Tuesday, February 23, 2010

भाड़े का विज्ञान और विशेषज्ञ

यूं तो सम्पूर्ण ऊर्जा के दोहन को लेकर अनेक योजनाएं बनायी जा रही है पर उत्तराखण्ड के पहाड़ों में विशेष रूप से 400 से ज्यादा छोटी-बड़ी जल-विद्युत परियोजनाओं पर काम चल रहा है। जाहिर है स्थानीय जनता के विस्थापन से लेकर पर्यावरण संरक्षण तक के मुद्दे प्रमुख रूप से उभर कर आ रहे हैं। ज्ञात हो कि उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों में जनता के पास कुल भूमि का मात्र 7 प्रतिशत भूमि पर मालिकाना हक है, बाकी सब भूमि रिजर्व फॉरेस्ट व अन्य सरकारी खातों में बंद है। जल-विद्युत परियोजनाओं के निर्माण की अंधी दौड़ में यह तथ्य छुपाया जा रहा है कि जिस हिसाब से पर्वतों की जनता यहां की भूमि पर मालिकाना हक खो रही है उस हिसाब से बहुत जल्दी उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों की नदी घाटियों में बांध ही बांध और शिखरों में वन्यजीव अभ्यारण्य होंगे। यह भी उदघाटित होना चाहिए कि बांधों के निर्माण हेतु जारी दिखावटी प्रक्रिया, जिसके तहत पर्यावरणीय समीक्षा से लेकर विस्थापन और मुआवजों के मामलें निपटाये जाते हैं, कैसे उन विशेषज्ञों की रिपोर्टों के आधार पर तैयार हो जाते है जिनके अपने हित जल-विद्युत कम्पनियों के साथ बंधें होते हैं। पिछले दिनों जोशीमठ शहर के ठीक नीचे बनाये जा रही एक सुरंग में यकायक 600 लीटर प्रति सैकेण्ड की गति से जल रिसाव होने से निर्माण कार्य ठप है। अब जोशीमठ के निवासी भयभीत हैं कि कहीं उनके जल स्रोत सूख न जाए या कहीं जोशीमठ भूमि धसाव की जकड़ में न आ जाए। यह चिंताएं अकारण नहीं है। जोशीमठ के ठीक सामने के उस चाई गांव का मामला अभी कोई ज्यादा पुराना नहीं हुआ है जो एक ऐसी ही परियोजना के कारण इतिहास के गर्त में समा गया। चाई नाम के उस छोटे-से गांव के ठीक नीचे से जे पी कम्पनी की सुरंग निकाली गयी थी। परियोजना को पूर्ण रूप से सुरक्षित होने का प्रमाण-पत्र भी विशेषज्ञों द्वारा जारी किये जाने के बावजूद दो वर्ष पूर्व चाई गांव भूमि धसाव का शिकार हो चुका है, लेकिन अफसोस कि उन विशेषज्ञ रिपोर्टो पर आज तक कोई सवाल नहीं।
ऐसे ही सवालों के साथ प्रस्तुत है डॉ. सुनील कैंथोला का यह आलेख:

सुनील कैंथोला

हिंदुकुश हिमालय का एक बड़ा हिस्सा आतंकवाद और राजनैतिक अस्थिरता से ग्रस्त है। आतंक के इस खूनी खेल में भाड़े के सैनिकों की प्रमुख भूमिका है, जो लोकतंत्र और अमन-चैन को अपने पेशे के प्रतिकूल समझते हैं। दूसरी तरफ, हिमालय के ऐसे क्षेत्र जहां अमन है, लोकतंत्र है, वहां भाड़े के विशेषज्ञों का आतंक दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा है। भाड़े के आतंकवादियों की ही तरह इनका दीन मात्र पैसा है और इसके एवज में ये लोकतंत्र का गला घोंटने से परहेज नहीं करते। इनके आतंक में पिसती स्थानीय जनता की स्थिति किंकर्त्तव्यविमूढ़ जैसी होकर रह गई है। अब भारत सरकार का कोई बोर्ड हो, विशेषज्ञों की मोटी तकनीकी रिपोर्ट हो और इसके बावजूद भी आप तकरार करने की हिमाकत करें, तो या तो आप कतई सिरफिरे हैं या निश्चित तौर पर माओवादी हो सकते हैं। जिसके नापाक इरादों पर पानी फेरने के लिए भारत सरकार चौबीसों घंटे चौकन्नी व लामबंद है।

इन दिनों उत्तराखंड मुआवजे की धनराशि से खरीदी गई गाड़ियों, उन पर लगे भारत सरकार के बोर्ड और उसमें विराजमान ताजी हजामत वाले, कृत्रिम इत्र-फुलेल की दुर्गंध छोड़ते भाड़े के विशेषज्ञों और उनके काणे विज्ञान की कलाबाजियों से पूरी तरह सम्मोहित है। मदारी, बहरूपिए, चालबाज, जेबकतरे आदि जब बड़े स्तर पर हाथ मारने में कामयाब हो जाते हैं, तो अंग्रेजी में उन्हें कलाकार का दर्जा देते हुए कॉन आर्टिस्ट कहा जाता है। उत्तराखंड में बड़े कॉन आर्टिस्टों की क्षमता संपन्न कंपनियों द्वारा कथित विशेषज्ञों को भाड़े पर उठाकर जो मायाजाल बुना जा रहा है, वह शेयर बाजार में भले ही उफान पैदा कर दे, स्थानीय आजीविका और अस्तित्व पर तो वह अंतिम कील ठोक ही देगा। इस भ्रम का शीघ्र अति शीघ्र पर्दाफ़ाश करना संविधान की आत्मा और लोकतंत्र की रक्षा की लड़ाई का हिस्सा बनता जा रहा है।

