Wednesday, April 2, 2008

अतीत ने ही रचा है वर्तमान


ओम प्रकाश वाल्मीकि

भविष्य की कल्पना करने से पूर्व वर्तमान और बीते हुए कल का आकलन जरुरी लगता है। बीता हुआ यानि अतीत। हिन्दी कथा-साहित्य का शुरुआती दौर भारतीय संस्कृति की महानता के यशोगान का दौर था। जिससे अतीत के गौरवशाली पक्ष को पुन: स्थापित करने की चिन्ताऐं मौजूद थी। वहॉं जनतांत्रिक मूल्यों का कोई स्वरुप दृष्टिगोचर नहीं होता। बीच-बीच में राष्ट्रप्रेम, जिसे धर्म संस्कृति तक ही सीमित रखा गया था, को ऊंचे स्वर में बखाना गया हिन्दी कथा-साहित्य अनेक उतार चढ़ाव से होता हुआ आगे बढ़ा है। 'उसने कहा था' की लोकप्रियता से होते हुए प्रसाद प्रेमचंद, जैनेंद्र और नयी कहानी की महीन कताई बुनाई से होते हुए, अकहानी, जनवादी कहानी, समांतर कहानी, सेक्स बनाम जनवादी कहानी और फिर दलित कहानी आदि के रुपों में हमारे सामने आती है। कुछ विद्धानों का मानना है कि आठवें दशक और उसके बाद कहानी का क्षितिज काफी व्यापक हुआ है। समकालीन कहानी अपने समय और समाज की जटिलताओं को अधिक विश्वसनीय और सहज रुप में प्रस्तुत करने में सक्षम है। जो पाठकों के सामने जीवन अनुभवों को शब्दबद्ध कर रही है।
लेकिन एक प्रश्न बार-बार उठता है कि कथा-साहित्य के आलोचकों के पास कहानी के भीतर घुसकर उसे खंगालने, विश्लेषित, व्याख्यायित करने का समय नहीं है। वजह चाहे जो भी हो, सबके अपने-अपने तर्क हैं, सीमायें हैं, आरक्ष्सण हैं, गठबंधन हैं।
हिन्दी कहानी पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए विश्वनाथ त्रिपाठी कहते हैं - 'साहित्य की जनतांत्रिकता इस बात पर है कि वह विपक्षी को पराजित नहीं करती, वह उसकी वेदना को समझती, यथासंभव उसकी वेदना को उसी के भावबोध के ढांचे में चित्रित करती है।" (वसुधा, कहानी विशेषांक, अंक 33-34, दिस। 1995, रीवा, पृष्ठ -16)
1950 के आसपास आलोचकों ने एक सवाल उठाया था कि कहानी की संभावनायें समाप्त हो गयी हैं और प्रेमचंद्र पर भी कई तरह के आक्षेप लगाये थे। उनके साहित्य को द्वितीय कोटी का कहा गया था, यह भी कहा गया था कि कहानी ही नहीं बल्कि साहित्य की मुख्यधारा के सहज-स्वाभाविक विकास को कभी प्रयोग, कभी आधुनिकता, कभी अनुभववाद, कभी व्यक्ति स्वातंत्रय और कभी शिल्प-कला के नाम पर अवरुद्ध करने की कोशिशें भी जारी रही। यानि कुल मिलाकर कथा साहित्य के विकास में कई प्रकार के टोटके अपनाये गये। पश्चिमी पूंजीवादी देशों के साहित्यिक मूल्यों को हिन्दी कहानी में ज़्बरन स्थापित करने की कोशिशें की गयी। भारतीय जीवन के विषमतापूर्ण सामाजिक वर्चस्व को लगातार अनदेखा किया जाता रहा। साधारण जन-मानस की आशा-निराशा, आकांक्षा, सुख-दुख, चिन्तायें, सरोकार आदि को साहित्यक अभिव्यक्ति में शामिल करने की बजाये, आयातित जीवन मूल्यों को रुपायित करने की कोशिश की जाती रही। और कहानी का वस्तुगत ढांचा खड़ा करने की तमाम कोशिशें बिखरती रही। ये कोशिशें बदलते सामाजिक मूल्यों और संघर्ष की पेचीदिगियों को समझने के बजाये सम्वेदना का वाहय रूप ही अभिव्यक्त करती रहीं। इस संघर्षशील तबके की उदात्त भावनाओं, संघर्षों, प्रेम और भाई चारे की सम्भावनाओं को दरकिनार करके, बौद्धिकता और दार्शनिकता से लबरेज़ कहानियां सिर्फ कला और शिल्प की अभिव्यक्ति बनकर रह गयीं। जिसका आम आदमी के जीवन-संघर्ष से सीधे-सीधे कोई संबंध नहीं था। इसमें उस मध्यवर्गीय जीवन की अनेक अनछुई स्थितियां तो निर्मित हुई, लेकिन कहानी का जो सामाजिक परिदृश्य उभरना चाहिए था, वह कहीं गुम होता गया। इस दौर में साहित्यिक क्षितिज पर उभरे जैनेन्द्र, यशपाल, अज्ञेय आदि अलग-अलग घ्रुवों पर खड़े थे। प्रेमचंद्र की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले रचनाकारों में यशपाल का नाम आता है, जिन्होंने भारत विभाजन की त्रासदी पर 'झूठा-सच" जैसी कृति की रचना की और अपने समय की सच्चाई को बयान किया। जो भारतीय जीवन के एक दुखद अध्याय का जीवंत दस्तावेज बना, लेकिन प्रेमचंद्र की सामाजिक सम्वेदनां की जो गहनता थी, उसका यहां भी अभाव दिखायी देता है, इसके बावजूद भी यशपाल ने अपने समय और समाज के विघटनकारी तत्वों के साथ जो द्वंदात्मक टकराव किया, वह बेजोड़ हैं। उन्होंने वर्तमान को जिया। अतीत को वर्तमान से जोड़कर, जीवन-संदर्भों की गहरी पड़ताल की।
भारतीय जीवन में मौजूद साम्प्रदायिकता, जातिवाद, ब्राहमणवाद, सामंतवाद की छाया में हिन्दी कथा-साहित्य परवान चढ़ा है। इसीलिए आदर्शोन्मुखी है। और कथनी करनी का भेद मौजूद है। लेकिन इन विसंगतियों, अंतर्द्वंद्वों के बावजूद हिन्दी कथा-साहित्य ने स्वतंत्रता के बाद की चुनौतियों को स्वीकार किया। नयी कहानी के दौर में राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, मोहन राकेश, भीष्म साहनी, मार्कण्डेय, परसाई, मनु भण्डारी की कहानियों में जो भारतीय जीवन का फलक उभरा वह हिन्दी कहानी की विकास यात्रा का एक अहम पड़ाव था। जिसमें जीवन-संघर्ष था, विडम्बनाओं की त्रासदी थी।
बदलते जीवन की सच्चाई को पकड़ने की ललक ने हिन्दी कहानी को सामाजिक परिवर्तनों से जोड़ने के प्रयास किये। लेकिन इन प्रयासों में लुका-छिपी का खेल जैसी प्रवृत्ति भी दिखायी देती है। काशीनाथ सिंह, ज्ञानरंजन, स्वंयप्रकाश, रवींद्र कालिया, दूधनाथ सिंह, गिरिराज किशोर आदि ने हिन्दी कहानी को समय से जोड़ने, उसे गम्भीर सरोकारों के प्रति उत्तरदायी बनाने, अपने समय की गम्भीर ज्वलंत चिंताओं को विषयवस्तु में शामिल करने की कोशिशें की। इनमें से कुछ विचारधारा के समर्थक रहे तो कुछ बाहयतौर पर विशिष्ट धारा से जुड़ने का भ्रम दिखाते रहे, लेकिन उनकी कहानियों में विचार गायब था, सिर्फ स्थितियां थी।
यही स्थिति 'स्त्री-विमर्श" को लेकर भी रही है। आंतरिक द्वंद्वों से टकराने और वर्तमान की दारूण विसंगतियों को कथा-कहानियों के माध्यम से अभिव्यक्त करने में रचनाकार गहरे अंतर्द्वंद्वों में उलझे रहे। यह हिन्दी कथा साहित्य का एक पक्ष है जिसे शिल्प की , भाषा की तमाम उत्कृष्टताओं के बावजूद वैचारिक विचलन ही कहा जायेगा।
च्रित्रों की बौद्धिकता को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने की प्रवृत्ति भी रही है, 'शेखर-एक जीवनी" में साफ-साफ देखी जा सकती है। जो अपनी बौद्धिकता से लबरेज है। व्यक्ति की आंतरिकता को तात्विक ढंग से विश्लेषित तो किया जाता है, लेकिन द्वंद्व का यह खेल दार्शनिकता घेरे में बांधकर मानवीय अवधारणाओं को अमूर्तता प्रदान करता है।
इन तमाम विरोधाभासों के बीच कुछ ऐसे उपन्यास भी आये हैं, जो भारतीय ग्रामीण जीवन अल्पसंख्यक समुदाय की उन आंतरिक सच्चाईयों से परिचय कराते हैं, जिन्होंने जीवन की तमाम सम्भावनाओं, विश्वासों, मान्यताओं को जकड़ कर रखा हुआ था। श्री लाल शुक्ल का 'राग दरबारी" , राही मासूम रज़ा का 'आधा गांव" , रेणु का 'मैला आंचल" , ये तीनों ऐसे उपन्यास हैं , जो हिन्दी कथा-साहित्य को समय सापेक्ष ही नहीं बनाते बल्कि समाज की विषमताओं से भी टकराते हैं।

