जैसा रास्ता है तो क्या, चोबीसों घंटे गाड़ियों का आना जाना लगा रहता है। 'पें-पें, चें- चें’ सुनाई पड़ती रहती है। कोई कोई म्यूजिकल हार्न, कोई कोई ट्रक बस जैसा हार्न भी बजाता है। कई लड़कों ने शौक में अपनी मोटरसाइकिलों का सायलेंसर निकलवा दिया है। 'फट - फट’ की जोर की आवाज गरजती भड़कती लगती है। लड़के आनन्दित हो कर तेज चलाते हैं।
'तेज’ एक जीवन मूल्य था।
जो तेज नहीं था, वह स्मार्ट भी नहीं था।
स्मार्ट होना, आज के लोग होना था।
स्मार्ट लोग, और स्मार्ट होना चाहते थे।
इस तरह जो, जो था, उससे अलग हो जाने को बेचैन था।
''चलो, मंत्री की दुकान पर चलते हैं।"
चिंता के मारे औरत को दुकान के लिए 'शॅाप' बोलना याद न रहा। मंत्री की दुकान इस मोहल्ले की दुकान थी।
कृपया यहॉ 'मोहल्ले’ की जगह 'कॉलोनी’ पढ़ें।
कारण - मोहल्ला कहने से समुदाय का बोध होता था। कॉलोनी कहने से आधुनिक, स्मार्ट और अलग लगता था।
जैसे कि आदमी, आधुनिक हो कर अलग, अकेला और स्मार्ट हुआ था।
स्मार्ट का भावानुवाद करना हिंदीभाषा वालों के लिए मुश्किल था। वह एक साथ बहुत सारे भावों, तौर तरीकों, पैसा रूपया बनाने की कला से ले कर जीवन शैली आदि आदि का गुच्छ था।
भोलू की मम्मी इसी राह पर थीं। स्मार्ट बन जाना चाहती थीं, नहीं बन पा रही थीं। उन्हें बछड़े की चिंता थी। वे मंत्री की दुकान पर पॅहुच कर कहने लगीं - '' भाई जी, बछड़ा एकदम बीच सड़क में बैठा है। रात बिरात किसी गाड़ी से कुचल सकता है। उसको किनारे कर देते या पता करते कि कहॉ से आया है? खबर कर देते उसके घर या छोड़ आते मतलब छुड़वा देते किसी से।" यह कहते कहते उनका आत्मविश्वास ढीला पड़ गया। मंत्री की तरफ वे जिस तेजी से आयी थीं, वह जाती रही। आखिरी वाक्य तक आते आते उन्हें मंत्री पर विश्वास न रहा। मंत्री उनकी बात निश्चित तौर पर नहीं सुन रहा था।
वह उनकी तरफ देखता रह गया। फिर चिप्स का पैकेट निकाल कर देने लगा। क्या चाहिए होगा इस औरत को? लड़के के लिए चिप्स, चाकलेट---।
''बछड़ा---बछड़ा---।" हाथ से चिप्स लेना इंकार करते हुए औरत ने बिना विश्वास वाली आवाज में कहा।
''बछड़ा!"
फिर मंत्री अपनी हैरानी दबा कर बोला - ''बैठा है तो हट जायेगा।"
''बीच रास्ते में है भइया। अंधेरा है। टकरा जायेगा किसी गाड़ी से तो मर जायेगा।"
'मर गया तो हमें पाप लगेगा।’ इस वाक्य को कहने से अपने को रोक लिया औरत ने।
''अरे कुछ न मरेगा इतनी जल्दी।" दुकान से झांक कर मंत्री ने बछड़े को देखा।
''भइया तुम देख तो लेते। इसके पापा तो हैं नहीं अभी---।"
इसी बीच में एक औरत किसी ऐसे नाम की कंपनी का शैम्पू मॉगने लगी, जो मंत्री की समझ में न आया। उसने झल्ला कर कहा-
''ठीक है आप जाऔ। ये मैडमें भी---।"
मंत्री उसका नाम था, जो लड़का दुकान चलाता था। लेकिन असली मंत्री वह नहीं था। असली मंत्री होता तो खुद दुकान नहीं चलाता। बहुत सारी दुकानें चलवाता या सारी दुकानों के ऊपर एक ऐसी दुकान होती, जो मंत्री की होती। दुकान ऐसी वैसी न होती, मोहल्ले की तो हर्गिज नहीं। दुकान में ए.सी. जरूर होता। एक गद्देदार रौब गांठती कुर्सी होती। या शायद इससे कहीं ज्यादा, बहुत बहुत ज्यादा होता, इतना ज्यादा, जिसके बारे में औरत सोच नहीं सकती थी। नकली मंत्री की कल्पना शक्ति भी वहॉ तक नहीं पॅहुच पाती थी। मंत्री की कल्पना केवल ताकतवर मालिक की बन पाती थी। ऐसे में नकली मंत्री अपने नाम का स्पष्टीकरण करते हुए इतना भर कह पाता था कि 'मालिकों से हमारी क्या बरोबरी!’
