Thursday, December 31, 2009

शब्द का अर्थ मनुष्यता के बोध से ही खुल सकता है

हिन्दी दलितधारा अपने से पूर्व के साहित्य और इतर  रचनाओं पर, ब्राहमणवादी और समांती सरोकार से गुंजित होने का आरोप लगाती है, क्या उसे पूरी तरह से झुठलाया जा सकता है ?  हिन्दी का एक महत्वपूर्ण कवि शब्द की महिमा के बखान में, बेशक गप ही मारे चाहे, जब एक गरीब की बेटी को नग्न करके उसको अर्थों तक पहुंचने की कथा पूरी तटस्थता से सुनाता हो और उस घटना को अपनी स्मृति के दम पर ज्यों का त्यों रखने वाला हिन्दी का एक महत्वपूर्ण लेखक जो शिक्षाविद्ध भी हो, बिना विचलित हुए लिखता हो तो फिर क्या कहा जा सकता है ? क्या उस पत्रिका को सवालों के घेरे से बाहर रखा जा सकता है (?) जिसमें यह आलेख बिना किसी सम्पादकीय टिप्पणी के प्रकाशित होता है।
प्रस्तुत है  कथाकार अब्दुल बिस्मिल्लाह द्वारा लिखित उस आलेख ( एक विरोधाभास त्रिलोचन) का वह आपत्तिजनक अंश जिस पर कवि राजेश सकलानी ने सवाल उठाया है। कवि राजेश सकलानी की टिप्पणी पाठकों की सुविधा के लिए यहां पुनः प्रस्तुत है:


लेखक महोदय आपने शर्म कर दी

लेखक सिर्फ एक माध्यम है। लेखन मूलत: एक सामुदायिक-नैतिक क्रिया है। यह गहरी जिम्मेदारी की माँग करता है। शब्द मानव अस्मिता के प्रतिफल होते हैं। शब्द-चर्चा को शोध माना जाता है। थोड़ा सा खिलावाड़ भी सहज माना जा सकता है। लेकिन प्रतिष्ठित कथाकार अब्दुल बिस्मिल्लाह त्रिलोचन पर लिखे अपने संस्मरण में "जोबन" शब्द पर लिखते हुए गरीब दलित महिला के सम्मान की चिंदि्या उड़ा देते हैं। आधार शिला पत्रिका के त्रिलोचन केन्द्रित अंक मेंप्रकाशित आलेख "एक विरोधाभास त्रिलोचन " में वर्णित घटना सच है या नहीं लेकिन त्रिलोचन के पिता से लेकर आज तक की सामन्ती सड़ांध का पता जरूर लग जाता है। लेखक ने जिस गैर-जिम्मेदारी से एक घृणित प्रकरण को लिखा है वह सदमे में डालने वाला है। त्रिलोचन पर केन्द्रित इस विशेषांक में विद्वान कवि त्रिलोचन और जाने-माने कथाकार अब्दुल बिस्मिल्लाह की प्रतिष्ठा में कोई इजाफा नहीं होता। भर्त्सना के सिवाय कुछ नहीं सूझता है। पीड़ित बहन का हम दिल से समर्थन करते हैं।
-राजेश सकलानी



एक विरोधाभास त्रिलोचन
अब्दुल बिस्मिल्लाह

शब्द का अर्थ बोध से खुलता है, प्रत्यक्ष अनुभव से खुलता है, यह बात संभवत: त्रिलोचन जी के मन में तभी से बैठ गई थी जब वे अपने गांव चिरानी पट्टी में रहते थे और किशोर वय के थे। एक बार उन्होंने एक रोचक किस्सा सुनाया। (किस्सा कितना सच है, कहा नहीं जा सकता)। बोले, मुझे सुने-सुनाए लोकगीतों को गुनगुनाने में मज़ा आता था। एक दिन हुआ क्या, कि मैं एक लोकगीत गुनगुनाता हुआ खेतों की तरफ से घ्ार आ रहा था। उस गीत में एक शब्द 'जोबना" बार-बार आता था। घ्ार के बाहर का दृश्य यह था कि पिताजी (शायद) तखत पर बैठे थे। थोड़ी दूर पर ण्क किशोर वय की लड़की खड़ी थी। शायद वह हरवाहे की बेटी थी और कुछ मांगने आई थी। मलकिन का इंतजार कर रही थी। पिताजी ने मुझे अपने पास बुलाया और पूछा, जोबना क्या होता है, जानते हो ? (प्रश्न अवधी में था) मैं पहले तो चुप, फिर बोला, नहीं। पिताजी उठे, आगे बढ़े और लड़की के ब्लाउज़ को चर्र से फाड़ दिया। बोले, देख लो यह होता है जोबना। मेरी तो घिघ्घी बंध गई और मैं भाग खड़ा हुआ। तब से इस शब्द का इस्तेमाल करने से डरने लगा हूं। मुझे ध्यान नहीं कि त्रिलोचन जी ने अपनी रचनाओं में इस शब्द का इस्तेमाल किया है अथवा नहीं। और किया है तो कब, कहां और कैसे ? मगर त्रिलोचन जी की इस बात में बहुत दम है कि अर्थ तो बोध से ही खुलता है। 