हिन्दी कहानी यदि अपने वर्तमान से बचकर, उसकी जटिलताओं को बाहय रूप में ही पकड़ती है, तो वह अपनी ज़िम्मेदारी से विमुख होती हैं। कहानी की सार्थकता भी इसी में है कि वह भविष्य के लिए अपनी भूमिका तय करे। अपने समाने खड़ी चुनौतियों और खतरों का समाना करे।
कहानी में समाज और चरित्र अधिक स्पष्ट और ठोस रूप में रेखांकित होते हैं। इसीलिए उसका उत्तरदायित्व भी ज्यादा गहरा होता है। उसकी आंतरिक चिंताऐं भी ज्यादा घनीभूत होनी चाहिये।

दुनिया के कथा-साहित्य पर एक दृष्टि डालें तो दक्षिण अमेरिका के कथा-साहित्य में गार्सिया मार्क्वेज, रिचर्ड राईट ने भविष्य निर्माण किया है, और कथा-साहित्य को गरिमा देकर भविष्य की महत्वपूर्ण विधा की विश्वसनीयता उसकी द्वंद्वात्मकता के कारण बनती है। जब हम भविष्य की बात करते हैं तो हमारे सामने वर्तमान ही होता है।
वर्तमान को जब साहित्य से जोड़कर देखते हैं तो एक शब्द बार-बार सामने आता है, जिसे सामाजिक, राजनीतिक, साहित्यिक संदर्भों में 'मुख्यधारा" कहते हैं। मुख्यधारा का साहित्य, समाज की मुख्यधारा, राजनीति की मुख्यधारा या फिर राष्ट्र की मुख्यधारा, जो भी इस धारा से बाहर रहा उसे जबरन इस धारा में लाने के प्रयास हुए। मुख्यधारा यानि वर्चस्व की धारा। तो न हमारे वर्तमान को दिशा देती है, न भविष्य को। कुछ मुठ्ठी भर लोग जो सत्ता केन्द्रित वर्चस्व थामें हुए है। यह उनकी धारा है, जो न दूसरों को समझना चाहती है, न जानना। अपने ही निर्मित प्रभामण्डल में जीती है और परिधि में गोल-गोल चर काटती है। इस मुख्यधारा ने यथास्थिति बनाये रखने में अहम भूमिका निभायी है। जब भी भारतीय जीवन में कोई संकट आया, या कोई उथल-पुथल हुई, कोई सामाजिक, राजनीतिक परिवर्तन की सम्भावनायें बनी, तब-तब इस मुख्यधारा ने चुप्पी साध ली या फिर दर्शन, आध्यात्मिक या प्रकृति प्रेम या फिर धार्मिक नायको के यशोगान आदि में डूबे रहे या समय आने का इंतज़ार करना, चीजों को पकाने का इंतज़ार करना ही ज्यादा रहा। जबकि मुख्यधारा से बाहर छिटके लोगों ने ज्यादा तत्परता दिखायी। वे ज्यादा जागरुक और उत्तरदायित्व के साथ वर्तमान के निष्कर्षों के साथ भविष्य की सीमायें निर्धारित करने में जुटे रहे। उनका कथा सहित्य इस बात की जद्दोजहद करता है, न कि जड़ता की।
भविष्य का निर्माण वर्तमान से जुड़कर होता है, उससे तटस्थ रह कर नहीं। कथा-सात्यि के भविष्य पर चिन्ता करते समय वर्तमान और उससे जुड़े सरोकारों, सम्वेदनों पर विचार करना निहायत ही ज़रुरी है। कथा-साहित्य का भविष्य इसी तथ्य पर निर्भर करता है कि वह वर्तमान के संघर्षों में कितनी हिस्सेदारी निभाता है।
कथा-साहित्य में वर्तमान की मात्र छाया या संकेत, या प्रतीक ही काफी नहीं है, उसकी सम्वेदना संघर्ष, जिजीविषा, उसकी वेदना का आकलन जरुरी लगता है। इसलिए मुख्यधारा के तथाकथित कथा-साहित्य को अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, स्त्रियों, दलितों, कमज़ोर पिछड़े, दबे-कुचले लोगों की और ध्यान देना होगा उन्हें मुख्यधारा के दिशाहीन भुलावे में खींच कर लाने के विमर्श की जगह, उन्हें समझने-जानने के विमर्श को तरज़ीह देने की आवश्यकता है। क्योंकि वे ही इस देश की अस्मिता की लड़ाई लड़ हैं। इस लड़ाई में मुख्यधारा को उनके साथ जुड़ना होगा। तभी हिन्दी कथा-साहित्य का भविष्य ठोस रूप में और अधिक सुदृढ़ होगा।
आज हिन्दी प्रांतों में कहीं भी कोई ऐसा आंदोलन दिखाई नहीं पड़ता जो मानवीय गरिमा को बचाये रखने की चिंता कर रहा हो। साम्प्रदायिकता, अलगाववाद, आतंकवाद, अमेरिकावाद, बाज़ारवाद के विरुद्ध खड़ा हो। जो यह विश्वास जगाये कि सामाजिक जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाने की कोई जद्दोजहद जारी है। हमारी आस्थायें, मूल्य किस रूप में और कैसे एक बेहतर इन्सान बनने में हमारी मद्द कर सकती है, इस तरह की चिंतायें नयी कहानी के दौर में भी उठीं थी। जब भोगा हुआ यथार्थ, अनुभव की प्रामाणिकता जैसे मुहावरे बहुत जोर शोर से उठे थे। आज दलित साहित्य भी कुछ इसी तरह की चिंताओं के साथ बदलाव की कामना करता है, और अतीत को वर्तमान के साथ जोड़कर एक रास्ता चुनने की प्रक्रिया से गुजर रहा है। कुछ आलोचक दलित साहित्य पर आरोप लगाते हैं कि बीती बातों का रोना रोते रहना ही साहित्य नहीं है। आज कहां है जातिवाद, उत्पीड़न शोषण, लेकिन ये आरोप लगाते समय वे भूल जाते हैं कि 'मील का पत्थर" बनी हिन्दी कृतियां अतीत पर ही रची गयी हैं। वर्तमान की सच्चाई को वे शिल्प के आवरण में ढंक कर रास्ता बदल लेते हैं। बौद्धिक विवरण, आध्यात्मिक, दार्शनिक नुक्ते उनकी मद्द नहीं करते।
इन स्थितियों में हिन्दी कथा-साहित्य को आत्म्श्लाघा से बाहर आकर आत्म्विश्लेष्ण की जरूरत है, ताकि भविष्य की ओर जाते-जाते कही अन्धेरे काल्खन्ड मे ही तो चक्कर नही काट रहे है. वर्तमान से पलायन और कलात्मक शिल्प, समकालीनता के साथ बौदधिक विमर्श हिन्दी कथा-साहित्य के भविष्य के निर्माण में कितनी मद्द कर पायेगें, इस पर विचार भी ज़रुरी लगता है। वरना कथा-साहित्य की भी वही स्थिति होगी - 'अंधा बांचे बहरा सुने" ।


(हिन्दी दलित धारा के रचनाकार ओम प्रकाश वाल्मीकि ने यह आलेख उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान एवं कथाक्रम, लखनऊ द्वारा आयेजित संगोष्ठी - हिन्दी कथा-साहित्य, दिनांक 11 फरवरी 2008, में प्रस्तुत किया था। आज हिन्दी की दलित धारा समकालीन रचना जगत को न सिर्फ अपनी रचनाओं से बल्कि आलोचना से भी समृद्ध कर रही है। यह आलेख उसकी एक बानगी है। अस्मितादर्श साहित्य सम्मेलन 2008, जो कि 11 अप्रैल 2008 को चंद्रपुर, महाराष्ट्र में होने जा रहा है, ओम प्रकाश वाल्मीकि वहां आमंत्रित है और कार्यक्रम की अध्यक्षता करेगें। इसी कड़ी में उनका अध्यक्षीय भाषण 11 अप्रैल को हमारे ब्लाग पर आप देख पायेगें।)

ब्लाग पर

अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखने वाली वे रचनायें जिनका प्रथम प्रकाशन इसी ब्लाग पर हो रहा है, अब से उनके लेबल में ब्लाग पर अंकित होगा। तकनीक की सीमित जानकारी के चलते पहले प्रस्तुत की जा चुकी रचनाओं पर ऐसा करना संभव नहीं रहा। पूर्व में प्रस्तुत ऐसी रचनाओं के शीर्षक यहां दिये जा रहे हैं - मजबूत घेरे की सघनता के विरुद्ध बेघर हा जाने की कथा, क्वाण्टम भौतिकी एवं सृजन की संभावना, परितोष चक्रवर्ती का कथा संग्रह: कोई नाम न दो, विजय गौड की लघु-कथा .

