Showing posts with label पुस्तक समीक्षा. Show all posts
Showing posts with label पुस्तक समीक्षा. Show all posts

Tuesday, November 15, 2022

ज़करिया स्ट्रीट से मेफ़ेयर रोड तक : विसंगतियों का सिलसिला थमता नहीं

पढ़ते हैं हाल ही में प्रकाशित रेणु गौरीसरिया की आत्मकथात्मक पुस्तक पर लिखी वाणी श्री बाजोरिया की समीक्षा।

वाणी श्री बाजोरिया एक स्नातकोत्तर  अवकाश प्राप्त शिक्षिका हैं, जिन्होंने साउथ प्वाइंट स्कूल और गोखले मेमोरियल गर्ल्स स्कूल में 20 वर्षों तक अध्यापन का कार्य किया।कविताएँ,कहानियाँ,समीक्षा,यात्रा-संस्मरण आदि लेखन में उनकी विशेष रूचि है। उनकी रचनाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। 'साहित्यिकी' नामक साहित्यिक संस्था से वे वर्षों से जुड़ी हैं जिसमें साहित्य चर्चा में वे समय समय पर वक्तव्य रखती हैं। वे विश्व में महिलाओं की सबसे बड़ी संस्था इनरव्हील से जुड़ी हैं जिसमें समाज सेवा का कार्य किया जाता है ।गरीब और निचले तबकों के लोगों के जीवन में सुधार लाने के लिए अनेक तरह के छोटे-बड़े काम करने में उन्हें सुख मिलता है।वे विभिन्न  रोगों के निवारण के लिए प्राणिक हीलिंग भी करती हैं। 

 

वाणी श्री बाजोरिया

9830617013

 रेणुजी से जब एक छोटी सी बातचीत मैंने उनकी आत्मकथा पर शुरू की और कहा कि आपको देखकर लगता नहीं कि आपने इतना कुछ सहा है तो बोलीं-' अरे बचपना था उस समय उम्र कम थी तो बचपने में ये सब कुछ हो गया था।'यही एक बात उन्हें सबसे अलग करती है।

न दुरूह शब्दों की श्रृंखलाओं के बोझ से दबी स्त्री-विमर्श की बड़ी-बड़ी बातें  न नारी शोषण के मुहावरों में स्वयं को फिट करने की मंशा। यही बेबाकी, ईमानदारी और सच्चाई उनकी पूरी पुस्तक, उनकी जीवनी में है- जिसका नाम है 'ज़करिया स्ट्रीट से मेफ़ेयर रोड तक'।

उच्च मध्यवर्गीय संपन्न व्यवसायिक परिवार में पैदा हुई रेणुजी के जीवन की घटनाओं को  चार भागों में बाँटकर देखा जा सकता है। प्रथम भाग में बचपन एवं परिवार की घटनाओं,  सुखद क्षणों एवं पारिवारिक माहौल का अत्यंत अंतरंगता से वर्णन किया है, क्योंकि  निर्माण की प्रक्रिया में बनी जीवन की इमारत का वह  कोना आज भी उनकी यादों से महक रहा है। भाई बहन के साथ खेलता- कूदता ,सुमधुर,किलकता प्यार भरा बचपन, संयुक्त परिवार में स्त्रियों का अपनापा, पुरुषों का संगठित पारिवारिक ढाँचा उनकी यादों के संसार में आज भी जीवित है। कोई भी नहीं भूल पाता इतना सुखमय बचपन, विशेषकर तब जब उसके बाद दुखों का अप्रत्याशित समुद्र लीलने सामने खड़ा हो। 

