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Monday, August 11, 2008

सिर्फ़ एक प्राथमिक वर्णमाला

एक रचनाकार के मानस को जानने समझने के लिए रचनाकर से की गई बातचीत के अलावा कोई दूसरा प्रमाणिक और बहुत सटीक तरीका नहीं हो सकता।
ऐसे में समय में जब कला, खास तौर पर पेन्टिंग और गायन जो आज अपने सरोकारों से दूर होते हुए सिर्फ एक बिकाउ माल होती जा रही है, मानवीय मूल्यों और ऐसे ही सरोकारों से, कूंची और रंग के बल पर, अपनी कल्पनाओं को जीवन के यथार्थ के साथ जोड़ने वाले कलाकार/पेन्टर हकु शाह के साथ की गई यह बातचीत न सिर्फ हकु शाह को जानने में मद्दगार है बल्कि किसी भी कलाकार के रंग संयोजन को जानने की समझ भी देती है।
युवा रचनाकार पीयूष दईया के हम आभारी है जिन्होंने हकु शाह की इस बातचीत का हमें मुहैया कराया। हकु शाह के साथ की गई एक लम्बी बातचीत, जो एक किताब के रूप में "मानुष" शीर्षक से प्रकाशानाधीन है, का यह एक छोटा सा अंश है। पीयूष दईया महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा से प्रकाशित होने वाली साहित्यिक पत्रिका बहुचन के संस्थापक सम्पादक रहे हैं। दो वुहद ग्रंथों/पुस्तकों" "लोक" एवं "लोक का आलोक" के सम्पादन के साथ लोक कला मण्डल, उदयपुर की त्रैमासिक पत्रिका "रंगायन" का भी लम्बे समय तक सम्पादन किया। हकु शाह द्वारा लिखि चार बाल-पुस्तकों के सम्पादन के अलावा अंग्रेज़ी में लिखे उनके निबन्धों का भी हिन्दी में अनुवाद व सम्पादन किया है। अनेक शोध-परियोजनाओं पर काम करने के अलावा पीयूष कुछ संस्थानों में सलाहकार के रूप में भी अपनी सेवाएं देते रहे हैं और काव्यानुवाद पर एकाग्र पत्रिका ""तनाव"" के लिए ग्रीक के महान आधुनिक कवि कवाफ़ी की कविताओं का हिन्दी में भाषान्तर किया है।
वर्तमान में विश्व-काव्य से कुछ संचयन तैयार करने के साथ-साथ पीयूष कई अन्य योजनाओं को कार्यान्वित करने और अपने उपन्यास ""मार्ग मादरजात"" को पूरा करने में जुटे हैं।



वरिष्ठ चित्रकार , शिक्षाविद् व शीर्षस्थानीय लोकविद्याविद् हकु शाह जड़ों के स्वधर्म में जीने-सांस लेने वाले एक आत्मशैकृत व प्रतिश्रुत आचरण-पुरूष है : एक अलग मिट्टी से बनी ऐसी मनुष्यात्मा जिनकी विरल उपस्थिति का आलोक जीवन के सर्जनात्मक रास्ते को उजागर करता है गो कि हमारे समय में अब कोई उस पर चलता हुआ दिखता नहीं--विधाता ने अपने कारखाने में ऐसे प्राणी बनाना बंद कर दिये हैं , मानो। उनके सादगीभरे व्यक्तित्व में निश्छल स्वच्छता है और स्वयंमेतर के साथ मानवीय साझे की वत्सल गर्माहट। उनकी हंसमुख जिजीविषा में निरहंकारी नम्रता व लाक्षणिक सज्जनता का रूपायन है और उनका कलात्मक अन्त:करण ऋजुछन्दों में सांस लेता है। गहरा आत्मानुशासन उनका बीजकोष है।
