Showing posts with label बहस. Show all posts
Showing posts with label बहस. Show all posts

Friday, July 1, 2022

द्वंदात्मकता ही वैज्ञानिकता है

    

अवैज्ञानिकता के कारण चारों ओर फैली सामाजिक अफरातफरी, राजनैतिकअराजकता, व्‍यवहारिक झूठ, अंधविश्‍वास, हिंसकता, आत्‍ममुग्‍धता, अहंकार, लोभ-लालच आदि सेहर वक्‍ त बेचैन रहने वाले एवं ऐसी गडबडों को ठिकाने लगाने के लिए जिद्द की हद तक बहस मुबाहिसों में उलझे रहने को उतारू भाई गजेन्‍द्र बहुगुणा ने पिछले कुछ समय से यह तय किया है कि वैज्ञानिक समझदारी केेप्रसार केे लिए अब वे कुछ गम्‍भीरता से काम करेंगे। इसी समझ के साथ पिछले दिनों उन्‍होंने कुछ मित्रों को जुटाकर कुछ जरूरी बातें शेयर करने का प्रयास किया था। वे बातें कुछ व्‍यवस्थित तरह से समाज के बीच जायें, इधर वे उसी की तैयारी में जुटे हैं। इस बात को ध्‍यान में रखते हुए ही उन्‍होंने एक छोटी सी टिप्‍पणी मुझे शेयर की थी। उनकी अनुमति से वह टिप्‍पणी इस ब्‍लाग के पाठकों के साथ शेयर है। 



गजेन्‍द्र बहुगुणा साहित्‍य,इतिहास, राजनीति एवं विज्ञान के अध्‍येता हैं। पेट्रोलिय इंस्‍टीटयूट में वरिष्‍ठ तकनीकी अधिकारी के रूप में कार्यरत रहे हैं। खेतीबाड़ी एवं बागबानी में इनका दिल रमता है।  

वि.गौ.



गजेन्‍द्र बहुगुणा

vigyan-विज्ञान सत्य का वास्तविक रहस्योद्घाटन करता ही जा रहा है ! विज्ञान पूर्वाग्रह, leaning, preconceived idea से परे observe किए आंकड़ो के आधार पर निष्कर्ष निकलता है ! जहां datapoint या प्रयोग या नमूने  के आंकड़े  नहीं होते ! वहाँ उपलभ्द जानकारी के आधार पर निष्कर्ष निकले जाते हैं ! ब्रह्माण्ड-Universe, जीवन का जन्म कैसे हुआ ?? इस पर बहुत से आंकड़े उपलभ्द नही हैं ! इसीलिए विज्ञान ज्ञात जानकारी के आधार पर prediction, निष्कर्ष निकालता है ! 

सबसे बड़ी बात विज्ञान मे विश्वास रखने वाले कठमुल्ले या fundamentalist नहीं होते ! वे observe किये गये तथ्यों के आधार पर अपने विचार बदलने को तैयार रहते हैं !  आधुनिक विज्ञान के स्तम्भ चार्ल्स डार्विन, आइज़ेक न्यूटन हों या एल्बर्ट आइन्स्टाइन सभी ईश्वर को किसी प्रकार, किसी रूप से मानते थे ! और कई सालों तक अपने शोध को जनता के बीच लाने मे हिचकिचाते रहे ! चार्ल्स डार्विन की पत्नि ईश्वर की सत्ता मे अंधभक्ति जैसा घनघोर विश्वास करती थी ! जब डार्विन ने पाया कि उनका शोध ईश्वर कि ईक्षा के विरुद्ध प्राकृतिक चुनाव कि ओर ले जा रहा है ! तो कई सालों तक उन्होने अपनी रिसर्च को छापा नहीं, यह सोचकर कि घर मे क्लेश हो जाएगा  ! पर जब उनके दूसरे साथियों, जूनियर शोधकर्ताओं ने वह बात सार्वजनिक करना प्रारम्भ कर दिया तो डार्विन को अपनी  " नयी प्रजातियों द्वारा प्राकृतिक चुनाव " वाली रिसर्च प्रकाशित करनी पड़ी ! और विश्व को पता चला कि नयी प्रजातियाँ कैसे पैदा हो जाती हैं ! इसी प्रकार अल्बर्ट आइन्सटाइन भी ब्रह्मांड के चार बलों -जिनसे दुनिया टिकी और चलती है-स्ट्रॉंग न्यूक्लियर फोर्स, वीक न्यूक्लियर फोर्स, एलेक्ट्रो -मेग्नेटिक फोर्स और गुरुत्वाकर्षण-gravitational Force को एकीकृत करके एकएकीकृत समीकरण बनाना चाहते थे , तो बार-बार उसमे ऐक constant डालते रहे ! और फेल हो गये ! Einstein सपने मे भी सोच नहीं पाये कि ब्रह्माण्ड मे कुछ भी स्थिर नहीं है ! हर कण-कण गतिशील और चलाएमान है ! सम्पूर्ण ब्रह्मांड फैल रहा है ! इसके गृह, ऐक दूसरे से दूर भागते जा रहे हैं ! आइन्सटाइन कहते थे ! God doesn't play dice ! यानि ईश्वर पासे नहीं खेलता .... और यह अस्थिर नहीं हो सकता ! इस तरह से आइन्सटाइन विश्व-ब्रह्मांड  को जोड़कर चलाने वाले बलों को ऐक करके नया समीकरण नहीं दे पाये ! कुछ हद तक इस काम को आगे बढ़ाने के लिए  1979 में पाकिस्तानी वैज्ञानिक डॉ. अब्दुस सलाम को फिजिक्स के लिए नोबेल पुरस्कार से नवाज़ा गया क्योंकि पार्टिकल फिजिक्स में उनके बेहतरीन काम की वजह से ही ‘हिग्स बोसॉन’ की खोज सम्भव हुई, जिसे ‘गॉड्स पार्टिकल’ कहा जाता है। नोबेल पुरुस्कार विजेता आइन्सटाइन गलत साबित हुवे !  उसके बाद स्टीफन हव्किंग जैसे वैज्ञानिक ने तो कहा कि ब्रह्मांड के जन्म के लिए किसी ईश्वर की जरूरत ही नहीं है ! अपनी पुस्तक मे हाकिंग ने इन बातों का जिक्र किया है ! चर्च ने गैलीलियो के साथ हुए दुर्व्यवहार के माफी भी मांगी है ! पर भारत के किसी धार्मिक परंपरा के मत-मन्दिर परम्परा ने आजतक चरवाक या अनीश्वरवादियों पर हौवे जुल्म के लिए कोई माफी नहीं मांगी ! कार्ल मार्क्स ने जिस dailectic  materialism principle द्वंदात्मक भौतिकवाद सिद्धान्त का प्रतिपादन किया ! सभी वैज्ञानिक उस सिधान्त का अनुसरण करते हैं ! इसीलिए वैज्ञानिक मूलतः 
वामपंथी ही होते हैं ! वे नए निष्कर्षों को स्वीकार करने मे कठमुल्लपन नहीं दिखाते ! द्वंदात्मक भौतिकवाद नए तथ्यों को अपने पुराने निष्कर्ष मे जोड़ता जाता है !  हर बार   " Thesis + Anti Thesis = Synthesis " के आधार पर नए प्रतिवादन जुडते जाते हैं और नए  प्रतिपादन स्वीकार कर लिए जाते हैं ! इसीलिए विज्ञान दिशा भी दे रहा है ! और विजेता भी है ! विज्ञान ही भविष्य भी तय करेगा ! कठमुल्ले कहीं भी हों, उनका भविष्य अंधकारमय है ! जनता कभी न कभी उनको नकार ही देगी !

Monday, May 24, 2021

खरीदने और बेचने की नैतिकता को मुंह चिढ़ाती कविता

 

आम की टोकरी एक बालमन की कविता है। आभारी हूं उन मित्रों का जिन्‍होंने कविता पर बहस करते हुए मुझे एक खूबसूरत कविता से परिचित कराया।

इस कविता को पढ़ते मुझे एकाएक दो अन्‍य रचनाएं याद आई। कथाकार नवीन नैथानी की कहानी 'पारस' और हाना मखमलबाफ़ की फिल्म  Budha collapsed out of shame । यह यूंही नहीं हुआ। दरअसल कविता पर चल रही बहस ने मुझे भी बहस का हिस्सा बना दिया।

इन दोनों रचनाओं का और आलोच्‍य कविता का संबंध कैसा है, इस पर बात करने से पहले मैं यह बात जिम्‍मेदारी से कहना चाहता हूं कि हमारी आलोचना मनोगतवाद से ग्रसित है। मनोगत आग्रहों के आरोपण करते हुए ही हम अक्‍सर 'विमर्शों' को लादकर रचना के पाठ करने में सुकून महसूस करते हैं। दिलचस्‍प है कि नवीन की कहानी, हाना की फिल्‍म और बच्‍चों के पाठयक्रम की यह कविता हमें यह सोचने को मजबूर करती है कि 'विमर्शों' में बंटी वैचारिकता को एकांगी तरह से समझने और उसका पक्ष लेने से दुनियावी बदलाव की तस्‍वीर नहीं बन सकती है। बदलाव की कोई भी मुहिम उस दुनियावी अन्‍तर्वरोध को ध्‍यान में रखकर कारगर हो सकती है, जिसने हमारी दुनिया को मुनाफाखौर नैतिकता में ढाल दिया है। वे मूल्य, आदर्श और नैतिकता जिनका हम सिद्धांतत: विरोध करना चाहते हैं, कैसे हमारे भीतर जड़ जमाए होते हैं।

हाना की फिल्‍म में स्‍वतंत्रता की पुकार के कई बिम्ब उभरते हैं। यहां एक बिम्ब का जिक्र ही काफी है। फिल्‍म तालीबानी निरंकुशता के विरुद्ध है। वह तालीबानी निरंकुशता जिसने बच्‍चों के मन मस्तिष्‍क तक को कैद कर लिया है। एक मारक स्थिति से भरी कैद से निकल कर भागने के बाद स्कूल पहुँची लड़की (बच्‍ची), बाखती, कक्षा में बैठने भर की जगह हासिल करना चाहती है। दिलचस्‍प है कि झल्लाहट और परेशनी के भावों को चेहरे पर दिखाये जाने की बजाय फिल्‍म उदात मानवीय भावना से ताकती आंखों वाली बाखती को हमारे सामने रखती है। दृढ़ इरादों और खिलंदड़पने वाली बाखती। लिपिस्टिक पेंसिल की जगह नोट-बुक पर लिखे जाने के लिए प्रयुक्त होने वाली चीज नहीं, सौन्दर्य का प्रतीक है और इसी वजह से वह उस चुलबुली लड़की को अपनी गिरफ्त में ले लेती है जिसके नजदीक ठुस कर बैठ जाती है बाखती। वह लड़की लिपिस्टिक को छीन-झपट कर हथिया लेती है। लिपिस्टिक बाखती की जरूरत नहीं, उसे तो एक अद्द पेंसिल चाहिए जो उन अक्षरों को नोट-बुक में दर्ज करने में सहायक हो जिसे अघ्यापिका दोहराते हुए बोर्ड पर लिखती जा रही है। लिपिस्टिक हथिया चुकी बच्‍ची बेशऊर ढंग से पहले अपने होठों पर लगाती है, फिर उतनी ही उत्तेजना के साथ बाखती के होठों को भी रंग देने के लिए आतुर हो जाती है। एक एक करके कक्षा की सारी बच्चियों के मुंह पुत जाते हैं। बलैकबोर्ड पर लिख रही अध्‍यापिका की निगाह जब बच्‍चों पर पड़ती है तो तालिबानी हिंसा को मुंह चिढ़ाता दृश्‍य आंखों के सामने नाचने लगता है।