रेणु जी के जीवन का दूसरा अध्याय शुरू होता है उनके विवाह के पश्चात।प्रथम विवाह रेणु जी के जीवन में खुशियों का साम्राज्य लेकर आया  परंतु बहुत जल्द ही नियति के कुचक्र का ग्रास बन गया ।पत्नी पर जान छिड़कने वाले पति की असमय ही मृत्यु हो जाती है। वे चार महीने की  गर्भवती पत्नी को छोड़कर दुनिया से विदा ले लेते हैं। इतने बड़े बज्रपात के बाद एक तरह से वे पूरी तरह से टूट गईं परंतु उनके परिवार वालों ने उन्हें बहुत सहारा दिया और सँभाले रखा। रेणुजी लिखती है, "मैं सोचती हूँ जैसा बचपन मैंने जिया जैसे संस्कार मुझे मिले जिन आदर्शों को लेकर मैं आगे बढ़ी वह सब कैसे हुआ होगा! उस कच्ची उम्र में हठात् जो आँधी मुझे झकझोर गई थी उसे मैंने कैसे सहन किया होगा? मेरे परिवार वालों ने ,मेरे मित्रों ने मुझे टूटने नहीं दिया। मैंने तय किया कि मैं अपनी छूटी हुई पढ़ाई फिर से जारी करूँगी"।          

तत्पश्चात उनका पुनर्विवाह लंदन से पढ़ कर आए लक्ष्मीनारायण गौरीसरिया जो उम्र में उनसे दस वर्ष बड़े थे, से कर दिया गया। 

द्वितीय  विवाह की विसंगतियों को उन्होंने बेबाकी से लिखा। पति के साथ साथ ससुराल वालों का व्यवहार भी उनके साथ बहुत बुरा था। वे लिखती हैं " दर्द इतना बढ़ गया कि मेरा आत्मविश्वास डगमगाने लगा था और इन कष्ट कर हालातों से मुक्ति पाने के लिए तब मैंने दो दो बार आत्महत्या की चेष्टा की थी,जैसे -तैसे मुझे बचा लिया गया।"  "दूसरी बार होशियारी बरतते हुए किसी को कुछ बताए बगैर बहुत सारी नींद की गोलियाँ खा ली थीं पर समय रहते बचा ली गई। आज सोचती हूँ यह सब करते वक्त पम्मी नहीं थी क्या मेरे विचारों में कहीं भी।" एक जगह वे लिखती है कि "कुछ मधुर तो कुछ कटु दिन बीती रहे थे अचानक कुछ ऐसी घटना घटी कि मैं बुरी तरह घबरा कर बहुत ही असहाय महसूस करके माँ भैया के पास चली गई। आगे  लिखती हैं-यह कैसा पति है जो मेरी सुरक्षा का दायित्व नहीं ले सकता।" तीसरी बार उन्होंने फिर आत्महत्या का प्रयास किया मकान से कूदकर। तारीख थी 23 जून 1963 अगले महीने वे  22 वर्ष की होतीं।"

उम्र के उस पड़ाव पर जब कलियों जैसी वनिताओं को ससुराल में सुकोमल परिवेश की आवश्यकता होती है पर वह हमेशा नहीं मिल पाता ।वह कुछ समझने लायक हो उसके पहले ही पितृसत्तात्मक सोच और व्यवहार की चाबुकें उन्हें घायल कर देती हैं एवं कलियों का मासूम मन कुम्हला जाता है,जैसा कि रेणु जी के साथ हुआ। पुरुष अपनी वंशानुगत पुरानी सोच की श्रृंखला स्त्री के पैरों में डालकर सोचता है कि वह कदम से कदम मिलाकर चले,पर यह हो नहीं पाता है। अपनी मायके की जड़ों से काट दी गई स्त्री को दोबारा पनपने के लिए जिस कोमल जमीन  की आवश्यकता होती है उसकी जरूरत को पुरुष का अहंकार उपेक्षित कर देता है।दाम्पत्य की लंबी दायित्व पूर्ण यात्रा में स्त्री से ही अपेक्षा की जाती है कि उसे जो भी मिला है उसे शिरोधार्य मानकर अपना ले। अगर वह यह करने में चूक गई या उसने नकार दिया तो उसके सारे संबंधों के तार तोड़ दिए जाते हैं। अनकहा होकर भी यहाँ स्त्री- शोषण का एक व्यथा पूर्ण ढाँचा आकार ले ही लेता है, इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता। अपनी पुत्री से दूरी एक माता के लिए कितनी वेदना पूर्ण है यह उनकी पुस्तक में  जाहिर है ग्यारह वर्षों तक पुत्री से उनका संपर्क तोड़ दिया जाता है ।यहाँ तक कि उनकी पुत्री को यह भी नहीं पता कि उनकी माँ जीवित है या नहीं। 

