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Tuesday, January 30, 2024

हिंदी कविता की स्थापना का खूबसूरत खयाल है अलीक


 “अ ली क” कोलकाता से निकलने वाली एक अनियतकालीन पत्रिका है, जिसका संपादन कवि नील कमल करते हैं। हाल ही में इस पत्रिका का चौथा अंक जनवरी 2024 प्रकाशित हुआ है। अभी तक के अंकों को देखने पर यह कविता केंद्रित दिखायी देती है। अलीक का अंक 3 और सद्य प्रकाशित अंक 4 के साथ‌-साथ जीवन के एक छोटे से अंतराल में कवि नील कमल से रहे साक्षात सम्पर्क के हवाले से यह कह सकता हूं कि एक अच्छी कविता की तलाश नील कमल क शगल है। वे हमेशा ऐसी कविताओं के पास जाते हुए होते हैं जहां उन्हें एक खास तरह की निश्छलता दिखाई दे। और उस निश्छलता के दायरे में सिर्फ कविता ही नहीं, कवि का निजी जीवन भी हो। उस निश्छलता की परख वे नैतिकता और आदर्शों के स्तर पर करते हैं, विचाराधारा की बारीकी में नहीं। बल्कि थोड़ा और खुलासा हो तो कहा जा सकता है कि सृजन के उद्देश्यों में दुनिया की खुशहाली की वह संगति जिसको वस्तुनिष्ठता के साथ जांचा परखा जा सके। हालांकि आज के इस समय में जब नैतिकता और आदर्श ज्यादा वाचालता के साथ सिर्फ थोड़ा विश्वसनीय दिखने भर की कार्रवाई हुए जा रहे हैं, नील कमल की कोशिशों के परिणाम किस रूप में दिखेंगे, उन्हें वक्त के साथ ही देखना सम्भव हो सकेगा। फिर भी एक अच्छी कविता को तलाशने की उनकी कोशिश पर भरोसा किया जा सकता है। क्योंकि वे कविता को ही नहीं एक कवि को भी खरेपन के अपने पैमानों से तैयार बक्से में संजो लेते हैं। अलीक वह बक्सा ही नील कमल के भीतर एक अच्छी कविता को सामने लाने का एक जूनून है। यह जूनून ही उन्हें न सिर्फ अलीक निकालने को मजबूर करता है बल्कि कविताओं की आलोचना के रूप में प्रकाशित उनकी पुस्तक गद्य वद्य कुछ इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है।

हिंदी साहित्य की दुनिया से प्रेम करते हुए भी यदा कदा घटने वाली और दिख जाने वाली अंतर्विरोधी घटनाएं नील कमल को क्षुब्ध किये रहती हैं। उन स्थितियों से पार पाने वे लिए वे एक अच्छी कविता तक पहुंच जाने में सुकून महसूस करते हैं। इस जमाने में जब सम्पत्ति को जहां तहां से समेट लेने का पागलपन हावी हो रहा हो, अपने सुकून के लिए नील अपनी  मासिक आमद के एक हिस्से से कभी किताबे छपते हैं तो कभी पत्रिका। निजी स्रोतों से गैरव्यवसायिक ढंग का काम करने वाले लोगों को यदि तलाशा जाये तो हिंदी का नील कमल वहां ज्यादा मजबूती से खड़ा नजर आएगा। अलीक क यह अंक उन्हें अपनी जमीन को और सख्त बनाए रखने की राह दिखा रहा है। इसमें प्रकाशित कविताएं और आलोचनात्मक आलेख उल्लेखनीय है।  

अलीक के इस अंक में चार युवा कवियों की कविताएं हैं- प्रियदर्शी मातृशरण, उमा भगत, ललन चतुर्वेदी और पल्लवी मुखर्जी। प्रियदर्शी मातृशरण और उमा भगत की कविताओं से मुझे पहली बार अलीक-4 से ही परिचित होने का अवसर मिल रहा है। यह अच्छी बात है कि कवि प्रियदर्शी मातृशरण की कविता खुशामदी होने से ऐतराज करते हुए अपने होने के साथ रहना चाहती है लेकिन एक लोचा है कि खुशामद कराती सत्ता का बिम्ब वहां किसी “पुराने” कवि की आकृति पर अटका हुआ है। एक बार प्रियदर्शी मातृशरण की इस बात को मान ही लिया जाए कि “पुराने” कवि की स्वाद- कलिकाएं किसी उससे भी “पुराने” कवि के पद-तल में वास करती हों और यह भी कि जितना पीछे जाएं वह बेशक उतना ही पुराने कवि की इच्छाओं वाले तैल-चित्र नजर आएं तो भी नवाचार और मौलिकता का तकाजा तब ही माकूल है जब सत्ता की ट्रू पिक्चर बनती हो। निश्चित ही कवि प्रियदर्शी मातृशरण उस ट्रू पिक्चर को आकार देना जानते हैं वरना लोभियों के गांव से गुजरना गंवारा ना करते।