दरअसल , हकु शाह स्वदेशी पहचान के जौहरी व मर्मवेत्ता है और वे अकादमिक धारणाओं के रूढ़ चौखटों व तथाकथित कोष्ठकों से बाहर आकर सर्जना का अपना उर्वर उपजीव्य पाते हैं। बोलचाल की वाचिक लय में विन्यस्त उनकी आवाज़ में आदमियत की ज़मीनी आस्था के जो विविधवर्णी स्वर सुनायी पड़ते हैं उनके पीछे एक ऐसा असाधारण विवेक व मजबूती है जो संसारी घमासान के ऐन बीचोंबीच अवस्थित रहते हुए भी अपने उर्वर आत्म--अपनाआपा--को सलामत रख पाने का आदर्शात्मक साक्ष्य हमारे सामने इतने सहज व चुपचाप तरह से रखता है मानो पांख-सा हल्का हो। यह एक अलग तरह की रोशनी व चेतना है जिसमें सार्वभौमिक मानवीय मूल्यों पर अडिग आग्रह--अहिंसा , प्रेम व आनन्द--का संदेश यूं उजागर है गोया उनके वजूद का शिलालेख हो जिसे बांचने का मतलब स्वावलम्बी समाज-रचना व जीवन के सहज चरितार्थन के सुंदर काव्य में खिलना व सांस लेना है।
जनवरी से जून , दो हज़ार सात के दरमियान हकु शाह के साथ उनके कृतित्व व व्यक्तित्व पर एकाग्र लगभग सत्तर घण्टों का वार्तालाप सम्पन्न हुआ था और उनके दृष्टि-परास के बहुलायामों से विन्यस्त यहां प्रस्तुत प्रगल्भ पाठ इन्हीं वार्ता-रूपों से बना है जो शीध्रप्रकाश्य पुस्तक ""मानुष"" का एक किंचित् सम्पादित हिस्सा है।
यह पाठ वत्सल (संदीप) के लिए। --पीयूष दईया ई-मेल : todaiya@gmail.


हकु शाह

एक कलाकार के सन्दर्भ में हम स्टूडियो वगैरह की बात करते हैं। मुझे यह बहुत कृत्रिम जान पड़ती है। कोई भी जगह कलाकार के लिए उचित है बशर्ते कि वह उसे पसंद हो।
चित्ररत होते समय कैनवास के बाहर के वातावरण को मैं संतोष दे देता हूं हालांकि उसमें मेरी पत्नी है , घर है , मेरा खाना व अन्य चीजें हैं। कैनवास संग शुरू करने से पहले भी मेरी यह कोशिश रहती है कि आसपास का वातावरण शान्त बना रहे हालांकि जब चित्र बना रहा होता हूं तब आजू-बाजू क्या हो रहा है उसका ज़्यादा पता नहीं रहता। असल में चित्र बनाते समय तबीअत पर आधार होने के अलावा जिस चित्र पर काम कर रहा हूं उसके अपने उभर रहे रूप पर भी बहुत कुछ तय करता है--मूड़ और रूप-स्वरूप दोनों ही। तबीअत के उतार चढाव चित्र पर किस तरह से असर करते हैं यह पता नहीं लेकिन मैं उस समय चित्र बनाता हूं जब सुबह में पांच बजे जल्दी उठ जाने से तबीअत में ताज़गी बनी रहती है हालांकि काम करते हुए वहीं चीज़ शाम को थोड़ा तकलीफ़ देने लगती है। लोग आते जाते हैं यह एक बात है, दूसरी तब जब कोई नहीं हैं और मैं काम करता हूं। तीसरी बात में यह स्वयं चित्र ही है जो मुझसे बात करता है--अकेला।
और मैं ताज़ा हूं--हालांकि तीनों बातों के सिलसिले में आधार वही बना रहता है कि चित्र कौन-सी अवस्था पर है। दरअसल किसी के आने जाने या किसी की उपस्थिति तब खलल पैदा नहीं करती जब चित्र की गति मेरे मन में तय हो ( काव्यात्मक लहज़े में कहूं तो नी ) लेकिन हां , जब चित्र बांधना हो , रूप रचने में उलझा होऊं, उस समय मैं चित्र के साथ अकेला ही खेलना पसन्द करता हूं। शायद इसलिए भी कि इन खास घड़ियों में संशय और उम्मीद दोनों ही चीज़ें अपना काम कर रही होती हैं ; पहली में यह कि चित्र में कुछ होगा कि नहीं और दूसरी यह कि कुछ होता है। दोनों ही स्थितियों में--होता है या नहीं होता है या दोनों संग--मैं मेहनत करता हूं और इसमें जिस रचनात्मक ऊर्जा व शक्ति का उपयोग होता है, उससे चित्र बनता चला जाता है।