Tuesday, December 29, 2009

लेखक महोदय आपने शर्म कर दी

लेखक सिर्फ एक माध्यम है। लेखन मूलत: एक सामुदायिक-नैतिक क्रिया है। यह गहरी जिम्मेदारी की माँग करता है। शब्द मानव अस्मिता के प्रतिफल होते हैं। शब्द-चर्चा को शोध माना जाता है। थोड़ा सा खिलावाड़ भी सहज माना जा सकता है। लेकिन प्रतिष्ठित कथाकार अब्दुल बिस्मिल्लाह त्रिलोचन पर लिखे अपने संस्मरण में "जोबन" शब्द पर लिखते हुए गरीब दलित महिला के सम्मान की चिंदि्या उड़ा देते हैं। आधार शिला पत्रिका के त्रिलोचन केन्द्रित अंक में प्रकाशित आलेख "एक विरोधाभास त्रिलोचन" में वर्णित घटना सच है या नहीं लेकिन त्रिलोचन के पिता से लेकर आज तक की सामन्ती सड़ांध का पता जरूर लग जाता है। लेखक ने जिस गैर-जिम्मेदारी से एक घृणित प्रकरण को लिखा है वह सदमे में डालने वाला है। त्रिलोचन पर केन्द्रित इस विशेषांक में विद्वान कवि त्रिलोचन और जाने-माने कथाकार अब्दुल बिस्मिल्लाह की प्रतिष्ठा में कोई इजाफा नहीं होता। भर्त्सना के सिवाय कुछ नहीं सूझता है। पीड़ित बहन का हम दिल से समर्थन करते हैं।

-राजेश सकलानी

Monday, December 28, 2009

और बुक हो गये उसके घोड़े-3

पिछले से जारी

दारचा पुलिस चैकपोस्ट के ठीक सामने, उत्तर-पूर्व दिशा की ओर मुलकिला (पहाड़ की चोटी) झांक रही है। दारचा-केलांग रोड़ के किनारे काले-भूरे बड़े-बड़े पत्थरों का बिखरा होना गवाह है कि कभी सड़क के दक्षिण दिशा की ओर वाले पहाड़ के खिसकने से ही उनका जमावड़ा हुआ है। दारचा वाले बताते हैं कभी इस जगह पर गांव था जो पत्थरों के इस ढेर के नीचे दफ़न हो गया। यह बात कितने वर्ष पुरानी है, ठीक से मालूम नहीं। बस कहानी भर है पहाड़ के खिसकने की। वैसे नदी के किनारे बिखरे पड़े पत्थरों के ढेर को देख कर माना जा सकता है कि कहानी या दंत कथा नहीं सचमुच कोई इतिहास इसके नीचे दबा है। लेह से लद्दाख आते वक्त दारचा पहुंचने पर आनन्द जी के नाम लिखे गए अपने 2/10/1933 के एक पत्र में राहुल सांकृत्यायन भी जिक्र करते हैं इन पत्थरों के ढेर का,
''दारचा के पास बिखरी छोटी बड़ी चट्टानों का ढेर, जिस पर कहीं कहीं एक-आध देवदार के वृक्ष भी खड़े थे---बहुत समय पहले इसी स्थान पर एक बड़ा सा गांव था। जिसमें सैकड़ों घर थे। एक दिन गांव के सारे लोग एकत्रित हो भोज कर रहे थे, उसी समस बड़ेलाचा की ओर से कोई वृद्ध आया, साधारण भोटिया समान। सभी लोगों ने उसका तिरस्कार कर पॉति के नीचे की ओर कर दिया। सबसे अंत में एक लड़का बैठा था, उसने बूढ़े को अपना आसन दे, अपने से पहले स्थान पर बैठाया। भोज और छंड; के बाद वृद्ध अर्न्तध्यान हो गया। लोगों ने नाच रंग शुरु किया। इसी इसी समय एक भारी तूफान आया, जिसके साथ लाखों भारी-भारी चट्टानें पहाड़ से गिरने लगीं, सारा गांव उनके अन्दर दब गया। तूफान ने उस लड़के को दरिया के पार कर दिया, जिसकी संतान अब भी वहां मौजूद है और शायद "ऐतिहासिक घटना" भी उसी की परम्परा से सुनी गयी।"

