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Wednesday, October 12, 2011

हमलावर संस्कृति का विरोध करो

देहरादून

कानून के भीतर बेशक अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता वर्णित हो लेकिन देख रहे हैं कि हमलावर संस्कृति की लगातार बढ़ रही कार्रवाइयों के जरिये एक अराजक किस्म का माहौल बनता जा रहा है। दबंगई और गुंडई का बोलबाला बहुत खुलेआम और बेखौफ है। सत्ता पर कब्जे की राजनीति उसे शरण देती हुई है।
अभी हाल ही में, स्त्री अधिकारों और धर्म की आड़ भ्रष्टता के खेले जा रहे खेल के प्रतिकार को अपने लेखन और सीधी कार्रवाइयों का हिस्सा बनाने वाली रचनाकार शीबा असलम फहमी के घर पर हुआ हमला और आज ही दिल्ली में घटी वह ताजा घटना जिसमें प्रशांत भूषण पर हमले की सूचनायें हैं, ऐसी ही राजनीति की सीधी कार्रवाइयां हैं। उधर गुजरात में संजीव भट्ट की गिरफ्तारी ।
11 अक्टूबर को देहरादून के रचनाकारों की संस्था संवेदना ने रचनाकार शीबा असलम फहमी पर हुए हमले की चर्चा करते हुए हमलावर संस्कुति की मुखालफत की है। अपराधियों के खिलाफ कड़ी कानूनी कार्रवाई और शीबा असलम फहमी के साथ एकजुटता को प्रदर्शित करने के लिए आयेजित चर्चा में मुख्यतौर पर कथाकार सुरेश उनियाल, मनमोहन चडढा, डॉ जितेन्द्र भारती, अनिता दिघे, गीता गैरोला, रश्मि रावत, जावेद अख्तर, प्रवीण भट्ट, कमल जोशी, प्रतिमान उनियाल आदि उपस्थित थे।   

Friday, April 8, 2011

नियंत्रित अराजकता के विरोध में


जन लोकपाल बिल के सवाल पर अन्ना हजारे की मुहिम के समर्थन और भ्रष्टाचार के विरोध में देहरादून के रचनाकारों की संस्था संवेदना के तत्वाधान में आयोजित धरना इस मायने में सफल कहा सकता है कि उसने देहरादून के तमाम समाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र के कार्यकर्ताओं को ही नहीं अपितु ट्रेड यूनियस्ट के साथ साथ विधा विशेष में सक्रिय कलाकारों को भी एक मंच पर लाकर एकजुटता की ऐतिहासिक मिसाल कायम की है। भ्रष्टाचार के सवाल पर संवेदना के राजेश सकलानी ने अपना मत रखते हुए कहा, हम एक कंट्रोल एनार्किज्म के दौर में है। एक नियंत्रित किस्म की अराजकता आज हमारे चारों ओर है जिसके बीच हमारा पूरा मध्यवर्ग स्थितियों के सही और गलत का आकलन करने में भी चूक कर देता है। संवेदना की ही ओर से अन्य वक्ताओं में प्रमोद सहाय, डॉ जितेन्द्र भारती, शकुन्तला सिंह, गीता गैरोला, गुरुदीप खुराना, विद्यासागर नौटियाल एवं सुभाष पंत ने अपने अपने अंदाज में अन्ना हजारे की वर्तमान मुहिम को उसी नियंत्रिक अराजकता के प्रतिरोध में एक कदम मानते हुए इस बात को रखा कि भ्रष्टाचार का उत्स मुनाफाखौर व्यवस्था है। मुनाफे पर कब्जे की गलाकाट होड़ ही भ्रष्टाचार की जननी है।

धरने में शिरकत करने पहुँचे अर्न्तराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पर्यावरणविद और वयोवृद्ध सुन्दर लाल बहुगुणा की उपस्थिति इस मायने में उल्लेखनिय रही कि अपनी मद्धिम आवाज में भी आंदोलन को चरणबद्ध रूप्ा से लगातार आगे बढ़ाने की दृढ़ता से भरा उनका वक्त्वय  आंदोलनरत जनमानस को प्रेरित करने वाला रहा। केन्द्रीय कर्मचारियों की समन्वय समिति के जगदीश कुकरेती ने स्वत:स्फूर्त किस्म के वर्तमान आंदोलन में पिछलग्गूपन की तरह से हिस्सेदारी करने की बजाय एक सार्थक हस्तक्षेप करने की बात पर बल दिया। अन्य वक्ताओं में समर भण्डारी, अद्गवनी त्यागी, डॉ बुद्धिनाथ मिश्र, अतुल शर्मा, भारती पाण्डे, एस बी मेहंदीरत्ता, संजय कोठियाल आदि सभी ने अपने अपने तरह से भ्रष्टाचार के विरुद्ध जारी मुहिम को सतत आगे बढ़ाने की बात कही। धरने में डेण्ड सौ से ज्यादा लोगों ने शिरकत की।

Thursday, April 7, 2011

पूँजीवादी व्यवस्था से भ्रष्टाचार को खत्म करना असंभव है






जन लोकपाल बिल के समर्थन और भ्रष्टाचार के विरोध में देहरादून के रचनाकारों की हलचल इसम मायने में एक सार्थक हस्तक्षेप कही जा सकती है कि उसका ध्येय मात्र तात्कालिक तरह से एक सीमित अर्थ वाली जन आजादी के बजाय एक वास्तविक जन आजादी  की मुहिम और उसके लिए निरंतर संघर्ष की अवश्यम्भाविता का पक्ष प्रस्तुत कर रही है। 8 अप्रैल 2011 को देहरादून के सभी रचनाकार संवेदना की पहल पर गांधी पार्क में एकजुट होकर जन लोकपाल बिल के समर्थन में अपना पक्ष रखते हुए अपनी भूमिका को बखूबी स्पष्ट कर रहे हैं।


भ्रष्टाचार कोई आज पैदा हुआ मुद्दा नहीं है। यह कई दशकों से हमारे जीवन को नारकीय जीवन बना रहा है। गरीब और कमजोर के हक की कोई सुनवाई नहीं है। दुखद है कि हमारे समाज का मध्यवर्गीय वर्ग विरोध की शक्ति पूरी तरह से खो चुका है। क्योंकि वह बाजार के प्रभाव में इस गलत फहमी में जी रहा है कि समाज की उन्नति में कभी भी और किसी भी तरीके से फायदे की स्थिति में पहुँच सकता है। इस कारण उसने अपने सामाजिक राजनैतिक विवेक को बिल्कुल खो दिया है और लूट-खसोट की इस राजनीति में हस्तक्षेप करने का अपना नैतिक आधार भी खो दिया है। देश के प्रति भी इस वर्ग की समझ स्वार्थपूर्ण और गलत है। वह वंचितों और गरीबों के अधिकार के प्रति थोड़ा भी संवेदनशील नहीं है और स्वंय शोषण के किसी न किसी रूप का हिस्सा बन चुका है।
आज भ्रष्टाचार कोई छिपा हुआ मुद्दा नहीं है। हरेक गाँव कस्बे और शहरों में ऐसी ताकतें साफ-साफ दिखाई देती है जो समाज के विरोध में कार्यरत हैं और सत्ता पर उनका कब्जा पूरी तरह से है। वे अपनी लूट का के हिस्से को गर्व से दिखाते हैं। यह उनके लिए कोई शर्म का विषय भी नहीं।
भ्रष्टाचार की इस तंत्र को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत है। आजादी से पूर्व और बाद के वर्षों में इस देश के भीतर मिश्रित अर्थव्यवस्था लागू की गई और वर्ष 1990 से इसके अन्दर नई आर्थिक औद्योगिक नीतियों का व उदारीकरण को इस देश की जनता पर लादा गया। इस पूरे कालखण्ड में मुनाफे और अतिरिक्त मूल्य को हड़पने की भीषण होड़ निरंतर जारी रही। इसके परिणाम स्वरूप भ्रष्टाचार तीव्र गति से बढ़ता रहा। इसका उदाहरण है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ देश की आवाम ने भीषण जन आंदोलन के जरिये वर्ष 1977 में भ्रष्ट सरकार को धाराशायी कर दिया। लेकिन कालान्तर में दिखायी दिया कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाले लोग ही भ्रष्टाचार के दोषि पाये गये एवं भ्रष्टाचार अपने ज्यादा आक्रामक रूप में पनपने लगा।
उत्तराखण्ड के बुद्धिजीवी अन्ना हजारे की इस मुहिम का समर्थन करते हैं और जन लोकपाल बिल का समर्थन करते हैं। लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम सिर्फ बिल पास होने तक ही नहीं है क्योंकि व्यवस्था के अन्दर मुनाफा कमाने की और अतिरिक्त मूल्य की लूट जब तक समाप्त नहीं होती तब तक भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ी जाने वाली कोई भी लड़ाई मुक्कमिल जीत तक नहीं पहुँच सकती। प्रगतिशील और समाजवादी व्यवस्था ही इसका एक मात्र लक्ष्य हो सकती है और उसको हासिल करने तक संघर्ष में बने रहना ही हमारा ध्येय होना चाहिए। पूँजीवादी व्यवस्था से भ्रष्टाचार को खत्म करना असंभव है।