नवीन की कहानी का नायक पारस पत्‍थर को खोजना चाहता है। पारस पत्‍थर एक मिथ है। जिसके स्‍पर्श मात्र से लोहा सोने में बदल जाता है। वह सोना जो आज मुद्रा के रूप में दुनिया पर राज कर रहा है। सवाल है कि कथानायक भी लोहे को सोना बनाकर दुनिया की दौलत इक्‍टठा करना चाहता है क्या, वैसी ही महाशक्ति होना चाहता है, जो आज की दुनिया में ताज बांधे घूमती है ? यह प्रश्‍न हमें मजबूर करता है कि हम पारस के नायक के जीवन में झांके। उसकी मासूमियत को पहचाने। वह मासूमियत जिसे पारस पत्‍थर की पहचान नहीं और उसको खोजने के लिए वह अपने पांवों के तलुवे में घोड़े की नाल ठोककर अनंत दुर्गम चढाइयां चढना चाहता है जहां पारस पत्‍थर के होने की संभावना है। उसे मालूम है कि उस पत्‍थर से टकराने पर उसके पांव के तलुवे में लगी नाल सोने में बदल जाएगी। सोने का यह जो बिम्ब कहानी में उभरता है वह गौर करने लायक है।

आलोच्‍य कविता में यह पाठ कितने खूबसूरत ढंग से आया है। आम बेचने को निकली बच्‍ची गरीब परिवार की है। बच्‍ची जिसे बेचने के काम में लगा दिया गया, जानती ही नहीं कि बेचना क्‍या होता है। इसीलिए वह तो आम के दाम भी नहीं बताती है। हां, करती है तो यह कि सारे आम अपने जैसे बच्‍चों को यूंही बांट देती है। सोच कर देखें कितना खूबसूरत बिम्‍ब है जब एक बच्‍ची आज की मुनाफाखौर व्‍यवस्‍था की सबसे कारगर प्रक्रिया बेचने-खरीदने को ही ध्‍वस्‍त कर दे रही है। वह तो इसमें भी लुत्‍फ उठा रही है कि बच्‍चे आम चूस रहे हैं। और वे बच्‍चे भी कितना अपनत्‍व से भर जाते हैं जो उस बच्‍ची का परिचय भी नहीं जानना चाहते हैं जो उनकी खुशियों के आम बांट रही है।

बिना कुछ अतिरिक्‍त कहे, बच्चों के बीच खरीदने और बेचने की नैतिकता को मुंह चिढ़ाती यह कविता गहरे सरोकारों की कविता है।       

Tuesday, July 14, 2015

मित्र हो तो असहमति को रखने में संतुलन बरतना ही होगा




हमेशा इस पसोपेश में रहता हूं कि मन की बातों को कह दूं या नहीं। संकट है कि कहने का वह सलीका कहां से लाऊं जो शालीन बनाये रखे। फिर भी कोशिश में तो रहता ही हूं कि मेरे भीतर का मनुष्‍य, जो वैसे ही वाचाल है, और वाचाल न नजर आये। यूं कहने का साहस तो अब भी नहीं जुटा पा रहा हूं। बस इतना जाने कि जो कुछ कह रहा हूं किंचित जमाने से असहमतियों के कारण कह रहा हूं।
कह पा रहा हूं तो यह भी स्‍पष्‍ट जानिये असहमत हूं जिनसे/जिससेए जरूर है वह कोई मित्रवत स्थिति ही होगी। मेरे ऐसा स्‍पष्‍टीकरण न देने पर भी आपकी सह्रदयता उसे दुश्‍मन तो नहीं ही मानेगी, मित्र ही समझेगी। ज्‍याद ही अपने अनुमानों के घोड़ो पर दौड़ेगे तो इतना ही कह पायेंगे कि किसी मित्र से संवादरत हूं शयद। तात्‍कालिक समय में रूठे हुए किसी मित्र से। यानि स्‍थायी दुश्‍मनाने में असहमति को रखने का भी कोई औचित्‍य नहीं।
बेशक आप जो भी माने पर मित्र को सिर्फ मनुष्‍य की शक्‍ल में न देखें। बस, अपने दायरे को थोड़ा विस्‍तार दें और जीवन जगत में व्‍याप्‍त किसी पेड़, पक्षी, फल जानवर, कंकड़, पत्‍थर, शैवाल, फफूंद और निर्मितियों की अजब गजब दुनिया को भी- भौतिक या, अभौतिक तरह से भी जो अपनी ताकत दिखाते हुए मौजूद हैं, अपनी निगाह में उतार लें। मेरे कहे के साथ चलते हुए पायेंगे कि असहमति का मसला सैद्धान्तिक नहीं बल्कि व्‍यवाहरिक होता है। सैद्धान्तिक असहमतियां तो मित्रवत दायरे में ही निपट चुकी होती है। उनके प्रकटीकरण तो स्‍वंय व्‍यवहार से ही उपजी असहम‍तियां हो जाती हैं। कई बार प्रकटीकरण की कोई स्‍पष्‍ट वजह भी नहीं होती, तो भी वे तो न जाने कब हिंसक हो जाती हैं। ऐसी असहमतियां निश्चित ही  हत्‍यारेपन की प्रवृत्ति है, विरोध की असभ्‍य आवाज और सांस्‍कृतिक हत्‍यारेपन में उनके अर्थ एक ही होते हैं। यूं लिजलिजे समर्थन में तो अराजक हिंसा ही प्रश्रय पाती है।
आप जानना चाहते हैं ये सांस्‍कृतिक हत्‍यारापन क्‍या है ? विश्‍वास दिलाइये कि हिसंक न होंगे। हो सकता है मैं अपनी वाचालता में आपको जाने क्‍या-क्‍या कह बैठूं, वैसे भी इस वक्‍त तो असहमति की असभ्‍य आवाज और उसकी तीव्र हिंसकता ही मुझे वाचाल हो जाने को मजबूर कर रही है, आपका सांस्‍कृतिक हत्‍यारापन उतना नहीं। फिर भी जानने चाहे तो जान ले- ठेकेदार, दलाल और बिल्डिरों वाले टुच्‍चेपन को ही आप जो थोड़ा नफासत भरा अंदाज दे देते हैं, वह तो निश्चित ही सांस्‍कृतिक हत्‍यारापन है- संवाद के लिए छटपटाती किसी पुकार को सुनने लेने के बाद भी अनुसनापन ही जाहिर करना, विरोध की स्थितियां निगाह में निगाह डाल कर न रखी जा सके, गर्दन पहले ही घुमा देना।

चलिये छोडि़ये क्‍या-क्‍या कहूं। वैसे भी दुनिया संबंधों को कायम रखने की जितनी आधुनिकता से सुसज्जित हो रही है, असहमति का हत्‍यारापन उतना सांस्‍कतिक हुआ जा रहा है, बहुधा असभ्‍य आवाज के साथ साथ कदमताल करता हुआ भी।    

Sunday, December 25, 2011

दलित साहित्य के पुरोहित


        हिन्दी दलित साहित्य में कुछ ऎसी बहस करते रहने की परम्परा विकसित की जा रही है जिसका कोई औचित्य नहीं रह गया है .ये बहसे मराठी दलित साहित्य में खत्म हो चुकी हैं.लेकिन हिन्दी में इसे फिर नये सिरे से उठाया जा रहा है .वह भी मराठी के उन दलित रचना कारों के सन्दर्भ से, जो मराठी में अप्रासंगिक हो चुके हैं.उनकी मान्यताओं को मराठी दलित साहित्य में स्वीकार नहीं किया गया ,उन्हें हिन्दी में उठाने की जद्दोजहद जारी है.मसलन दलित शब्द को लेकर , आत्मकथा को लेकर .मराठी के ज्यादातर चर्चित आत्मकथाकार,रचना कार दलित ,शब्द को आन्दोलन से उपजा क्रांति बोधक शब्द मानते हैं. बाबुराव बागूल. दया पवार,नामदेव ढसाल ,शरणकुमार लिम्बाले, लोकनाथ यशवंत, गंगाधर पानतावणे, वामनराव निम्बालकर, अर्जुन डांगले, राजा ढाले,आदि. इसी तरह आत्मकथा के लिए आत्मकथा शब्द की ही पैरवी करने वालों में वे सभी हैं जिनकी आत्मकथाओं ने साहित्य में एक स्थान निर्मित किया है.चाहे शरण कुमार लिम्बाले (अक्करमाशी),दयापवार (बलूत),बेबी काम्बले (आमच्या जीवन), लक्ष्मण माने ( उपरा), लक्ष्मण गायकवाड (उचल्या), शांताबाई काम्बले ( माझी जन्माची चित्रकथा),प्र.ई.सोनकाम्बले ( आठवणीचे पक्षी),ये वे आत्मकथायें हैं जिन्होंने दलित आन्दोलन को मजबूत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निर्मित की. इन आत्मकथाकारों को आत्मकथा शब्द से कोई दिक्कत नहीं है. लेखकों को कोई परेशानी नही हैं.यही स्थिति हिन्दी में भी है. लेकिन हिन्दी में अपेक्षा पत्रिका के  सम्पादक डा. तेज सिंह् को दलित शब्द और आत्मकथा दोनों शब्दों से एतराज है. उपरोक्त सम्पादक को दलित आत्मकथाओं में वर्णित प्रसंग भी काल्पनिक लगते हैं.कभी कभी तो लगता है कि ये सम्पादक महोदय दलित जीवन से परिचित हैं भी या नहीं ?क्योंकि दलित आत्मकथाओं में वर्णित दुख दर्द ,जीवन की विषमतायें,जातिगत दुराग्रह,उत्पीडन की पराकाष्टा,इन महाशय को कल्पनाजन्य लगती हैं..उनके सुर में सुर मिला कर  आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी  को भी आत्मकथाओं के मूल्यांकन में मुश्किलों का सामना करना पड रहा है.वे कहते हैं कि आत्मकथन क्योंकि आपबीती है,जिए हुए अनुभवों का पुनर्लेखन है,इसलिए उनकी प्रामाणिकता का सवाल प्राथमिक हो जाता है..क्या आत्मवृतों (आत्मकथाओं) की प्रमाणिकता जांची जा सकती है? क्या उन्हें जांचा जाना चाहिए? अगर हां तो क्या ये आत्मवृत (आत्मकथा) खुद को जांचे जाने को प्रस्तुत हैं? क्या अभी तक कोई आंतरिक मूल्यांकन प्रणाली विकसित हो पाई है? हम कैसे तय करें कि कोई अनुभव विशेष ,कोई जीवन प्रसंग कितना सच है और कितना अतिरंजित?   (अपेक्षा,जुलाई-दिसम्बर,2010,पृष्ठ-37)
      बजरंग बिहारी तिवारी    के ये सवाल कितने जायज हैं कितने नहीं ? इसे पहले तय कर लिया जाये तो ज्यादा बेहतर होगा. क्योंकि यह सिर्फ लेखक की अभिव्यक्ति पर ही आक्षेप नहीं है,बल्कि इस विधा को भी खारिज करने का षडयंत्र दिखाई दे रहा है.साथ ही यहां एक  ऎसा सवाल भी उठता है कि क्या एक आलोचक लेखक का नियंता हो सकता है? इस सवाल के सन्दर्भ में  कथाकार, सम्पादक  महीप सिंह का यह कथन प्रासंगिक लगता है.

        डा. महीप सिंह  का कहना है कि हिन्दी संसार के दो जातीय गुण हैं- जैसे ही कुछ सफलता और महत्ता प्राप्त करता है,वह एक मठ बनाने लगता है.कानपुर की भाषा में ऎसा  व्यक्ति गुरू कहलाता है.साहित्य क्षेत्र भी इसका अपवाद नहीं है.थोडी सी आलोचना शैली ,थोडा सा वक्तृत्व कौशल ,थोडा सा विदेशी साहित्य का अध्ययन ,थोडी सी अपने पद की आभा और थोडी सी चतुराई से इस गुरूता की ओर बढा जा सकता है.कुछ समय में ऎसा व्यक्ति फतवे जारी करने के योग्य हो जाता है.एक दिन वह किसी के अद्वितीय का निकाल कर और किसी के नाम के साथ जोड देता है. ( हिन्दी कहानी : दर्पण और मरीचिका ,हिन्दुस्तानी जबान,,अंक अप्रैल-जून,2011,पृष्ठ- 15)

      बजरंग बिहारी तिवारी के सन्दर्भ में यहां बात की जा रही है, वे सिर्फ इतने भर से ही नहीं रुकते वे और भी गम्भीर आरोप लगाने लगते हैं, .आरोपों की इस दौड में वे बेलागाम घोडे की तरह दौडते नजर आते हैं.वे कहते हैं –‘विमर्श को चटकीला बनाने का दबाव,अपनी वेदना को खास बनाने की इच्छा किन रूपों में प्रतिफलित  होंग़े?