यूं पहाड़ के गिरने का कारण क्या रहा होगा, यह शोध का विषय हो सकता है पर इस कहानी से इस बात की पुष्टी तो होती ही है कि जरूर ही यहां कोई गांव रहा होगा जो मलबे के नीचे दबा है। देवदार के वृक्ष तो हमने नहीं देखे। पत्थरों पर अन्य किसी वनस्पति का चिह्न भी हमें दिखाई न दिया।
कारगियाक गांव का 25 वर्षीय युवा नाम्बगिल दोरजे हमारे साथ अपने घोड़ों को लेकर चलने के लिए तैयार हो गया। फिरचेन लॉ के रास्ते जांसकर जाने के लिए ज्यादातर घोड़े वालों ने मना कर दिया था। वे रास्ते में पड़ने वाले उस दरिया, जिसको भीतर उतर कर ही पार करना होता है, से भयभीत थे। दरिया का बहाव घोड़ों से हाथ धोने के लिए काफी है वहां, वे कहते रहे। नाम्बगिल दिलेर मालूम हुआ। बिना किसी हिचकिचाहट के उसने जाना स्वीकार कर लिया। अब हम पांच और नाम्बगिल को मिलाकर कुल छै के छै रास्ते की दुरुहता से अनजान दारचा से आगे निकल लिए- बारालाचा की ओर। केलांग सराय से शुरु होगा फिरचे जाने का रास्ता।

