Wednesday, May 7, 2008

स्वर्ग के रास्ते पर खडा तिब्बती खरगोश

(ल्वोचू खरगोश की कथा श्रंृखंला की यह तीसरी कड़ी है। चौथी और अंतिम कडी भी प्रस्तुत की जायेंगी. इंतजार करें.)


ल्वोचू खरगोश की कथा - तीन

जंगल के बीच घास के मैदान में एक रोज एक चरवाहे ने नीले रंग की मादा भेड़िया को जब अपनी भेड़ के मेमने को मुंह में दबोचते देखा तो तुरन्त पत्थर फेंक कर मारते हुए जोर से चिल्लाया। मादा भेड़िया अकबका कर मेमने को वहीं छोड़ अपनी जान बचाने के लिए भागी। पीछे से दौड़ते हुए चरवाहे से बचने के लिए उसे मजबूरन घाटी में बहने वाली नदी में कूदना पड़ा।
नदी के उस पार पहुंचकर सुस्ताने के लिए वह एक चटटान पर चढ़ गयी। ठंडे पानी से बाहर निकल उसने धूप सेंकनी चाही। तभी उसने चटटान की धार पर उगे एक पेड़ पर झूलते ल्वोचू खरगोश को देखा।
उसकी निगाहें खरगोश पर अटक गयी। उसने गौर से देखा और पहचान लिया कि यह तो वही खरगोश है जिसने उसके पति को मार डाला था। दौड़कर उसने छलांग लगायी और खरगोश को दबोच लिया, "दुष्ट, तुझे तो मैं कब से ढूंढ रही हूं। तूने मेरे पति की हत्या की। आज मैं तेरी जान लूंगी।"
खरगोश ने गिरफ्त में फंसे हुए भी धैर्य नहीं खोया और बड़े ही आत्मविश्वास से कहा, "श्रीमती जी, ऐसा मजाक न करें। मैं तो अदना सा जानवर हूं। आप हिमाच्च्छादित पर्वत की शेरनी है। आप स्वंय सोचे अपने इस मुटठीभर शरीर से मैं आपके पति की हत्या कैसे कर सकता हूं। मुझे तो इस बात को सुनकर हंसी ही आ रही है।" क्षणांश की लिए ढीली हुई पकड़ के साथ ही खरगोश ने अपने बदन को इस तरह से छुड़ाया कि उछलकर सीधे पेड़ पर जा बैठा और वहीं से बोला, "श्रीमती जी मैं तो आकाशचर खरगोश हूं। इस स्वर्ग के वृक्ष पर सवार होकर जगह-जगह जा सकता हूं। मनुष्यलोक की गतिविधियों के बारे में मुझे कुछ भी मालूम नहीं। कृपया आप मुझ पर अपना गुस्सा न उतारें।"
मादा भेड़िया ने आश्यर्च से आंखों को पूरा खोलते हुए कहा, "क्या ---? तू स्वर्गलोक तक उड़ सकता है ?"
''जी, जी ---" इठलाते हुए खरगोश बोला, "वैसे तो मैं अभागा ही ठहरा पर पूरी तरह नहीं। मेरा जीवन तो बस इसी स्वर्ग के वृक्ष पर निर्भर रहता हूं। कलम मैं इस पर सवार होकर चांद पर गया था। वहां खूब खेला। आज स्वर्ग के मैंदान में जाऊंगा। स्वर्ग में देवता रहते हैं। ढेरों रत्न और तरह तरह के व्यंजन वहां आसानी से मिल जाते हैं। मैं अभी जा ही रहा हूं बस। आपको कुछ चाहिए तो मुझे बता दें। क्या आपके लिए भेड़ों की हडि्डयां या भैंस के मोटे मांस के कुछ टुकड़े ठीक रहेगें ?"
इतना सुनते ही भेड़ के मुह से लार टपकने लगी। वह सोचने लगी, "स्वर्ग में तो हडि्डयों और मांस का ढेर लगा होगा। वहां तो सोने और खाने को आसानी मिल जाता होगा। क्या एक बार मैं नहीं जा सकती वहां !"
उसने खरगोश को पेड़ से नीचे उतर आने को कहा और स्वंय पेड़ पर बैठ गयी और वहीं से बोली, "तू किस तरह पेड़ पर बैठकर उड़ता है, जल्द से जल्द मुझे बता!"
मायूसी भरे चेहरे से खरगोश उसे देखता रहा और फिर अपने दांतों से पेड़ की जड़ कुतरने लगा। पेड़ चट्टान के एकदम किनारे पर था. तना बाहर, खायी में झुलता हुआ। जड़ के कुतरने पर पेड़ मिट्टी छोड़ने लगा और बची रह गयी कुछ जड़ों के सहारे खायी की ओर लटक गया। मादा भेड़िया पेड़ पर लटकी झूला झूलने लगी।
खरगोश ने चिल्लाकर कहा, ''श्रीमती जी डरें नहीं। बस आप कुछ ही समय में स्वर्गलोक में पहुंच जायेगीं।"
बड़ी ही लयात्मक मधुर आवाज में उसने कहा, "एक-दो-तीन, अब आप अपने पांवों को नीचे की ओर लटका जोर का झटका दें।"
जैसे ही मादा भेड़िया ने पांवों को लटकाकर झटका दिया, वह पेड़ के साथ-साथ गहरी गर्त में बह रही नदी की तेज धारा में पहुंच गयी।