Tuesday, April 1, 2008

देहरादून में रहते थे कवि कुल्हड़



* मदन शर्मा
देहरादून जैन धर्मशाला में, समाज सेवी वीरेन्द्र कुमार जैन की सपुत्री के शुभ विवाह का आयोजन था। काफी चहल पहल का माहौल था। बड़ा हाल अतिथियों से खचाखच भरा था। एक कोने में, आठ-दस प्रशन्स्को से घिरे कवि कुल्हड़, अपनी चिरपरिचित विनोदपूर्ण शैली में बातचीत करने में व्यस्त थे। प्रशन्स्को में से एक ने कह दिया, ""कुल्हड़ जी, कुछ हो जाये।'' ""क्या हो जाये?'' कुल्हड़ जी ने चकित होकर पूछा। ""कोई छोटी-मोटी कविता ही हो जाये।''
कुल्हड़ जी का मूड बदल गया। थोड़ा गम्भीर होकर बोले, ""देखो मित्र, यह छोटी मोटी, लोकल कवि, यहां वहां सुना दिया करते है। हम अखिल भारतीय स्तर के कवि हैं और कविता, कवि सम्मेलन के मंंंंच पर ही सुनाया करते हैं। वो उधर डी। ए। वी। कालेज देहरादून के प्रोफेसर खड़े हैं। वे आप को छोटी मोटी सुना देन्गे। मगर जहां तक हमारी बात है, हम उन में से नहींे, जो मोची से जूता ठीक कराते समय भी, कविता सुनाने लगें।''इसी मेहफिल में, एक सरदार जी, कुल्हड़ जी को बार बार हाथ जोड़े जा रहे थे। कुल्हड़ जी ने उनकी और निहारा और कहा, ""मैंने आपको पहचाना नहीं।'' सरदार जी ने पुन: हाथ जोड़े और कहा, ""मैं तो जी बस आप के जूते साफ करने वाला, एक तुच्छ प्राणी हूं।'' कुल्हड़ जी ने उसकी ओर घूर कर देखा। फिर सस्नेह कहा, ""देखो, यदि जूते साफ करने वाले हो, तो बाहर जाकर बैठ जाओ। यहां सम्मानित अतिथि भोजन करने वाले हैं।'' हास्यरस के वरिष्थ कवि श्री सोमेश्वर दत्त शन्खघर 'कुल्हड़" से मेरी पहली भेंट, आर्य समाज मन्दिर में आयोजित, हिंदी साहित्य समिति की एक बैठक के दौरान हुई। वहीं मौजूद कवि हर्ष पर्वतीय ने उनसे मेरा परिचय कराया। कुल्हड़ जी बड़ी आत्मीयता से मिले और जब हर्ष जी ने उन्हें बताया, कि इन्ही दिनों मेरा उपन्यास प्रकाशित हुआ है, तो वे प्रसन्न होकर बोले, ""किसी दिन मिलिये और अपना उपन्यास भी दिखाइयंए।''

मैंने पूछा, ""आप से कहां भेंट हो सकेगी?'' कुल्हड़ जी ने उत्तर दिया, ""देखो मित्र, मैं अपने निवास पर तो किसी को आमंत्रित नहीं किया करता। एक लोकल कवि मेरे पास आया करता था। वह एक दिन मौका पाकर, मेज़ पर रखे नोट और रेज़गारी लेकर चलता बना।।। आप ऐसा करें, ईस्ट केनाल रोड़ पर हमारा पुरातत्व विभाग कार्यालय है। आजकल वही हमारा ड्राइंगरूम है। आप किसी दिन वहीं आ जायें।''
कुल्हड़ जी से तीन-चार बार मेरी वही भेंट हुई। उसके बाद उन्होंने विधिवत 'पर्मिशन" जारी करते हुए कहा, ""आप शरीफ आदमी जान पड़ते हैं। रेसकोर्स चौराहे के पास, विकास होटल में मेरा निवास है। आप वहीं आ जाया करें।''
कुल्हड़ जी ने मेरा साधारण-सा उपन्यास 'शीत लहर" गम्भीरता से पढ़ा और उस पर पेंसिल से, सभी अशुद्धियों और त्रुटियों पर निशान लगा दिये। भेंट होने पर, उन्होंने विस्तार से बातचीत की और भविषय के लिये कुछ हिदायतें भी दीं। लेखन के बारे में उन्होंने समझाया, ""परिश्रम करो। अच्छा साहित्य पढ़ो और पूरे आत्म विशवास के साथ लिखो। प्रशनसा करने वाले को, शक की निगाह से देखो और अधिक प्रशनसा करने वाले को, तो अपना शत्रु ही जानो। एक बार जम जाने के बाद, जो भी सांप - अजगर मार्ग में नज़र आये, उसे तलवार से काटकर, आगे बढ़ जाओ।''

कुल्हड़ जी के एक घनिषट मित्र हरिसिंह 'हरीश" भी काफ़ी अक्खड़ और मुहंफट किस्म के साहित्यकार थे। वह किसी सरकारी दफतर में अधिकारी थे। एक बार मिले, तो छूटते ही बोले, ""आप को उपन्यास छपवाने की किस अक्लमन्द ने राय दी थी?'' मैं सहम कर रह गया। वे फिर बोले, मैं पढ़ चुका हूं आप का वह उपन्यास। उस में भाव पक्ष तो है, मगर बुद्धि पक्ष का पूर्णत: अभाव है।'' मैं तब भी चुप रहा, तो समीप बैठे कुल्हड़ जी हँसकर बोले, ""हरीश, एक बार सुन लो। इनका उपन्यास जैसा भी है, मगर तुम्हारे उपन्यास से काफ़ी अच्छा है।''
हरि सिंह हरीश ने अपने उपन्यास की प्रति मुझे देते हुए कहा, ""पढ़ कर बताइये, कैसा है।''

कुल्हड़ जी हँसकर बोले, ""कैसा है, यह मैं अभी बता देता हूं। मदन जी, यह हरिसिंह हरीश नाम का व्यक्ति जितना घटिया है, उससे कहीं घटिया, इसका यह उपन्यास है। इस पुस्तक के पांच पृषठ पढ़ जाना भी, हर किसी के वश की बात नही। आप यदि किसी तरह पूरा उपन्यास पढ़ जायें, तो पिक्चर मेरी ओर से।''
उस समय मेैंने कुल्हड़ जी की बात को उपहास में ले लिया था। किंतु जब वह उपन्यास पढ़ा, तो महसूस किया, कि हास्य के दौरान भी वे अकसर गम्भीर ही हुआ करते थे।
उन्हीं हरीश जी का एक और किस्सा याद आ गया। वे एक दिन, कुल्हड जी के निवास पर, मोटर साइकिल पर घ्ाड़घ्ाड़ाते पहुचें और ज़ोर ज़ोर से दरवाज़ा खटखटाने लगे। कुल्हड़ जी हड़बड़ा कर उठे और दरवाज़ा खोला। हरिसिंह हरीश पर निगाह पड़ते ही, उन्होंने तीन चार भारी भरकम गालियों के साथ स्वागत किया। हरीश जी नाराज़ होकर बोले, ""यार, कभी तो खय़ाल कर लिया करो। मेरी पत्नी साथ है और तुम इस तरह गालियां बके जा रहे हो।''
कुल्हड़ जी ने हाथ जोड़, श्रीमती हरीश को नमस्कार किया और बड़ी विनम्रता से कहा, ""क्षमा कीजिये भाभी जी, दरअसल मैंने आपको देखा नहीं था।'' फिर खिलखिला कर कहने लगे, ""वैसे एक बात तो अच्छी ही हुई। भाभी जी को यह पता चल गया, कि हरिसिंह हरीश की, मित्रों के बीच क्या कद्र है।''
एक दिन, कुल्हड़ जी के दफ़तर के एक सहयोगी ने कहा, ""मैंने आपका इतना नाम सुना है। मगर मैंने आज तक आप की एक भी कविता नहीं सुनी।''
कुल्हड़ जी ने उत्तर दिया, ""आप सौभाग्यशाली हैं। मेरी कविता वो लोग सुनते हैं, जिनकी किस्मत फूट गई होती है।'' फिर वह मेरी ओर मुड़े और पूछा, ""मदन जी, आपने कभी कविता नहीे लिखी।''

मैंने बताया, कि कभी नहीं लिखी।

""क्यों नहीं लिखी? कोशिश तो की ही होगी?'' मैंने कहा, ""कोशिश भी नहीं की।।। मेरे अंदर यह प्रतिभा ही नहीें है।''
कुल्हड़ जी हँसकर कहने लगे, ""आप क्या समझते हैं, इतने लोग, जो कविता लिख रहे हैं, सभी प्रतिभा संपन्न हैं? हमारे इसी देहरादून में, पांच सौ कवि तो होंगे ही। किसी को भी भाषा का ज्ञान नहीं। छंद अलंकार को तो गोली मारो, यही पता नहीं चलता, ये क्या कहना चाहते हैं। रोते हैं या हंसते, यह भी आभास नहीं होता। उर्दू शब्दों का ऐसे प्रयोग करते हैं, जैसे सब के सब मुन्शीफ़ाजिल हों। इनमें ऐसे भी है, जो हिंदी गोषठी में गज़ल पढ़ कर सुनाते हैं और उर्दू की नशिस्त में हिंदी के बिरह गीत प्रस्तुत करते हैं!''

