Saturday, February 21, 2009

सनसनीखेज शीर्षको की खोज में कौन है परेशान

चोखेर बाली ने रवीश जी के आलेख के बहाने भाषा की जो बहस छेड़ी है, रवीश जी के आलेख को ध्यान में रखकर कहूं तो वहां मूल रूप से एक भाषा के भीतर ही शब्द संयोजन और उसके भाषिक विन्यास का मामला है। भाषायी भिन्नता के सवाल पर मुझे तेलगू के कवि वरवर राव की वह टिप्पणी याद आ रही है जिसमें वे भाषा के दो रूपों का जिक्र करते हैं - एक सत्ता की भाषा और दूसरी जनता की भाषा। यानी यहां वे दो भाषाओं के समूल विभेद की बात करते हैं। भाषायी विभेद को वे एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से व्याख्यायित करते हैं। लिंगभेद की बजाय उत्पादन के यंत्रों पर कब्जा किए शासक वर्ग और उसके द्वारा शोषित जनता के आधार पर उसका विश्लेषण करते हैं।
एक ही भाषा के भीतर उसके विन्यास के सवाल पर भाषाविद्ध नोम चॉमस्की सृजनात्मकता पर बल देते हैं। उनका मानना है सृजनात्मकता मन की क्षमता है, जो किन्हीं नियमों के अंतर्गत अब तक न सुनी गयी रचनाओं को भी पहचानता है और नये-नये वाक्यों का उत्पादन (निष्पादन) करता है। यानी निष्पादन की इस प्रक्रिया को कोई भी भाषा-भाषी बिना किसी लिंगभेद के ग्रहण करता है। स्वंय हिन्दी के भीतर ही देख सकते हैं कि किसी भी वस्तु के लिंग को निर्धारित करते हुए हिन्दी भाषी स्त्री हो चाहे पुरुष, कभी कोई गलती नहीं करते। एक स्त्री भी "बस जाती है" कहती है और एक पुरुष भी "ट्रक जाता है" कहता है। यहां बस और ट्रक के रूप, आकार या गति के आधार पर नहीं बल्कि हिन्दी भाषा के भीतर मौजूद सामंतीय संस्कार, जो सिर झुका कर काम करने वाली स्त्री की तस्वीर हमारे सामने रखते हैं, वैसे ही सार्वजनिक रूप से सेवा के भाव के साथ कार्य में जुती बस को स्त्रीलिंग और उसी सामंतीय संस्कारों के चलते बलशाली से दिखते और अपनी मर्जी से संचालित होते भाव को लिए ट्रक को पुल्र्लिंग बना देते हैं। इस तरह से यदि देखना चाहें तो एक हद तक हिन्दी में वस्तुओं के लिंग निर्धारण की व्याख्या संभव हो सकती है। यद्यपि यह मुक्कमिल नहीं है। अन्य भी, और कई नियम हो सकते हैं जिन पर गम्भीरता से विचार करने वाले स्वत: मु तक पहुंच पाएं। यहां तो बस यह उल्लेखनीय है कि भविष्य में उत्पादित होने वाली किसी भी वस्तु,जिसके अस्तीत्व की भी आज कल्पना संभव नहीं, के लिंग निर्धारण में किसी हिन्दी भाषी पुरुष और स्त्री में शायद ही मतभेद हों। अब सवाल यह है कि मीडिया की भाषा में, जो सनसनी और चौंकाऊपन दिखाई दे रहा है क्या उसके कारणों को रवीश जी की दृष्टि, जो इसे लिंगभेद के कारणों की उपज मानती है, से विश्लेषित किया जा सकता है ?
मेरी समझ में टी आर पी को बढ़ाने के लिए जो बाजारु किस्म के दबाव हैं, जिसके पीछे मुनाफा एक मात्र शर्त है, वही एक मूल बिन्दू हो सकता है जो इस प्रवृत्ति को विश्लेषित कर पाए। यहां स्त्री और पुरुष के बदल जाने पर शायद ही कोई बदलाव दिखे, ऐसी आशंका रखना चाहता हूं।
बाजार सनसनी पैदा करता है और सनसनी से भरी खबरें ही बाजार हो सकती हैं। बाजार की चमक-दमक में ही वो चुधियाट हो सकती है जो झूठे सपनो का संसार रच सकती है और उन सपने के पूरे न हो सकने के लिए किसी सनसनी भरी खबर में ही जनता की लामबंदी को रोकना संभव है। सनसनी भरी खबर ही ज्यादा दर्शक बटोरू भी हो सकती है। जितने ज्यादा दर्शक जिस रिपोर्ट के कारण मिले उतनी पौ बारह उस पत्रकार की जिसकी वह रिपोर्ट है। ऐसे ही सुरक्षित रह सकती है हमारी रोजी-रोटी, यह बात मीडिया का हर स्त्री-पुरुष जानता है। इसलिए उनका शाब्दिक संयोजन भी उसी प्रवृत्ति के चलते है जो बेशक दर्शक को ज्यादा देर तक भले ही न टिकाए रख पाए पर चौंका कर अपने पास तक तो ले आए। सिर्फ और सिर्फ टी आर चाहिए और उस टी आर पी के आधार पर ज्यादा से ज्यादा विज्ञापन। बल्कि मुनाफे की यह मानसिकता हमारे भीतर जब महत्वांकाक्षा के रूप में होती है तो ब्लाग पर उस एक क्लिक के लिए ही जो हमारी टी आर पी को बढ़ाने वाला होता है, क्या हमें सनसनीखेज शीर्षको की खोज में परेशान नहीं करता। महत्वाकांक्षा की इस प्रव्त्ति से संचालित स्त्री और पुरुष ब्लागरस में भी यहां कोई खास फर्क शायद ही दिखे।

Tuesday, February 17, 2009

ये राज ठाकरे कौन है

कवि राजेश सकलानी की कविताओं पर लिखा आलेख उनकी कविता पुस्तक सुनता हूं पानी गिरने की आवाज की कविताओं को ध्यान में रखकर लिख गया था पिछले वर्षो में लिखी गईं उनकी कुछ कविताएं यहां प्रस्तुत हैं :