सूरमें वाला तिब्बती खरगोश

(ल्वोचू खरगोश की कथा श्रंृखंला की यह दूसरी कडी है। आगे ल्वोचू खरगोश की कथा की अन्य कड़ियां भी प्रस्तुत की जायेंगी.)
ल्वोचू खरगोश की कथा - दो

एक दिन लवोचू खरगोश घास के ढेर पर आराम से धूप सेंक रहा था। अचानक उसे वह बड़ा नर भेड़िया दिखायी दिया। खाजाने वाली मुद्रा में वह उसी की ओर बढ़ा आ रहा था। खरगोश ने तुरंत आस-पास की कीचड़ को आंखों की पलकों पर लेप लिया और एक पारदर्शी बर्फ के टुकड़े को आईना बना, उसमें बार-बार अपना मुंह देखने लगा।
खूंखार नर भेड़िये को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसन एक धप्प उसके सिर पर जड़ते हुए कहा, ''ओये, होठकटे ! यह तूने क्या लगाया हुआ है ?"
खरगोश ने भेड़िये की ओर निगाह उठा ऐसे देखा मानो इससे पहले उसने भेड़िये को देखा ही नहीं था। पिछली टांगों का उठा उसने तीन बार झुक-झुककर भेड़िये को प्रणाम किया और ज़वाब दिया - ''वनराज मैं अपनी आंखों पर सुरमा लेप रहा हूं।"
''लेप, मतलब ?" भेड़िये ने आश्चर्य व्यक्त किया।
छोटे खरगोश ने बर्फ का आईना नीचे रखते हुए गम्भीरता से कहा, ''वनराज, खरगोश होने के नाते हम बड़े अभागे हैं। हर दिन अपमानित होने को अभिशप्त। पेड़ के पत्ते झड़े तो हमें लगता है कि आकाश गिर रहा है। बस्स, डर के मारे हमारी चीखें निकलने लगती है। इसीलिए मैंने आंखों में लगाने का यह विलक्षण सूरमा बड़ी मेहनत से तैयार किया है। इसे अपनी आंखों पर लेप लेने के बाद मैं कई सौ ली की दूरी तक साफ देख लेता हूं। मेरी निगाहों चट्टानों के पार भी चली जाती हैं। इसीलिए उड़ने वाले के झप्पटटा मारने से पहले मैं अपने बिल में घुस जाता हूं। शिकारी कुत्ते के हमला करने पर पेड़ पर चढ़ जाता हूं। इस तरह से जान के पीछे पड़े इन दुश्मनों से बिना डरे मैं निश्चिंतता का जीवन बीताने लगा हूं।"
नर भेड़िया मन ही मन सोचने लगा, ''ओ, तो ये बात है। लोग ऐसे ही नहीं कहते कि जंगली खरगोश बुद्धिमान होते हैं। --- अगर मैं भी अपनी आंखों पर सूरमें का लेप चढ़ा लूं तो कहीं भी छिपे हुए शिकार पर साफ नजर रख पाऊंगा। इस तरह से छुपे बैठे शिकार को ढूंढने में जो खामखां की मेहनत मुझे करनी पड़ती है, उससे तो छुटकारा मिलेगा ही साथ ही कभी शिकार न मिल पाने की स्थिति में भूखा रह जाने की संभावना भी न रहेगी।"
चेहरे पर हल्की मुस्कान बिखेरते हुए उसने खरगोश से कहा, ''मैं न तो तुम्हारी बातों पर और न ही तुम्हारे इस विलक्षण सूरमें पर यकीन कर पा रहा हूं। हां, मेरी आंखों पर लगाओं तो मैं खुद ही देख लूंगा कि यह विलक्षण है या नहीं।"
घबराहट के भावों को चेहरे पर लाते हुए खरगोश ने कहा, ''नहीं महाराज, आंखों पर लेप लगाये बिना ही जब आप मेरे जैसे न जाने कितनों को मार कर खा दिया, सूरमें का लेप आपकी आंखों में लग जाने के बाद तो हम में से कोई भी बच न पायेगा।"
