Monday, November 23, 2009

विलुप्त होती भाषा बोलियां


 विलुप्त होती भाषा बोलियों की चिन्ता जिस तरह से अनुवादक यादवेन्द्र जी को दुनिया भर के रचनात्मक साहित्य तक जाने को मजबूर करती है, पत्रकार अरविंदशेखर  की वैसी ही चिंताएं तथ्यात्मक आंकड़ों के रुप में दर्ज होते हुए हैं। प्रस्तुत है विलुप्त होती भाषा बोलियों पर अरविंद शेखर  की रिपोर्ट । 


वक्त की अंधी सुरंग में गुम हो जाएगी राजी बोली 

अरविंद शेखर, देहरादून
किसी भी भाषा बोली के बचे रहने की गारंटी क्या होती है, यह कि उसकी भावी पीढ़ी उसको बोले। मगर उत्तराखंड की सबसे अल्पसंख्यक राजी जनजाति की राजी बोली वक्त की अंधी सुरंग में गुम हो जान वाली है। वजह साफ है उसके 20 प्रतिशत बच्चे अपनी बोली में बातचीत करना ही पसंद नहीं करते क्योंकि वे समझते हैं कि अपने पूर्वजों की बोली की बजाय कुमाऊंनी बोलना ज्याद फायदेमंद है। 60 प्रतिशत लोग अपनी बोली के प्रति बेपरवाह हैं, जबकि केवल 20 प्रतिशत को अपनी बोली में बात करना भाता है। 2001 की जनगणना के मुताबिक भारत में राजी या वनरावतों की आबादी महज 517 है। यह छोटी-सी खानाबदोश जनजाति नेपाल की सीमा से सटे उत्तराखंड के पिथौरागढ़ और चंपावत जिलों में रहती है। इसके महज पांच फीसदी लोग ही साक्षर हैं। ऐसे में राजी बोली का केवल मौखिक रूप जीवित है। हाल में ही दून आईं लखनऊ विश्वविद्यालय की रीडर डा. कविता रस्तोगी का सर्वेक्षण इस बोली के अंधेरे भविष्य की ओर संकेत करता है। डा.रस्तोगी के सर्वे के अनुसार 90 प्रतिशत राजियों का मानना था कि राजी बोलने से कोई फायदा नहीं, जबकि 60 फीसदी को अपनी जबान से कोई मतलब ही नहीं था। 26 से 35 साल के 65 फीसदी तो 16 से 25 साल के 60 फीसदी युवाओं को अपनी भाषा में बोलना पसंद नहीं। 26 से 35 साल के 40 प्रतिशत लोगों को अपनी भाषा संस्कृति पर कोई गर्व नहीं तो, 16 से 35 साल के 80 फीसदी तो 36 से 45 साल के 70 फीसदी राजी नहींमानते कि राजी बोलना अच्छा है। डा. रस्तोगी के मुताबिक दरअसल राजी लोगों में धीरे-धीरे अपनी भाषा-संस्कृति के प्रति हीनताबोध घर कर रहा है। इसलिए वे धीरे-धीरे कुमाउंनी या हिंदी पर निर्भर होते जा रहे हैं। राजी लोग अपनी बोली का 84 फीसदी इस्तेमाल धार्मिक कर्मकांड के दौरान ही करते हैं। बोली का घरों में 75 फीसदी तो दूसरे स्थानों पर केवल 30 फीसदी ही इस्तेमाल होता है। राजी बोली पर देश में पहली पीएचडी करने वाले भाषा विज्ञानी डा. शोभाराम शर्मा का कहना है कि किसी भी भाषा बोली के जिंदा रहने के लिए उसके बोलने वाले समाज का उसके प्रति झुकाव और उसकी भौतिक परिस्थितियां जिम्मेदार हैं। उन्होंने बताया के पिछली कांग्रेस सरकार ने राजी जनजाति पर संकट भांपते हुए जनजाति के लोगों को ज्यादा संतान पैदा करने पर पुरस्कृत करने और सुविधाएं मुहैया कराने की घोषणा की थी लेकिन उसका क्या हुआ पता नहीं। जिन भाषाओं में जीविका का जुगाड़ नहीं होता वे मर जाती हैं। राजी बोली का खत्म होना देश ही नहीं दुनिया की अपूरणीय क्षति होगा। सरकार को चाहिए कि वह भाषाई विविधता की रक्षा के लिए राजी जनजाति और उनकी बोली के संरक्षण के लिए प्रयास करें।