जाहिर है ताज़गी और सुबह वाले प्रकार की भूमिका बहुत अहम है क्योंकि शाम में चित्र पर काम करते समय यह आत्म-संशय फिर दबोच लेता है--सम्भवत: थकान के चलते--कि अभी अगर चित्र को हाथ लगाया तो यह बिगड़ भी सकता है , उस समय ऐसा लगता है मानो अभी कुछ नहीं होगा ; तब इसे छोड़ देता हूं और मैं नहीं करता। सुबह होते ही चित्र अपने आप मुझे कहने लगता है--सुझाने लगता है कुछ इस तरह मानो मैं उसके वजूद को प्रकट करने का माध्यम हूं--कि ऐसे करो कि ये रंग लगाओ कि इस तरह से रेखा डालो कि इस भांति से करो--- अब इसमें अकादमिकता या पढाई-लिखाई या इस तरह की कोई चीज़ बीच में नहीं आती। दरअसल यह स्वयं चित्र है जो मुझे रंग या रेखा या अन्य चीज़ों के बारे में बराबर बताता रहता है कि फलां फलां तरह से करोगे तो ठीक रहेगा। अपने चित्र बनाने में मैं फिर उसी हिसाब से करने लगता हूं जिसमें मुझे बहुत आनन्द आता है। यही वे घड़ियां है जब चित्र अपने से बनता जाता है। जैसे कि बीते कल चित्र बनाते समय यह नहीं सोचा था कि आज ये ओढनीवाला जैसा कुछ स्वरूप औरत के पीछे आएगा ; कल लगता रहा था कि खाली रेखा डालूंगा। लेकिन आज यह स्वयं चित्र है जिसने सब बोल दिया कि मुझे न केवल पूरी रेखा डालनी है बल्कि उसमें उधर थोड़ा सफ़ेद रंग भी लगाना है जिससे बाजू वाला सफ़ेद इसका पूरक हो जाए ; यह करना अब अच्छा लग रहा है। हो सकता है मैं उतना सफल न हो पाऊं, तिस पर भी इस कैफियत में यह करने में आनन्द आ रहा है। एक बात यह है कि मेरा लोहि , मेरा रक्त चित्र में जाता है , दूसरा यह है कि मुझे शान्ति मिलती है। किसी को यह परस्पर उलटे भी लग सकते हैं मगर ऐसा होता है। मैं थकता हूं , नि:शेष होता हूं लेकिन मज़ा आता है इसमें--थकान में मज़ा , शक्ति खर्चने में मज़ा , चित्र संग होने का मज़ा। इससे मुझे उतनी ही शान्ति मिलती है जितनी किसी को अच्छी हवा में मिलती होगी बल्कि उससे कई गुना ज़्यादा।
इसीलिए चित्र बनाते समय मैं किसी भी तरह के बाहरी दबावों का शिकार नहीं बनता। जो चलता है उसमें कई चीज़ें एक साथ में चलती रहती है--अन्त:सलिल। चित्र अपने से हो रहा होता है उसमें बाहर से कुछ भी लाने का प्रयास उसे नद्गट करने जैसा है।
एक तरह से चित्र अपने से स्वयं को मेरे सम्मुख उजागर करने लगता है और मुझ संग चित्र की यह संवाद-प्रक्रिया मेरे लिए सबसे अच्छी , सबसे ऊंची चीज़ है। चित्र एकदम अपने को खिलने में ले आता है--अनपेक्षित तरह से बारम्बार--अपने अलग अलग अंग से लेकर प्रवृत्ति सहित--मैं वही करने की कोशिश करता हूं जो बन रहा चित्र बोलता है। यह समाज के संग चुनौती की भूमिका में आ जाने जैसा भी है। एक खास मायने में समाज व अन्य सब से घमासान करने जैसा भी। मान लीजिए कि अपने एक चित्र में मुझे एक मानवाकृति के सिर के बाल बनाने हैं। यह मामूली सी बात एक जटिल गुंफन में तब्दील हो सकती है क्योंकि बाल रखने न रखने या कितना रखने के विभिन्न समाजों के अपने मानक हैं जैसे बालों की चोटी बनानी चाहिए कि नहीं कि कितनी चोटियां बांधनी चाहिए कि अफ्रिकंस् सरीखी ज़्यादा चोटियां