भेड़िये को क्रोध आ गया। गुरर्राते हुए बोला, ''सूरमे का लेप तो तुझे लगाना ही पड़ेगा। नहीं तो मैं तेरी जान ले लूंगा।"
खरगोश ने डरने और सहमने का नाटक करते हुए चिरौरी की, ''वनराज आप नाहक क्रोधित न हो। मैं जानता हूं कि आप हम खरगोशों का ख्याल रखते रहे हैं। लेकिन अभी मेरे पास सूरमा है ही नहीं। आप कल दोपहर में आ जायें मैं तब तक सूरमा तैयार कर लेता हूं।"
भेड़िया प्रसन्न हो गया और खरगोश को प्यार से थपथपाते हुए वह दूसरे दिन पहुंचने का वायदा कर वह शिकार के लिए आगे निकल गया। उस रात खरगोश ने दबे-छुपे तरह से एक बढ़ई के घर में घुसकर भैंस के चमड़े से बने सरेस को चुरा लिया। अगले दिन सुबह ही एक चमकदार पत्थर पर उसे रख दिया। धूप की गरमी से सरेस पिघलने लगा।
दोपहर तक नर भेड़िया आ पहुंचा। खरगोश को देखते ही उसने कड़कती आवाज में कहा, ''क्या हुआ सूरमें का।"
खरगोश हड़बड़ा गया। पिछले पैरों को उछालते हुए भेड़िये के आगे दंडवत होते हुए बोला, ''महाराज मैं तो कब से आपकी ही प्रतीक्षा कर रहा हूं। आईये बैठिये और अपना सुन्दर चेहरा सूरज की ओर कर आंखें बंद कर लीजिए। मैं आपकी कोमल आंखों पर सूरमें का लेप लगाता हूं।"
एक पत्थर पर बैठते हुए भेड़िये ने आंखे मूंद ली। पिघलचुकी सरेस को, घास-पत्तों और फलों के छिलके से बनाये ब्रश से, खरगोश ने भेड़िये की आंखों में परत चढ़ानी शुरु की। गरम पिघली हुई सरेस की चढ़ती परत ने सुखती हुई पपड़ी के साथ भेड़िये की आंखों को दुखाना शुरु किया तो कराहते हुए भेड़िया क्रोध से चिल्लाया, "हरामजादे ! तू मुझे धोखा दे रहा है।"
खरगोश ने उसकी आंखों में फूंक मारते हुए कहा, ''आपकी खिदमत कर पाना भी मुश्किल है वनराज। एक ओर तो आप कई ली दूर देखना चाहते हैं, और दूसरी ओर उसे हांसिल करने के लिए थोड़ा सा भी कष्ट नहीं चाहते। --- चलिये आप ठीक से बैठे मैं आपको खरगोशों का एक गीत सुनाता हूं।"
अब आंखों पर सरेस का लेप भी लगता जा रहा था और साथ ही साथ खरगोश के गीत का असर भी भेड़िये पर हो रहा था। वह मस्त होकर सिर हिलाता रहा। थोड़ी देर बाद उसकी आंखें पूरी तरह से सरेस से चिपक गयी। भेड़िये ने लेप का असर जानने के लिए आंखें खोलनी चाही तो खुली ही नहीं। खरगोश ने तुरंत टोका, ''जल्दी न कीजिये महाराज! थोड़ी देर ऐसे ही रहने दे। फिर मैं जब आपसे कूदने को कहूं तो तब आप झटके से आंखें खोले। ऐसे हवा में उछलकर जब आप अपनी आंखें खोलेगें तो कई सौ ली की दूरी पर स्थित चीजें आप को साफ चमकती हुई दिखायी देने लगेंगी।"
अब खरगोश भेड़िये को एक पहाड़ी के कगार पर ले गया। ऐसे मानों राजा को सहारा देता हुआ सिंहासन पर बैठाने ले जा रहा हो। कगार पर पहुंचकर बडे ही गीतात्मक लहजें में उसेने भेड़िये को कूदने को कहा, ''एक-दो-तीन, ऊपर उछलों महाराज! एक-दो-तीन ---"
भेड़िया पूरी ताकत से उछला। लेकिन आंखें खुलने से पहले ही वह गहरी घाटी में गिरकर मर चुका था।

