Showing posts with label पत्र. Show all posts
Showing posts with label पत्र. Show all posts

Friday, November 9, 2012

मुझेसे मेरी आज़ादी छीन ली गयी है

48 वर्षीय नसरीन सतूदेह इरान की बेहद लोकप्रिय मानव अधिकार वकील और कार्यकर्ता हैं जो अपने कट्टर पंथी शासन विरोधी विचारों के लिए सरकार की आंख की किरकिरी बनी हुई हैं.अपने छात्र जीवन में खूब अच्छे नंबरों से पास होने के बाद उन्होंने कानून की पढाई की पर वकालत करने के लाइसेंस के लिए उन्हें आठ साल का लम्बा इंतजार करना पड़ा.उन्होंने सरकारी महकमों और बैंक में भी नौकरी की पर इरान के पुरुष वर्चस्व वाले समाज में आततायी पिताओं के सताए हुए बच्चों और शासन के बर्बर कोप का भाजन बने राजनैतिक कार्यकर्ताओं के लिए क़ानूनी सहायता प्रदान करने के कारण उन्हें दुनिया भर में खूब सम्मान मिला.पिछले राष्ट्रपति चुनाव की कथित धांधलियों में उन्होंने खुल कर विरोधी पक्ष का साथ दिया...नतीजा सितम्बर 2010 में उनकी गिरफ़्तारी और अंततः जनवरी 2011 में ग्यारह साल की एकाकी जेल की सजा... कैद की सजा के साथ साथ उनके अगले बीस सालों तक वकालत करने पर भी पाबन्दी लगा दी गयी जो बाद में अपील करने पर छह साल (कैद) और दस साल (वकालत से मनाही) कर दी गयी। जेल में रहते हुए उन्हें अपने परिवार से भी नहीं मिलने दिया जाता इसलिए कई बार उन्होंने विरोध स्वरुप अन्न जल ग्रहण करने से इंकार कर दिया...इन दिनों भी वे अन्य कैदियों की तरह खुले में परिवार से मिलने के हक़ के लिए भूख हड़ताल पर हैं और उनकी सेहत निरंतर बिगडती जा रही है.दुनिया में मानव अधिकारों के लिए आवाज उठाने वाले अनेक लोगों और संगठनों ने उनकी रिहाई की माँग की है.जेल की अपनी एकाकी कोठरी से उन्होंने अपने बेटे के लिए जो चिट्ठी लिखी,उसका अनुवाद यहाँ प्रस्तुत है: मई 2011 में एविन जेल में 9 महीने तक बंद रहने के बाद नसरीन सोतुदेह ने अपने तीन साल के बेटे नीमा को यह मार्मिक ख़त लिखा। प्रसुत है नीमा का लिखा खत-