''देख लेना जरूर। बेचारा मर न जाए।" जाते जाते औरत ने कहा।
'कल्लू गार्ड को बुलाता हूं।" नकली मंत्री ने कहा।
''मेरे घर में रखना।" भोलू ने कहा।
इस पर नकली मंत्री हॅस दिया।

यह सीधा सीधा कल्लूराम गार्ड का कसूर था कि एक साफ सुथरी कॉलोनी के अंदर, जिसमें मोहल्ले भर से चंदा करके गार्ड रखा गया था और सुबह सुबह एक मेहतर भी आता था, जो हर त्योहार पर सबसे बख्शीश मॉगता था, जो अभी तक रजिस्टर्ड कॉलोनी नहीं थी, इसलिए उसका कोई पदाधिकारी भी नहीं था। इसलिए यह सीधा सीधा गार्ड का जुर्म माना गया कि एक साफ सुथरी कॉलोनी के अंदर काला बछड़ा घुस कर रास्ते में बैठ गया था। गार्ड को पता नहीं था। वह हैरान रह गया। इस बात पर नहीं कि बछड़ा कैसे आया? बल्कि इस बात पर कि उसने बछड़े को आते कैसे नहीं देखा? कोई एक ऐसा पल था जिसमें उसे नींद की एक हल्की सी झपकी आ गयी थी और वह उस एक झपकी में अपने घर के पिछवाड़े चला गया था, जहॉ वह घर का पिछवाड़ा देख कर परेशान था। इस पिछवाड़े में सारे शहर की गंदगी समेटे बिना ढॅका नाला उपर चढ़ आया था। उसमें पॉलीथिनों के ढेर के ढेर फॅस जाने से उसका बहाव रूक गया था। जब नाला उफन कर बाहर आया तो पॉलीथिनों का इतना बड़ा ढेर बाहर उलट पड़ा था कि उसका एक टीला या कम ऊंचा पहाड़ बन जाता, जिसके ऊपर पेड़ पौधे नहीं होते, न चीड़, न चिनार, न देवदार, न शाल---कुछ भी नहीं। नीले, हरे, पीले, काले---रंगों वाले पॉलीथिन धोखे वाले पेड़ पौधे फूल बन जाते---।
लेकिन रह रह कर नाली का बदबूवाला भभका इतनी तेज उठता कि धोखेवाले पहाड़, धोखेवाले पेड़ पौधों, फूलों, काई और हरेपन से बदबू को दबा नहीं पाते। घरों के भीतर आदमी रोटी सेंकता तो लगता बदबू सेंक रहा है। रोटी खाता तो लगता बदबू खा रहा है। पानी पीता तो लगता बदबू पी रहा है। नहाने के लिए कैसे कैसे पानी जुगाड़ता और नहाता तो लगता बदबू नहा रहा है। इस तरह पानी न हुआ, बदबू हुआ। रोटी न हुई, बदबू हुई। कपड़ा न हुआ, बदबू का कपड़ा हुआ। घर न हुआ, बदबू का मकान हुआ।

न मिट्टी में सोंधी महक थी।
न गेहूं में सोंधी खुशबू।
इस तरह जीवन में नाक बंद करना बेमाने था।
    धोखे की दुनिया में घना अंधेरा था। लोग एक दूसरे को अंदाज से पहचानते थे। कभी कभी इस अंधेरे में अपने आप को पहचानना मुश्किल हो जाता। एक दिन घर पॅहुच कर कल्लूराम  गार्ड ने अपने तीनों बच्चों से, जो पॉलीथिन के टीले को झाड़ू की सींक से तोड़ रहे थे, पूछा-
''कल्लूराम गार्ड अब तक घर नहीं आया?"