बारालाचा से नीचे भरतपुर, जहां टैन्ट होटल है, वहां से आगे बढ़ते हुए युनम नदी पर जहां लकड़ी का पुल है, वही केलांग सराय है। लेह मार्ग को दांहे किनारे छोड़ युनम नदी के साथ-साथ कुछ ही दूर बढ़े थे कि कैम्पिंग ग्राउंड दिखाई दे गया। यूं कैम्पिंग ग्राउंड तो केलांग सराय पर भी है। पर बस रोड़ के एकदम किनारे रुकना ठीक न लगा। ग्राउंड में इंग्लैण्ड से आए स्कूली बच्चों की एक टीम भी रुकी थी। पहुंचने पर मालूम हुआ कि हमसे एक दिन पहले ही वे यहां पहुंच गए थे। टीम में कुल 13 बच्चे हैं, सभी लड़कियां, उम्र 16 से 20 वर्ष के आस-पास। एक अध्यापिका और एक ब्रिटिश फौजी अफसर के साथ वे सभी बच्चे जांसकर की यात्रा पर हैं। केलांग सराय पहुंचने तक उनका स्वास्थय बिगड़ने लगा। तीन लड़कियों की तबीयत कुछ ज्यादा ही बिगड़ गई। इसीलिए वे अपनी अध्यापिका के साथ मनाली वापिस लौट जाएंगी। बचे रह गए बच्चे फौजी अफसर के साथ-साथ हमारे ही साथ अगले दिन फिरचेन लॉ को निकलेंगे और फिरचेन लॉ पार करने के बाद वे सिंगोला की ओर मुड़ जाएंगे जांसकर पहुंचने के लिए और हम तांग्जे से होते हुए उनके विपरीत दिशा में पदुम की ओर निकल जाएंगे। 15 सदस्य इस दल के साथ 20 घोड़े, मानली के आस-पास के गांव के चार घोड़े वाले, एक गाईड और एक कुक भी है।
कैम्पिंग ग्राउंड खूबसूरत है। सामने बहती हुई युनम नदी है। नदी पार लेह मार्ग और ऊंची- ऊंची चोटियां। भूरे काले रंग के पहाड़। इधर कैम्पिंग ग्राउंड के से ही उठना हो गई है चोटियां, जिन पर बर्फ जमी है। दोनों बाहों की ओर भी है चोटियां। उन पर भी बर्फ ही बर्फ। कुल मिलाकर बर्फ, पत्थर और रेतीली मिट्टी का साम्राज्य ही बिखरा पड़ा है चारों ओर। बीच में नदी है। टैन्ट के आस-पास कुछ छोटी-छोटी घास है, जिसे घोड़े चर रहे हैं। घोड़ा भी अजीब जानवर है। इसे कभी आराम करते नहीं देखा। या तो घास  चरता होगा या फिर पीठ पर बोझा लादे हमारे साथ चलता हुआ। हां, बोझे के उतरते ही एक बार ज़मीन दो तीन करवट लौटेगा और फिर बदन को झाड़कर आस पास के हरे तिर्ण पर मुंह चलाने लगेगा। मालूम नहीं यह जगह घोड़ों को भी उनकी थकान मिटाने वाली लग रही है या नहीं ?
केलांग सराय जिसे हम पीछे छोड़ आए, वहां से सर्चू 19 किमी दूर है। इधर हमें लगभग सर्चू के पास तक आगे बढ़ना है। पश्चिम दिशा की ओर मुड़ जाना है फिरचेन ला के लिए। बर्फीली हवाएं तेज बह रही हैं। हमारे गाल और होंठ जो दारचा में ही फटना शुरु हो गए थे, काफी फट चुके हैं। अब पानी में हाथ लगाना भी आसान नहीं है। युनम नदी में हाथ पांव धोने से पहले जेब में रखे रुमाल को धोने की गलती कर बैठा, ऐसा लगा किसी तेज चाकू की धार के नीचे हो हाथ। ठंडापन ऐसा कि तेज धार चाकू को भी मात कर रहा था। हाथ को तेजी से बाहर निकाल झटकता और मसलता ही रहा कि किसी कटे हुए घाव की सी चिरचिराहट खत्म होने का नाम ही न ले रही थी। ठंड में सिहरन होती है, यह कहना तो कतई सही नहीं लग रहा, कहूंगा की तेज चाकू की धार होती है। आगे ऐसी गलती न करुं शायद कभी भी।
केलांग सराय से आगे जाते हुए जाना कि पहाड़ी मरुस्थल क्या होता है। एकदम लाल-काली चट्टानें, जिनके नीचे तक लुढ़क कर आए हुए हैं पत्थर। उसके बाद रेतनुमा मिट्टी और उसी मिट्टी पर छितरातई हुई हल्की घास। केलांग सराय से आगे का पहाड़ी मरूस्थल तो पहाड़ के प्रति हमारी कल्पनाओं को पूरी तरह से ध्वस्त कर रहा है। एकदम सूखे पहाड़। लम्बे-लम्बे धूल भरे घास के मैदान। पानी का कहीं नामों निशान नहीं। प्यास के कारण गले सूखने लगे हैं। दारचा से सिंगोला पास वाले रास्ते पर भी यूं तो पहाड़ों पर सूखापन इसी तरह बिखरा रहता है पर उस रास्ते में पानी के लिए ऐसे तड़पना नहीं पड़ता। बड़े-बड़े बोल्डरों भरे उस रास्ते पर ऊपर से उतरते दरिया भी स्वच्छ पानी के साथ होते हैं। इस रास्ते पर उस तरह बोल्डरों भरा नजारा तो नहीं, सममतल ही है पर पानी कहीं दिखाई नहीं दे रहा है। गदि्दयों के बसेरों के आस-पास पानी के स्रोत होने चाहिए, इस उम्मीद में कितने ही उजाड़ पड़े बसेरों के आस-पास को छानते हुए बढ़ रहे हैं। पर अंजुली के गीलेपन के लिए भी पानी कहीं नहीं। घास के लम्बे मैदानों में टैन्ट तो कहीं भी लगाया जा सकता है पर पानी का स्रोत कहीं मौजूद नहीं तो फिर कैसे तय करें रुकने का। ऊपर पहाड़ों पर भी बर्फ कम ही दिखाई दे रही है। नाले सूखे पड़ें हैं। जगह-जगह सूखे नालों को देखकर लगता है कि जब पहाड़ों के सिर बर्फ से ढके रहते होंगे तो इस रास्ते से गुजरना आसान न होता होगा। जगह-जगह विभिन्न समय अंतरालों मे लगे कैम्पों के अवशेष दिखाई पड़ रहे हैं। ये गदि्दयों के बसेरे हैं। नाम्बगिल का कहना है इस बार बर्फ कम पड़ी बल्कि पिछले तीन-चार वर्षों से कम ही पड़ रही है। 1992 में जब हमारे कुछ साथी रोहतांग से बारालाचा की यात्रा पर थे, जून के दूसरे सप्ताह में यात्रा शुरु की थी, बर्फ इतनी ज्यादा थी कि तब तक रोहतंग खुला नहीं था। वह तो खुशकिश्मती समझो कि ऊपर से नीचे की ओर देखते हुए दूर सूरज ताल से निकलती नदी के किनारे-किनारे सड़क की झलक दिखाई दे गई थी, वरना उस वक्त तो वे बारालाचा के उस बर्फिले विस्तार में रास्ता भटक ही गए थे। अनाज भी, जो तय दिनों के हिसाब से रखा गया था, खत्म हो चुका था। बल्कि एक दिन पहले ही रास्ता खोजने में निबटा चुके थे। इस वर्ष तो मई में ही खुल गया था रोहतांग। 1997 में भी जब सिंगोला पास को पार कर रहे थे तब भी जांसकर सुमदो पार कर छुमिग मारपो की ओर बढ़ते हुए सिंगोला से काफी पहले ही मिल गई थी बर्फ। लेकिन इस साल तो बर्फ का वो नजारा दिख ही नहीं रहा। बारालाचा भी पत्थरों पर टकराती धूप को ही बिखेर रहा था।