Thursday, November 19, 2009

बचा हुआ मांड हम फेंकते नहीं

भाषाओँ की विलुप्ति पर चिंता व्यक्त करने वाली कवितायेँ यादवेन्द्र जी के हवाले से पहले भी पोस्ट की गईं हैं,इस बार उन्हीम के मार्फ़त स्कॉट्लैंड की कवियित्री ओलिविया मक्महोन की भाषा सम्बन्धी दिलचस्प कविता प्राप्त हुई है। अनुवादक यादवेन्द्र जी का मानना है कि  ओलिविया की कविता में एक ताजगी भरा खिलदंड़पन है । ओलिविया एक ऎसी कवियित्री हैं जिनके कई संकलन छप चुके हैं. इसके अलावा उनके उपन्यास और स्कूल में अंग्रेजी को विदेशी भाषा के तौर पर पढ़ाने  वाली कई पाठ्य पुस्तकें भी प्रकाशित हैं. आपने खाली समय में वे
 पहाड़ो पर सैर सपाटा करना,पियानो बजाना और अमनेस्टी इंटरनेशनल के लिए धन जुटाना पसंद करती हैं.विभिन्न भाषा भाषियों और राष्ट्रीयताओं के लोगो के बीच के अपने अनुभव इन कविताओं में उन्होंने व्यक्त किये हैं..



नयी भाषा सीखना

कोई नयी भाषा सीखना
भरमाने वाली पहेली सुलझाने जैसा होता है
जिसमे होते हैं लाखों आड़े तिरछे टुकड़े
जो बनाते रहते हैं नए नए चित्र हरदम
यह वैसा ही है जैसे
भटक
 जाये कोई इन्सान परदेसी किसी शहर में
और न हो उसके पास वहां
 का कोई नक्शा
जैसे
 खेलना शुरू कर दे कोई टेनिस
और
 न हो उसके पास गेंद कोई इस खेल की
जैसे टिड्डों के झुण्ड में
धकेल दिया जाये किसी को बना के चींटी
जैसे कलाबाजियां दिखाना शुरू कर दे कोई
और टांगें ही न हो सही सलामत
जैसे अभिनय की मजबूरी आन पड़े
और स्क्रिप्ट न हो हाथ में कोई
जैसे बढईगिरी करनी पड़ जाये
और आरी का आता पता न हो दूर दूर तक
जैसे बन तो जाये कोई किस्सागो
पर
 किस्से में न तो मध्यांतर हो और न ही अंत...

पर इसके बाद धीरे धीरे
लगने लगता है जैसे आप सैर को निकल पड़े हों
अल स सुबह
और कोहरे की चादर धीरे धीरे खींच कर उतारने लगे कोई
जैसे दरवाजे के
 उस पार से कौंध जाये कोई रौशनी
जैसे अचानक हाथ आ जाये वो दस्ताना
जिसके तलाश में मचा रखी थी धमा चौकड़ी
जैसे
 भौंचक्के से पहुँच जायें हम
उस ट्रेन तक जिसका छुटना अवश्यम्भावी था
जैसे छप्पर फाड़  कर दे जाये कोई अप्रत्यासित तोहफ़ा
मंद मंद मुस्कराहट बिखेरता

इस तरह चलते चलते एक दिन लगने लगता है
कि हम चढ़ बैठे हैं साइकिल पर
जो तेजी से उतरती जा रही एक ढलान पर औंधे मुंह....


भात

एक इन्दोनेसिई,एक थाई और एक बंगलादेशी
आ कर खड़े हो गए मेरी किचन के अन्दर..,
तुम्हारे यहाँ कैसे पकाते हैं भात???
पूछती हूँ मैं उनसे.

भात पकाने के बाद हम बचा हुआ मांड फेंकते नहीं
सब इस एक बात पर राजी हो जाते हैं.....
कच्चे चावल से थोडा ऊपर तक रखते हैं पानी..
-तर्जनी जितना ऊँचा
-नहीं,बीच वाली  ऊँगली की पहली गांठ तक
-नहीं,दूसरी गांठ जितना ऊँचा

उन्हें सही सही मालूम नहीं था
कितना ऊपर तक रखना होता है पानी
अब अपने अपने घर लिखेंगे वे चिठ्ठी:
प्यारी माँ,तुम्हारी बहुत याद आती है यहाँ..
ठीक से समझा कर लिख भेजो चिठ्ठी
कैसे पकाया जाता है भात..