प्रस्तुति एवं अनुवाद:  यादवेन्द्र





मेरे सबसे प्यारे नीमा, 
तुम्हें ख़त लिखना ...मेरे प्यारे...बेहद मुश्किल काम है...मैं तुम्हें कैसे बताऊँ कि मैं कहाँ हूँ, इतने छोटे और नादान हो तुम कि कैद, गिरफ़्तारी, सजा, मुकदमा, सेंसरशिप, अन्याय, दमन , आज़ादी, मुक्ति , न्याय और बराबरी जैसे शब्दों के मायने कैसे समझ पाओगे. मैं इसका भरोसा खुद को कैसे दिलाऊं कि जो मैं तुम्हें बताउंगी उसको तुम्हारे स्तर पर जा कर सही ढंग से तुम तक पहुंचा और समझा भी पाऊँगी... बड़ी बात है कि मैं आज के सन्दर्भ में बात कर रही हूँ...आगे आने वाले सालों के बारे में कल्पना नहीं कर रही हूँ.मैं कैसे तुम्हें समझाऊं मेरे प्यारे कि अभी घर लौट कर आ जाना मेरे लिए मुमकिन नहीं..मुझेसे मेरी यह आज़ादी छीन ली गयी है. मुझतक यह खबर पहुंची है कि तुमने अब्बा से कहा है कि अम्मी से अपना काम जल्दी ख़तम करने और घर लौट आने को कह दो...मैं कैसे तुम्हें समझाऊं मेरे बच्चे कि दुनिया का कोई भी काम इतना जरुरी नहीं है कि मुझे इतने लम्बे अरसे तक तुमसे जुदा रख सके...किसी का मेरे ऊपर ऐसा इख्तियार नहीं है कि मुझे मेरे बच्चों के हकों से बेफिक्र कर दे.मैं कैसे तुम्हें समझाऊं कि पिछले छह महीनों के दौरान मुझे सब मिला कर एक घंटा भी तुमसे मुलाकात का नहीं दिया गया. अब मैं तुमसे क्या कहूँ मेरे बेटे? पिछले हफ्ते की ही तो बात है जब तुमने मुझसे पूछा था: आज शाम का अपने काम निबटा के हमारे पास घर आ रही हो ना अम्मी?इसका जवाब मुझे मज़बूरी में जेल के गार्डों के सामने ही देना पड़ा था: बच्चे, मेरा काम थोड़ा और बाकी है, जैसे ही ख़तम होगा मैं फ़ौरन घर आ जाउंगी. मुझे लगा था जैसे तुम सारी असलियत समझ गये हो और फिर महसूस हुआ जैसे तुमने मेरा हाथ प्यार से थामा और मुँह तक लाकर अपने नन्हें नन्हें होंठों से उसको चूम लिया हो. मेरे प्यारे नीमा, पिछले छह महीनों में सिर्फ दो मौके ऐसे आये जब मैं पूरी कोशिश के बाद भी अपनी रुलाई नहीं रोक पाई...पहली बार जब मेरे अब्बा का इन्तिकाल होने की खबर मुझे मिली थी पर मुझे उनके लिए अफ़सोस करने का और उनके जनाजे में शामिल होने की इजाज़त की अर्जी ठुकरा दी गयी थी....दूसरा वाकया उस दिन का है जब तुमने मुझे अपने साथ साथ घर चलने की गुजारिश की थी और मैं उसको पूरा कर पाने से लाचार थी...तुम्हारे उदास होकर चले जाने के बाद मैं जेल की अपनी कोठरी में वापिस आ गयी...उसके बाद मेरा खुद पर से सारा नियंत्रण ख़तम हो गया.... बहुत देर तक मेरी सिसकियाँ रुक ही नहीं पा रही थीं. मेरे सबसे प्यारे नीमा, बच्चों के मामले में एक के बाद एक अनेक फैसलों में कोर्टों ने कहा है कि तीन साल के बच्चों को पूरे पूरे दिन ( चौबीस घंटे)सिर्फ उनके पिताओं के साथ नहीं छोड़ा जा सकता..बार बार कोर्टों ने यह बात इसलिए दुहराने की दरकार समझी है क्योंकि उनको लगता है कि छोटे बच्चों को उनकी माँ से पूरे पूरे दिन के लिए दूर रखना बच्चों की मानसिक सेहत के लिए वाजिब नहीं होगा. विडम्बना है कि वही कोर्ट आज एक तीन साल के बच्चे के कुदरती हक़ की परवाह नहीं करती...बहाना यह है कि उसकी माँ देश की सुरक्षा के खिलाफ काम करने की कोशिश कर रही है. मुझे मेरे बेटे तुम्हें यह सफाई देने की जरुरत नहीं समझ आती...मुझे यह लिखते हुए बेहद पीड़ा भी हो रही है कि मैंने किसी भी सूरत में "उनकी "राष्ट्रीय सुरक्षा के खिलाफ जा कर कोई भी काम कभी नहीं किया...हाँ, एक वकील होने के नाते मेरे सामने हरदम सबसे बड़ा लक्ष्य यही रहा कि अपने मुवक्किलों की कानून में दिए हुए प्रावधानों के मुताबिक हिफाजत करूँ.मुझे तुम्हें उदाहरण देकर समझाने की दरकार नहीं जिस इंटरव्यू को मुझे यातना देने के लिए आधार बनाया जा रहा है वो आम जनता के लिए पूरा का पूरा उपलब्ध है...कोई भी उसको पढ़ सकता है....वकील की भूमिका में मैंने कुछ फैसलों की आलोचना जरुर की है पर मेरा वकील होना मुझे इसकी इजाज़त देता है.इसी को आधार बना कर अब मुझे ग्यारह साल तक बेड़ियों में जकड़ कर रखने का फ़रमान सुनाया गया है. मेरे प्यारे बेटे...पहली बात, मैं चाहती हूँ कि तुम्हारे मन में यह मुगालता बिलकुल नहीं रहना चाहिए कि देश में पहला इंसान मैं ही हूँ जिसको इतनी कठिन और बेबुनियाद सजा दी गयी हो...और न ही मुझे इसका कोई औचित्यपूर्ण आधार दिखाई दे रहा है कि तुमसे कहूँ कि मेरे बाद कोई इस ज्यादती का शिकार नहीं होगा. दूसरी बात, मुझे यह देख जान का ख़ुशी हो रही है...ख़ुशी न भी कहो तो इसको संतोष और शांति कहा जा सकता है कि मुझे उसी जगह कैद किया गया है जिस जगह मेरे बहुत सारे मुवक्किल रखे गये हैं...इनमें से तो कई वो लोग हैं जिनका मुकदमा मैं जीत के अंजाम तक पहुँचाने में नाकाम रही...आज वो सब भी इस देश की अन्यायपूर्ण क़ानूनी व्यवस्था के कारण इसी जेल में बंद हैं. तीसरी बात, मेरी ख्वाहिश कि तुमको जरुर पता चलनी चाहिए कि बतौर एक स्त्री मुझे दी गयी कठिन सजा का मुझे गुमान है...मुझे इसका भी नाज है कि इन सबकी परवाह न करते हुए मैंने पिछले चुनावों की गड़बड़ियों का विरोध करने वाले अनेक कार्यकर्ताओं का क़ानूनी बचाव किया.मुझे इस बात की भी ख़ुशी है कि और चाहे कुछ हो मुझे उनकी तुलना में ज्यादा कड़ी सजा दी गयी है क्योंकि मैंने उनके वकील की हैसियत से उनका मुक़दमा पूरी निष्ठा से लड़ा था. इस पूरे मामले में यह तो पूरी तरह से साबित हो गया कि औरतों की निरंतर चल रही लड़ाई आखिर में रंग लायी...आप आज की तारीख में इसका समर्थन करें या विरोध करें, एक बात तय है कि औरतों को अब नजर अंदाज करना मुमकिन नहीं रहा. मैं समझ नहीं पा रही हूँ कि तुमसे किस ढंग से कहूँ मेरे प्यारे नीमा...तुम मुझे सजा देने वाले जज के लिए भी खुदा से दुआ माँगना...उनके लिए भी जिन्होंने मुझसे लम्बी लम्बी जिरह की...और इस पूरी न्यायपालिका के लिए भी. मेरे बेटे खुदा से उनके लिए इबादत करो कि उनके दिलों के अंदर भी शांति और न्याय का बास हो जिस से उन्हें जीवन में कोई न कोई दिन ऐसा जरुर नसीब हो जब दुनिया के अनेक अन्य देशों के लोगों की तरह वे चैन का जीवन बसर कर सकें. मेरे सबसे प्यारे बच्चे, ऐसे मामलों में यह बहुत मायने नहीं रखता कि जीत किसकी हुई...क्योंकि फैसले का पक्ष या विपक्ष के लिए की गयी कोशिशों और दलीलों के साथ कोई अर्थपूर्ण ताल्लुक नहीं होता...और इस से भी कि मेरे वकीलों ने मुझे बचाने की कोशिशों में कोई कोताही तो नहीं बरती..दरअसल असल मुद्दा यहाँ तो ये है कि अजीबोगरीब खयालातों को आधार बना कर निर्दोष लोगों को परेशान जलील और नेस्तनाबूद किया जा रहा है.मुझे फिर से यहाँ यह दुहराने की जरुरत नहीं मेरे प्यारे कि आदिम समय से चलते आ रहे जीवन के इस खेल में उन्ही लोगों को अंतिम तौर पर जीत हासिल होगी जिनका दमन पाक साफ़ है...जो वाकई निर्दोष हैं ... इसी लिए मेरे प्यारे नीमा तुमसे मेरी यही गुजारिश है कि जब खुदा से दुआ माँगना तो बाल सुलभ मासूमियत को बरकरार रखते हुए सिर्फ राजनैतिक कैदियों की रिहाई की दुआ मत माँगना...खुदा से उन सबकी आजादी की दुआ मांगना मेरे बेटे जो निर्दोष और मासूम लोग हैं. बेहतर दिनों की आस में... 
नसरीन सोतुदेह