रेणुजी के जीवन में विसंगतियों का सिलसिला थमता नहीं ,उन्हें दूसरी बार वैधव्य का सामना करना पड़ता है ।

रेणुजी के जीवन का तीसरा अध्याय अब शुरू होता है। इतने वेदना भरे अतीत के बावजूद वे स्वयं को समेट कर खड़ा करतीहैं।  द्वितीय बार वैधव्य के पश्चात जिस ढंग से उन्होंने स्वयं को  स्थापित किया वह अपने आप में प्रेरणास्पद है ।यह एक आम सी दिखनेवाली स्त्री की संघर्षपूर्ण गाथा है जो इस मायने में अपने को खास बनाती है कि किस तरह एक परकटी चिड़िया अपनी जिजीविषा को कायम रख कर अंततः पंख पा ही लेती है ।वे धीरे-धीरे उच्च शिक्षा प्राप्त कर पग पग पर अपने अतीत की स्मृतियों की अवहेलना कर आगे बढ़ती हैं, अध्यापन के कार्य से स्वयं अपनी नियति-निर्मात्री बनती हैं एवं 'जीवन' की उपस्थिति को सार्थकता देती हैं । स्मृतियों के चित्रों को जिस तरह से उन्होंने माला की तरह पिरोया है वह बहुत खूबसूरत है पढ़ते रहने को बाध्य करता है,कहीं भी ऊब नहीं होती ।सबसे बड़ी बात है आत्मीयता से जीवन के सारे चित्रों को ऐसे साहस के साथ उकेरना ।पुस्तक में कहीं ना कहीं पूरे स्त्री वर्ग की विडंबना का दस्तावेज हमारे सामने आता है,साथ ही साथ एक बहुत गहरा संदेश भी है कि माता- पिता हमेशा पुत्री का साथ दें जैसा रेणुजी के मायकेवालों ने दिया। उसे पराया धन मान कर अकेला न छोड़ दें ताकि  वह स्वयं को असहाय महसूस न करे ।

बचपन के विभिन्न कलाकारों, साहित्यकारों का संसर्ग ,फिल्मी दुनिया के लोगों का साथ ,नाटक की दुनिया के लोगों के साथ संपर्क, महान विद्वानों एवं संगीतज्ञों के साथ संपर्क, विभिन्न संस्थाओं से जुड़ाव के साथ-साथ मित्र संबंधों का फैलाव उनकी जीवन यात्रा को बल देता है।पुस्तक का यह चौथा भाग इन्हीं  संबंधों एवं संपर्कों को समर्पित है ।जहाँ आरंभ में एक ओर अभिजात्य वर्ग की स्त्री का मौन रहकर मर्यादा की सीमा को न तोड़ कर सब कुछ चुपचाप भोगने का वर्णन है ,तो पुस्तक के अंत में उनके स्वयं के पुत्र, पुत्री के मुक्त जीवन शैली की चर्चा भी बेबाकी से करती हैं। पुस्तक में एक पूरा युग बोलता है, जिसमें जीवन के बदलते रंगों का समाहार है।ऐसा लगता है मानो कोई नाटक चल रहा है जिसका हर बदलता दृश्य हमें आश्चर्यचकित भी करता है तो वर्णन की खूबसूरती के कारण पूरा प्रभाव भी डालता है। इतनी लंबी यात्रा के बाद भी मौन रहकर आज भी वे कार्यरत हैं। पुस्तक में वर्णित कथ्य कहीं भी शब्दों एवं भाषा का मोहताज नहीं है। बड़ी सादगी ,सरलता, निस्पृहता से अत्यंत प्रवाहमयी प्राँजल भाषा में पुस्तक लिखी गई है ।उम्र के इस पड़ाव पर आकर जीवन का पुनरावलोकन करना एवं उसे शब्द बद्ध करना कोई साधारण काम नहीं है। अपने को खोने के लिए रेणुजी ने किसी अन्य चीज का सहारा नहीं लिया वरण स्वयं को पाने एवं पुनर्स्थापित करने के लिए कलम थामी ।साहित्यिकी को गर्व है ऐसे संघर्षमय व्यक्तित्व की स्वामिनी सदस्य को अपने बीच पाकर।