शब्दों की अदलाबदली

हमें शालीनता  से पेश आना चाहिए
और उसे स्त्री(१) कह कर पुकारना चाहिए
या,बेहतर हो
कि अभी उसको एक लड़की ही कहें
बात को और खींच सकें हम तो--
क्यों न कहा जाये  उसको एक औरत(२)?
वजह साफ है,औरत आकारहीन होती है
बिलकुल वैसे ही जैसे होता है
इतवार को दोपहर बाद का वक्तहर
 लड़की की होती है एक गुंजायमान आहट
और कुछ न कुछ होने ही वाला होता है उनके साथ
कुछ भी...
बस,लड़की तो होती है एक खालिस मौजयदि
 आप उसे कहने लगें औरत
जैसे कि आदमी होता है आदमी-
तो होने लगेंगे हम बेवजह धीर गंभीर
नहीं,हमें तब तक तो थम कर
इंतजार करना ही चाहिए
जब तक वो दिखने न लगे
किसी अदद माँ जैसी-
तभी वो कही जा सकेगी औरत
या,शालीनता दिखाएँ तो..एक स्त्री(१)
हो सकता है तब भी गुंजाईश बची रहे
उसमे लड़की कहलाने की-
यही होना चाहिए दरअसल
बात को और खींच सकें हम ...तो

(१)lady
(२)woman

 अनुवाद- यादवेन्द्र

Tuesday, November 17, 2009

एक अदृश्य दुकानदार का नाम है साम्राज्यवाद

रोज की जरूरतों में शामिल इच्छाएं ही नहीं बल्कि आवश्यक जरूरतों की चीजों को भी दूभर बना दे रहे मौजूदा तंत्र की आक्रमकता आज छुप न पा रही है। चीजों के दाम पिछले कुछ दिनों में जिस बेतहासा तेजी के साथ दिन प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं, क्या वह चिन्ता का कारण नहीं होना चाहिए ? न सही संतुलित भोजन- जिसमें दाल, सब्जी और दूसरे भोज्य पदार्थ शामिल हों पर पेट भरने के लिए, बेशक सूखी रोटी ही सही, चाहिए तो है ही। पर अफसोस कि दूसरे सामानों की तरह आटा और चावल के दाम भी, जिनके बिना तो जीने की कल्पना ही बेइमानी हो जाएगी, बेतहासा रूप से बढ़ते जा रहे हैं। हमेशा से पिटे-पिटाये लोग ही नहीं बल्कि कसमसाते हुए अपनी सीमित आय से जीने के रास्ते तलाशते परिवारों के लिए भी इस स्थिति को, यदि कुछ और दिन यथावत जारी रही, झेलना शायद संभव न रहे। सड़कों पर उतरने के अलावा कोई दूसरा विकल्प उनके पास शेष न होगा। कवि राजेश सकलानी की कविता पंक्ति अनायास याद आ रही है -

हमें गहरी उम्मीद से देखो बच्चों
हम रद्दी कागजों की तरह उड़ रहे हैं
 

हिन्दी साहित्य की महत्वपूर्ण पत्रिका तदभव के 20 वें अंक में प्रकाशित मदन केशरी की कविताएं जो ऐसे ही दूसरे सवालों को छेड़ रही हैं, ध्यान खींचती हैं। मदन केशरी की रचनाओं से मेरा यह पहला साक्षात्कार है। उनकी कविताओं में वे राजनैतिक शब्दावलियां जिन्हें साम्राज्यवाद या पूंजीवाद जैसे भारी भरकम शब्दों में व्यक्त किया जा रहा होता है, एक कवि के रचनात्मक कौशल में बहुत सहज तरह से परिभाषित हो रहे हैं। अपने विन्यास में भी ये कविताएं जो चित्र प्रस्तुत करती हैं वे एक दम साफ-साफ नजर आते हैं। शिल्प की दृष्टि से भी और एक कवि की वैचारिक स्पष्टता की दृष्टि से भी- द्विविधा या संशय जैसा भी कहीं कुछ, जो कई बार पाठक को बोझिल बना रहा होता है, कविताओं में दिखाई नहीं देता। यहां यह कहने की जरूरत भी नहीं लगती कि साम्राज्यवाद और स्वस्थ पूंजीवाद का भेद क्या होता है। अदृश्य दुकानदार के भ्रम जाल को रचता साम्राज्यवाद कैसे एक सीमित रूप के ही सही, स्वस्थ पूंजीवाद को भी तहस नहस कर देने के षड़यंत्र रच रहा है, कवि ने उसे भी बहुत सटीक तरह से पकड़ा है -  
अब वह सीधे बाजार से विस्थापित नहीं किया जायेगा
सब कुछ बिल्कुल प्रजातांत्रिक तरीके से होगा
महज परास्त कर दिया जायेगा उसका उद्यम
निरस्त कर दी जायेगी दुकानदारी की उसकी अर्जित कला
और एक दिन अपने अंधेरे में वह खरीदेगा सल्फास