राजेश सकलानी


पहाड़ों का बयान


हम तो देवता हैं आदि काल से
जरा देखिए हमारा कद
जंगल के जंगल है हमारी जमींदारी में
पहरेदारी में है खूंखार चट्टाने

हमारी जेबों से निकलती है
चमकीली नदियां
बहा कर ले जा सकती हैं
कुछ भी वे अपने आवेग से
अपनी जान की हिपफाजत आज चाहें
तो कर लें

हमसे किया ही नहीं जा सकता
कोई भी सवाल
हां हमारी प्रशंसा में लिखे जा सकते हैं
गीत


पुश्तों का बयान

हम तो भाई पुश्तें हैं
दरकते पहाड़ की मनमानी
संभालते है हमारे कन्धें

हम भी है सुन्दर, सुगठित और दृढ़

हम ठोस पत्थर है खुरदरी तराश में
यही है हमारे जुड़ाव की ताकत
हम विचार और युक्ति से आबद्ध है

सुरक्षित रास्ते हैं जिन्दगी के लिए
बेहद खराब मौसमों में सबसे बड़ा भरोसा हैं
घरों के लिए

तारीफों की चाशनी में चिपचिपी नहीं हुई है
हमारी आत्मा
हमारी खबर से बेखबर बहता चला आता
है जीवन।

ये राज ठाकरे कौन है

ये राज ठाकरे कौन है?
पता नहीं, मै तो मनु ठाकरे को जानता हूँ
अन्धेरी वैस्ट में रहता है
और वह कोई मशहूर आदमी नहीं है

सुबह आठ चालीस पर निकलता है घर से
लोकल पकड़ने के लिए
बीस मिनट लगते हैं उसे गलियों से गुजरने में
चलते-चलते ही कर लेता है अपनी चिन्ताएं
थोड़ा घबराहट तो बराबर बनी रहती है
कितने से टकराता है इसका कोई हिसाब नहीं

धीमे से बोलता है वह जिससे एक दीर्घ और स्थाई
आवाज बनती है
रात में एक समकेत सांस की तरह जो धीमें से
सुनाई पड़ती है
किन्हीं बिरले क्षणों में जागती है करूणा उसके भीतर
वर्षों तक जो बनी रहती है तहों में
और देखो कितना अलग है वो गिरे हुए लोगों से

गिरा हुए बोले तो?
वही जिन्हं सूझता हीनहीं अपनी वर्चस्वता के सिवा कुछ भी
भले ही पफूंकना पड़े उसे किसी का घ्ार
और खुलजाता रहता है दूसरे की तलाश में
शत्रु बनाने के लिए

दूसरा बोले तो ?
वही जैसे दूसरे मजहब, दूसरी जाति, दूसरे नगर
दूसरे मौहल्ले यानि कि कोई भी दूसरा जैसा कि आप ही
जो बाजू में खड़े हो

लेकिन वे कौन हैं जो बदहवास हो रेलों में भर कर
शहर छोड़ कर जा रहे हैं ?

ये कामकाजी लोग है भईया
वही हमेशा के दूसरे
पिफर भी ये राज ठाकरे कौन है?
होगा कोई
वक्त का पहिया, उसे भी सबक सिखाएगा
लेकिन ये वक्त का पहिया कौन चलाता है ?
जैसे ये मजदूर जो शहर छोड़ कर
बाहर की ओर भाग रहे हैं।

ब्लैंक कॉल

निकलो जी बाहर भीतर बड़ी घुटन है
लड़के निकल पड़ते हैं जहाँ कहीं सड़कों पर
दोस्तों के बीच जबरन मुस्कराते
गुटखा तमाखू पफाँकते बैचेनियों में
बीते जमाने के लड़कों से अध्कि चुस्त
लेकिन कहीं अधिक निराश
गलियों में पान की दुकानों की तरह खुले
लुटेरे कम्प्यूटर जैसे शिक्षण संस्थानों में आते या जाते

बढ़ती जाती है भीड़ बेकारों की रोज
बढ़ता जाता है कर्ज घरों में
बैंक प्रबन्धक बुलाते हैं उनके हड़बड़ाए पिताओं को
कर्जे के लिए बशर्ते वे आयकर का रिटर्न
दाखिल करते हो
भले ही बची तनख्वाह में पेट भर पाना
हो मुश्किल

कर्ज में ली गई मोटर साइकिल में अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष
की तरह उदंड रफ्रतार में भागते
कभी वे घायल हो निर्मम अस्पतालों के
बन्ध्क बन जाते हैं
दूर तक नजर नहीं आता रोजगार का रास्ता
बैंकों, सरकारी दफ्रतरों और उपक्रमों से निकाल
बाहर किए जा रहे हैं परिवार का बोझ उठाने वाले

सपनों के लिए छटपटाते वे पी।सी।ओ। में
पफोन नम्बर लगाते हैं और तुरन्त लाइन काट देते हैं
जब उधर से जिन्दगी हैलो कहती है

Monday, February 16, 2009

बहुत दिनों बाद लौटा अपने में

कवि राजेश सकलानी की कविताओं पर यह आलेख उनकी कविता पुस्तक सुनता हूं पानी गिरने की आवाज की कविताओं को विभिन्न समय अंतरालों में पढ़ते हुए ली गई टिप्पणियों के आधार पर, पहल पत्रिका को ध्यान में रखकर तैयार किया गया था। लेकिन---
एक लम्बे समय से, लगभग 6 माह से, एक पत्रिका में पड़ा है। न जाने कब प्रकाशित हो, या न भी हो । तो सोचा कि ब्लाग में ही प्रकाशित कर दिया जाए। बेशक संख्या में सीमित ही सही, पाठक तो फिर भी हैं ही नेट पर -