     बजरंग बिहारी तिवारी अपनी अध्ययनशीलता और उद्दरण देने की कला का दबाव बनाते हुए लुडविंग विट्गेंस्टाईन का सन्दर्भ देते हुए अपने तर्क को मजबूत करने की कोशिश करते  हैं.अपने ही पूर्व लेखन और स्थापनाओं को खारिज करने का नाटक करते हैं.. दलित साहित्य की महत्त्वपूर्ण विधा को यह आलोचक एक झटके में धाराशायी करने का आखिरी दांव चलता है .  दलित आत्मकथाओं की बढती लोकप्रियता और सामाजिक प्रतिबद्धता को किस दबाव के तहत नकार ने  की यह् चाल है, यह जानना जरूरी लगने लगता है.वे अपनी गुरूता , जो बडी मेहनत और भाग दौड से हासिल की  है,से आखिर फतवा जारी करने की कोशिश करते हैं एक अर्थ में आत्मकथन अनुर्वर विधा है.वह रचनाकार को खालीपन का एहसास कराती है.अनुभव वस्तुत: रचनात्मकता के कच्चे माल के रूप में होते हैं.....आत्मकथन में रचनात्मक दृष्टि के ,विजन के निर्माण की न्यूनतम गुंजाईश होती है......एक विभ्रम की सृष्टि की आशंका भी इस विधा में मौजूद है. (अपेक्षा,जुलाई-दिसम्बर,2010,पृष्ठ-37)
         यहां बजरंग बिहारी तिवारी तथ्यों का सामान्यीकरण करने की कोशिश कर रहे हैं.दलित आत्मकथाओं ने समस्त भारतीय भाषाओं में अपनी रचनात्मकता से यह सिद्ध कर दिया है कि आत्मकथा अनुर्वर विधा नहीं है.न ही वह रचनाकार को खालीपन का एहसास ही कराती है .और इस बात को भी ये आत्मकथाएं सिरे से नकारती हैं कि इस विधा में रचनात्मक दृष्टि के विजन की न्यूनतम गुंजाईश है.
      आत्मकथाओं के सन्दर्भ में दया पवार कहते हैं,- वर्तमान समय में मराठी की आस्वाद की प्रक्रिया एक जैसी नहीं है .सांस्कृतिक भिन्नता के कारण आस्वाद प्रक्रिया भी भिन्न भिन्न हो रही है.यह दलित आत्मकथाओं का समय है; जिनकी काफी चर्चा रही है.परंतु इन आत्मकथाओं के मूल में जो सामाजिक विचार है ,उसे सदैव नजर अन्दाज किया जाता है. केवल व्यक्ति और व्यक्तिगत अनुभव इसी बिन्दु के चारों ओर इसकी चर्चा होती है.आगे वे कहते हैं,-दलितों का सफेदपोश पाठक अपने भूतकाल से बेचैन हो गया है.उसे खुद से शर्म महसूस होने लगी है.कचरे के ढेर में से कचरा ही निकलेगा? इस प्रकार के प्रश्न भी उन्होंने उपस्थित किये.वास्तविकता तो यह है कि यह केवल भूतकाल नहीं है.बल्कि आज भी दलितों का एक बडा समुदाय इसी प्रकार का जीवन जी रहा है.दलितों के सफेद पोश वर्ग को इसी की शर्म क्यों आ रही है?वास्तव में संस्कृति के सन्दर्भ में बडी-बडी बातें करने वाली व्यवस्था को इसकी शर्म आनी चाहिए........कुछ लोगों को ये आत्मकथाएं झूठी लगती हैं.सात समुन्दर पार किसी अजनबी देश की आत्मकथाएं,जिस जीवन को उन्होंने कभी देखा नहीं है,उनकी आत्मकथाएं इन्हें सच्ची लगती हैं.परंतु गांव की सीमाओं के बाहर का विश्व कभी दिखाई नहीं देता.इस दृष्टि भ्रम को क्या कहें.(दलितों के आन्दोअलन जब तीव्र होने लगते हैं,तब जन्म लेता है दलित साहित्य ,अस्मितादर्श लेखक-पाठक सम्मेलन सोलापुर,1983)
       अक्सर देखने में आता है कि हिंन्दी आलोचकों की यह कोशिश रहती है कि दलित साहित्य के सामाजिक सरोकारों से इतर मुद्दों  को ज्यादा रेखांकित किया जाये ताकि भटकाव की स्थिति उत्पन्न हो .यह भटकाव कभी अपरिपक्वता के रूप में आरोपित होता है ,तो कभी भाषा की अनगढता के रूप में,तो कभी वैचारिक विचलन के रूप में  आरोपित किया जाता है. कभी विधागत , तो कभी शैलीगत होता है.
       किसी भी आन्दोलन की विकास यात्रा में अनेक पडाव आते हैं.दलित साहित्य के ऎसे आलोचक दलित मुद्दों से हटकर वैश्विकता को ही दलित का सबसे बडा मुद्दा घोषित करने में लग जायें तो इसे क्या कहा जाये? क्या यह असली मुद्दों से बहकाने की साजिश नहीं होगी.क्योंकि ऎसे आलोचक इससे पूर्व भी यह काम बखूबी करने की कोशिश में लगे रहे हैं.लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली.कभी दलित साहित्य में रोमानी रचनाओं की कमी का रोना रोते हैं,तो कभी प्रेम का,तो कभी दलित साहित्य को स्त्री विरोधी कहने में भी पीछे नहीं रहे हैं.उनकी ये घोषणायें नये लेखकों को भरमाने की कोशिश ही कही जायेंगी.क्योंकि हजारों साल का उत्पीडन नये-नये मुखौटे पहन कर साहित्य को भरमाने का काम पहले भी करता रहा है.ये लुभावने और वाक चातुर्य से भरे हुए जरूर लगते हैं,लेकिन इनके दूरगामी परिणाम क्या होंगे इसे जानना जरूरी है.आन्दोलन की इस यात्रा में भी ये पडाव आये हैं.इस लिए यदि नयी पीढी अपनी अस्मिता और संघर्षशील चेतना के साथ दलित  चेतना का विस्तार करती है तो दलित साहित्य की एक नई और विशिष्ट निर्मिति होगी.
      यहां यह कहना भी आवश्यक हो जाता है कि   दलित साहित्य में आत्मकथाओं ने जिस वातावरण का निर्माण किया है.वह् अदभुत है.जिसे चाहे विद्वान आलोचक जो कहें, लेकिन दलित जीवन की विद्रुपताओं को जिस साहस और लेखकीय प्रतिबद्धता के साथ दलित आत्मकथाओं में  प्रस्तुत किया है,वह भारतीय साहित्य में अनोखा प्रयोग है.जिसे प्रारम्भ से ही आलोचक अनदेखा करने की कोशिश करते रहे हैं.क्योंकि आत्मकथाओं ने भारतीय समाज व्यवस्था और संस्कृति की महानता के सारे  दावे खोखले सिद्ध  कर दिये हैं.साथ ही साहित्य में स्थापित पुरोहितवाद,आचार्यवाद् और वर्णवाद की भी जडें खोखली की हैं.साहित्यिक ही नहीं भारतीय संस्कृति की महानता पर भी प्रश्नचिन्ह लगाये हैं और जिस गुरू की महानता से हिन्दी साहित्य भरा पडा है उसे कटघरे में खडा करने का साहस सिर्फ दलित लेखकों ने किया है जिसे बजरंग बिहारी तिवारी जैसे आलोचक सिरे से नकार कर अपनी विद्वता का परचम लहराकर आचार्यत्व की ओर बढने की कोशिश कर रहे हैं. आत्मकथाओं की प्रमाणिकता पर भी आक्षेप करके पाठकों को दिग्भ्रमित करने का प्रयास कर रहे हैं.क्या उनकी साहित्यिक प्रतिबद्धता बदल गयी हैंया गुरूता भाव में लेखक का नियंता बनने की कोशिश की जा रही है?यह शंका जेहन में उभरती है.

       
              यहां मेरा बजरंग जी से सीधा सवाल है, दलित साहित्य स्त्री विरोधी नहीं है.यदि कोई लेखक इस तरह के विचार रखता है तो आप उसे किस बिना पर दलित साहित्य कह रहे हैं ? सिर्फ इस लिए कि वह जन्मना दलित है.मेरे विचार से दलित साहित्य की अंत:चेतना को पुन: देख लें. डा. अम्बेडकर की वैचारिकता में कहीं भी स्त्री विरोध नहीं है. और दलित साहित्य अम्बेडकर विचार से ऊर्जा ग्रहण करता है. जिसे सभी दलित  रचनाकारों ने, चाहे वे मराठी के हों या गुजराती ,कन्नड,तेलुगु या अन्य किसी भाषा के .यदि कोई जन्मना दलित स्त्री विरोधी है और जाति व्यवस्था में भी विश्वास रखता है,तो आप उसे एक दलित लेखक किस आधार पर कह रहे हैं? यह दलित साहित्य की समस्या नहीं है,यहा तो उस मानसिकता की समस्या है जो आप  जैसे आचार्य   विकसित  कर रहे .       
     समाज में स्थापित भेदभाव की जडें गहरी करने में साहित्य का बहुत बडा योगदान रहा है.जिसे अनदेखा करते रहने की हिन्दी आलोचकों की विवशता है.और उसे महिमा मण्डित करते जाने को अभिशप्त हैं.ऎसी स्थितियों में दलित आत्मकथाओं की प्रमाणिकता पर प्रश्न चिन्ह लगाने की एक सोची समझी चाल है.बल्कि यह साहित्यिक आलोचना में स्थापित पुरोहितवाद है जो साहित्य में कुंडली मारकर बैठा है.हिन्दी साहित्य को यदि लोकतांत्रिक छवि निर्मित करनी है तो इस पुरोहितवाद और गुरूडम से बाहर निकलना ही होगा. यदि वह ऎसा नहीं करता है तो उस पर यह आरोप तो लगते ही रहेंगे कि हिन्दी साहित्य आज भी ब्राह्मणवादी मानसिकता से भरा हुआ है.अपने सामंती स्वरूप को स्थापित करते रहने का मोह पाले हुए है.
  