मदन केशरी की कविताओं से यह साक्षात्कार उस गौरवशाली परम्परा को याद करना ही है जिसमें जनता के पक्ष की प्रबल इच्छाएं जन्म लेती हैं। मदन केशरी की ये कविताएं तदभव से साभार हैं। कवि और तदभव सम्पादक की सहमति के बाद ही इन्हें प्रस्तुत किया जा रहा है।  


-वि. गौ.

मदन केशरी की दो कविताएं


वैश्विक बाजार में लुप्त होने से पहले पटरी बाजार का एक शब्दचित्र

ताजी सब्जियों से भरे पुराने तिपहिये आने लगे हैं
खड़खड़ाहट की आवाज के साथ वे खड़े होने लगे हैं अपनी नियत जगह पर
कुछ टेढ़े मेढ़े जैसी गंुजाइश हुई वैसी, कुछ एक के साथ दूसरे लगे सीधी कतार में
टेम्पुओं से उतर रहे भारी भरकम गट्ठर, धूल झाड़ते बोरे, बड़े बड़े संदूक
गिर रहे मटमैले तिरपाल, कील और छेदभरी बल्लियां
करीने से लपेटे बिजली के तार और बल्ब, रस्सी से बंधी पेट्रोमैक्स की बत्तियां
अभी दो बजे हैं और पटरी वाले अपनी अपनी जगहों पर
टाट और रेक्सीन की नीली चादरें बिछा माल उतारने में व्यस्त हैं
दुकान लगाते, सामान फैलाते पटरी वाले थकान से चूर हैं
और शाम की बिक्री के खयाल से उत्साहित
चिराग दिल्ली से शेख सराय के बीच की पटरी सुगबुगाने लगी है

पटरी पर बिछता माल हर बार वही होता है
नये सिरे से जरूरतों को पूरा करता हुआ
कोल्ड स्टोरों और गोदामों में जो न अंटे वे फल सब्जियां, अनाज दलहन
चीनी मिट्टी के कप प्लेट, तश्तरियां, फूलदान
जो नुक्स के कारण निकाल दिये गये निर्यात की पहली ही खेप से
चादर, गिलाफ, पर्दे, दरियां जो न पहुंच सके
कनॉट प्लेस, करोलबाग, कमला नगर के शोरूमों तक
महंगे बाजारों के छंटुआ स्टील और प्लास्टिक के बर्तन
गांधी नगर के फैब्रिकेटरों के अतिरिक्त जीन्स, जैकेट, स्कर्ट, टॉप
बंद पड़ी फैक्ट्रियों का बचा हुआ माल
और बची हुई फैक्ट्रियों का बंद पड़ा माल
कतारों में एक गझिन बुनावट में  गुंथी दुकानों पर
दफ्तरों से वापस लौटे लोगों और प्रतीक्षा करती औरतों की भीड़ घनी होने लगी है

बल्लियों से लटकते बल्ब के नीचे चमक रहे रेहड़ी पर अंटे सामान
अचार मुरब्बा बड़ियां पापड़ गजक रेवड़ी पट्टी बताशा
बल्बों की जगमग में रह रह कर भभक उठता है गुब्बारे वाले का धुंधुवाता पेट्रोमक्स

गुप्ता जी की कचौड़ी की गर्माहट लोगों की जेबों तक पहुंच रही है
सौ रुपये में पुरानी रेशमी साड़ियां इच्छाओं के गिर्द लिपटने लगी हैं
दस रुपये में ढाई किलो टमाटर बार बार याद दिला रहा फ्रिज का छोटा होना
मोल तोल के बीच, प्याज के बोरे तेजी से खाली हो रहे हैं
बहुतों के स्वाद में उतरने लगा है तरबूज का गहरा लाल रंग
सड़क की धूल और हरे धनिये की गंध हवा का वजन बढ़ा रही है