जब किसी के नाम के आगे विशेषज्ञ शब्द जुड़ जाए और ऊपर भारत सरकार का बोर्ड हो तो किसी की क्या मजाल कि उसकी विशेषज्ञता को चुनौती दे सके। फिर मामला जब ऐसा हो कि विशेषज्ञ की जरूरत पहले से तैयार रिपोर्ट के अंत में सिर्फ हस्ताक्षर भर करने के लिए हो, तो लाला किसी भी अंजे-गंजे को विशेषज्ञ के स्थान पर खड़ा कर देगा। जैसे वर्ष 2003 में विख्यात पर्वतारोही हरीश कपाड़िया जल्दबाजी में ग्लेशियोलॉजी पढ़ने वाले एक लौंडे को विशेषज्ञ बनाकर विश्व धरोहर नंदादेवी कोर जोन में ले गए, तो पूरी सरकार उनकी आवभगत में जुटी रही। सामाजिक-आर्थिक स्तर पर विशेषज्ञता का बंटाधार तो डा।राबर्ट चैंबर्स अपने पी।आर।ए। और आर।आर।ए।के कथित विज्ञान द्वारा पहले ही कर चुके थे। आप दो हफ्ते के 70-72 घंटे के प्रशिक्षण द्वारा डॉक्टर, इंजीनियर या फॉरेस्टर नहीं बन सकते परंतु इतने ही समय में कोई भी लप्पू झन्ना न केवल समाजशास्त्री बन सकता है बल्कि अपने तूफानी दौरे के दौरान होटल-ढ़ाबों में हुई बातचीत के बल पर नीतिगत अनुशंसा करने के स्तर तक भी पहुंच जाता है। बहुत संभव है कि डा.चैंबसरा की यह मंशा न रही हो पर उनके पी.आर.ए.शास्त्र ने लालाओं के "उत्तराखंड कब्जाओ" एजेंडा को बल ही प्रदान किया है। बांध संबंधी विषयों पर जनता के साथ बैठकों की संचालन विधि, चांदी के कटोरों की भेंट और जन सुनवाइयों की हलवा-पूरी की कवायद उस दौर से बिल्कुल अलग नहीं, जब नकली मोती और आईना देकर अंग्रेज आदिवासियों की जमीनें हड़पा करते थे। इतना जरूर है कि तब नेतृत्व दलाल नहीं अपितु भोला था। पी।आर।ए।ने हमारे माननीय प्रशासकों के दृष्टिकोंण को ठीक उसी सांचे में ढालने में भूमिका निभाई हो, जो साम्राज्यवाद के विस्तार के दौर में क्षेत्रीय प्रशासकों का होता था। आज का प्रशासक उससे भी ज्यादा क्षमता संपन्न है, वह अपने पी।आर।ए। द्वारा लोकतंत्र के बाकी बचे स्तंभों को चलाता है।

उत्तराखंड निर्माण के उपरांत जिस धंधे के दिन पलटे उसमें विशेषकर डी.पी.आर.(डिटेल्ड प्रोजेक्ट रिपोर्ट) बनाने के व्यवसाय से जुड़ा पेशा शामिल है। इसमें भू-वैज्ञानिक, कथित समाजशास्त्री, पर्यावरणीय प्रभाव की रिपोर्ट बनाने वाले किसी भी पृष्ठभूमि के कंसल्टेंट अथवा भाड़े के विशेषज्ञ शामिल होते हैं, जो लालाओं की कंपनी के दिशा निर्देशानुसार रिपोर्ट बनाते हैं। जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है कि जरूरत इनके कथित ज्ञान की नहीं सिर्फ हस्ताक्षरों की होती है, कोई मना कर भी दे, तो बाजार में इनकी कमी नहीं।

