Tuesday, October 2, 2012

कुछ मन की बातें

पिछले दो तीन महीनों की ऐसी व्यस्तता जिसमें लिखना पढ़ना संभव न हो पाया, उससे निजात मिली है। उस दौरान ब्लाग भी अपडेट करना संभव न हुआ और ब्लाग जगत की खबरों से भी बहुत ज्यादा परिचित न रह पाया। फिर से रूटीन में लौटना चाहता हूं लेकिन इतने दिनों की मानसिक स्थिति वापिस लौटने में आलस बनती रही है। अपने भीतर के आलस से लड़कर कल से कुछ शुरूआत संभव हुई। सोच रहा था पहले ब्लाग अपडेट करूं। लेकिन क्या लिखूं यह विचारते ही एक ऐसा पाठक जेहन में उभर आया, जिससे कभी मिलना संभव न हुआ। हां ब्लाग की दुनिया के उस जबरदस्त पाठक से बहुत से पत्र व्यवहार हुए। तीखे बहसों से भरे वे ऐसे पत्र हैं जो मुझे ऊर्जा देते हैं। उनमें से एक पत्र और जवाब में दिये गये खुद के पत्र को यहां प्रस्तुत कर रहा हूं। आगे भी मन हुआ तो वे दूसरे पत्र रखना चाहूंगा जिसमें मेरी रचनाओं पर भी उस साथी पाठक की तीखी आलोचनात्मक टिप्पणियां दर्ज हैं।
अपनी आदत के मुताबिक इन पत्रों की वर्ड फ़ाइल में न तो मैंने ही कोई तिथि दर्ज की है न ही साथी पाठक के पत्र पर कोई तिथि दर्ज है। मेल में जरूर तिथियां मौजूद है। लेकिन जब पत्रों की फ़ाइल में वे मौजूद नहीं तो उन्हें दर्ज न करने  की छूट ले रहा हूं ताकि इधर घटी बहुत सी घटनओं के संदर्भ में भी इसे पढ़ पाना संभव हो सके। वि.गौ.
प्रिय मित्र संदीप
क्या ही अच्छा हो कि जिस गिरोहगर्दी के बारे में मैंने अपनी चिन्ताएं रखीं, उसके लिए कोई सांझी कार्रवाई जैसी स्थितियां पैदा हों !!! मैं नहीं जानता कि आप मेरी बातों को सिर्फ एक व्यक्ति की एकल कार्रवाई तक सीमित क्यों मान रहे हैं। मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि साहित्य में ही नहीं जीवन के कार्यव्यापार के किसी भी क्षेत्र में बदलाव की सकारात्मक संभावना की तस्वीर को मैं बिना समान विचार के साथियों के सांझेपन और दोस्ताना सहमति में पहुंचे बगैर संभव नहीं मानता हूं। हां, यह जरूर है कि साहित्य की दुनिया में मेरे द्वारा की जा रही ऐसी पहलकदमियां समान विचारों वाले बहुत ही सीमित साथियों के चलते कई बार एकल जैसी दिखती हुई हो सकती है। लेकिन वे नितांत एकल तो शायद ही होती हो। आपको भी मैं एक समान विचारों वाले मित्र जैसा ही तो मानने लगा हूं। आपके पत्र और उनके मार्फत हमारे बीच के संवाद को क्या सांझापन नहीं कह सकते हैं ? हां, यह ऐसा सांझापन है जिसे शायद कई बार आप भी और मैं भी एकल ही समझ रहे हों। पर मैं इसे एकल तो कतई नहीं मानने को तैयार हूं, वह भी तब-जब हमारे बीच का संवाद, यदा-कदा ही सही, मध्यवर्गीय शालीनता की सीमाओं के पार निकल जा रहा हो और विचारों की आपसी टकराहट मुझे तो कई बार अपनी धारणाओं पर फिर से विचार करने को मजबूर करने लग जा रही हो। संदीप जी आपने रचना में एजेण्डे के बरक्स ट्रीटमेंट की स्वायतता की जो बात कही, वह एकदम दुरस्त बात है। यहां कहना चाहूंगा कि ट्रीटमेंट को ही कई बार एजेन्डा मानने की जिद ही है जो कलावाद की अंधी गलियों की ओर बढ़ रही होती है। रचना में प्रतिबद्धता की बजाय सिर्फ भाषा और शिल्प की व्याख्या करने वाली गैर वैज्ञानिक आलोचनाओं ने भी रचनाकारों के भीतर महत्वाकांक्षओं के खराब बीज रोपें हैं जिसकी वजह से निजी अनुभवों को समष्टी तक पहुंचाने वाली धमन भट्टी का ताप सिर्फ चमकदार भाषा और अनूठे शिल्प की कवायद में बेकार जाता हुआ है। वरना खूबसूरत अभिव्यक्तियों से भरे उजले टुकड़े न तो ऊर्जावान रचनाकार देवी प्रसाद मिश्र की रचनाओं में दिखते और न ही उदय प्रकाश की रचनाओं में। रचनाकारों के भीतर का आत्मबोध भी है जो उन्हें अपनी आलोचनाओं को बरदाश्त करने की ताकत नहीं दे रहा होता और न ही उससे टकराने की मानसिकता बना रहा होता है। ऐसे में गिरोहगर्द साथियों की जरूरत ही तीव्रता से महसूस होती है। तो तय जाने मेरी टिप्पणियां सिर्फ उस आलोचना की पुकार ही हैं जो एक गम्भीर रचनाकार के साथ दोस्ताना व्यवहार बरतते हुए खुलेपन के साथ हों। राग-द्वेष से उनका कोई लेना देना हो। एक जनतांत्रिक पहलकदमी उनका शुरूआती कदम हो। यानी मेरा मानना है कि यह भी वैसे ही ट्रीटमेंट का मामला है, एजेन्डे का नहीं जो कई बार एकल दिख सकता है। वरना यह जाने कि मैं, जिसको आप उसके लिखने भर से जान रहे हैं, देखते होंगे कि साहित्य की स्थापित दुनिया में अदना सा व्यक्ति है लेकिन उसके बाद भी कुछ कह पाने की हिम्मत जुटा पा रहा होता है तो स्पष्ट है कि अपने जैसे दूसरे साथियों से बहस मुबाहिसें में उलझ कर ही ताकत पाता है। हां, जैसा कि हिन्दी साहित्य का वर्गीय चरित्र उसमें हिस्सेदारी कर रहे रचनाकारों से बना है, वह मध्यवर्गीय है। जहां अपनी असहमतियों को रखना एक शालीन चुप्पी की तरह हो रहा है। बस मैंने उस शालीनता से एक हद तक थोड़ा परहेज करने की कोशिश की हुई है। हां मैं पूरी तरह मुक्त हूं, ऐसी गलतफहमी मुझे नहीं। असहमति की यह शालीन चुप्पी भी सांझेपन से ही टूट सकती है। पर किसी न किसी को तो वक्त बेवक्त उसे मुखर होने देने की संभावना खोजनी ही होगी। ऐसा मैं ही नहीं और भी कई दूसरे लोग है जो वक्त बे वक्त करते भी हैं। बल्कि कहूं कि ब्लाग की इस नई बनती दुनिया में यह होने की संभावनाएं भी दिखाई देती हैं। यदि सांझापन बढ़ा तो गोष्ठियों के वे ऑपरेटिंग पार्ट जो प्रतिबद्धतओं की वकालत करते हों जरूर ही बढ़ेंगे वरना उनका रूप तो रचनाकारों के आपसी मिलने जुलने और उसी गिरोहगर्द दुनिया को आगे बढ़ाने वाला है। उनके भीतर स्वीकार्य होकर ही अपनी बात की जा सकती है, बाहर खड़े होकर तो कहने की आज गुंजाइश ही नहीं। आपके पत्र के इंतजार में रहूंगा।
विजय


 मित्र विजय जी
 आप का पत्र पढ़ा। और आपकी चिन्ताओं से भी अवगत हुआ। आप बहुत पैशन के साथ पत्र लिखते हैं- यह मुझे बेहद सुकून देता है। मित्र आपकी चिन्ताएं बेहद सामयिक हैं और जरूरी भी। दरअसल आज साहित्य जहां ठहरा हुआ है-वहां से हम संकट के अनेक आयाम देख सकते हैं। वामिक जौनपुरी का एक शेर याद आ रहा है- ज़िन्दगी कौन सी मंज़िल पर खड़ी है आकर आगे बढ़ती भी नहीं राह बदलती भी नहीं साहित्य में प्रगतिशील पक्षधरता रखने वाले जो चन्द लोग हैं उन पर उपरोक्त शेर सटीक बैठता है। सत्ता प्रतिष्ठानों में आकण्ठ डूबे लोगों का यह संकट नहीं है। वे तो हर दिन राह बदलते रहते हैं। जनपक्षधर साहित्यकारों को भी यह मानने में अक्सर दित होती है कि साहित्य का अपना कोई स्वतन्त्र एजेण्डा नहीं होता। साहित्य का भी वही एजेण्डा होता है जो समाज का एजेण्डा होता है। साहित्य की स्वायत्ता उसके अपने स्वतन्त्र एजेण्डे में नहीं वरन उस एजेण्डे के 'ट्रीटमेंट" में होती है। यह और बात है कि बहुत से लोग इस 'ट्रीटमेंट" को ही साहित्य का स्वतन्त्र एजेण्डा घोषित कर देते हैं। खैर, दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि साहित्य को "गिरोहगर्दों" से छुड़ाने का काम हमेशा विचारधारा (जिसे कुछ लोग विजन कहना भी पसन्द करते हैं) ,सामाजिक सांस्कृतिक आन्दोलन और आन्दोलन की अन्योन्यक्रिया से बनने वाले ठोस या तरल साहित्यिक संगठन करते हैं। भारत में प्रगतिशील लेखक संघ व इप्टा के शुरुआती वर्षों में आप इसकी आधी-अधूरी झलक देख सकते हैं। हमें यह मानने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि आज हम इन सभी क्षेत्रों में बेहद पिछड़े हुए हैं। बल्कि सच कहें तो हमें इसका अहसास भी बहुत कम है। पिछले पत्रों में मैने इस लिए कहा था कि गिरोहगर्द स्थितियां तो सिम्टम मात्र है हमें ज्यादा समय व ऊर्जा उपरोक्त समस्याओं पर विचारविमर्श करने व उसका कोई छोटा ही सही ऑपरेटिंग पार्ट निकालने पर खर्च करना चाहिए। अभी मैं अक्टूबर में उदयपुर में हुयी ''संगमन" की गोष्ठी की रपट पढ़ रहा था। आप खुद बताइये कि इस दो दिवसीय गोष्ठी में शाम को उदयपुर घूमने के अलावा इस गोष्ठी का ऑपरेटिंग पार्ट क्या था। आज 99 प्रतिशत गोष्ठियां ऐसी होती हैं जिनका कोई ऑपरेटिंग पार्ट नहीं होता। क्या साहित्य में कोई सामूहिक जिम्मेदारियां नहीं होती। और यदि होती हैं तो इसका ऑपरेटिंग पार्ट क्या होगा।यहां मै उन गोष्ठियों की बात कर रहा हूं जो छोटी जगहों पर और छोटे पैमानों पर होती हैं और जिसमें हम आप जैसे लोग भाग लेते हैं। उन गोष्ठियों की बात नहीं कर रहा हूं जो सत्ता प्रतिष्ठान द्वारा कराए जाते हैं। मित्र, यह टॉलस्टॉय का जमाना नहीं है। जहां एक सामन्त अपने खूबसूरत आश्रम में बैठ कर लिखते हुए "रूसी क्रान्ति का चितेरा" बन जाए। यह बहुत जटिल वर्गीय संरचना व उथल पुथल वाला तेज भागने वाला समय है। खैर, इसपर फिर कभी। समाज के हर क्षेत्र की तरह साहित्य पर भी वर्गीय प्रभावों का पूरा पूरा प्रभाव पड़ता है। इसलिए साहित्य में भी वर्गीय धु्रवीकरण की स्थितियां मौजूद होती हैं। हालांकि यह थोड़ा जटिल रूप में होती हैं। अत: यहां भी समाज के अन्य क्षेत्रों की तरह ही गिरोहगर्दी को सामूहिक प्रयासों से ही तोड़ा जा सकता है। गिरोहगर्द स्थितियों की व्यक्तिगत आलोचना महज सहायक भर हो सकती हैं। वह भी बहुत कम सीमा तक। शायद मैं आपको कुछ स्पष्ट कर पाया। मुक्तिबोध के समय भी लगभग यही स्थितियां थीं। हां अन्तर अवश्य था। पहले प्रगतिशील लेखक संघ, परिमल, कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम जैसे संगठन संगठन की तरह थे। और ये संगठन के नार्म-फॉर्म कमोबेश निभाते भी थे। लेकिन आज ये सभी पतित होकर (कुछ तो इस प्रक्रिया में अपना अस्तित्व भी खो चुके हैं) संगठन से गिरोह में बदल गए हैं। जिससे स्थितियां और दुरूह हो गयी है- विशेषकर उन नए साहित्यकारों के लिए जो साहित्य में एक सामाजिक उद्देश्य लेकर प्रवेश करते हैं। तो इस बार इतना ही। मैने आपको बोर तो नहीं किया। दरअसल आपकी चिन्ताएं यह आश्वस्त करती हैं कि हम अकेले नहीं हैं। इस लिए आपसे बात करके एक तरह का सुकून मिलता है। इधर कुछ नया तो पढ़ा नहीं। हां एनबीटी से लोककथाओं के संकलन की एक किताब आयी है उसे ही पढ़ रहा हूं। 
पत्र की प्रतीक्षा में 
संदीप 