सिल के ऊपर रखा हुआ बट्टा
जैसे साथ मिलकर
रुके हुए हों।
'साथ' को गलती से मैं हाथ पढ़ता हूं और चौंक जाता हूं। चौंक जाता हूं और फिर-फिर पढ़ता हूं। सिलबट्टे का नया ही बिम्ब उभरने लगता है। फिर कभी अनायास खुल जाती है किताब, पृष्ठ वही। अब ठीक-ठीक पढ़ गया। देखता हूं जो प्रभाव पहले कभी था - पढ़ा हुआ, बदल जाता है। राजेश सकलानी का कविता संग्रह सुनता हूं पानी गिरने की आवाज जो मुझे बार-बार पढ़ने को मजबूर करता रहा, हर बार रचनाओं के नये पाठ गढ़ता रहा। इस हर बार पढ़ने में मेरी मन:स्थिति, सामाजिक परिदृश्य और कविताओं का शिल्प एवं राजेश सकलानी का कवि मानस जो कभी साथ रहते हुए खुल रहा होता, कविताओं की व्याख्या करने में सहायक और प्रभावी रहे।
साथ मिलकर रुके हुए हों
या
हाथ मिलकर रुके हुए हों
अब दोनों पंक्तियां हैं मेरे पास। पर साथ को हाथ तो नहीं पढ़ सकता। साथ मिलकर रुके हैं, क्या करने के लिए ? कहां जाने के लिए ? किसी समय की धूप में - जहां अपने स्वाद के लिए उसे बचाये रखने को कवि बेचैन है।
बहुत सहूलियतें सभ्यता में आयेगीं/ हमें स्मृतिविहीन करने की जिद करती
अच्छा हो तब दिख जाये/ चुपचाप तैयार सिल बटटा
क्या इसके बाद भी अनिश्चित रहा जा सकता है। गलती से पढ़ी गयी पंक्ति को बचाये रखा जा सकता है ? तो फिर कैसे देख पायेगें खुशी के साथ फुदक कर फूटते हुए अदरख को जो हमारे हाथों में यूंही नहीं छोड़ता है रस। राजेश सकलानी की कविताओं के गलत पाठ, शब्दिक रुप में भी या अपने मनोगत भावों के रुप में भी, कभी कविताओं के सही अर्थों तक नहीं पहुंचने दे सकते।
वक्त की बदलती तस्वीर हमारे सम्बंधों को जड़वत बना दे रही है। कितना जानते हैं खुद को, कितना अपरिचित हैं खुद से। जान जायेंगें। अंधेरे कोने में बैठकर ध्यानस्थ होकर खुद को तलाशने की कोई भी कोशिश यहां बेइमानी है। सार्वजनिक जगह के अचिन्हेपन के बीच ही अपनी पहचान को तलाशना दुनिया के कार्यव्यापार से जुड़ना और अपने हर अर्थ में भौतिकवादी होना है। भौतिकवाद का यह वैज्ञानिक स्वरूप ही तो भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के निर्विवाद नेता गांधी के यहां मौजूद रहा जो एक लंगोटी पहने गांधी को सड़को पर उतरने को उकसाता रहा।
अपरिचित जगह पहुंचा, स्टेशन पर/ मेरे असमंजस सब सुविधा से सम्बंधित थे
उस वक्त कोई दुख नहीं था मुझको।
लोग खिलौने की तरह हिल रहे थे। तने हुए/ थे काम पर जाते हुए लोगों के चमकीले चेहरे।
बहुत दिनों बाद लौटा अपने में।/ मैंने खुल जाने दिया लोगों को अपनी इच्छाओं
के रास्तों में। जोर लगाने दिया।
मैंने सुकून से देखा समय के पास कोई/ खाली जगह नहीं है। मुझे क्रोध नहीं है।
इस समय सारे अमानवीय कर्मों को/ अस्वीकार किया।
बहुत ही साधारण सी लगने वाली यह कविता कवि राजेश सकलानी के मिजाज को अच्छे से रख देती है। "सुनता हूं पानी गिरने की आवाज" उनकी कविताओं का ऐसा संग्रह है जिसमें दुनियावी हलचल के ढेरों चित्र हैं। गांधी ने उनको भीतर तक प्रभावित किया है। उनकी कविताओं में दुनियावी हलचल के बीच अमानवीय कर्मो को अस्वीकार की जो गूंज है, उसे गांधी के साथ ही ढूंढा जा सकता है। उनकी कविताओं में दिखायी देता ये अस्वीकार व्यक्तिगत शुद्धता का मामला नहीं है। गांधी व्यक्तिगत शुद्धि पर उस तरह यकीन नहीं करते थे। सत्य के साथ गांधी के प्रयोग अमानवीय कर्मों का अस्वीकार ही है। अमानीवय कर्मो को यह अस्वीकार किसी मोक्ष की प्राप्ति का उददेश्य भी नहीं। कोई रहस्य नहीं। स्पष्ट है कि अपनी सुविधा के असमंजस का अस्वीकार है। बिना उसे छिपाते हुए, जो प्रगतिशीलता के मानक बिन्दु हैं । सुविधा भरे जीवन का खुलासा। समय का खालीपन यहां दुनिया की हलचलों से ठसाठस भरा है।
महात्मा गांधी कवि राजेश सकलानी के प्रिय विचारक हैं। गांधी का प्रभाव न सिर्फ उनके व्यक्तिव में मौजूद हैं बल्कि उनके रचना संसार में भी उसकी स्पष्ट तस्वीर देखी जा सकती है। 'लगे रहो मुन्ना भाई" गांधीगिरी पर पापुलर ढंग से बात करती है, राजेश सकलानी को बेहद पसंद है। गांधी के प्रति आस्था और मनुष्य के प्रति उनके प्रेम का स्रोत राजे्श सकलानी के जीवन-व्यवहार में भी उछाल लेता हुआ देख जा सकता है। नफरत का एक छोटा सा भी कतरा, किसी के भी प्रति, उनके यहां अपना अक्श नहीं गड़ सकता है। क्रूर से भी क्रूर व्यक्ति के भीतर, उसकी अच्छाइयों के कितने ढेरों कोने मौजूद हैं, यदि इसे जानना हो तो राजेद्गा सकलानी से उस अमुक व्यक्ति के बारे में बात करो, जान जाओगे। ऐसा नहीं है कि उसकी कमजोरियां, अभद्रताएं या ऐसा ही किसी भी तरह का अन्य असमाजिक कहा जा सकने वाला व्यहार जो सबकी निगाहों में मौजूद हो, उस पर राजेद्गा सकलानी की उस अमुक से सहमति हो। बल्कि कहें कि किसी अन्य से ज्यादा नफरत, गुस्सा और उसके प्रति विद्रोह कर सकने की अपनी फितरत के बावजूद उस अमुक की अच्छाइयों के वे कौन से कारनामे है, इन्हें सिर्फ राजेश सकलानी ही बता सकते है। या उस क्रूर व्यक्ति के भीतर,भी एक संवेदनशीलता का अथाह समुद्र कब-कब हिलौरे लेता है, इसे पूरी ईमानदारी से राजे्श सकलानी बयां कर सकते हैं। एक सकारात्मक आलोचना उनकी बातचीत के केन्द्र में हमे्शा रहती है। गांधी की भी वे आलोचना करते हैं लेकिन अन्तत: गांधी उन्हें प्रिय हैं ही। मार्क्स भी उनके प्रिय विचारक हैं। संघ्ार्ष की चेतना का मार्क्सीय रूप्ा भी इसी कारण उनकी रचनाओं का केन्द्रीय पक्ष है। अर्थतंत्र के बदलते ढांचे में पनपते सामाजिक सम्बंधों की विवेचना करते हुए मार्क्सवादी दृष्टि ही उनके भीतर मौजूद रहती है- ''सुनता हूं पानी गिरने की आवाज/जानता हूं चीजों को/ जहां से वे उठती हैं।" यही दो मूल बिन्दु हैं जो राजेश सकलानी की रचनाओं को समझने में सहायक हो सकते हैं। "सुनता हूं पानी गिरने की आवाज" अभी तक उनकी एक मात्र कविता पुस्तक है।
वे गांधीवादी हैं या भी हों, ये पंक्तियां जिस वक्त मेरे भीतर उठ रही थी उस वक्त भाई राजेश सकलानी के साथ-साथ कार्यालय में काम करने वाले मेरे एक अन्य अग्रज ही मेरे भीतर मौजूद थे। गांधी के प्रति मेरा विश्वास उस रूप में कभी मौजूद नहीं रहा जैसा इन लोगों के भीतर है। लेकिन कवि राजेश सकलानी सरीखे गांधीवादी और उस जीवन दृष्टि से जन्म लेती रचनाऐं मेरी पसन्द रहेगी ही। गांधी के जीवन व्यवहार की सी सादगी से भरी इन रचनाओं में मनुष्य की पक्षधरता और शोषित समाज के प्रति हमदर्दी और उनके संघर्षों में हिस्सेदारी करने की एक जबरदस्त ललक उनके पाठ को बहुआयामी बना देती है।