Tuesday, May 31, 2011

उजड़ते गाँवों की व्यथा-कथा


कभी देहरादून तो कभी बंगलौर और कभी नोएडा, पिछले कुछ वर्षों से कथाकार विद्यासागर नौटियाल के तीन-तीन घर हुए हैं। घर परिवार के लोगों का संग साथ और स्वास्थय के लिहाज से उनकी देखभाल का यह सफर उनकी रचनात्मकता को किस तरह से प्रभावित कर रहा होगा, यह एक अध्ययन का विषय है। देश दुनिया के बीच यात्राओं की अनंत आवाजाही (बनारस से लेकर सोवियत संघ और अमेरिका की भूमि तक) के बावजूद रचनाओं में वे अपने बचपन, जवानी और संघर्ष की यादों की टिहरी को ही क्यों जिन्दा रखते हैं, क्या यह जानना अपने आप में दिलचस्प नहीं क्या ? उनकी कथा यात्रा में ऐसे सूत्रों का खोजना और उन कारणों तक पहुंचना जहां उनकी रचनात्मकता का कोई मुहाना दिखायी दे, दिलचस्प शोध हो सकता है। गत 19 मई को देहरादून से बंगलौर निकलते हुए भाई नवीन नैथानी को उन्होंने एक पत्र मेल किया। पत्र , नवीन नैथानी के कथा संग्रह सौरी की कहानियों पर प्रतिक्रियात्मक टिप्पणी है।  उनकी यह टिप्पणी न सिर्फ़ नवीन की कहानियों को समझने में मद्दगार हो सकती है अपितु स्वंय उनकी रचनात्मकता के मुहाने तक भी शायद इस रास्ते पहुँचा जा सकता  है।


   विद्यासागर नौटियाल
डी-8, नेहरू कॉलानी, देहरादून
   19-5-2011
प्रिय नवीन,
   मेरे कागजों में कहीं दर्ज है कि तुम्हारी पुस्तक ''सौरी की कहानियाँ " मेरे पास मार्च 2010 में भेजी गई थी । मुझे याद नहीं आ सकता कि मैने इसे कितनी बार पढ़ा । मेरा मानना है कि इन कहानियों के बारे में जल्दबाजी में कुछ  कहना ताती खीर खाना है, जो उतना स्वाद नहीं बताती जितना मुँह को जला बैठती है । इस पर तो अगली सदी में व्यवस्थित तौर पर विमर्श होना चाहिए । अपनी जड़ों को तलाशते, सदियों के फासलों को लाँघते आ रहे लोग, जो अपनी उम्र भी ठीक-ठीक नहीं बता सकते  । सदियों की चौकीदारी करने वाले पुरूष पुरातन रामप्रसाद ने छयानवे के बाद की गिनती करना छोड़ दिया है।  सालोंसाल अपने पास आने वालों को वह यही उम्र बताता रहता है । छयानवे से आगे वह कभी बढ़ता ही नहीं । यह बता पाना भी एक समस्या है कि यह उपन्यास है कि कहानियों का संग्रह । क्योंकि यह सौरी बे बाहर नहीं    निकलता । 'किस्से के शुरू में सौरी की सम्पन्नता का जिक्र होता था, जिसमें सौरी से बाहर निकलने के एक रास्ते का वर्णन होता था , जो एक तंग ढलान से होकर गुजरता था । ढलान के ऊपर खड़े होकर बाहर की दुनिया बड़ी लुभावनी, मोहक और मायावी लगा करती  । शुरू में जो लोग उस रास्ते से होकर गये, वे वापस नहीं लौटे । बादमें जो लोग वापस लौटे उनकी बाहर की स्मृति गायब हो गई, सौरी के लोगों को वे अजनबी लगा करते । वे सौरी के लोगों को पकड़कर अपनी पहचान बताते ।बाद में लोगां ने उस रास्ते से उतरना बन्द कर दिया । "  सौरी के बाद  और उससे अभिन्न रूप से नत्थी एक और महत्वपूर्ण नाम चोर घटड़ा । सौरी के लोग अपनी दुनिया में बन्द रहते थे ।  वे चाहते ही नहीं थे कि कोई  वहाँ से बाहर निकले । लोगों ने यह बात फैला रखी थी कि जो चोर धटडे से बाहर निकलेगा चोर घटड़ा उसमें  घुसते ही वहाँ  की उसकी याददाश्त चुरा लेगी ।  कलाधर वैद्य की तरह  जो अपने बड़े-से थैले में याददाश्त की जड़ी बूटियाँ भर कर बाहर गया, फिर लौटने  पर   उसे बड़  का पेड़ ही नहीं मिला । वह उसी पेड़ को ढ़ूढ़ने आसपास भटकता रहा । उसकी लाश की पहचान उसके हाथ में फंसे थैले से हुई।  यह किस्सा सुना लेने के बाद पिता  को बच्चा ही नहीं मिला । बदहवास पिता को कहीं दूर से उसकी आवाज़ सुनाई दी -मैं यहाँ हूं, चोर घटड़े में। बच्चे की आवाज़ अब और ज़्यादा दूर '' मैं यहाँ हूँ  चोर घटड़े में । " 
खोजराम के होने से पहले पूरना दाई पर यही अपयश लगाया जाता रहता था कि  उसके हाथ से सौरी में आजतक सिर्फ लड़के जन्म लेते रहे हैं ।  सौरी वासी  प्रसूति गृह से लड़की के जन्म लेने का शुभ समाचार कभी नहीं सुन पाए। बहुत बाद में एक खोजा ने जन्म लिया, जिसका एक पैर मुड़ा हआ था और एक कान बहरा। चार बरस की उम्र में वह सोना खोजने जंगल की ओर निकल पड़ा। फिर लोगों से सुनने के बाद पारस की ।
     सौरी में अपनी जड़ों को खोजते फिर रहे लोगों को  रात्रि निवास की शरण पाने की आस में मुंदरी बुढ़िया अपने घर की तीसरी मंजिल में भेज देती है । बहुत सारे लोग। उनके सामने वहाँ एक पीपल की जड़ उभरती दिखाई देती है । यह सौरी की मूल ज़ड़ है जो पूरी तरह उलटी हो चुकीहै । वही सौरी जो पहले तीस पैंतीस घरों का गाँव था और अब  पाँच छह घर बाकी रह गए हैं। सम्पन्नता प्रदान करने वाले उसके जंगल मर चुके हैं । अब ग्राम का इतिहास किसी गर्त में लुप्त होने लगा है । मुंदरी बुढिया के घर का निर्माण करने वाले गोकुल मिस्त्री को अब एक घर की टीन की छत के उड़ जाने के बाद उसकी फिर से छवाँईं करने लायक जिन्दा दीवारें नहीं मिल पा रही हैं । मुश्किल है बाबूजी, अब इनमें बल्लियाँ भी नहीं टिकेंगी राफ्टर कहाँ  लगेंगे ? उसने हाथ झाड़ लिए । मुंदरी बुढ़िया और रामप्रसाद चौकदार की पहचान मिट चुकी है , सौरी की तरह जिसके खोजा लाटा को जंगल में एक सुनयना मिल जाने और उसके सौरी में एक लडकी को जन्म देकर उस बारे में लोगों का अंधविश्वास मिटा देने के बावजूद । खुद सौरी वाले ही अपने अतीत और इतिहास को पूरी तरह बिसार चुके हैं ।
इस पुस्तक को मैं एक और मायने में भी ऐतिहासिक मानता हूँ। मैने दस साल पहले प्रकशित सुभाष पन्त के उपन्यास '' पहाड़ चोर " को  सदी का पहला धमाका की संज्ञा दी थी । वह एक मामले में ऐतिहासिक था । हिन्दी में पहली बार पहाड़ के साल वन को भी स्थान मिला था, जो सदियों से उपेक्षित रहते आए हैं । अब तुम्हारी पुस्तक में भी उन्हें स्थान मिला है । दोनों की एक ही भूमि है, और दोनों में  एक  ही जैसे लोगों की जीवन गाथाएँ उभरती हैं पूरी शिद्दत के साथ ।