Sunday, September 9, 2012

बाबा नागार्जुन , हरिजन गाथा और दलित विमर्श

- महेश चंद्र पुनेठा                                                                               

    नागार्जुन जीवन से सीधे मुठभेड़ करने वाले विरले कवियों में से एक हैं । उनकी कोशिश हमेशा कवि या साहित्यकार बनना  नहीं बल्कि एक आदमी बनना रही। उनकी प्रतिबद्धता  शोषित-दलित -पीड़ित के प्रति रही । शोषित-उपेक्षित के दु:ख-दर्द, हर्ष-उल्लास तथा आशा-आकांक्षाएं हमेशा उनके लेखन के केंद्र में रहे। जहॉ भी शोषण-अत्याचार-उत्पीड़न देखते वहॉ नागार्जुन पहुंच जाते । अपने समकालीन यथार्थ से वे कभी ऑख मूंद कर नहीं रहे । इसलिए उनकी कविता पर तात्कालिकता का आरोप भी लगता रहा। लेकिन कोई परवाह नहीं ,क्योंकि वे तो कविता को प्रतिरोध के एक हथियार की तरह इस्तेमाल करते थे । इसी के चलते उन्हें अनेक बार जेल की यात्रा भी करनी पड़ी । प्रेमचंद की " साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है " वाली बात नगार्जुन के साहित्य को लेकर बहुत हद तक सही सिद्ध होती है। उनकी कविता अपने समकालीन राजनीति पर जरूरी हस्तक्षेप करने के साथ-साथ आगे की दिशा भी दिखाती है। उन्होंने समाज को जाति और वर्ग दोनों ही दृष्टियों से देखा। दलितों को लेकर भी उनकी दृष्टि एकदम साफ थी दलितों पर लिखा गया उनका साहित्य केवल सहानुभूति का साहित्य नहीं कहा जा सकता है, गहरी संवेदना ,समझ और आक्रोश उनके यहॉ दिखाई देता है। वे केवल स्थितियों का चित्रण नहीं बल्कि उन्हें बदलने की बात भी करते हैं।एक ऐसे समय जब दलित विमर्च्च की कोई अनुगूंज हिंदी साहित्य में नहीं थी उन्होंने "बलचनमा" जैसा उपन्यास तथा " हरिजन गाथा" जैसी कविता रची।
   " हरिजन गाथा" जनसंहार की पृष्ठभूमि पर लिखी गई कविता है। सन् 1977 ई0 में 27 मई को पटना जिले के बेलछी गॉव में कुर्मी भूस्वामियों ने 13 दलितों  को आग में झोंककर जिंदा जला दिया। इस हृदयविदारक और नृ्शंस घटना की भयावहता को कवि कुछ इस तरह व्यक्त करता है-ऐसा तो कभी नहीं हुआ था कि /एक नहीं ,दो नहीं, तीन नहीं-/तेरह के तेरह अभागे-/अकिंचन मनुपुत्र /जिंदा झोंक दिए गए हों/प्रचंड अग्नि की विकराल लपटों में /साधन-संपन्न ऊॅची जातियों वाले/सौ-सौ मनुपुत्रों द्वारा! दुखद यह है कि यह घटना पुलिस प्रशासन के नाक के नीचे घटती है । घटना की सूचना उनके पास पहुंच जाती है लेकिन फिर भी उसको रोकने के कोई प्रयास नहीं किए जाते। सचमुच कितनी बिडंबना है - महज दस मील दूर पड़ता हो थाना / और दरोगा जी तक बार-बार /खबरें पहुंचा दी गई हों संभावित दुर्घटनाओं की । बावजूद इसके पुलिस प्रशासन घटना स्थल पर नहीं पहुंचा । इससे  पता चलता है कि देश का शासन-प्रशासन किस वर्ग और जाति के हितों के लिए काम करता आ रहा है। दलित उत्पीड़न के इतिहास में यह एक मात्र घटना नहीं थी जिसमें सूचना होने के बावजूद भी पुलिस प्रशासन समय पर घटना स्थल पर समय पर नहीं पहुंची , इससे पहले भी ऐसा देखा गया है और उसके बाद भी। पिछले दिनों मिर्चपुर में हुई घटना में भी कुछ ऐसा ही हुआ। यह कहना गलत नहीं होगा कि यह तो हमारे व्यवस्था की सामंती पुलिस का चरित्र ही है। भले ही शासन व्यवस्था कहने के लिए लोकतांत्रिक हो गई हो पर उसको संचालित करने वालों की मानसिकता अभी तक भी लोकतांत्रिक नहीं हो पाई है। यदि लोकतांत्रिक हो गई होती तो  साधन-संपन्न ऊॅची जातियॉ इस तरह के सुपर मौज में नहीं दिखती - खोदा गया हो गड्ढा हॅस-हॅसकर/और ऊॅची जातियोंवाली वो समूची आबादी/आ गई हो होली वाले "सुपर मौज" के मूड में / और ,इस तरह जिंदा झोंक दिए गए हों/ तेरह के तेरह अभागे मनुपुत्र/ सौ-सौ भाग्यवान मनुपुत्रों द्वारा । कैसी हृदयहीनता है यह ! अपने को श्रेष्ठ घोषित करने वाली जाति की संवेदनशीलता देखिए ! किसी की मौत का सामान जुटाया जा रहा है वह भी "हॅस-हॅसकर"।  कविता में प्रयुक्त "सुपर मौज" शब्द इस हृदयहीनता की पराका्ष्ठा को बताता है। शब्दों का ऐसा सटीक चयन एक बड़ा कवि ही कर सकता है, ऐसा कवि जो हृदय से उत्पीड़ितों के साथ हो।
  कवि नागार्जुन इस कविता में आगे एक दलित-सर्वहारा बच्चे के माध्यम से उनके भवि्ष्य की अनि्श्चितता तथा दलितों के अभावग्रस्त जीवन-स्थितियों  को बारीकी से उजागर करते हैं  -क्या करेगा भला आगे चलकर? ।।।।कौन सी माटी गोड़ेगा ?/ कौन सा ढेला फोड़ेगा ?/ मग्गह का यह बदनाम इलाका /जाने कैसा सलूक करेगा इस बालक से/पैदा हुआ है बेचारा-/ भूमिहीन बंधुआ मजदूरों के घर में/ जीवन गुजारेगा हैवान की तरह/ भटकेगा जहॉ-तहॉ बनमानुस-जैसा / अधलपेटा रहेगा अधनंगा डोलेगा। यह स्थिति केवल भोजपुर के मग्गह इलाके की नहीं है बल्कि दे्श के किसी भी इलाके में देख लें दलित-भूमिहीन-बंधुआ मजदूरों की यही स्थिति है। यही शोषण-उत्पीड़न और यातना है। यही अनिश्चितता है कि कल क्या खाएगा-क्या लगाएगा-क्या रोजगार करेगा ? यही अनिश्चितता है जो उन्हें भाग्यवादिता की ओर धकेलती है-रामजी के आसरे जी गया अगर ।।।।।रामजी ही करेंगे इसकी खैर । पर यह महत्वपूर्ण है कि इतने भगवान भरोसे रहने वाले लोगों के भीतर प्रतिरोध की प्रेरणा भरती है यह कविता। उनके माथे के अंदर हथियारों के नाम और आकार-प्रकार नाचने लगते हैं। उनको सब कुछ नया-नया लगने लगता है। यह इस कविता की ताकत कही जाएगी । एक बड़ी कविता यह काम करती भी है।  इस कविता के संदर्भ में मैनेजर पाण्डेय की टिप्पणी बहुत सारगर्भित है, ""इस कविता में भारतीय समाज-व्यवस्था के वर्तमान रूप का यथार्थ चित्र और उसके भावी विकास का संकेत है । भारत के गॉवों में सामंतों द्वारा खेतिहर मजदूरों -हरिजनों के क्रूरतम द्राोद्गाण और बर्बर दमन का जैसा प्रभावच्चाली चित्रण हरिजन गाथा में है ,वैसा इस बीच की किसी दूसरी कविता में नहीं है। नागार्जुन इस भयानक यथार्थ का त्रासद चित्रण करके चुप नहीं हो गए हैं । उन्होंने इस यथार्थ के परिवर्तन का संकेत भी दिया है । कविता में एक बच्चे के माध्यम से इतिहास प्रक्रिया व्यक्त हुई है।वह बच्चा इतिहास का बेटा है और भावी इतिहास का निर्माता है।""
   यह बात बिल्कुल सही है। इस कविता में समाज में दलितों की यातनामय स्थितियों का चित्रण मात्र नहीं है  बल्कि उससे मुक्ति का मार्ग भी यह कविता बताती है। इस दृष्टि से दलित विमर्श की अन्य कविताओं से हटकर है यह कविता। कवि जब अपने पात्रों से पुछवाता है- तोतला होगा कि साफ-साफ बोलेगा/जाने क्या होगा/बहादुर होगा कि बेमौत मरेगा। इन पंक्तियों में कवि उस ओर संकेत कर देता है कि मुक्ति चाहिए तो प्रतिरोध करना होगा तोतला बोलकर काम नहीं चलेगा अन्यथा बेमौत मारा जाएगा । उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं है।  मुक्ति का एकमात्र रास्ता संघर्ष ही है किसी की सहानुभूति या कृपा नहीं।कोई अवतार मुक्ति नहीं दिला सकता है बल्कि सामूहिक और संगठित संघर्ष से ही मुक्ति संभव है।नागार्जुन मानते हैं - जुलुम मिटाएंगे धरती से /इसके साथी और संघाती /यह उन सबका लीडर होगा। लीडर भी कैसा होगा ? इस पर कवि बिल्कुल स्पद्गट है, जो लीडर होगा वह -सबके दु:ख में दु:खी रहेगा/सबके सुख में सुख मानेगा / समझ-बूझकर ही समता का / असली मुद्दा पहचानेगा। वह कर्म वचन का पा होगा । वह अपने स्वार्थपूर्ति के लिए लीडर नहीं बनेगा। वह वोट की राजनीति करने वाला नेता नहीं होगा। शोषण समाप्त करने के इसके अपने तरीके होंगे। किन्ही बने बनाए नियमों -सिद्धांतों से नहीं बॅधा होगा- इस कलुए की तदबीरों से /शोषण की बुनियाद हिलेगी । इस कविता से यह बात भी निकलकर आती है कि दलितों का उद्धार कोई बाहर से आया नेता नहीं करेगा बल्कि उन्हीं के बीच से नेतृत्व उभर कर आएगा-श्याम सलोना यह अछूत शिशु /हम सब का उद्धार करेगा। एक बात और यह अकेला नहीं होगा-  दलित माओं के /सब बच्चे अब बागी होंगे/अग्निपुत्र होंगे वे ,अंतिम /विप्लव में सहभागी होंगे।।।।।।।। होंगे इसके सौ-सहयोद्धा/लाख-लाख जन अनुचर होंगे।।।।। इस जैसे और भी होंगे- अभी जो भी शिशु / इस बस्ती में पैदा होंगे/सब के सब सूरमा बनेंगे/सब के सब ही द्रौदा होंगे।।।।।  इस रास्ते पर ही चलकर मुक्ति संभव है। यह मुक्ति संघर्ष वर्गीय और जातीय दोनों तरह का  होगा। इस संघर्ष में शत्रु केवल उच्च जाति का ही नहीं बल्कि उच्च वर्ग का भी है। यहॉ सवाल केवल सामाजिक नहीं आर्थिक भी है।ये दोनों लड़ाइयॉ साथ-साथ लड़नी होंगी। केवल जाति मुक्ति से शोषण से मुक्ति नहीं होगी । नागार्जुन साफ-साफ बताते हैं कि लड़ाई किस-किस के बीच होगी-बड़े-बड़े इन भूमिधरों को /यदि इसका कुछ पता चल गया /दीन-हीन छोटे लोगों को /समझो फिर दुर्भाग्य छल गया ।  इस लड़ाई में "जनबल धनबल सभी जुटेगा"। इसके लिए एक दल का होना उन्हें जरूरी लगता है- इसकी अपनी पार्टी होगी/इसका अपना ही दल होगा। " बलचनमा" उपन्यास के इस अंच्च के साथ इन पंक्तियों को पढ़ते हुए नागार्जुन की बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है- बाहरी लीडरों के भरोसे मत रहिए अपना नेता आप खुद बनिए । ।।।।।लीडर लोग तो आपकी कमाई का हलवा खाकर लेक्चर देने आते हैं और अपने दिमाग व पेट की बदहजमी मिटाते हैं ।।।।आप लोग सब कुछ पैदा करते हैं तो अपना लीडर भी अपने यहॉ पैदा कीजिए । जो आपका आदमी होगा वही आपकी तकलीफों को समझेगा ।।।आप अकेले नहीं हैं करोड़ों की तादाद है आपकी । आप जब उठ खड़े होंगे और एक कंठ हुंकार करेंगे तो जालिम जमींदारों का कलेजा दहकने लगेगा।वे हैं ही कितने दाल मंे नमक के बराबर । अपने बल पर नहीं सरकारी अफसरों के बल पर ही जुल्म करते हैं।
  आगे वे कहते हैं- हिंसा और अहिंसा दोनों /बहनें इसको प्यार करेंगी/ इसके आगे आपस में वे /कभी नहीं तकरार करेंगी। यहॉ नागार्जुन इस बात को बहस का विषय नहीं मानते कि संघर्ष हिंसक होगा कि अहिंसक बल्कि वे मानते हैं आंदोलन की आवश्यकता इसका निर्धारण करेगी। वक्त की जरूरत के अनुसार जनता अपना रास्ता स्वयं चुन लेती है।  इस तरह दलित मुक्ति का यह एकदम अलग तरीका है। यही सही तरीका भी है। इसी से दलित मुक्ति सच्चे अर्थों में संभव है। यही होगी संपूर्ण क्रांति । यहॉ यह सम्पूर्ण क्रान्ति ,जयप्रकाच्च नारायण वाली संपूर्ण क्रांति नहीं है।उससे नागार्जुन का मोहभंग हो गया था । अपने एक साक्षात्कार में वे कहते हैं ,"" जयप्रकाच्च नारायण के नेतृत्व में चलने वाले आंदोलन के वर्ग-चरित्र को मैं अंध कांग्रेस विरोध के प्रभाव में रहने के कारण नहीं समझ पाया।"संपूर्ण क्रांति" की असलियत मैंने जेल में समझी । सीवान,छपरा और बक्सर की जेलों में "संपूर्ण क्रांति" के जो कार्यकर्त्ता थे,उनमें अस्सी प्रतिश्त जनसंघी और विद्यार्थी परि्षद वाले थे।सो्शलिस्ट पार्टी के कार्यकर्त्ता दाल में नमक के बराबर थे और भालोद के कार्यकर्त्ता दाल में तैरते हुए जीरे के बराबर ! औद्योगिक और खेत-मजदूर न के बराबर थे। हरिजन भी इक्के-दुक्के ही थे। यह सब देखकर मैं समझ गया कि यह आंदोलन किन लोगों का था ।""  इसके बाद से  उसे वे  झूठी  क्रांति कहने लगे थे क्योकि वे मानते थे कि संपूर्ण क्राति के लिए समाज के सभी दमित-शोषित वर्गों और जातियों का प्रतिनिधित्व होना जरूरी है। यह बात उन्हें जयप्रकाच्च नारायण की संपूर्ण क्रांति में नहीं दिखाई दी। संपूर्ण क्राति के लिए नागार्जुन वर्गीय एकता और जातीय एकता जरूरी मानते हैं इस कविता में पहले वे कहते हैं - खान-खोदने वाले सौ-सौ /मजदूरों के बीच पलेगा/युग की ऑचों में फौलादी /सॉचे सा वह वहीं ढलेगा। दूसरी जगह वे लिखते है- झरिया ,फरिया ,बोकारो /कहॉ रखोगे छोकरे को ? वहीं न ? जहॉ अपनी बिरादरी के /कुली-मजूर होंगे सौ-पचास ? जातीय एकता से ही वर्गीय एकता का विस्तार संभव है ,उक्त पंक्तियों से यही ध्वनि निकलती है।