उत्तराखंड निर्माण से पूर्व डी।पी।आर।का धंधा अपेक्षाकृत छोटे स्तर पर हुआ करता था, जिस पर देहरादून के मुट्ठी भर भू-वैज्ञानिकों की इजारेदारी थी, जो बेरोजगार भू-वैज्ञनिकों को अल्प समय के लिए भाड़े पर रखकर सीमित मुनाफे में अपनी आजीविका चलाते थे। राज्य निर्माण के उपरांत उत्तराखंड के जल स्रोतों के दोहन के अभियान में आई तेजी ने इनके भी दिन फेर दिए, जो कि निश्चित रूप से बुरी बात नहीं है। मुद्दा रिपोर्टों की और भू-विज्ञान की वैज्ञानिक विश्वसनीयता का है। भू-विज्ञान स्वयं में आधारभूत (फंडामेंटल) विज्ञान न होकर विभिन्न आधारभूत विज्ञानों व एप्लाइड साइंस का अद्भुत सम्मिश्रण है। इसकी नितांत आवश्यकता भी है। तभी तो 1767 में सर्वे ऑफ इंडिया की स्थापना के उपरांत ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1836 में कोल कमेटी का गठन किया, जो कालांतर में जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया बनी। साम्राज्यवाद को अपने विस्तार के लिए जिन विभागों की आवश्यकता थी, उनमें भूगोल और भू-विज्ञान प्रमुख थे। पिछली दो शताब्दियों में भू-विज्ञान ने भले ही चहुमुंखी प्रगति कर भी ली हो परंतु वह आधारभूत विज्ञान की तरह दो और दो चार कह पाने की स्थिति में नहीं पहुंचा है। जैसे कि चांई का मामला। अब जे।पी।के सीमेंट से बनी जे।पी।हाईड्रो पावर की टनल यदि रिक्टर 8 के पैमाने के भूकंप को झेल जाएगी, तो इसका श्रेय सीमेंट, सरिया और रेत को सही अनुपात में मिलाने को जाएगा पर ग्राम चांई जो ध्वस्त हुआ तो उस भू-विज्ञान को कौन शूली चढ़ाएगा, जिसके आधार पर उक्त योजना को स्वीकृति प्रदान की गई? जाहिर है कि यह जनता के पैसे पर भू-वैज्ञानिकों के अंतर्राष्ट्रीय सेमीनार को आयोजित करने का अच्छा बहाना हो सकता है। जिसमें विभिन्न प्रकार के कयास लगाए जाएंगे पर चांई के साथ हुए विश्वासघात पर चर्चा नहीं होगी क्योंकि यह भू-विज्ञान का विषय जो नहीं है।

चांई एक छोटा गांव है, जो भाड़े के विशेषज्ञों की बलि चढ़ गया। अब जोशीमठ के अस्तित्व पर तलवार लटक गई है, जो बदरीनाथ जी का शीतकालीन आवास और संभवत: लाखों परिवारों की आजीविका का स्रोत है। जिसके ऊपर अरबों रुपयों के शीतकालीन क्रीड़ा की इंवेस्टमेंट भी हैं। इधर, एन.टी.पी.सी.का एफ.पी.ओ.शेयर बाजार में उतरा रहा है। उधर, जोशीमठ के ठीक नीचे कहीं जल रिसाव से सुरंग का कार्य बंद हो गया। अब बाजार से पैसा उठाना परियोजना की गुणवत्ता से महत्वपूर्ण हो गया है। मामला फिर विशेषज्ञों के पाले में है, जो भाड़े पर हैं। जिनका विज्ञान अंत में मात्र कयासों पर आधारित है। कल यदि जोशीमठ के अस्तित्व को कुछ होता है, तो जनता संभवत: ये कैसे हुआ होगा इस विषय पर भूगर्भ शास्त्रियों की थ्योरियां न सुनना चाहेगी बल्कि आज अपने अस्तित्व की गारंटी लेना पसंद करेगी।

ऊर्जा निश्चित रूप से देश की आवश्यकता है। हैरत की बात है कि ओ.एन.जी.सी.के भूगर्भशास्त्री दशकों भारत में तेल खोजते रहे पर मिला खुलेपन के उपरांत रिलायंस घराने को। जिसकी बंदरबांट का झगड़ा इस देश का सबसे चर्चित अदालती केस है। उत्तराखंड के परिप्रेक्ष्य में कहें, तो यहां पर्यावरणवादियों और जल ऊर्जा कंपनियों ने अपने-अपने इलाके कब्जा लिए हैं। बांध के मामले में पर्यावरणवादी भी चुप्पी साध लेते हैं। इस दोहरी मार का एक उदाहरण जोशीमठ-मलारी के बीच स्थित ग्राम लाता है, जहां भारत के वन्य जीव संस्थान के विशेषज्ञों ने अपने कथित अध्ययनों के आधार पर जनता पर अनेक प्रतिबंध लगा दिए पर उसी ग्राम की तलहटी पर बन रहे बांध के पर्यावरणीय प्रभाव पर ये विशेषज्ञ मौन हैं। इन बांधों की डी।पी।आर।में इस क्षेत्र का कोई जैव विविधीय महत्व नहीं है। कोई बड़ी बात नहीं कि इन परियोजनाओं की पर्यावरणीय समीक्षा भी इन्हीं विशेषज्ञों अथवा इनके चेलों ने तैयार की हों। विभिन्न राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर पर्यावरण व जैव विविधता का रोना रोने वाले ये विशेषज्ञ आज मौन क्यों हैं? इस पर चर्चा करना व्यर्थ है। ऊर्जा की आवश्यकता और जैव विविधता संरक्षण, अंतर्राष्ट्रीय मुद्दे हैं, जबकि स्थानीय जनता का अस्तित्व, स्थानीय मुद्दा। उत्तराखंड की राजनीति यदि ठेकेदारी पर आश्रित न होती, तो संभवत: भाड़े के विशेषज्ञों द्वारा रचे गए इस मारक चक्रव्यूह से जनता को सुरक्षित बाहर निकाल लाती।