Tuesday, June 22, 2010

प्राकृतिक और सामाजिक प्रबंधन हेतु सदियों से चली आ रही "बारी" व्यवस्था

पहाड़ हो चाहे मैंदान, मरूस्थल हो चाहे समुद्री किनारा- जल, जंगल, जमीन से बेदखल किए जाते स्थानीय निवासियों पर चलने वाले डण्डे की मार एक जैसी ही है। हरे चारागाहों के शिकारी पर्यावरण और पारिस्थितिकी संतुलन जैसे तर्कों से लदी भाषा के साथ न सिर्फ कानूनी रूप से बलपूर्वक, बल्कि जनसंचार के माध्यमों के द्वारा विभ्रम फैलाकार सामाजिक रुप से भी, खुद को दुनिया को खैरख्वाह और स्थानीय निवासियों को उसका दुश्मन करार देने की कोशिश में जुटे हैं। पहाड़ के एक छोटे से हिस्से लाता गांव में उत्तर चिपको आंदोलन के बाद शुरु हुए  छीनों-झपटो आंदोलन के प्रणेता धन सिंह राणा का यह खुला पत्र जिसका संपादन डॉ सुनील कैंथोला ने किया है, ऐसे ही सवालों से टकराता हुआ कुछ प्रश्न खड़े कर रहा है। पत्र मेल द्वारा भाई सुनील कैंथोला के मार्फत पहुंचा है जिसको एक स्थानीय पत्रिका में प्रकाशित होने के बाद यहां पुन: प्रकाशित किया जा रहा है।    


असकार का मतलब समझते हो प्रोफेसर सत्या कुमार?

सेवा में,
प्रो.सत्या कुमार
भारतीय वन्य जीव संस्थान
देहरादून, भारत

आदरणीय साहब,
आशा है कि आप स्वस्थ और राजी खुशी होंगे और आपका रिसर्च करने का धंधा भी ठीक-ठाक चल रहा
होगा। हम भी यहां गांव में ठीक-ठाक हैं। ऐसा कब तक चलेगा, ये तो ऊपर वाला ही जानता है लेकिन हमारा अभी तक भी बचे रहना किसी चमत्कार से कम नहीं है। क्योंकि गांव में सड़क से ऊपर पर्यावरण संरक्षण का शिकंजा है और सड़क से नीचे बन रहे डाम का डंडा हम सब पर बजना शुरू हो चुका है। यहां पिछले कई वर्षों से हम आपका बड़ी बैचेनी से इंतजार कर रहे हैं। हमें लगा कि जो व्यक्ति पर्यावरण का इतना बड़ा पुजारी है कि जिसके शोध के हिसाब से हमारी भेड़-बकरी के खुर पर्यावरण को हानि पहुंचाते हैं, जो नंदा अष्टमी के अवसर पर नंदा देवी राष्ट्रीय पार्क में सदियों से चली आ रही दुबड़ी देवी की पूजा तक को बंद करवाकर इस आजाद देश में धार्मिक स्वतंत्रता के हमारे मौलिक अधिकार तक छीन ले, वह महान वैज्ञानिक हमारे गांव की तलहटी पर बन रहे डाम से होने वाली पर्यावरणीय क्षति को लेकर अवश्य चिंतित होगा और अपनी वैज्ञानिक रिपोर्ट के आधार पर बांध का निर्माण चुटकी बजाते ही रुकवा देगा। अब हमें लगने लगा है कि हो न हो दाल में जरूर कहीं कुछ काला है। अत: इस शंका के निवारण के लिए ही गांव के बड़े बुजुर्गों की सहमति से यह पत्र आपको लिख रहा हूं।
आदरणीय साहब,
आप तो हिमालय के चप्पे-चप्पे में घूमे हैं। आपकी शिव के त्रिनेत्र समान कलम ने हिमालय में निवास करने
वाले लाखों परिवारों की आजीविका और संस्कृति का संहार किया है। पूरे विश्व का बि(क समाज आपके इस
पराक्रम के आगे नत मस्तक है। ऐसे में हे! मनुष्य जाति के सर्वश्रेष्ठ संस्करण, आपकी ही कलम से ध्वस्त हुआ
मैं, धन सिंह राणा और उसका समुदाय, आपको, आपके जीवन के उन गौरवशाली क्षणों की याद दिलाना चाहते हैं, जब आपने हमारा आखेट किया था।