वे थोड़ा रूककर फिर कहने लगे ""कविता के मामले में, एक बड़ी सुविधा यह है कि आप किसी प्रकार चार कविताएं लिख डालिये और सिर्फ़ उन्ही चार कविताओं को, देश के कोने-कोने में आयोजित कवि सम्मेलनों के मंच पर, सस्वर या बेसुरे, लगातार आठ वर्ष तक पढ़ते चले जाइये। मैं इसी शहर के एक ऐसे महाकवि को जानता हू, जिसने गत् चालीस वर्ष में, केवल एक कविता लिखी है और उसी बीस शब्दीय महाकाव्य की रचना कर, उसने अमरत्व प्राप्त कर लिया है। चन्द्रधर शर्मा गुलेरी को तो अमर होने के लिये, तीन अदद कहानियां लिखनी पड़ी थी। किंतु हमारे इस महाकवि ने केवल बीस शब्दों की रचना से ही, हिंदी साहित्य जगत में तहलका मचा दिया। एक आप हैं, जो दो ढ़ाई वर्ष बर्बाद करने के बाद, एक उपन्यास पूरा कर पाते है। फिर किताब के छपने का झंझट और पाठक उस उपन्यास को तीन चार घ्अनटे में निबटा कर, एक और पटक देता है और इतने उपन्यास लिखने के बाद भी, आप अमर नही हो पाये। मेरी मानिये, तो आप भी हमारे महाकवि जैसी दो चार उल्टी सीधी कविताएं लिख मारिये।''
मगर मैंने तब भी कविता लिखने की कोशिश नहीं की। और कुल्हड़ जी ने इस बात पर संतोष ही व्यक्त किया। उन्होंने कितने ही लोगों के पास प्रशनसा करते कहा, ""मदन शर्मा समझदार है, उसने कविता लिखने की एक बार भी हिमाकत नही की।''
किसी गोषठी में, एक कवि काफी देर से, किसी अन्य कवि की आलोचना किये जा रहे थे। गोषठी में कवि वीर कुमार 'अधीर" भी मौजूद थे। कुल्हड़ जी बोले, ""अधीर तुम्हें याद है, किसी काव्य संग्रह में इन्हीं श्री मान जी ने अपनी एक कविता में लिखा है।।।।। मैं यदि सुबह उठकर पेशाब करने न जाऊं, तो मेरा कोई क्या कर लेगा। इनसे पूछो, वहां इनकी कविता का क्या स्तर रहा था।''
लेखक नवीन नौटियाल के 'इंडियन आर्ट स्टूडियो" में 'संवेदना" की मासिक गोषठी चल रही थी। वहां 'जंजीर" साप्ताहिक के संपादक स्वचन्द्र प्रकाश मेरे बराबर बैठे थे। वे वहां मुझ से मिलने ही आये थे। गोषठी सम्पन्न हो जाने पर, सभी बाहर निकले, तो कुल्हड़ जी पर नज़र पड़ी। चन्द्र प्रकाश उनसे कहने लगे, ""आप अंदर क्यों नहीं आ गये?''
कुल्हड़ जी बोले, ""मैं यहां मदन जी से मिलने चला आया। मगर चन्द्र प्रकाश, आप यहां कैसे? संवेदना की गोषठी में तो सिर्फ पढ़े-लिखे लोग भाग लेते है।''
चन्द्र प्रकाश कुल्हड़ जी से काफी दिन तक नाराज़ रहे। बहुत से लोगों को" यह मुगालता रहा, कि कुल्हड़ जी सीमा से भी बढ़ कर मुहफट हैं और वे किसी का भी अपमान कर सकते हैं। मगर ऐसा नही था। वे स्पषटवादी होने के साथ साथ, सिद्धांतवादी भी थे। बनावट उन्हें बिल्कुल पसन्द नही थी। कोई उनके सामने डींगंे हाकें, यह सहन कर पाना उनके लिये सहज न था। वे बहुत ही सहज और विनम्र थे और परिस्थिति देखकर ही बात किया करते थे। मुझे उन से सदा ही आदर और स्नेह मिलता रहा।
देहरादून, कुल्हड़ जी का 'अपना शहर" था। उनकी पत्नी, दिल्ली में किसी कालेज की प्राचार्य थी और वे स्वयं देहरादून में पुरातत्व विभाग में, उच्च पद पर नियुक्त थे। अत: उन्हें इधर अकसर अकेले ही रहना पड़ता था। इसके बावजूद मैं जब भी उनसे मिलने गया, उन्होने अपने हाथ से चाय बना कर पिलाई।
लेखन के बारे में उन्होंने बहुत कुछ समझाया। अच्छी अच्छी किताबें पढ़ने के लिये दी, ताकि उन्हें पढ़कर मैं बेहतर लिखने का प्रयास करूं।
अन्य लोगों को उनसे मिलने के लिये, समय लेना अनिवार्य था। मगर मेरे लिये कोइ बंदिश नही थी। वैसे उनका नियम था, कि सुबह ग्यारह बजे से पूर्व, वे अपने कमरे का दरवाजा नही खोलते थे। उससे पूर्व वे कई घ्ंटे पूजापाठ में लगाते थे।
कुल्हड़ जी पक्के शाकाहारी थे। मिठाई के बहुत शौकीन। कहा करते, ""ब्राहमण का यह भी धर्म है, मीठा खाना और कड़वा बोलना।'' कवि सम्मलेन के लिये जाते समय, वे हमेशा साफ़ पानी से भरी बोतल, साथ लेकर चलते थे ।कवि सम्मलेन में कविता पाठ का निमंत्रण मिलने पर वे अन्य कवियों की तरह, कभी मोल भाव नहीं करते थे। मगर मान सम्मान का पूरा ध्यान रखते। एक बार, किसी संस्था की और से, एक कार्यकर्ता इन्हें कवि सम्मेलन के लिये आमंत्रित करने आया, तो गलती से पूछ बैठा, ""कवि सम्मेलन में आने का आप क्या लेंगे?'' कुल्हड़ जी ताव खाकर बोले, ""क्या तुम्हें मैं शक्ल से भीखमंगा नज़र आ रहा हूं?''
मित्रों के लिये, वे कई बार, बिना धनराशि लिये भी, कविता-पाठ के लिये गये। वहां भी उन्होंने वैसे ही जमकर कविताएं पढ़ी, जैसे अन्य कवि सम्मलेनों में पढ़ते थे और कवि सम्मलेन हमें पूरी तरह छा जाते थे।
उन्होंने बहुत अधिक कविताएं नहीं लिखी। किंतु उनकी अदायगी इतनी उम्दा थी, कि बार-बार सुनने के बावजूद, वे कविताएं नई और ताज़ा मालूम पड़ती थी। उन्हंे स्वयं अपने लेखन के बारे में कभी गलतफहमी नही हुई। वे स्वयं ही कहा करते, ""देखो हमारी कविता दो कौडी की भी नहीं: मगर हनुमान बाबा की कृपा से, हमारा आत्मविशवास सदैव कार्य करता है। आज तक हम कभी हूट नही हुए। वरना बड़े-बड़े धुरन्दर मंच पर जाकर, अपनी हीन भावना के कारण, हूट हो जाते हैं।''
एक बार कुल्हड़ जी, मेरे साथ सरदार दीवान सिंह 'मफ्तून" से मिलने राजपुर गये। वहां हम दो ढ़ाई घ्ंटे रहे। मफ्तून साहब अपने दिल्ली और 'रियासत" अखबार वाले संस्मरण सुनाते रहे और हम चुपचाप सुनते रहे। कुल्हड़ जी इस दौरान, कुछ भी नही बोले। लौटते समय मैंने उनकी इस चुप्पी का कारण जानना चाहा। वे बोले, ""मफ्तून साहब विद्धवान व्यक्ति है। उनके पास अनुभवों का भंडार है। उनकी भाषा शैली उच्च स्तर की है। उनको सुना जाना जरूरी है। वरना हमारा क्या है, हम तो बकते ही रहत हैं! ''
उर्दू शायर ज़िया नेहटौरी, उनके पक्के दोस्त थे। दोनों आपस में जी भर कर बहस करते और एक दूजे को बेहद चाहते थे। दूसरों से भी कहते, ""यह मुल्ला है और मैं ब्राहमण। हम दोनों, हिंदु-मुसलिम एकता का प्रतीक है। यह अलग बात है, कि हमें इस एकता के लिये, कोई राषट्रीय पुरस्कार नही मिला।''
एक दिन बारिश हो रही थी। वैसे भी बरसात का मौसम था। लगभग डेढ़ घ्ंटे से कुल्हड़ जी से, उनके निवास पर बातचीत चल रही थी। मैं घ्ाड़ी देख उठ खड़ा हुआ। कोने में रखी अपनी छतरी उठाई और चलने लगा। कुल्हड़ जी बोले, ""चल रहे हैं, अच्छी बात। छतरी है न आप के पास! ठीक है, समझदार आदमी वही है, जो बरसात के मौसम में, बिना बारिश के भी, छतरी साथ लेकर चले।

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Monday, March 31, 2008

सांस सांस में बसा देहरादून


बहुत पुराना किस्सा है। एक बुजुर्ग शख्स अपने बंगले के हरे भरे लॉन में शाम के वक्त चहल कदमी कर रहे थे। तभी उन्होंने देखा कि गेट पर उनका कोई प्रिय मेहमान खड़ा है। उसे देखते ही उनकी खुशी का ठिकाना न रहा। उन्होंने अपनी छड़ी वहीं नरम घास में धंसा दी और गेट खोलने के लिए लपके। मेहमान को ले कर वे बंगले के भीतर चले गये। छड़ी रात भर के लिए वहीं धंसी रह गयी।
अगले दिन सुबह उन्हें अपनी छड़ी की याद आयी तो वे लॉन में गये तो देखते क्या हैं कि छड़ी पर छोटे छोटे अंकुए फूट आये हैं।
तो ये होती है किसी जगह की उर्वरा शक्ति कि छड़ी में भी रात भर में अंकुए फूट आते हैं।
ये किस्सा है देहरादून का। इस शहर के बारे में कहा जाता है कि वहां आदमी की बात तो छोड़िये, छड़ी भी ठूंठ नहीं सकती और रात भर की नमी में हरिया जाती है।
लेकिन किस्से तो किस्से ही होते हैं। न जाने कितने लोगों द्वारा सुने सुनाये जाने के बाद भेस, रूप, आकार और चोला बदल कर हमारे सामने आते हैं। हुआ होगा कभी किसी की छड़ी के साथ कि पूरे बरसात के मौसम में वहीं लॉन पर रह गयी होगी और ताज़ी टहनी की बनी होने के कारण हरिया गयी होगी, लेकिन किस्से को तो भाई लोग ले लड़े। इस बात को शहर की उर्वरा शक्ति से जोड़ दिया।
आदमी की बात और होती है। उसे छ़ड़ी की तरह हरे भरे लॉन की सिर्फ नरम, पोली और खाद भरी मिट्टी ही तो नहीं मिलती। हर तरह के दंद फंद करने पड़ते हैं अपने आपको ठूंठ होने से बचाये रखने के लिए। हर तरह के पापड़ बेलने पड़ते हैं अपने भीतर की संवेदना नाम के तंतुओं को सूखने से बचाने के लिए। फिर भी गारंटी नहीं रहती कि आदमी ढंग से आदमी भी रह पायेगा या जीवन भर काठ सा जीवन बिताने को होगा अभिशप्त।