Wednesday, February 17, 2010

जलवायु परिवर्तन-एक बहस

जलवायु परिवर्तन को लेकर साम्राज्यवादी खेमे में ही नहीं बल्कि  तीसरी दुनिया में भी  एक बहस जारी है, जहां एक पक्ष उसे मनुष्य  के ह्स्तक्षेप की वजह मानता है वहीं दूसरे पक्ष का कहना है कि यह शुद्ध रूप से प्राक्रतिक घटना की वजह से जारी है। हमारे मित्र और साथी यादवेन्द्र जी इस बहस के बीच एक सकारात्मक हस्तक्षेप कर रहे हैं। प्रस्तुत  है उनके हवाले से यह पोस्ट।

यादवेन्द्र 


आज कल पूरी दुनिया में जलवायु परिवर्तन की बात खूब  जोर शोर से उठाई जा रही है...ये ऐसा विषय है जिस पर राजनीति तो सर चढ़ के बोल रही है,पर राजनीतिक  लोग भी जिस आधार को ले कर शोर मचा रहे हैं वो है वैज्ञानिकों द्वारा दुनिया के अलग अलग हिस्सों में किये गए दीर्घ कालिक अध्ययन.भारतीय हिमालयी क्षेत्रों में इसको सही ठहराने के लिए कई शोध परियोजनाएं चल रही हैं और अनेक विश्विद्यालय,संस्थान और गैर सरकारी संगठन इस दिशा में सक्रिय हैं.हिमालयी  ग्लेशिअर --खास तौर पर गंगोत्री ग्लेशिअर -- के बहुत तेजी से पिघलने की बात कई अध्ययनों में सामने आयी है...हांलाकि जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के लिए कोपेनहेगेन में आयोजित विश्व सम्मेलन से ठीक पहले भारत के पर्यावरण मंत्री ने ये कह के सबको हैरत में डाल दिया कि ग्लेशिअर के पिघलने कि बात सही है पर जलवायु परिवर्तन ही इनका कारण है ये साबित करना मुश्किल है.पिछले साल अगस्त में संसद में दिए बयान में इन्ही मंत्री महोदय ने कहा था कि पिछले तीन दशकों के आंकड़े देखें तो पाता चलता है कि गंगोत्री ग्लेशिअर १८-२५ मीटर प्रति वर्ष कि रफ़्ता
र से पीछे खिसक रहा है--ध्यान देने कि बात है कि इस से पहले के आंकड़े बताते हैं कि इसके पिघलने कि रफ़्तार  काफी खत्म थी। भारतीय वैज्ञानिकों के एक शोध पत्र में दिया गया उपग्रह चित्र इसकी पुष्टि करता है.  
उत्तराखंड के एक गैर सरकारी संगठन ने नंदा देवी राष्ट्रीय पार्क में बसे १६५ गांवों का अध्ययन  करके यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया कि भागीरथी घाटी के  सालों भर प्रवाहमान बने रहने वाले ४४% जलस्रोत या तो सूख गए या फिर इनमे जल प्रवाह बरसाती भर हो के रह गया.सर्दियों में इन इलाकों में बारिश और बर्फ काम पड़ने लगी,सर्दियों की अवधि कम से कम एक महीना सिमट  गयी.बरसात की निरंतरता में कमी आयी है--अब ये कम समय में और कम क्षेत्र में सिकुड़ गयी है,पर साथ साथ इसकी तीव्रता में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है.अल्मोड़ा  के
 गोविन्द बल्लभ पन्त संस्थान के अध्ययन बताते हैं कि पिछले दो दशको में कम
 समय में तीव्र वारिश की घटनाएँ अलकनंदा घाटी में बढ़ी हैं.
ऊंचाई वाले इलाकों में बुरांश,फ्यूली और काफल परंपरागत समय से पहले देखे जाने लगे हैं---कई बार तो डेढ़ महीना पहले तक.ये बात किसी एक साल की नहीं है बल्कि सालों साल ऐसा देखा जा रहा है.एक अध्ययन तो यहाँ तक कहता है कि जलवायु परिवर्तन की यही गति बनी  रही तो ब्रह्मकमल  जैसा ईश्वरीय फूल पांच सालों में ही विलुप्त हो जायेगा.दर असल ब्रह्मकमल निरंतर बर्फ से ढके ३०००-४००० मीटर ऊँचे स्टालों पर उगता है.जलवायु परिवर्तन के कारण पहले बर्फ से ढके रहने वाले इलाके भी धीरे धीरे सिकुड़ रहे हैं--अब बर्फ की परतें ऊपर की ओर खिसकती जा रही हैं, इस लिए इनमे उगने वाले वनस्पति भी बर्फ की परतों के साथ ज्यादा ऊंचाई  पर स्थानांतरित होते जा रहे हैं.ऊपर खिसकते जाने की भी एक संभव सीमा है और अपने चरम पर पहुँचने पर इन वनस्पतियों और जीवों को खुद को बचाए रखना बेहद मुश्किल होगा.
   इन वैज्ञानिक अनुसंधानों की बाबत यहाँ रेखांकित की जाने वाली बात ये है कि जलवायु परिवर्तन के सूचक कारकों का जायजा आम आदमी के अनुभव जगत में दर्ज  --बगैर वैज्ञानिक कारणों की समझ हुए भी---घटनाओं की पृष्ठभूमि  में पहली बार लिया गया है.नंदा देवी पार्क में किये गए एक विज्ञानी अध्ययन में आम लोगों ने जो अ-साधारण मौसमी परिवर्तन महसूस किये वे हैं: तापमान का बढ़ना,बर्फबारी की अवधि कम हो जाना,सेब की फसल कम होना,ऊंचाई वाले इलाकों में गोभी मटर टमाटर ,सर्दी की फसलों का कम समय में पक जाना, कीड़े मकोड़ों का बढ़ता हुआ प्रकोप,मार्च-मई में बरसात की मात्रा का कम हो जाना, आम तौर पर जुलाई अगस्त ममे होने वाली बर्फ बारी का एक महीना बाद खिसक जाना,सर्दियों की बरसात का दिसम्बर जनवरी से खिसक के जनवरी फरवरी में चला जाना,सर्दियों की फसल की बुवाई में देरी,गेंहू और जौ की उपज में कमी इत्यादि.सर्वेक्षण बताता है की बरसात और बर्फ बारी में कमी की बात ९०% से ज्यादा लोग मानते हैं.
      आशा की जानी चाहिए कि बड़े शहरों में बनायीं  गयी  ऊँची वातानुकूलित इमारतों में बैठ कर शोध करने वाले सरकारी वैज्ञानिक अपने शोध की दिशा निर्धारित करने में भविष्य में भी इसी तरह  आम लोगों की बात को गौर से सुनते और दर्ज करते रहेंगे.      
इस सन्दर्भ में मुझे कुछ साल पहले विज्ञानं की दुनिया की प्रतिष्ठित पत्रिका नेचर में पढ़ी एक रिपोर्ट याद आती है जिसमे बीती सदी की अंग्रेजी लेखिका जेन ऑस्टेन के उपन्यास एम्मा का जिक्र था कि जब ये प्रकाशित हुआ तो इसमें  फूलों से भरे सेब  के बाग़ को ले कर लेखिका पर बहुतेरे लांछन  लगाये गए थे ---ये कहा गया था कि इस ऐशो आराम में रहने वाली लेखिका को इतना तक नहीं पाता कि सेब के वृक्ष फूलों से कब गदराते हैं,जिस मौसम का जिक्र करते हुए सेब के फूलों कि चर्चा कि गयी थी आम तौर पर ब्रिटेन में उन दिनों सेब के पेड़ पर फूल लगते नहीं.पर उपन्यास के प्रकाशन के कोई ९०-९५ साल बाद एक प्रसिद्द मौसम विज्ञानी ने उपलब्ध मौसमी आंकड़ों की छान बीन करके ये बताया कि जेन  ऑस्टेन ने जिस साल का जिक्र किया है उस साल ब्रिटेन में रिकॉर्ड गर्मी पड़ी थी और सेब के बागों में समय से पहले फूल आ गए थे---इस बात की आधिकारिक पुष्टि की जा सकती है. 
   इस उदाहरण से ये सबक तो मिलता ही है कि आम जनता को अनपढ़ गंवार मान लेने की गलती वैज्ञानिकों को नहीं करनी चाहिए...और अनुसन्धान की दिशा क्या हो इसके निर्धारण में उनको  गौरव पूर्ण और न्यायोचित हिस्सेदारी दी जानी चाहिए...  