गूंथनी-बांधनी चाहिए ---ज़ाहिर है कि सिर्फ़ इस एक चीज़-मात्र से ही सब नयी नयी चीज़ें ऐसे निकलने लगती हैं कि हो सकता है कोई समझे कि बाल कम बनाने हैं और मैं ज़्यादा बना दूं या इसके उलट भी हो सकता है--यह वह खेल है जिसमें अलग अलग रूप उसी तरह प्रकट होते चले जाते हैं ( मेरे चित्रों की मानवाकृतियों को आप देख सकते हैं ) जिस तरह चित्र मुझे बताता रहता है। हर लसरका/स्ट्रोक , हर टुकड़ा/पेच , हर रेखा/लाइन चित्रफलक पर ज़रूरत के हिसाब से पड़ती है और फिर वह/वे ही अपनी जगह , अपनी दिशा तलाश लेती हैं--आप से आप। मुझे पता नहीं होता कि चित्र में क्या घटने वाला है--चित्र बनाते हुए यह विकसित होता है , पनपता है। दूसरे शब्दों में , चित्रानुभूति स्वयं में एक रास्ता है जिस पर चलते चलते आप एक चमत्कार के घटने की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं--विभिन्न रंगों , रेखाओं , जगहों/स्पेसेज़ को रचते हुए।
अपने चित्रों के सिलसिले में मुझे हमेशा यह लगता रहा है कि यह खेल के बहुत नज़दीक है--इसमें ऐसा कोई तत्व अन्तर्व्याप्त हो जाता है जो कलाकार को आनन्दित करता है। चित्र संग खेलने में मुझे गहरा आनन्द मिलता है। यह मेरे लिए एक चुनौती व प्रयोग है। यहां कभी भी कुछ भी घट सकता है लेकिन एक कसौटी कहीं नेपथ्य में बनी रहती है और वह है संवेदना संग इन्द्रियों में एक ग्राह्य खुलापन।
कई दफा ऐसा भी होता है कि संस्कारवश या फ़ैशन या चलन के चलते जो चीज़ समाज में स्वीकार्य नहीं है वही चीज़ आप चित्र में पसंद करने लगते हैं। यह मेरे लिए एक बड़ी बात है। इसे ऐसे समझे कि अपने एक चित्र की मानवाकृति के कान में मानो मैंने एक केसरिया टपका इसलिए लगा दिया है क्योंकि चित्र ने मुझे ऐसा करने के लिए कहा था। हो सकता है कि अभी के किसी प्रेक्षक को वह ठीक न जान पड़े मगर बहुत सम्भव है कि उसके या किसी और के पूरे जीवन में कभी उसे वह केसरिया टपका बहुत अच्छा लग भी जाय !
ज़रा-सा कुछ डाल कर , एक रेखा डाल कर या एक रंग लगा कर जब मैं एक रूप खड़ा करता हूं तब बहुत सम्भव है कि एक टुकड़ा , एक पैच ऐसा लग जाय कि वही मेरे लिए शाबास हो--शाबासी बन जाय कि भई अच्छा हो गया। हो सकता है कि वह टुकड़ा कान हो या शरीर के अंदर का मांस हो या पांव का एक भाग हो। वह जब बन जाता है तब औरों के लिए वह सिर्फ़ एक टुकड़ा--एक अमूर्त पैच--ही है मगर मेरे लिए पचास साल है। है तो रंग का एक टुकड़ा ही मगर यह देखना चाहिए कि उसमें जोर कितना है--- उससे पता लग जाता है---
अपने चित्रों की आकृतियों या चित्र के अन्य भागों में लगे इन पैचेस् को मैं इरादतन नहीं करता या बनाता ; वह अपने आप बन जाते हैं जिनकी नकल सम्भव नहीं ; जिनके लिए देखने वाला या समझने वाला फ़ौरन पहचान लेगा कि चित्र का यह भाग या पैच पचास साल बाद वाला है , दो साल वाला नहीं जो कि बीमार जैसा होगा-- जो शक्ति पचास साल वाले में हैं वैसा जोश ही उसमें नहीं आ पाएगा, इसीलिए नकल करने वाला भी डरेगा , उससे होगा ही नहीं ; जबकि समझने वाले के लिए यह पहचान लेना कठिन नहीं होगा कि यह काम हकुभाई का है।