Wednesday, October 5, 2022

मधुपुर आबाद रहे

 

वृहत्तर सरोकारों से जुड़ा काव्य संग्रह : मधुपुर आबाद रहे

किरण सिपानी

 सहलेखन,सहसंपादन के अतिरिक्त गीता दूबे के स्वलेखन की पहली प्रकाशित काव्य कृति है —   'मधुपुर आबाद रहे।पहली संतान की तरह पहली मौलिक पुस्तक भी प्रिय होती है। इस सृजन के लिए गीता दूबे को बधाई।

बड़ी संजीदगी से अपने युग के यक्ष- प्रश्नों से जूझती कवयित्री स्त्री-मन के तहखानों की पड़ताल भी करती है। व्यापक मानव समुदाय से जुड़ी विभिन्न भावों और मूडों की 53 कविताएंँ कवयित्री के उज्जवल भविष्य का शंखनाद करती हैं। कवयित्री के शब्दों में —"कविता की व्यापकता मानव मात्र से जुड़ी संवेदना को खुद में समेट कर उसे विस्तार देती है ,शब्दबद्ध करती है।" उसकी कविताओं में कहीं आतंकवाद का खौफ पसरा है।कहीं बेरोजगारी का टीसता दर्द है।कहीं सिर उठाए आधुनिक जीवन शैली की विडम्बनाएँ हैं।कहीं इंसानियत का गला घोटता बाजारवाद है। कहीं प्रजातंत्र में खूनमखून हो गए अरमानों की पड़ताल है।कहीं बुद्ध के बहाने मूर्ति पूजा की साजिश की पीड़ा है। कहीं प्रकृति और मानव के अंतर्संबंधों की पड़ताल है। कहीं स्त्री-पुरुष के संबंधों के इंद्रधनुषी- सलेटी रंग हैं। कहीं जीवन के केंद्रीय भाव प्यार के रंग-तरंग-व्यंग की बौछार है और कहीं पर अपने गुरुओं का कृतज्ञतापूर्ण स्मरण-नमन है। संग्रह की पहली कविता 'स्त्री होना' से ही स्त्री होने की विडंबना का एहसास हौले -हौले पाठक के जेहन में उतरने लगता है। चौंसठ कलाओं में दक्ष होकर भी स्त्री देह की धुरी पर ही टँगी होती है।हकीकत को बयांँ करती कवयित्री के शब्द हैं:


स्त्री होना

विषैले सांँपों की संगत को

तनी हुई रस्सी समझकर चलना होता है।

 

परंपरा और आधुनिकता के बीच 'चिड़ियाँ' सी झूलती लड़कियांँ आँधियों के वार से तार-तार हो जाती हैं। मुक्ति के लिए छटपटाती बेटियों को कवयित्री छद्म मुक्ति के भुलावे से सावधान रहने की सीख देती है। मुक्ति के संदर्भ में कवयित्री की दृष्टि साफ है :

मुक्ति का सही आनंद और आस्वाद

अपनी नहीं, सबकी मुक्ति में है।

जहांँ मुक्त विचार और उदार आचार हो

हर एक के लिए विकास का आधार हो।

 जहाँ अर्गलाएँ तन की ही नहीं

मन की भी कटकर गिरें....