संवेदना के सभी साथी

Monday, August 23, 2010

तेरा-मेरा ये बतियाना-क्या कहने हैं


देहरादून और पूरे उत्तराखण्ड में जनआंदोलनों में सांस्कृतिक तौर पर डटे रहने वाले संस्कृतिकर्मी गिर्दा-गिरीश चंद्र तिवाड़ी को देहरादून के रचनाजगत ने पूरे लगाव से याद किया। गिर्दा का मस्तमौला मिजाज और फक्कड़पन, उनकी बेबाकी और दोस्तानेपन के साथ किसी भी परिचित को अपने अंकवार में भर लेने की उनकी ढेरों यादें उनके न रहने की खबर पर देहरादून के रचनाजगत और सामाजिक हलकों में सक्रिय रहने वाले लोगों की जुबां में आम थी। गत रविवार को यह सूचना मिलने पर कि गिर्दा नहीं रहे, देहरादून के तमाम जन संगठनों ने उन्हें अपनी-अपनी तरह से याद किया। संवेदना की बैठक में नीवन नैथानी, दिनेश चंद्र जोशी, निरंजन सुयाल राजेश सकलानी, विद्या सिंह और अन्य रचनाकारों ने गिर्दा के देखने, सुनने और उनके साथ बिताये गये क्षणों को सांझा किया। कवि राजेश सकलानी ने उनकी हिन्दी में लिखी कविताओं का पाठ किया तो दिनेश चंद्र जोशी ने कुंमाऊनी कविता का पढ़ी। निरंजन सुयाल ने 1994 से आखिरी दिनों तक के साथ का जिक्र करते हुए गिर्दा के एक गीत की कुछ पंक्तियों का स-स्वर पाठ किया। उत्तराखण्ड आंदोलन के दौरान गाये जाने वाले उनके गीतों को याद करते हुए तुतुक नी लगाउ देखी, घुनन-मुनन नी टेकी गीत को कोरस के रुप में भी गाया गया। इस अवसर पर फिल्म समीक्षक मनमोहन चढडा ने कुछ महत्वपूर्ण सवाल भी उठाये। डॉ जितेन्द्र भारती, मदन शर्मा, प्रमोद सहाय और चंद्र बहादुर रसाइली अदि अन्य रचनाधर्मी भी गोष्ठी में उपस्थित थे। गिर्दा की कविताओं के साथ गोष्ठी की बातचीत की कुछ झलकियां यहां जीवन्त रुप में प्रस्तुत है।         
अक्षर
ध्वनियों से अक्षर ले आना-क्या कहने हैं,
अक्षर से ध्वनियों तक जाना- क्या कहने हैं।
कोलाहल को गीत बनाना- क्या कहने हैं,
गीतों से कुहराम मचाना- क्या कहने हैं।
कोयल तो पंचम में गाती ही है लेकिन
तेरा-मेरा ये बतियाना-क्या कहने हैं।
बिना कहे भी सब जाहिर हो जाता है पर,
कहने पर भी कुछ रह जाना- क्या कहने हैं।
अभी अनकहा बहुत-बहुत कुछ है हम सबमें,
इसी तड़फ को और बढ़ाना- क्या कहने हैं।
इसी बहाने चलो नमन कर लें उन सबको
'अ" से 'ज्ञ" तक सब लिख जाना- क्या कहने हैं।
 ध्वनियों से अक्षर ले आना-क्या कहने हैं,
अक्षर से ध्वनियों तक जाना- क्या कहने हैं।
  


दिल लगाने में वक्त लगता है,
डूब जाने में वक्त लगता है,
वक्त जाने में कुछ नहीं लगता-
वक्त आने में वक्त लगता है।



दिल दिखाने में वक्त लगता है,
फिर छिपाने में वक्त लगता है,
दिल दुखाने में कुछ नहीं लगता-
दर्द जाने में वक्त लगता है।


अभी करता हूँ तुझसे आँख मिलाकर बातें,
तेरे आने की लहर से तो उबर लूँ पहले।
ये खिली धूप, ये चेहरा, ये महकता मौसम,
अपनी दो-चार खुश्क साँसें तो भर लूँ पहले।।

    



  

 


Sunday, August 8, 2010

विवादित साक्षात्कार की हलचल

गोष्ठी की रिपोर्ट को दर्ज करने की सूचना पर इस ब्लाग के सहभागी लेखक राजेश सकलानी ने कथाकार अब्दुल बिस्मिल्लाह द्वारा लिखित एक संस्मरण ( एक विरोधाभास त्रिलोचन) के उस अंश को दुबारा याद करना चाहा है जिसमें एक जिम्मेदार लेखक गरीब की बेटी को नग्न करके शब्द के अर्थ तक पहुंचने की कथा पूरी तटस्थता से सुनाता है। जबकि लेखक एक शिक्षाविद्ध भी है।


साहित्य की समकालीन दुनिया की खबरों की हलचल का प्रभाव इतना गहरा था कि खराब मौसम के बावजूद 8 अगस्त 2010 को आयोजित संवेदना की मासिक रचनागोष्ठी बेहद हंगामेदार रही। कथाकार सुभाष पंत, डॉ जितेन्द्र भारती, कुसुम भट्ट, मदन शर्मा, दिनेश चन्द्र जोशी, के अलावा फिल्म समीक्षक मनमोहन चढडा और दर्शन लाल कपूर गोष्ठी में उपस्थित थे। अगस्त माह की यह गोष्ठी बिना किसी रचनापाठ के कथाकार और कुलपति विभूति नारायण राय के उस साक्षाकत्कार पर केन्द्रित रही जो नया ज्ञानोदय के अगस्त अंक में प्रकाशित हुआ है और विवाद के केन्द्र में है। महिला समाख्या की कार्यकर्ता गीता गैरोला के उस पत्र को आधार बनाकर बातचीत शुरू हुई जिसमें उन्होंने संवेदना के सदस्यों से अपील की है कि महिला रचनाकारों के बारे में अभद्र भाषा में की गई टिप्पणी के विरोध में 10 अगस्त को आयोजित होने वाली प्रेस कान्फ्रेन्स में, अपनी सहमति के साथ उपस्थित हों। साक्षात्कार का सामूहिक पाठ किया गया और उस पर विस्तृत बहस के बाद गोष्ठी में उपस्थित सभी रचनाकारों ने अभद्र भाषा में की गई टिप्पणी पर विरोध जताते हुए प्रेस कांफ्रेंस में संवेदना की भागीदारी की सहमति जतायी। 




जयपुर
प्रेमचंद जयंती समारोह-2010
राजस्‍थान प्रगतिशील लेखक संघ और जवाहर कला केंद्र की पहल पर इस बार जयपुर में प्रेमचंद की कहानी परंपरा को ‘कथा दर्शन’ और ‘कथा सरिता’ कार्यक्रमों के माध्‍यम से आम लोगों तक ले जाने की कामयाब कोशिश हुई, जिसे व्‍यापक लोगों ने सराहा। 31 जुलाई और 01 अगस्‍त, 2010 को आयोजित दो दिवसीय प्रेमचंद जयंती समारोह में फिल्‍म प्रदर्शन और कहानी पाठ के सत्र रखे गए थे। समारोह की शुरुआत शनिवार 31 जुलाई, 2010 की शाम प्रेमचंद की कहानियों पर गुलजार के निर्देशन में दूरदर्शन द्वारा निर्मित फिल्‍मों के प्रदर्शन से हुई। प्रेमचंद की ‘नमक का दारोगा’, ‘ज्‍योति’ और ‘हज्‍ज-ए-अकबर’ फिल्‍में दिखाई गईं।
रविवार 01 अगस्‍त, 2010 को वरिष्‍ठ रंगकर्मी एस.एन. पुरोहित ने प्रेमचंद की कहानी ‘नमक का दारोगा’ का अत्‍यंत प्रभावशाली पाठ किया। कथाकार राम कुमार सिंह ने ‘शराबी उर्फ तुझे हम वली समझते’ कहानी का पाठ किया। कहानी पाठ की शृंखलमें प्रदेश के युवतम कथाकार राजपाल सिंह शेखावत ने ‘नुगरे’ कहानी का पाठ किया| उर्दू अफसानानिगार आदिल रज़ा मंसूरी ने अपनी कहानी ‘गंदी औरत’ का पाठ किया। सुप्रसिद्व युवा कहानीकार अरुण कुमार असफल ने अपनी कहानी ‘क ख ग’ का पाठ किया। मनीषा कुलश्रोष्‍ठ की अनुपस्थिति में सुपरिचित कलाकार सीमा विजय ने उनकी कहानी ‘स्‍वांग’ का प्रभावी पाठ किया। अध्‍यक्षता करते हुए जितेंद्र भाटिया ने पढ़ी गई कहानियों की चर्चा करते हुए समकालीन रचनाशीलता को रेखांकित करते हुए कहा कि इधर लिखी  जा रही कहानियों ने हिंदी कहानी के भविष्‍य को लेकर बहुत आशाएं जगाईं हैं। सत्र के समापन में उन्‍होंने अपनी नई कहानी ‘ख्‍वाब एक दीवाने का’ का पाठ किया।
‘कथा सरिता’ के दूसरे सत्र का आरंभ वरिष्‍ठ साहित्‍यकार नंद भारद्वाज की अध्‍यक्षता में युवा कहानीकार दिनेश चारण के कहानी पाठ से हुआ। इसके बाद लक्ष्‍मी शर्मा ने ‘मोक्ष’ कहानी का पाठ किया। युवा कवि कथाकार दुष्‍यंत ने ‘उल्‍टी वाकी धार’ कहानी का पाठ किया। चर्चित कथाकार चरण सिंह पथिक ने ‘यात्रा’ कहानी का पाठ किया।
प्रस्‍तुति : फारुक आफरीदी