हां , यह सचमुच एक रहस्यमय बात है कि अगर स्वयं मैं भी कभी वैसा ही या वही चित्र दोबारा बनाने की कोशिश करूंगा, वह वैसा नहीं बन पाएगा--सिर्फ एक बार दोबारा कुछ नहीं। रंग के टुकड़ों में , लसरको में उसका स्वभाव , उसकी मजबूती , समझ के साथ में बहती है। यह हो सकता है कि दूसरे चित्र में दूसरी चीज़ होगी , तीसरी में तीसरी--फूल जैसे होते हैं। हर नया चित्र एक नयी बात , एक नयी क्रिया होती है। नया अनुभव। नया फूल जैसे है वैसे हो जाता है यह। चित्र बनाते समय अपने हाथ को खेलने के लिए मैं खेलने दे देता हूं। अभिव्यक्ति या सौन्दर्य या जो कोई भी नाम आप उसे देना चाहे उसे विचार में लिये बिना मैं बनाता हूं हालांकि मैं नहीं जानता यह क्या है।
सम्भवत: यह अपने अभी तक के एक अनन्वेषित इलाके में दाखिल होना है--एक तरह से यह एक अपरीक्षित व अज्ञात प्रान्तर है जिसके लिए मैंने कहा कि मुझे यह पता नहीं होता कि बन रहे चित्र में आगे क्या घटेगा। सबकुछ अचानक से घटने लगता है। यह शायद उसी चीज़ का एक अन्दरूनी भाग है जिसमें एक चित्र मुझसे संवादरत होता है। अपनी पूरी इन्द्रियों सहित सक्रिय मेरे चित्रात्मक चित्त के आभ्यन्तरिक व्योम , /भीतरी स्पेस की ये घड़ियां अज्ञात से जिस तरह सम्बोधित रहती है उसमें लगता है कि मेरे काम में यह अज्ञात का तत्व चित्र के अनेकानेक रूपों में आता रहा है। हो सकता है कि यह अकादमिकता या शास्त्र या जो मैंने लिखा-बांचा है उससे नहीं आता हो बल्कि प्रकृति में , वनस्पतियों में , मानव में या कहां भी , किसी वस्तु में या मेरी पसंदीदा टेराकॉटा कृति या कसीदाकारी (कसीदा , फुलकारी या धातु का काम) में भी या हो सकता है कोई और चीज़ हो , उसमें मैं देखता होऊं/हूं। दूसरे शब्दों में , यह एक नयी धारा है , नयी शक्ति है , एक ऐसा नया व सहज प्रेरणा-स्त्रोत है जिसे मैं अपने काम में लगाने पर पाता हूं कि यह मेरे पायो के धागे हैं। सम्भवत: यह आध्यात्मिक मार्ग पर चलने जैसा है--अब यह स्त्रोत क्या है , पता नहीं ; इसकी व्याख्या नहीं कर सकता--लेकिन यह इन्द्रियां वगैरह सब के इकठ्ठेपन सहित एक तत्व है जो चीज़ों के पास जाता है और उसमें मैं देखता व इन सब संग खेलता हूं। इस दरमियान सिद्धान्त या अन्य कोई विजातीय तत्व मेरे आड़े नहीं आते।
दरअसल संस्कृति या संस्कार के जो खास मानक या रीतियां हैं उन्हें मैं बाजू में रख कर ही चित्र बनाते समय खेलता हूं--भित्ति या आधार उसी में है। मुझे लगता है कि वनस्पतियों से लेकर मानुषाकारों तक सब चित्र में के कुछ ऐसे में बदल या रूपान्तरित हो जाते हैं जिसे आप पसंद करते हैं या जो आनन्द देता है। आप उसे वहां चित्र में रखते हैं और लगता है कि यह सत्य के बहुत करीब है। एक प्रकार का सत्य जो आपको आनन्द देता है। जब चित्र में यह अवस्थित/विन्यस्त हो जाता है तब बहुत बार मैं इस संस्कृति , संस्कार के बारे में सोचता हूं लेकिन फिर इसे बाजू में रख देता हूं ताकि सिर्फ़ देख सकूं। किसी भी रचना-कृति को लेकर हमारी समझ बाह्य यथार्थ से इतनी प्रभावित व संस्कारित