Tuesday, May 6, 2008

छत से देखो दुनिया को


(पिछले दिनों से तिब्बत खबरों में है। कथाकार उदयप्रकाश तिब्बत के बारे में अपने ब्लाग पर कुछ ऐसा लिखते रहे हैं जो लोक का पुट लिये हुए है। 9 अप्रैल 2008 को जिसकी पहली कडी से हम परिचित हुए थे.
दुनिया की छत कहे जाने वाले, बर्फली चोटियों से घिरे तिब्बत में कथा गढ़ने और कथा कहने की परम्परा पीढ़ी दर पीढ़ी रही है। तिब्बत के पारम्परिक लोक साहित्य, जिसमें पौराणिक कथाएं, मिथ, नीति कथाएं आदि हैं, का अथाह भंडार है. यहां प्रस्तुत है तिब्बत की लोक कथा। ल्वोचू खरगोश की कथा श्रंृखंला की यह पहली कड़ी है। आगे ल्वोचू खरगोश की कथा की अन्य कड़ियां भी प्रस्तुत की जायेंगी।)

ल्वोचू खरगोश की कथा - एक

यालूत्साङपो नदी के तटवर्ती वन में एक घास का मैदान था। वहां झरने कलकल बहते थे, रंगबिरंगे फूल खिलते थे और नाना प्रकार के कुकुरमुत्ते उगते थे। बहुत से छोटे पक्षी और जंतु नाचते-गाते और क्रीड़ा करते हुए बहुत ही खुश रहते थे। एक दिन ऊंचे पहाड़ के पार से दौड़ते हुए तीन भेड़िए वहां आए। उनमें एक नर और दो मादा थे। नर भूरे रंग का और दोनों ही मादाओं का रंग नीला था। जंगल के बीच घास के मैदान में पहुंचते ही उन तीनों के ही मुंह से निकला, ''वाह, यह जगह तो बहुत ही सुन्दर है! हमें यहां खाने पीने की तंगी भी न रहेगी। यहीं अपना घर बना लेते है।"
बस उसी वक्त से वन अशांत और असुरक्षित हो गया। आज मुर्गी का बच्चा खो गया, तो कल कोई सुनहरी मादा हिरन गायब हो गयी। लम्बे समय से रह रहे छोटे-छोटे पक्षी और छोटे जानवर मुसिबत में फंस गये। कुछ वहां से भागकर कहीं दूसरी जगह पर शरण लेने को मजबूर होने लगे। जो कहीं और जा पाने की स्थिति में न थे गुफाओं में छिपने लगे, ऊंचे-ऊंचे पेड़ों पर घोंसला बनाने लगे। दिन दोपहरी में डरते रहते और रात के अंधेरें में तो बाहर निकलने का साहस ही नहीं करते।
वहीं एक छोटा खरगोश भी रहता था, जिसका नाम ल्वोचू था। उसने न तो भागकर कहीं और शरण लेनी चाही और न ही कहीं छुप जाना उसे उचित लगा। हिंसक भेड़ियों से निपटने के लिए वह वहीं रुका रहा और कोई कारगर उपाय सोचने लगा।

तिब्बती लोक कथाओं को आप यहां भी पढ़ सकते हैं -
tibetan folk tales
digital library of tibetan folk tales
folktales from tibet