हे ज्ञान के प्रकाश पुंज,

नाचीज, ग्राम लाता का एक तुच्छ जीव है, जो पिछले जन्मों के पापों के कारण मनुष्य योनि में पैदा हुआ। मेरा
गांव उत्तराखंड के सीमांत जनपद चमोली की नीति घाटी में स्थित है। यह इलाका भारत में पड़ता है और पूरे विश्व में नंदा देवी बायोस्फेयर रिजर्व के नाम से जाना जाता है। यदि मेरी स्मृति सही है, तो हमारी भूमि पर आपके कमल रूपी चरण पहली बार संभवत: 1993 में पड़े थे। आप भारतीय सेना के एक अभियान दल के साथ नंदादेवी कोर जोन के भ्रमण पर आए थे, जिसमें सेना के सिपाहियों ने नंदा देवी कोर जोन से कचरा साफ किया था। आपसे दिल की बात कहना चाहता हूं, जिसे आप लोग कचरा कह रहे थे, उसमें अनेक चीजें ऐसी थी कि जिन्हें देखकर हमारी लार टपक रही थी। मुझे याद है कि जब अपने गांव से हम लोग पोर्टर बनकर नंदादेवी बेस कैंप जाते थे, तब महिलाओं का एक ही आग्रह होता था कि बेस कैंप से दो-चार खाली टिन के डिब्बे लाना मत भूलना। टिन के ये खाली डिब्बे हमारे नित्य जीवन में बड़ी सक्रिय भूमिका निभाया करते थे। अभियान दल की वापसी पर आप लोगों द्वारा ग्राम रैंणी के पुल पर एक मीटिंग का भी आयोजन किया था, जिसमें आपने फौज द्वारा लाए गए कचरे को हमारे सामने कुछ ऐसे प्रस्तुत किया था, जैसे कि वह हमारे द्वारा प्रकृति के साथ किए गए अपराध का ठोस सबूत हो।

हे! पर्यावरण के अखंड तपस्वी,

यही वह अवसर था, जब आपके साक्षात् दर्शन हुए थे। मैं अबोध और गंवार आपके हृदय में हिलोरे लेते प्रकृति प्रेम के सागर और उसमें पनप रहे उस तूफान से तब पूर्णत: अनभिज्ञ था, जो हमें समूचा लील जाने को अधीर था। इस नाचीज ने तब आपसे यह प्रश्न करने का साहस किया था कि इस कचरे का असली जिम्मेदार कौन
है? और आपने कहा था- इंसान। वह बड़ी अजीब स्थिति थी। एक तरफ मैं अपने समुदाय को इस अपराध से परे
रखने का तर्क रखना चाहता था और दूसरी तरफ, मां कसम, आपको चूम लेने की इच्छा भी हो रही थी। आपने
एक ही झटके में अमीर-गरीब, गोरा-काला, पोर्टर-मैंबर की सारी दीवारें गिरा दी थी और हमें भी इंसानों की श्रेणी में शामिल कर दिया था।

हे अपनी इंद्रियों को वश में रखने वाले विधियात्मा,

वर्ष 2003 में आपके द्वारा नंदादेवी बेस कैंप यात्रा का स्मरण करने की अनुमति चाहता हूं। संदेश मिला कि
प्रोफेसर सत्या कुमार साहब के साथ गए फौज के दस्ते का वायरलैस ऑपरेटर कोर जोन से लौटते समय बीमार
पड़ गया है। जैसे कि हमारे गांव की परंपरा रही है, सूचना मिलते ही मैं व अन्य ग्रामीण मदद पहुंचाने के उद्देश्य से तुरंत दुब्बल घाटी रवाना हो गए। आपके दल से मिलने पर पाया कि मरीज की जान खतरे में है और खराब मौसम के कारण हैलीकॉप्टर का उतरना असंभव है। आपको याद होगा कि दुब्बल घाटी से पोर्टर आप लोगों का सामान लेकर लाता खर्क निकल गए थे और उस भीषण वर्षा में थोड़े से राशन और तिरपाल की सहायता से मैंने भी आपके साथ दो रातें मात्र उस वायरलेस ऑपरेटर की जान की रक्षा के लालच में गुजारी थी। प्रोफेसर सत्या कुमार साहब थोड़ा और याद करेंगे तो आपको यह भी ध्यान आ जाएगा कि ये दो दिन और रात हम लोगों ने आस-पास की घास-पत्ती उबालकर और सूखी लकड़ियों को जलाकर बिताई थी। गांव लौटने पर जब इस घटना का जिक्र मैंने आपके साथ गए पोर्टरों से किया, तो वे आपको बुरा-भला कहने लगे। उनका कहना था कि ये आदमी पाखंडी है। बेस कैंप की यात्रा के दौरान बोझा ढोने वाला कोई पोर्टर यदि घास को पकड़कर सहारा लेने की कोशिश करता था, तो ये साहब जोर से चिल्लाने लगता था। जब तक इसके पास तंबू था, तो खराब मौसम में भी पत्थरों की आड़ में रात बिताने वाले पोर्टरों को आग जलाने की अनुमति न थी और जब अपनी जान पर बन आई तो सारे नियम-धर्म ताक पर रख दिए। बहरहाल! मैंने गांव वालों को यह कहकर शांत कर दिया था कि वे बड़े विद्वान पुरुष हैं। उन्हें परमात्मा ने वन्य जीवों के रक्षार्थ भेजा है। अत: मानवीय संवेदनाएं व सरोकार उनकी समझ के परे हैं।

हे संरक्षित क्षेत्रों के इष्ट गुरू!

मनुष्य होते हुए भी पशुवत् जीवन जीने वाला यह तुच्छ प्राणी क्या आपकी करूणा का पात्र नहीं है? हमारे पुराणों में रावण का उल्लेख है, जिसे दशानन अर्थात् दस सिर वाला भी बोलते थे। अपनी गंवार जड़ बुद्धि से मुझे
लगता है कि रावण के दस सिर जरूर दस किस्म की बात करते रहे होंगे। ऐसा ही उसकी दृष्टि के साथ भी रहा होगा।