अब किस्मत कहिये या कुछ और, यह बांशिदा भी उसी देहरादून का है। यह बात अलग है कि इस बदें का बचपन लॉन की हरित हो आयी छड़ी की तरह नहीं, बल्कि झाड़ झंखाड़ वाली उबड़ खाबड़ तपती ज़मीन पर लगभग नंगे पैरों चलते बीता है। कितना ठूंठ रहा और कितना अंकुरित हो कर कुछ कर पाया उस मिट्टी की उर्वरा शक्ति से कुछ हासिल करके, यह तो मेरे यार दोस्त और पाठक ही जानते होंगे लेकिन एक बात ज़रूर जानता हूं जो कुछ हासिल कर पाया उसके लिए कितनी बार टूटा, हारा, गिरा, उठा और बार बार गिर गिर कर उठा, इसकी कोई गिनती नहीं। लगभग तेरह चौदह बरस में सातवीं कक्षा में पहली तुकबंदी करने के बाद ढंग से लिख पाना शुरू करने में मुझे सच में नानी याद आ गयी। बीस बरस से भी ज्यादा का वक्त लग गया मुझे अपनी पहली कहानी को छपी देखने के लिए। लोग जिस उम्र तक आते आते अपना बेहतीन लिख चुके होते हैं, तब मैं दस्तक दे रहा था। बेशक देहरादून पहली बार बाइस बरस की उम्र में 1974 में और हमेशा के लिए दूसरी बार 1978 में छूट गया था और बाद में वहां सिर्फ मेहमानों की तरह ही जाना होता रहा, और अब तो पांच बरस से वहां जा ही नहीं पाया हूं ( 11 दिसम्‍बर 2007 को जाना तय था, टिकट भी बुक था, लेकिन 10 दिसम्‍बर 2007 को दिल्‍ली में हुए भीषण सड़क हादसे ने मेरी पूरी जिंदगी की दिशा ही बदल डाली, अब तक जख्‍म सहला रहा हूं) लेकिन पहली मुकम्मल कही जा सकने वाली कहानी 1987 में पैंतीस बरस की उम्र में ही लिखी गयी। लेकिन इस बीच, अगर अज्ञेय की कविता से पंक्ति उधार लेते हुए कहूं तो कितनी नावों में कितनी बार डूबते उतराने के बाद ही, कई कई नगरों, महानगरों में दसियों नौकरियों में हाथ आजमाने के और दुनिया भर के अच्छे बुरे अनुभव बटोरने के बाद ही यह कहानी कागज पर उतर पायी थी।
फिलहाल उस सब के विस्तार में न जा कर मैं अपनी बात देहरादून और देहरादून में भी अपनी मौहल्ले तक ही सीमित रखूंगा और कोशिश करूंगा बताने की कि कितना तो बनाया उस मौहल्ले ने मुझे और कितना बनने से रोका बार बार मुझे।