Saturday, May 3, 2008

ऊंचे पहाड़ों पर देवता नहीं चरवाहे रहते हैं

विजय गौड
(बेशक हम कोई इतिहासविद्ध नही तो भी यह तो कह ही सकते हैं कि सत्ता के लिए खूनी संघर्ष से भरे सामंतों के आपसी झगड़े और उनकी वंशावलियों की सांख्यिकी से भरी इतिहास की पाठ्य-पुस्तकें ऐतिहासिक दृष्टि से इस देश की भौगोलिक, सांस्कृतिक और सामाजिक स्थिति को समुचित रुप से रख पाने में अक्षम हैं। उत्तरोतर भारत के बारे में हमारे पास बहुत ही सीमित जानकारी है। वहां रहने वाले लोगों का इतिहास क्या नृशंस आक्रमणों से जान बचाकर भागे हुए लोगों का इतिहास है ? पश्चिम भारत को हड़प्पा और मोहनजोदड़ों के बाद हमने खंगाला है क्या ? दक्षिण भारत में क्या एक ही दिन में विजय नगर राज्य की स्थापना हो गयी ? सिंहली और तमिलों के विवाद की जड़ कहां है ? नागा, कुकी और मिजो जन-जाति की संस्कृति को हम कैसे जान पायेगें ? जंगलों के भीतर निवास करने वाले लोगों से हमारा रिश्ता कैसा होना चाहिए ?- ऐसे ढेरों सवालों की जद में 2 जुलाई 2006 को हिमाचल की कांगड़ा घाटी से चम्बा घाटी की ओर शिवालिक ट्रैकिंग एवं क्लाईम्बिंग ऐसोसियेशन, आर्डनेंस फैक्ट्री देहरादून का एक नौ सदस्य अभियान दल अपने 15 दिन के अभियान पर मिन्कियानी-मनाली पास से गुजरते हुए कांगड़ा और चम्बा के गदि्दयों के जीवन को जानने-समझने निकला था। - पर्यटक स्थल धर्मशाला तक की यात्रा बस द्वारा की गयी। धर्मशाला के बाद मैकलोडगंज तक की यात्रा जीप से उसके बाद पैदल मार्ग शुरु होता है। मैकलोडगंज शरणार्थी तिब्बतियों का मिनी ल्हासा है, जहां दलाई लामा रहते हैं। नाम्बग्याल मोनेस्ट्री में। अपनी कसांग के साथ। मैकलोडगंज की संस्कृति में तिब्बत की हवा है। उसी यात्रा पर लिखे संस्मरण का एक छोटा सा हिस्सा और ऐसी ही अन्य यात्राओं के अनुभवों से सर्जित एक कविता भेड़ चरवाहे यहां प्रस्तुत है।)

भटकते हुए

आकाश की ओर उछाल लेती हुई या पाताल की ओर को बहुत गहरे गर्त बनाती हुई समुद्र की लहरों पर हिचकोले खाने का साहस ही समुद्र के भीतर अपनी पाल खोल देने को उकसा सकता है। अन्जान रास्तों की भयावता और अन्होनी की आशंका में आवृत दुनिया का नक्शा नहीं बदल सकता था, यदि वे सिरफिरे, जो सुक्ष्म विवरों के गर्भग्रह की ओर लगातार खिसकती पृथ्वी के खात्मे की आशंका से डरे आत्मा की खोज में जुटे अपनी-अपनी कुंडलिनी को जागृत कर रहे होते। घर, जनपद या राज्यों की सरहदों के किवाड़ ही नहीं थल के द्वार पर लगातार थपेड़े मारते अथाह जलराशि से भरे समुद्र में उतर गये। वास्कोडिगामा रास्ता भटकने के बाद भारत पहुंचा। कोलम्बस ने एक और दुनिया की खोज की। यह भी सच है कि ऐसा करने वाले वे पहले नहीं थे, पर इस बिना पर उनको सलाम न करें, ऐसा कहना तो दूर, सोचने वालों से भी मैं हमेशा असहमत ही रहूंगा। ह्वेनसांग, फाहयान, मेगस्थनीज की यात्रा इतिहास के पन्नों में दर्ज है और समय विशेष की प्रमाणिकता को उनके संग्रहित तथ्यों में ढूंढ़ते हुए कौन उसके झूठ होने की घोषणा कर सकता है ?