बच्चों ने कल्लूराम गार्ड को न पहचान कर कहा - ''मालिकों ने रोक लिया होगा। कोई अपनी गाड़ी धुलवाने लगा होगा, कोई गैराज साफ करा रहा होगा।"
इस पर कललूराम गार्ड को तसल्ली हुयी। तब उसने मझले लड़के का नाम ले कर पूछा -''सूरजा कहॉ है?"
मझले लड़के ने एक काली पॉलीथिन सींक से निकाली और चिल्लाया -''सूरजा शहर भाग गया?"
''शहर!"" कल्लूराम गार्ड उदास हो गया।
''ये शहर नहीं है?" उसने बड़के से पूछा।
''पता नहीं।" बड़का सोच में पड़ गया और पॉलीथिन निकालना छोड़ कर वहीं खड़ा हो गया।
पॉलीथिनों से निकल कर बहुत सारे कीड़े मकोड़े छितरा गए थे।
''कीड़ों मकौड़ों पर से हटो।" कल्लू गार्ड ने बच्चों को डांटा।
बच्चों को हटा हटा कर कल्लू गार्ड कीड़ों को पहचानने में लग गया। उसे पॉलीथिन का काला भयानक पहाड़, काला भयानक अंधेरा लगा। इसी काले भयानक अंधेरे में से बछड़ा आगे से निकल गया होगा।
''धोखे की झपकी थी।" गार्ड ने सोचा।
वह धीरे धीरे आया और नकली मंत्री के साथ मिल कर बछड़े को खींच कर किनारे करने की कोशिश करने लगा। बछड़ा टस से मस न हुआ। बछड़ा अंगद का पॉव हो गया। नकली मंत्री ने बछड़े को गले से पकड़ कर खीचा, उसके आगे का पॉव खीचा। गार्ड ने उसके गर्दन खीचने में गर्दन खीचा, पॉव खीचने में पॉव खीचा।
''अरे, गर्दन खीचने से मर जायेगा। पैर अकड़ गया होगा।" औरत धीरे से चिल्लायी। जोर से चिल्लाती, तब भी दोनों गले से खीचते। बछड़े ने दोनों पॉव मोड़े हुए थे, इसलिए ठीक से खिच नहीं रहा था। ठीक से इसलिए भी नहीं खिच रहा था, क्योंकि नकली मंत्री अपनी जांगर बचा कर खीच रहा था। गार्ड अपना जांगर छिपा कर खीच रहा था। इसतरह खिचना खीचना रह गया। औरत का भय बेकार गया।
    औरत का पति मोटरसाइकिल से आया। उसने अपनी बजाज की बढ़िया स्कूटर बेच कर सस्ती मोटरसाइकिल खरीदी थी। मोटरसाइकिल से चलना ठीक लगता था। यही नया चलन था। स्कूटर से चलना, चलना नहीं रह गया था। साइकिल से चलना गरीबी का प्रदर्शन करते हुए चलना था। और उससे भी ज्यादा अमीर गाड़ियों से कुचल जाने के खतरे के साथ चलना भी था। ऐसा खतरा मोटरसाइकिल के साथ भी था, पर वह चलन में थी। इसके साथ का रिस्क भी चलन में था।
रिस्क, रिस्क में फर्क था।
आदमी, आदमी में फर्क था।
यही समय था।
औरत के पति की मोटरसाइकिल भी बछड़े से टकराते टकराते बची थी। उसने घ्ार के अंदर, बारामदे में मोटरसाइकिल चढ़ाते हुए एक हाथ उठा कर नकली मंत्री को दिखाया, जिसका मतलब था 'खीच कर हटा रहे हो, बहुत ठीक।’
नकली मंत्री जवाब में  मुस्कराया। गार्ड नहीं मुस्कराया।
''मैडम गॉव से आयी है।"  कोई बुदबुदाया।
जब औरत अपने पति की मोटरसाइकिल के पीछे पीछे चली तो शब्द का एक और पत्थर उछल कर उसकी छाती में लगा। उसने फिर अपनी चोट छिपा ली। फिर बछड़े को देखने की इच्छा जोर मारने लगी।
''मम्मी, गाय का बेबी भूखा होगा।" भोलू ने सोते समय कहा।