Sunday, February 14, 2010

चाहिए एक और संत वेलेन्टाइन



बाजार में मंदी की मार ने जहां कई क्षेत्रों के प्रतिभावानों को अपने रोजगार से हाथ धोने को मजबूर किया वहीं पत्रकारिता से जुड़े लोग जानते हैं कि उनके कई संगी साथियों के जीवन में इस मंदी ने ऐसी हलचल मचाई है कि लाला की नौकरी के मायने क्या होते हैं, वे इसे भली प्रकार समझने लगे हैं। प्रीति भी उसी मंदी के दौर की मार को झेलने के बाद अपने रोजगार से हाथ धोने के बाद आज एक सामान्य घरेलू महिला का जीवन बिताने को मजबूर हुई है। प्रीति को उसकी रिपोर्टिंग से जानने वाले पाठक जानते हैं कि बहुत ही जिम्मेदारी से प्रीति किसी भी रिपोर्ट को तैयार करती रही है। प्रीति जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा , हरिभूमि आदि अख़बारों में विभिन्न सामाजिक आर्थिक और स्त्री अधिकार के मुद्दों पर संपादकीय आलेख लिखती रहीं हैं। कृषि और महिला मुद्दों पर विभिन्न शोध परियोजनाओं पर काम किया है।
हम प्रीति के आभारी है कि वेलेंटाइन डे के समर्थन और विरोध के हल्ले के बीच  उन्होंने इस ब्लाग के पाठकों को एक सार्थक और बेबाक टिप्पणी से रूबरू होने का  अवसर दिया है:


प्रीति सिंह
 सदियों पहले जब संत वेलेन्टाइन ने रोम के राजा क्लॉडियस द्वितीय की आज्ञा को चुनौती देते हुए अपने चर्च में गुपचुप किसी जोडे की शादी करवाई होगी तो उन्हें सपने में भी गुमान न होगा कि सत्ता की जबरदस्ती के खिलापफ संघर्ष की उनकी इस अभिव्यक्ति को भुनाकर एक दिन बाजार के सौदागर करोड़ों रुपयों के वारे न्यारे करेंगे। आज किसी को इस बात से लेना-देना नहीं है कि उस सामंती युग में संत वेलेन्टाइन का यह कदम कितना दुस्साहसिक था जब राजा की आज्ञा ही कानून थी। और उसे तोड़ने की सजा मौत भी हो सकती थी। मौत से भी खेलकर संत वेलेन्टाइन ने शादियां करवाना जारी रखा और जैसी कि उम्मीद थी सामंती युग की क्रूरता के शिकार हुए।
    भारत में दो तरह के लोग इस दिन का विरोध् करते हैं। एक तो, शिव सेना जैसे कुछ राजनीतिक दल, खाप व जाति पंचायतें तथा सामंती मूल्यों को प्रश्रय देने वाले कई और तरह के संगठन व संस्थाएं। दूसरे, बाजारवाद का विरोध् करने वाले। प्यार जैसी स्वाभाविक मानवीय भावनाओं को बाजारू बना दिए जाने का विरोध् तो होना ही चाहिए। प्यार की सच्ची भावना को किसी सुंदर ग्रीटिंग कार्ड, गिफ्रट या एसएमएस की जरूरत नहीं होती। हर दिन प्यार का दिन है लेकिन प्यार का कोई एक दिन मनाने में दित भी क्या है? यदि शिक्षक दिवस और शहीदी दिवस मनाए जा सकते हैं तो वेलेन्टाइन डे क्यों नहीं? क्या शिक्षक दिवस के अलावा बाकी दिन हम शिक्षकों की इज्जत नहीं करते। आज 21वीं सदी में पहुंचकर भी भारतीय समाज सामंती युग में करवटें बदल रहा है। हमारे देश में व्यक्ति की स्वतंत्राता कागज के चंद पन्नों पर जरूर उकेर दी गयी है लेकिन समाज के बड़े हिस्से ने व्यक्तिगत स्वतंत्राता के इस अधिकार को स्वीकार नहीं किया है। समाज में खाप पंचायतों, परिवार के मुखिया और बड़े जमींदारों का दबदबा बना हुआ है। यहां आज भी प्यार करना जनवादी अधिकार नहीं बल्कि अपराध् है। प्यार करना सामाजिक मान्यताओं और पारिवारिक मूल्यों के विरूद्ध् बगावत है। उत्तर भारत के बड़े हिस्से में अपने जीवन साथी का चुनाव लोकतांत्रिक अधिकार नहीं बल्कि सदियों पहले स्थापित अमानवीय सामंती मूल्यों को चुनौती माना जाता है जिसकी सजा मौत भी हो सकती है। हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में समय-समय पर ऐसी घटनाएं अखबारों में छपती हैं जिसमें अपनी मर्जी से शादी करने वाले युवक-युवती को मारा-पीटा जाता है या उनकी मौत का फतवा जारी कर दिया जाता है। परिवार की इज्जत के नाम पर शादी तुड़वाने की कोशिश तो लगभग हर मामले में की जाती है। इन ताकतों से लड़ने के लिए आज हमारे देश को एक ऐसे संत वेलेन्टाइन की जरूरत है जो अपनी पसंद से शादी करने जैसे लोकतांत्रिक और मानवीय अधिकारों की रक्षा करने में मदद कर सके। कोई ऐसा संत जो उन दुर्गंधयुक्त सड़ी-गली मान्यताओं के खिलापफ संघर्ष कर सके जो परिवार की इज्जत के नाम पर लाखों-करोड़ों लड़कियों के सपनों और इच्छाओं का गला घोंट देती हैं। ऐसा संत जो प्यार करने वालों को अपराधियों की नजर से नहीं बल्कि सम्मान की नजर से देखने का दृष्टिकोण पैदा करवा सके।
     वेलेन्टाइन डे के नाम पर चांदी कूटने वाले बाजार के सौदागरों को इस बात की परवाह नहीं कि समाज आगे जा रहा है या पीछे। उन्हें सिर्फ अपने मुनाफे की फ़िक्र होती है जिसे बढ़ाने के लिए वे सती को महिमा-मंडित कर सकते हैं और संत वेलेन्टाइन के नाम का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। बाजार करवा चौथ को "हस्बैंड डे" बना देता है और प्रेम जैसी निजी भावना को भी उत्पाद बनाकर बेच सकता है। यहां तक कि वे पूंजीवाद के धुर विरोधी क्रांतिकारी चे ग्वेरा के नाम व छवि को भी भुना सकते हैं।
     वेलेन्टाइन डे पिछले 10-15 सालों में बड़े शहरों के इलीट वर्ग के दायरे से निकलकर छोटे शहरों और कस्बों के स्कूल-कॉलेजों में सेंधमारी कर चुका है। लेकिन यह संत वेलेन्टाइन की तरह समाज की बुराइयों से नहीं लड़ रहा बल्कि मानवीय भावनाओं को बेचकर अपनी तिजोरियां भर रहा है। यह युवा दिलों को अपनी भावनाओं का इजहार करने के लिए बाजार का सहारा लेने के लिए आकर्षित कर रहा है। स्वाभाविक है कि इस दिन के पहले या बाद में उस लड़के-लड़की को समाज किस तरह प्रताड़ित कर रहा है, यह देखना बाजार का काम नहीं। न ही यह देखना इसका मकसद है कि प्रेम जैसी भावनात्मक क्रिया कब और कैसे इसी बाजार की शक्तियों के द्वारा यौन उच्छृंखलता की ओर धकेली जा रही है। आज युवाओं में ऐसी विकृत प्रेम भावना पैदा हो रही है जहां शरीर मुख्य है, भावनाएं गौणऋ यौन आकर्षण मुख्य है मानसिक संतोष गौण है। इस विकृत प्रेम की प्रतिक्रिया में ही ऐसे सामंती समूहों को समर्थन मिल रहा है जो इसका विरोध् करने के नाम पर दूसरी घोर विकृति पैदा कर रहे हैं। वे वेलेन्टाइन डे का विरोध् करने के नाम पर ऐसे दकियानूसी सामंती मूल्यों को स्थापित करना चाहते हैं जहां प्रेम करना अपराध् है।
    क्या इन दोनों अतिवादियों के बीच कोई ऐसी जगह नहीं, जहां बाजार के नियंत्राण के बिना सच्ची मानवीय भावनाओं के साथ प्रेम को अभिव्यक्त करने की आजादी हो। जहां पे्रम करना अपराध् न हो बल्कि मनुष्य का निजी मामला और उसका निजी अधिकार हो जिसका उल्लंघन करने की इजाजत किसी खाप पंचायत, किसी धर्म, किसी मठाधीश या समाज के किसी ठेकेदार के पास न हो।