प्रार्थनारत बौद्धिष्टों की अविकल शान्ति

मैकलोडगंज हमारे रास्ते पर बस रूट का आखिरी क्षेत्र था। जब मैकलोडगंज में थे तो आधुनिकता की रंगीनियों में टहलते भारतीय और योरोपिय सैलानियों के खिलंदड़ चेहरों में आक्रामक किस्म का एक हास्य देख रहे थे। बौद्ध गोम्पा में प्रार्थनारत बौद्धिष्टों की अविकल शान्ति सुन रहे थे। अभी कांगड़ा के दुर्गम इलाकों में रहने वाले गदि्दयों के गांवों से गुजर रहे हैं तो देख रहे हैं कि दो सामांतर दुनिया साथ-साथ चल रही हैं।

गदि्दयों का भौगोलिक प्रदेश

हमारा घूमना इन दोनों रेखाओं पर तिर्यक रेखा की तरह अंकित हो तो शायद कह पायें कि गदि्दयों के इस भौगोलिक प्रदेश की तकलीफों को एक सीमा तक जान समझ पायें। शायद इसीलिए निकले हैं। अपनी भेड़ों के साथ जीवन संघर्ष में जुटे उस अकेले भेड़ चरवाहे के मार्ग पर बढ़ते हुए, उसके पदचिन्हों और भेड़ बकरियों की मेंगड़ी की सतत गतिशील रेखा के साथ-साथ नदी नालों को टापते हुए, घुमावदार वलय की तरह ऊपर और ऊपर बढ़ते रास्तों के साथ हम मिन्कियानी दर्रे की ओर बढ़ते रहे। मिन्कियानी दर्रे के पार ही खूबसूरत चारागाहों के मंजर की तलाश भेड़ चरवाहों की ख्वाहिश है। पसीने से चिपचिपाये बदन, जो खुद हमारे ही भीतर घृणा बो रहे हैं, उन हरियाले चारागहों पर लौटने को हैं आतुर।
मिन्कियानी के रास्ते पर बादल घाटियों से उठते तो कभी चोटियों से उतरते। इस चढ़ने और उतरने की प्रक्रिया में शायद कभी सुस्ताते तो घने कोहरे में ढक जाते। थोड़ी दूर पर छूट गये अपने साथी को भी हम पहचान नहीं सकते थे।

बादलों का यह खेल ही तो उकसाता है

बादलों का ऐसा ही खेल एक बार फिरचेन लॉ पर देखा था। फिरचेन लॉ जांसकर घाटी में उतरने का एक रास्ता है जो बारालचा पास के बाद सर्चू से पहले यूनून नदी के साथ आगे बढ़ते हुए फिर खम्बराब दरिया को पार कर पहुंचता है। उस समय जब खम्बराब को पार कर विश्राम करने के बाद अगले दिन तांग्जे के लिए निकले तो ऊंचाई दर ऊंचाईयों को ताकते हुए बेहद लम्बे फिरचेन लॉ को पार करने लगे। ऊंचाईयों की वह ऐसी लड़ी थी कि किसी एक को भी पार करने के बाद दिखायी देता विशाल मैदान। जब मैदान के नीचे की उस ऊंचाई को पार कर रहे होते तो शायद थका देने वाले चढ़ाई ही ऐसी रही होगी कि उसे पार करने की हिम्मत इसी बात पर जुटाते रहे हों कि शायद इस ऊंचाई पर ही होगा फिरचेन लॉ उसके बाद तो फिर फिसलता हुआ ढाल मिल ही जाना है। पर अपनी पुनरावृत्ति की ओर लौटती अनगिनत श्रृंखलाबद्ध ऊंचाईयों ने न सिर्फ शरीर की ताकत निचोड़ ली बल्कि एकरसता के कारण ऊबा भी दिया था।