 असहमति के लिए जगह मिले

निर्णय का अधिकार मिले।

 

'मुक्ति कहांँ है' कविता पुरातन से अधुनातन नारी की कहानी बयांँ करती है। नारी स्वयं से ही प्रश्न करती है :

मुक्ति कहांँ है अभी

पूरी समग्रता में।

 

अभी भी तो नारी चीज और वस्तु है, द्वितीय श्रेणी की नागरिक है, वह मनुष्य कहांँ है ? अभी तो वह नए इतिहास को रचने के लिए हुंकार रही है। अपनी सखियों को संगठित होने के लिए पुकार रही है। नए प्रतीकों, नए उपमानों  का एक नया संसार गढ़ना चाहती है वह। सूरज को अपनी हथेली पर उतार लाना चाहती है वह। कोमलता के रेशमी एहसासों की कैद से मुक्त हो  पथरीले रास्तों पर चलकर अपने सही मुकाम तक पहुंँचने की आकांक्षी है वह।

 

प्यार-1, प्यार-2, इंतजार, प्रेम, फासला, सौंदर्य, सूरज, मंजिल आदि कविताएंँ इस विश्वास पर मुहर लगाती हैं कि प्रेम ही जीवन की धुरी है। जीवन की समस्त परिधियांँ इसी से संचालित होती हैं, गतिमान रहती हैं। इस धुरी का स्खलन जीवन को एकाकीपन और उदासी के रंगों से भरकर श्री हीन कर देता है। किसी अपने के प्रेम की नर्म-गर्म रोशनी से सार्थक है कवयित्री का जीवन:

सौभाग्य तिलक जो रच दिया

तुमने मेरे माथे पर अनायास ही

उसकी ऊष्मा से अब तक

घिरा हुआ है मेरा जीवन।

उस सौभाग्य को

अपने प्रशस्त भाल पर

विजय पताका सी धारे हुए

सपनों के संसार में विचर रही हूँ मैं।

 

बसंत की मादक बयार की तरह प्रेम सांँस-सांँस को महका देता है। प्यार की ताजा सुवास व्यक्ति के पोर-पोर में घुल जाती है। असीम संभावनाओं के द्वार खुल जाते हैं। जीवन को एक मकसद मिल जाता है। प्रकृति के अद्भुत सौंदर्य को पीने के लिए प्रिय का स्मरण कितना स्वाभाविक होता है :

इस अद्भुत अप्रतिम सौंदर्य को निहारते हुए

जाती है

अनायास तुम्हारी याद।....

इस सौंदर्य को संजो पाना

बटोर पाना

अकेले मेरे वश की बात भी तो नहीं।

 

प्यार का रंग सुरक्षित रहे तो दुनिया बेनूर नहीं होती। पर आधुनिक समय में मनुष्य पर स्वार्थ इतना हावी हो गया है कि वह अपनी जिंदगी की ताल को बिखेरने पर आमादा हो गया है।प्रेम के शाश्वत पाठ को पढ़ने के लिए मनुष्य को प्रेम के प्रतीक मधुपुर के पास लौटना ही होगा:

मधुपुर

ऐसे ही रहना आबाद

अपने अंतर में समेटे

प्रेम का शाश्वत राग।

 हम आएंगे

फिर -फिर तुम्हारे पास

सीखने प्रेम का अद्भुत अनूठा पाठ।

 

मन की धरती पर विचरने वाली इस संग्रह की ढेरों कविताएंँ मानवीय संवेदनाओं को बड़े जीवंत रूप में उकेरती हैं। इन कविताओं में अभिव्यक्त व्यक्तिगत पीड़ा, थकान, विचलन,विराग ,विश्वास, आश्वस्ति पाठक को स्पंदित करते हैं :

ऐसा क्यों होता है

कभी-कभी मन बादल हो जाता है

जरा सी ठेस लगी तो टप टप झड़ जाता है

.....