● ओम प्रकाश वाल्मीकि
 09412319034  

 

Wednesday, December 21, 2011

प्रतिनायक का चेहरा क्यों लगता है नायक सा


नायक का चेहरा ज्यादा स्पष्ट करने की कोशिशों में प्रतिनायकों के चेहरे इधर कुछ ज्यादा अस्पष्ट हुए हैं या उनको स्पष्ट चिहि्नत करने के लिए जो रोशनी चाहिए थी वह धुंधलाती गयी है। भ्रष्टाचार की राष्ट्रव्यापी मुहिम के दौरान की स्थितियां इस बात की प्रत्यक्ष गवाह रही हैं। भूमाफिया, दलाल, भ्रष्टता के सिरमौर-कितने ही राजनीजिज्ञ और शासक-प्रशासक, लिंग, जाति और क्षेत्रीय भेदों को स्थापित करने में जुटे ताकतवर एवं समाजविरोधी लोगों की एक जुटता में प्रतिनायकों की कितनी ही छवियां धुंधलायी हैं। मीडिया, कारपोरेट जगत और एन।जी।ओ की भ्रष्टता तो भ्रष्टतंत्र की स्थापना के लिए अपने ही नक्शे की जिद के साथ नायकत्व के रूप्ा में मौजूद रही है। स्पॉन्टेनिटी के किसी ऐसे आंदोलन के दौरान जिसमें जनता का एक बड़ा हिस्सा आंदोलनरत हो जाता है, अन्यत्र भी ऐसी स्थितियों को बार-बार देखा जा सकता है। स्थितयों की ऐसी जटिलता जिसमें सही और गलत को स्पष्ट तरह से चिहि्नत न कर पाना संभव हो रहा हो उसको समझने के लिए रचनात्मक दुनिया का सहारा लिया जाये तो बहुत कुछ ऐसा है जो साफ साफ दिखने लगता है। 
दैवीय शक्तियों से सुसज्जित हिन्दी फिल्मों के नायकों की बहुत शुरू से लगातार बनी रही उपस्थिति में पुनरावृत्ति की कितनी ही मिसालें हैं जिन्हें फिल्म दर फिल्म गिनाने की शायद जरूरत न पड़े। सवाल है कि क्या इसे कहानी का फिल्मांकन मात्र माना जाये या कथा के मूल में ही इसकी उपस्थिति के चिह्न मौजूद हैं, ऐसा ढूंढा जाये ? हिन्दी कथा साहित्य की दुनिया से गुजरते हुए समकालीन कहानियों के हवाले से बात की जाये तो प्रतिनायकों या खलनायकों को ही नायकत्व देने की प्रवृत्ति कुछ आम हुई है। यानी मूल कथा के एक सूक्ष्म से बिन्दु को ही कैमरा अपनी तकनीकी विशेषताओं से विस्तार देते हुये है। सनसनीखेज खबरों के उत्स भी कथा साहित्य की दुनिया से ही जन्म लेते हुये हैं। फिल्मों में या डिजिटल खबरों की दुनिया में नायक के पीछे लगातार दौड़ता एक कैमरा है जो खांसने, छींकने और हाजत फरागत के दृश्यों में ही नायक की तस्वीर को बार बार पकड़ ही नहीं रहा है अपितु चेहरे पर उठते भावों को रेशा दर रेशा कई गुना करते हुए संवेदनशीलता का ऐसा पाठ रच रहा है जिसमें लगातार असंवेदनशील हो जाने की कथा जन्म लेती हुई है। 
फिल्मों और हिन्दी की कुछ कहानियों के हवाले से ऊपर उठे प्रश्नों के जवाब खोजना चाहें तो इधर आयी ''थैंक्स मां" इरफ़ान कमाल की पहली फिल्म है। यूं मात्र 7 मिनट के शुरूआती दृश्य में ही फिल्म मुंम्बइया समाज के उस अंदरुनी हिस्से का बयान होकर आती है जिसमें झोपड़ पट्टी के बच्चों का जीवन दिखायी दे जाता है। जीवन के संघ्ार्ष से निर्मित आपसी छीना झपटी और मारकाट से भरा उनका संसार बेहद निराला है। अपनी मां, यानी अपने अतीत को तलाशता म्यूनैसपैलिटी (एक पात्र) का एक नवजात शिशु को लेकर इधर उधर भटकना त्रासद कथा है। लेकिन समग्र प्रभाव में फिल्म उस तरह से असरदार नहीं हो पाती कि दर्शक की चिन्ताओं का हिस्सा हो जाये। यहां जफर पनाही की इरानी फिल्म 'द मिरर" का याद आ जाना कतई अस्वाभाविक नहीं।
''यह मेरा बस स्टाप नहीं।""
गलत जगह पर पहुंची हुई 'द मिरर" की नायिका मीना कठिन परिस्थिति के बीच भी आत्म विश्वास के सजग बिन्दु से भरी है। लेकिन थैंक्स मां की कथा में कथ्य की भिन्नता भारतीय समाज की भिन्नता के साथ है। गुम हो गये अपने बच्चे की स्मृतियों में विक्षिप्त हो गई मां की कातरता बेहद विचलित करने वाली है,
''यह मेरा बच्चा नहीं है। मेरा बच्चा चार महीने का है।""
बच्चे को तलाशती थैंक्स मां की स्त्री और अपने घर को तलाशती 'द मिरर" की मीना की मानसिक बुनावट में ही कोई भिन्नता है या इसके इतर भी कोई कारण है ? जबकि स्थितियों की त्रासदी दोनों जगह कमोबेश एक है। इस अंतर का कारण क्या दो भिन्न समाजों की वजह है या दृश्य को संयोजित करती कैमरे के पीछे की आंख ?  
 'द मिरर" की कथा नायिका-बच्ची को अपना घर मिल जाता है पर थैंक्स मां के कृष को उसकी मां नहीं मिल पाती और न ही कृष को उठाये उठाये घूमने वाले म्यूनैसपैलिटी को उसकी मां मिल पाती है। कृष की मां को ढूंढने में यदि म्यूनैसपैलिटी कामयाब हो जाता तो उसे अपनी मां के भी मिल जाने जैसी खुशी होती। यह काव्यात्मकता थैंक्स मां को एक महत्वपूर्ण फिल्म बना देती है। लेकिन फिल्म का यह अंत नहीं। वह तो गैर सरकारी संस्थाओं का एजेण्डा है- भ्रूण हत्या जैसा ही कुछ। 
यूं "थैंक्स मां" को देखने का आनन्द बच्चों के आपसी रिश्तों के दृश्य में है। मसलन फिल्म का एक पात्र जिसका नाम सोडा है उस वक्त बेहद चालाकी भरा नजर आता है जब सबसे पैसे मांगता है और उन्हें दस गुना कर देने का लालच देता है। उन बच्चों के समूह में एक बच्ची भी है जो अपने साथियों के बीच बिना इस मानसिकता के कि दूसरों से लैंगिक रूप में भिन्न है, बहुत स्वाभाविक बनी रहती है। बच्चों की इस उपस्थिति को आकार देने में निर्देशक की भूमिका इसलिए गौण मानी जा सकती है कि जैसे ही कैमरे में रची गई कहानी के दृश्य और बहुत सजग किस्म के कलाकार नजर आते हैं तो मानवीय संबंधों की वह ऊष्मा जो तलछट का जीवन जीते बच्चों को कैमरे में कैद कर लेने पर दिखायी दी थी, गायब हो जाती है। जरूरत से ज्यादा लाऊड होते रघुवीर यादव एक स्वाभाविक कलाकार की स्थिति में भी नजर नहीं आते। जबकि गैर परम्परागत कलाकार बच्चे ज्यादा स्वाभाविक अभिनय करते हुए हैं। कलाकारों के अभिनय पर बहुत बात करने की जरूरत उस विचार बिन्दु को रखने के लिए ही है जिसमें समकालीन रचनाजगत के हवाले को तथ्यात्मक तरह से रखा जा सकता है। तथ्य बताते हैं कि न सिर्फ लेखन में बल्कि कला के अन्य क्षेत्रों में भी सक्रिय तमाम रचनाजगत ने प्रगतिशीलता के जो मानक गढ़े हुए हैं यूं तो उनके इर्द-गिर्द ही रचनात्मक दोलन की गति दिखायी देती है। पर गढ़ी गई प्रगतिशीलता के दायरे में दोलन की तरंग दैर्ध्य बढ़ जाने का वैसा अहसास संभव नहीं हो पाता जैसा प्रतिबद्धता के साथ संभव हो सकता है। प्रतिबद्धता के मायने जफर पनाही के मार्फत कहें तो "द मिरर" की नायिका मीना जिस गली को ढूंढ रही उसका नाम "विक्टरी एवेन्यू" अनायास नहीं। मीना उस चौक की पहचान बताने में बेशक असमर्थ है जहां से एक रास्ता विक्टरी एवेन्यू को जाता है लेकिन अनभिज्ञ नहीं। उस जगह पर पहुंचकर वह गाड़ी रुकवाती है, किराया चुकाती है और ड्राइवर को खुदा हाफिज कहते हुए दौड़ पड़ती है भीड़ भरे रास्ते को पार करती हुई। जफर पनाही का कैमरा बहुत लांग शॉट लेता हुआ होता है। पूरे तीन सौ साठ डिग्री में घूमता हुआ। कोई भी स्थिति उस लांग शॉट के भीतर किरदार नजर आती है और किरदार की उपस्थिति बेहद स्वाभाविक या, किरदार का किरदार होना नहीं बल्कि यथार्थ के बीच किसी का भी होना हो जाता है। दर्शक के लिए सहूलियत बनता हुआ कि वह खुद को भी उस स्थिति में देख सके। एक ऐसे ही अन्य दृश्य में मीना बस में है। पार्श्व में उभरती आवाजें हैं। कैमरा जब मीना को फोकस किये है आवाजें तब भी हैं और बेहद स्पष्ट। उन आवाजों का लब्बो लुआब है कि मीना मां के सहारे के असहसास के साथ है। आत्मीय सहारे की तलाश करती बूढ़ी स्त्री है और उम्र के कारण अकेले हो जाने का भय उसके भीतर व्याप्त है। दूसरी स्त्रियों की बातचीत में पति से संबंधों के विवरण हैं। समाज के भीतरी ढांचे को व्यक्त करने के लिए जफर पनाही किसी अलहदा चित्र का सहारा लेने के बजाय मूल कथा के विस्तार में ही बहुत चुपके से दाखिल होते हैं बावजूद इसके कि कैमरा अब भी ज्यादातर विक्टरी एवेन्यू को तलाश करती मीना पर ही फोकस रहता है।
इधर सचेत तरह से बनायी गयी इरानी फिल्मों की उल्लेखनीय विशेषता है कि मानवीय तकलीफों का ताना बाना उनमें बहुत साफ तरह से उभरा है। जीवन को दुर्लभ बनाते तंत्र को दर्शक उनमें बहुत अच्छे से पहचान सकता है। तकलीफों में जीते लोगों के भीतर हमेशा मौजूद रहने वाली आत्मियतायें उसे हिम्मत बंधाती हैं। रास्ता भटक गयी बच्ची को सही सलामत घर पहुंचा सकना उनकी सामूहिक चिन्ता का कारण है। खुद की परेशानियों के बावजूद मुसीबत जदा किरदार की परेशानियां उनकी प्राथमिताओं का हिस्सा हो जाती हैं। परेशानियों से घिरे होने के बावजूद खीझ, झल्लाहट या गुस्से के भाव उनके चेहरों पर कभी अपना अक्श नहीं बिखेरते। जफर की ही एक अन्य फिल्म "व्हाइट बेलून" में भी इसे देखा जा सकता है। मजीदी की "चिल्ड्रनस ऑफ हेवन", "पेराडाइज", हाना मखमलबाफ की "बुद्धा कोलेप्सड आउट ऑफ सेम" या अन्य बहुत सी फिल्में हैं जो इरानी अफगानी सिनेमा का एक बहुत आत्मीय और बेबाक संसार रच रही हैं। इनके बरक्स इधर हिन्दी सिनेमा की 'थैंक्स मां, "सल्मडॉग मिलेनियर", "थ्री इडियेट", नंदिता दास की "फिराक" या लोक प्रिय धारा की "ए वेडनस डे", "गुलाल" और दूसरी बहुत सी फिल्मों में देखते हैं कि यथार्थ की उपस्थिति आक्रामकता के पुन:सर्जन में बहुत प्रत्यक्ष होना चाहती है। यथार्थ के प्रत्यक्षीकरण में इन फिल्मों से जो कि ध्वनित हुआ है उसमें झूठे और अमानवीय तंत्र के प्रतिरोध की चेतना की बजाय पाठक हताशा और निराशा में घिर जाने को विवश है। हत्या, मारकाट और साजिशों का प्रत्यक्षीकरण इतना एकांगी है कि जीना ही मुश्किल लगने लगता है। समाजिक विद्रुपताओं के दुश्चक्र की बारम्बारता भयानक से भयानक दृश्य रचती है। एक क्षण को उनके प्रभाव इतने गहरे होते हैं कि वे दर्शक के भीतर बहुत स्थाई और संवेदना को ही पूरी तरह से कुंद कर देते हैं। जो कुछ परदे पर घट रहा होता है उसका घटना एक स्वाभाविक सी घटना हो जाता है। परिस्थितियां बेहद विकट होती हैं लेकिन विकटता के सर्जकों की कोई तस्वीर नहीं बन रही होती है और न ही उनसे बच निकलने की कोई आत्मीय गतिविधि नजर आती है। बेहद क्रूर तरह से बच्चों के अंग भंग के दृश्य और तमाम अमानवीय कार्यों को करवाने को मजबूर कर देने वाली निर्ममताओं के कितने ही दृश्य हैं जिन्हें ऊपर दर्ज फिल्मों में और इधर की अन्य फिल्मों में देखा जा सकता है। यहां अमानवीयता के दृश्य का एक चित्र हाना मखमलबाफ की फिल्म 'बुद्धा कोलेप्सड आउट ऑफ सेम" से याद किया जा सकता है। हाना की यह फिल्म तालीबानी आक्रमकता के बाद जीवन जीते अफगानी बच्चों के खेल के रूप में हैं। तालीबानी तालीबानी खेलते बच्चों के बीच बामियान की मूर्तियों को तोड़ने से लेकर स्त्रियों को दासत्व की स्थितियों तक पहुंचाती कथा के बीच 'मुक्तिदाता" अमेरिकी बम वर्षकों के दृश्य हैं। तालीबानी बने बच्चे अमेरिकी बम बारियों से बचते हुए अपने आक्रामक खेल को जारी रखना चाहते हैं। अमेरिकी सिपाहियों को अंधे कुओं में डूबो कर मार देने की साजिश रचते हैं। एक गढढा खोद कर बहुत गहरे तक उसमें पानी भर भूरभूरी मिटटी को ऊपर से डाल उसे दल दल बना देते हैं। कैद की हुई स्त्रियों का छुड़ाने आते अमेरिकी सिपाही को वे उस दल दल में धंस जाने को मजबूर कर देते हैं। दलदल से सना बच्चा, यह दृश्य बिल्कुल उस दृश्य की तरह जैसा स्लमडॉग मिलेनियर में संडास के गढढे में गिर गया बच्चा है और जिसे देखना बेहद उबाकई से  भर जाना है, बहुत ही मानवीय ओर बुद्ध नजर आने लगता है। दृश्य एक दम स्पष्ट हो जाता है कि मुक्ति के नाम पर विध्वंश का खेल रचती अमेरिकी चालाकियों से हाना न तो खुद इत्तफाक रख रही हैं और न अपने दर्शकों के बीच किसी भी तरह की गलतफहमी को पनपने देती है। यह सवाल हो सकता है कि मुक्ति का रास्ता तो बुद्ध की करूणा में भी पूरा पूरा नहीं दिखता लेकिन इससे यह बात तो स्पष्ट हो ही जाती है कि जो भी संभावित सकारात्मकता है उसको तो चुना ही जाना चाहिए। और उस रास्ते पर ही फिल्म बेहद प्रभावशाली ढंग से उस तालीबानी आक्रमकता का विरोध दर्ज करती है जो स्त्रियों को गुलामी की स्थिति तक पहुंचा देना चाहती है। हिंसा के खेल को बुद्ध की सहजता से पार पाने की युक्ति बेशक अतार्किक और अव्यवहारिक हो पर युवा फिल्मकार हाना मखमलबाफ़ जिस खूबसूरती से दृश्य रचती है उसमें खेल चरमोत्कर्स तार्किक परिणति तक पहुँचता है। खास तौर पर ऐसे में जब चारों ओर एक घनीभूत तटस्थता छायी है। चौराहे का सिपाही नियम के कायदे में बंधा बंधकों को छुड़ाने में अपनी असमर्थता जाहिर कर रहा है। बल्कि असमर्थता जाहिर करते वक्त भी उसके चेहरे पर जब कोई प्ाश्चाताप या ग्लानी जैसा भाव भी मौजूद नहीं हैं। बस एक काम-काजी किस्म का व्यवहार ही उसको संचालित किये है। मेहनतकश आवाम भी जब युद्धोन्मांद में फँसी लड़की की कातर पुकार पर तव्वजो देने की बजाय बहुत ही तटस्थता से बच्चों को दूसरी जगह जाकर खेलने को कह रहा हो। दूसरी जगह- यानी जहाँ जारी खेल बेशक खूनी आतंक की हदों को पार कर जाए पर उनके काम में प्रत्यक्ष रुकावट डालने वाला न हो। मध्य एशिया में जारी हमले के दौरान अमेरीकी प्रतिरोध की दुनिया का कदम इससे भिन्न नहीं रहा है। और उसके चलते ही कब्जे की लगातार आगे बढ़ती कार्रवाई जारी है, यह कोई छुपा हुआ तथ्य नहीं।
