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Sunday, June 12, 2011

सपने में भी जागने का आग्रह


रोहित जोशी 

 सपने में खुद से संवाद होता है। जापानी फिल्मकार 'अकीरा कुरूशावा' की लघु
फिल्मों की एक सीरीज ‘ड्रीम्स्‘ भी यूं ही संवाद करती है। यह संवाद एक ओर
निर्देशक का खुद से है तो वहीं दूसरी ओर यह संवाद उसके समय का भी स्वयं
से है, जिसके केन्द्र में मानवता के विमर्श की चुनौतियां हैं। सही अर्थों
में यह फिल्म श्रृंखला यहीं पर सबसे अधिक सफल है। 10-20 मिनट की कुल
छोटी-छोटी 8 फिल्मों में निर्देशक ने एक सपने का सा अहसास लगातार बनाकर
रखा है। लेकिन इन सपनों में ‘जागने’ का आग्रह भी निरन्तर मिलता है।
‘क्रोज़’ के अतिरिक्त अन्य फिल्मों में जापानी पृष्ठभूमि पर ही फिल्मांकन
है। दूसरे विश्वयुद्ध की विभीषिका से अब तक न उबर पाऐ जापानी समाज की
युद्ध के प्रति घृणा फिल्मों में बार बार उभर कर आती है। ‘माउण्ट फ्यूजी
इन रेड’,‘द टनल’ और ‘द वीपिंग डिमोन’ रासायनिक हथियारों के दुष्परिणाम को
चित्रित करते हुए सहज मानवीय संवेदनाओं को स्पन्दित कर युद्ध के खिलाफ
खड़ी होती हैं। ‘द ब्लिजार्ड’ फिल्म प्रकृति पर मानव की निरन्तर विजय की
कहानी को आगे बढ़ाती है। बर्फीले तूफान में फंसे कुछ पर्वतारोहियों के दल
का मृत्यु पर जिजिविषा के दम पर विजय पा लेना फिल्म की मूल कहानी है।
फिल्म में छिटपुट संवाद है।
‘सन साइन थ्रू द रेन’ जापान की किसी लोक कथा पर आधारित फिल्म है। यह
फिल्म मेरे लिए इसलिए भी रोचक है कि यह लोक कथा जापान से कई दूर मेरे
अंचल ‘कुमाऊॅ’ में भी इसी रूप में प्रचलित है। फिल्म की कहानी का आधार
लोक मान्यता के अनुसार यह है कि रिमझिम बरसात और धूप जब एक साथ निकलते
हैं तो लोमड़ियों की शादी होती है। यहां ऐसे ही एक मौसम में एक बच्चे को
लेकर कहानी चलती है जिसकी मां ने उसे डराया हुआ है कि जंगल में अभी
लोमड़ियों की शादी हो रही होगी इसे देखना ख़तरनाक है। लोमड़ियां इससे
नाराज होती हैं। बच्चे का बच्चा होना उसे जंगल की ओर धकेल देता है। कहानी
का खूबसूरत फिल्मांकन है और जंगल के दृश्य में जिन रंगों को फिल्मकार ने
पकड़ा है वह अद्भुत् हैं।
‘विलेज आफ वाटर मिल्स्’ विकास के वर्तमान ढ़ाचे पर सवाल उठाती फिल्म है।
जहां आवश्यकता उत्पादन के आधार पर तय की जा रही है। यह एक खूबसूरत गांव
है। जहां हरे भरे जंगल के बीच बहती शांत छोेटी नदी के बीच कुछ पनचक्कियां
लगी हुई हैं। पर्याप्त दूरी पर घर हैं। एक गांव से बाहर का युवक गांव को
देखकर लगभग चकित सा गांव में घूम रहा है। वह गांव में घूमता हुआ एक घर
में एक वृद्ध से मिलता है और गांव के बारे में पूछता है। वृद्ध और युवक
के बीच में हुआ यह संवाद, वर्तमान समय तक हो चुके हमारे विकास की समीक्षा
कर देता है और विकास के वर्तमान ढ़ांचे से दर्शक के मन में असंतुष्टि
पैदा करता है।
सीरीज की अगली फिल्म ‘क्रोज़’ है। यह अकीरो कुरूशावा की वह फिल्म है जो
उन्हें उनके निर्देशन और फिल्म कला की समझ के लिए सलामी देती प्रतीत होती
है। यह फिल्म महान चित्रकार विन्सेन्ट वान गॉग के जीवन पर आधारित है।
सिर्फ दस मिनट और पन्द्रह सेकन्ड की इस फिल्म में वॉन गॉग सामने आ उतरते
हैं। कहानी वान गॉग की आर्ट गैलेरी से शुरू होती है जहां एक नया चित्रकार
उनके चित्र देख रहा है। वह चित्रों में जा उतरता है। फिर चित्रकार को उसी
के चित्रों में खोजते-खोजते गेहूं के उन खेतों में जा पहुंचता है जो
वानगॉग ने खूब चित्रित किए हैं। वहां वह वान गॉग से मिलता है। एक छोटा
संवाद है जो वान गॉग की आत्म कथा से प्रेरित है। आखिरी दृश्य में ढेर
सारे कौवों का गेहूं के खेत में से उड़ने का वही दृश्य चित्रित किया गया
है जो वान गॉग की आखिरी पेंटिंग है। यह फिल्म संभवतः इसलिए महान बन पाई
है कि कुरूशावा खुद भी एक चित्रकार रहे हैं। वे टोकियो फाइन आर्ट कालेज
के विद्यार्थी रहे हैं और वान गॉग से बहुत प्रभावित भी।
‘ड्रीम्स्‘ सीरीज की यह फिल्में विश्व सिनेमा के एक पूरे अध्याय की तरह
हैं। जिसे सिनेमा के विद्यार्थियों को जरूर पढ़ना चाहिए।