कतरा कतरा लहू जिगर का

बर्फ  सा जम जाता है।

 

लाजवंती के पौधे सा दुख हद से गुजर जाता है और :

 जो दर्द से दवा बनने की तैयारी में घुट रहा था

भीतर ही भीतर

भीतर ही भीतर।

 

इश्तिहार, काश, मन की धरती, दुख, प्रतिकार स्वीकारोक्ति, ऐसा क्यों होता है आदि कविताएंँ बहुत ही मर्मस्पर्शी हैं।

 

प्रकृति के विभिन्न उपादानों के रूप- सौंदर्य से कवयित्री आंदोलित होती है ।कभी चांँद चिरकालिक शाश्वत मैसेंजर की तरह आज भी संदेश पहुंँचाता सा प्रतीत होता है। कभी कवयित्री को रुमानियत का प्रतीक चाँद नहीं चाहिए, वह तो अपनी हथेली पर सूरज को उतार लाने की कामना करती है। तो कभी उसे दुलारता हुआ जंगल पास बुलाता है :

कहता है, आओ

सुनो जरा हमारी भी तान।

अनदेखे, अनछुए, अद्भुत सौंदर्य से घिरा

जंगल का जादुई परिवेश

बांँध लेता है मन को।

दूर हो जाता है

अजनबियत का अहसास।

 

कवयित्री पीड़ित है कि सभी फेसबुक और व्हाट्सएप पर व्यस्त हैं। किसी को नन्ही गौरैया की चिंता नहीं है। आधुनिक विकास और विनाश जुड़वाँ भाइयों जैसे एक साथ पल्लवित हो रहे हैं। मोबाइल, कंप्यूटर और अनेक इलेक्ट्रॉनिक उपादानों ने जीवन की रफ्तार कई गुना तेज कर दी है। पर मोबाइल टावरों का संजाल और इलेक्ट्रॉनिक कचरे का बेहिसाब जंगल विनाश-लीला रच रहा है। लाखों अवरोधों के बाद भी प्रकृति का वरदान नन्ही गौरैया दुगने जोश से अपने नए सृजन में जुट जाती है।

'घरबंदी' की चार कविताएंँ खाये-पीये-अघायों के सोशलाइजेशन की खोज-खबर लेती हुई भुखमरी के विकराल प्रश्न पर जा टिकती है। कोरोना काल में सरकारी फरमानों की बंदिशें भी दिहाड़ी मजदूरों के सैलाब को रोक नहीं पातीं। 'हथेली पर रख कर प्राण, पाने को सजा से त्राण'  वे निकल पड़ते हैं अपने घरों की ओर। जाने घर की चौखट कब नसीब होगी उन्हें। कब घर वालों के प्यार से सनी रूखी रोटी मिलेगी। घरबंदी के शिकार इन जैसे लोगों के प्रति ये कविताएंँ करुणा की धार बरसाती हैं। उनकी खुशहाली के लिए पाठकों के हाथ दुआओं में उठ जाते हैं।

 

शांतिनिकेतन, चंद्रा मैडम के साठवें जन्मदिन पर, सुकीर्ति दी की मृत्यु पर लिखी कविताएंँ अपने गुरुओं-साहित्यकारों के प्रति प्रणति-निवेदन है। यह स्मरण मन को तृप्त- शांत करता है :

आकुल हमारा मन

खोजता है समाधान

जब किसी समस्या का

शीष पर रख हाथ

वात्सल्य का

दुलार देती हैं आप

नन्हे छौने की तरह।

 

सच्चे मित्र शब्दों-दूरियों के मोहताज नहीं होते। वे हमारी प्राण-वायु होते हैं। बड़े मार्मिक अंदाज में 'गुइयां' कविता सख्य के अद्भुत संबंध को कलमबद्ध करती है :

दोनों हथेलियों पर अपना मासूम उजला चेहरा टिका

बड़े भोलेपन से पूछती तुम,

' गोंइयां बोलबू नाहीं ?'