जहां रोज की जरूरतों में शामिल है इच्छाओं को मारना
यह पटरी बाजार बचाये हुए है चीजों को आम आदमी की सोच से लुप्त होने से

अभी भी अरहर की दाल में पड़ सकती है कभी कभार
एक चम्मच असली घी में भुने हुए जीरे की छौंक
पच्चीस रुपये में एक किलो रस्क बदल सकता है शाम की चाय का जायका
लक्मे या रेवलॉन न सही, अनजान लेबल वाला लिपस्टिक
भर सकता है औरत के होठों में कामुकता का रंग
बच्चों की नींद में अभी भी गिर सकती है रबर की गेंद
यूनीलीवर,  प्रॉक्टर  एंड  गैम्बल  और  पेप्सीको  की  बाजार  नियंत्रक  सत्ता  के बावजूद
आमजन की खरीददारी में अभी भी शामिल हैं चीजों के रंग और स्वाद

उस नीम के पेड़ के नीचे मुट्ठी में बीड़ी रख सुट्टा खींचता
वह खुरदरे चेहरे वाला आदमी
बीस साल से यहां प्याज की ढेरी लगाता है
हर मंगलवार रोशनी में चमकता है उसके प्याज का गहरा बैगनी कत्थई रंग
मगर प्याज की चमक से बाहर, इस बीच चीजें तेजी से बदलती रही हैं
बदल गया है अर्थतंत्रा की हिंसा का शिल्प



अब वह सीधे बाजार से विस्थापित नहीं किया जायेगा
सब कुछ बिल्कुल प्रजातांत्रिक तरीके से होगा
महज परास्त कर दिया जायेगा उसका उद्यम
निरस्त कर दी जायेगी दुकानदारी की उसकी अर्जित कला
और एक दिन अपने अंधेरे में वह खरीदेगा सल्फास
वह दूसरा जो वॉल्स आइसक्रीम के ठेले के पीछे खड़ा है
धारियों वाली गुलाबी कमीज और नीली पतलून के यूनिफॉर्म में
पिस्ते वाली कुल्फी बनाता था और बेचता था घंटी बजा कर
उसकी कुल्फी के लिए लड़के शाम तक बचा कर रखते थे जेब में पांच रुपये
व्यावासायिक डार्विनवाद में पहननी पड़ी उसे वॉल्स की यूनिफॉर्म
वह कोई और है जो पापड़ बड़ियां बेचते बेचते
खींचने लगा एक दिन अचानक रिक्शा
आ चुका है यह पटरी बाजार वैश्विक बाजार के मानचित्रा के नीचे
मगर लुप्त होने से पहले अभी इस शाम
औरत मर्द बच्चों की आवाजों से गूंजता
बल्बों और पेट्रोमैक्स की रोशनी में सराबोर, फैला है
सड़क के इस छोर से उस छोर तक

तेल के दाग भरे कैलेण्डर में चमकता मंगलवार का दिन

यह सप्ताह का वह दिन है जब औरतें घर के अनेक कामों के बीच
अपने लिए थोड़ी सी जगह बना लेती हैं
घर की साफ सफाई, रसोई पानी, कपड़े लत्ते की धुलाई
सारा काम खत्म कर लेती हैं दोपहर तक
बच्चों को स्कूल बस से लाकर जल्दी उनके कपड़े बदलती हैं
एक बर्नर पर सुबह की सब्जी गरम करने को रख दूसरे पर फुल्के सेंकते सोचती है
अभी चार बजे हैं, दो घंटे बाद निकल जायेंगे 
थोड़ा समय मिल जायगा बातचीत का, पास पड़ोस का समाचार जानने का
बहुत दिनों से जबसे बच्चों की परीक्षा चल रही है
किसी से ठीक से दो शब्द बात न हो सकी
केवल आते जाते देख कर थोड़ा मुस्करा दिया या "कैसी हो" पूछ लिया