  नव शिशुका सिर सूंघ रहा था /विह्वल होकर बार-बार वो। इन पंक्तियों में आने वाले नए समाज के संकेत दिए गए हैं जिसके बारे में सोच-सोचकर गुरू महाराज खुश हुए जा रहे हैं। वे आने वाले समाज की कल्पना करते हैं कि उस समाज में सारी धरती पर दलित-मजदूरों का राज होगा ।  इस समाज के नए नियम-कानून होंगे जिससे -च्चोद्गाण की बुनियाद हिलेगी ।  इसमें दलितों को न केवल राजनीतिक वर्चस्व  बल्कि सांस्कृतिक वर्चस्व का नायक भी बताया गया है- दिल ने कहा -अरे यह बालक /निम्न वर्ग का नायक होगा/नई ऋचाओं का निर्माता/नये वेद का गायक होगा।  ये पंक्तियॉ उस जरूरत की ओर भी संकेत करती हैं कि दलित मुक्ति के लिए कहीं न कहीं सांस्कृतिक परिवर्तन की भी आवश्यकता होगी। वर्णव्यवस्था का अंत करना होगा , तभी भारतीय समाज में ढॉचागत परिवर्तन आएगा। एक ऐसे ढॉचे का निर्माण होगा जिसमें प्रत्येक मनुष्य को मनु्ष्य समझा जाएगा हैवान नहीं । यह किसी से छुपा नहीं है कि दलितों को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं था। इसलिए भरतमुनि ने इस वर्ग के लिए पॉचवे वेद की बात की । उक्त पंक्तियों को लिखते हुए नागार्जुन के मन में यह बात रही होगी। यहॉ कवि एक ऐसे नए वेद की रचना की बात करता है जो वर्णव्यवस्था जैसी अमानवीय एवं अवैज्ञानिक व्यवस्था को नकारता हो ,उसके स्थान पर समतावादी तथा भेदभाव रहित समाज की सृष्टि करता हो और मानव मात्र को एक इकाई मानता हो। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के समय से ही दलित-मुक्ति को लेकर  दो धाराएं सक्रिय रही हैं  पहली धारा खुद को वर्ग-संघर्ष और वर्ग ईर्ष्यासे अलग रखती है। उनका उद्देश्य अपने समाज को सुधारना और पुनर्गठित करना रहा। वे सवर्ण हिंदुओं से दलितों का केवल सामाजिक-आर्थिक मतभेद मानते थे सांस्कृतिक नहीं। दूसरी धारा इसके विपरीत थी । नागार्जुन इस दूसरी धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं।वे मानते हैं कि सवर्णों की बहुजन समाज के प्रति कभी भी नियत साफ नहीं रही वे संस्कृति और कला में अपना वर्चस्व कभी नही छोड़ना चाहते । इसलिए नए वेद और नई ऋचाओं की सृ्ष्टि जरूरी है। यही मनता नागार्जंुन की प्रस्तुत कविता में व्यक्त हुई है।
    इस कविता में कथा सी रोचकता तथा भरपूर नाटकीयता है। मिथकों का कवि ने बहुत ही सुंदर प्रयोग किया है। गर्भावस्था में प्रभाव ग्र्रहण करने वाली अभिमन्यु की कथा , वारह अवतार द्वारा पृथ्वी के उद्धार की कथा तथा वासुदेव द्वारा कृद्गण को कंस के हाथों बचाने के लिए मथुरा ले जाने की कथा संबंधी मिथकों का प्रयोग करते हुए कविता के फलक को विस्तृत कर दिया गया है। एक दलित बालक को कृष्ण,अभिमन्यु तथा वाराह से जोड़कर कवि ने दलितों के प्रति अपने सम्मान को व्यक्त किया है। उनके प्रति रागात्मकता रखने वाला कवि ही ऐसा कर सकता है। उनकी रागात्मकता ही कही जाएगी कि वे सॉवले रंग के शिशु मुख की छटा को सलोनी और निराली देखते हैं।
  इसमें कोई दो राय नहीं कि "हरिजन गाथा" जातिवादी और सामंती बर्बरता के विरुद्ध उस कवि की उत्कट आकांक्षा का बखान है जो सदियों से शोषित-पीड़ित-वंचित जन को गौरवपूर्ण सुखी मानवीय जीवन जीते हुए देखने के लिए निरंतर बेचैन रहा है।(नंद किशोर नवल) पर कविता की एक पंक्ति  "ऐसा तो कभी नहीं हुआ था।।।।" बार-बार हंट करती है  । यह पंक्ति घटना की भयावहता ,विकरालता और बेचैनी की तीव्रता को व्यक्त करने में तो सहायक है ,मगर  नागार्जुन के इतिहासबोध पर प्रश्न चिह्न भी लगाती है। इस पंक्ति से लगता है कि ना्गार्जुन दलितों की यातना-उत्पीड़न -बर्बबरता के पूरे इतिहास की ओर ऑखें बंद कर लेते  हैं। जबकि सत्यता तो यह है कि सवर्ण जातियॉ सदियों से दलितों का उत्पीड़न करते आ रहे हैं। बहुत पीछे भी न जाकर बिहार की ही बात करें तो सन् 1971ई के आसपास पूर्णिया में एक साथ 14 आदिवासियों को जिंदा आग में झोंक दिया गया। रूपसमुर-चंदवा कांड के नाम से उसे आज भी लोग जानते हैं। हम इतिहास की बात भले न करें हमें काव्य परम्परा के रूप में भी यह दिखाई देता है जब निराला लिखते हैं- श्रुति निगमागम शब्द शूद्र के सीसा कानों में भरते /मंत्रोचार किया तो उसका सर उतार सब दुख हरते । तब यह समझ में नहीं आता है कि नागार्जुन ऐसा क्यों कहते हैं -"ऐसा तो कभी नहीं हुआ था।।।।" या फिर  प्रबल वर्ग ने निम्न वर्ग पर /पहले नहीं किया था ऐसा ।
    नागार्जुन के पूरे जीवन-वृत्त को जानते हुए उनकी नीयत पर बिल्कुल द्राक नहीं किया जा सकता है ,नि:संदेह वे दलितों के प्रखर पक्षधर  तथा ब्राह्मणवादी व्यवस्था के कटु आलोचक रहे लेकिन न जाने क्यों वे ब्राह्मणवादी प्रतीकों के प्रयोग से मुक्त नहीं हो पाए ? नागार्जुन ऐसे प्रतीकों को कविता में इस्तेमाल करते हैं जो द्विज संस्कृति की पहचान है। यह कविता दलितों पर हो रहे अत्याचार-उत्पीड़न का विरोध तो करती है पर ब्राह्मणवादी तदवीरों से परहेज नहीं करती ।   गुरूजी से हाथ दिखवाने वाला प्रकरण रोचक तो है पर हस्तरेखा देख कर भाग्य बताने का तरीका बहुत पुराना है जिसने लोगों में अंधविश्वास को बढ़ाया है। यह शोषण का भी तरीका रहा है। भाग्यफल द्विज संस्कृति का हिस्सा है। यह पूर्वजन्म से भी चीजों को जोड़ता है।यह वह औजार रहा है जिसके माध्यम से ब्राह्मणों ने दलितों को बहुत पहले से ठगा तथा यथास्थिति को कायम रखा । प्रस्तुत कविता में इस प्रतीक का जिस तरह से उपयोग किया गया है वह  कहीं न कहीं एक अंधविश्वास को मान्यता देना है। यह भूलना नहीं चाहिए कि यदि ब्राह्मणवादी व्यवस्था से लड़ना है तो उसके प्रतीकों ,कर्मकांडों , नियम-कानूनों को नकारे  बिना यह लड़ाई आगे नहीं बढ़ सकती है। जबकि नागार्जुन स्वयं यह बात मानते हैं कि निम्न वर्ग का नायक ,नई ऋचाओं का निर्माता तथा नए वेद का गायक होगा अर्थात पुराने वेदों को नहीं मानेगा । उन्हें अस्वीकार करेगा । यह कुछ उसी तरह से है जैसे निम्न जाति के लोग जातिवादी व्यवस्था की आलोचना और विरोध तो करते हैं पर  ब्राह्मणवादी व्यवस्था के उन कर्मकांडों को अपनाते हैं जो इस जातिवादी व्यवस्था के मूल में हैं । यहॉ तक कि वे जातीय पदसोपान क्रम से भी मुक्त नहीं हो पाते हैं। अपने से छोटी कही जाने वाले जातियों के साथ वे वही व्यवहार करते हैं जो उनसे उच्च जातियॉ उनके साथ । आज बहुत सारे दलित आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने के बावजूद ब्राह्मणवादी मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाए हैं। कहना होगा कि वे ब्राह्मण बनने की चाह में इसकी और अधिक गिरफ्त में आ गए हैं। वे उन सारे कर्मकांडों को अपनाने लगे हैं जो द्विज संस्कृति के परिचायक हैं।इनको यह भ्रम है कि ऐसा करने से वे सवर्णों की जमात में शामिल हो जाएंगे। वे भूल जाते हैं कि  जाति का आधार कर्म नहीं जन्म को माना गया है जिससे मुक्ति जाति विहीन समाज के बनने से ही मिल सकती है। मेरी समझ से सच्चे अर्थों में दलित मुक्ति तभी संभव है जब दलितों की लड़ाई सवर्णो से नहीं बल्कि सवर्णवादी मानसिकता से हो।क्या भविष्य के संकेत देने के लिए नागार्जुन किसी और प्रतीक का प्रयोग नहीं कर सकते थे? जैसा कि इसी कविता में आगे " दिल ने कहा " पंक्ति के द्वारा किया भी गया है। यह प्र्श्न बार-बार कचोटता है।
   कविता का शिल्प बहुत मजबूत है। कविता मुक्त छंद में होते हुए भी लयविहीन नहीं है। एक सतत प्रवाह कविता में है। मनुपुत्रों शब्द का भी कवि ने बहुत सुंदर प्रयोग किया है दो जगह यहशब्द आया है और दोनों स्थानों पर अलग-अलग अर्थों को व्यंजित करता है जहॉ पहले मनुपुत्रों का आशय मनु्ष्य के पुत्रों से है तो दूसरे का मनुवादी सोच के सवर्णों से । पहले अभागे हैं तो दूसरे सौभाग्य्शाली । यहॉ व्यंग्य भी है। कविता की भा्षा सहज संप्रेद्गाणीय है।कविता में चाक्षुष बिंब बहुत सुंदर हैं। पूरे-पूरे चित्र ऑखों के सामने उतर आते हैं,उदाहरण के लिए संत गरीबदास का यह बिंब- बकरी वाली गंगा-जमनी दाड़ी थी /लटक रहा था गले से / अंगूठानुमा जरा -सा टुकड़ा तुलसी काठ का /कद था नाटा ,सूरत थी सॉवली /कपार पर ,बाई तरफ घोडे के खुर का/निशान था /चेहरा था गोल-मटोल ,ऑखें थी घुशी /बदन कठमस्त था ।।।।।
  यहॉ एक बात और कहना चाहुंगा- दलित साहित्यकार, दलित साहित्य का उद्देश्य दलित्व की मुक्ति ,शूद्रत्व से मुक्ति ,ऊॅच-नीच के पदानुक्रम से मुक्ति ,शोषण से मुक्ति और समतावादी समाज की सृ्ष्टि और स्थापना मानते हैं। हम पाते हैं कि "हरिजन गाथा" कविता इन सभी उद्देश्यों से युक्त  है। कुछ सीमाओं को छोड़ दे तो यह इस बात का खंडन करती है कि दलित साहित्य केवल दलित ही लिख सकता है या दलित साहित्य दलितों का दलितों के बारे में लिखा साहित्य है। वैसे भी  ऐसा कहना उन सभी रचनाकारों को दलित मुक्ति आंदोलन से दूर कर देता है जो खुद को डिकास्ट करके इस आंदोलन में शामिल होना चाहते हैं। यह आंदोलन की मजबूती की दृष्टि से सही समझ नहीं कही जा सकती है। यह कविता दलितों के प्रति सवर्णों के व्यवहार पर चोट करने या प्रश्न उठाने तक सीमित नहीं है बल्कि उसको बदलने की दि्शा भी बताती है। जबकि इससे पूर्व की दलित चेतना की कविताओं में हम पाते हैं कि उनमें वर्णव्यवस्था ,अश्यपृ्श्यता या दलितों की दयनीय स्थिति पर केवल प्र्श्न खड़े किए गए हैं । ये चाहे हीरा डोम या स्वामी अछूतानंद की कविताएं रही हों या किसी और की । इस प्रकार यह कविता एक कदम आगे की कविता है। इसमें वर्गीय और जातीय संघर्ष एक साथ चलाने  की बात की गई है। एक ओर वे जहॉ मजदूरों की एक जुटता की बात करते हैं तो दूसरी ओर जाति विरादरी की । यह कविता एक बड़े समुदाय को चेतना युक्त करके अपने स्वाभिमान और अधिकारों को प्राप्त करने के लिए प्रेरित करती है। भूमिहीन मजदूरों के भीतर एक ताकत पैदा करती है। एक स्वाभिमान जगाती है। नया जोश देती है। दुर्गति ,हीनता और परमुखापेक्षिता से बचाती है। नई ऊर्जा का संचार करती है। पाठक के हृदय को परदुखकातर और संवेदन्शील बनाती है। इस कविता में कवि की आकांक्षा है कि दलित उठ खड़े होंगे और अपने साथ हो रहे अत्याचार-उत्पीड़न का संगठित होकर विरोध करेंगे । अंतत: समता का मुद्दा समझते हुए एक समतावादी व शोषण विहीन समाज की स्थापना करेंगे । इसके लिए मौजूदा पीढ़ी को अपनी तैयारी करनी होंगी । बूद्धू , खदेरन ,सुखिया ,संत गरीबदास आदि को अपना-अपना योगदान देना होगा। "अंतिम विप्लव" अपने समय पर होगा लेकिन उसकी तैयारी अभी से करनी होगी। ऐसे में दलित चेतना की कविताओं में इस कविता का जिक्र न होना थोड़ा खलता है। जबकि इसमें दलित जीवन की पीड़ा सिद्दत से व्यक्त हुई है। यह दूसरी बात है कि यह भोगी हुई पीड़ा नहीं है।
  अंत में प्रसंगानुकूल एक बात और जोड़ना चाहुंगा कि इस बात पर विचार होना चाहिए कि क्या दलित साहित्य वही होगा जो दलितों द्वारा लिखा गया हो जैसा कि अनेक दलित चिंतकों द्वारा कहा जाता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि श्रेष्ट साहित्य के लिए केवल जीवनानुभव का होना ही पर्याप्त नहीं है साहित्य के लिए वि्श्वदृ्ष्टि का होना भी जरूरी है।जब तक हम स्थितियों का द्वंद्वात्मक तरीके से विश्लेषण नहीं करेंगे तो हम भावुकता के शिकार हो जाएंगे। कोरी भावुकता किसी रचना को कालजयी नहीं बना सकती है। हॉ यह अवश्य स्वीकार किया जा सकता है कि एक दलित साहित्यकार जिसके पास जीवनानुभव के साथ-साथ गहरी वि्श्वदृ्ष्टि भी है तो दलित जीवन के बारे में लिखा गया उसका साहित्य गैर-दलित साहित्यकार के द्वारा लिखे गए साहित्य की अपेक्षा अधिक प्रमाणिक होगा।