Sunday, June 13, 2010

यदि इस संग्रह का शीर्षक ही किताब होता

कथाकार सुरेश उनियाल की कहानी किताब मौजूदा दुनिया का एक ऐसा रूपक है जिसमें पूंजीवाद लोकतंत्र के भीतर के उस झूठ और छद्म को जो एक सामान्य मनुष्य की स्वतंत्रता के विचार को गा-गाकर प्रचारित करने के बावजूद बेहद सीमित, जड़ और अमानवीय है, देखा जा सकता है। वह विचार जिसने, अभी तक की दुनिया की भ्रामकता के तमाम मानदण्डों को तोड़कर, दुनिया के सबसे धड़कते मध्यवर्ग को अपनी लपेट में लिया हुआ है। उस तंत्र की पूरी अमानवीयता को स्वतंत्रता मान अपनी पूरी निष्ठा और ईमानदारी से स्थापित करने को तत्पर और हर क्षण उसके लिए सचेत रहने वाला यह वर्ग ही उस किताब की रचना करना चाहता है जो व्यवस्था का रूपक बनकर पाठक को चौंकाने लगती है। दिलचस्प है कि वह खुद उस रचना रुपी किताब का हिस्सा होता चला जाता है और कसमसाने लगता है। यह एक जटिल किस्म का यथार्थ है। उसी व्यवस्था के भीतर उसकी कसमसाहट, जिसका संचालन वह स्वंय कर रहा है, जटिलता को सबसे आधुनिक तकनीक की बाईनरीपन में रची जाती भाषा का दिलचस्प इतिहास होने लगता है जो इतना उत्तर-आधुनिक है कि जिसे इतिहास मानने को भी हम तैयार नहीं हो सकते। ज्यादा से ज्यादा कुशल और अपने पैने जबड़ों वाला यह तंत्र कैसे अपना मुँह खोलता जाता है, इसे कहानी बहुत अच्छे से रखने में समर्थ है। कोई सपने और स्मृती की स्थिति नहीं। बस व्यवस्था के निराकार रुप का प्रशंसक उसे साकार रुप में महसूस करने लगता है। स्वतंत्रता, समानता और ऐसे ही दूसरे मानवीय मूल्यों को सिर्फ सिद्धांत के रुप में स्वीकारने वाली भाषा के प्रति आकर्षित होकर दुनिया में खुशहाली और अमनचैन को कायम करने वाली ललक के साथ जुटा व्यक्ति कैसे लम्पट और धोखेबाज दुनिया को रचता चला जा रहा, कहानी ने इस बारिक से धागे को बेहद मजबूती से उकेरा है।
दुनिया के विकास में रचे जाते छल-छद्म और विचारधाराओं के संकट का खुलासा जिस तरह से इस कहानी में होता है, मेरी सीमित जानकारी में मुझे हिन्दी की किसी दूसरी कहानी में दिखा नहीं। कहानी की किताब मात्र एक किताब नहीं रह जाती बल्कि व्यवस्था में तब्दील हो जाती है। क्या ही अच्छा होता यदि इस संग्रह का शीर्षक ही किताब होता।

विजय गौड़

मार्च 2010 की संवेदना गोष्ठी में कथाकार सुरेश उनियाल के कहानी संग्रह क्या सोचने लगे पर आयोजित चर्चा के दौरान संग्रह में मौजूद कहानी "किताब" पर की गई एक टिप्पणी।

Monday, November 9, 2009

प्रभाष जोशी के क्रिकेटिया गल्प





प्रभाष जोशी नहीं थे। हम संवेदना के साथियों के बीच वे मौजूद थे। कथाकार अल्पना मिश्र दैनिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित महाश्वेता देवी के उस स्मृतिआलेख को अपने साथ ले आईं थी जिसमें पराड़कर की परम्परा के पत्रकार प्रभाष जोशी का जिक्र था। प्रभाष जोशी से हममें से कोई शायद ही व्यक्तिगत रूप से परिचित हो, अल्पना मिश्र का सोचना देहरादून के साथियों की उस फितरत के कारण रहा होगा जिसमें तमाम रचनात्मक व्यक्तियों के रचनाकर्म से परिचित होने के बावजूद भी व्यक्तिगत परिचय की बहुत सीमित जानकारियों का इतिहास था। अनुमान गलत भी न था। उपस्थित साथियों में कोई भी प्रभाष जोशी से व्यक्तिगत रूप से परिचित न था। उसी आलेख का पाठ करते हुए हम प्रभाष जोशी को याद कर रहे थे। जनसत्ता जो संख्यात्मक रूप में बेशक सीमित प्रतियों वाला अखबार है, अपने साहित्यिक आस्वाद के कारण हममें से हर एक का प्रिय था। प्रभाष जोशी उसी जनसत्ता के सम्पादक थे। रविवारिय संस्करण के हम ज्यादातर पाठक जो किक्रेट के जिक्र से भरे कागद कारे को अपनी थाली में से हड़प लिए गए किसी साहित्यिक आलेख की जगह के रूप में देखते थे, उस वक्त उन्हीं कागद कारे करने वाले प्रभाष जोशी के क्रिकेटिया गल्प के जिक्र के साथ प्रभाष जोशी को याद कर रहे थे। रविवार में प्रकाशित उनके हालिया साक्षात्कार से असहमति के स्वर भी थे तो अभी तीन राज्यों के भीतर हुए चुनाव में मीडिया की भूमिका को लेकर दबंगई से लिखने वाले पत्रकार प्रभाष जोशी के प्रति आगध स्नेह भी बातचीत में था। कथाकार सुभाष पंत, मदन शर्मा, मनमोहन चढडा, वेद आहलूवालिया, स्वाति, महावीर प्रसाद शर्मा  मुख्यरूप से उपस्थितों में थे।


स्वाति, वह युवा रचनाकार जो पहली बार संवेदना की बैठक में उपस्थित हुई, अपनी कविताओं के साथ आई थी। उसने कविताओं का पाठ किया। कथाकार/व्यंग्यकार मदन शर्मा ने अपने ताजा व्यंग्य का पाठ किया और अंत में कथाकार सुभाष पंत के ताजा लिखे जा रहे उपन्यास अंश को सुनना गोष्ठी की उपलब्धता रही।

स्वाति का कविता-पाठ आप यहां क्लिक कर सुन सकते हैं-

Tuesday, October 13, 2009

किशोर और युवा के दिनों के गहरे आघात




देहरादून
जेम्सवाट की केतली- यह ऐसा शीर्षक है जो ने सिर्फ एक कहानी को रिपरजेंट करता है बल्कि कुसुम भट्ट के कथा संग्रह में शामिल सभी कहानियों को बहुत अच्छे से परिभाषित करता है। संवेदना, देहरादून की विशेष चर्चा गोष्ठी में, जो सामयिक प्रकाशन से प्रकाशित हुई कथाकार कुसुम संग्रह की कहानियों की पुस्तक पर आयोजित थी, कथाकार सुभाष पंत का यह वक्तव्य उन सवालों का जवाब था जिनमें कुसुम भट्ट की कहानियों पर यह सवाल ज्यादातर उठ रहा था कि उनकी कहानियों के शीर्षक उनकी कहानियों के कथ्य से मेल खाते हुए नहीं हैं। फिल्म समीक्षक मनमोहन चढडा का तो कहना था कि जेम्स वॉट की केतली जैसा शीर्षक तो स्त्रियों की अन्तर्निहित शक्तिय को पूरे तौर पर परिभाषित करता है। कुसुम भट्ट की कहानी हिसंर को एक महत्वपूर्ण कहानी मानते हुए कथाकार सुभाष पंत ने कहानी के प्रति अपने दृष्टिकोण को सांझा करते हुए कहा कि प्रकृति चित्रण, साहित्य की जुमले बाजी है जिसमें मूल संवेदना से दूर जाना है। उन्होंने आगे कहा कि भाषा सम्प्रेषण का माध्यम है। कथ्य पर भाषा हावी नहीं होनी चाहिए। भाषा का सौन्दर्य कथ्य के साथ है।
कहानी पुस्तक पर चर्चा से पहले गोष्ठी में संग्रह में शामिल कहानी वह डर का पाट किया गया। कवयित्री और सहृदय पाठिका कृष्णा खुराना ने कुसुम भट्ट के कथा संग्रह में सम्मिलित कहानियों की विस्तार से चर्चा अपने लिखित पर्चे को पढ़कर की। जिसका सार तत्व था कि पहाड़ी अंचल और स्त्रीमन को कुसुम भट्ट ने अच्छे से पकड़ा है। दूसरा पर्चा वरिष्ठ कथाकार एवं व्यंग्य लेखक मदन शर्मा ने पढ़ा। कुसुम भट्ट की कथा भाषा को महत्वपूर्ण मानते हुए उन्होंने कहानियों के शिल्प की भी चर्चा की।

एक अधेड़ स्त्री मन के भीतर से बार बार किशोर और युवा के दिनों के गहरे आघात में आकार लेता एक स्त्री का व्यक्तित्व उनके ज्यादातर पात्रों के मानस के रूप में दिखाई देता है। संग्रह में शामिल वह डर, गांव में बाजार: सपने में जंगल, हिंसर, डरा हुआ बच्चा आदि कहानियों को सभी पर सभी ने खूब बात की। चर्चा में अन्य लोगों में प्रेम साहिल, राजेश सकलानी, गुरूदीप खुराना, डॉ जितेन्द्र भारती, चन्द्र बहादुर, जितेन्द्र शर्मा, राजेन्द्र गुप्ता आदि ने भी शिरक्त की।

Monday, September 7, 2009

निष्कर्षों तक पहुंचने से पहले के प्रयोग


रचना का संकट उस जटिल यथार्थ को संम्प्रेषित करने से शुरू होता है जिसकी व्याख्या को किसी घटना के मार्फत सरलीकृत करना उसकी पहली शर्त होता है। वह यथार्थ जिसे हम, यानी बहुत ही सामान्य लोग, ठीक से समझ न पा रहे हों। संवेदना की मासिक गोष्ठी में कथाकार नवीन नैथानी
की कहानियों पर आयोजित चर्चा के दौरान वरिष्ठ कथाकार सुभाष पंत की यह टिप्पणी न सिर्फ नवीन की कहानियों को समझने के लिए एक जरूरी बिन्दु है बल्कि समग्र रचनात्मक साहित्य को समझने में भी मद्दगार है। कहानी की व्याख्या में उन्होंने स्पष्ट कहा कि जो मुझे जीवन देती है, सघर्ष करने की ताकत देती है, उसे ही मैं कहानी मानता हूं।
नवीन की कहानी पारस को निर्विवाद रूप से सभी चर्चाकारों ने एक ऐसी कहानी के रूप में चिहि्नत किया जिसमें जीवन का संघर्ष कथानायक खोजराम के चरित्र से नये आयाम पाता है। सौरी नवीन कुमार नैथानी की कल्पनाओं का एक ऐसा लोक है जो जीवन की आपाधापी के इस ताबड़तोड़ समय में भी सौरी के बांशिदों को अपने सौरीपन को जिन्दा रखने की कोशिश के साथ है। ललचाऊपन की ओर बढ़ती दुनिया की ओर जाने वाला कोई भी रास्ता सौरी से होकर नहीं गुजरता है।


प्रयोगों से प्राप्त परिणाम के आधार पर जान लिए गए को ही हम विज्ञान मानते हैं, यह विज्ञान की बहुत स्थूल व्याख्या है, कवि राजेश सकलानी का यह वाक्य नवीन की कहानियों में उस वैज्ञानिकता की तलाश करती टिप्पणी का जवाब था जो कार्यकारण संबंधों की स्पष्ट पहचान में ही यथार्थ की पुन:रचना को किसी भी रचना की सार्थकता के लिए एक जरूरी शर्त मानता है। सकलानी ने नवीन की कहानियों की वैज्ञानिकता को स्पष्ट रूप से उन अर्थों में पकड़ने की कोशिश की जिसमें वे उन्हें निष्कर्षों तक पहुंचने से पहले किए गए प्रयोगों के रूप में देखते हैं।