हे! जैव विविधता के आराध्य देव,

क्या आपको कभी ऐसा प्रतीत हुआ है कि आप भी दशानन के एक मुख का प्रतिनिधित्व करते हैं? क्योंकि जो आप कहते और देखते हैं, वह आपके शरीर के दूसरे सिर को दिखाई नहीं देता! वन्य जीव संस्थान के रूप में
आप भी सरकार हैं और टी.एच.डी.सी.व एन.टी.पी.सी।
भी सरकार हैं। यह कैसा प्रभु का मायाजाल है कि आपके ज्ञान चक्षुओं से जहां जैव विविधता का भंडार है, जो ग्रामीणों के हगने-मूतने से भी नष्ट हो सकता है। उसी क्षेत्र में डाम विशेषज्ञों को कहीं कोई विविधता नजर नहीं आती और आप दोनों के ही सिर उस शरीर से जुड़े हैं, जिसे हम आदिवासी, 'सरकार’ कहते हैं। यह खेल गज़ब है। वन विभाग माणा से मिलम गांव तक बायोस्फेयर के नाम पर प्रतिबंध लगाता है और बांध के विशेषज्ञ नीति घाटी को नंदादेवी पार्क से बाहर बताते हैं। हमारे लिए इसका एक ही मतलब है यानि जो आपकी कलम का शिकार होने से बच गया, उसके लिए बांध के बुलडोजर की व्यवस्था है।

हे दुर्निग्रहम! अर्थात कठिनता से वश में होने वाले,

इस जगत में कीट-पतंगों से लेकर घास, कुशा और फूल-पत्तियों का भी अपना अस्तित्व है। ये सब एक-दूसरे
से जुड़े हैं। जैसे- हमारे घरों में होने वाली मधुमक्खियों का अस्तित्व मात्र मधु उत्पन्न करने के लिए नहीं, बल्कि फूलों के परागकणों की अदला-बदली के लिए भी था। मधुमक्खियां थीं, तो फूलों के प्रजनन की गारंटी थी। जैसे- फूल मधुमक्खियों के जिंदा रहने की अनिवार्य शर्त। मधुमक्ख्यां इसलिए थी, क्योंकि उन्हें हमारे घर में आश्रय मिलता था। यह आश्रय इसलिए मिलता था, क्योंकि हमें उनसे मधु मिलता था। अब न मुमक्खी है, न मधु। कदाचित आपका ध्यान इस ओर नहीं भी जाएगा, परंतु हे विद्या के मंदिर के गर्भगृह! हमारे समुदाय से मधुमक्खी की प्रजाति के नाश का आपकी जैव विविधता पर क्या प्रभाव पड़ा होगा, इस पर आप जैसे विद्वान की दृष्टि का न जाना सुनियोजित लगता है।

हे जैव विविधता के सचिन तेंदुलकर!

यह कैसा विरोधाभास है कि आप कंक्रीट की इमारत में रहकर भी प्रकृति की इबादत करते हैं और हम प्रकृति
के बीच रहकर भी उसके दुष्मन हैं। हमारे और आपके कार्बन उत्सर्जन में भले ही विराट असामानता हो, पर
प्रकृति की रक्षा का जिम्मा हमेशा आपकी ही बिरादरी का रहेगा। अंग्रेजों के जमाने से ही हमारे जंगलों का शोषण होता आ रहा है। ये अब जंगल भी कहां रहे। ये तो आप लोगों के खेत हैं। जिसमें आप अपनी आवश्यकता के हिसाब से पेड़ बोते हैं। हमारी जरूरतें और हमारे जंगलों में रहने वाले वन्य प्राणियों की जरूरतें आपकी जरूरतों से भिन्न हैं। मान्यवर, जंगलों में अब वन्य प्राणियों के लिए आहार बचा ही कहां है? भूख से बैचेन वन्य प्राणी जंगलों से बाहर आ रहे हैं और गांवों, बस्तियों व खेतों पर आफत ढा रहे हैं। इसमें भोले-भाले इंसान भी मर रहे हैं और बेजुबान वन्य जीव भी। इस सब के लिए कोई दोषी है, तो आप और आपकी बिरादरी द्वारा की जा रही शोध और उससे उपजा वन प्रबंधन।
विभिन्न राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय कार्यशालाओं में गरजने वाले ओ मिट्टी के शेर, हमारे यहां एक कहावत है कि- जो सो रहा हो, उसे जगाया जा सकता है। पर जो सोने का नाटक कर रहा हो, उसे जगाना नामुमकिन है। चूंकि आप हमारे नीति नियंता हैं, तो यह पूछने का अधिकार तो हमारा बनता ही है कि मान्यवर क्या आप सो रहे हैं या फिर सोने का नाटक कर रहे हैं। प्रकृति हो या समाज, उस पर आधिपत्य जमाने की साम्राज्यवादी प्रवृत्ति खत्म कहां हुई है? अंगुलि बंदूक के घोड़े पर हो या फिर अंगुलियों के बीच फंसी कलम को ही बंदूक बना दिया गया हो। निशाना लगने के बाद अनुभूति तो शिकारी की ही होती है न प्रोफेसर सत्या कुमार साहब! आज मेरा गांव जोशीमठ के बाजार के बिना जिंदा नहीं रह सकता। सदियों से किसानी करने वाला अब खेत के कम और बाजार के ज्यादा चक्कर काटता है। हमारी स्वावलंबी जीवन शैलियों से बलात्कार आपका संवैधानिक अधिकार है, पर यदि हम आपकी जीवनशैली पर अंगुलि उठाएं, तो वह आपकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों के हनन का मामला बन जाता है। मैं इतना पढ़ा-लिखा नहीं हूं, पर यह सवाल मेरे दिमाग में हमेशा कौंधता है कि आखिर साहब लोग हमारी तरह हाथ से क्यों नहीं धोते? आपकी बिरादरी द्वारा सिर्फ टायलेट पेपर के इस्तेमाल को बंद कर देने से प्राकृतिक संसाधनों व बढ़ते कार्बन उत्सर्जन को कितनी राहत मिलेगी, यह आपके शोध का विषय कब बनेगा? आदरणीय प्रोफेसर साहब! अपने अभिजात्य वर्ग के लालन-पालन के कारण यदि आप इस कौशल को सीखने से वंचित रह गए हैं, तो गांव लाता का कोई भी बच्चा आप लोगों को यह बिना कंस्लटैंसी या मानदेय के सिखाने को तैयार है।
हमारी स्वावलंबी जीवन शैलियों से बलात्कार आपका संवैधानिक अधिकार है, पर यदि हम आपकी जीवनशैली पर अंगुलि उठाएं, तो वह आपकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों के हनन का मामला बन जाता है। मैं इतना पढ़ा-लिखा नहीं हूं, पर यह सवाल मेरे दिमाग में हमेशा कौंधता है कि आखिर साहब लोग हमारी तरह हाथ से क्यों नहीं धोते? आपकी बिरादरी द्वारा सिर्फ टायलेट पेपर के इस्तेमाल को बंद कर देने से प्राकृतिक संसाधनों व बढ़ते कार्बन उत्सर्जन को कितनी राहत मिलेगी, यह आपके शोध का विषय कब बनेगा?