Wednesday, February 10, 2010

उत्तराखण्ड में पत्रकारिता की परम्परा

उत्तराखण्ड के समाजिक, राजनैतिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में युगवाणी उत्तराखण्ड की एक मासिक पत्रिका ही नहीं है बल्कि उत्तराखण्ड में पत्रकारिता का एक ऐतिहासिक सच भी है। अगस्त 15, 1947 को युगवाणी साप्ताहिक पत्र की स्थापना टिहरी राजशाही के विरोध में जन्में आंदोलन का एक रूप था। उत्तराखण्ड में जनआंदोलनों के साथ अपनी प्रतिबद्धता की परम्परा को युगवाणी ने बखूबी निभाने का प्रयास किया है। युगवाणी के संस्थापक आचार्य गोपेश्वर कोठियाल की जन्मशती पर एक कार्यक्रम का आयेाजन किया जा रहा है जिसमें पत्रकारिता की नयी चुनौतियों पर विचार विमर्श किया जाएगा। 13 फरवरी 2010 को युगवाणी द्वारा देहरादून में आयोजित होने वाले इस कार्यक्रम में लीलाधर जगूड़ी, पंकज बिष्ट, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल, समर भण्डारी, शेखर पाठक, राजेन्द्र धस्माना, शमशेर बिष्ट, राजीव लोचन शाह के साथ साथ कई लेखक पत्रकार हिस्सेदारी कर रहे हैं। उम्मीद करते हैं कि कार्यक्रम उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन, चिपको आन्दोलन, टिहरी राज्य आन्दोलन, नशा नहीं रोज़गार दो आन्दोलन, विश्व विद्यालय के लिए आन्दोलन, बाँध विरोधी आन्दोलन, बाँध विस्थापितों के हितों व उनके जनतान्त्रिक अधिकारों को समर्पित आन्दोलनों के कार्यकर्ताओं, पूर्व सम्पादकों, पत्राकारों और बुद्धिजीवियों की विरासत को भी अच्छे से स्थापित करेगा साथ ही उत्तराखण्ड की पत्रकारिता की प्रवृतियों और स्मृतियों का ब्यौरा भी संजो सकेगा।