वे चीजें कितनी सुंदर हैं जो अंधेरे से बंधी हुई हैं
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घ्ारों में कोने वाली जगहें/बच्चों की सांसों में गुदगुदाती झाड़ियों की झुरमुट
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पलंग के नीचे जहां चीजें गिरकर बिखर जाती हैं और बिना चूमें
वापिस नहीं करती। या किताब में छांहो के पृष्ठ जिन्हें मैं/ पलटता हूं, दबा देता हूं।
या कोई भी खु्शी/ उजाले की तरह चमकदार।

अफरातफरी का जो माहौल आज मौजूद है उसमें हो-हल्ला करते हुए छा जाने की प्रवृत्ति से भरी पूंजीवादी अपसंसकृति ने जीवन के सारे कार्यव्यापार को अपनी गिरफ्त में लिया है। साहित्य, कला और संस्कृति के क्षेत्र में भी इसने अपने पांव पसारे हैं और इन क्षेत्रों में भी अफरातफरी को जन्म दिया है। एक समय में अपनी आवाज के जादू से अपने प्रसंशको के दिलों पर राज करने वाला अलेग्जेण्डर एक गायक है जो इस अफरातफरी के दौर में राजे्श सकलानी की कविता में जगह पाता है। पहल में प्रका्शित यह कविता उसी गायक को समर्पित है जो इस बात से कभी मायूस नहीं हुआ कि उसकी कोई सी डी(काम्पेक्ट डिस्क) नहीं बनी या उसकी मीडिया में इस तरह उतनी चर्चा कभी हुई ही नहीं जैसे आज गाने के नाम पर भौडेपन की अभिव्यक्तियां भी जगह पा रही हैं।
कवि वीरेन डंगवाल की समोसे पर लिखी कविता जिन कारणों से राजेश सकलानी की प्रिय कविताओं में शुमार है उसके पीछे भी राजेश सकलानी की वह भीतरी बुनावट ही है जो हर मैली चीकट जगह में छिपे सौ्न्दर्य की तला्श करती रहती है। कवि नरे्श सक्सेना की कविताओं की तार्किकता के वे यूं ही कायल नहीं है। हां एक तरह की यांत्रिकता भी वे उनकी कुछ कविताओं में महसूस करते हैं। रघुवीर सहाय के मार तमाम लोग उनकी बातचीत से लेकर रचना संसार तक में इन्हीं कारणों से प्रवेश करते हैं। घटनाओं को कविता का हिस्सा बनाती विष्णु खरे की विशिष्टता के भी वे कायल हैं। अपने अग्रज और अपने समकालीन रचनाकारों की रचनाओं पर वे इसी दृ्ष्टि के कारण बात कर सकते हैं। कवि अवधेश कुमार के अंतरंग मन को टटोलते हुए भी यही दृ्ष्टि उन्हें दिशा देती है।
अवधेश अपने अंत-अंत में निराशा के गहरे गर्त में डूब चुका था, वे कहते हैं - अवधेश की निराशा एक व्यक्ति की निराशा नहीं थी जो महत्वाकांक्षाओं से उपजी हो। बल्कि एक कवि की निराशा थी। जटिल और संश्लिष्ट होते जा रहे यथार्थ को पूरी तरह से विश्लेषित न कर पाने की छटपटाहट अपने आप में ही एक बड़ा कारण है। अवधेश जीनियस था और उस जैसे जीनियस को वे सारी ही चीजें परेशान करती हैं जो कला को बाजार बना दे रही होती हैं। पुस्तकों के कवर बनाना और दूसरे अन्य ऐसे ही काम अवधेश को मजबूरी में करने पड़ते थे। वरना वह तो कवि था, मूल रूप से कवि ही। पर ऐसे कामों में लगे रहने की मजबूरी के चलते कवि के दर्जे को कैसे बचाये रखा जा सकता है। चौथे सप्तक में अवधेश की कविता उसी वक्त शामिल हो चुकी थी जब वह अपने समकालीन युवाओं में भी युवतम था। इतना युवा कि संवेदना का धरातल जब नितांत मासूमियत भरा होता है। ता उम्र उसी मासूमियत को बचाये रखने की कोशिश उसे हमेशा अपने प्राकृतिक वातारण में लौटने को मजबूर करती रही। जबकि वैसी मासूमियत के साथ जीना, बदलते हुए समय में इतना आसान न था। शराब उसके फेफड़ों को गलाने लगी है, वह अनभिज्ञ न था। और न ही बुद्धु। तो भी पीने की आदत को जिद की हद तक पाले रहा तो इसको उसके भीतरी मन सें ही जाना जाना चाहिए।
शराब पीने की अपनी आदत के चलते मौत के करीब बढ़ते गये अवधेश के बारे में ऐसा विश्लेषण कोई अगर कर सकता है तो सिर्फ राजेश सकलानी ही। ये नहीं कि अपने ऊपर ज्यादती करने वाले अवधेश के प्रति अन्यों की तरह राजेश सकलानी के भीतर गुस्सा न उपजा हो। बल्कि औरों से कहीं ज्यादा। लेकिन वह गुस्सा भी अवधेश के सामने ही उसको दुरस्त करने के वास्ते, इतनी बेबाकी, साफगोई और विश्लेषण की क्षमता ने ही राजेश की कविताओं में भी जगह पायी है। अलेग्जेण्डर कविता में जिस डी एल रोड़ का जिक्र हुआ है, झगड़ों टंटों के लिए बदनाम है। वहां, चौराहे पर खड़े होने वाले वे लड़के जो बात बे बात पर छूरा चाकू चला देने के लिए बदनाम हो। मोटर साइकिल की चैन जिनका आभूषण हो, राजेश सकलानी ही है जो उनमें भी मानवीय गुणों को खोज लेते हैं। संवेदनाओं की नदी उनकी किस कार्यवाही से उपतजी है, देख लेते हैं।