''सुनो जी, एक रोटी दे आउं?" औरत ने कहा।
''इतनी रात को दरवाजा खोलना ठीक नहीं होगा।" आदमी ने कहा।
''बस, अभी ही तो आयी। गेट में ताला भी लगा आउंगी।"
औरत ने झट से एक रोटी मोड़ी और फुर्ती से गेट से निकल कर बछड़े के मुॅह के पास रख आयी। गेट पर ताला बंद करके लौटी तो पति सोने चला गया था।
''लगता है बछड़ा रोटी नहीं खायेगा। बीमार लग रहा है।"
उसने सोते पति से कहा।
''बहुत हो गया बछड़ा, बछड़ा।" पति थका था। वह नींद से बाहर नहीं आ सकता था।

    सुबह बड़ी हलचल थी। छोटी मोटी भीड़ दिख रही थी। एक आदमी हर घर की घंटी बजा कर पैसे मॉग रहा था। उसके हाथ में एक कागज था, जिस पर वह पैसा देने वाले का नाम, मकान नम्बर लिख लेता। लोग श्रद्धानुसार रूपये, पैसे दे रहे थे। यह श्रद्धा पचास रूपये से नीचे नहीं होनी थी। यह उसने साफ साफ बता दिया था।कुछ लोग ना नुकर कर रहे थे। कुछ सीधे सीधे पैसे कम कराने पर अड़े थे।  किसी ने बछड़े पर सफेद गमछा उढ़ा दिया था। कुछ गेंदे के फूल पड़े थे। वहीं बछड़े के कुछ पास एक आदमी नंगे पॉव जल चढ़ा रहा था। एक दो औरतें अचानक प्रकट हो गयी थीं। वे स्टील की प्लेट में दो चार फूल, एक दो केला, अक्षत, रोली, हल्दी--- रखे थीं। एक ने आगे बढ़ कर बछड़े पर सिंदूर छिड़क दिया। दूसरी ने कहा -''जय बाबा भोले नाथ की। उनके सेवक नंदी बैल की जय!"
कहीं से सफेद कुर्ता पैजामा पहने एक नेतानुमा आदमी अवतरित हो गया। वह इधर उधर घूम रहा था। उसका मन भाषण देने देने को था। पर लोग थे कि समय का रोना रो कर निकल लेते थे। ऑफिस समय पर पॅहुचना था। स्कूल समय पर जाना था। भोलू और भोलू के डैडी भी अपने अपने काम पर निकल गए। बछड़े की वजह से इस पर असर नहीं लिया जा सकता था। तभी कहीं से नेता जी को ज्ञान का प्रकाश मिला कि अगर जनता के पास जाना चाहते हो तो टी वी पर जाओ। वहॉ से सब कुछ साफ और पास दिखता है। नेता जी ने तुरंत एक खबरिया चैनल को फोन कर के डांटा, धमकाया कि आ कर के बछड़े के साथ उनका फोटो ले और भाषण भी। चैनल वाले ने अपने किसी कर्मचारी को डांटा कि आज या तो बछड़ा और नेता जी की फोटो या तो तुम्हारी नौकरी ? कर्मचारी नौकरी का जाना अफोर्ड नहीं कर सकता था। उसे कैमरा चलाना नहीं आता था। फिर भी वह आया। उसके साथ जो आया, उसे रिकार्डिंग और रिपोर्टिंग नहीं आती थी। फिर भी वह आया। दोनों ने मिल कर चैनल को नेता प्रकोप से बचा लिया। असली पत्रकारों, रिपोर्टरों तक बात नहीं पॅहुची। वे सो रहे थे। ज्यादातर रात में चौबीस घंटों के लिए रिपोर्ट लगा कर गए थे। चौबीस घंटे खबर ढूढना बेमाने था। इसमें वे लोग कोई और काम कर लेते थे। कोई कोई पत्रकारिता, मीडिया जैसे विषय कहीं, किसी कॉलेज, संस्थान वगैरह में पढ़ा भी आते था। इससे एक पंथ दो काज वाली कहावत चरितार्थ होती थी।