रहती है कि हम अक्सर बस यह सवाल करते हैं कि एक कलाकार की अभिव्यक्ति से क्या संदेश मिल रहा है , कि उस कृति में क्या सिखाया या नैरेट किया गया है , कि वह क्या बताता है , कि वह क्या उपदेश या शिक्षा देती है जबकि इसके बरक्स मुझे लगता है कि एक कलाकार जब चित्र बनाता है तब न जाने कितनी वास्तविकताओं से गुज़रते हुए अपनी रूपाविष‌॒कृति तक आ पाता है। यूं मैं कलालोचना का विरोधी नहीं हूं लेकिन किसी चित्रकृति को सामान्यीकृत सांचों में इस तरह जड़ करना कि उसमें फलां फलां जनजातीय कला से आया है या फलां तत्व लोक का है, यह मुझे गलत लगता है। हो सकता है कि उस कलाकार ने शहरी वातावरण में कुछ देखा हो जिसका उस पर असर पड़ा हो--किसी मकान की जाली या कूड़े-कचरे का , बजाय लोक तत्व के। कुछ लोग ऐसा भी मानते हैं कि जीवन व कला के बीच कोई सम्बन्ध नहीं है। जीवन से सम्बन्ध नहीं है तब समाज से भी कैसे होगा। मेरे लिए जीवन और कला एक दूसरे की पूरक है। ऐतिहासिक रूप से भी देखें। दुनिया में कला का इतिहास जिस तरह बनता गया है, जीवन का एक बहुत बड़ा भाग उसमें दिखता व उसमें से निकलता है। इसमें प्राधान्य का आग्रह किस पर--जीवन पर या कला पर--यह एक बड़ा प्रश्न है। अन्तत: यह जीवन ही है जो कला में उतरता-घटता है। कुछ लोग सामाजिक सरोकारों की बात करते हैं, कुछ नितान्त सामयिक मुद्दों की और कुछ लोग कुछ बिन्दुओं को साधारणीकृत करके उस पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं : हर कलाकार का अपना अलग संवेदनात्मक मिजाज होता है जिसके मुताबिक वह काम करता है। जब भी आप सतह की अखरोट फोड़ कर उसमें झांकेंगे, आपको कलाकार का जीवन उसके अपने काम में नज़र आएगा। हर कलाकार व व्यक्ति और इसीलिए समाज व संसार भी अपने लिए एक ऐसा अवकाश , एक ऐसी स्पेस चाहता है जहां वह स्वयं के प्रति सच्चा हो सके : इसका एक आयाम उस स्वातन्त्रय-बोध का भी है जिसकी अनुपस्थिति में अपने होने के स्वधर्म की पहचान व उसका चरितार्थन सम्भव नहीं।
मेरा खयाल है कि एक खास तरह की शक्ति है , कह सकते हैं कि आत्मा--जीव है रूप में--जो मुझे वनस्पतियों से , या किसी वस्तु से या मनुद्गय से या अ-ज्ञेय से संलग्न करता , जोड़ता है और अपने को मिलने वाले जिस आनन्द की बात मैं कर रहा था वह इस संलग्नता का चरितार्थ होना है। ऐसा नहीं है कि मैं किसी वस्तु को जैसे ही देखता हूं उसे समझने की कोशिश में लग जाता हूं बल्कि इसे देखने मात्र से ही मैं इसके रंग में रंग जाता हूं। स्वयं को बेहतर और बेहतर होता हुआ महसूस करता हूं। हो सकता है कि आज मैं एक पन्ना लिखूं और शायद कल कुछ और। यह मुझे एक ऐसा आनन्द देता है जो सारे समय , पल-छिन बह रहा है और लभ्य है। चित्र बनाते समय यही सब चीज़ें नये नये रूप ले लेती हैं। मैं शायद यह कह सकता हूं कि चित्र बनाने का आनन्द स्वयं उस चित्र में प्रवाहित होने लगता है--यह पूरी प्रक्रिया की रग रग में फैलता है। यही वह चीज़ है जो उस चित्र में जोच्च पैदा करती है।