उस दिन रसोई की खिड़की से बाहर चमकती धूप
चल कर उनके चेहरे पर पहुंचती है
क्या क्या खरीदना है?
कनस्तर में खत्म हो रहा है आटा, पिसवाने के लिए दस किलो गेहूं
काला चना, साबूत मसूड़, चित्ती वाला राजमा एक एक किलो
धनिया, मिर्च, अमचुर सौ सौ ग्राम, एक पाव लहसुन
इस बार बहुत जल्दी खत्म हो गयी हल्दी
पुर्जी पर लिखती हैं चीजों को
जिनके रंग और गंध पहचानती है केवल औरत
"आ रही हो मंगल बाजार?"
खिड़की से एक पूछती है सामने की तीसरी मंजिल की सहेली से
"छै बजे निकलते हैं, आठ बजे बिट्टू के पापा आ जाते हैं दफ्तर से!"
तीसरी मंजिल की सहेली बरामदे से बतियाती है पहली मंजिल की नयी आयी पड़ोसन से

"क्या कर रही हो? काम निपटा लिया? आज पटरी बाजार लगता है, चलोगी साथ

"अरे वह तो अपने पति के साथ जायगी!
किस्मत वाली है, हमारी तरह नहीं!" दूसरे बरामदे से आती है आवाज
"यार, हम भी कोई बुरे किस्मत वाले नहीं!
अब अगर हमारे पति देर से आते हैं तो हमारे लिए ही तो खटते हैं!"
वह हंस कर देती है जवाब
उसके शब्द उसके उ+पर ही टूट कर गिरते हैं
दस रुपये में ढाई किलो बेचते प्याज वाले की दुकान पर मिल जाती हैं औरतें
रोजमर्रा से थोड़े बेहतर कपड़ों में
कुछ की आंखों में काजल से भी ज्यादा चमक है
कुछ के कपड़ों में इस्तरी वाले के कोयले की गर्मी अभी भी मौजूद है
कंधों पर लटकते झोलों में भर रहीं
दूर से बम्पुओं में लद कर आया मूली, हरा लहसुन, आलू, शलजम
जो उन्होंने खरीदा है रोज सुबह आवाज लगाते रेहड़ी वाले की बनिस्बत आधी कीमत पर
और मदर डेयरी, सुभीक्षा और रिलायंस फ्रेश से भी सस्ता
हाथों में झूलते पॉलीथीन में ठूंस ठूंस कर भरा बड़ियों, पापड़, बिस्कुट, रस्क का स्वाद
"अरे आज तो बड़ी जंच रही हो! एकदम फेयर एंड लवली! क्या बात है?"
करीने से बंधी साड़ी, जूड़े और गहरे लिपिस्टक में एक को
ऊपर से नीचे तक देखते कहती है दूसरी
सामने शीशे वाले की दुकान में लटकते आईने में पहली औरत निहारती है अपना चेहरा

"अब क्या! मगर पहले मेरा चेहरा मोहरा बहुत अच्छा था
बेहद शौक था फोटो खिंचवाने का!"
"और, आज टमाटर नहीं खरीदा?"
हरे और चम्पई रंग के सलवार कुर्ते में एक अर्थभरा प्रश्न करती है
"बड़ा बदमाश है, मैं टमाटर चुनती हूं और वह दबी नजर से देखे जाता है!"
"खोजता है हर सप्ताह तुझे!"
"एक बार उससे सब्जी न लेकर बगल से खरीदा
तो बोलने लगा कि आज तो मेरी दुकानदारी ही खराब हो गयी!"
पेट्रोमैक्स की बत्तियां जलने लगी हैं
उनकी रोशनी में चमकती है उनकी हंसी
खरीदती हैं वे चूड़ियां, बिन्दी, पाउडर, प्लास्टिक के क्लिप और रंगीन परांदे
चुनती हैं उनको भी वैसे ही जैसे तन्मयता से चुनती हैं टमाटर और भिण्डी
नाखूनों पर लगाती हैं गाढ़े रंग का आलता
जो बचाता है एक स्त्री को धुएं की कालिख में गुम होने से

छोले भटूरे की दुकान पर एक निकालती है ब्लाउज के अंदर से छोटा पर्स
दूसरी खोलती है रेक्सीन का कत्थई हाथबटुआ
बाकी की मुटि्ठयों में हैं पसीने में कुछ भीगे मुड़े तुड़े नोट
"पिछली बार तूने दिया था, इस बार मैं दूंगी!" रोकती है एक दूसरी का हाथ
"कोई बात नहीं, यार! तूने दिया या मैंने, एक ही बात है!"
देर तक उनकी उंगलियां चलती हैं प्लेटों में
झिलमिलाती हैं बिन्दी वाले माथे पर पसीने की बूंदें
बीतती शाम में नहीं बीतते पांच रुपये के छोले भटूरे
दरवाजे के पीछे टंगे कैलेण्डर में मंगलवार वह दिन है
जिस पर निशान लगाती है झाडू, बर्तन, रसोई में लुप्त एक औरत