इस कविता पर एक अन्य टिप्पणी यहां भी पढ़ी जा सकती है ।- वि.गौ.










 

Monday, August 20, 2012

बीमारी के बाद की थकान

पिछले दिनों आंतो के इंफ़ेक्शन से पीड़ित हो जाने के बाद अस्वस्थ हो चुके  दलित धारा के रचनाकार- कवि, कहानीकार, आलोचक और रंगकर्मी ओमप्रकश वाल्मीकि अब आपरेशन सफ़ल हो जाने के बाद स्वास्थय लाभ ले रहे। उनसे हुई  टेलीफ़ोन वार्ता यूं तो नितांत व्यक्तिगत है पर बहुत से मित्रों के जिक्रों के साथ उसका होना मुझे उसे सार्वजनिक करने को उकसा रहा है। बहुत धीमी लेकिन जीवन के उल्लास से भरी खरखराहट में वाल्मीकि जी का यह कहना कि मैं अपने उन सभी मित्रों के प्रति आभारी हूं जिन्होंने बहुत करीब रहते हुए अपनी भौतिक उपस्थिति से या बहुत दूर रहते हुए भी तरह तरह के माध्यमों से इस कठिन घड़ी में मेरा हौंसला बढ़ाया, मैं उन सबके प्रति पूरे दिल से आभारी हूं। खासतौर पर जे एन यू के उन क्षात्रों का जिक्र वे नाम लेकर कर रहे थे जिन्होंने उनके लिए रक्त दान  किया। कुछ डाक्टरी जांच आदि निपटा कर महीने भर के विश्राम के बाद ओमप्रकाश वाल्मीकि अपने घर देहरादून लौटंगे तब तक अपने पारिवारिक लोगों के साथ दिल्ली में ही विश्राम करेंगे।  वैसे वे अब अपने को पूरी तरह से स्वस्थ मह्सूस कर रहे हैं लेकिन बीमारी के बाद की थकान का असर उनकी खरखरी आवाज में सुना जा सकता है।

Thursday, July 26, 2012

सारी भागमभाग को धता बताती कविताएं

 &a   - महेश चंद्र पुनेठा 
 punetha.mahesh@gmail.com
   


जनपदीय चेतना और लोकधर्मी काव्य प्रवृतितयों के लिए इधर की हिंदी कविता में जिन युवा कवियों का नाम लिया जाता है उनमें आत्मारंजन का नाम उल्लेखनीय हैं। उनकी कविताओं की सबसे बड़ी खासियत है कि उनके यहाँ हिमाचल का पूरा जन-जीवन अपने भूगोल-इतिहास और संस्कृति के साथ उपसिथत होता है। प्रकृति अपनी विविध छटाओं के साथ दिखती है। वहाँ का श्रमशील जन जो पूरी मुस्तैदी के साथ सभ्यता-विकास के तमाम रास्ते अपनी देहों पर उठाए हुए है तथा समाज की अर्थव्यवस्था को 'डंगा की तरह ढहने नहीं देता है] उनकी कविताओं का नायक है। वे स्थानीयता को समकालीन समय की जटिलताओं के बीच रखकर देखते हैं। कवि की अनुभूति और संवेदना का साधारण ,वंचित और उपेक्षित से गहरा रिश्ता है। समाज का हर उपेक्षित और हाशिए में पड़ा उनकी कविता के केंद्र में आता है। वह किसान-मजदूर हो या फिर स्त्री व बच्चा। जो शुचिता के ऊँचे चबूतरे पर विराजमान नहीं है और जिसके पास न देव संस्कृति से जुड़े होने का गौरव है] न महान ग्रंथों में दर्ज मुग्धकारी इतिहास और जो न कोई महान धर्माचारी या महानायक हैं उनकी कविताओं में गौरव प्राप्त करता है। उनकी कविता इस बात की गवाही देती है कि है---- कि जो पूजा नहीं जाता‍/ नहीं होता इतिहास के गौरवमयी पन्नों में दर्ज वह भी अच्छा हो सकता है। वे लोक की रग-रग से वाकिफ हैं उसकी जीवन-गंध उनकी कविताओं में बसी है। वे पनिहारनों और घसियारनों से बतियाये हैं तथा उनके सुख-दुख के मर्म को समझते हैं। उनके सद्य प्रकाशित पहले कविता संग्रह पगडंडियाँ गवाह हैं की कविताएं इस बात की प्रमाण हैं।
    प्रस्तुत संग्रह की कविताओं में लोकगीतों की गूँज भी है और समूची मानवीय हलचल में डोलते-लहराते लोकवृक्ष की लय भी। यह कवि दूर महानगर में बैठा स्मृतियों के आधार पर अपने अंचल पर या छूटी चीजों पर कविता नहीं लिख रहा बलिक लहराते मकई के खेतों के छोर पर खड़ा सामने पसरे खेतों को देख कविता रच रहा है अर्थात अपनी जमीन पर रच-बस कर। वह पहले कसकती तान की गूँज को अपने भीतर महसूस करता है फिर अपनी कविता में उतारता है। खोती जा रही सामूहिकता की जीवन-संस्कृति के बारे में पूछता है- कहाँ है वह गाँव भर से जुटे बुआरों का दल