हमारे समय में आचार्य जी

संजय कोठियाल

आचार्य गोपेश्वर कोठियाल की जन्मशती मनाने का विचार अचानक ही नहीं आया। उनके समय के टीन की छत वाले युगवाणी के दफ्रतर में कोई खास बदलाव नहीं आया है। सिर के ऊपर लकड़ी की कड़ियाँ अभी भी मौजूद हैं। एक ट्रेडल प्रेस जरूर अब यहाँ नहीं है, लेकिन मशीन मैन की जगह कभी खुद अखबार की छपाई करते, अखबार के बण्डल को कन्धों पर रखकर पोस्ट ऑफिस ले जाते हुए और सम्पादक की कुर्सी पर बैठकर सुदूर पहाड़ी गाँवों से मिलने आये लोगों से ध्यान पूर्वक हाल-समाचार लेते हुए आचार्य जी अपनी व्यक्तित्व की पूरी आभा के साथ यहाँ बराबर मौजूद लगते हैं। छोटे-बड़े सभी उम्र के लोगों के साथ वे सामान लगाव से मिलते थे, लेकिन उनसे बात करते समय खुद-ब-खुद एक जिम्मेदारी का भाव पैदा हो जाता था। बातें अर्थपूर्ण होनी चाहिए और शब्दों का उच्चारण ठीक होना चाहिए। देश की राजनीति की हलचलें उद्वेलित कर रही हैं या विभिन्न जनपदों में आन्दोलन की खबरें आ रही हैं। कहने-सुनने की बेचैनी के लिए सोचने-विचारने वाले लोग दस बाई दस के आचार्य जी के कार्यालय में जरूर आना चाहते हैं।
50 वर्षों से ज्यादा समय तक उन्होंने युगवाणी को गम्भीरता, सादगी और परिवर्तन की जन आकाँक्षाओं का केन्द्र बनाया था। वर्ष 1999 में उनके देहावसान के बाद आचार्य जी की कुर्सी की महत्ता का बोध हुआ। यह भी कि बड़े संघर्ष सरल जीवन और सरल विचारों से सम्भव होते हैं। अपने लोक और परिवेश से एकता और हर तरह की संकीर्णता से स्वाभाविक विरोध उनकी वैचारिकी का आधार था। टिहरी की राजशाही से मुक्ति संघर्ष को गति देने के लिए स्वर्गीय श्री भगवती प्रसाद पान्थरी और स्व। श्री तेजराम भट्ट के साथ मिलकर अगस्त 15, 1947 को युगवाणी साप्ताहिक पत्रा की स्थापना की थी। बाद के वर्षों में चुनौतियों की विकट शक्लें थी। पहाड़ों में सड़कों, स्कूल-कॉलेजों और अन्य विकास कार्यों के लिए अपनी चुनी हुई सरकारों से जद्दोजहद करना था। सामन्ती प्रवृतियों और निहित स्वार्थों से संघर्ष करना था।
आज के दौर में देश में पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों पर जनता का भरोसा नष्ट हो चुका है। उत्तरदायित्व विहीन पूँजी हमारे जीवन को संचालित कर रही है। सूचना और संचार माध्यमों पर कारपोरेट जगत ने कब्ज़ा कर लिया है और हमारे सांस्कृतिक, राजनैतिक जीवन को छिन्न-भिन्न करने की कोशिशें तेज हो रही हैं। छोटे क्षेत्राीय प्रकाशन केन्द्रों की जिम्मेदारियाँ बढ़ गयी हैं। हमें इस बात से ताकत मिलती है कि उत्तराखण्ड में क्षेत्रीय एकजुटता व्यापक राष्ट्रहितों के साथ तारतम्यता बनाते हुए विकसित हुई है। समय विनोद (1868), अल्मोड़ा अखबार(1871), गढ़वाल समाचार (1902), गढ़वाली (1905), पुरुषार्थ (1907), विशाल कीर्ति(1907), क्षत्रिय वीर (1922), तरुण कुमाऊँ (1923), गढ़देश (1926), शक्ति (1928), स्वाधीन प्रजा (1930), कर्मभूमि (1938) के बाद युगवाणी (1947) इस परम्परा को जिम्मेदारी के साथ निभाने को यत्नशील हैं।
"जनधारा" आचार्य जी की सीख व प्रेरणा है। नमन्
                                       
                                                                           

Thursday, February 4, 2010

शोषण के अभयारण्य

वैश्वीकरण की इस बीच जितनी चर्चा हुई है उस लिहाज से हिंदी में उस पर अर्थशास्त्रीय अनुशासन के तहत लगभग नहीं के बराबर काम हुआ है। विशेष कर ऐसा काम जो सामान्य पाठक को उसकी सैद्धांतिकी के साथ व्यवहारिक पक्षों से भी परिचित करवा सके।

अशोक कुमार पाण्डेय, कवि होने के बावजूद, उन बिरले लेखकों में से हैं, जिन्होंनें साहित्य की चपेट में सिमटी हिंदी में ऐसे विषयों पर भी लेखन किया है जो समकालीन समय, उसकी चुनौतियों और संकटों को समझने-समझाने में मददगार साबित होता है। अर्थशास्त्र जैसे महत्वपूर्ण विषय पर लगातार हिंदी में किया गया उनका लेखन कई दृष्टियों से प्रशंसनीय है। सबसे बड़ी बात यह है कि यह लेखन पाठ्यक्रमीय लेखन नहीं है जैसा कि अक्सर होता है। वैश्वीकरण के विभिन्न पक्षों पर विगत कुछ वर्षों में लिखे गए इस संग्रह के लेखों में दृष्टि संपन्नता, मानवीय सरोकार और विषय की गहरी पकड़ साफ देखी जा सकती है।

एक युवा अर्थशास्त्री के ये लेख आम पाठक के लिए भी उतने ही ज्ञानवर्द्धक और पठनीय हैं जितने कि विषय के अध्येताओं और विशेषज्ञों के लिए हो सकते हैं। यह दोहराने की जरूरत नहीं है कि अगर किसी भी दौर को समझना हो तो यह काम उसकी आर्थिक प्रवृत्तियों को बिना जाने नहीं हो सकता। आज के दौर के लिए तो यह और भी महत्वपूर्ण है।

एक संपादक के रूप में ही नहीं बल्कि एक आम पाठक के तौर पर भी मैंने इन लेखों को पढ़ा है और मैं चाहूंगा कि इसे वे सब लोग अवश्य पढ़ें जो अपने दौर को सही परिप्रेक्ष्य में समझना चाहते हैं।

ये लेख हिंदी में साहित्येत्तर लेखन की चुनौती को तो स्वीकारते ही हैं साथ में सभी भारतीय भाषाओं के पक्ष को ऐसे दौर में मजबूत करते हैं जब कि अंग्रेजी ने शायद ही ज्ञान का कोई पक्ष छोड़ा हो जिस पर एकाधिकार न जमा लिया हो।
- पंकज बिष्ट  

पुस्तक : शोषण के अभयारण्य
लेखक : अशोक कुमार पाण्डेय
प्रकाशक: शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली (मो.  09810101036)
कीमत : 200 रु