गांधी जिन कारणों से राजेश सकलानी के प्रिय विचारक हैं उसमें गांधी की कार्यशैली या शास्त्रीय विवेचना की बजाय उनका सूत्र वाक्य - 'निर्भय बनो" ही सहायक है। गांधी को वे इसी रुप में जानते हैं। उनका स्पष्ट कहना है कि दुनिया का यह विचारक अपने इस वाक्य के कारण ही मुझे प्रिय है। या उनकी इस सीख के ही वे कायल हैं जो मनुष्य को निर्भय बनने की सलाह देती है और ऐसा होने के लिए प्रेरित करती है। गांधी का यह मर्म ही उन्हें ऐसी कविताएं लिखवाता है जिनमें डरे हुए लोगों की तसवीर बार-बार उनकी कविताओं का स्वर बन रही होती -
नहीं है जिनमें कोई भी सरोकार/ आते जाते उन लोगों को
वह जोड़ता है अर्थ/ जो नहीं पूछते उसका नाम/ उसका पता उसका मिज़ाज
जो उसके बच्चों की मुस्कराहट का भी/ नहीं देते कोई जवाब।
आक्रामकता फैलाती और भय का संसार रचती इन राजेश सकलानी की कविताओं अपने प्रिय विचारक गांधी और मार्क्स के संश्लिष्ट विचार से उपजा है। बेशक निर्भय और निडर गांधी का संघ्ार्ष ज्यादा प्रबल है। गांधी ने अपने दौर से आज तक लगभग पूरे समाज को प्रभावित किया है। 1930 का पेशावर कांड, जहां सैनिकों द्वारा निहत्थों पर गोली चलने का निषेध है, उसमें भी गांधी के प्रभाव को देखा जा सकता है। गांधी का विशाल व्यक्तित्व भारतीय मूल के सैनिकों के भीतर अंग्रेजों के प्रति निषेध के बीज बोकर भी उसे शांतिपूर्ण तरह के विरोध में है ही बनाये रखता है। बेशक यहां गांधी की आलोचना संभव हो और कहा जाये 1857 की बगावत का झण्डा यहां बुलन्द नहीं हो पाता। यह बहस का विषय हो सकता है कि गांधी के संघर्ष का यह तरीका जनता और सत्ता के तीखे अर्न्तविरोधों के बावजूद भी आखिर शांतिपूर्ण बने रहकर जीत के रास्ते बहुत साफ-साफ तरह से खोल पाने में असमर्थ है। तो भी अपने हक हकूक के प्रति गांधी जनता की चेतना के विकास में गांधी के प्रभाव से इंकार नहीं किया जा सकता। राजेश भी उसी प्रभाव में अपने चारों ओर फैले भय को चिन्हित करते हैं -
डरे हुए लोग जो लड़ने का अर्थ भूल चुके थे
खामोश रहे जब तक एक लड़ने के लिए हिल रहा था।
उसी गांधी के प्रभाव में राजेश सकलानी का मानस भी भय के विरुद्ध निडर खड़े रहने की प्रेरणा का गान बनता है। हौंसला बंधाती उम्मीदों का सर्जन रद्दी कागजों की तरह उड़ते जाने की त्रासदी के बाद भी आहवान गीत बनकर गूंजता रहता है। एक पूरे दौर को अप्रसांगिक बना देने वाली कार्यवहियों के कारण भावी पढ़ी के भीतर किंचित उपजने वाले भय के क्षणों को उम्मीदों की डोर ताने रहती है। राजेश जानते हैं कि उम्मीद टूटी नहीं कि निराशाओं का अंधड़ बेहद डरावना संसार रच सकता है। ऐसे ही स्थितियों के विरुद्ध अपने कसे हुए शिल्प को ढीला करते हुए, बच्चों के साथ उनकी बातचीत के संवाद कविता के रुप में दिखायी देते हैं -
चिड़िया की तरह चहको गिलहरी की तरह दौड़ो/पानी की तरह बहो/खिलखिलाओ या चीख ही पड़ो भय से।
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हमसे उन तमाम चीजों की उम्मीद करो/ जिनकी तुम्हे बेहद जरुरत है/ और दुनिया को भी।
अमानवियता और आक्रमकता के खिलाफ यह ऐसा गान है जो बिना जूझे स्वर नहीं पा सकता। बिना मुठभेड़ के मुक्ति का रास्ता तलाशा नहीं जा सकता।
अपने दौर के लेखन के बारे में राजेश पूरी तरह से सचेत हैं। उसके खूबसूरत पक्ष और कमजोरियों की भी अच्छे से पहचान करते हैं। खुद की आत्मालोचना करना का उनका ढंग निराला है। लगातार उठने वाले वे सवाल जिनमें लेखकीय सरोकारों की बात होती है, उनसे एक तरह की सहमति ही वे व्यक्त करते हैं। अपनी लेखकीय सीमायें जो भाषा और शिल्प के स्तर पर नहीं बल्कि विषय के स्तर पर हैं, उसकी शिनाख्त भी वे रचना के शिल्प में ही करना चाहते हैं -
हमारी रचनाएं अबोध हैं लेकिन / उन्होंने अपने सुख और दुख का /अलग-अलग घर बना लिया है
उनमें जीवन के ऊंचे मूल्य है लेकिन वे/हिम्मत की कमी को छिपाती है/वे दुनिया को लिखे प्रेम पत्र हैं लेकिन वे
कठिनाईयों से दूर रहना चाहती हैं/ उनमें जीने की जोरदार कोशश है
लेकिन उनमें अपने को ही / बचाने की चिन्ताएं हैं
जो रोज छूट जाते हैं उनके शिल्प में/वे क्या सचमुच उनके विषय में/नहीं जानती।