रूड़की में रहने वाले और देहरादून के साथियों मित्र यादवेन्द्र जी ने अपनी उपस्थिति से चर्चा को एक जीवन्त मोड़ देते हुए संग्रह की तीन कहानियों के मार्फत अपनी बात रखी- पारस, आंधी और तस्वीर दिनेशचंद्र जोशी और यादवेन्द्र ने नवीन के कल्पना लोक सौरी को हिन्दी का मालगुड़ी मानते हुए अपनी टिप्पणियों में उसकी सार्थकता को रेखांकित किया। पारस को एक महत्वपूर्ण कहानी मानते हुए भी यादचेन्द्र जी ने कहानी के अंत से अपनी दोस्ताना असहमति को भी दर्ज किया। दिनेश चंद्र जोशी, कृष्णा खुराना, मनमोहन चढडा, गीता गैरोला और कथाकार जितेन ठाकुर ने अपने लिखित पर्चों पढ़े और कहानियों पर विस्तार से अपनी बातें रखीं। पुनीत कोहली एवं गुरूदीप खुराना ने अपनी-अपनी तरह से नवीन की कहानियों पर बात रखते हुए कहा कि नवीन की कहानियों को किसी एक खांचें में कस कर नहीं देखा जाना चाहिए।
डॉ जितेन्द्र भारती ने नवीन की कहानियों के संदर्भ से बदलाव के संघर्षों में निरन्तर गतिमान रहने वाली एक अन्तर्निहित धारा के बहाव को परिभाषित करते हुए कहा कि नवीन की कहानियां अपने मूल अर्थों में एक चेतना की संवाहक हैं। सहमति और असहमति के मिले-जुले स्वर के बीच पुस्तक पर हुई चर्चा गोष्ठी में कथाकार विद्यासागर नौटियाल, ओमप्रकाश वाल्मीकि, मदन शर्मा, समर भण्डारी, चंद्र बहादुर रसाइली, प्रेम साहिल, इंद्रजीत, मनोज कुमार और प्रमोद सहाय आदि संवेदना के कई मित्र शामिल थे। सौरी की कहानियां नवीन कुमार नैथानी की कहानियों का हाल ही में प्रकाशित पहला कथा संग्रह है।

पिछले दिनों इस दुनिया से विदा हो गए आर्टिस्ट एच एन मिश्रा को गोष्ठी में शिद्दत से याद किया गया और विनम्र श्रद्धाजंली दी गई। मिश्रा एक ऐसे आर्टिस्ट थे जिनकी पेटिंग्स में गणेश के ढेरों रूप आकार पाते हैं। मिथ गणेश के विभिन्न रूपों का सृजन उनका प्रिय विषय था। पेंटर चन्द्रबहादुर ने मिश्रा जी के रचना संसार पर विस्तार से अपनी बात रखी।


Monday, July 6, 2009

खिलाड़ी के पांवों से भी फूटती है संगीत की स्वर लहरियां

६ जुलाई २००९
देहरादून।





जीवन का उबड़-खाबड़पन भी उनके चित्रों में ऐसा समतल होकर उभरता है कि उम्मीदों भरा एक संसार आकार लेने लगता है। दो फलकों पर फैले चित्रों को त्रीआयामी बनाने के लिए चित्र को बहुत गहराई में उकेरने की बजाय वे दो अलग-अलग फलकों पर उनको रचते रहे। उनकी डाइगनल श्रैणी में भी इसको देखा जा सकता है। पेन्टिंग द्विआयामी विधा है। द्विआयामी समतल पर उसे त्रीआयामी संभव करना आसान नहीं।

चित्रकार प्रमोद सहाय का यह विश्लेषण दिवंगत चित्रकार तयेब(Tayeb) मेहता की स्मृतियों और उनके रचनात्मक अवदान को याद करने के लिए आयोजित संवेदना की मासिक गोष्ठी का हिस्सा है। पिछले दिनों चित्रकार तयेब मेहता (Tayeb Mehta) और सरोद वादक अकबर अली खां हमसे विदा हो गए। दोनों ही रचनाकारों को संवेदना के साथियों ने अपनी मासिक रचनात्मक गोष्ठी में याद किया। अकबर अली खां पर मुहममद हम्माद फारूखी ने विस्तार से बात रखी और उनके उस पहलू को भी याद किया जिसमें एक संगीतकार को फुटबाल खिलाड़ी के रुप में भी जाना जा सका। अकबर अली खां एक महत्वपूर्ण संगीतकार के साथ-साथ एक दौर में मध्य प्रदेश इलेवन के भी चहेते खिलाड़ियों में शामिल रहे।
कथाकार सुभाष पंत, मदन शर्मा, जितेन्द्र शर्मा, अल्पना मिश्र, विद्या सिंह, दिनेश चंद्र जोशी, गुरूदीप खुराना, शिव प्रसाद सेमवाल, कवि राजेश सकलानी, प्रेम साहिल, कृष्णा खुराना, दर्शन कपूर, सुप्रसिद्ध फिल्म समीक्षक मनमोहन चडढा, सामाजिक कार्यकर्ता शकुंतला सिंह, राजेन्द्र गुप्ता आदि गोष्ठी में मौजूद थे |

सभी चित्र इंटरनेट पर विभिन्न स्रोतों से,सूचनार्थ प्रस्तुति के लिए, साभार लिए गए हैं।

Monday, April 13, 2009

एक कप काफी पांच पानी




देहरादून १३ अप्रैल २००९
दिल्ली में मोहन सिंह पैलेस का कॉफी हाऊस अड्डा था कथाकार विष्णु प्रभाकर जी का। विष्णु जी और भीष्म साहनी वहीं बैठते थे। कवि लीलाधर जगूड़ी की स्मृतियों में विष्णु प्रभाकर के उस कॉफी हाऊस में बैठे होने का दृश्य उतर गया।

कथाकार विष्णु प्रभाकर को विनम्र श्रद्धाजंली देते हुए देहरादून की साहित्यिक संस्था संवेदना की गोष्ठी में जब उनके अवदान को याद को याद किया गया था तो जो किस्सा कवि लीलाधर जगूड़ी की जुबान से सुना उसका तर्जुमा करके भी रख पाना संभव नहीं हो रहा है।
जगूड़ी कह रहे थे -
दिल्ली का वह कॉफी हाऊस था ही ऐसी जगह जहां जुटने वाले साहित्यकारों के बीच आपसी रिश्तों में एक ऐसा अनोखा जुड़ाव था कि विष्णु प्रभाकर उसकी एक कड़ी हुआ करते। वे किसी भी टेबल पर हो सकते थे। एक ऐसी टेबल पर भी जहां उसी वक्त पहुंचा हुआ कोई कॉफी पीने की अपनी हुड़क को इसलिए नहीं दबाता था कि सबको पिलाने के लिए उसके पास प्ार्याप्त पैसे नहीं है। टेबल पर उसके समेत यदि छै लोग हों तो एक कप कॉफी और पांच गिलास पानी मंगाते हुए उसे हिचकना नहीं पड़ता था। वहीं कॉफी हाऊस के पानी को पी-पीकर उस दौर के युवा और आज के वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल, त्रिनेत्र जोशी और प्रभाति नौटियाल सरीखे उनके अभिन्न मित्र उस समय तक, जब तक कि किसी एक दिन का प्ार्याप्त भोजन जुटा पाना उनके लिए संभव नहीं हुआ था, अपने शरीर में उसी पानी की ऊर्जा को संचित करते थे। बाद में जब उन तीनों ही मित्रों का जे.एन.यू. में दाखिला हो गया हो गया और रहने ठहरने के साथ-साथ खाने का जुगाड़ भी तो पहले दिन छक कर खाना खा लेने के बाद वे तीनों ही बीमार पड़ गए। मोहन सिंह पैलेस, कॉफी हाऊस के अड्डे वालों को जब पता लगा कि बहुत दिनों से खाना न खा पाने के बाद ठीक से मिल गए खाने ने उन तीन युवाओं की तबियत बिगाड़ दी तो हंसी ठठों से कॉफी हाऊस गूंजने लगा। विष्णु प्रभाकर और भीष्म साहनी की हंसी के बुलबुले भी उठने लगे।
शब्दयोग के संपादक, कथाकार सुभाष पंत ने विष्णु प्रभाकर के रचनाकर्म पर विस्तार से बात करते हुए इस बात पर चिन्ता जाहिर की कि हिन्दी आलोचना की खेमेबाजी ने उनके रचनाकर्म पर कोई विशेष ध्यान न दिया।
वरिष्ठ कवियत्री कृष्णा खुराना ने शरत चंद की जीवनी आवारा मसिहा को विष्णु जी के रचनाकर्म का बेजोड़ काम कहा।
विष्णु प्रभाकर की कहानी धरती अब भी घूम रही है का पाठ इस मौके पर किया गया। गोष्ठी में डॉ जितेन्द भारती, गुरुदीप खुराना, नितिन, प्रेम साहिल आदि भी उपस्थित थे।

Sunday, January 4, 2009

संवेदना की मासिक बैठक जनवरी 2009

वर्ष 2009 की शुभकामनाओं और कथाकार जितेन ठाकुर के दिवंगत पिता को विनम्र श्रद्धांजली के साथ आज दिनांक 4/1/2009 को सम्पन्न हुई संवेदना की मासिक बैठक में कवि राजेश सकलानी ने अपनी नयी रचनाओं का पाठ किया जिन पर विस्तार से चर्चा हुई। कवि राजेश पाल ने भी अपनी ताजा रचनाएं सुनायी। अपने कथ्य में स्थानिकता को बयान करती राजेश पाल की कविता टिहरी की चिट्ठी ने निर्विवाद रुप से सभी को प्रभावित किया।
कथाकार डॉ जितेन्द्र भारती ने अपनी एक पुरानी कहानी लछमनिया, जिसे उन्होंने पहले मिली राय मश्विरों के अधार पर पुन: दुरस्त किया, का पाठ किया। मैंने भी अपनी ताजा कहानी फोल्डिंग दीवान पढ़ी। डॉ विद्या सिंह ने भी अपनी एक रचना का पाठ किया।
गोष्ठी में अन्य उपस्थितों में मुख्यरुप से कथाकार सुभाष पंत, मदन शर्मा, एस।पी सेमवाल, अशोक आनन्द, दिनेश चंद्र जोशी,, जयन्ती सिजवाली,, प्रेम साहिल, आदि रचनाकारों के अलावा सामाजिक कार्यकर्ता शकुन्तला, सुनील रावत और राजेन्द्र गुप्ता मौजूद थे।