कौन होगा मार्गदर्शक

मौसम भी साफ नहीं था। बादल कहीं चोटियों से उतरते और हमें ढक लेते। उस वक्त रास्ते का मार्ग दर्शक, हमारा साथी नाम्बगिल अपने घोड़ों के साथ आगे निकल चुका था। अन्य साथी भी आगे जा चुके थे। सतीश, मैं और अनिल काला ही पीछे छूटे हुए थे। मैं और सतीश बिल्कुल पीछे और अनिल काला हमारे आगे-आगे। जिस वक्त वह ऐसी ही एक चढ़ाई के टुक पर था और हम उससे कुछ कदम नीचे तभी अचानक तेज काले बादलों का झुण्ड कहीं से उड़ता हुआ आया। शायद तेज गति से नीचे उतरा होगा तभी तो जब हम तक पहुंचा, शायद थक चुका था और कुछ देर विश्राम करने के लिए हमें घेर कर खड़ा हो गया। फिरचेन लॉ का टॉप नजदीक ही था, जिसका कि उस वक्त हमें आभास नहीं था, क्यों कि पुनरावृत्ति की ओर लौटती ऊंचाईयों ने हमारे भीतर उसके जल्दी आने की कामना को शायद खत्म कर दिया था और हम सिर्फ इस बिना पर चलते जा रहे थे कि जहां पहुंच कर नाम्बगिल हमारा इंतजार कर रहा होगा, मान लेगें कि वही टॉप है। इस तरह से टॉप पर बहुत जल्दी पहुंच जायें- जैसी कामना जो हमें उसके पास न पहुंच पाने पर थका देने वाली साबित हो रही थी, उससे एक हद तक हम मुक्त हो चुके थे और अनगिनत लड़ियों से भरी इन ऊंचाईयों को पार करने की ठान कर बढ़ते चले जा रहे थे। काले घने बादलों के उस घेरे में हम पूरी तरह से ढक चुके थे। चारों ओर अंधेरा छा गया था। अंधेरा ऐसा कि बैग में रखे टॉर्च को भी नहीं खोज सकते। भयावह अंधेरा जिसमें हवायें सन-सना रही थी। सतीश और मैं साथ थे इसलिए हिम्मत बांधें बढ़ते रहे। पर हमसे कुछ ही फुट आगे चल रहा अनिल काला गायब हो चुका था। आंखों को फाड़-फाड़ कर भी देखे तो भी कुछ दिखायी नहीं दे रहा था। हाथों के स्पर्श के सहारे ही हम एक दूसरे को देख पा रहे थे। काला किस दिशा में बढ़ा होगा, हम दोनों ही चिन्तित हो गये। गला फाड़-फाड़ कर पुकारने लगे। हवा इतनी विरल थी कि हमसे कुछ ही दूरी पर अंधेरे के बीच आगे बढ़ रहे अनिल काला को सुनायी नहीं पड़ रही थी। अपनी पुकार का प्रत्युतर न पा हम अन्जानी आशंकाओं से घिर गये। बस बदहवास से चिल्लाते हुए आगे बढ़ते रहे, उस ओर को जिधर उसके जूते के निशान, जो हल्की-हल्की गिरती हुई नमी से गीली हो चुकी धरती पर बेहद मुश्किलों से खोजने पर, दिखायी पड़ रहे थे। तभी अंधेरा छंटने लगा। आवाज लगाते हुए, पांवों के निशान के सहारे हम पास के एकदम नजदीक पहुंच चुके थे। पास पर पहुंचे हुए अन्य साथियों के साथ अनिल काला भी वैसी ही अन्जानी आशंकाओं से घिरा हमारा इंतजार कर रहा था। दूसरे साथियों के पद-चिन्ह उसका भी मार्ग दर्शन करते रहे थे।

भेड़ चरवाहेएकलकड़ी चीरान हो या भेड़ चुगान
कहीं भी जा सकता है
डोडा का अनवर
पेट की आग रोहणू के राजू को भी वैसे ही सताती है
जैसे बगौरी के थाल्ग्या दौरजे के
वे दरास में हों

रोहतांग के पार या,
जलंधरी गाड़ के साथ-साथ
बकरियों और भेड़ों के झुण्ड के बीच
उनके सिर एक से दिखायी देते हैं
बेशक विभिन्न अक्षांशों पर टिकी धरती
उनके चेहरे पर अपना भूगोल गढ़ दे
पर पुट्ठों पर के टल्ले तो एक ही बात कहेगें
दोऊंचे पहाड़ों पर देवता नहीं चरवाहे रहते हैं
भेडों में डूबी उनकी आत्मायें
खतरनाक ढलानों पर घास चुगती हैं
पिघलती चोटियों का रस
उनके भीतर रक्त बनकर दौड़ता है
उड्यारों में दुबकी काया

बर्फिली हवाओं के
धार-दार चाकू की धार को भी भोंथरा कर देती है
ढंगारों से गिरते पत्थर या,तेज उफनते दरिया भी