 कहाँ है वह बाजों-गाजों के साथ चलती गुड़ार्इ का शोर.....युवक-युवतियों के टोलों के बीच
.....किसी का काम न छूटने पाएबारी-बारी सबके खेतों में उतरता सारा गाँव। आज कहाँ रह गयी यह चिंता। व्यकितवाद हावी हो गया है। धन के बढ़ते प्रभाव ने एक आदमी को दूसरे आदमी की जरूरत को ही समाप्त कर दिया है। भार्इ-बिरादर या पड़ोसी की अहमियत को कम कर दिया है। जिसके पास धन है उसे रिश्तों बोझ लगने लगे हैं।  आज सिथति यह हो गयी है- खेतों में अपने-अपने जूझ रहे सब खामोशपड़ोसी को नीचा दिखातेखींच तान में लीनजीवन की आपाधापी में जाने कहाँ खो गयासंगीत के उत्सव का संगीत। जीवन का बदलना स्वाभाविक और जरूरी  है पर उसके चलते जीवन के मानवीय-मूल्यों और सकारात्मक तत्वों  का समाप्त होना अवश्य चिंता का विषय है। वही चिंता यत्र-तत्र इन कविताओं में आती है। बोलो जुलिफया रे कविता में कवि के लिए जुलिफया मात्र एक गायन शैली नहीं है जो बुआरा प्रथा में सामूहिक गुड़ार्इ के अवसर पर लोक वाधों की सुरताल के साथ गाया जाता है बलिक- मिटटी की कठोरता में उर्वरता औरजड़ता में जीवन फूँकतेकठोर जिस्म के भीतर उमड़तेझरने का नाम है जुलिफयाचू रहे पसीने का खारापन लिएकहीं रूह से टपकता प्रेमरागऐसे अनन्य लोकगीत तुम। कवि प्रश्न करता है- कैसे और किसने कियाश्रम के गौरव को अपदस्थक्यों और कैसे हुए पराजित तुम खामोशअपराजेय सामूहिक श्रम की। यह कविता पीड़ा है अपराजेय सामूहिक श्रम और श्रम के गौरव के अपदस्थ होने की एक लोकगायन शैली के लुप्त हो जाने की नहीं।
   रंजन बदलते वर्तमान के आलोक में अपने लोक को देखते हैंं। वे पुनरुत्थानवादी या भावुकता भरा विलाप करने वाले कवि नहीं हैं। उनके लिए लोक की स्मृतियाँ या दृश्य सजावटी सामान की तरह नहीं हैं जैसा कि महानगरों में रहने वाले अभिजात्य लोगों के लिए होता है। वे लोक को भोक्ता की नजर से चित्रित करते हैं। पहाड़ के कठिन जीवन के संघर्षों और कष्टों को कभी नहीं भूलते हैं। जैसे उनके यहाँ बर्फवारी के सौंदर्य का जिक्र आता है तो उससे स्थानीय जनों को होने वाली परेशानी का भी....जाड़ा कृतार्थ कर जाता शिखरों कोपेड़ भी सहार लेते बर्फ लेकिन घास -मौत से जूझती हर बारकि जीने की शर्त है धूपदिनों हफतों कभी महीनों तकतरसती धूप कोओढे़ हुए छीजत-सी आशा और विश्वासमर-मर कर जीती है घास। इस कविता में घास आम-पहाड़ी की प्रतीक है जो बर्फवारी के कष्टों के बोझ को झेलता है। यहाँ एक है जो बर्फ से लड़ता है और दूसरा जो बर्फ से खेलता है। लड़ने वाला वह है जो बर्फ के आसपास या बीच रहता है और खेलने वाला जो दूर देश से बर्फवारी का आनंद लेने आता है-दौड़ आते दूर-दूर सेपर्यटकों के टोलेभर-भर गर्म कपड़े गर्म सामानदिन-भर पहाड़ों के पेड़ों का सौंदर्यकैद करते आयातित कैमरों मेंमोटे दस्ताने चढ़े हाथ मजे से खेलते बर्फ। एक ओर बर्फ पर चलने की मजबूरी ढोताआदमी है तो दूसरी ओर छकता हुआ बर्फ का विलास । बर्फ पर चलता हुआ आदमी कविता में कवि इन दोनों की चाल की भिन्नता को पकड़ता है। साथ ही सुनता है बर्फ में चलने के लिए मजबूर आदमी के बच्चों से लेकर मवेशियों तक के कट-कटाते दाँतों की आवाज ,बर्फानी हवाओं की सिहरन उससे भी अधिक पिछले वर्ष बर्फ में मिली लाशों की डरावनी स्मृतियों की सिहरन। जिनके लिए बर्फ आश्चर्य नहीं बलिक आफत है जिसके चलते वह बर्फ को सराहता नहीं कोसता है। कवि आम और खास के बीच के अंतर को अच्छी तरह जानता है।टहलते हुए आदमी और काम पर जाते या लौटते आदमी के अंतर को अच्छी तरह पहचानता हैं। दो अलग-अलग वर्गों की दुनिया के दृश्यों को आमने-सामने रखते हुए कवि उनके बीच के अंतर को बखूबी उभार देता है। अलग से कुछ कहने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। 
   भागते हाँफते समय के बीचाेंबीच सारी भागमभाग को धता बताते हुए आत्मारंजन तमाम व्यस्तताओं को खूँटी पर टाँग कविता लिखने बैठते हैं तो पूरी तन्मयता और पूरी तल्लीनता  से अपने जन और जनपद के सौंदर्य को नर्इ ऊँचाइयाँ प्रदान करते हैं और विद्रूपताओं को दाल के कंकड़ों की भाँति छाँट देते हैं। कुछ उसी तरह जैसे प्रस्तुत संग्रह की पहली कविता में कंकड़ छाँटती स्त्री। एक स्त्री की अन्न को निष्कंकर होने की गरिमा भरी अनुभूति और इस कवि की अपने जन के हर्ष-विषाद को स्वर देने की अनुभूति में बहुत अधिक समानता है। तभी तो कवि दाल में से कंकड़ छाँटती औरत के हाथ को इस रूप में देख पाता है-एक स्त्री का हाथ है यहजीवन के समूचे स्वाद में सेकंकड़ बीनता हुआ। वास्तव में एक स्त्री दाल से ही कंकड़ नहीं बीनती बलिक जीवन में आने वाले तमाम कंकड़ों को बीनकर जीवन को स्वादिष्ट बनाती है। पर दुखद है कि हमारे जीवन में इतनी महत्वपूर्ण स्थान रखने वाली स्त्री का जीवन हाँडी के जीवन से बहुत अलग नहीं है। कितनी समानता है इन दोनों में -तान देती है जो खुद को लपटों परऔर जलने कोबदल देती है पकने में। स्त्री खुद तमाम कष्ट सहन करते हुए अपने परिजनों के लिए सुख का संसार रचती है। उसका श्रम, महक ,स्वाद.....हाँडी की तरह है उसका जीवन जो खुद जलकर दूसरों को स्वादिष्ट भोजन उपलब्ध कराती है। कवि प्रश्न करता है-सच-सच बताना क्या रिष्ता है तुम्हारा इस हाँडी से माँजती हो इसे रोजचमकाती हो गुनगुनाते हुएऔर छोड़ देती हो उसका एक हिस्साजलने की जागीर साखामोशी से। इस कविता में कब हाँडी स्त्री में बदल जाती है पता ही नहीं चलता है। स्त्री की सदियों की खामोशी और भरे मन की बेचैन कर देने वाली अभिव्यकित यहाँ दिखती है। यह आत्मारंजन का कवि-कौशल कहा जाएगा कि उन्होंने हमारे समाज में स्त्री की सिथति को बताने के लिए बहुत सटीक प्रतीक का प्रयोग किया है।
  इधर युवा कवियों की एक बात के लिए प्रशंसा की जानी चाहिए कि स्त्री को लेकर उनमें गहरी संवेदनशीलता के दर्शन होते हैं। वे उसके दु:ख-दर्द को शिददत से महसूस करते हैं। स्त्री के प्रति उनका रवैया पुरुषवादी नहीं है। वे उसकी बराबरी के पक्षधर हैं। उसके योगदान को मुक्तकंठ से स्वीकार करते हैं तथा उसके प्रति कृतज्ञता-भाव से भरे हैं। उन्हें औरत की आँच नंगे बदन में नहीं ,उसके प्रेम-स्नेह-ममता में महसूस होती है-जो पत्थर ,मिटटी ,सिमेंट को सेंकती हैबनाती है उन्हें एक घर। वे जानते हैं स्त्री-पूजने से जड़ हो जाएगीकैद होने पर तोड़ देगी दम। उसे तो चाहिए बस अपने जीवन के बारे में निर्णय लेने की स्वतंत्रता और मानव की गरिमा। खुलकर हँसने की आजादी ताकि उसे हँसते हुए यह अपराधबोध न हो कि-ऐसे हँसना नहीं चाहिए था उसेवह एक लड़की है। आत्मारंजन अपनी कविताओं में औरत की इस विडंबना पर सटीक चोट करते हैं और उसकी पारदर्शी हँसी जो सुबह की ताजा धूप सीहवाओं में छिटकी है ,से हमारा परिचय कराते हैं। इतना  सुंदर बिंब वही कवि रच सकता है जो स्त्री का सम्मान करता हो और सुविधा,लाभ या मनोरंजन केअर्थों से दूर हो । उसे ही एक स्त्री का होना एक सुखद उपसिथति लग सकती है।
    कुछ ऐसा ही सम्मान कवि  का श्रमसंलग्न लोगों के प्रति भी दिखार्इ देता है। वे श्रम से जुड़ी कि्रयाओं को एकदम अलग तरीके और उनके वास्तविक रूप में देखते हैं। उनकी तह में जाकर समझते हैं। उनमें गहरी अंतदर्ृषिट के दर्शन होते हैं। हममें से अनेक कवियों ने किसान-मजदूरों को श्रम करते हुए थक जाने पर सुस्ताने के लिए पृथ्वी पर लेटे हुए देखा होगा पर किसी ने उनकी तरह नहीं देखा। उन्हें पृथ्वी पर लेटना पृथ्वी को भेंटना लगता है। यह भेंटना पृथ्वी और उसके पुत्रों के बीच रिश्ते की आत्मीयता और प्रगाढ़ता को बताता है। वास्तव में धरती के लाडले बेटे का पृथ्वी पर लेटने का अंदाज ही उसे भेटने जैसा हो सकता है। पृथ्वी से उसका संबंध उसी तरह का हो सकता है जैसा एक बेटे का अपनी माँ की गोद से। यहाँ कवि ने श्रम करते हुए थकी हुर्इ देह का पृथ्वी में लेटने का जो चित्रण किया है वह अदभुत है। ऐसी अलट नींद से किसे ना र्इष्र्या हो उठे। इस नींद में कहीं ना कहीं श्रम का आनंद छुपा हुआ है। इस तरह पृथ्वी में लेटना वास्तव में-जिंदा देह के साथजिंदा पृथ्वी पर लेटना है। कवि इसमें जिस तरह का सुख देखता है वह उसकी शारीरिक श्रम के प्रति अगाध आस्था केा बताता है।