    चैनल पर भाषण दे देने के बाद वे अखबार के पत्रकारों को फोन पर बताने लगे। यही बछड़े के अवतार की कथा। धीरे धीरे भीड़ बढ़ने लगी। गॉव से ट्र्क में भर भर कर लोग आने लगे और गदगद भाव से दूध, फल, फूल,पैसा पानी चढ़ाने लगे। जो आदमी सुबह सुबह घरों से रूपया मॉग कर कागज पर नोट कर रहा था, वह अब बछड़े के पास मुस्तैदी से डटा था। पैसे रूप्ाये ज्यादा होने पर उन्हें धीरे से बछड़े पर से हटाता और एक थैले में डालता जाता। कुछ पैसे रूपये तब भी बछड़े पर पड़े रहते। देखते देखते कॉलोनी में तिल रखने की जगह न रही। लोगों के लिए कहॉ स्कूल दफ्तर जाना मुश्किल लग रहा था, कहॉ लौटना असंभव सा लगने लगा। कॉलोनी के लोग अपनी गाड़ी मोटर दूर रोक कर पैदल रास्ता बनाते हुए घर तक पॅहुचने की कोशिश कर रहे थे।
''अरे भाई, जरा रास्ता। बस, यही दस कदम पर---।"
''ऐ भाई, जाने दो, सुबह के निकले हैं।"
''अरे, अरे, यही 83 नम्बर घर है, जरा हटना।"
भीड़ आस्था से ओतप्रोत थी। पंडे और पुजारी अलग अलग मंदिरों से आ रहे थे। बछड़े को प्रसाद चढ़वा कर अपने मंदिरों के आगे स्टॉल लगवा दिए थे। तमाम फूल माला बेचने से लेकर गुब्बारा, सिंदूर, चुनरी, धूप बत्ती, माचिस, प्लास्टिक के खिलौने, तीर धनुष, सर्फ, साबुन ---वगैरह बेचने वाले भीड़ को कुछ न कुछ खरिदवा डालने पर आमादा थे। मज़मा बदल गया था। कुछ देर पहले मुश्किल से टी वी चैनल को बुलाने वाला नेता खबरिया चैनलों से घिर गया था। चौबीस घंटे अब यही राष्ट्र की सबसे बड़ी खबर थी। कोई कोई अपने यहॉ डॉक्टर, पुजारी और वैज्ञानिक की बहस भी चला रहा था। इस चौबीस घंटे मानो दुनिया में कुछ भी न हुआ था।
    जिस औरत ने बछड़े पर सबसे पहले सिंदूर छिड़का था, वह बाल खोल कर अस्पष्ट सा बड़बड़ाते हुए झूम रही थी। लोग उसके पास भी कुछ न कुछ चढ़ा देते। भोलू की मम्मी लोहे के गेट के अंदर से यह देख कर हैरान थी। यह तो गॉव में देवता आने के जैसा दृ्श्य था। गॉव के इस दृश्य की असलियत भोलू की मॉ को पता थी। वह हैरान सी लोहे के गेट तक आती और ये सब देख कर लौट जाती। जब तक किसी तरह भोलू और उसके डैडी अंदर न पॅहुच गए, उसे चैन न हुआ।
जो जैसे जैसे अपने घर पॅहुचता, वह डर के मारे बाहर न आता।
    नेता नुमा आदमी किनारे खड़े हो कर केला खा रहा था, जब एक चैनल वाले ने उसकी प्रतिक्रिया जाननी चाही। केला खत्म कर लेने तक चैनल वाले रूक नहीं सकते थे। वह केला मुंह में चबाते चबाते बोलने लगा-      '' उ---सके माथे पर त्रिफूल खा नि---शान---।" केला खाते खाते बोलने से ऐसा निकला। इसका अहसास तुरन्त नेतानुमा को हो गया। उसने वहीं, अपने बगल में केला फेंक दिया और गर्जना के स्वर में कहने लगा-    '' कलयुग में साक्षात नंदी बैल आये थे। देखिए जहॉ आ कर बैठे, उतनी धरती काली पड़ गयी है। यह देखिए---यह इधर---।" इसके बाद चैनल वाले और नेतानुमा दोनों अदृश्य हो गए।
जहॉ नेता ने केले का छिलका फेका था, वहीं एक रोटी भी पड़ी थी।
रोटी कड़ी हो चुकी थी। 