गोष्ठी में पढ़ी गयी राजेश पाल की कविताएं यहां प्रकाशित की जा रही है।

राजेश पाल

टिहरी की चिट्ठी


दिन 8 जुलाई 2008
पोस्टमैन के हाथ में है
एक चिट्ठी
पता लिखा है-
राम प्रसाद नौटियाल
पुरानी मण्डी चौक
टिहरी

दुनियां में आज भी कितने लोग हैं
जो अपने पुराने दोस्तों को भी याद करते हैं
जिन्हें नहीं पता है
कि टिहरी का अब कोई पता नहीं है
और न ही पता है अब दोस्त का।


चादर

गड़रिये
सफर में
कन्धे पर चादर रखते हैं
धूप लगी तो - सिर पर बांध ली
ज्रुरत पड़ी तो - बिछा ली
नहाये तो
बदन पोछकर धेती बांध ली

दरअसल
बौहने पैर
बबूल के जंगल से गुजरते हुये
गड़रिये की जिन्दगी
और चादर में कोई फर्क नहीं है।

Tuesday, December 9, 2008

संवेदना देहरादून, मासिक गोष्ठी - दिसम्बर 2008

संवेदना की मासिक गोष्ठी की रिर्पोट आठवीं कक्षा में पढ़ने वाली पवि ने, हमारे द्वारा उपलब्ध करवायी गयीसूचनाओं के आधार पर लिखी है। जिसे ज्यों का त्यों, सिर्फ टाइप करके, प्रस्तुत किया जा रहा
पवि



देहरादून की साहित्यिक संस्था संवेदना हमेशा महीने के पहले रविवार को गोष्ठी आयोजित करती है। इस बार की दिसम्बर के पहले रविवार (7) को गोष्ठी आयोजित की। इसमें सभी कथाकर उपस्थित थे। इस बार की गोष्ठी को हिन्दी भवन पुस्तकालय में रखा गया। इसमें कथाकार सुभाष पंत जी,, सुरेश उनियाल जी,, दिनेश चंद्र जोशी जी,, नवीन नैथानी जी, विद्या सिंह जी,, प्रेम साहिल जी,, शकुंतला जी, मदन शर्मा जी आदि लोग उपस्थित थे। इस गोष्ठी में सुरेश उनियाल जी एवं सुभाष पंत जी ने अपने-अपने कहानी संग्रह से एक-एक कहानी पढ़ी। सुभाष पंत जी की कहानी का नाम एक का पहाड़ा था और सुरेश उनियाल जी कहानी का नाम बिल्ली था। मदन शर्मा जी ने एक संस्मरण पढ़ा और दिनेश चंद्र जोशी जी ने कविता पढ़ी।

Saturday, November 8, 2008

हिन्दी की वरिष्ठ कथाकार श्रीमती कुसुम चतुर्वेदी को विनम्र श्रद्धांजली

हिन्दी की वरिष्ठ कथाकार श्रीमती कुसुम चतुर्वेदी का लम्बी बिमारी के बाद 26 अक्टूबर 2008 को अखिल भारतीयआयुर्विज्ञान संस्थान में निधन हो गया। गत रविवार 2 नवम्बर 2008 को संवेदना की बैठक में देहरादून के रचनाकारों ने अपनी प्रिय लेखिका को याद करते हुए उन्हें विनम्र श्रद्धांजली दी। तकनीकी खराबियों के चलते रिपोर्ट समय से दे पाने का हमें खेद है।
जुलाई 2008 में प्रकाशित डॉ कुसुम चतुर्वेदी की कहानियों की पुस्तक मेला उठने से पहले में सम्मिलित कहानी उत्तरार्द्ध का पाठ इस अवसर पर किया गया और साथ ही उनकी रचनाओं का मूल्यांकन भी हुआ। उनकी रचनाओं में मनोवैज्ञानिक समझ और मनुष्य के आपसी संबंधों की सृजनात्मक पड़ताल के ब्योरे को चिन्हित करते हुए कवि राजेश सकलानी ने उनकी कहानी तीसरा यात्री और पड़ाव को इस संदर्भ में विशेषरुप से उललेख किया।
उपस्थितों में मुख्यरुप से कथाकार सुभाष पंत, मदन शर्मा, एस।पी सेमवाल, अशोक आनन्द, जितेन्द्र शर्मा, राजेश पाल, गुरुदीप खुराना, कृषणा खुराना, दिनेश चंद्र जोशी, जितेन ठाकुर, जयन्ती सिजवाली, अनिल शास्त्री आदि रचनाकारों के अलावा सामाजिक कार्यकर्ता जगदीश बाबला, डी सी मधववाल, राजन कपूर, शकुन्तला, लक्ष्मीभट्ट और डॉ कुसुम चतुर्वेदी की पुत्री
नीरजा चतुर्वेदी के साथ-साथ उनके परिवार के सदस्य बी बी चतुर्वेदी आदि मौजूद थे।

Sunday, October 5, 2008

संवेदना देहरादून, मासिक गोष्ठी-अक्टूबर २००८

और तभी जब वह उनके घेरे में सिर झुकाए चल रहा था एक लोकल आई और प्लेटफार्म पर भीड़ का रेला फैलगया। वह पस्त होने के बावजूद चौकन्ना था और वे अपने शिकार को दबोच लेने की लापरवाही की मस्ती में थे।उसने मौके का फायदा उठाया और उन्हें चकमा देकर भीड़ में गायब हो गया। वह छुपते-छुपाते पिछले गेट पर पहुंचा और पुलिस की शरण के लिए सड़को और लेनों में दौड़ने लगा। अगर यह दौड़ सुल्तानपुर के उसके फूहड़ गांवकी होती तो उसके साथ हमदर्दी में पूरा नहीं तो कमस्कम आधा गांव उसके साथ दौड़ रहा होता। मगर वह मुंबई की सड़कों पर दौड़ रहा था जहां सारी दौड़े वांछित और जन समर्थित हैं, चाहे वे हत्या करने के लिए हों अथवा हत्या से बचने के लिए---

शहर ने दौड़ में कोई दखल नहीं दिखाया। गलती शहर से नहीं, उससे हुई। वही उलटी दिशा में दौड़यह हैरानी की बात थी कि सड़कों की पैंतीस साल की पहचान पलक झपकते ही गायब हो गई थी। वह दौड़ रहा था। जैसे अन्जानी जगह दौड़ रहा हो। उसने विकटोरिया टर्मीनस को भी नहीं पहाचाना जिसकी दुनियाभर में एक मुकम्मिल पहचानहै। उसकी निगाह सिर्फ पुलिस चौकी ढूंढ रही थी।
आखिर उसने बेतहाशा दौड़ते हुए पुलिस चौकी ढूंढ ही ली।
"हजारों कबूतरों और समुद्र की उछाल खाती लहरों में। लहरों ने तुम्हें भिगोया। कबूतर तुम्हारे कंधों और आहलाद में फैली हथेलियों पर बैठे। शहर ने तुम्हारे आगमन का ऐसे उत्सव रचा था। तुमने भी इस शहर की शुभकामनाओं के लिए कबूतर उड़ाए थे--- और फिर पच्चीस साल बाद जब यह हमारी आत्मा में बस गया--- तो---" आगे के लफ्ज ठोस धातु के टुकड़ो में बदलकर महावीर के गले में फंस गए।

यह वरिष्ठ कथाकार सुभाष पंत की उस कहानी का हिस्सा है जो अभी अपने मुक्कमल स्वरुप को पाने की कार्रवाईयों से गुजर रही है। कथाकार सुभाष पंत की लिखी जा रही ताजा कहानी के अभी तक तैयार उस ड्राफ्ट का एक अंश जिसे संवेदना की मासिक गोष्ठी में आज शाम 5 अक्टूबर को पढ़ा गया। अंधराष्ट्रवाद के खिलाफ लिखी गई यह एक ऐसी कहानी है जिसमें घटनाओं का ताना बाना हाल के घटनाक्रमों को समेटता हुआ सा है। कहानी को गोष्ठी में उपस्थित अन्य रचनाकार साथियों एवं पाठकों द्वारा पसंद किया गया। विस्तृत विवेचना में कुछ सुझाव भी आये जिन्हें कथाकार सुभाष पंत अपने विवेक से यदि जरुरी समझेगें तो कहानी में शामिल करेगें। कथाकार सुभाष पंत की इस ताजा कहानी का शीर्षक है - अन्नाभाई का सलाम। इससे पूर्व डॉ विद्या सिंह ने भी एक कहानी पढ़ी।
दो अन्य कहानियां समय आभाव के कारण पढ़े जाने से वंचित रह गई। जिसमें डॉ जितेन्द्र भारती और कथाकार मदन शर्मा की कहानियां है। नवम्बर माह की गोष्ठी में उनके पाठ संभव होगें।

उपस्थितों में मुख्यरुप से कथाकार सुभाष पंत, मदन शर्मा, जितेन्द्र भारती,, प्रेम साहिल, एस.पी. सेमवाल सामाजिक कार्यकर्ता गीता गैरोला, पत्रकार भास्कर उप्रेती, कीर्ति सुन्दरियाल, पूजा सुनीता आदि मौजूद थे।