हमारा घर मच्छी बाज़ार में था। एक लम्बी सी गलीनुमा सड़क थी जो शहर के केन्‍द्र घंटाघर से फूटने वाले शहर के उस समय के एक मात्र मुख्य बाज़ार पलटन बाज़ार से आगे चल कर मोती बाज़ार की तरफ जाने वाली सड़क से शुरू होती थी और आगे चल कर पुराने कनाट प्लेस के पीछे पीछे से बिंदाल नदी की तरफ निकल जाती थी। मोती बाज़ार नाम तो बाद में मिला था उस सड़क को, पहले वह कबाड़ी बाज़ार के नाम से जानी जाती थी। कारण यह था कि वहां सड़क के सिरे पर ही कुछ सरदार कबाड़ियों की दुकानें थीं। ये लोग कबाड़ी का अपनी पुश्तैनी धंधा तो करते ही थे, एक और गैर कानूनी काम करते थे। देहरादून में मिलीटरी के बहुत सारे केन्‍द्र हैं। आइएमए, आरआइएमसी और देहरादून कैंट में बने मिलीटरी के दूसरे ढेरों दस्ते। तो इन्हीं दस्तों से मिलीटरी का बहुत सा नया सामान चोरी छुपे बिकने के लिए उन दुकानों में आया करता था। पाउडर दूध के पैकेट, राशन का दूसरा सामान, फौज के काम आने वाली चीजें और सबसे खास, कई फौजी अपनी नयी यूनिफार्म वहां बेचने के लिए चोरी छुपे आते थे और बदले में पुरानी यूनिफार्म खरीद कर ले जाते थे। तय है उन्हें नयी नकोर यूनिफार्म के ज्यादा पैसे मिल जाते होंगे और पुरानी और किसी और फौजी द्वारा इस्तेमाल की गयी पोशाक के लिए उन्हें कम पैसे देने पड़ते होंगे। मच्छी बाज़ार में ही रहते हुए हमारे सामने 1964 की ओर 1971 की लड़ाइयां हुई थीं। लड़ाई में जो कुछ भी हुआ हो, उस पर न जा कर हम बच्चे उन दिनों ये सोच सोच कर हैरान परेशान होते थे कि जो सैनिक अपनी यूनिफार्म तक कुछ पैसों के लिए बाज़ार में बेच आते हैं, वे सीमा पर जा कर देश के लिए कैसे लड़ते होंगे। एक सवाल और भी हमें परेशान करता था कि जो आदमी अपनी ड्रेस तक बेच सकता है, वह देश की गुप्त जानकारियां दुश्मन को बेचने से अपने आपको कैसे रोकता होगा। (यहां इसी सन्दर्भ में मुझे एक और बात याद आ रही है। मैं अपने बड़े भाई के पास 1993 में गोरखपुर गया हुआ था। ड्राइंगरूम में ही बैठा था कि दरवाजा खुला और एक भव्य सी दिखने वाली लगभग पैंतीस बरस की एक महिला भीतर आयी, मुझे देखा, एक पल के लिए ठिठकी और फ्रिज में छः अंडे रख गयी। तब तक भाभी भी उनकी आहट सुन कर रसोई से आ गयी थीं। दोनों बातों में मशगूल हो गयीं। थोड़ी देर बाद जब वह महिला गयी तो मैंने पूछा कि आपको अंडे सप्लाई करने वाली महिला तो भई, कहीं से भी अंडे वाली नहीं लगती। खास तौर पर जिस तरह से उसने फ्रिज खोल कर अंडे रखे और आप उससे बात कर रही थीं। जो कुछ भाभी ने बताया, उसने मेरे सिर का ढक्कन ही उड़ा दिया था और आज तक वह ढक्कन वापिस मेरे सिर पर नहीं आया है।
भाभी ने बताया कि ये लेडी अंडे बेचने वाली नहीं, बल्कि सामने के फ्लैट में रहने वाले फ्लाइट कमांडर की वाइफ है। उन्हें कैंटीन से हर हफ्ते राशन में ढेर सारी चीजें मिलती हैं। वैन घर पर आ कर सारा सामान दे जाती है। वे लोग अंडे नहीं खाते, इसलिए हमसे तय कर रखा है, हमें बाज़ार से कम दाम पर बेच जाते हैं। और कुछ भी हमें चाहिये हो, मीट, चीज़ या कुछ और तो हमें ही देते हैं। इस बात को सुन कर मुझे बचपन के वे फौजी याद आ गये थे जो गली गली छुपते छुपाते अपनी यूनिफार्म बेचने के लिए कबाड़ी बाज़ार आते थे। वे लोग गरीब रहे होंगे। कुछ तो मज़बूरियां रही होंगी, लेकिन एक फ्लाइट कमांडर की बला की खूबसूरत बीवी द्वारा (निश्चित रूप से अपने पति की सहमति से) अपने पड़ोसियों को हर हफ्ते पांच सात रुपये के लिए अंडे सिर्फ इसलिए बेचना कि वे खुद अंडे नहीं खाते, लेकिन क्यूंकि मुफ्त में मिलते हैं, इसलिए लेना भी ज़रूरी समझते हैं, मैं किसी तरह से हजम नहीं कर पाया था। उस दिन वे अंडे खाना तो दूर, उसके बाद 1993 के बाद से मैं आज तक अंडे नहीं खा पाया हूं। एक वक्त था जब ऑमलेट की खुशबू मुझे दुनिया की सबसे अच्छी खुशबू लगती थी और ऑमलेट मेरे लिए दुनिया की सबसे बेहतरीन डिश हुआ करती थी। मैं आज तक समझ नहीं पाया हूं कि जो अधिकारी चार छः रुपये के अंडों के लिए अपना दीन ईमान बेच सकता है, उसके ज़मीर की कीमत क्या होगी।) मैं एक बार फिर कबाड़ियों चक्कर में भटक गया। हां तो मैं अपने मच्छी बाज़ार की लोकेशन बता रहा था। बाद में मच्छी बाजार का नाम भी बदल कर अन्सारी मार्ग कर दिया गया था। हमारे घर का पता था 2, अन्सारी मार्ग। मच्छी बाज़ार के दोनों तरफ ढेरों गलियां थीं जिनमें से निकल कर आप कहीं के कहीं जा पहुंचते थे। आस पास कई मौहल्ले थे, डांडीपुर मौहल्ला, लूनिया मौहल्ला, चक्कू मोहल्ला। सारी गरीब लोगों की बेतरतीबी से उगी छोटी छोटी बस्तियां। बिना किसी प्लान या नक्शे के बना दिये गये एक डेढ़ कमरे के घर, जिन पर जिसकी मर्जी आयी, दूसरी मंजिल भी चढ़ा दी गयी थी। कच्ची पक्की गलियां, सडांध मारती गंदी नालियां, हमेशा सूखे या फिर लगातार बहते सरकारी नल। गलियों के पक्के बनने, उनमें नालियां बिछवाने या किसी तरह से एक खम्बा लगवा कर उस पर बल्ब टांग कर गली में रौशनी का सिलसिला शुरू करना इस बात पर निर्भर करता था कि किसी भी चुनाव के समय गली मौहल्ले वाले सारे वोटों के बदले किसी उम्मीदवार से क्या क्या हथिया सकते हैं। (ये बात अलग होती कि ये सब करने और वोटरों के लिए गाड़ियां भिजवाने के बदले उस उम्मीदवार को वादे के अनुसार साठ सत्तर वोटों के बजाये पांच सात वोट भी न मिलते। उस पर तुर्रा यह भी कि अफसोस करने सब पहुंच जाते कि हमने तो भई आप ही को वोट दिया था।)
हमारे घर में लाइट नहीं थी। पड़ोस से तार खींच कर एक बल्ब जलता था। ऐसे ही एक चुनाव में हम गली वाले भी अपनी गली रौशन करवाने मे सफल हो गये थे। चूंकि गली का पहला मोड़ हमारे घर से ही शुरू होता था, इसलिए गली को दोनों तरफ रौशन करने के लिए जो खम्बा लगाया गया था, वह हमारी दीवार पर ही था। इससे गली मे रौशनी तो हुई ही थी, हम लोगों को भी बहुत सुभीता हो गया था। हम भाई बहनों की पढ़ाई इसी बल्ब की बदौलत हुई थी। ये बात अलग है कि हम पहले गली के अंधेरे में जो छोटी मोटी बदमाशियां कर पाते थे, अब इस रौशनी के चलते बंद हो गयी थीं।
इस गली की बात ही निराली थी। हमारे घर के बाहरी सिरे पर पदम सिंह नाम के एक सरदार की दुकान थी जहां चाकू छुरियां तेज करने का काम होता था। कई बार खेती के दूसरे साजो सामान भी धार लगवाने के लिए लाये जाते। ये दुकान एक तरह से हमारे मौहल्ले का सूचना केन्‍द्र थी। यहां पर नवभारत टाइम्स आता था जिसे कोई भी पढ़ सकता था। बीसियों निट्ठले और हमारे जैसे छोकरे बारी बारी से वहां बिछी इकलौती बेंच पर बैठ कर दुनिया जहान की खबरों से वाकिफ होते। जब नवभारत टाइम्स में पाठकों के पत्रों में मेरा पहला पत्र छपा था तो पदमसिंह के बेटे ने मुझे घर से बुला कर ये खबर दी थी और उस दिन दुकान पर आने वाले सभी ग्राहकों और अखबार पढ़ने आने वालों को भी यह पत्र खास तौर पर पढ़वाया गया था। दुकान के पीछे ही गली में पहला घर हमारा ही था। वैसे नवभारत टाइम्स सामने ही चाय वाले मदन के पास भी आता था लेकिन उसकी दुकान में अखबार पढ़ने के लिए चाय मंगवाना ज़रूरी होता जो हम हर बार एफोर्ड नहीं कर पाते थे।
तो उसी पदम सिंह की दुकान के पीछे हमारा घर था। हम छः भाई बहन, माता पिता, दादा या दादी (अगर दादा हमारे पास देहरादून में होते थे तो दादी फरीदाबाद में चाचा लोगों के पास और अगर दादी हमारे पास होतीं तो दादा अपना झोला उठाये फरीदाबाद गये होते), चाचा और बूआ रहते थे।
न केवल हमारा घर उस गली में पहला था बल्कि हम कई मामलों में अपनी गली में दूसरों से आगे थे। वैसे भी उस गली में कूंजड़े, सब्जी वाले, गली गली आवाज मार कर रद्दी सामान खरीदने वाले जैसे लोग ही थे और उनसे हमारा कोई मुकाबला नहीं था सिवाय इसके कि हम एक साथ अलग अलग कारणों से वहां रहने को मजबूर थे। ये सारे के सारे घर पाकिस्तान या अफगानिस्तान से आये शरणार्थियों को दो दो रुपये के मामूली किराये पर अलाट किये गये थे और बाद में उन्हीं किरायेदारों को बेच दिये गये थे। हमारा वाला घर हमारी नानी के भाई का था और जिसे हमारे नाना ने अपने नाम पर खरीद लिया था। अब हम अपने नाना के किरायेदार थे। बेशक पूरे मौहल्ले से हमारा कोई मेल नहीं था फिर भी न तो उनका हमारे बिना गुज़ारा था और न ही हम पास पड़ोस के बिना रह सकते थे। न केवल हमारा घर गली में सबसे पहले था बल्कि हम कई मायनों में अपने मुहल्ले के सभी लोगों और घरों से आगे थे। सिर्फ मेरे पिता, चाचा और बूआ ही सरकारी दफतरों में जाते थे और इस तरह बाहर की और पढ़ी लिखी दुनिया से हमारा साबका सबसे पहले पड़ता था। उन दिनों जितनी भी आधुनिक चीजें बाज़ार में आतीं, सबसे पहले उनका आगमन हमारे ही घर पर होता। प्रेशर कूकर, गैस का चूल्हा, अलार्म घड़ी और रेडियो वगैरह सबसे पहले हम ही ने खरीदे। बाद में ये चीजें धीरे धीरे हर घर में आतीं। हमारी देखा देखी आलू बेचने वाले गणेशे की बीवी ने अलार्म घड़ी खरीदी। इसके बाद से उनके घर के सारे काम अलार्म घड़ी के हिसाब से होने लगे। घर के सारे जन किसी काम के लिए अलार्म लगा कर घड़ी के चारों तरफ बैठ जाते और अलार्म बजने का इंतजार करते। अलार्म बजने पर ही काम शुरू करते। वे हर काम अलार्म लगा कर करते। चाय का अलार्म, सब्जी बनाने का अलार्म, खाना खाने या बनाने का अलार्म।
उस मुहल्ले में हमें दोस्त चुनने की आज़ादी नहीं थी। स्कूल वाले यार दोस्त तो वहीं स्कूल तक ही सीमित रहते, या बाद में कम ही मिल पाते, गुज़ारा हमें अपनी गली में उपलब्ध बच्चों से करना होता। गली में हर उम्र के बच्चे थे और खूब थे। हमारी उम्र के नंदू, गामा, बिल्ला, अट्टू, तो थोड़े बड़े लड़कों में प्रवेश, सुक्खा, मोणा वगैरह थे लेकिन एक बात थी कि हर दौर में अमूमन सभी बड़े लड़के गंदी आदतों में लिप्त थे। पता नहीं कैसे होता था कि चौदह पन्‍द्रह साल के होते न होते नयी उम्र के लड़के भी उनकी संगत में बिगड़ना शुरू कर देते। बड़े लड़के छोटे लड़कों की नेकर में हाथ डालना या उन्हें हस्त मैथुन करने या कराने के लिए उकसाना अपना हक समझते। शुरुआत इसी से होती। बाद में अंधेरे कोनों में अलग अलग कामों की दीक्षा दी जाती। आगरा से छपने वाले साप्ताहिक अखबारों, कोकशास्त्र और मस्तराम की गंदी किताबों का सिलसिला चलता और सोलह सत्रह तक पहुंचते पहुंचते सारे के सारे लड़के इन कामों में प्रवीण हो चुके होते। ये लड़के आस पास के दस मौहल्लों की लड़कियों को गंदी निगाह से ही देखते और उनके साथ सोने के मंसूबे बांधते रहते लेकिन गलत आदतों में पड़े रहने के कारण बुरी तरह से हीन भावना से ग्रस्त होते। वे बेशक अपनी चहेती लड़कियों का पीछा करते रोज़ उनके कॉलेज तक जाते या शोहदों की तरह गली के मोड़ पर खड़े हो कर गंदे फिकरे कसते, लेकिन वही लड़की अगर उनसे बात भी कर ले तो उनकी पैंट गीली हो जाती। मेरी गली का बचपन भी इन्हीं सारी पीढ़ियों के बीच बड़ा होता रहा था। कोई भी अपवाद नहीं था। बचने का तरीका भी नहीं था।
ये तो हुई गली के भीतर की बात, गली के बाहर यानी मच्छी बाज़ार का नज़ारा तो और भी विचित्र था। अगर मोती बाज़ार से स्टेशन वाली सड़क पर जाओ तो मुश्किल से पांच सौ गज की दूरी पर पुलिस थाना था और अगर मच्छी बाजार वाली ही सड़क पर आगे बिंदाल की तरफ निकल जाओ तो हमारे घर से सिर्फ तीन सौ गज की दूरी पर देसी शराब का ठेका था। यही ठेका हमारे पूरे इलाके के चरित्र निर्माण में अहम भूमिका निभाता था। ठेका वैसे तो पूरे शहर का केन्‍द्र था, लेकिन आस पास के कई मौहल्लों की लोकेशन इसी ठेके से बतायी जाती। हमें कई बार बताते हुए भी शरम आती कि हम शराब के ठेके के पास ही रहते हैं। उसके आस पास थे सट्टा, जूआ, कच्ची शराब, दूसरे नशे, गंदी और नंगी गालियां, चाकू बाजी, हर तरह की हरमजदगियां। ये बाय प्राडक्ट थे शराब के ठेके के। शरीफ लड़कियां शर्म के मारे सिर झुकाये वहां से गुज़रतीं। हमारी गली के सामने मदन की चाय की दुकान के साथ एक गंदे से कमरे में अमीरू नाम का बदमाश रहता था। चूंकि उसका अपना कमरा वहां पर था इसलिए वह खुद को इस पूरे इलाके का बादशाह मानता था और धड़ल्ले से कच्ची और नकली दारू के, सट्टे और दूसरे किस्म के नशे के कारोबार करता था। चूंकि ठेके में सिर्फ शराब ही मिलती थी और ठेका खुला होने पर ही मिलती थी, अमीरू का धंधा हर वक्त की शराब और सट्टे के कारण खूब चलता था। वैसे तो हर इलाके के अपने गुंडे थे लेकिन अमीरू का हक मारने दूसरे इलाकों के दादा कई बार आ जाते। एक ऐसा ही दादा था ठाकर। शानदार कपड़े पहने और तिल्लेदार चप्पल पहने वह अपनी एम्बेसेडर में आता। उसके आते ही पूरे मोहल्ले में हंगामा मच जाता। उसके लिए सड़क पर ही एक कुर्सी डाल दी जाती और वह सारे स्थानीय गुर्गों से सट्टे का अपना हिसाब किताब मांगता। शायद ही कोई ऐसा दिन होता हो कि उसके आने पर मारपीट, गाली गलौज न होती हो और छुटभइये किस्म गुंडे छिपने के लिए हमारी गली में न आते हों। वह अपनी चप्पल निकाल का स्थानीय गुंडों को पीटता और वे चुपचाप पिटते रहते। कई बार चाकू भी चल जाते और कई बार कइयों को पुलिस भी पकड़ कर ले जाती। एक आध दिन शांति रहती और फिर से सारे धंधे शुरू हो जाते। कई बार फकीरू नाम का एक और लम्बा सा गुंडा आ जाता तो ये सारे सीन दुहराये जाते। अमीरू और फकीरू में बिल्कुल नहीं पटती थी, दोनों में खूब झगड़े होते लेकिन दोनों ही ठाकर से खौफ खाते। ज्यादातर झगड़े सट्टे की रकम और दूसरे लेनदेनों को ले कर होते लेकिन किसी को भी पता नहीं था कि कभी कभार हमारी शरारतों के कारण भी उनमें आपस में गलतफहमियां पैदा होती थीं।