''सुबह जब ये लोग आए तो बछड़ा जिंदा था। था या नहीं?" भोलू की मम्मी को जिज्ञासा हुयी।
    रात आयी तो नेतानुमा भी आया। देर रात तक भीड़ छंट गयी। बछड़े की देह से उठती बदबू अधिक सघन हो गयी। धूप दीप उसे छिपाने में असफल होने लगे।
''अब और नहीं रखा जा सकता।" नेतानुमा ने कहा।
''झोंटा बॉध! सामान बॉध!" यह उसने बाल खोल कर झूमने वानी औरत से कहा।
बाल खोल कर झूमने वाली औरत लगातार झूमने से थक गयी थी। उसकी थुलथुल कॉपती देह पसीने से तर थी। वह दूध, पानी, गंगाजल, फूल और बेलपत्रों से पटी जमीन पर भहरा कर गिर गयी। आदमी, जो भारी भीड़ के बीच भी पैसे इकट्ठे करने की अपनी ड्यूटी पर तैनात था, उसने अपने साथी लड़कों और दूसरी औरत के साथ मिल कर, झटपट रूपये, पैसे, फल, फूल, बेलपत्र आदि  आदि अलगा कर थैलों में डाला और ला कर नेतानुमा के सामने रख दिया।
''गुड! चलो, गाड़ी में रखवाओ।"
नेतानुमा ने आदेश दिया। तभी उसका ध्यान ऑख बंद कर लेटी हुयी औरत की तरफ गया।
''साली। यहॉ भी नौटंकी। उठ, चल के दारू के ठेके पर बैठ, नहीं तो तेरी लड़की को बैठा दूंगा।" नेतानुमा ने अपने जूते से औरत की कमर पर कोंचा। औरत लड़की का नाम सुनते हड़बड़ा कर उठ गयी। उससे उठा नहीं जा रहा था। लेकिन उठना जरूरी था।
''मालिक, आज का पैसा दे दो।" औरत ने उठते उठते कहा।
''चल, वहीं मिलेगा सब।" कह कर नेतानुमा हॅसा।
उसकी गाड़ी चली गयी तो बाल खोल के झूमने वाली औरत ने वहॉ से कुछ सड़े गले, छंटनी में बेकार कर दिए गए फल उठाए और अपनी साड़ी के कोने में बॉध लिया।

    सुबह फिर हलचल थी। बछड़े से उठने वाली बदबू से लोग परेशान थे। कुछ लोगों ने नगर निगम को फोन करने की कोशिश किया था। भोलू के डैडी भी नगर निगम को फोन करते रहे। घंटी बजती थी, पर कोई उठाता नहीं था। स्कूल जाने के समय बच्चे अपने अपने बसों की तरफ नाक पर रूमाल रख कर गए। दफ्तर के वक्त लोग नाक दबा कर अपने अपने ठिकानों की तरफ गए। इतने में वही आदमी फिर दिखा, जो नेतानुमा के साथ आया था और देर रात तक पैसा बटोरने की अपनी ड्यूटी पर तैनात रहा था। उसके साथ दो आदमी और थे। उनके पास लम्बा डंडा और मोटी रस्सी थी। वे जब बछड़े की अकड़ी देह के पास पॅहुचे तो मक्खियॉ भरभरा कर उड़ीं, दो चार कौवे चौंक कर उड़े, दो एक कुत्ते भाग खड़े हुए, एक चील आकाच्च से तेजी से कुछ नीचे आती और सर्र से उपर चली जाती। ऐसे में उन दोनों ने बछड़े को उलट पलट कर रस्सी से बॉधा और डंडे में फॅसा कर उठा लिया। बछड़े पर पडा सफेद गमछा उन्होंने उसी डंडे पर टांग लिया। दोनों ने एक एक तरफ से डंडे को कंधे पर रखा और चल दिए। कुछ मुरझाए फूल इससे इधर उधर गिर कर छितरा गए।
''आप लोग नगर निगम से हैं?" किसी ने चलते चलते पूछ लिया।
''नहीं जी, हम तो कसाईबाड़ा से आए है।"
दोनों आगे बढ़ गए। भोलू की मम्मी लोहे के गेट के भीतर खड़ी सुन रही थीं। उनकी ऑखों में ऑसू आ गए। उन्होंने तुरन्त ऑसू इस तरह पोंछा कि कोई देख न ले।