परम आदरणीय साहब,

हम लोकतंत्र में विश्वास रखते हैं और साथ ही उस अलौकिक सत्ता में भी जिसने बिना किसी परियोजना अथवा विश्व बैंक की सहायता से इस जंगल का निर्माण किया। जब हम पर विपत्तियां आती हैं, तो हम दोनों के ही दरवाजे खटखटाते हैं, लोकतंत्र के भी और उस परम सत्ता के भी जिसने इस सृष्टि का निर्माण किया। इस मामले में तो मैं आपको कतई बदकिस्मत ही कहूंगा कि आप नंदादेवी विश्व धरोहर की जैव विविधता को समझने तो आए, पर हमारे क्षेत्र की सांस्कृतिक धरोहर को समझने व आत्मसात करने से वंचित रह गए। अपने पूर्वाग्रहों के कारण आपने स्वयं अपनी ज्ञानप्राप्ति के वह दरवाजे बंद कर दिए, जो आपको एक स्वावलंबी सामाजिक-सांस्कृतिक इकाई के उसके प्राकृतिक वातावरण के साथ सदियों से स्थापित सतत सहजीवी संबंधों को समझने की दिशा प्रदान करते। आपके अधूरे शोधों ने लोकतंत्र के कानों को बंद और उसके दिमाग को दूषित कर दिया है। पर ऐसा करते हुए स्वयं आपके दूषित मंतव्य भी जग जाहिर हो गए हैं।
पर्यावरण अध्ययन से हुई कमाई को एन.टी.पी.सी, वेदान्ता और जी.वी.के जैसी कम्पनियों के शेयर में लगाने की बेशक़ आप लोगों को वैधानिक इजाजत है, पर यदि इस जगत में पाप करने की भी कोई कैरयिंग कैपेसिटि है, तो आप लोगों का घड़ा कब का भर चुका है!
क्योंकि बांधों से प्रकृति पर पड़ने वाले प्रभावों की लड़ाई में आप नदारद हैं। हमारे लोगों का यह भी मानना है कि संभवत: अपनी रोजी-रोटी और नौकरी के चलते आप दिल से चाहकर भी यह कदम उठा ना पा रहे हों। हमारे यहां प्राकृतिक और सामाजिक प्रबंधन हेतु सदियों से चली आ रही 'बारी" व्यवस्था है। इसके अंतर्गत हम आपकी व्यवस्था करने को प्रतिबद्ध रहेंगे। यदि आप यथोनाम तथो गुण को चरितार्थ करने का साहस करें। जाहिर है कि आप और आपकी कथित वैज्ञानिक बिरादरी के पास अपने तर्क होंगे, जिसमें अपनी नौकरी को बचाने और बाल-बच्चे पालने के भी सरोकार होंगे, जो कि स्वाभाविक भी है। पर आपके जूठे बर्तनों को धोने और नित्य फर्श पर पोचा लगाने जो आती है, उसके अस्तित्व को आप अपने पारिस्थितिकीय के समग्र ज्ञान में कहां रखते हैं प्रोफेसर साहब? कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक लाखों आदिवासी परिवारों को कहीं संरक्षण तो कहीं बांध अथवा खान के नाम पर बेदखल किया गया है, जो आप जैसे साहब लोगों के लिए सस्ती मजदूरी से लेकर मानवीय अंगों और विकृत मनोरंजन का मुख्य स्रोत बन जाते हैं। पर्यावरण अध्ययन से हुई कमाई को एन.टी.पी.सी, वेदान्ता और जी.वी.के जैसी कम्पनियों के शेयर में लगाने की बेशक़ आप लोगों को वैधानिक इजाजत है, पर यदि इस जगत में पाप करने की भी कोई कैरयिंग कैपेसिटि है, तो आप लोगों का घड़ा कब का भर चुका है! हमारे लोकगीतों में सृष्टि की रचना के गीत हैं, जिसमें निरंकार का भी जिक्र है और अहंकार का भी। आपके पास भी अपने ज्ञान का अहंकार है पर आपका ज्ञान अधूरा है और आपका अहंकार प्रकृति के अहंकार के सामने बौना है। इन्हीं रहस्यमयी रास्तों से हमारी व्यथा भी उस तक पहुंचती है, जिसके समग्र नियमों को समझने में आप
असफल रहे हैं। उसी के मायावी संसार में "हाय" अथवा "असकार" भी एक शब्द है, बल्कि पूरी व्यवस्था है। हम
मानते हैं कि यह अत्याचारियों और आतताईयों को सबक सिखाती है। यह हमारे हाथ के बाहर की बात है पर हमारा करुण रुदन और विलाप इसके कारण हो सकते हैं। फिर भी हम इतने घटिया या तुच्छ नहीं कि किसी
के अनिष्ट के बारे में सोचें। पर साथ ही हम यह भी मानते हैं कि हमारे साथ हुए अन्याय का 'असकार" जगत के
उन्हीं अनबूझे नियमों के तहत एक स्वाभाविक और अनिवार्य प्रक्रिया है। शांत मन से, बिना किसी पूर्वाग्रह के आंखों को बंद करके सोचेंगे तो इसी नतीजे के इर्द-गिर्द पहुंचेंगे कि जिस रास्ते से आप अपने संरक्षण के विषय को ले जाना चाहते हैं, वह वहां नहीं ले जाता, जहां उसे ले जाना चाहिए था। इसके बाद आईने में अपनी आंखों से आंखें ईमानदारी से मिलाएंगे तो आपको स्वत: यह अहसास हो जाएगा कि अब तक का जीवन व्यर्थ गया। यही "असकार" है, पर यह अंत नहीं! पश्चाताप करने का कोई समय या आयु सीमा नहीं होती।
बाकी फिर कभी
लाता से धन सिंह और उसके ग्रामवासी


धन सिंह राणा द्वारा लिखित एवं डॉ. सुनील कैंथोला
द्वारा संपादित-
खुला पत्र


भेड़ चरवाहे

ऊंचे पहाड़ों पर देवता नहीं
चरवाहे रहते हैं
भेड़ों में डूबी उनकी आत्मायें

खतरनाक ढलानों पर
घास चुगती हैं

पिघलती चोटियों का रस
उनके भीतर
रक्त बनकर दौड़ता है

उड्यारों में दुबकी काया
बर्फिली हवाओं के
धार-दार चाकू की धार को भी
भोंथरा कर देती है