समकालीन रचनाओं पर इसे एक आलोचनात्मक टिप्पणी भी कहा जा सकता है। लेकिन उस रुप में यह टिप्पणी भी नहीं बल्कि दौर की सच्चाई से परदा उठाने की कोशिश ही इसमें ज्यादा स्पष्ट होकर दिखायी दे रही है। यह आत्मालोचना का ऐसा स्वर है जिसमें देख सकते हैं कि कवि अपनी तथा अपने समकालीन रचनाकारों की मनोगत कमजोरियों को साफगोई से रख और यह सवाल उठाते हुए उस वर्गीय फांस को हटाना चाहता है जो स्वंय उसकेे भी मनोगत कारणों का उत्स हैं। वो मध्यवर्गीय मानसिकता जो हमारे रचना संसार में भी दिखायी देती है, उसकी उस खास प्रवृत्ति, जिसमें अपने वर्गीयहित ही हावी होते दिखायी देते हैं, स्पष्टत: राजेश सकलानी की निगाह उस पर टिकी है। जन संघर्षो से अपना किनारा करने की प्रवृत्ति के चलते सद-इच्छाओं से भरा हमारा समकालीन रचना संसार भाषा और शिल्प के कितने अभिन्न प्रयोगों को जन्म दे रहा है, यह आज छुपा नहीं है। सदइच्छाओं के बावजूद भी जनता के संघ्ार्ष की वास्तविक दिशा को अपने हितों के अनुरूप मोड़ने का प्रयास करने की राजनीति इसका एक पक्ष है जिसने रचनाकारों को न सिर्फ जन-संघर्षों से हटाया है बल्कि पाठकों से भी दूर किया है।

एक संस्था का गठन किया गया है इंदौर में/मेरे नगर देहरादून की तरह
सामाजिक सांस्कृतिक गतिविधियों को बढ़ाने का/ किया गया है संकल्प
भाषा भावुक ---
वह शायद पूरा नहीं होता/इंदौर मे देहरादून में
कुछ शहरों में झगड़ों कुछ पूजा के समाचार है
एक संस्मरण में लेखक दीवारों को देखता/रिक्शे वाले के शरीर का स्वर सुनता है।

अपने समकालीन जगत की बचबचाकर निकल भागने की प्रवृत्ति ने ही शायद राजेश सकलानी को परेशान किया है। रह-रह कर उनकी रचनायें ऐसी ही स्थितियों का आख्यान बनती है। बल्कि कहा जा सकता है कि उनकी रचनात्मक केन्द्रीयता का यही मुख्य बिन्दू है -
डरे हुए लोग जो लड़ने का अर्थ भूल चुके/खामोश रहे जब एक लड़ने के लिए हिल रहा था
लोगों ने उसकी परवाह नहीं की/उसने कुछ क्रोध कुछ घृणा कुछ दया के साथ/उनकी परवाह नहीं की।
चार मिनट का समय कुल था।समय शुरु हो चुका था। वह बीचो बीच पहुंचा
कुछ हालात का हवाला देकर माफी मांगी/कुछ ने किया इशारा दूसरी तरफ
कुछ ने छोड़ दिया सवाल मुस्कराने लगे/गहरी आत्मीयता दिखा
वक्त निकल रहा था। उसकी भुजाएं फड़क रही थी।
घंटा बजा, चार मिनट पूरे हो चुके थे/ लोग अपने में व्यस्त थे।
चार मिनट में कुछ शर्मिंदा दिखना कुछ इशारा करना/कुछ सवाल उठाना मुस्कराना कुछ
आत्मीयता जतलाना उसने सीखा।

राजेश सकलानी की कविताओं की यह विशिष्टता ही कही जायेगी कि उनमें सूत्रात्मकता तो है पर वे सूत्रों में अपनी बात कहने से बचती है। यानी वहां स्थितियां है और उन स्थितियों का विश्लेषण है। वे जजमेंटल नहीं है। इसी वजह से उन द्वविधाओं से उबरने का प्रयास भी दिखायी देता है जो जड़ता पैदा करती हैं -