जारी---

Thursday, December 24, 2009

और बुक हो गये उसके घोड़े-2

पिछले से जारी


मनाली में सैलानी गायब हैं इस समय। इसलिए ज्यादातर होटल और दुकानदार खाली हैं। कुछ दुकानें तो बेवजह खोले जाने से बचते हुए बन्द ही हैं। बस स्टैंड पर ही ट्रैकिंग टीमों की तलाश करते जांसकरी घोड़े वाले और फ्रीलांसर गाईड घूमते देखे जा सकते हैं। कुल्लू से कोठी तक की लम्बी पट्टी पर सेबों से पेड़ लदे पड़े हैं। हमारे लौटने तक शायद तुड़ान शुरू हो जाये। फिर सेब के व्यापारी ही मनाली वालों के लिए यात्री होगें। उसके बाद 15 अगस्त के आस पास शुरू होगा सैलानियों का आना जाना। जुलाई को छोड़ मई, जून और सितम्बर, अक्टूबर तक ही सैलानी पहुंचते हैं मनाली। जुलाई के महीने में तिब्बती बाजारों में कैरम बोर्ड या फिर ताश के पत्तों में उलझे रहते हैं दुकानदार। 15 जुलाई को शुरू हुई भारत पाकिस्तान वार्ता के प्रति किसी तरह की कोई उत्सुकता यहां मौजूद नहीं। ऐसे किसी भी विषय पर कोई लम्बी बातचीत करने वाला व्यक्ति मुझे नहीं मिला। हां ट्रैक के वि्षय में बात करनी हो तो ढ़ेरों ट्रैव्लिंग एजेन्ट हैं, एजेन्सियां हैं। तेन्जिंग नेगी जो कि एक ट्रैव्लिंग एजेन्ट है, लामायुरु का रहने वाला है, का मानना है कि '' लेह लद्दाख के लोगों को हिमाचल से मिलने में फायदा है। ट्यूरिज्म के विकास को ध्यान में रखते हुए ऐसा किया जा सकता है। ''तांख'' से ''हमिश'' तक एक बेहतरीन ट्रैक रूट है। जो बरांडी नाला से शुरू किया जा सकता है। मार्का/मार्खा वैली में पड़ने वाले इस ट्रैक में हरापन भी देखने को मिल सकता है। उधर के पहाड़ जांसकर की तरह सूखे पहाड़ नहीं हैं।'' तेन्जिंग का कहना है। रोहतांग के बाद बारिश नहीं है। लाहुल वाले बोयी गयी मटर की फसल के लिए पानी का इंतजार कर रहे हैं। अगले रोज यहां से निकलेगें तो जान पाएंगे रोहतांग पार की असली स्थिति।