Thursday, September 25, 2008

एक खुरदरी सतह पर हाथ रखते हुए- तीन

संवेदना के बहाने देहरादून के साहित्यिक, सांस्कृतिक माहौल को पकड़ने की इस छोटी सी कोशिश को पाठकों का जो सहयोग मिल रहा है उसके लिए आभार।
संवेदना के गठन में जिन वरिष्ठ रचनाकरों की भूमिका रही, कथाकार सुरेश उनियाल उनमें से एक रहे। बल्कि कहूं कि उन गिने चुने महत्वपूर्ण व्यक्तियों में से हैं जो आज भी संवेदना के साथ जुड़े हैं तो ज्यादा ठीक होगा। देहरादून उनका जनपद है। हर वर्ष लगभग दो माह वे देहरादून में बिताते ही हैं। संवेदना की गोष्ठियों में उस वक्त उनकी जीवन्त उपस्थिति होती है। ऐसी कि उसके आधार पर ही हम कल्पना कर सकते हैं कि अपने युवापन के दौर में वे कैसे सक्रिय रहे होगें।
हमारे आग्रह पर उन्होंने संवेदना के उन आरम्भिक दिनों को दर्ज किया है जिसे मात्र किस्सों में सुना होने की वजह से हमारे द्वारा दर्ज करने में तथ्यात्मक गलती हो ही सकती थी। आदरणीय भाई सुरेश उनियाल जी का शाब्दिक आभार व्यक्त करने की कोई औपचारिकता नहीं करना चाहते। बल्कि आग्रह करना चाहते हैं कि उनकी स्मृतियों में अभी भी बहुत से जो ऐसे किस्से हैं उन्हें वे अवश्य लिखेगें।

देहरादून की साहित्यिक संस्था संवेदना के बहाने लिखा जा रहा गल्प आगे भी जारी रहेगा। अभी तक जो कुछ दर्ज है उसे यहां पढ सकते हैं ः-
एक खुरदरी सतह पर हाथ रखते हुए
एक खुरदरी सतह पर हाथ रखते हुए- दो




एक सपने की जन्मगाथा

सुरेश उनियाल
sureshuniyal4@gmail.com


प्यारे भाई विजय गौड़,
संवेदना की यादों को लेकर तुम आज चाहते हो कि मैं कुछ लिखूं। वे यादें भीतर कहीं गहरे में दबी हैं। उन्हें बाहर लाना मेरे लिए काफी तकलीफदेह हो रहा है। क्या इतना ही जानना काफी नहीं है कि यह देहरादून में साहित्य के उन दिनों की धरोहर है जब वह पीड़ी अपने लेखन के शुरुआती दौर से गुजर रही थी जो आज साठ के आसपास उम्र की है। आज उनमें से बहुत से साथी हमारे बीच नहीं हैं, (दिवंगत मित्रों में अवधेश और देशबंधु के नाम विशेष रूप से लेना चाहूंगा। अवधेश बहुत अच्छा कवि और कहानीकार था लेकिन उसकी दिलचस्पी इतने ज्यादा क्षेत्रों में थी कि इनके लिए उसके पास ज्यादा समय नहीं रहा। उसकी कुछ कविताएं अज्ञेय ने अपने अल्पचर्चित चौथे सप्तक में ली थीं। देशबंधु की मौत संदेहास्पद परिस्थितयों में हुई। शादी की अगली सुबह ही उसका शव पास के शहर डाकपत्थर की नहर में पाया गया था।) कुछ देहरादून में नहीं है (मैं उनमें से एक हूं, जो अब दिल्ली में रिटायर्ड जीवन बिता रहा हूं, देहरादून वापस आने के लिए बेताब हूं लेकिन हालात बन नहीं पा रहे हैं, मनमोहन चड्ढा पुणे में है और लगभग इसी तरह की मानसिक स्थिति में है।) कुछ देहरादून में रहते हुए भी जीवन के दूसरे संघर्षों से उलझते हुए लिखने से किनारा कर चुके हैं। और बहुत थोड़े से उन साथियों में से एक सुभाष पंत हैं जो हम सबके मुकाबले ज्यादा तेजी से अपने लेखन में जुड़े हैं। यह मैं याद नहीं कर पा रहा हूं कि गुरदीप खुराना उन दिनों तक देहरादून लौट आए थे या नहीं। क्योंकि अगर लौट आए थे तो वह भी संवेदना के जन्मदाताओं में से रहे होंगे। वह भी इन दिनों खूब लिख रहे हैं।
संवेदना ने उस दौर में कुछ उन पुराने लेखकों की संस्था साहित्य संसद के प्रति विद्रोह के फलस्वरूप जन्म लिया था। देहरादून के हमारे पुराने साथियों को याद होगा कि उन दिनों साहित्य संसद में हम नौजवान लेखकों को बहुत सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता था। ऐसे ही कुछ अखाड़ेबाज मित्र हमारी रचनाओं को उखाड़ने की कोशिश में रहते थे।
संवेदना के जन्म का बीज मेरे खयाल से सबसे पहले अवधेश के दिमाग में अंकुरित हुआ। अवधेश और देशबंधु की जोड़ी थी। मैं और मनमोहन चड्ढा इन दोनों के मुकाबले साहित्य संसद में कुछ नए थे और उन दोनों के शौक भी हमसे अलग थे इसलिए हम बहुत करीब कभी नहीं आ सके थे। लेकिन साहित्य संसद की बैठकों में हम चारों का दर्जा लगभग एक समान था और वहां हम चारों मिलकर ही पुराने दिग्गजों से भिड़ते थे। यह बात 1969-70 के आसपास की होगी।
1971 में सारिका के नवलेखन अंक में अवधेश की कहानी छपी थी। यह बहुत बड़ी बात थी। सारिका में छपना हम लोगों के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि माना जाता था। अवधेश तब बी।ए। कर रहा था, मैंने बेरोगारी की बोरियत दूर करने के लिए हिंदी से एम।ए। में एड्मिशन ले लिया था। मनमोहन भी वहीं अर्थशास्त्र से एम।ए। कर रहा था। 1972 में डीएवी कॉलेज में अवधेश एम।ए। (हिंदी) के पहले साल में आ गया था। एक दिन उसने मेरा परिचय सुभाष पंत नाम के एक लेखक से करवाया जिसकी कहानी फरवरी में सारिका में छपी थी और कमलेश्वर से जिसका व्यक्तिगत पत्रव्यवहार था। उसी दिन सुभाषं पंत के साथ शाम को डिलाइट में जमावड़ा हुआ और सुभाष की दो कहानियां और सुनी गईं। उस संक्षिप्त मुलाकात में ही सुभाष की हम सब पर धाक जम चुकी थी। सुभाष पंत एक ऐसा नाम बन गया था जिसके दम पर साहित्य संसद से टर ली जा सकती थी।
इस बीच अवधेश और देशबंधु ने संवेदना की योजना बनाई। इसके पांच प्रमुख लोगों में इन दोनों के अलावा सुभाष पंत को तो होना ही था, नवीन नौटियाल को भी शामिल किया गया। दरअसल नवीन के पिता का इंडियन आर्ट स्टूडियो घंटाघर के बिल्कुल पास राजपुर रोड पर था और नवीन के पिता शिवानंद नौटियालजी ने उसके पीछे वाले कमरे में में गोष्ठी करने की अनुमति दे दी थी। (नौटियाल जी के बारे में बहुत कुछ लिखने को है लेकिन वह मैं फिर कभी लिखूंगा, यहां इतना बताना मौजूं होगा कि वह किसी जमाने में एम.एन. राय के करीबी साथियों में से थे और उनके द्वारा शुरू की गई संस्था रेडिकल ह्यूमनिस्ट के सक्रिय लोगों में से थे। वे बहुत अच्छे फोटोग्राफर थे और उनके द्वारा खींचे गए निराला, पंत सहित साहित्य की कई बड़ी हस्तियों के दुर्लभ फोटो एक बड़ा संकलन उनके पास था।) पांचवें सदस्य संभवत: गुरदीप खुराना ही थे या नहीं, यह मुझे ठीक से याद नहीं आ रहा है। इतना जरूर तय है कि मुझे और मनमोहन को इस योजना से पूरी तरह अलग रखा गया था।
यह संभव ही नहीं था कि हम लोगों को इसकी खबर न होती। देहरादून तब छोटा सा शहर था, एक कोने से दूसरे कोने तक पैदल भी चलें तो एक घंटे से ज्यादा समय न लगे। संभवत: सुभाष पंत के मुंह से किसी चर्चा के दौरान निकल गया। हम लोगों की लगभग रोज ही मुलाकात हुआ करती थी। अड्डा होता था डिलाइट। फिर कभी-कभार टिप-टॉप या अल फिएस्ता में भी जम जाया करते थे। ये कुछ गिने चुने अड्डे ही होते थे।
संवेदना की शुरुआत किस दिन हुई तारीख अब याद नहीं है। इतना जरूर है कि जब वह दिन नजदीक आने लगा तब तक मैं और मनमोहन अपनी पहल पर इस योजना में कूद पड़े थे और अचानक ऐसा होने लगा कि कई बार अवधेश और बंधु तो मच्छी बाज़ार पहुंचे होते और हम दोनों समेत बाकी लोग सलाह-मशविरे में शामिल होते।
हमें लगा था कि छोटे से शहर में जहां थोड़े से लोग लेखन से जुड़े थे, कुछ को छोड़कर किसी तरह का आयोजन करना उचित नहीं होगा। कुछ लोग न आएं, यह बात अलग है लेकिन बुलावा सभी को भेजा जाए। वरना ऐसा न हो कि इतनी तैयारियों के बाद गिने-चुने लोग ही वहां हों। अब तक हम संवेदना के अनिवार्य अंग बन चुके थे।
गोष्ठी आशातीत रूप से सफल रही। चालीस से अधिक लोग आए थे जबकि साहित्य संसद की गोष्ठियों में उपस्थिति दस के आसपास ही रहती थी। और मजे की बात यह है कि इसमें बहुत से वे लोग भी आए थे जो जिन तक सूचना नहीं पहुंच पाई थी लेकिन उन्हें इसकी जानकारी मिल गई थी। सभी लिखते नहीं थे लेकिन वे भी पाठक बहुत अच्छे थे और उनके द्वारा की गई किसी भी रचना की आलोचना लेखक को सोचने के लिए ज्यादा बड़ा फलक देती थी।
यह सिलसिला चल निकला और हर महीने संवेदना की गोष्ठियां इतने ही बड़े जमावड़े के साथ होने लगीं। साहित्य संसद की गोष्ठियां भी बदस्तूर चलती रहीं और हम लोग उनमें भी जाते रहे। हमारे लिए संवेदना संसद की प्रतिद्वंद्वी संस्था न होकर, सहयोगी संस्था थी।
देहरादून ऐसी जगह थी जहां गाहे-बगाहे दिल्ली और दूसरी जगहों से भी लेखक आया करते थे। हमें इसकी खबर मिलती तो हम उन्हें संवेदना में आने के लिए आमंत्रित जरूर करते। एक बात हम उनसे जरूर कहते कि और जगहों पर आपको आपकी रचनाएं सुनाने के लिए बुलाया जाता है, हम आपको इसलिए बुला रहे हैं कि आप हमारी रचनाएं सुनें और एक अग्रज लेखक होने के नाते हमें सलाह दें। एक बार भारत भूषण अग्रवाल आए थे तो उन्हें भी आमंत्रित किया गया। नियत दिन किसी गफलत में उन्हें लेने के लिए कोई साथी न जा सका। अभी यह सोच-विचार ही हो रहा था कि कौन जाएगा कि बाहर एक थ्रीवीलर से उतरते भारतजी दिखाई दे गए।
इस तरह की बहुत सी यादें हैं। मैं 1973 में देहरादून छोड़कर दिल्ली आ गया था लेकिन देहरादून जाना होता रहा। गर्मियों की छुट्टियां देहरादून में ही बीतती थीं। बीच बीच में जब देहरादून आना होता तो कार्यक्रम कुछ इस तरह से बनाता कि पहला रविवार इसमें आ जाए और संवेदना की गोष्ठी में शामिल हुआ जा सके।
मुझे खुशी है कि जिस संस्था की प्रसव पीड़ा से गुजरने वालों में से मैं भी एक हूं, वह आज 36 साल बाद भी नियमित रूप से गोष्ठियां कर रही है। उम्मीद है कि यह इतने साल और चलेगी और उसके बाद भी चलती रहेगी। आमीन!