हुजूर मैं एक ही रोल करते-करते/आजिज चुका हूं
यह देखिये मेरी शक्ल/आइने में जिसे देख मैं रो पड़ता हूं
अब इस रोल में घसीटे जाने के लिए/मुझे मजबूर मत कीजिए
मैं उस रोल की गुजारिश करता हूं/लड़ता हुआ आदमी जिसमें अंत में/पराजय से मुक्त होता है
हां हुजूर यही वाला, इस आदमी से/लोग बेवजह नफरत नहीं करते (बल्कि बेजह इज्जत करते हैं)
यह मेहनताना भी भरपूर पाता है
डरते हुए झींकते हुए सिर झुका कर चलते हुए/मेरा चेहरा बे-रौनक हो गया है
मैं साफ आवाज में बोल भी नहीं पाता हूं/आप रोल बदलिए हुजूर मैं चीख पड़ने को हूं
आप इज्जतदार हैं कभी-कभी मैं होश खो बैठता हूं
आपसे गुजारिश है हुजूर/मैं एक ही रोल करते हुए आजिज चुका हूं।

राजेश सकलानी की कविताओं में कुछ पद ऐसे आते हैं जो भाद्गिाक व्यकारण की दृद्गिट से अटपटे से लग सकते हैं। जैसे-
स्कूल से लौटती दो सहेलियां जहां दिखी थीं
वे कुछ कहना चाहती थीं। जानने की/ उन्हें उतनी ही जल्दी थी।

इस कविता में 'जहां' शब्द जिन अर्थों में आया है उसके लिए सही श्ब्द जो अपने शाव्दिक अर्थो में ठीक होता, 'जो' हो सकता था। पर कविता में आया हुआ जहां अनायास नहीं जान पड़ता। उसी जो को परिभाषित करता हुआ, स्थान-विशेष की उपस्थिति से भरा, यह शब्द उन लड़कियों के बारे में है जो उसी जगह पर, जहां वे मिली थीं, कुछ कहना चाहती थीं। उस कुछ को कहने की अपने भीतर दबी इक्ष्छाओं को इस खूबसूरती से खोलने के लिए रचा गया यह ऐसा भाषिक व्याकरण है जो भाषा के भीतर छिपे व्यापक अर्थो को प्रक्षेपित करने में सहायक है। सामाजिक ताने बाने की जटिलता उन्हें उसी स्थान पर वह सब कहने नहीं देती जो हवा के भीतर से गुजर गये साइकिल सवार लड़के से कहने की भावनाओं से भरा है। उस सामाजिक किस्म की जटिलता को तोड़ न पाने की द्वविधा के चलते एकान्त की इच्छाओं से भरी हैं। "जहां" ज्यों का त्यों छूट जा रहा है क्योकि एक का भाई रास्ते में मिला था। उस जगह विशेष पर साइकिल सवार लड़के से कही जाने वाली बात बबाल खड़ा कर सकती है। लड़कियां इस बात से सचेत हैं। घटनाओं को छिपाकर देखना उन्हें थोड़ा उत्तेजक खुशी से भर दे रहा है। कविता का शीर्षक भी अनायास नहीं है - "वहॉं"।
वहां खबरे हैं। खबरे जिनसे बेखबर हैं आप। यानी बेखबर है दुनिया। सूचना का फैलता जाल भी जिन्हें खबर मानने के लिए तैयार नहीं है -
होशंगाबाद नींद में डूबा है।
सार्वजनिक स्थान नींद के स्थल हैं। लेकिन सार्वजनिक स्थलों की नींद असुविधा के बीच विश्राम ले लेने की नींद है। फिर से तरोताजा होकर फिर से जोर लगाने की नींद है।
जहीर जोर लगाता है। और जोर।
असुविधा भरी इस नींद के स्थल में अचछी हवा है। अपने फेफड़ों में जिसे इक्टठा कर लिया है जहीर ने। जो जोर लगाते हुए भी उसके बदन को पसीने से चिपचिपा बनाने से रोकती है।
जहीर जैसे लोगों के जोरे से ही चीजें बदल रही हैं। वे किलकारी या चीत्कार में, करुणा या घ्ाृणा में, उछाल या नींद में बदल जाती हैं, हमारी मनमानियों के खिलाफ। हम जो उसके जोर लगाने पर ही जिन्दा है। मनमानियां करने की हमारी आदतों के खिलाफ उनमें अंतिम संघर्ष की जिद है। चीजों के बदलने के लिए जिसका होना जरुरी है। ऐसे संघर्ष के लिए कम से कम फेफड़ों में ताजा हवा भरने की नींद के सार्वजनिक स्थल बचे रहें।
राजेश सकलानी का सौन्दर्यबोध चीजों के एक अर्द्धांश या चुटकी भर जगह पर नही है। पूरे ग्लोब पर घूमता चांदी की तरह चमकता दिन, या चांद। आसमान की असंख्य छांहों में बेसुध धरती का बिम्ब और इसके साथ ही दुनियावी हलचलों की वह मूर्तता जिसमें आलीशान गुम्बदों के चमचमाते स्वर्ण जणित शीर्ष नहीं बल्कि घ्ारों के बेहद अंधेरे कोने शामिल है। बच्चों की सांसों में गुदगुदाती झाड़ियों के झुरमुट से झांकते उनके खिले चेहरे हैं। सांसारिक दुनिया के घरेलूपन को चलाये रखने के लिए बटुए का बिम्ब। बल्कि एक खास तरह का मोह है राजेश सकलानी के यहां ऐसी चीजों के प्रति। ऐसे छोटे-छोटे लेकिन खूबसूरत बिम्बों के प्रयोग से ही हर क्षण शब्दों की चोरी करने की फिराक में कवि को देखा जा सकता है।
वे चीजें कितनी सुन्दर है
पुनरावर्ती की हद तक लौट-लौट कर उन चीजों का बयान संग्रह की विशिष्टता भी है। यह अनायास है या सचेत तरह से ऐसा करते हुए कुछ खास कहने की कोशिश है! मेरे लिए इसको विश्लेषित कर पाना आसान नहीं। एक सचेत कवि की कविताओं में बिम्बों की यह पुनरावर्ती अनायास तो नहीं ही कही जा सकती। पर चौंकाती तो है ही। यहां तक कि एक कविता की कुछ पंक्तियां है जहां एक ही पद में कह दी गयी बात दूसरे पद में रुप बदलकर दिखायी देती है -
घरों में कोनो वाली जगहें/ बच्चों की सांसों में गुदगुदाती झाड़ियों
की झुरमुट, सिर छिपाए/ किताब की ओट या/बटुए की तहों में नन्हा सा घर