एक कवि और मजदूर-किसान ही इस सुख का अनुभव कर सकता है। पृथ्वी से थोड़ा ऊपर जीने वाले इस सुख को नहीं अनुभव कर सकते और न वे  मिटटी की महकधरती का स्वाद जान सकते हैं । एक कवि ही आलीशान गददों वाली चारपाइयों में सोने के सुख को इस तरह अंगूठा दिखा सकता है। इस कविता को पढ़ते हुए कबीर याद हो आते हैं-मिटटी से बेहतर कौन जानता हैकि कौन हो सका है मिटटी का विजेतारौंदने वाला बिल्कुल नहींजीतने के लिएगर्भ में उतरना पड़ता है पृथ्वी केगैंती की नोक,हल की फालया जल की बूँद की मानिंदछेड़ना पड़ता हैपृथ्वी की रगों में जीवन रागकि यहाँ जीतना और जोतना पर्यायवाची हैंकि जीतने की शर्तरौंदना नहीं रोपना हैअनंत-अनंत संभावनाओं कीअनन्य उर्वरताबनाए और बचाए रखना। यहाँ कविता मिटटी की महत्ता को भी बताती है और सृजन की भी। सही अथोर्ं में जीतना दूसरे को रौंदना नहीं है बलिक रोपना है अर्थात जीत ध्वंस करने में नहीं बलिक सृजन करने में है। इस कविता को पढ़ते हुए किसी भी शारीरिक श्रम करने वाले का मन एक अतिरिक्त गरिमा से भर उठेगा। उसे अपना काम दुनिया का सबसे बड़ा काम लगने लगेगा। यह संग्रह की बेहतरीन कविताओं में से एक है। कवि ने मिटटी में मिलाने तथा धूल चटाने जैसे मुहावरों की बहुत तर्कसंगत व्याख्या की है। निशिचत रूप से ये  मुहावरे विजेताओं के दंभ की उपज और पृथ्वी की अवमानना  हैं। उस आदमी की अवमानना है जो धूल-मिटटी में लेटा-लौटा रहता है। पृथ्वी और उसके बेटों से प्रेम करने वाला कवि ही उसके निहिताथोर्ं को इस तरह से पकड़ सकता है। खुद को  जमीन से जुड़ा कहने वाला  कवि भी न जाने कितनी बार इन मुहावरों का प्रयोग करता है। कुछ उसी तरह से जैसे स्त्री का सम्मान करने वाला भी जाने-अनजाने गुस्से में  माँ-बहन  की गाली दे देता है।
 इसी तेवर की एक अन्य कविता है पत्थर चिनार्इ करने वाले। कविता को पढ़ते हुए बचपन के वे दिन याद हो आते हैं जब मिस्त्री को दीवार चिनते हुए देखते थे तो देर तक डिबिया की तरह पत्थर काटते-छाँटते-बैठाते  हुए उसे देखते ही रहते थे। बहुत आनंद आता था। उस बात का बहुत हू-ब-हू चित्रण इन पंकितयों में मिलता है-कि डिबिया की तरहबैठने चाहिए पत्थरखुद बोलता है पत्थरकहाँ है उसकी जगहबस सुननी पड़ती है उसकी आवाजखूब समझता है वहपत्थर की जुबानपत्थर की भाषा में बतिया रहा हैसुन रहा गुन रहा बुन रहाएक-एक पत्थर। इस कविता में एक ओर श्रम का सौंदर्य है  तो दूसरी ओर सृजन का सौंदर्य। यह महत्वपूर्ण बात है कि कवि कला को श्रम से अलग नहीं मानता है -आदिम कला है यहसदियों से संचित। बरसों से सधी हुर्इपहुँच रही है एक-एक पत्थर के पासर्इंट नहीं है यहसुविधाजनक साँचों में ढलकर निकली। इस कविता में स्थापत्य कला की बारीकियाँ उतर आयी हैं। यह कविता कवि की इन शिल्पकारों से निकटता को बताती है। उनकी एक-एक गतिविधि पर कवि की बारीक नजर है। कवि कितनी गहरार्इ से जुड़ा है चिनार्इ करने वालों से ये पंकितयां उसकी साक्ष्य हैं- पत्थर चुनता है वहपत्थर बुनता हैपत्थर गोड़ता हैतोड़ता है पत्थरपत्थर कमाता है पत्थर खाता हैपत्थर की रूलता पड़ताधूल मिटटी से नहाता हैपत्थर के हैं उसके हाथपत्थर का जिस्मबस नहीं है तो रूह नहीं है पत्थरपत्थरों के बीच गुनगुनाताएक पत्थर को सौंपता अपनी रूह। यहाँ उसकी कला ही नहीं बलिक उसका संघर्ष और संवेदनशीलता (भीतर-बाहर) भी कविता में व्यंजित होती है। पत्थरों के बीच रहने वाला खुद पत्थर नहीं है। उसकी रूह नहीं है पत्थर। यही उसकी सबसे बड़ी खासियत है जिसके चलते वह कविता की विषयवस्तु बना। कवि की यह पारखी नजर ही कही जाएगी जो लगभग उपयुक्त विकल्प पर ही टिकती है। यहाँ बस नहीं है तो रूह नहीं है पत्थर कहकर कवि बिना कहे यह बात कह देता है कि श्रम से दूर रहने वाले लोग किस तरह आज पत्थरहोते जा रहे हैं।
  उनकी कविताओं की बनावट उतनी सरल नहीं है जितनी दिखती है। समाज में फैले बेढंगेपन और कठोरता के बीच से वे मजबूत कविता बुन लेते हैं। उनकी कविताओं में कब सजीव चीजें निर्जीव चीजों के भीतर और कब निर्जीव सजीव के भीतर प्रवेश कर जाती हैं पता ही नहीं चलता है। ये उनकी कविता की बहुत बड़ी खासियत है। रंजन की कलम में जादू है वह सामान्य काम को भी कला की ऊँचार्इ प्रदान कर देती है। समाज के बेकार कहलाने वाले उपेक्षित अंग को केंद्र में रखकर वे जिंदा कविता बनाते हैं,कुछ उसी तरह जैसे यह शिल्पी-बेकार हो चुके के भीतर खोजता रचता उसके होने के सबसे बड़े अर्थबेकार हो चुके के भीतर खोजता रचतापृथ्वी के प्राणपृथ्वी को चिनने की कला है यहटूटी-बिखरी पृथ्वी कोजोड़ने-सहेजने की कलारचने,जोड़ने,जिलाने कासौंदर्य और सुख! किसी कला की सार्थकता भी इसी में है। कविता पर भी यह बात पूरी तरह लागू होती है। ये वही मिस्त्री हैं जो तीखी ढलान की जानलेवा साजिशों के खिलाफ मजबूत डंगा का निर्माण करते हैं।
  युवा कवि आत्मारंजन के कविता संसार में श्रम करने वालों से भरा-पूरा है। खुदार्इ-चिनार्इ करने वालों के बाद रंग पुतार्इ करने वालेउनकी कविता में दिखार्इ देते हैं। इनकी जीवन-प्राथमिकता,जीवन सिथतियाँ ,विडंबनाएं ,हुनर की बारीकियाँ आदि इस कविता में चित्रित हुर्इ हैं-रंगों से खेलते रहते हैं वे अपने पूरे कला-कौशल के साथपर कोर्इ नहीं मानता इन्हें कलाकारवे जीते हैं पुश्त दर पुश्त अनामहालांकि कम नहीं है इनकी भी रंगों की समझ.....कितना सधा है उनका हाथदो रंगों को मिलाती लतरमजाल है जरा भी भटके सूत से। इससे पता चलता है कि कवि हुनरमंद को ही नहीं बलिक उसके हुनर को भी जानता है। कैसी विडंबना है जिनके हाथों में जीवित हो उठते ब्रश और लकदक हो उठते हैं रंग , उनके हिस्से हमेशा बदरंग ही आते हैं। इसे कवि तमाम रंगों की साजिश मानता है। कितनी बड़ी बात है कि तमाम कठिनाइयों के बावजूद श्रम करने वाले ये लोग -करते हँसी-ठठा ,बतियातेदूर देहात का कोर्इ लोक-गीत गुनगुनातेरंग पुतार्इ कर रहे हैं वेकहाँ समझ सकता कोर्इखाया-अघाया कला समीक्षकउनके रंगों का मर्मकि छत की कठिन उल्टान मेंशामिल है उनकी पिराती पीठ का रंग। इस तरह रंजन अभिजात्य रूचि के कला समीक्षकों को चुनौती देते हैं। कवि यह कहते हुए कि-चटकीले रंगों में फूटती ये चमकएशियन पेंट के किसी महँगे फामर्ूले की नहींइनके माथे के पसीने पर पड़तीदोपहर की धूप की है। किसी ब्रांड की चमक से ऊपर श्रम की चमक को रखते हैं। वे बताते हैं कि एशियन पेंट लगाने से जो चमक दिखार्इ देती है वह तब तक नहीं होती जब तक श्रम का पसीने का रंग उसमें नहीं मिलता। बाजार की जो चमक-दमक है उसके पीछे भी श्रम की ही ताकत है- हमारी रोजमर्रा की दृश्यावलियों कोखूबसूरत बनाया है इनके रंगों ने। कवि जानता है पृथ्वी की सीलन यदि किसी से कम होती है तो इन्हीं श्रमजीवियों से-इन हाथों के पास हैंतमाम सीलन को पोंछने हरने का हुनर। खुरदुरे हाथ ही चमकीली और पत्थर-जिस्म ही कोमल दुनिया का निर्माण करते हैं।दुनिया को सीलन मुक्त करते हैं।  श्रम करने वालों के प्रति ऐसी अगाथ श्रद्धा इधर के बहुत कम युवा कवियों में दिखार्इ देती है। शारीरिक श्रम को कला का दर्जा वही कवि दे सकता है जो जीवन में उसकी अहमियत को समझता है। नागरबोध के मध्यवर्गीय कवि इतनी गहरार्इ तक नहीं उतर सकते हैं। रंजन कदमों की ताकत को स्थापित करने वाले कवि हैं-पगडंडियाँ गवाह हैंकुदालियों ,गैंतियोंखुदार्इ मशीनों ने नहींकदमों ने ही बनाए हैंरास्ते। यह बहुत बड़ा सत्य है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता है। भले कितनी ही मशीनें बना ली जाएं पर आदमी की अहमियत समाप्त नहीं होगी।
 आत्मरंजन की छोटी कविताएं अधिक मारक और बेधक हैं। सीधे मर्म पर चोट करती हैं। ऐसा लगता है जैसे उन्होंने समय की दुखती रग पर हाथ रख दिया हो। वह एक सुर्इ सी चुभा देते हैं जो देर तक अपनी चुभन का अहसास कराती रहती है। हादसे ,तमीज , देवदोष , रास्ते ,शकितपूजा,घर से दूर , आधुनिक घर आदि इसी तरह की कविताएं हैं। इन कविताओं में वे अपने समय और समाज की छोटी-छोटी सच्चाइयों को सूक्ष्मता से रेखांकित करते हैं। अंधविश्वासों-रूढि़यों पर तीखा व्यंग्य करते है। हर छोटी-बड़ी बात पर उनकी सूक्ष्म दृषिट रहती है। यह यथार्थ है कि हम अपनी लकीर को बड़ा करने के लिए दूसरे की लकीर को मिटाने के प्रयास में लगे हैं- लगातार-लगातारतलाश रहे हैं हमदूसरों की कमियाँकि हो सकेंताकतवर। हमारी राजनीति इसकी सबसे अधिक शिकार है।  आधुनिक घर कविता के माध्यम से कवि आधुनिक सभ्यता में सिकुड़ती संवेदना पर करारा व्यंग्य करता है-आधुनिक घरों के पास नहीं हैं छज्जेकि लावारिस कोर्इ फुटपाथी बच्चाबचा सके अपना भीगता सर नहीं बची है इतनी जगहकि कोर्इ गौरैया जोड़ सके तिनकेसहेज परों की आँचबसा सके अपना घर संसार। वास्तव में नहीं बची है इतनी भर जगह जिसमें किसी गरीब-बंचित-उपेक्षित के लिए कोर्इ स्थान हो। यह संकट बाहर की अपेक्षा भीतरी-जगह का अधिक है। दुनिया छोटी होती जा रही हैंं जिसमें मानवीय मूल्यों और भावनाओं के लिए स्थान सिकुड़ता जा रहा है। यह कविता उन लोगों की आँख खोलती है जो यह कहते नहीं थकते हैं कि समाज में यदि किसी भी वर्ग के हिस्से समृद्धि आती है तो उसका लाभ अंतत: समाज के सबसे निचले पायदान पर बैठे व्यकित तक पहुँचता है। जबकि वास्तविकता यह है कि एक वर्ग विशेष की सम्पन्नता दूसरे वर्ग के सिर की छत भी छीन लेती है।