ढंगारों से गिरते पत्थर या,
तेज उफनते दरिया भी
नहीं रोक सकते उन्हें आगे बढ़ने से
न ही उनकी भेड़ों को

ऊंचे- ऊंचे बुग्यालों की ओर
उठी रहती हैं उनकी निगाहें

वे चाहें तो
किसी भी ऊंचाई तक
ले जा सकते हैं भेड़ों को
पर सबसे वाजिब जगह
बुग्याल ही हैं
ये भी जाने हैं

ऊंचाईयों का जुनून
जब उनके सिर पर सवार हो
तो भी
भेड़ों को बुग्याल में ही छोड़
निकलता है उनमें से कोई एक
बाकि के सभी
बर्फ से जली चट्टानों की किसी खोह में
डेरा डाले रहते हैं
बर्फ के पड़ने से पहले तक

भेड़ों के बदन पर
चिपकी हुई बर्फ को
ऊन में बदलने का
खेल खेलते हुए भी
रहते हैं बेखबर
कि उनके बनाये रास्ते पर
कब्जा करती व्यवस्था जारी है,

ये जानते हुए भी कि
रुतबेदार जगहों पर बैठे
रुतबेदार लोग
उन्हें वहां से बेदखल करने पर आमादा हैं,
वे नये से नये
रास्ते बनाते चले जाते हैं
वहां तक
जहां, जिन्दगी की उम्मीद जगाती
घास है
और है फूलों का जंगल

बदलते हुए समय में
नक्शेबाज दुनिया ने
सिर्फ इतनी ही मद्द की
कि खतरनाक ढाल के बाद
बुग्याल होने का भ्रम अब नहीं रहा
जबकि समय की नक्शेबाजी ने
छीन लिया बहुत कुछ
जिस पर वे लिखने बैठें
तो भोज-पत्रों के बचे हुए जंगल भी
कम पड़ जाएंगे

भोज-पत्रों के नये वृक्ष रोपें जायें
पर्यावरणवादी सिर्फ यही कहेगें

उनके शरीर का बहता हुआ पसीना
जो तिब्बत के पठारों में
नमक की चट्टान बन चुका गवाह है
कि सुनी घाटियों को गुंजाते हुए भी
अनंत काल तक गाते रहेगें वे
दयारा बुग्याल हमारा है
नन्दा देवी के जंगल हमारे हैं
फूलों की घाटी में
पौधों की निराई-गुड़ाई
हमारे जानवरों ने
अपने खुरों से की है


-विजय गौड़     

Monday, December 8, 2008

शहंशाही में है बालकनी नाम का ठेका

देहरादून की लेखक बिरादरी के, अपने शहर से बाहर, कुछ ही सामूहिक दोस्त हैं। कथाकर योगेन्द्र आहूजा उनमें से सबसे पहले याद किये जाने वालों में रहे हैं। बेशक योगेन्द्र कुछ ही वर्षों के लिए देहरादून आकर रहे पर सचमुच के देहरादूनिये हो गये। यह सच है कि पहल में प्रकाशित उनकी कहानी सिनेमा-सिनेमा को पढ़कर इस शहर केलिखने पढ़ने वाली बिरादरी के लोग उन्हें देहरादून में आने से पहले से ही जानने लगे थे। वे भी देहरादून को वैसे हीजानते रहे होंगे- उस वक्त भी, वरना सीधे टिप-टाप क्यों पहुंचते भला। ब्लाग में अवधेश जी की लघु कथाओं कोपढ़ने के बाद हमारे प्रिय मित्र ने अवधेश जी को याद किया है। उनका यह पत्र यहां प्रकाशित है। पत्र रोमन में था, उसे देवनागरी में हमारे द्वारा किया गया है।
अवधेश जी कविताएं कुछ समय पहले पोस्ट की गयीं थीं। पढने के लिए यहां जाएं

प्रिय विजय

बहुत समय के बाद अवधेश जी की रचनाएं देखने का अवसर मिला। इन्हें इतने समय के बाद दुबारा पढ़ कर शिद्दत से एहसास हुआ कि उनकी असमय मृत्यु हम सबके लिए कितनी बड़ी क्षति थी।

उनके साथ बिताये दिन फिर स्मृति में कौंध गये। शहंशाही में बालकनी नाम के ठेके पर उनके साथ बिताये पल विशेष रूप से याद आये। लगातार बरसात, तेज सर्दी, हवा में हल्की-सी धुंध और समकालीन कविता और कवियों के बारे में उनकी अनवरत और बेशुमार बातें।

वे दिन ना जाने कहां चले गये और अब कभी लौट कर नहीं आयेंगे।

आज इतने समय के बाद में उन दिनों को भावसिक्ता होकर याद कर रहा हूं। लेकिन क्या उन दिनों और पलों को मैंने पूरी तरह डूब कर और शिद्दत के साथ जिया था ? नहीं।

शायद यह इजराइल के कवि इमोस ओज का या पोलैण्ड की कवियत्री विस्सवा शिम्बोरस्का का कथन है कि चूंकि सब कुछ क्षणभंगुर है और एक दिन सब कुछ समाप्त हो जाने वाला है, हमें हर दिन का उत्सव मनाना चाहिए।

अवधेश जी को हिन्दी कविता में वह जगह और पहचान नहीं मिली जिसके वे हकदार थे, हालांकि विष्णु खरे जैसे विद्धान आलोचक उनकी कविताओं के प्रशंसक थे। उन्होंने जिप्सी लड़की पर एक समीक्षा भी लिखी थी जो उनकी किताब "आलोचना की पहली किताब" में संकलित है।

आभारी होऊंगा यदि उनकी कुछ प्रतिनिधि कविताएं (फोटो के साथ हों तो और भी बेहतर है) भी ब्लोग पर उपलब्ध करा सकें। और हां उनके कुछ गीत भी, विशेषकर धुंए में शहर है या शहर में धुंआ

वे बहुत अच्छे पेंटर और स्क्रेचर भी थे। कृप्या उनकी कुछ पेंटिग और स्केच भी उपलब्ध करवायें। संभव हो तो नवीन कुमार नैथानी जी का उन पर लिखा संस्मरण भी।


आपका


योगेन्द्र आहूजा