हिन्दी फिल्मों का यह जो ताना बाना दिखायी देता है उसे विश्वपूंजी द्वारा स्थापित की जा रही 'नैतिकता और आदर्श" के साथ देखा जा सकता है। मुनाफे की संस्कृति को जन्म देती और संसाधनों पर लगातार कब्जा करने की मंशा से भरी विश्वपूंजी की कार्रवाइयां अपने छल छद्म को छुपाये रखने के जो रास्ते अख्तयार करती है, वे बहुत साफ दिख रहे हैं। सिविल सोसाइटीनुमा अवधारणा में उसका चेहरा लोक की छवियों के जरिये न सिर्फ अपने कलावादी रूझानों को स्थापित करना चाहता है बल्कि तथाकथित उजले जीवन के बाजार के लिए लोक की विविधता को विज्ञापनी दुनिया का हिस्सा बनाता चल रहा है। दूर पहाड़ी पर एक कांछा (स्थानीय पहाड़ी बच्चा) से वह मारूती का सर्विस सेन्टर पूछता है। आदिवासी जनजीवन का पहनावा उसके उत्पाद को कन्ट्रास्ट देता है। बेहद संकरी गलियों के दृश्य बेजरूरत चीजों के प्रति आवाम की ललक पैदा करने का जरिया हैं। यथार्थ के प्रत्यक्षीकरण को प्रस्तुत करते दृश्यों में एक आक्रामक हिंसकता की ही झलक उसका मूल स्वर है। बहुत कोमल और आत्मीय किस्म के माहौल के प्रति उसके सरोकार मुनाफाखौर विज्ञापनी चालाकी वाले है। एक धोखा है। जिसमें विविधता से भरे स्थानिक दृश्यों की उपयोगिता उसके लिए मात्र अपने उत्पाद को उपभोक्ता के हाथों तक पहुंचाने के अवसर के रूप में है।
बहुत सचेत होकर देखें तो इधर आयी समकालीन हिन्दी कहानियों का संसार भी बहुत अलहदा नहीं बना है। समाजिक प्रतिबद्धता के प्रति आवश्यकता से अधिक क्लेम करता रचनाकार रचनात्मक विवरणों में विश्वसनीयता की हदों के पार भी छलांग जाता है। उदय प्रकाश की कहानी "मोहनदास" में बहुत साफ तरह से इसको परखा जा सकता है। विद्रुपताओं में ही बदलाव के चिह्न रचने की प्रवृत्ति बहुत आम हुई है। सामाजिक प्रवृत्ति के तौर पर गैर जरूरी नितांत व्यक्तिगत किस्म के अनुभवों से भरे विवरणों की भरमार में शिल्प के अनूठेपन का संसार प्रचारात्मक अलोचना में बहुत स्वीकार्य हुआ है। कथ्य की विभिन्नता के नाम पर इन्दरनेटिय सूचनाओं (योगेन्द्र आहुजा की कहानी खाना, पांच मिनट )या कारपोरेटिय जगत के बहाने उचछृखल संबंधों (गीत चतुर्वेदी की कहानी पिंक स्लिप डेडी) को लहराते पेटीकोटों वाली भाषा (कहानियों की एक लम्बी श्रृंखला है) में देखा जा सकता है। कलावादी कहलाये जाने के आरोपों से बचाव के रास्ते सामाजिक राजनैतिक प्रतिबद्धता के प्रदर्शन में इस कदर बढ़े है कि कविता तीन तीन कालमों में लिखी जाने का चलन रचनात्मक श्रेष्ठता के दावे करता हुआ प्रस्तुत होता है। बहुत सी रचनाओं में भाषा के स्तर पर नक्सलवाद, माओवाद, आदिवासी जैसे कितने ही शब्द बेवजह ठूंसने का चलन बना है। कवि देवी प्रसाद मिश्र की कविताऐं जिनका फलक पहल से लेकर इधर जलसा के पहले अंक तक दिखता है, ऐसी प्रवृत्ति का प्रतयक्ष गवाह है। कलात्मक युक्तियों का लगातार अन्वेषण जारी है। एक ही समय में शतकीय आंकड़ों (51 कहानियां ) का नायब अंदाज देवी प्रसाद मिश्र के यहां जलसा के नये अंक में भी देखा जा सकता है। लेकिन वैचारिक धरातल पर अस्पष्टता के बावजूद क्रान्तिकारी दिखने की चाह में वे कला और कला, कला और कला के अन्वेषक होते चले जाते हैं। ''छठी मंजिल" इस बात को तथ्यात्मक रूप से ज्यादा स्पष्ट करती है। वे जिस छठी मंजिल की चकाचौंध में आत्ममुग्ध होते हुए दिख रहे हैं, वहां खिलता हुआ सा बाजार है, चुंधियाती रोशनियां है। और बहुत कुछ ऐसा ही। हर एक के जीवन को उसी बाजार के बीच खुशहाल देखने का झूठ फैलाना उसी विश्वपूंजी का खेल है जिसका प्रतिरोध शायद कहानीकार भी करना चाहता होगा, लेकिन वहां पहुंचना और उसके बीच हो जाना रचनाकार को ललचा रहा है। मनोज रूपड़ा की कहानी रद्दोबदल, अरूण कुमार असफल की कहानी "कुकुर का भुस्स" अन्य ऐसी ही कहानियां जिनमें बहुत कुछ अलग कह जाने का कलावादी रूझान और आवश्यकता से अधिक आत्मसजग विशिष्टताबोध बोध वाली प्रवृत्ति उजागर होती है।
पैकिंग और बाईंडिंग के नये नये से रूप वाला फूला-फूला अंदाज इस दौर के बाजार का ऐसा चरित्र है जिसमें ग्राहक के लिए उत्पाद की गणवत्ता को जांचना भी संभव नहीं  रह गया है। तैयार माल किस मैटेरियल का बना है, इसे छुपाने के लिए भी मैटेरियल पर कोटिंग की नयी से नयी तकनीक के इस्तेमाल से ऐसा संभव हो रहा है। स्क्रेप मैटेरियल से तैयार उत्पाद में दर्ज पैबंदों को भी चमचमाती पैकिंग में आकर्षक बनाकर पेश किया जा रहा है। योगेन्द्र आहुजा की पांच मिनट एक ऐसी कहानी है जिसकी रचना के लिए उस स्पेशिफाईड मैटेरियल को ढूंढा गया है जिससे सिलिकॉन चिप बनाया जाता है। एक ऐसा मैटेरियल जो अपने से निर्मित उत्पाद के जोड़ कहीं दिखने भी नहीं देता। फिर भी यदि कहीं दिखने लगते भी हैं, तो खुलते चाकू की खटाक होती आवाज के कारण सहम जाने वाला समय दुनिया की घड़ियों की सुईंयों को स्थिर करके उन्हें छुपा  देता है। घड़ी की टिक-टिक से बेदर्द और दहद्गत फैलाने वाले समय की यथास्थिति का एहसास पाठक हर क्षण करता रहता है। मक्खी मूछों वाली आक्रामक फौजी कार्यवाही का विरोध करते हुए वैश्विक एकता की मिसाल और राष्ट्रीय चेतना के प्रतीक सीकिंया बूढ़े का जिक्र करते हुए इतिहास की अनुगूंजों के साथ गुलामी के खिलाफ संघ्ार्ष को निर्णायक मोड़ तक पहुंचाने की अभिष्ट कामना कहानी के मूल में दिखायी देती है। गोपाल इस कहानी का ऐसा पात्र है जो मजदूर, चौकीदार, रिक्शे चलाने वाले, सब्जीफरोश, कबाड़िये और इसी तरह का छोटा-मोटा काम करते हुए जीवन के संघर्ष में जुटे तबके का प्रतिनिधित्व करता है।  
इस दृष्टिकोण से यदि कहानी को देखें तो न सिर्फ हाशिये पर रह रहे लोगों के प्रति लेखकीय पक्षधरता स्पष्ट होती है बल्कि पुरजोर तरह से इस बात को स्थापित करने की कोशिश साफ दिखती है कि कि आधुनिक तकनीक की विकासमान दुनिया को सम्भव बनाने में ऐसे ही लोगों की भूमिका महत्वपूर्ण है। एक सामन्य, लेकिन हुनरमंद घड़ीसाज के लम्पट और उच्चके बेटे का होनहार बेटा जब अंतरिक्ष की घड़ियों को दुरस्त कर लेने की दक्षता हांसिल कर पा रहा है तो इससे एक हद तक जनतांत्रिक होती जा रही दुनिया का पक्ष भी प्रस्तुत होता है। लेकिन उस ठोस वस्तुगत यथार्थ की अनदेखी नहीं की जा सकती जिसमें ज्ञान-विज्ञान पर कब्जा करती बाजारू दुनिया का होना दिखायी देता है। जरूरी है कि वस्तुगत यथार्थ की सही समझदारी के साथ रचना का सत्य उस  चिन्तन पर केन्द्रित हो जिससे सचमुच की राष्ट्रीय चेतना और अन्तरराष्ट्रीय बिरादराना के तत्वों को पकड़ने में पाठक सहूलियत महसूस कर सके। व्यक्तिगत रुप से उपलब्धियों को हांसिल करने वाले किसी एक महान  व्यक्ति की सक्रियता के इंतजार में बदलावों के संघर्ष को स्थगित नहीं किया जा सकता है, योगेन्द्र शायद इससे अनभिज्ञ न हो और न ही कोई भी संघर्ष ऐसे एक व्यक्ति की उपस्थिति मात्र से अन्तिम निर्णय तक पहुंच सकता है, यह समझ बनना भी जरूरी ही है। 
पूंजीवादी लोकतंत्र के आभूषणों (राजनैतिक पार्टियां) की लोकप्रिय धाराओं की नीतियां कुछ दिखावटी विरोध के बावजूद अमेरिका को रोल मॉडल की तरह प्रस्तुत करते हुए उसके ही ईशारों पर जारी है। जिसके चलते पूरा परिदृद्गय इस कदर धुंधला हुआ है कि विरोध और समर्थन की,, उनकी अवसरवादी कार्यवाहियां, किसी भी जन पक्षधर मुद्दे को दरकिनार करने के लिए तुरुप का पत्ता साबित हो रही है। उसी पूंजीवादी अमेरिका के आर्थिक हितों के हिसाब से चालू आर्थिक और विदेश नीति ने ही एक खास भूभाग में निवास कर रहे अप्रवासियों के लिए दोहरी नागरिकता का दरवाजा खोला है। आंतक के देवता, विश्व पूंजी के स्रोत, हथियारों के सौदागर, अमेरिका की प्रशस्ति में सदी के सबसे बड़े विस्थापन को जन्म दिया जा रहा है। तीसरी दुनिया के आला दिमाग  यूंही नहीं विश्व पूंजी की चाकरी करने को उतावले हैं! ऐसी ही नीतियों के पैरोकार शासक जिस तरह से सीधे तौर पर डालर पूंजी की जरुरत पर बल देते हुए अंध राष्ट्रवाद की लहर पैदा कर रहे हैं उसके चलते ही आम मध्यवर्गीय युवा के भीतर उसकी स्वीकार्यता को भी बल मिल रहा है। गरीब और पिछड़े देश वासियों के सामने एक भ्रम खड़ा करने की यह निश्चित ही चालक कोशिश है कि रोजी रोटी के जुगाड़ में सात समुन्द्र पार की यात्रा पर निकले ऐसे नागरिक जब माल असबाब जमाकर वापिस लौटेगें तो देश एवं समाज की बेहतरी के लिए कार्य करेगें। यहां इस सवाल से आंख मूंद ली गयी है कि कितना तो बचा होगा उनके भीतर देद्गा और कितनी देद्गा सेवा। योगेन्द्र आहुजा की कहानी पांच मिनट भी ऐसे ही ब्रेन ड्रेन की कहानी है और इम कहानी में भी इसी मुगालते की स्थापना है।  अपनी कहानी के अंत में योगेन्द्र भी ऐसे ही युवका से उम्मीदों का ख्याल पालते हैं।
यूं युवा रचनात्मक गतिविधियों के समुचित मूल्यांकन के लिए हिन्दी कला साहित्य और फिल्म की दुनिया के यहां दर्ज तथ्य मेरी सीमा ही है। वरना बहुत सी दूसरी रचनाऐं हैं जिनके पाठ मुझे प्रभावित करते रहे हैं। या ज्यादा साफ करते हुए कहूं तो जिनसे बहुत असहमति नहीं उपजी है। महेशा दातानी की फिल्म "मार्निंग रागा", बेला नेगी की फिल्म "दांये या बांये" अमोल गुप्ते की "स्टनली का डब्बा" और हिन्दी कहानियों में कैलाश बनबासी की "बाजार में रामधन", अरूण कुमार असफल की "पांच का सिक्का", योगेन्द्र आहुजा की "मर्सिया", नवीन कुमार नैथानी की "पारस" आदि बहुत सी रचनाऐं हैं जिनको देखना-पढ़ना एक अनुभव से गुजरना हुआ है।
गम्भीर दुर्घटनाओं के परिणाम कई बार किसी व्यक्ति विशेष को जीवन पर्यन्त अपनी गिरफ्त में ले लेते हैं और मानसिक अवसाद का गहरा कारण बन जाते हैं। बहुत नितांत तौर पर एक अकेले व्यक्ति की समस्या को सामाजिक दायरे के प्रश्न में देखने से ही रचना की प्रासंगिकता बनती है। महेश दातानी की फिल्म मार्निंग रागा ऐसे ही विषय के इर्द गिर्द एक ताना बाना रखती है और एक गम्भीर दुर्घटना में अपने प्रियों को खो देने के कारण अवसाद की गहरी छाया में डूबे पात्रों की मुक्ति का मार्ग संगीत की स्वर लहरियों में तलाश करती है। चूंकि बदलाव के किसी बहुत बड़े दावे की अनुगूंज फिल्म के पाठ में ही मौजूद नहीं इसलिए उन अर्थों को ढूंढने का कोई तुक नहीं जिनके आधार अन्य रचनाओं पर बात हो रही है। इस लिहाज से देखें तो बहुत ही साफ सुथरे कथ्य के साथ संवेदना के उन बिन्दु को जाग्रत करने में अहम रोल अदा करती है जिससे मानवीय तकलीफों के ज्यादा करीब पहुंचा जा सकता है। न ही किसी तरह की अलौकिकता ओर न ही इधर के दौर में बहुत उछृखंल प्रेम का प्रदर्शन बल्कि मानवीय अनुभूतियों की रागात्मकता का बहुत ही स्वाभाविक आख्यान पूरी फिल्म में जीवन्तता के साथ है। मार्निंग राग की बात करते हुए कथाकार योगेन्द्र आहुजा की कहानी मर्सिया का याद आ जाना स्वभाविक है। योगेन्द्र की कहानी का कथ्य यूं मार्निंग राग से जुदा है और उसके आशय भी, पर यह स्पष्ट है कि शास्त्रीय संगीत की रवायत के बरक्स पीपे, परात और तसलों के संगीत वाला बिम्ब ज्यादा प्रभावी और महत्वपूर्ण बिन्दु है जबकि महेश दातानी के यहां शास्त्रीय संगी का यह फ्यूजन बहुत सीमित होकर आता है। दांये या बांए बेला नेगी की पहली फिल्म है। हिन्दी फिल्म होते हुए भी उसमें एक खास किस्म की आंचलिकता बिखरी हुई है। उसे आंचलिक फिल्म कहना ही ज्यादा ठीक लग रहा है। महेश दातानी की फिल्म भी यूं भारीतय अंग्रेजी और कन्नड़ भाषा के साथ एक आंचलिकता को ही पकड़ रही है। बल्कि कहा जा सकता है कि दोनों ही फिल्मों में आंचलिकता का यह बिन्दु ठीक उसी तरह का है जैसे हिन्दी या किसी भी दूसरे साहित्य की रचनायें, जिनमें पात्रों की भाषा भौगोलिक पृष्ठभूमि की प्रमाणिकता वाली होती है। लेकिन बेला की फिल्म की विशेषता सिर्फ भाषायी ही नहीं अपितु विशिष्ट भूगोल के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से जूझते रचनाकार की प्रतिबद्धता का भी प्रश्न बनती है। यूं बेला नेगी की फिल्म बहुत खिलंदड़ भाषा में उत्तराखण्ड के भूगोल को पकड़ती है लेकिन उत्तराखण्ड के बौद्धिक जगत की उस सीमा को भी चिहि्नत कर दे रही जिसमें एन जी ओ किस्म की मानसिकता का विस्तार होता है और बेला भी उससे बच न पायी है। समय के हिसाब से सबसे निकट की रचना इसी वर्ष मई माह में आयी अमोल गुप्ते की पहली ही फिल्म स्टनली का डिब्बा है जो आत्मीयता और सामाजिक वंचनाओं के उन बिन्दुओं को आधार बना रही है जिनकी अनुपस्थिति में एक व्यक्ति के व्यक्तित्व के निर्माण की पूरी प्रक्रिया कैसे बाधित हो जाती है, इसको समझा जा सकता है। कथा पात्र बच्चे, स्टनली का प्रतिरूप स्कूल मास्टर वर्मा बार-बार बहुत खाऊ दिखता है। न सिर्फ साथी मास्टरों के खाने के डिब्बे उसे ललचाते हैं बल्कि बहुत छोटे छोटे स्कूली बच्चों के टिफिन पर भी उसकी ललचायी निगाहें हैं। उसके व्यक्तित्व के इस कमजोर पक्ष का खुलासा करने से बच जाने में निर्देशक ने बेहद सूझ बूझ का परिचय दिया है जिससे कहानी एक काव्यात्मक अंत की ओर आगे बढ़ जाती है। और आत्मीयता और व्यक्तित्व के विकास के अवसरों की अनुपस्थिति में जीवन जीते स्टनली के जीवन के बहुत अंधेरे कोनो में ले जाते हुए मास्टर वर्मा के बचपन से साक्षात्कार करा देती है।      