दरअसल मामला ये था कि पदम सिंह की दुकान की हमारी गली वाली दीवार में इन्हीं लोगों ने ईंटों में छोटे छोटे छेद कर दिये थे और सट्टा खेलने वाले हमारी गली के अंधेरे में खड़े हो कर और कई बार दिन दहाड़े भी अपने सट्टे का नम्बर एक कागज पर लिख कर अपनी दुअन्नी या चवन्नी उस कागज में लपेट कर इन्हीं छेदों में छुपा जाते और बाद में अमीरू या उसके गुर्गे पैसे और पर्ची ले जाते। हम छुप कर देखते रहते और जैसे ही मौका लगा, कागज और पैसे ले का चम्पत हो जाते। कागज कहीं फेंक देते और पैसों से ऐश करते। हम ये काम हमेशा बहुत डरते डरते करते और किसी को भी राज़दार न बनाते। हो सकता है बाकी लड़के भी यही करते रहे हों और हमें या किसी और को हवा तक न लगी हो।
तय है कि जब मच्छी बाजार है तो मीट, मच्छी, मुर्गे, सूअर और दूसरी तरह के मांस की दूकानें भी बहुत थीं। कुछ छोटे होटल भी थे जो बिरयानी, मछली या मीट के साथ गैर कानूनी तरीके से शराब भी बेचते थे। इन शराबियों में आये दिन झगड़े होते। कुछ ज्यादा बहादुर शराबी सुबह तक नालियों में पड़े नज़र आते।
उन्हीं दिनों ऋषिकेश में आइपीसीएल का बहुत बड़ा कारखाना रूस के सहयोग से बन रहा था। वहां से हफते में एक बार बस शॉपिंग के लिए देहरादून आती तो ढेर सारी मोटी मोटी रूसी महिलाएं स्कर्ट पहले सूअर का मांस खरीदने आतीं। हम उन्हें बहुत हैरानी से खरीदारी करते देखते क्योंकि हमारे बाजार के दुकानदारों को हिन्दी भी ढंग से बोलनी नहीं आती थी और रूसी महिलाओं के साथ उनके लेनदेन कैसे होते होंगे, ये हम सोचते रहते थे। किसी भी तरह के विदेशियों को देखने का ये हमारा पहला मौका था।
मच्छी और मांस बेचने वाले ज्यादातर खटीक और मुसलमान थे। ये लोग आसपास छोटे छोटे दड़बों में रहते थे। इन दड़बों के आगे टाट का परदा लटकता रहता। हम हैरान होते कि इन छोटे छोटे कमरों में इनके बीवी बच्चों का कितना दम घुटता होगा क्योंकि कभी भी किसी ने उनके परिवार के किसी सदस्य को बाहर निकलते कभी नहीं देखा था। ये लोग बेहद गंदे रहते, आपस में लड़ते झगड़ते और मारपीट करते रहते। अक्सर लौंडेबाजी के चक्कर में हमारे ही मौहल्ले के लड़कों की फिराक में रहते। उन्हें दूध जलेबी या इसी तरह की किसी चीज का लालच दे कर अंधेरे कोनों में ले जाने की कोशिश करते या फिर अगर दांव लग जाये तो नाइट शो में फिल्म दिखाने की दावत देते। ऐसे लड़कों पर वे खूब खर्च करने के लिए तैयार रहते लेकिन हमारी गली के सारे के सारे लड़के उनके इस दांव से वाकिफ थे और दूध जलेबी तो आराम से खा लेते या कई बार पिक्चर के टिकट ले कर हॉल तक उनके साथ पहुंच भी जाते लेकिन ऐन वक्त पर किसी लड़के को अपना चाचा नजर आ जाता तो किसी को तेजी से प्रेशर लग जाता और वह फूट निकलता। इन मामलों में हमसे सीनियर लड़का प्रवेश हमारा उस्ताद था। वह ऐसे लोगों को चूना लगाने और फिर ऐन वक्त पर निकल भागने की नई नई तरकीबें हमें बताता रहता था। प्रवेश ने तो उनके पैसों से खरीदी टिकट बाहर आ कर बेच डाली थी और गफूर नाम का कसाई हॉल के अंदर उसकी राह देखता बैठा रहा था। कुछ दिन तो गफूर उसे गालियां देता फिर किसी और लड़के को पटाने की कोशिश करता।
उन्हीं दिनों एक पागल औरत नंगी घूमा करती थी सड़कों पर। किसी ने खाने को कुछ दे दिया तो ठीक वरना मस्त रहती थी। कुछ ही दिनों बाद हमने देखा था कि वह पगली पेट से है। सबने उड़ा दी थी कि ये सब गफूर मियां की दूध जलेबी की मेहरबानी है।
तो ऐसे माहौल में मैंने अपने बचपन के पूरे तेरह बरस बिताये। लगभग पहली कक्षा से लेकर बीए करने तक। साठ के आस पास से तिहत्तर तक का वक्त हमने उन्हीं गलियों, उन्हीं संगी साथियों और उन्हीं कुटिलताओं के बीच गुज़ारा। ऐसा नहीं था कि वहां सब कुछ गलत या खराब ही था। कुछ बेहतर भी था और कुछ बेहतर लोग भी थे जो आगे निकलने, ऊपर उठने की जद्दोजहद में दिन गुजार रहे थे। सबसे बड़ी तकलीफ थी कि किसी के भी पास न तो साधन थे और न ही कोई राह ही सुझाने वाला था। जो था, जैसा था, जितना था, उसी में गुजर बसर करनी थी और कच्चे पक्के ही सही, सपने देखने थे। न कल का सुख भोग पाये थे न आज के हिस्से में सुख था और न ही आने वाले दिन ही किसी तरह की उम्मीद जगाते थे। किसी तरह हाई स्कूल भर कर लो, टाइपिंग क्लास ज्वाइन करो और किसी सरकारी महकमें से चिपक जाओ। इससे ऊँचे सपने देखना किसके बूते में था। कोई भी तो नहीं था जो बताता कि ज्यादा पढ़ा लिखा भी जा सकता है। खुद हमारे घर में हमारे साथ रहने वाले चाचा हमें लगातार पीट पीट कर हमें ढंग का आदमी बनाने की पूरी कोशिश में लगे रहते। हम स्कूल से आये ही होते और गली में किसी चल रहे कंचों का खेल देख रहे होते या कहीं और झुंड बना कर खड़े ही हुए होते कि हमारे चाचा ऑफिस से जल्दी आ कर हमारी ऐसी तैसी करने लग जाते। बिना वजह पिटाई करना वे अपना हक समझते थे। न हम कुछ पढ़ने लायक बन पाये और न ही किसी खेल में ही कुछ करके दिखा पाये। दब्बू के दब्बू बने रह गये।
जहां तक उस माहौल में पढ़ने लिखने का सवाल था, हमारे सामने तीन तरह के, बल्कि वार तरह के रास्ते खुलते थे। हमारी गली के आसपास कई दुकानें थीं जहां फिल्मी पत्रिकाएं और दूसरी किताबें 10 पैसे रोज पर किराये पर मिलती थीं। वहां से हम हर तरह की फिल्मी पत्रिकाएं किराये पर ला कर पढ़ते। गुलशन नंदा, वेद प्रकाश काम्बोज, कर्नल रंजीत और कुछ भी नहीं छूटता था वहां हमारी निगाहों से। उन्हीं दिनों एक आदर्शवादी सरदारजी ने वहीं कबाड़ी बाजार में एक आदर्शवादी वाचनालय खोला और अपने घर की सारी अच्छी अच्छी किताबें वहां ला कर रखीं ताकि लोगों का चरित्र निर्माण हो सके। तब मैं ग्यारहवीं में था। तय हुआ तीस रुपये महीने पर मैं स्कूल से आकर दो तीन घंटे वहां बैठ कर उस लाइब्रेरी का काम देखूं।
भला इस तरह की किताबों से कोई लाइब्रेरी चलती है। मजबूरन उन्हें भी फिल्मी पत्रिकाओं का और चालू किताबों का सहारा लेना पड़ा। वहां तो खूब पढ़ने को मिलतीं हर तरह की किताबें। दिन में तीन तीन किताबें चट कर जाते। ये पुस्तकालय छः महीने में ही दम तोड़ गया। वे बेचारे कब तक जेब से डाल कर किताबें और पत्रिकाएं खरीदते। जबकि मासिक ग्राहक दस भी नहीं बन पाये थे।
स्कूल की लाइब्रेरी में भी हमारे लाइब्रेरियन मंगलाप्रसाद पंत हमें चरित्र निर्माण की ही किताबें पढ़ने के लिए देते। जबकि अपने मोहल्ले की चांडाल चौकड़ी में हम मस्तराम की किताबों और अंगड़ाई तथा आज़ाद लोक जैसी पत्रिकाओं का सामूहिक पाठ कर रहे थे। एक और सोर्स था हमारे पढ़ने का। मैं और मुझसे बड़े भाई महेश स्कूल के पीछे ही बने सार्वजनिक पुस्तकालय में नियमिन रूप से जाते थे और वहां पर चंदामामा, राजा भैय्या, पराग जैसी पत्रिकाओं के आने का बेसब्री से इंतजार करते। हमारी कोशिश होती कि हम सबसे पहले जा कर पत्रिका अपने नाम पर जारी करवायें। वहां जा कर किताबें पढ़ने की हम कभी सोच ही नहीं पाये।
तो इस तरह के जीवन के एकदम विपरीत ध्रुवों वाले माहौल से और बचपन से गुज़रते हुए यह बंदा निकला। कोई दिशा नहीं थी हमारे सामने ओर न कोई दिशा बताने वाला ही था कि ये राह चुनो तो आगे चल कर कुछ कर पाओगे।
तो जो बना वहीं से निकल कर बना और जो नहीं बना, वह भी उसी जगह की वजह से न बना.
आमीन
सूरज प्रकाश
मूल कार्य
· अधूरी तस्वीर (कहानी संग्रह) 1992
· हादसों के बीच - उपन्यास 1998
· देस बिराना - उपन्यास 2002
· छूटे हुए घर - कहानी संग्रह 2002
· ज़रा संभल के चलो -व्यंग्य संग्रह - 2002
अंग्रेजी से अनुवाद
· जॉर्ज आर्वेल का उपन्यास एनिमल फार्म
· गैब्रियल गार्सिया मार्खेज के उपन्यास Chronicle of a death foretold का अनुवाद
· ऐन फैंक की डायरी का अनुवाद
· चार्ली चैप्लिन की आत्म कथा का अनुवाद
· मिलेना (जीवनी) का अनुवाद 2004
· चार्ल्स डार्विन की आत्म कथा का अनुवाद
· इनके अलावा कई विश्व प्रसिद्ध कहानियों के अनुवाद प्रकाशित
गुजराती से अनुवाद
· प्रकाशनो पडछायो (दिनकर जोशी का उपन्यास
· व्यंग्यकार विनोद भट की तीन पुस्तकों का अनुवाद
· गुजराती के महान शिक्षा शास्‍त्री गिजू भाई बधेका की दो पुस्तकों दिवा स्वप्न और मां बाप से का तथा दो सौ बाल कहानियों का अनुवाद
संपादन
· बंबई 1 (बंबई पर आधारित कहानियों का संग्रह)
· कथा लंदन (यूके में लिखी जा रही हिन्दी कहानियों का संग्रह )
· कथा दशक (कथा यूके से सम्मानित 10 रचनाकारों की कहानियों का संग्रह)
सम्मान
· गुजरात साहित्य अकादमी का सम्मान
· महाराष्ट्र अकादमी का सम्मान
अन्य
· कहानियां विभिन्न संग्रहों में प्रकाशित
· कहानियों के दूसरी भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित
· कहानियों का रेडियो पर प्रसारण और
· कहानियों का दूरदर्शन पर प्रदर्शन
कार्यालय में
· पिछले 32 बरस से हिन्दी और अनुवाद से निकट का नाता
· कई राष्ट्रीय स्तर के आयोजन किये
वेबसाइट: geocities.com/kathalar_surajprakash
email ID : kathaakar@gmail.com
mobile : 9860094402
सम्पर्क : रिज़र्व बैंक, कृषि बैंकिंग महाविद्यालय, ई स्क्वायर के पास, विद्यापीठ मार्ग, पुणे 411016