नहीं रोक सकते उन्हें आगे बढ़ने से
न ही उनकी भेड़ों को
ऊंचे- ऊंचे बुग्यालों की ओर
उठी रहती हैं उनकी निगाहें
वे चाहें तो किसी भी ऊंचाई तक ले जा सकते हैं भेड़ों को

पर सबसे वाजिब जगह बुग्याल ही हैं
ये भी जानते हैं
ऊंचाईयों का जुनून
जब उनके सिर पर सवार हो तो भी
भेड़ों को बुग्याल में ही छोड़
निकलता है उनमें से कोई एक
बाकि के सभी बर्फ से जली चट्टानों की किसी खोह में
डेरा डाले रहते हैं
बर्फ के पड़ने से पहले तक
भेड़ों के बदन पर चिपकी हुई बर्फ को
ऊन में बदलने का खेल खेलते हुए भी रहते हैं बेखबर
कि उनके बनाये रास्ते पर कब्जा करती व्यवस्था जारी है,
ये जानते हुए भी कि रुतबेदार जगहों पर बैठे

रुतबेदार लागे
उन्हें वहां से बेदखल करने पर आमादा हैं,
वे नये से नये रास्ते बनाते चले जाते हैं
वहां तक
जहां, जिन्दगी की उम्मीद जगाती घास है
और है फूलों का जंगल
बदलते हुए समय में नक्शेबाज दुनिया ने
सिर्फ इतनी ही मद्द की
कि खतरनाक ढाल के बाद
बुग्याल होने का भ्रम अब नहीं रहा
जबकि समय की नक्शेबाजी ने छीन लिया बहुत कुछ
जिस पर वे लिखने बैठें
तो भोज-पत्रों के बचे हुए जंगल भी कम पड़ जायेगें
भोज-पत्रों के नये वृक्ष रोपें जायें
पर्यावरणवादी सिर्फ यही कहेगें

उनके शरीर का बहता हुआ पसीना
जो तिब्बत के पठारों में
नमक की चट्टान बन चुका गवाह है
कि सूनी घाटियों को गुंजाते हुए भी
अनंत काल तक गाते रहेगें वे
दयारा बुग्याल हमारा है
नन्दा देवी के जंगल हमारे हैं
फूलों की घाटी में पौधों की निराई-गुड़ाई
हमारे जानवरों ने अपने खुरों से की है

Thursday, May 1, 2008

आकर हरी घाटी में बस गयी सरकार, लेकिन डर लगता है

अपने स्थापना दिवस 1 मई के अवसर पर देहरादून की नुक्कड नाट्य संस्था दृष्टि ने गांधी पार्क, देहरादून में एक कार्यक्रम का आयोजन किया। इस अवसर पर कविताओं की पास्टर प्रदर्शनी लगायी गयी और दो कवियों, जिनमें दलित धारा के कवि ओम प्रकाश वाल्मीकि एवं युवा कवि राजेश सकलानी के काव्य पाठ का आयेजन किया गया।
दृष्टि, देहरादून की स्थापना 1983 में हुई थी। वर्ष 2008 को दृष्टि ने रजत जयंति वर्ष के रुप में मनाते हुए इस कार्यक्रम का आयोजन किया। पिछले 25 वर्षो में जनपक्षधर संस्कृति के सवालों के साथ स्थानीय स्तर पर दृष्टि ने देहरादून ही नहीं बल्कि समूचे उत्तराखण्ड में अपनी उपस्थिति दर्ज की है। उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन की लड़ाई के दौरान उत्तराखण्ड सांस्कृतिक मोर्चे के गठन में दृष्टि की केन्द्रीय भूमिका रही।
आयेजित कार्यक्रम में हिन्दी के वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना जो पिछले दो वर्षो से देहरादून में रह रहे हैं, के साथ-साथ कथाकार विद्यासागर नौटियाल, सुभाष पंत, जितेन ठाकुर, गुरुदीप खुराना, गढ़वाली कविता के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर एवं घूमंतू निरंजन सुयाल, कुसुम भट्ट, कृष्णा खुराना, सीपीआई के उत्तराखण्ड महासचिव समर भंडारी, जगदीश कुकरेती और कई ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता एवं अन्य कविता प्रेमी श्रोता और दर्शक मौजूद थे।