संसारभर में अपनी पसंदीदा कलाकृतियों को देखते हुए लगता है उनमें एक जोश है जिसे मेरे गुरू के। जी। सुब्रह्मण्यन "शक्ति" कहते हैं। मेरी कला-चिन्तक मित्र स्टेला क्रमरिश ब्रीद/सांस कहती थी ---। कोई चीज़ है जो मुझे बहुत छूती है जैसे वनस्पतियों या एक पौधे को देखता हूं जिसमें से पत्ता निकला है---। ओह ! कितनी बड़ी बात है यह--अद्भुत। मानो कोई चांद पर जाता है, उतनी ही बड़ी बात है यह , मेरे लिए। कितना विस्मयकारक है कि रचना स्वयं ही बोल देती है कि उसमें कितना जोश है। ---सान फ्रांस्सिको संग्रहालय में एक मोहरा/मास्क है जिसे देख कर मेरी आंखों से पानी निकलता रहता था--खाली मेरी आंख में से पानी निकलता रहता था। मैं वह मोहरा देखता रहता था। इतना सुंदर था वह ; जिसे मैं जीव कहता हूं।
रचना में जीव या जिसे रस कहा जाता है उसके आने की सम्भावना बराबर रहती है लेकिन यह बनाने से नहीं आता , अपने से बनता है , होता है---। जनजातीय कला-रूपों में मैं यह रस पाता हूं क्योंकि उनमें करप्शन नहीं है। मैंने यह पाया है कि जहां दूषण नहीं है वहां रूप अच्छे रहे हैं। अब दूषित-पन क्या है , यह एक सवाल है। उदाहरण के लिए छोटा उदेपुर के एक कुम्हार द्वारा बनाया हुआ टेराकॉटा का एक प्लेन--हवाई जहाज--जिसे उसने अपने देवता को अर्पित किया था , मुझे अच्छा लगा था।
लोगों द्वारा की जाने वाली वे सारी चीजें जो बिना कलुष के हैं , अच्छी है। (दूसरे तत्व दाखिल होने के बाद कलुष आ जाय यह दूसरी बात है। इसीलिए मैं लोगों से कहता हूं इन जनजातीय कला-रूपों को सुधारने मत जाइए और इनकी कभी भी कॉपी नहीं करनी चाहिए। जैसे ही कॉपी करते हैं , हम उन्हें खराब कर देते हैं। हां , अध्ययन या समझने के लिए कुछ करना बिलकुल भिन्न बात है। लेकिन इसे बदलना या इन्हें निर्देशित-संचालित करना समूची चीज़ को नद्गट कर देता है। )
जन द्वारा सृजित सहज व ऋजु रूप मुझे एक प्रकार की प्रेरणा देते हैं। जैसे घड़ा या कोठी या मिट्टी से बनाये गये अन्य रूप। दैनंदिन की ज़मीनी जिंदगी में रचे-बसे इन कला-रूपों को जब देखता हूं, मुझे लगता है कि यह फूल से हल्का प्रकाश है जिसे मैं अपने चित्रों में लाने का यत्न करता हूं। मुझे प्यार है सूर्यकिरणों में स्पन्दित कणों को देखना जब धूप सीधी पड़ती है वहां। वह आंख मुझे आनन्द देती है जिसमें सुख व दर्द के आंसू है।
दरअसल , काम करते समय आपको पानी जैसा हो जाना चाहिए।
और ज़मीन जैसा भी। ज़मीन बोलती नहीं है मगर देखे कि क्या क्या देती है , कितना कुछ। लेकिन यह एक मौन चीज़ है जो इर्द गिर्द स्पन्दित है।
ऐसा ही करने का मेरा मन करता है। कुछ भी नहीं बोले , चित्र में कुछ भी नहीं देखे फिर भी कई चीज़ देख सकते हैं। रंग में कुछ भी नहीं देखे , फिर भी कई चीज़ देख सकते हैं। रूप में कुछ भी नहीं देखे , फिर भी कई चीज़ देख सकते हैं---। यही है वह जिधर मैं जाने का प्रयास कर रहा हूं ---। जिसे मैं पाने की , रूपायित करने की कोशिश करता हूं। मैंने अब तक सैंकड़ों चित्र बनाये होंगे लेकिन हर बार बराबर यही महसूस होता रहा है मानो जो मैं कर रहा हूं वह सिर्फ़ एक प्राथमिक वर्णमाला , ककहरे की चीज़ है---।