Wednesday, September 24, 2008

एक खुरदरी सतह पर हाथ रखते हुए- दो

देहरादून की साहित्यिक संस्था संवेदना के बारे में सिलसिलेवार लिखे जा रहे गल्प की यह दूसरी कड़ी है। पहली कडी यहां पढ सकते हैं।


विजय गौड

रसायन विज्ञान पढ़ लेने के बाद सुभाष पंत एफ। आर। आई। में नौकरी करने लगे थे। विज्ञान के छात्र सुभाष पंत का साहित्य से वैसा नाता तो क्यों होना था भला जो जुनून की हद तक हो। पर जीवन के संघर्ष और सामाजिक स्थितियों की जटिलता को समझने में पढ़ा गया विज्ञान मद्दगार साबित न हो रहा था। समाज के बारे में सोचने समझने की बीमारी ने साहित्य के प्रति उनका रुझान पैदा कर दिया। जनपद में साहित्य लिखने और पढ़ने वालों से उनका वैसा वास्ता न था। स्वभाव से संकोची होने के कारण भी खुद को लेखक के रूप में जाहिर न होने देने की प्रव्रत्ति मौजूद ही थी। जिसके चलते भी दूसरे लिखने वालों को जानना सुभाष पंत के लिए संभव न था।
नवीन नौटियाल, सुरेश उनियाल, अवधेश और मनमोहन चडढा सरीखे नौजवान सक्रिय लोगों में से थे। लिखते भी थे और बहस भी करते थे। बहस के लिए अडडेबाजी भी जरुरी थी। बुजुर्ग पीढ़ी में लेखक और चर्चित फोटोग्राफर ब्रहम देव साहित्य संसद नाम की संस्था चलाते थे। भटनागर जी, मदन शर्मा, गुरुदीप खुराना, शशि प्रभा शास्त्री, कुसुम चतुर्वेदी आदि साहित्य संसद के सक्रिय रचनाकारों में रहे।
नये नये लेखक सुभाष पंत के सामने दोनों रास्ते खुले थे कि वे साहित्य संसद में जाएं या फिर स्वतंत्र किस्म के अडडेबाजों के बीच उठे-बैठे। साहित्य संसद में एक तरह का ठंडापन वे महसूस करते थे जबकि स्वतंत्र किस्म के वे लिक्खाड़ जो अडडेबाज, शहर की हर गतिविधि में अपनी जीवन्तता के साथ मौजूद रहते। सुभाष पंत अपने ऊपरी दिखावे से बेशक ठंडेपन की तासीर वाले दिखते रहे पर उनको भीतर से उछालता जोश उन्हें अडडेबाजों के पास ही ले जा सकता था। यह अलग बात है कि अपने संकोच के चलते बेशक वे खुद पहल करने से हिचकिचाते रहे। लेकिन चुपचाप अपने लेखनकर्म में आखिर कब तक खामोश से बने रहते। सारिका को भेजी गयी कहानी, गाय का दूध   पर संपादक कमलेश्वर की चिटठी उन्हें एक हद तक आत्मविश्वास से भरने में सहायक हुई। बहुत चुपके से चिट्ठी को पेंट की जेब में बहुत भीतर तक तह लगाकर रख लिया और डिलाईट की धडकती बैठक में जा धमके - जहां वे लिक्खाड़, जो शहर की आबो हवा पर बहस मुबाहिसे में जुटे स्वतंत्र किस्म के विचारक थे, मौजूद थे - डिलाईट रेस्टोरेंट।
समाजवादियों का अड्डा था डिलाईट जहां शहर के समाजवादी मौजूद रहते थे। डिलाईट की जीवन्त्ता उन्हीं अडडे बाजों के कारण थी। जीवन्तता ही क्यों, डिलाईट था ही उनका। वे न होते तो उस सीधे साधे से व्यक्ति किशन दाई (किशन पाण्डे)की क्या बिसात होती जो शहर के बीचों बीच अपनी दुकान खोल पाता। वह तो नेपाल से आया एक छोकरा ही था जो खन्ना चाय वाले के यहां काम करता था। वही खन्ना चाय वाले जिनकी दुकान घंटाघर के ठीक सामने होती थी। वहीं, जहां आज तमाम आधुनिक किस्म के सामनों से चमचमाती दुकाने मौजूद हैं।
एक छोटी सी चाय की दुकान जिसमें उस दौर के तमाम अडडे बाज, जिनमें ज्यादातर समाजवादी होते, बैठते थे। समाजवादी कार्यकर्ता सुरेन्द्र मोहन हो, भूतपूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर या कोई भी अन्य, यदि वे शहर में हों तो तय होता कि वे भी उस टीन की छत के नीचे देहरादून शहर में अपने साथियों के साथ घिरे बैठे होते।
जमाने भर के बातों की ऊष्मा से केतली बिना चूल्हे पर चढे हुए भी पानी को खौला रही होती। माचिस की डिब्बी को उंगलियों के प्रहार से कभी इस करवट तो कभी उस करवट उछालने में माहिर वे युवा, जिनके लिए बातचीत में बना रहना संभव न हो रहा होता, बहस को बिखेरने का असफल प्रयास कर रहे होते। क्योंकि बहस होती कि थमती ही नहीं। हां माचिस का खेल रुक जा रहा होता। संभवत: चाय वाले खन्ना भी समाजवादी ही रहे हों पर इस बात का कोई ठोस सबूत मेरे पास नहीं। मैं तो अनुमान भर मार रहा हूं । उनकी बातचीत के विषय ऐसे होते कि किशन दाई उन्हें गम्भीरता से सुनता। धीरे धीरे चुनाव निशान झोपड़ी उसे अपना लगने लगा था। घंटाघर के आस-पास की सड़क को चौड़ा करने की सरकारी योजना के चलते दुकान को उखाड़ दिया गया। वहां बैठने वाले सारे के सारे वे अडडेबात जो अपने अपने तरह से शहर में अपनी उपस्थिति के साथ थे, बेघर से हो गये। ऎसे में वे चुप कैसे रहते भला। किशनदाई का रोजगार छिन रहा था। खन्ना जी तो कुछ और करने की स्थिति में हों भी पर किशन के सामने तो सीधा संकट था रोजी रोटी का। संकट अडडेबाजों के लिए भी था कि कहां जाऐं ?
डिलाईट के निर्माण की कथा यदि कथाकार सुरेश उनियाल जी के मुंह से सुने तो शायद उस इतिहास को ठीक ठीक जान सकते हैं। अपनी जवानी के उस दौर में वे जोश और गुस्से से भरे युवा थे। डिलाईट का किस्सा तो मैंने भी एक रोज उनके मुंह से ही सुना। सिर्फ सुनता रहा उनको - डिलाईट चाय की ऐसी दुकान थी जिसका नामकरण भी उस दुकान में बैठने वाले उस दौर के युवाओं ने किया था। वे युवा जमाने की हवा की रंगत जिनकी बातों के निशाने में होती थी। जो दुनिया की तकलीफों को देखकर क्षुब्ध होते थे तो कभी धरने, प्रदर्शन और जुलूस निकालते थे तो कभी ऐसे ही किसी वाकये को अपनी कलम से दर्ज कर रहे होते थे। चाय वाला एक सीधा-सच्चा सा बुजुर्ग था जो अपने परिवार के भरण पोषण के लिए दिन भर केतली चढाये रहता। चाय पहुंचाने के लिए जिसे कभी इस दुकान में दौड़ना होता तो कभी उस दुकान में। फिर दूसरे ही क्षण आ गये आर्डर की चाय पहुंचाने के लिए उस दुकान तक भाग कर जाना होता जहां पहले पहुंचायी गयी चाय के बर्तन फंसे होते। जिस वक्त वह ऐसे ही दौड़ रहा होता वे युवा दुकान के आर्डर संभाल रहे होते।
उसी डिलाईट में पहुंचे थे नये उभरते हुए कथाकार सुभाष पंत। कमलेश्वर जी का पत्र उनकी जेब में था।