इतना निश्चल होता तुम्हारा स्वर

कि बरबस हंँस पड़ती मैं

और फिर शुरू हो जाता किस्सों का अनंत सिलसिला।

 

विज्ञान और तकनीक ने हमारे आधुनिक जीवन में अकल्पनीय परिवर्तन किया है। पर पुराने जीवन की कुछ रस्में आज भी हमारे दिलों में कसक पैदा करती हैं। आज :

प्रेम के संदेशे भी

जो कई बार

पढ़ लेने के तुरंत बाद

मिटा भी दिये जाते हैं।

जैसे डिलीट करने मात्र से

डिलीट हो जाती है

वह सूरत भी।

काश! फिर से लिखे जाते खत,

सहेजे जाते उम्र भर।

 

व्यंग्य का पैनापन सिंदूर, कवि गोष्ठी, राज़, न्याय, इंतजार, बाज़ार जैसी कविताओं के माध्यम से हमारे अंतर को भेदता चला जाता है। इंसानियत का गला घोंटता बाजार हमारी मूलभूत आवश्यकता बन गया है। आज के जीवन का शाश्वत सत्य है बेचना और खरीदना:

व्यापार हमारे खून में समा गया है

और हम मुग्ध हैं

अपने इस कौशल पर खुद ही

आखिर कुछ तो सीखा है

हमने अपने प्रभुओं, आकाओं

और तथाकथित लोकनायकों से,

जिन्होंने हमारी हर सांँस को गिरवी रख दिया है

देशी-विदेशी तिजोरियों में।

शरीर की नुमाइश में आत्ममुग्ध स्त्रियों को लताड़ने में कवयित्री कोई कोर-कसर नहीं छोड़ती :

धड़काती रही तुम

सैकड़ों युवाओं के दिल

बनावटी सौंदर्य की मरीचिका में

भटककर खो बैठे

वे अपनी मंजिल।

 

आतंकवाद, एसिड फेंकने और बेरोजगारी जैसी समस्याओं से कवयित्री विचलित होती है। वह आलोचक की भूमिका में उतर जाती है। सच्चे प्रेमी तो उदार होते हैं। उनमें अहंकार का लेश मात्र भी नहीं होता। बड़ी बेबाकी से वह कहती है :

 

फेंकते हैं जो एसिड

प्रेमिका के चेहरे पर

नहीं होते प्रेमी

होते हैं शिकारी

या फिर पागल,वहमी

.........

भला कैसा है यह प्यार

झुलसा कर, जला कर

अपनी ही प्रिया को

कर दे, उसका सर्वनाश।

यह तो है,

महज घातक अहंकार।

अहंकार, किसी का भी हो

पुरुष, जाति, देश या धर्म का

अपने साथ लाता है

सिर्फ और सिर्फ

विध्वंसक विनाश।

 

युग के तमाम उतार-चढ़ावों पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करती हुई कवयित्री आनेवाले उजियारे के प्रति आश्वस्त है:

जन चेतना का, होगा जब विस्तार

अंधेरा छंट जायेगा, छायेगा उजियार।

 

अतुकांत कविताओं के साथ, टेक लिए तुकबंद कविताएंँ, कुछ मुक्तक और गजलें प्रभावित करती हैं। इस संग्रह की भाषा बहते नीर सी है, संतरण करते मन में मिश्री सी घुल जाती है। अक्सर स्त्री सृजनात्मकता को स्त्री विमर्श के चश्मे से निहारने का चलन है। चश्मा उतार कर दीदार होना चाहिए, बात तो तब बने!



पुस्तक: मधेपुर आबाद रहे

रचनाकार: गीता दूबे

प्रकाशक: न्यु वर्ल्ड पब्लिकेशन, नई दिल्ली

मूल्य: 175/-