  रोहतांग पर नहीं है बर्फ। रोहतांग और मनाली के बीच मड़ी से ही शुरू हो गयी थी जगह-जगह बिखरे कचरे की गली। भारतीय सैलानी ज्यादा से ज्यादा मनाली, शिमला, नैनीताल, मसूरी तक ही पहुंचते हैं। कुछ हैं जो लेह तक भी हो आते हैं। यानि कुल मिलाकर ज्यादातर उन स्थानों पर देखे जा सकते हैं जहां बस से लेकर होटल तक की सुविधा आसानी से उपलब्ध हो। बाकी दूर- दराज के जन-जीवन तक पहुंचने वाले कम ही हैं जो थोड़ा जोखिम उठाकर पहुंचते हैं। रोहतांग: लेह रोड़ पर पड़ने वाला पहला पास। पहला दर्रा। मनाली तक आने वालों की ऐशगाह भी है। जून के पहले सप्ताह के आस पास ही अक्सर रोहतांग खुल जाता है और लेह तक की यात्रायें शुरू हो पाती हैं। मनाली में आने वाले यात्री अक्सर रोहतांग तक पहुंचते ही हैं। कुछ देर बर्फ में लोटने के बाद लौट जाते मनाली। पेप्सी और कोकाकोला की बोतलों से लेकर टीन, रैफल के पैकट, नमकीन आदि के रेपर ही चमक रहे हैं इस वक्त। बर्फ नहीं है। व्यास गुफा भी साफ दिखायी दे रही है। सुनते हैं पांडवों के स्वर्गारोहण के समय द्रोपदी ने यही देह त्यागी थी। रोहतांग को मुर्दों का किला भी कहा जाता है। जब राहुल गुजरे थे यहां से, सड़क नहीं थी। कैसा कठिन रहा होगा यह मार्ग राहुल से ही जाना जा सकता है। रोहतांग के पार नहीं है बारिश। कोकसर से ही शुरू हो गये थे मटर के खेत जो पिघलते बर्फिले नालों के दम पर लह-लहा रहे हैं। रोहतांग से नीचे ग्राम्फू है जहां से बातल होकर चन्द्रताल को रास्ता जाता है। सुनते हैं चन्द्रताल तक जीप जाने लगी है। ग्राम्फू से बातल तक का बस मार्ग बन्द है। कोई नाला था जिसने तोड़ दिया है रास्ता। बातल जाने वाले यात्री कोकसर आकर रूक रहे हैं। चन्द्रताल खूबसूरत झील है, बताता है मेरा मित्र विमल। चन्द्रताल के दो विपरीत दिशाओं से निकलती है दो नदियां। एक ओर से चन्द्रा और दूसरी ओर से भागा। भागा दारचा से होती हुई केलांग से इधर तांबी में चन्द्रा से मिल रही है। यहां से चन्द्रभागा बढ़ती है पटन घाटी में --- यही चिनाब है।
    यहां लाहुल में नकदी फसल ही उगाते हैं लोग--- मटर और आलू से होने वाली आय से ही खरीदा जाता है अनाज। रोहतांग के बन्द होने पर कटे रहते हैं लाहुल वाले मनाली से। रोहतांग के नीचे यहां कोकसर से जिस्पा तक देखी जा सकती है हरियाली पहाड़ों की तलहटी पर। ऊपर के पहाड़ पत्थरीली भूरी मिट्टी के हैं और ऊपर है बर्फ। जिस्पा से लगभग सात किमी आगे दारचा है। जिस्पा और दारचा के बीच सूखे पहाड़ों का बहुत नजदीक खिसक आने का क्रम जैसे शुरू हो चुका है। यूं दारचा के आसपास हरियाली देखी जा सकती है। जांसकर घाटी में जाने वाले विदेशी यात्रियों की एक न एक टीम दारचा में हर दिन देखने को मिल सकती है, इन तीन महीनों में। छोटे-छोटे ढ़ाबे, शराब का ठेका, पुलिस चैक पोस्ट और घोड़े वालों को मिलाकर एक हलचल भरी दुनिया है दारचा में। दारचा बाजार के साथ होकर बहने वाली नदी पर दो पुल हैं। यूं पहला पुल आज की तारीख में अप्रासंगिक हो गया है नदी के बदले बहाव के कारण। 1997 में जब शिंगकुन ला को पार करते हुए जा रहे थे जांसकर में, दारचा में ही रूकना हुआ था। नदी का बहाव उस वक्त आज जहां है वहां से थोड़ा दक्षिण दिच्चा की ओर था। नदी के उत्तर दिच्चा पर हमने टैन्ट लगाया था। तब हम आठ लोग थे। अभी पांच हैं। अनिल काला और अमर सिंह इस बार पहली बार जा रहे हैं। मैं, विमल और सतीश पहले दूसरे साथियों के साथ भी जा चुके हैं जांसकर। यही वजह है कि हम तीन और हमारे बाकी के दोनों साथियों की कल्पना जांसकर के बारे में मेल नहीं खा रही है। पहाड़ हो और जंगल न हो, वनस्पति न हो, सिर्फ पत्थर और मिट्टी बिखरी पड़ी हो, हमारे द्वारा दिखायी जा रही जांसकर से लेकर लेह लद्दाख तक की इस तस्वीर से सहमत नहीं हो पा रहे हैं हमारे साथी। फिर भी रोहतांग के बाद से यहां तक के पहाड़ों ने उनकी कल्पनाओं के पहाड़ो को तोड़ना शुरू किया है। उस वक्त दारचा में इतनी दुकानें नहीं थी। शराब का ठेका तो था ही नहीं। ''अपना ढाबा"" जिसमें रुके हुए हैं, तब भी था पर तब उसका नामकरण न हुआ था। वही एक मात्र था तब। आज तो दो एक और भी खुल गए हैं। अब टैन्ट लगाने के लिए जगह बची नहीं है। नदी के उत्तर में जो थोड़ी सी जगह है वहां पर एक विदेशी सैलानियों की टीम टैन्ट गाड़े बैठी है। दुकानों के पीछे, नदी के किनारे किनारे की जगह टैन्ट कालोनी से घिरी हुई है। थोड़ी सी खाली जगह पर जांसकरी घोड़े वालों के टैन्ट लगे हैं- सैलानियों की इंतजार में है वे।  97 में इस तरह सैलानियों का इंतजार करते नहीं मिले थे जांसकरी।