--- जारी

Saturday, September 13, 2008

एक खुरदरी सतह पर हाथ रखते हुए

देहरादून की साहित्यिक संस्था संवेदना के बारे में कुछ सिलसिलेवार लिखने का मन है।

विजय गौड


संवेदना का झीना परदा हटाते हुए दिखायी देती उस दीवार के रंग को छुओ, जो इतिहास की किताबों में दर्ज नहीं, तो उसकी खुरदरी सतह पर जिन उंगलियों के निशान दिखायी देगें, उनमें न सिर्फ देहरादून के साहित्य जगत का अक्स होगा बल्कि हिन्दी साहित्य में अपनी उपस्थिति के साथ दर्ज आप कुछ ऐसे साथियों को पायेगें जिन्हें जब भी पढ़ेगें तो एक बहुत सुरीली सी आवाज में सरसराता चीड़ के पेड़ों का संगीत शायद सुन पायें। यह अपने जनपद से लगाव के कारण अतिरिक्त कथन, कतई नहीं है।

पिछले 20 वर्षों से माह के प्रथम रविवार को होने वाली बैठक संवेदना का स्थायी भाव है। यूं संवेदना के गठन को चीन्हते हुए उसकी उम्र का हिसाब जोड़े तो कुछ ऐसे ब्यौरों को खंगालना होगा जो अपने साथ देहरादून के इतिहास की अडडेबाजी के शुरुआती दौर का इतिहास बेशक न हो पर उस जैसा ही कुछ होगा। डिलाईट जो आज तमाम खदबदाते लोगों का अडडा है, संवेदना के गठन के उन आरंम्भिक दिनों की शुरुआत ही है। संवेदना के इतिहास को जानना चाहूं तो डिलाईट जा कर नहीं जान सकता। डिलाईट में बैठने वाले वे जो अडडे बाज हैं, दुनियावी हलचलों के साथ है, साहित्य उन्हें बौद्धिक जुगाली जैसा ही कुछ लगता है। हां, देहरादून के राजनैतिक इतिहास और समकालीन राजनीति पर बातचीत करनी हो तो जितनी विश्वसनीय जानकारी उन अडडे बाजों के पास हो सकती है वैसी किसी दूसरे पर नहीं। तो फिर संवेदना के इतिहास के बारे में किससे पूछूं ?
कोई होगा, कहेगा कि उस वक्त जब देश बंधु जीवित था। देश बंधु को नहीं जानते! उसे आश्चर्य होगा देशबंधु के बारे में आपके पास कोई जानकारी नहीं।
अरे! वह एक युवा कहानीकार था। बहुत कम उम्र में ही चला गया। अवधेश कुमार चौथे सप्तक के कवि थे पर वे भी शायद उसके बाद ही चौथे सप्तक के रुप में जाने गये। देश बंधु और अवधेश में से कौन पहले छपने लगा था - इस पर कोई विवाद नहीं पर इस बात को स्पष्ट करने वाला कोई न कोई आपको या तो संवेदना में मिल जायेगा या डी लाईट में नही तो देहरादून रंगकर्मियों के बीच तो होगा ही।

संवेदना का इतिहास लिखना चाहूं तो बिना किसी से पूछे बगैर नहीं लिख सकता। पर पूछूं किससे ? फिर कौन है जो दर्ज न हो पाये इतिहस को तिथि दर तिथि ही बता पाये। पिछले बीस सालों का विवरण तो रजिस्टरों में दर्ज है। पर उससे पहले ! इतिहास लिखना मेरा उद्देश्य भी नहीं। यह तो एक गल्प है जो सुनी गयी,देखी और जी गई बातों के ब्यौरे से है। बातों के सिलसिले में ढूंढ पाया हूं कि 1972-73 के आस पास गठित संवेदना और उसकी बैठके 1975-76 के आस पास कथाकार सुभाष पंत के अस्वस्थ होकर सेनोटोरियम में चले जाने के बाद जारी न रह पायीं। देहरादून के लिक्खाड़ सुरेश उनियाल, धीरेन्द्र अस्थाना भी रोजी रोटी के जुगाड़ में देहरादून छोड़ चुके थे। नवीन नौटियाल की सक्रियता पत्रकारिता में बढ़ती गयी थी। अवधेश कुमार कविताऐं लिखने के साथ-साथ नाटकों की दुनिया में ज्यादा समय देने लगे थे।
उस दौर के कला साहित्य और सामाजिक परिवर्तन के संघर्ष से जुडे किसी बुजुर्गवार से पूछूं तो कहेगा कि संवेदना का गठन उस वक्त हुआ था जब देश बंधु मौजूद था। नहीं यार, देशबंधु तो बहुत बाद में कहानीकार कहलाया। "दूध का दाम" सुभाष पंत की पहली कहानी थी जो सारिका में छप चुकी थी। कहानी की स्वीकृति पर कथाकार कमलेश्वर जी के पत्र को लेकर जब वे डिलाईट में पहुंचे थे तो शहर के लिक्खाड़ नवीन नौटियाल, सुरेश उनियाल, अवधेश कुमार उस पत्र को देखकर चौंके थे। एक दोस्ताना प्रतिद्वंदिता ने उन्हें जकड़ लिया था। वे स्थापित लेखक थे। हर अर्थ में लेखक होने की शर्त को पूरा करते हुए। वे अडडेबाज थे। घंटों-घंटों 23 नम्बर की चाय पीते हुए दुनिया जहान के विषयों से टकरा सकते थे। समकालीन लेखन से अपने को ताजा बनाये रखते थे। शहर के लिखने, पढ़ने और दूसरे ऐसे ही कामों में जुटे सामाजिक कार्यकर्ताओं से उनका दोस्ताना था। जबकि सुभाष पंत तो एक गुडडी-गुडडी बाबू मोशाय थे। सरकारी मुलाजिम भी। लेखक बनने की संभावना अपनी गृहस्थी और दूसरी घरेलू जिम्मेदारियों के साथ निभाते हुए। ऐसे शख्स से वे युवा लिक्खाड़ पहले परिचित ही न थे। तो चौंकना तो स्वाभाविक था। क्यों कि वह गुडडी-गुडडी सा शख्स उन्हें उस सम्पादक का खत दिखा रहा था जिसमें प्रकाशित होने की आस संजायें वे भी तो लिख रहे थे।




---जारी

Monday, September 8, 2008

संवेदना देहरादून, मासिक गोष्ठी - सितम्बर 2008



दिनांक 7।8।2008 को हिन्दी भवन, देहरादून के पुस्तकालय में सम्पन्न हुई संवेदना की मासिक गोष्ठी में हाल ही में दिवंगत हुए कवि वेणु गोपाल का स्मरण करते हुए देहरादून के रचनाकारों ने उनके कृतित्व और उनके व्यक्तित्व के संबंध में चर्चा की। कथाकार सुभाष पंत ने हिन्दी में क्रांतिकारी धारा के कवि वेणु गोपाल की इस विशेषता को याद को याद किया कि वेणु गोपाल ने अपने ही सरीखे समकालीन कवियों के साथ हिन्दी कविता को अकविता से कविता की ओर लौटाया है। क्रांतिकारी राजनैतिक आंदोलन के बीच कवि वेणु गोपाल की सकारत्मक उपस्थिति भी रचनाकारों की बातचीत को हिस्सा रही। गोष्ठी में उपस्थित कथाकार दिनेश चंद्र जोशी, मदन शर्मा, एस0पी0सेमवाल, विद्या सिंह नवीन नैथानी कवि प्रेम साहिल, जयंति सिजवाली, डॉ अतुल शर्मा, राजेश पाल,रामभरत पत्रकार सुनीता, कीर्ति सुन्द्रियाल के अलावा पुनीत कोहली, विजय गौड़ आदि ने चर्चा मे हिस्सेदारी की। प्रेम साहिल, जयंति सिजवाली, मदन शर्मा एवं दिनेश चंद्र जोशी ने अपनी रचनाओं के पाठ किए।

Sunday, June 1, 2008

संवेदना की मासिक गोष्ठी

(देहरादून १ जून २००८)
संवेदना की मासिक गोष्ठी, जो हर माह के पहले रविवार को होती है, में आज काफी अच्छी उपस्थिति रही। उपस्थितों में मुख्यरुप से कथाकार विद्यासागर नौटियालए सुभाष पंत, कुसुम भटट, गुरुदीप खुराना, जितेन्द्र शर्मा, जितेन ठाकुर, दिनेश चंद्र जोशी, मदन शर्मा, जितेन्द्र भारती, कवि लीलाधर जगूड़ी, राजेश सकलानी, प्रेम साहिल, राजेश पाल, प्रमोद सहाय, जयंति सिजवाली, कृष्णा खुराना आदि रचनाकारों के अलावा साहित्य के शुद्ध रुप से पाठक सी एन मिश्रा, राजेन्द्र गुप्ता, शकुन्तला, गीता गैरोला, वेद आहलूवालिया आदि मौजूद थे।
गोष्ठी जितेन ठाकुर के हाल ही में प्रकाशित उपन्यास उड़ान पर केन्द्रित थी। चर्चा के आरम्भ में दो लिखित पर्चे प्रस्तूत हुए। शशिभूषण बड़ूनी, जो किन्हीं कारणों से स्वंय उस्थित नहीं हो पाये, ने अपनी राय पर्चे के रुप में लिख कर भेजी, जिसका पाठ किया गया। दूसरा पर्चा दिनेश चंद्र जोशी का था।
चर्चा से पूर्व उड़ान के एक अंश का पाठ किया हुआ। दोनों ही पर्चों ने बहस को पूरी तरह से खोल दिया था जिसमें उपन्यास के पात्रों से लेकर, भाषा-शिल्प और कथानक तक के ब्यौरे ने सभी को चर्चा में शामिल कर लिया। यूं उपस्थितों में ज्यादातर उपन्यास को पहले ही पढ़ चुके थे। पर जिन्होंने उपन्यास नहीं पढ़ा था, वे भी इस विस्तृत चर्चा में हिस्सेदारी करते हुए उपन्यास से एक हद तक परिचित हो गये।
समकालीन रचना जगत में जितेन जमकर लिखने वाले और उसी रुप में पढ़े जाने वाले एक महत्वपूर्ण कथाकार हैं। उड़ान के मार्फत हुई चर्चा में जहां उनकी इस खूबी को चिन्हित किया गया वहीं उनके रचना संसार के ऐसे कमजोर पक्ष भी आलोचना के केन्द्र में रहे जिनके मार्फत उड़ान की प्रासंगिकता पर भी विचार किया जा सका।