Saturday, November 14, 2009

नैनीताल का पहला फिल्म उत्सव

7-8 नवम्बर 2009 को नैनीताल में पहले फिल्म उत्सव का आयोजन किया गया। नैनीताल में यह अपनी तरह का पहला आयोजन था जिसे एन.एस. थापा और नेत्र सिंह रावत को समर्पित किया गया था। इस फिल्म उत्सव का नाम रखा गया था `प्रतिरोध का सिनेमा´। इसका मुख्य उद्देश्य लोगों को उन संघषों से रु-ब-रु करवाना था जो कि कमर्शियल फिल्मों के चलते आम जन तक नहीं पहुंच पाती हैं। युगमंच नैनीताल एवं जन संस्कृति मंच के सहयोग से इस फिल्म उत्सव का आयोजन किया गया।

आयोजन का उद्घाटन युगमंच व जसम के कलाकारों द्वारा कार्यक्रम प्रस्तुत करके की गयी। इसी सत्र में फिल्म समारोह स्मारिका का विमोचन भी किया गया और प्रणय कृष्ण, गिरीश तिवाड़ी `गिर्दा´ एवं इस आयोजन के समन्वयक संजय जोशी ने सभा को संबोधित किया। इसके बाद आयोजन की पहली फिल्म एम.एस. सथ्यू निर्देशित `गरम हवा´ दिखायी गयी। बंटवारे पर आधारित यह फिल्म दर्शकों द्वारा काफी सराही गयी

सायंकालीन सत्र में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कवि वीरेन डंगवाल के काव्य संग्रह `स्याही ताल´ का विमोचन किया गया तथा गिरीश तिवाड़ी `गिर्दा´ और विश्वम्भर नाथ सखा को सम्मानित किया गया। इस दौरान `आधारशिला´ पत्रिका का भी विमोचन किया गया। इसके बाद राजीव कुमार निर्देशित 15 मिनट की डॉक्यूमेंट्री `आखिरी आसमान´ का प्रदर्शन किया गया जो कि बंटवारे के दर्द को बयां करती है। उसके बाद अजय भारद्वाज की जे.एन.यू. छात्रसंघ के अध्यक्ष चन्द्रशेखर पर केन्द्रत फिल्म `1 मिनट का मौन´ तथा चार्ली चैिप्लन की फिल्म `मॉर्डन टाइम्स´ दिखायी गयी। इस फिल्म के साथ पहले दिन के कार्यक्रम समाप्त हो गये।

दूसरे दिन के कार्यक्रमों की शुरूआत सुबह 9.30 बजे बच्चों के सत्र से हुई। इस दौरान `हिप-हिप हुर्रे´, `ओपन अ डोर´ और `चिल्ड्रन ऑफ हैवन´ जैसी बेहतरीन फिल्में दिखायी गयी। बाल सत्र के दौरान बच्चों की काफी संख्या मौजूद रही और बच्चों ने इन फिल्मों का खूब मजा लिया।

दोपहर के सत्र की शुरूआत में नेत्र सिंह रावत निर्देशित फिल्म `माघ मेला´ से हुई और इसके बाद एन.एस. थापा द्वारा निर्देशित डॉक्यूमेंट्री फिल्म `एवरेस्ट´ का प्रदर्शन किया गया। यह फिल्म 1964 में भारतीय दल द्वारा पहली बार एवरेस्ट को फतह करने पर बनायी गयी है। यह पहली बार ही हुआ था कि एक ही दल के सात सदस्यों ने एवरेस्ट को फतह करने में कामयाबी हासिल की थी। निर्देशक एन.एस. थापा स्वयं भी इस दल के सदस्य थे। इस फिल्म को दर्शकों से काफी प्रशंसा मिली। इस के बाद विनोद राजा निर्देशित डॉक्यूमेंट्री `महुवा मेमोआर्ज´ का प्रदर्शन किया गया। यह फिल्म 2002-06 तक उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखंड और आंध्र प्रदेश के आदिवासी इलाकों में किये जा रहे खनन पर आधारित है जिसके कारण वहां के आदिवासियों को अपनी पुरखों की जमीनों को छोड़ने के लिये मजबूर किया जा रहा है। यह फिल्म आदिवासियों के दर्द को दर्शकों तक पहुंचाने में पूरी तरह कामयाब रही।