    आत्मारंजन पेशे से शिक्षक हैं। ऐसे में भला बच्चे उनकी दृषिट से ओझल कैसे रह सकते हैं। प्रस्तुत संग्रह में बच्चों को लेकर कुछ बहुत सुंदर और प्यारी कविताएं हैं। बच्चों की सहजवृतित और बाल लीलाएं यहाँ बेहतरीन ढंग से चित्रित हुर्इ हैं। उन्हें बच्चों की जरूरत का पता भी है और उनके बचपन छिनने की चिंता भी। वे मानते हैं कि अभिभावकों की महत्वाकांक्षाएं बच्चों पर बहुत बड़ा बोझ हैंं। हर माँ-बाप चाहते हैं कि उनका लाडला पढ़ने-लिखने में सबसे अब्बल रहे। हर विषय में अच्छे अंक लाए और रहे टाप। खेलकूद में समय बरबाद ना करे। इस बोझ तले बच्चों का बचपन कैसे रौंदा जा रहा है ? उसकी रचनात्मकता को कैसे सुखाया जा रहा है? कैसे उसकी कल्पनाशीलता के पंख कतरे जा रहे हंैं? इसे आत्मारंजन बहुत अच्छी तरह व्यक्त करते हैं। कैसी बिडंबना है कि  आज का अभिभावक अपने बच्चे से तो बहुत कुछ चाहता है पर नर्इ सदी में टहलते हुए इसके पास उसके लिए समय नहीं है। वह अपनी ही दुनिया में  मग्न है। यहाँ तक कि घुमाने ले गए बच्चे से बात करने का भी उसके पास समय नहीं है चिपकाए हुए है कान में मोबाइल। बच्चों को लेकर कवि की चिंता जायज है-यह खुशी की नहीं ,ंिचंता की बात है दोस्तकि उम्र से पहले बड़े हो रहे हैं बच्चे। यह हर संवेदनशील व्यकित की चिंता है। ऐसे में कुछ तसल्ली देता है बच्चों का मौसम,विष ,तनाव और चिंता को धता बताकर खेलना- खेलते हैं बच्चेतब भीजब खेलने लायक नहीं होता है मौसम.....जब दुरस्त नहीं होता शरीर का तापमान.....तब भी जब वक्त नहीं होता खेलने का.....तब भी जब सर पर होती हैं परीक्षाएं (खेलते हैं बच्चे-एक) बच्चों का इस तरह खेलना कहीं ना कहीं बचपन को छीनने की साजिश का प्रतिकार है। लाख कोशिश कर ले जमाना बच्चों से उनका खेलना नहीं छीन सकता है। इस कविता में कवि साफ-साफ बच्चों के पक्ष में खड़ा दिखार्इ देता है विशेषरूप से उन बच्चों के ,जिनसे उनका बचपन भी खुद आँख मिचौली खेलता है- खेलते हैं बच्चेवे भी ,जिनके पास नहीं होते खिलौने....बड़ों की दुनिया का खुरदरापनअंकित है जिनकी नन्हीं हथेलियों में। बचपन के पक्ष में खड़ा कवि ही यह कह सकता है-वे लगते हैं बहुत अच्छेजब उनके बच्चा होने के खिलाफबड़ों की तमाम साजिशों कीखिल्ली उड़ाते हुएखेलते हुए बच्चे! आत्मारंजन इन कविताओं में न केवल बच्चों का पक्ष लेते हैं बलिक बलिक बच्चों की मासूमियत , खरेपन ,निष्कलुषता और निर्दोषता को रेखांकित कर बड़ों की हृदयहीनता और खुरदुरेपन पर भी गहरी चोट करते हैं-जैसे होते हैं बच्चेबड़े कहाँ होते हैं वैसे। बिल्कुल सही कहते हैं- दरअसल हमारा बड़ा हो जाना बच्चा होने के खिलाफएक समझौता हैबाहर बढ़तेंअंदर बौना होते जाने कोदृढ़ता से अनदेखा करजो जितनी कुशलता से इसे ढोता हैदुनिया में उतना ही सफल होता है। ये पंकितयाँ  बच्चों की निर्मलता और खरेपन को ही नहीं बताती बलिक बड़ों की दुनिया से खत्म होते मानवीय मूल्यों की गाथा को भी कहती हैं। कवि इस दुनिया की सुंदरता के लिए हम सब से बच्चों सी निर्मलता एवं निष्कपटता की कामना करता है। कवि  आडंबरी दुनिया से प्रश्न करता है यदि बच्चे भगवान के रूप होते हैं तो फिर बदहाल क्यों हैं? कवि की चाहत है कि- बहुत जरूरी है कि कुछ ऐसा करेंकि बना रहे यहअंगुलियों का स्नेहिल स्पर्शऔर जड़ होती सदी परयह नन्हीं सिनग्ध पकड़कि इतनी ही नर्म उष्मबची रहे यह पृथ्वी। कवि बच्चों की जरूरत को कितनी शिददत से महसूस करता है इसका पता इन पंकितयों से चलता है- उनके खेलने के लिए स्कूल प्रांगण तो क्याछोटी पड़ती हैपूरी की पूरी पृथ्वी । बाल हृदय की गहराइयों को जानने वाला कवि ही ऐसा कह सकता है।
 जो नहीं है खेल कविता खेलों में घुस आए छल-छदम का प्रतिरोध और खेल भावना को बचाने की अपील करती है। यह सच है आज खेल, खेल न रहकर युद्ध में तब्दील हो गए हैं। यह दुखद है। वास्तव में जो नहीं है खेल वहीं बचे हैं खेल। कवि कि्रकेट ,हाकी ,फुटबाल ,टेनिस जैसे लोकप्रिय खेलों के बरक्स गली-मुहल्लों में खेले जाने वाले गिल्ली-डंडा ,पिटठू ,लुका-छुपी ,चोर-सिपाही जैसे खेलों को रखकर कहता है-ओलमिपयाड ,एशियाड या राष्ट्रीय खेलों कीकिसी भी किताब में नहीं है इनका जिक्रखेल वालों के लिए नहीं है येकिसी भी श्रेणी के खेल। यह कविता सोचने को प्रेरित करती है कि आखिर क्यों गल्ली-मुहल्लों के ये खेल जो सदियों से खेले जा रहे हैं खेल की श्रेणी में शामिल नहीं हो पाए? इस तरह खेलों के साथ जुड़ी राजनीति और बाजार के गणित की ओर यह कविता पाठकों का ध्यान खींचती हैं। यह कविता बताती है कि हम जिन्हें खालिस खेल समझते हैं दरअसल वे मात्र खेल नहीं हैं उनके पीछे बहुत कुछ ढका-छुपा है। इस बाजार समय में खेलों को निर्दोष तरीके से नहीं देखा जा सकता है। जब चमक विज्ञापन और व्याख्या परलगार्इ जा रहीसारी की सारी ऊर्जा और मेधा खेल भला उससे कैसे बच सकते हैं। गनीमत है कि बाजार की चमक की चकाचौंध जिन स्थानों तक अभी नहीं पहँुच पायी है वहीं बचे हैं विशु़द्ध खेल जिनका उददेश्य पूरी तरह मनोरंजन की प्रापित है। वहीं बचपन भी बचा है और स्वाभाविकता भी। अन्यथा तो चारों ओर स्मार्ट लोग ही दिखार्इ देते हैं जो अपनी ही दुनिया में खोए हुए हैं जिन्हें धूल और पसीने से गहरी एलर्जी है। जिन्हें बड़ी साजिशों की कोर्इ खबर नहीं है । उन पर कृत्रिम रूप-रंग-गंध का जादू छाया हुआ है । यह जादू चलाने में ओलमिपक ,एशियाड या राष्ट्रीय खेलों की खास भूमिका है। इन स्मार्ट लोगों की दुनिया में-कहीं दबता जा रहा है घरकिताबें नहीं नजर आती हैं कहीं भी , न लाइब्रेरी। इस तरह आत्मारंजन अपनी कविताओं में अपने समय को दर्ज करने की सफल कोशिश करते हैं। कवि की कसौटी मानी जाती है कि वह अपने समय और समाज की गति को पकड़ने में कितना सफल रहा है। इस दृषिट से इस संग्रह की कविताएं हमें संतुष्ट करती हैंं। बाजार समय को कवि पूरी कुशलता से पकड़ता एवं चित्रित करता है। अपने समय की गहरी पहचान इन कविताओं में दिखार्इ देती है। इन कुछ पंकितयों में ही बाजार-समय का चेहरा झलक उठता है-सब कुछ आकर्षक-मोहकनयनाभिरामकैसी मोहक रसीली जुबानसत्कार भरे संबोधन......कहीं भी हो सकता है वह मोहक छलियाबाजार से लेकर घर तक......हमारे समय का सबसे बड़ा जादूगर है वह......किसी भी रूप में हो सकता हैवह बहुरूपियाहमारे आचार-व्यवहार में घुसता........जहाँ लटका है तराजूतोल में ठगे जाने कीसबसे अधिक संभावना भी रहती है वहीं। ......विश्वास बहेलिए की आड़ की तरह किया जा रहा हो इस्तेमाल।........रिश्तों की भीड़ का एकाकीपन.....चुपिपयों का चीत्कार। लेकिन  एक प्रतिबद्ध कवि की खासियत होती है कि समय चाहे कितना ही बुरा और कठिन हो वह निराश-हताश नहीं होता है। वह अपनी कविताओं में एक खूबसूरत दुनिया की सृषिट करना नहीं छोड़ता। मनुष्य को उसकी ताकत का अहसास करता है। आत्मरंजन भी यही काम करते हैं। एक ओर जब बाजार अपनी चमक-दमक से हर कम चमकीली चीज को हाशिए में धकेल रहा है वे हाशिए में उपेक्षित पड़ी चीजों को कविता के केंद्र में लाकर सबका ध्यान आकृष्ट कर रहे हंै और अहसास करा रहे हंै कि उनके बिना आधी-अधूरी और हवार्इ है यह दुनिया। खास के समानांतर आम को खड़ा कर एक नर्इ दुनिया की सृषिट कर रहे हंै। उनके लिए पुराना डिब्बा भी बेकार नहीं होता है रोप दिया जाय उसमें एक फूल का पौंधा फिर जी उठता है पुराना वह। वे र्इश्वर को मानव का रचा बता कर मानव की श्रेष्ठता सिद्ध करते हैं और कहते हैं-तुम्हारी ऊँगली थामे ही तय होता हैघने से घने अंधेरे काअथाह सफर। वे अपील करते हैं-उदास मत हो मेरे दोस्तबहेलियों की कुटिल कालिमा के खिलाफ यूँ ही झिलमिलाते रहो यूँ ही टिमटिमाते कि बची रहे बनी रहेबहती रहे यह सृषिट अविरत अविरल।     
     कुल मिलाकर समीक्ष्य संग्रह की कविताएं जीवन के लिए संघर्ष करती सांसों और राहत की भीख माँगती कातर आँखों में जीवन रस की मिठास घोलती और उम्मीद की किरण जगाती हैं। जीवन की आपाधापी में खोती कोमल संवेदनाओं को बचाने और श्रम के गौरव को स्थापित करने की कोशिश करती हैं। यह बहुत अच्छी बात है कि कवि  की दृषिट में सबसे जरूरी है मानवीय होना। कोर्इ कितना ही बड़ा हो यदि मानवीय नहीं है तो उसकी कोर्इ अहमियत नहीं है। कवि की यह दृषिट लोकधर्मी कविता के भविष्य के प्रति हमें आश्वस्त करती है। 