नोट: यह आलेख परिकथा के नये अंक में प्रकाशित है

Friday, November 25, 2011

मुझे मालूम है



  
अरुण कुमार "असफल" ऐसे रचनाकार है जिन्हें बहुत मुखर होकर बोलते हुए कम लोगों ने ही सुना होगा। लेकिन आस पास के वातावरण, सामाजिक, सांस्कृतिक स्थितियों पर उनकी दृष्टि हमेशा बेबाक रही। हां उस आवाज को सुनने के लिए अक्सर हो सकता है कि आपको अरुण के बहुत करीब जाना पड़े। लेकिन इस बार उनका बोलना आप सुन सकें- अरुण की वह टिप्पणी जिसका जिक्र फेसबुक के माध्यम से अरुण ने किया था, यहां आप सभी के लिए सादर प्रस्तुत है।
बहुत चुपके चुपके घुमड़ने वाली असहमतियों को दर्ज करना हमारी कोशिश का एक ऐसा हिस्सा है जिसमें इस ब्लाग की सार्थकता भी साबित हो सकती है और पद, उम्र या श्रेष्ठता के दूसरे मानदण्डों के आगे असहमतियों को दर्ज न कर सकने की सामंति मानसिकता से मुक्ति का रास्ता भी बनता है। हमारा मानना है कि असमहति एक स्वस्थ बहस का आधार होती है। विश्वास है कि पाठकों तक हमारे मंतव्य सकारात्मक प्रभाव छोड़ेंगे।
 -वि. गौ.
  