पलंग के नीचे जहां चीजें गिरकर/बिखर जाती हैं और बिना चूमें
वापिस नहीं करती/ या किताब में छांहों के पृष्ठ जिन्हें मैं/ पलटता हूं, दबा देता हूं।

शब्दों की चोरी करता हुआ शिल्प कई बार जटिल, अस्पष्ट और अतार्किक भी हुआ है कुछ जगह। एक छोटी सी कविता है सुबह -
साइकिल के कैरियर पर बैठी तरुणी/हवा के साथ सुबह छोड़ती हुई चली गई
पेड़ों की ऊंचाईयों से झुक रही थी डालें/ छूट गये दो या तीन शब्द या चार
बिछौने में लोटते जैसे शिशु / या खरगोश दूब में उछलता हा या
खिल पड़ा हो उजाले का फूल
चिड़िया उड जाती हो आसमान की ओर।
आखिर साइकिल का सवार कौन है ? उसका चेहरा स्पष्ट नहीं। साइकिल के कैरियर पर बैठी लड़की को जाते देखने वाली आंख के जरिए उसको ढूंढना आसान नहीं। कैरियर पर बैठी लड़की के भाव भी देखती हुई आंखों से स्पष्ट नहीं होते। क्या यह देखती हुई आंखों के भीतर बसा मुग्धता का चित्र मात्र है! जो लड़की की झिलमिलाती तस्वीर पर ही आनन्दित है। यानी कई तरह के ऐसे प्रश्न जो कविता को समझने और उसे खोल सकने के लिए अनिवार्य है, अनुतरित नहीं रह सकते यदि राजेश के कवि मानस को जान जायें।
देखती हुई आंखें आस पास के उस वातावरण को वैसे शायद यहां पूरी तरह से नहीं रखती जो स्वंय के भीतर के भावों को ही पूरा रख पाये। इस कारण से कविता कुछ दुरूह भी लगने लगती है। लेकिन कविताओं में ऐसी जटिलता कुछ ही जगहों पर आयी है। इसके बरअक्स ही दूसरी कविताऐं हैं, जो संग्रह में शामिल है। जिनमें शिल्प का यही अनूठापन पूरी तार्किकता के साथ सब कुछ कह जाता है। देखें -
खूंखार से सवाल पूछना जीवन से / हाथ धोना है पर उसे जाने देना भी
ऐसा ही है
सुकोमल पूछने वाले उसे भीड़ में पाकर/अवसर ढूंढ लेते हैं
अपने अभिनय में उसकी महाकाया/बेबस होकर रह जाती है
तो फिर ऐसा क्या है जो पहली कविता को अतार्किक बना रहा है ? यह सवाल भी राजेश की कविताओं को समझने में एक सहायक बिन्दु हो सकता है। दरअसल इधर की कविताओं से इतर राजेश की कविताओं का मिजाज उन्हेंं भीड़ से अलग करता है। इसमें शब्दों की चोरी करता हुआ एक ऐसा काव्य शिल्प मौजूद है जो सरसरी निगाह से देखने पर तो पकड़ में ही नहीं आता है। क्योंकि शिल्प की यह विशिष्टता चौंकाती नहीं है बल्कि कवि के अवचेतन में मौजूद विचार की संश्लिष्टता को ही दर्शाती है। रचनाकार का मानस उसको जो रंग देना चाहता है वह उन दोनों धाराओं जिनका पूर्व में जिक्र किया जा चुका, के बीच से उसी रंग में रंग देता है। अब लिखे जाते वक्त जो ज्यादा प्रभावी है उसी की झलक ज्यादा स्पष्ट है।
व्यक्ति और व्यक्तित्व को परिभाषित करती कई कविताऐं हिन्दी की समकालीन कविता में दिख जाती है। व्यक्ति विशेष के कारण ही उन कविताओं के भी उल्लेख हो जानो लाजिमि बात है। स्वंय राजेश सकलानी की एक कविता में भी देहरादून के गायक अलेग्जेंडर की उपस्थिति एक ऐसा ही व्यक्तिचित्र खड़ा करती है। पर ''भले लोग"" उनकी एक ऐसी कविता है जो तमाम ऐसे लोगों का चित्र उपस्थित करते हुए पाठक का ध्यान उन सामाजिक रुढ़ियों की तरफ खींचती है जो व्यक्तित्व का मूल्यांकन करने की सामाजिक पद्धति बन जाती हैं। इसी लिए कई बार भले से दिखते लोग भी सचमुच भले नहीं लगते और कई बार बहुत बुरे दिखायी देते लोगों में भलेपन की गहरी उपस्थिति का आभास होने लगता है।
समाज में भले लोग तुरन्त पहचान लिये जाते हैं।
कभी-कभी सामाजिक रुप से प्रतिष्ठित भलाई भी निराशा पैदा करती है। भलाई का यह स्थापित चेहरा कभी क्रोध और कभी हिंसा को जन्म देता है।
कुछ भले लोगों को मैं पहचानता हूं
वे अन्याय के विरोध में समाज से / संवाद तोड़ लेते हैं।
न्याय के विजय की प्रतीक्षा मन ही मन/ करते हैं।
अवयक्त क्रोध के कारण वे उदास रहते हैं।
स्त्री विमर्श को लेकर रचे जा रहे साहित्य में स्त्री की पहचान के सवाल पर ढेरों रचनायें दिखायी देती हैं। राजेश सकलानी की कविता ""दो सहेलियां" को याद करना यहां समीचीन होगा जिसमें फुदकता कूदता जीवन कैसे चुपके से गायब हो जाता है और कहीं कोई शब्द सुनायी नहीं पड़ता -
दो सहेलियों के कान में झुमके चमकते हैं
सड़क पर। हवा में डूब कर वे उजाला करते हैं।
वे गुन गुन कहती हैं। हंसती हैं।
किसी जगह क्षण गुजारने के लिए नि:शब्द होती हैं।
हमारे बीच में वे विलुप्त हो जाती हैं।


-विजय गौड