सायंकालीन सत्र में अशोक भौमिक द्वारा समकालीन भारतीय चित्रकला पर व्याख्यान दिया गया और एक स्लाइड शो भी दिखाया गया तथा कवि विरेन डंगवाल जी का सम्मान किया गया। इस उत्सव की अंतिम फिल्म थी विट्टोरियो डी सिल्वा निर्देशित इतालवी फिल्म `बाइसकिल थीफ´। उत्सव का समापन भी युगमंच और जसम के कलाकारों की प्रस्तुति के साथ ही हुआ।

समारोह के दौरान अवस्थी मास्साब के पोस्टरों और चित्तप्रसाद के रेखाचित्रों की प्रदर्शनी भी लगायी गयी जिसे काफी सराहना मिली।
आयोजन की कुछ झलकियां





अवस्थी मास्साब के पोस्टर





चित्तप्रसाद के रेखाचित्र


विरेन डंगवाल जी के काव्य संग्रह का लोकार्पण

गिर्दा का सम्मान

विश्वम्भर नाथ साह `सखा´ का सम्मान

Monday, November 9, 2009

प्रभाष जोशी के क्रिकेटिया गल्प





प्रभाष जोशी नहीं थे। हम संवेदना के साथियों के बीच वे मौजूद थे। कथाकार अल्पना मिश्र दैनिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित महाश्वेता देवी के उस स्मृतिआलेख को अपने साथ ले आईं थी जिसमें पराड़कर की परम्परा के पत्रकार प्रभाष जोशी का जिक्र था। प्रभाष जोशी से हममें से कोई शायद ही व्यक्तिगत रूप से परिचित हो, अल्पना मिश्र का सोचना देहरादून के साथियों की उस फितरत के कारण रहा होगा जिसमें तमाम रचनात्मक व्यक्तियों के रचनाकर्म से परिचित होने के बावजूद भी व्यक्तिगत परिचय की बहुत सीमित जानकारियों का इतिहास था। अनुमान गलत भी न था। उपस्थित साथियों में कोई भी प्रभाष जोशी से व्यक्तिगत रूप से परिचित न था। उसी आलेख का पाठ करते हुए हम प्रभाष जोशी को याद कर रहे थे। जनसत्ता जो संख्यात्मक रूप में बेशक सीमित प्रतियों वाला अखबार है, अपने साहित्यिक आस्वाद के कारण हममें से हर एक का प्रिय था। प्रभाष जोशी उसी जनसत्ता के सम्पादक थे। रविवारिय संस्करण के हम ज्यादातर पाठक जो किक्रेट के जिक्र से भरे कागद कारे को अपनी थाली में से हड़प लिए गए किसी साहित्यिक आलेख की जगह के रूप में देखते थे, उस वक्त उन्हीं कागद कारे करने वाले प्रभाष जोशी के क्रिकेटिया गल्प के जिक्र के साथ प्रभाष जोशी को याद कर रहे थे। रविवार में प्रकाशित उनके हालिया साक्षात्कार से असहमति के स्वर भी थे तो अभी तीन राज्यों के भीतर हुए चुनाव में मीडिया की भूमिका को लेकर दबंगई से लिखने वाले पत्रकार प्रभाष जोशी के प्रति आगध स्नेह भी बातचीत में था। कथाकार सुभाष पंत, मदन शर्मा, मनमोहन चढडा, वेद आहलूवालिया, स्वाति, महावीर प्रसाद शर्मा  मुख्यरूप से उपस्थितों में थे।


स्वाति, वह युवा रचनाकार जो पहली बार संवेदना की बैठक में उपस्थित हुई, अपनी कविताओं के साथ आई थी। उसने कविताओं का पाठ किया। कथाकार/व्यंग्यकार मदन शर्मा ने अपने ताजा व्यंग्य का पाठ किया और अंत में कथाकार सुभाष पंत के ताजा लिखे जा रहे उपन्यास अंश को सुनना गोष्ठी की उपलब्धता रही।

स्वाति का कविता-पाठ आप यहां क्लिक कर सुन सकते हैं-