सूप तो सूप चलनी भी बोली
-अरुण कुमार 'असफल"
 वरिष्ठ साहित्यकार विष्णु खरे ने जनसत्ता के दिनॉक 09-10-2011 अंक में प्रकाशित अपने लेख ' सूत न कपास" में नोबेल पुरस्कार के बहाने  वरिष्ठ साहित्यकार विजयदान देथा पर जो अपमान जनक  टिप्पणियॉ की हैं उससे पूरा साहित्य समाज स्तब्ध है। लेख की भाषा और मिज़ाज से मालूम होता है कि लेखक ने कोई "पुराना हिसाब" चुकता करने के उद्देश्य से ही इसे लिखा है। एक ऐसे  वयोवृद्ध महान साहित्यकार, जो कि कूल्हे की हड्डी पर चोट की वजह से काफी समय से बिस्तर पर हो और सर में चोट लग जाने से जिनकी स्मरण क्षमता प्रभावित हुई हो, उन पर ऐसे फिकरे कसने का क्या मतलब था? बिज्जी की हालत इस समय ऐसी है कि वे इस लेख का जवाब देना तो दूर, अभी पढ़ने की भी स्थिति में नहीं हैं। एक जगह तो लेख में विष्णु खरे लिखतें हैं "यह (नोबेल पुरस्कार)  आलोचना या मूल्यॉकन का कोई मापदण्ड नहीं है " पर दूसरी जगह यह भी लिखतें हैं " नियम यह है कि खोटे सिक्के असली सिक्कों को बाहर कर देतें हैं " तथा "इन दो गिलट के रुपयों नें फिलहाल भारत में स्वीडी कलदार तोमस त्रॉस्त्रमार को चर्चा से बाहर कर दिया है---"। लेख में मूल्यॉकन के कोई अन्य तर्क रखे बगैर लेखक ने इन दो साहित्यकारों को गिलट के सिक्के और त्रॉस्त्रमार को खरा सिक्का साबित कर दिया। स्पष्ट है कि स्वयं लेखक के पास भी नोबेल पुरस्कार के अलावा मूल्यॉकन का कोई और तरीका नहीं है। निस्संदेह त्रॉस्त्रमार श्रेष्ठ कवि हैं लेकिन किसी की श्रेष्ठता साबित करते हुये किसी पर अपनी भड़ास निकालना आवश्यक है क्या? लेख में लेखक ने यह भी साबित करने की कोशिश की है कि इन दो भारतीय साहित्यकारों ने जमकर लॉबिंग की होगी। जहॉ तक विज्जी की बात है तो उनके बारे में ऊपर ही उल्लेख कर दिया गया हैं कि वे गंभीर रूप से अस्वस्थ हैं। उनका लिखना पढ़ना तो स्थगित है ही, बोलना बतियाना भी सीमित है। न ही किसी साहित्यिक संस्था या साहित्यकार ने कोई उनकी सुध ली और न ही उनका किसी से सम्पर्क है। तब उन्होने लॉबिंग कैसे की? क्या विष्णु खरे को यह नहीं मालूम कि बिज्जी की कहानियॉ बहुत पहले ही विश्व की कई भाषाओं में अनूदित हों चुकीं हैं और  वि्श्व साहित्यिक परिदृश्य में विजयदान देथा एक जाना पहचाना नाम है। हिन्दी में भी लोग सत्तर के दशक से उन्हे जानने लगे थे। 1979 हिन्दी में अनूदित उनकी कहानियों का पहला संकलन "दुविधा तथा अन्य कहानियॉ" आया तथा 1982 में दूसरी किताब "उलझन" आईं। "दुविधा" पर मणिकौल ने फिल्म बनाई तथा "फितरी चोर" कहानी पर हबीब तनवीर ने नाटक खेला। उनकी कई कहानियों पर फिल्में बनी हैं तथा नाटक खेले गए हैं। पर उन्होने इसके लिए न अन्य कहानीकरों की तरह मुम्बई के बारंबार चर लगाये और न ही नाटककारों के दरवाजे खटखटाये (एक ख्यातिप्राप्त नाटककार तो काफी समय तक उनकी एक कहानी पर अपना नाम देकर नाटक खेलते रहे)। यह तो उनकी कहानियों की अर्न्तवस्तु में बसी लोकजीवन की  गन्ध है जो लोगों को अपनी ओर खींचती हैं। कहानियों को इस काबिल बनाना इतना आसान कार्य नहीं है। इसके लिये 'लोक" की यात्रा करनी पड़ती है। बिज्जी ने यह यात्रा पचास साठ के दद्गाक में आरंभ कर दी थी। जब रास्ते के नाम पर रेत के ढूहे और वाहन के नाम पर ऊंट गाड़ी ही सर्वत्र दिखतें थे तब लोक कथाओं को लुप्त होने से बचाने की अदम्य इच्छा लिये विज्जी ने गॉव गॉव की यात्रा की और बड़े बुजुर्गो की स्मृतियों में बची लोक कथाओं को अभिलेखित किया। इस कार्य के लिये उसे अचित पारिश्रमिक भी दिया और सन्दर्भ में उसका जिक्र भी किया , अर्थात पूरी ईमानदारी और पारदर्शिता भी बरती।

स्पष्ट है , हमारे यहॉ  "जेनुइन" लेखकों" को हाशये पर डालने और माखौल उड़ाने  की जो पंरपरा है  विष्णु खरे का सन्दर्भित लेख उसका बखूबी से निर्वाह करता है। विष्णु खरे ही क्या एक बार तो राजस्थान में भी कुछ साहित्यकारों ने मौलिकता के नाम पर खारिज करने का अभियान चलाया था। कोई उनसे यह पूछे कि एक पैरा या एक पेज़ की लोक कथाओं को दस बीस या पचास पेज़् की कथाओं में पुर्नसृजन करने वाला दूसरा और कौन है? वे लोक कथाओं को ऐसी कथाओं में पुर्नसृजित करतें हैं जिसमें स्त्री अपने देह का स्वतन्त्र निर्णय लेती है, दलित और श्रमिक तर्क करतें हैं और राजा या प्रभावशाली लोगों को मुंह की खानी पड़ती है। सदियों पुरानी लोककथाओं का ऐसा रूप देना जो फिर कभी बासी न लगें। इसका अन्यत्र उदाहरण कहॉ हैं?  यह तो केवल साहित्य के क्षेत्र में योगदान है। बहुतों को तो यह नहीं मालूम होगा कि बिज्जी अपने महत्तम प्रयास से बोरून्दा में लड़कियों के लिये आवासीय महाविद्द्यालय खुलवाने में सफल रहे। एक ऐसे राज्य में जिस के कई क्षेत्र में अभी भी मध्यकालीन सामन्ती संस्कारों का ऐसा बोलबाला है कि लड़कियों के जन्म को अभिशप्त के रूप में लिया जाता है वहॉ के एक गॉव में लड़कियों के लिये इस उद्देश्य से महाविद्द्यालय खोलना कि लड़कियॉ घर से निकल कर बाहर तो निकलें, इससे बड़ा जनवादी और प्रगतिशील कार्य क्या होगा ? क्या नोबेल पुरस्कार से इसको नापा जा सकता है? क्या जिस व्यक्ति ने जीवनपर्यन्त बोरुन्दा को कर्मभूमि बनाया हो उससे यह उम्मीद की जा सकती है क्या कि वह नोबेलॉकाक्षी होगा? होता तो उसका कोई न कोई ठिकाना देश की राजधनी में अवश्य होता। चलिये देश नही तो प्रदे्श की राजधनी में अक्सर ही उसके पड़ाव होते। लेकिन फिल्मकारो नाटककारों और अन्य कलाकारों के तो उसके गॉव में ही पड़ाव लगतें हैं? दे्श के कितने साहित्यकारों के साहित्य में इतना दम है जो दे्श दुनिया को अपने पास खींच सकें। विपरीत इसके, लेख से ज़ाहिर होता है कि विष्णु खरे ही नोबेल पुरस्कार से काफी वास्ता रखतें होगें।इसलिए कई जगह "मुझे मालूम है" की रट लगाये से दिखतें हैं। मसलन "मुझे मालूम है कि कभी जर्मनी के हिंदी विशेषज्ञ लोठार लुत्से से भी अनुशंसाए मॅगाईं गईं थीं। मुझे यह भी मालूम है---"। गोया कि नोबेल पुरस्कार समिति से वैसा ही जुड़ाव है जैसा कि भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार समिति से। यह अलग बात है कि इस बार पुरस्कृत कवि को "हुड़ुकलुल्लु" की उपाधि न देकर पुरस्कार से वचिंत रह गये लोगो को ही कोसा है। जिनकी गलती सिर्फ इतनी ही है कि उनका नाम नोबेल सॅभावितों की सूची में आ गया है और इस तरह से वे नोबेलॉकाक्षियों की काली सूची में आ गयें हैं। जबकि विष्णु खरे एक जगह लिखतें हैं  "निर्णायक मंडल मुख्यत: जर्मन, फ्रेंच, इतालवी और इस्पानी भाषाओ के साहित्यिक अनुवादों पर निर्भर रहती है---" । तो क्या इसका यह अर्थ निकाल लिया जाये कि जिन साहित्यकारो ने इनमें से किसी देश की बारंबार यात्रा की है तो वे नोबेलॉकाक्षीं होगें या जो इनमें  से किसी भी दे्श की भाषा का जानकार है वह होगा नोबेलॉकाक्षीं? या यही  अर्थ निकाल लिया  जाये कि हिंदी के वे सम्राट नोबेलॉकाक्षी तो होगें ही जिन्होंने अपनी राजकुमारियों का ब्याह इन देशों के राजकुमारों से किया होगा। यदि ऐसा हो तो हो ! पर बिज्जी इस दंद-फंद से कोसों दूर हैं।

Monday, October 24, 2011

लोक जीवन और आधुनिकता



आलोचक जीवन सिंह जी के साक्षात्कार को पढ़ते हुए आधुनिकता और लोक जीवन पर उभरी असहमति को दर्ज करते हुए यह आलेख प्रस्तुत है।
- विजय गौड़

आधुनिकता को यदि बहुत थोड़े शब्दों में कहना हो तो कहा जा सकता है कि नित नये की ओर अग्रसर होती दुनिया का चित्र। पर ''नित नये"" कहने से आधुनिकता वह वृहद अर्थ, जो समाज, संस्कृति, साहित्य और इसके साथ-साथ जीवन के कार्यव्यापार के विभिन्न क्षेत्रों में दखल देते हुए नयी दुनिया की तसवीर गढ़ रहा है, स्पष्ट नहीं होता। यहां आधुनिकता का वह अर्थ भी स्पष्ट नहीं होता जो एक दौर की आधुनिकता को परवर्ती समय में पुरातन की ओर धकेलने वाला है। नैतिकता, आदर्श और मूल्यों की बदलती दुनिया में आधुनिकता एक ऐसी सत्त प्रक्रिया है जिसमें रुढ़ियों और परम्पराओं से मुक्ति के द्वार खुलते हैं और तर्क एवं ज्ञान की स्थापना का मार्ग प्रस्शत होता है। निषेध और स्वीकार के द्वंद्व से भरा ऐसा मार्ग जो जरुरी नहीं कि आज की आधुनिकता पर भविष्य में प्रश्नचिहन न खड़ा करे। दरअसल, इस आधार पर कहा जा सकता है कि आधुनिकता अपने अन्तर्निहित अर्थों में प्रासंगिकता के भी करीब अर्थ ध्वनित करने लगता है। पृथ्वी को ब्रहमाण्ड का केन्द्र ( टालेमी का मॉडल) मानने वाली आधुनिकता को सैकड़ों सालों बाद, सूर्य ब्रहमाण्ड का केन्द्र है, जैसे विचारों ने आधुनिक नहीं रहने दिया। कोपरनिकस की विज्ञान की समझ ने टालेमी के विचार को, जो सर्वमान्य रुप से स्वीकार्य था, मौत का खतरा उठाकर भी, पुरातन ओर अवैज्ञानिक साबित कर दिया। ज्ञान विज्ञान की नयी से नयी खोजों ने आधुनिकता को नूतनता का वह आवरण पहनाया है जिसे समय-काल, के हिसाब से विचार, वस्तुस्थिति और यथार्थ की पुन:संरचना में प्रासंगिकता की कसौटी पर कसा जाने लगा।