कुल्लू-रारिक पहुंचने वाली बस जैसे ही दारचा पहुंचने को होती है तो रास्ते के पड़ाव जिस्पा से ही बस में चढ़ जाते हैं जांसकरी घोड़े वाले कि आने वाली टीम शायद उनके घोड़े बुक कर ले। बस के दारचा पहुंचते ही तो जैसे रौनक सी आ जाती है दारचा में। यह तुरन्त नहीं बल्कि वहां कम से कम एक दिन रुकने के बाद ही जाना जा सकता है। सुबह के वक्त न जाने कहां गायब हो जाते हैं जांसकर घोड़े वाले भी। शायद घोड़ो के साथ ही चले जाते होंगे ऊपर, बहुत दूर। शाम होते-होते दुकानों के आस-पास भीड़ दिखाई देने लगती है। दारचा पहुंचती बस के ऊपर यदि यात्रियों के पिट्ठू चमक रहे हों तो जैसे जीवन्त हो उठता है दारचा। दुकान वाले, घोड़े वाले और यूंही दारचा के उस छोटे से बाजार में घूम रहे दारचा वासियों की निगाहों में उत्सुकता की बहुत मासूम सी हंसी जुबान से जूले-जूले की भाषा में फूटने लगती है। जांसकरी घोड़े वाले खुद ही बस की छत पर चढ़कर सामान उतरवाने लग जाते हैं- इस लालच में कि शायद बुकिंग उन्हें ही मिल जाए। लेकिन ये जानकर कि पार्टी तो पीछे से ही बुक है, मायूस हो जाते हैं जांसकरी। उनके जांसकर में जाने वाले यात्रियों को जांसकर तक पहुंचाने वाले न जाने कहां-कहां बैठे हैं, हैरान हैं जांसकरी। हमारी तरह के कुछ अनिश्चित यात्री पहुंचते हैं दारचा। वरना दिल्ली, कलकत्ता, बम्बई और बड़े-बड़े महानगरों में नक्शा बिछाए बैठे हैं ऐजेन्ट। फिर भी जांसकरी उम्मीद में है कि उनके घोड़े भी बुक होंगे ही। घोड़ा यूनियन वालों की पैनी निगाहें हैं जांसकरियों पर---कहीं कोई जांसकरी बिना पर्ची कटाये ही न निकल जाए पार्टी को लेकर। एक घोड़े पर 10 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से कटेगी पर्ची।