पगडंडियाँ गवाह हैं( कविता संग्रह% आत्मरंजन
प्रकाशक- अंतिका प्रकाशन सी- यू जी एफ-  शालीमार गार्डन एक्सटेंशन- गाजियाबाद-201005
मूल्य- दो सौ रुपए।

Tuesday, July 10, 2012

जिन्दगी से रची सरगम

पेशे से डाक्टर डा. जितेन्द्र भारती साहित्य के अध्येता हैं। कहानियां लिखते हैं। वैसे सच कहूं तो लिखते कम हैं सुनाते ज्यादा हैं। घटनाओं को कथा के रूप में सुनाने का उनका अंदाज निराला होता है। यकीकन वे किस्सागो हैं। उन सभी किस्सों को यदि वे लिख ले तो बेहतरीन कहानियां हैं। लेकिन वे लिखते कम ही हैं। कुछ ही कहानियां लिखी हैं। वैसे भी उनसे कुछ लिखवा लेना बड़ा मुश्किल होता है। लेकिन पेरिन दाजी पर लिखी संस्मरणात्मक  किताब के बाबत उन्होंने अपनी खुद की प्रेरणा से लिखा है।   डा.  भारती की यह खूबी है कि उनका मन जिस बाबत खुद से होता है, वही लिखते हैं और मनोयोग से लिखते हैं। उनके लिखे को यहां प्रस्तुत कर पाना हमारे लिए उपलब्धि से कम नहीं। 
वि.गौ.

 
डा. जितेन्द्र भारती
 
बेशक पेरिनदाजी और होमीदाजी ने प्रेम किया, विवाह किया और साठ वर्षो का एक लम्बा पारिवारिक जीवन जिया। अपनी आंखों कें सामने अपने जवान बच्चो को एक के बाद एक केंसर व अन्य जान लेवा बिमारियों मे जाते देखा। होमी दाजी ने स्वयं भी कई सारी तकलीफदेह बिमारियों को झेला। सेहत छिनी। सुख-चैन छिना। जिन्दगी के हालात भी बद से बदतर होते रहे लेकिन इन दोनों दाजियो के बीच इनका प्रेम उत्तरोतर समृद्ध ही होता गया। एक र्साथक प्रेम की सरगम थी इन की जिन्दगी। पेरिन दाजी ने बात तो अपनी और होमी दाजी की कही, मगर नहीं, उन्होने जमाने की नब्ज पकडी और जमाने की ही बात कही। इन्दौर के औधोगिक राजधानी  बनने, उसके शहरीकरण, उसके सर्वहाराकरण, राजनितिक सत्ताओं के गठजोड, चुनाव की उत्सवधर्मिता की बातें और बाकी तमाम बातों मे ही होमी दाजी, बतौर कामरेड, बतौर इसान हर कहीं मौजूद हैं। उन दोनो का प्रेम उनकी सीमाओं से बाहर-बाहर तक फैला हुआ। यह पेरिन दाजी की निर्दोष लेखनी का कमाल है जो अनजाने मे इतना कुछ कह गयी है जे सधे हुए लेखको के लिए सीखने लायक है। एक तरफ बांहें फैलाता पेरिन दाजी और होमी दाजी का प्रेम है। दूसरी तरफ लेखन के कथित विश्वास से भरे सुधी जनो के साहित्य जगत मे इस बीच प्रेम को लेकर कई सारे विशेषांक निकले। जिनमे दर्जनो कहानियां, बिसियों लेख और सैंकडो कविताएं साथ ही ढेर सारी टिप्पणियां पाठको ने देखी। प्रेम ही प्रेम था हर तरफ। शायद नहीं था। हंस के सम्पादक राजेन्द्र यादव ने अपने सम्पादकीय में प्रेम भावों का जायजा लिया। उन्होने अफसोस जनक सिथतियों और उनकी अभिव्यकितयों में हस्तक्षेप किया और रुटीन प्रेम को सन्देह से देखते हुए बलिक अपर्याप्त सा मानते हुए लिखा कि पिछले पचास सालों मे पति-पत्नी के बीच प्रेम की कोई रचना उन्होने नहीं देखी। बात यूंही और महज छेडखानी भी नही थी। पति-पत्नी के बीच का प्रेम या कहा जाय उनका प्रेम कब और कहां बिला जाता है यह शायद उन्हें भी पता नही चलता। उसकी ऊष्मा और उद्वेग क्या सिथति ग्रहण कर लेते हैं? या उनहे चिह्नित नहीं किया जा सकता या मुशिकल  हो जाता है,  बहर हाल! मामला आसान तो नही रह जाता।
 नैतिक व उपदेशात्मक कथित ज्ञान आमतौर पर द्वन्दात्मक और अनतर तनावों को संप्रेषित न करके एकतरफियत के संवाहक होते हैं, लिहाजा काम नही करते। इनका नाकाम रह जाना ही यह भी बता जाता है कि वें स्थितियां उतनी समान और सामान्यता से गुंथी नही हैं बलिक असामान्य व असमानता उनकी हकीकत है। अब उस असामान्य सिथतियों को देखने, समझने और उनमे हस्तक्षेप के दृषिटकोणों का संम्बन्ध और अन्तर-सम्बन्धों का तादात्मय से एक नया उत्कर्ष पैदा होगा। जो उन्हे महज पति-पत्नी न रहने देकर, उन्हें साथ ही एक कार्मिक भी बनाता है। यहां भी एक अपनापा और प्रेम का उन्मेष उपजता है जिसमे एक आर्कषण भी होगा। बेशक वे मौजूदा अर्थों वाले पति-पत्नी रह भी नहीं जायेगें। ये अन्तर्विरोधी और द्वन्दात्मक तनावों से ओत-प्रोत परिवेश, उनमें ठहराव आने ही नही देगा। यह वस्तुगत यथार्थ है जो गतिशील है, और इससे उपजा प्रेम भी।
पेरिन दाजी और होमी दाजी का यह प्रेम प्रेरणादायक है। जो पति-पत्नी को उस सम्बंध से बाहर असीमता और विस्तार में ले जाता है जहां उनका व्यकितत्व और भी खुलता और खिलता है।
कामरेड होमी दाजी किसी भी पार्टी मे होते तो भी वे कामरेड ही होते। अगर वे ऐसा संघर्ष कर रहे होते तो। बेशक वे कम्युसिट पार्टी मे प्रतिबद्धता के साथ रहे।
कामरेडस इन आर्म्स। इसका भावार्थ ही-सकारात्मक और रचनात्मक आयामों मे-साथी और साझीपना है। वे अच्छे कामरेड थे, इसलिए एक अच्छे कम्युनिस्ट थे।
पेरिन दाजी द्वारा 'अपने कामरेड को यूं याद किया जाना, जिन्दगी की एक सरगम जैसा ही है। पेरिन दाजी ने अपने अनजाने ही यादो की रोशनी के माघ्यम से एक बेहतरीन रचना-कथा संस्मरण हिन्दी के साहित्य और समाज को दिया है जिसमे सीखने को काफी कुछ है उसे पढा और पढवाया जाना चाहिए ,                          
-और, पेरिन दाजी को ? होमी दाजी तक पहुंचने वाला-लाल सलाम ।