तर्क और बुद्धि की सत्ता का उदय ऐसी ही आधुनिकता के साथ दिखायी देता है। वैज्ञानिक आधार पर घ्ाटनाओं के कार्य-कारण संबंध को ढूंढने की कोशिश ने अंध-विश्वास और रुढ़ियों पर प्रहार करते हुए आधुनिक दुनिया की तस्वीर गढ़नी शुरु की। ऐतिहासिक विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि तार्किक परिणितियों के आधार पर घ्ाटनाओं के विश्लेषण करने के पद्धति पर, गैर-वैज्ञानिक समझ का प्रतिरोध करने वाली इस आधुनिकता को अप्रसांगिक मानने की कोई हठीली कोशिश भी आधुनिकता का नया रुप नहीं गढ़ सकती है। आधुनिकता के बरक्स उत्तर-आधुनिकता की गैर वैज्ञानिक अवधारणा के अपने उदय के साथ, अस्त होते जाने का इतिहास, इसका साक्ष्य है।

औद्योगिकरण की बयार के साथ योरोप में शुरु हुआ पुनर्जागरण वर्तमान दुनिया की आधुनिकता का वह आरम्भिक बिन्दु है जिसने मध्ययुग के अंधकारमय सामंती ढांचे को चुनौति दी। राजशाही की निरंकुशता के खिलाफ जन-प्रतिनिधित्व की शासन प्रणाली के महत्व पर बल दिया। मैगनाकार्टा का आंदोलन, जो सामंतशाही की पुच्च्तैनी व्यवस्था के खिलाफ मताधिकार के द्वारा नयी जनतांत्रिक प्रक्रिया की शुरुआत चाहता रहा, आगे के समय तक भी आधुनिकता की उन आरम्भिक कोशिशों का महत्वपूर्ण पड़ाव बना रहा। अमेरिकी और फ्रांसिसी क्रांन्ति के साथ उसके  स्थापना की महत्वपूर्ण स्थितियां वे निर्णायक मोड़ है जिसने काफी हद तक आधुनिक दुनिया के एक स्पष्ट चेहरे को आकार दिया। इससे पूर्व औद्योगिकरण की शुरुआती मुहिम के साथ राष्ट्र-राज्यों के उदय की प्रक्रिया ने व्यापारिक गतिविधियों की एक ऐसी आधुनिकता को जन्म देना शुरु कर दिया था जो वस्तु विनिमय की पुरातन प्रणाली को स्थानान्तरित कर चुकी थी। श्रम के बदलते स्वरुप ने सामाजिक संबंधों के बदलाव की जो शुरुआत की, साहित्य की काव्यात्मक भाषा उसे पूरी तरह अटा पानो में संभव न रही। गद्य साहित्य का उदय हुआ। भाषा सत्त बहती, आम बोलचाल की लयात्मकता में, गद्याात्मक होती चली गयी। कहानी, संस्मरण, यात्रा वृतांत, रेखा चित्र, निबंध और उपन्यासों का नया युग आरम्भ हुआ। साहित्य इतिहास के तमाम अंधेरे कोनो से टकराने लगा। नयी दुनिया की खोज में निकले अन्वेषकों, मेगस्थनीज, हवेनसांग, फाहयान, के यात्रा वृतांत उस शुरुआती कोशिशों के दस्तावेज हैं।

साहित्य में आधुनिकता की यह शुरुआत सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया को स्वर देने में ज्यादा लचीलेपन के साथ दिखायी देने लगी। बदलते सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यों की जटिलता ने स्वच्छंदतावाद को जन्म दिया जो अपने विकास के क्रम में यथार्थवाद की ओर अग्रसर होने लगा। राष्ट्रीय भाषाओं का विकास आरम्भ हुआ। मानवीय  संवेदना को वैचारिक मूल्यों ने परिपोषित करना शुरु किया। धार्मिक साहित्य और राजे रजवाड़ों की स्तुतिगान से भरे पुरातन साहित्य की बजाय आम मनुष्य के दुख-दर्दो को स्वर मिला।

समकालीन दुनिया की सर्वग्रासी बाजारु प्रवृत्ति, जो धार्मिक अंध विश्वास और नैतिक पतन की कोशिशों के साथ है उसे ही आधुनिक मानना और उसके प्रतिपक्ष में रहते हुए, जो कि जरूरी है, आधुनिकता के वास्तविक अर्थों से मुंह मोड़ लेना स्वंय को एक ढकोसले के साथ खड़ा कर लेना है। आधुनिकता की स्पष्ट पहचान किए बगैर गैर आधुनिक होते जाते इस दौर में बाजारु प्रवृत्ति का निषेध कतई  संभव नहीं। स्वस्थ प्रतियोगिता का भ्रम जाल रचता आज का बाजार विविधता की उस जन तांत्रिक प्रक्रिया के भी खिलाफ है जो एक सीमित अर्थ में ही आधुनिक कहा जा सकता है। स्वस्थ जनतंत्र के बिना स्वस्थ आधुनिकता का भी कोई स्पष्ट स्वरूप्ा नहीं उभर सकता। बाजार की गुलामी करता विज्ञान भी आज अपने पूरी तरह से आधुनिक होने की अर्थ-ध्वनि के साथ दिखाई नहीं दे रहा है।   

सामाजिक विकास का हर अगला चरण अपनी कुछ विशेषताओं के साथ होता है। इस अगले चरण की वस्तुगत स्थितियों के तहत ही आधुनिकता की परिभाषा भी अपना स्वरूप ग्रहण करती चली जाती है। बहुधा आधुनिकता के इस सोपान को समकालीन कह दिया जा रहा होता है। समकालीन और आधुनिकता का यह साम्य इसीलिए एक दूसरे को आपस में पर्याय बना देता है। समकालीनता, आधुनिकता और प्रासंगिकता ये तीन ऐसे शब्द हैं जिनके बीच किसी स्पष्ट विभाजक रेखा को खींच पाना इसीलिए संभव नहीं। अवधारणाओं की जटिलता के ऐसे निर्णायक बिन्दू पर बिना किसी ठोस विश्लेषण के अर्थ विभेद नहीं किया जा सकता। आधुनिकता के नाम पर सामाजिक और सांस्कृतिक पतन के आदर्शों से भरी व्यवस्था के चरित्र की पहचान बिना प्रासंगिकता के संभव नहीं। मौलिकता, साहस और बेबाकीपन के आधुनिक मुहावरों को तर्क का आधार बनाकर बहुत सस्ते में आधुनिक होने की यौनिक वर्जनाओं से भरी अभिव्यक्तियों को इसीलिए आधुनिक नहीं कहा जा सकता। संघ्ार्ष के बुनियादी स्वरूप को कुचलने को आमादा और सामाजिक विकास की हर जरुरी कार्रवाई को भटकाने का काम करती ऐसी समझदारी आधुनिकता का निषेध है।
आधुनिकता का सवाल लोक की जिस परिभाषा को वास्तविक अर्थों में व्याख्यायित करता है उसे स्थानिकता के साथ देख सकते हैं। स्थानिकता को छिन्न भिन्न करती कोई भी कार्रवाई आधुनिक कैसे कही जा सकती है। स्थानिकता का सवाल राष्ट्रीयता का सवाल है और राष्ट्रीयता का प्रश्न उसी आधुनिकता का प्रश्न है जो पुनर्जागरण से होती हुई अमेरिका, फ्रांस की क्रान्तियों के रास्ते आगे बढ़ती हुई पेरिस कम्यून की गलियों में भटकने के बाद रूस को सोवियत संघ्ा और चीन को आधुनिक चीन तक ले जाती है। लोक की अवधारणा में भी स्थानिकता समायी होती है। इसलिए लोक की अवधारणा को आधुनिकता से अलग करके परिभाषित करना ही पुरातनपंथी मान्यताओं का पिछलग्गू हो जाना है। पुरातनपंथी मान्यताऐं अस्मिता के किसी भी संघ्ार्ष को गैर जरूरी मानने के साथ होती होती हैं। भारतीय चिन्तन में आज दलित धारा की उपस्थिति और स्त्रि अस्मिता के प्रश्नों से उसे इसीलिए परहेज होता है। अस्मिता के संघ्ार्ष के मूल में भी राष्ट्रीय पहचान की तीव्रतम इच्छाऐं ही महत्वपूर्ण होती हैं। राष्ट्रीयता की मांग ही सामंती ढांचे को ध्वस्त करने की प्रगतिशील चेतना की संवाहक होती है लेकिन अपने चरम पर स्थायित्व के दोष से उसे मुक्त नहीं कहा जा सकता। यहीं पर आकर उसके गैर प्रगतिशील मूल्यों का पक्षधर हो जाना जैसा होने लगता है। क्षेत्रियता और दूसरे  ऐसे ही गैर प्रगतिशील  मूल्यों की गिरफ्त बढ़ने लग सकती है और आधुनिकता को ठीक से पहचाने बगैर वह सिर्फ लोक लोक की रट लगाने लगती है। स्थानिकता का नितांतपन उस सीमा के पार जाते हुए ही सार्वभौमिक हो सकता है जब वह बहुत आधुनिक होने के साथ हो। भौगोलिक, भाषायी और सांस्कृतिक विशिष्टता से हिलौर लेते समाज को सिर्फ कथ्य की विशिष्टता के लिहाज से विषय बनाती रचनाओं में दक्षिणपंथी भ्र्रामकता से ग्रसित होने की प्रवृत्ति होती है। ठहराव और दुहराव उसकी जड़वत प्रकृति के तौर पर होते हैं। स्पष्ट है कि उनसे पार जाने की कोशिशों से ही यथार्थ का उन्मूलन और वैश्विक जन समाज की चिन्ताओं का दायरा आकार लेता है। भूगोल और संस्कृति के बार-बार के दुहराव स्थानिकता को बचाए रखते हुए लोक के सर्जन में कतई सहायक नहीं हो सकते। दृश्यावलियों की समरूपता और सांस्कृतिक परिघ्ाटनाओं का एकांगी वर्णन कलावाद के करीब जाना ही है। जब प्रकृति अपने रूपाकार में गतिशील है तो उसके प्रस्तुति की दृश्यावलियां कैसे स्थिर हो सकती हैं ? साक्ष्यों के तौर पर स्थानिकता को प्रकट करती ऐसी दृश्यावलियां जिस मानसिकता से उपतजी हैं उसमें यथार्थ के हुबहू प्रस्तुतिकरण की चाह, जो संदेहों के परे हो, कारण होती है। यथार्थ के उन्मूलन में उनका योगदान इतना जड़वत होता है कि किसी नयी संभावना को खोजा नहीं जा सकता। निपट एकांतिक हो जाने वाली उनकी अनुभूति विशिष्टताबोध से भरी होने लगती है। छायावदी युगीन चेतना की कमजोरी इस सीमा के अतिक्रमण न कर पाने में ही रही है। संसाधनों के सार्थक उपयोग की बजाय प्रकृति से किसी भी तरह की छेड़-छाड़ यहां निषेध हो जाती है और विध्वंश की आततायी कार्रवाइयों के विरोध में नॉस्टेलजिक हो जाने की भावनात्मक अनुभूतियां विद्यमान होने लगती हैं। स्वस्थ मनुष्य और अवसाद में घिरे व्यक्ति के बीच के फर्क से समझा जा सकता है। अवसाद में घिरे व्यक्ति को कतिपय एक बार देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि वह अस्वस्थ है और उसकी अस्वस्थता का क्षेत्रफल सामाजिक उदासीनता के घेरे तक विस्तार ले सकता है। जो किसी भी निर्णायक संघर्ष तक प्रेरित करने की बजाय स्थितियों से नकार के रूपग में विकसित होता जाता है। तटस्थता की मुख-मुद्रा में भी वह निषेध के तत्वों का ही सर्जक हो सकता है।