Thursday, March 27, 2008

विश्व रंगमंच दिवस

दुनिया
के
साहित्य-कला प्रेमियों को

विश्व रंगमंच दिवस २७ मार्च
की
मुबारकबाद।

रंगकर्मी बर्तोल ब्रेख्त की कविता:-


सुबह के करीब
जब मै अस्पताल के एक सफेद कमरे में जागा
और कोयल को सुना
तब, बूझा मैने खूब।
काफी देर तक मुझे मौत का कोई डर नहीं रहा
क्योंकि ऐसा कुछ नहीं है जो मैं कभी खो सकूं
बशर्ते, मैं न रहूं खुद
इस वक्त उस कामयाबी तक ले गया है
मेरी खुशी को
यह सब
कि तमाम कोयलों के गीत
रहेगें मेरे बाद भी।

Wednesday, March 26, 2008

संजय कुदन की कविताऐं

योजनाओं का शहर

जो दुनियादार थे वे योजनाकर थे
जो समझदार थे वे योजनाकर थे
एक लड़का रोज़ एक लड़की को
गुलदस्ता भेंट करता था
उसकी योजना में
लड़की एक सीढ़ी थी
जिसके सहारे वह
उतर जाता चाहता था
दूसरी योजना में
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योजनाओं में हरियाली थी
धूप खिली थी, बह रहे थे मीठे झरने
एक दिन एक योजनाकार को
रास्ते में प्यास तड़पता एक आदमी मिला
योजनाकार को दया आ गई
उसने झट उसके मुॅंह में एक योजना डाल दी।

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योजनाऐं अक्सर योजनाओं की तरह आती थीं
लेकिन कई बार वे छिपाती थीं खुद को
किसी दिन एक भीड़ टूट पड़ती थी निहत्थों पर
बस्तियॉं जला देती थी
खुलेआम बलात्कार करती थी
इसे भावनाओं का प्रकटीकरण बताया जाता था
कहा जाता था कि अचानक भड़क उठी है यह आग
पर असल में यह सब भी
एक योजना के तहत ही होता था
फिर योजना के तहत पोंछे जाते थे ऑंसू
बॉंटा जाता था मुआवज़ा
एक बार खुलासा हो गया इस बात का
सबको पता चल गया इन गुप्त योजनाओं का
तब शोर मचने लगा देश भर में
तभी एक दिन एक योजनाकार
किसी हत्यारे की तरह काला चश्मा पहने
और गले में रूमाल बॉंधे सामने आया
और ज़ोर से बोला - हॉं, थी यह योजना
बताओ क्या कर लोगे
सब एक-दूसरे का मुॅंह देखने लगे
सचमुच कोई उसका
कुछ नहीं कर पाया।

संजय कुदन, सी 301 जनसत्ता अपार्टमेंटस सेक्टर 9, वसुंधरा, गाजियाबाद- 201012 मो। 09910257915

संजय कुंदन की कविताऐं वागर्थ के मार्च 08 अंक से साभार ली गयी। यहॉं प्रकाशन से पूर्व कवि की सहमति प्राप्त होने के बाद ही पुन: प्रस्तुत किया जा रहा है। हम उम्मीद करते हैं कि भविष्य में जल्द ही उनकी ताजा रचना भी इस ब्लाग के पाठकों के लिए प्राप्त हो सकेगी।