जारी---

Wednesday, December 23, 2009

और बुक हो गये उसके घोड़े़-1



जांसकर घाटी: जम्मू कश्मीर का यह इलाका जो अपने आप में एक बन्द डिबिया की तरह है। जिसमें घुसने के लिए दर्रा पार कर जाना होगा, यदि बाहर निकलना है तब भी दर्रा पार करना ही होगा। लाहुल में दारचा गांव है हिमाचल का। यूं दारचा से कइयों मील दूर है वह दर्रे जिनसे होकर जाता है रास्ता जांसकर घाटी में। दारचा में ही मिलेंगें घोड़े वाले जो हमारे सामानों के वाहक हो सकते हैं। वैसे मनाली में भी बैठे हैं घोड़े वाले। सिर्फ घोड़े वाले ही नहीं बल्कि ट्रैकिंग टीम से पूरा ठेका लेकर उन्हें यात्रा कराने वाले ट्रैव्लिंग एजेन्ट तक। ट्रैव्लिंग एजेन्ट तो दिल्ली में भी हैं और आज तो दुनिया के किसी भी कोने में बैठे हुए सैलानी कम्प्यूटर में बैठे एजेन्ट से कर सकते हैं सम्पर्क। दारचा से रारिक होकर लेह मार्ग को एक ओर छोड़ते हुए उत्तर दिशा की ओर आगे बढ़ शिंगकुन ला/पास को पार कर पहुंचा जा सकता है जांसकर में, या फिर लेह मार्ग पर ही आगे बढ़ते हुए बारालाचा पास को पार कर युनम नदी के किनारे-किनारे आगे बढ़ते हुए पश्चिम दिशा की ओर छुमिग मारपो से कुछ आगे चलकर दो दर्रे हैं। एक दक्षिण दिशा की ओर- '' सेरिचेन'' ला तो दूसरा उत्तर पश्चिम दिशा की ओर '' फिरचेन ला''। सेरीचेन को पार कर कारगियाक गांव में उतरना होगा जो जांसकर घाटी का आखरी गांव है और फिरचेन से उतरना होगा तांग्जे में। सिंगोला पास को पार कर दूसरी ओर लाकोंग है जहां से आगे कारगियाक, खीं, थांसो होते हुए तांग्जे और तांग्जे से जो रास्ता आगे बढ़ता है वह कुरू, त्रेस्ता, याल, मलिंग, पुरने, चा, रारू, मोने और बारदन होते हुए जांसकर घाटी के हेड क्वार्टर पदुम तक पहुंचता है।
     इन तीनों दर्रों के पार जांसकर घाटी के गांवों का यह रास्ता यूं अपने आप में गांव वालों द्वारा बनाया गया है लेकिन पहाड़ों की ऊंचाई यहां मौजूद है। लद्दाख के ज्यादातर पहाड़ों की तरह यहां के पहाड़ भी सूखे हैं। हां गांवों के आस पास होने वाली खेती जरूर थोड़ा बहुत हरापन लिए हुए है। कारगियाक से तांग्जे गांव तक छोटे बड़े छोरतनों  की एक लड़ी-सी दिखायी देती है। गांवों के आस पास '' ओम मणि पद्मे हूं'' मंत्र खुदे मने पत्थरों की उपस्थिति पहाड़ी के पीछे छिपे गांव का आभास करा देती है। बौद्ध धर्म के प्रतीक यह छोरतेन और मने पूरी जांसकर घाटी से लेकर लेह लद्दाख और लाहोल तक फैले पड़े हैं। पदुम से कारगिल तक एक ही सड़क मार्ग है जो लगभग 250 किमी लंबा है। पेनच्चिला दर्रे से होते हुए बस द्वारा यह दूरी तय की जा सकती है। यदि कारगिल लेह रोड़ पर जाना है तब तो दस पास करने होगें पार, तब ही पहुंचेगें लामायुरु जहां से लेह लगभग 124 किमी दूर है। एक और रास्ता हो सकता है लेह जाने का जिस पर कोई पास नहीं। जांसकर नदी के किनारे-किनारे सिन्धु नदी तक। पर यह कोई रास्ता नहीं, यह नदी का रास्ता है। पानी है, जो पहाड़ को फोड़ कर बह सकता है, मनुष्य नहीं। मनुष्य ने नहीं बनाया अभी तक इस पर रास्ता । इसलिए जांसकर को मैं जम्मू कश्मीर की डिबिया ही कहूंगा। एक ऐसी डिबिया जो दुनिया की तमाम हरकतों से बेखबर है। दुनिया की झलक विदेशी सैलानियों के रूप ही देख पाते हैं जांसकरी- साल के तीन महीने जुलाई, अगस्त, सितम्बर में। बाजपेयी और मु्शर्रफ की होने वाली बातचीत से बेखबर, कभी कभी लेह लद्दाख में होने वाली संघशाषित क्षेत्र की मांग से बेखबर जांसकर घाटी के इन बीस पच्चीस गांवों के लगभग 6-7 हजार लोग अभी तो अपनी ''चौरू'' और ''याक'' के साथ डोक्सा (चारागाह/बुग्याल) में हैं। पिघलती बर्फीली चोटियों की बर्फ से अपने गेंहू, आलू, मटर, शलजम और गोभी के खेतों को सींच रहे हैं। हीनयानी हो या महायानी सभी कटे हैं रोहतांग पार के बोद्धों से, लेह लद्दाख के बोद्धों से। यहां तक कि कारगिल से पदुम तक बस रोड़ के किनारे के गांवों से भी।
    यह यात्रा की शुरूआत नहीं बल्कि यात्रा की जाने वाली जगह का आकर्षण है। यात्रा की शुरूआत यूं देहरादून से है जो मनाली पर अपना पहला पड़ाव उसके बाद दारचा दूसरे पड़ाव के रूप में होता है।
    15, जुलाई 2001 बरसात का मौसम--- जब उत्तराखण्ड के पहाड़ों पर झमा-झम बारिश बरस रही थी। दे्श की नदियों का जल स्तर बाढ़ की सीमाओं तक था, देहरादून से मनाली के लिए दोपहर बाद हिमाचल रोड़ वेज की बस से चलकर सुबह मनाली पहुंचे। बारिश की रिम-झिम झड़ी सुबह से ही लगी हुई थी।

 
जारी---