अपने समय को परिभाषित करना कला साहित्य का मुख्य विषय रहा है। लेकिन इस तरह परिभाषित करते रहने में एक बात यह भी दिखायी देती रही कि हर रचना में एक बहुत बड़ा हिस्सा अपने से पूर्व का यथावत आ गया और इसीलिए नये एवम मौलिक होने की कोशिश में वह उसी तर्ज के साथ आगे बढने लगा। यानि समय को परिभाषित करने की एक नयी पहल से आगे नहीं चला। इस तरह देखें तो कला साहित्य ने अपने को कुछ ऐसी सीमाओं में कैद करा लिया जिसको नैतिक और आदर्श से सम्पृक्त सामजिकी के सौंदर्य में जांचने परखना भी एक संकाय हो गया। प्रफुल्ल कोलख्यान का आलेख एक संकाय से आगे बढकर सिविल सोसाइटी को नहीं देख पा रहा है।    

 

“अ ली क” को सिर्फ एक पत्रिका भर नहीं कहा जा सकता है। दरअसल यह लीक से हट कर की जाने वाली एक ऐसी कार्रवाई है जिसके केंद्र में हिंदी कविता की स्थापना का खूबसूरत खयाल हमेशा मुख्य रहता है। विचार के स्तर पर एक प्रतिबद्ध नागरिक चेतना इस पत्रिका की सामाग्री का मुख्य लक्षण है।         

Saturday, December 19, 2020

लहू बहाए बिना कत्‍ल करने की अदा

 

किंतु परन्‍तु वाले मध्‍यवर्गीय मिजाज से दूरी बनाते हुए नील कमल बेबाक तरह से अपनी समझ के हर गलत-सही पक्ष के साथ प्रस्‍तुत होने पर यकीन करते हैं। सहमति और असहमति के बिंदु उपजते हैं तो उपजे, उन्‍हें साधने की कोशिश वे कभी नहीं करते हैं।

जो कुछ जैसा दिख रहा है, या वे जैसा देख पा रहे हैं, उसे रखने में कोई गुरेज भी नहीं करते। सवाल हो सकते हैं कि उनके देखने के स्रोत क्‍या हैं, उनके देखने के मंतव्‍य क्‍या हैं और उस देखने का दुनिया से क्‍या लेना देना है ? ये तीन प्रश्‍न हैं जिन पर एक-एक कर विचार करें तो नील कमल की आलोचना पद्धति को समझने का रास्‍ता तलाशा जा सकता है। उनके देखने पर यकीन किया जा सकता है और उनकी सीमाओं को भी पहचाना जा सकता है।

नील कमल द्वारा कविताओं पर लिखी टिप्पणियों से गुजरें तो इस बात का ज्‍यादा साफ तरह से समझा जा सकता है। 

‘गद्य वद्य कुछ’ आलोचना की एक ऐसी ही पुस्‍तक है। ‘गद्य वद्य कुछ’ शीर्षक से जो कुछ ध्‍वनित हो रहा है, उसमें कोई दावा होने की बजाय यूंही कह दी गई बातों का भान होता है। निश्चित ही यह एक रचनाकार की अपने लेखन को बहुत मामुली समझने की विनम्रता से उपजा होना चाहिए। जबकि पुस्‍तक जहां एक ओर हिंदी कविता के बहुत ही महत्‍वपूर्ण कवियों मुक्तिबोध, त्रिलोचन आदि की कविताओं से संवादरत होने का मौका देती है तो वहीं दूसरी ओर हाल-हाल में कविता की दुनिया में बहुत शरूआती तौर पर दाखिल होने वाले कवियों में कवि नवनीत सिंह एवं अन्‍य की कविताओं से परिचित होने का अवसर सुलभ कराती है।  यह पुस्‍तक एक रचनाकार के बौद्धिक साहस का परिणाम है। इसी वजह से नील कमल को एक जिम्‍मेदार आलोचक के दर्जे पर बैठा देने में सक्षम है।

नीलकमल से आप सहमत भी होते हैं। और एक असहमति भी उपजती रहती है। यह बात ठीक है कि सहमति का अनुपात ज्‍यादा बनता है, पर इस कारण से असहमति पर बात न की जाए तो इसलिए भी उचित नहीं होगा, क्‍योंकि इस तरह तो गद्य वद्य का कथ्‍य ही अलक्षित रह जाने वाला है। फिर नील कमल की आलोचना का स्रोत बिन्‍दु भी तो खुद असहमति की उपज है। य‍ह सीख देता हुआ कि अपने भीतर के सच के साथ सामने आओ।

बेशक, पुस्‍तक में मौजूद आलेखों में कवियों की कमोबेश एक-एक कविता को आधार बनाया गया है लेकिन उनके विश्‍लेषण में जो दृष्टि है उसमें कवि विशेष के व्‍यापक लेखन और उसके लेखन पर विद्धानों एवं पाठकों, प्रशंसकों की राय को दरकिनार नहीं किया गया है। विश्‍लेषण के तरीके में वस्‍तुनिष्‍ठता एक अहम बिन्‍दु की तरह उभरती है। बल्कि देख सकते हैं कि आलोचक नील कमल जिस टूल का चुनाव करते हैं उसमें कविता को अभिधा के रूप में उतना ही सत्‍य होने का आग्रह प्रमुख रहता है जितना व्‍यंजना में। यह भी उतना ही सच है कि व्‍यंजना को भी अभिधा के सत्‍य में ही तलाशने की कोशिश कई बार बहुत जिद्द के साथ भी करते हैं।

यही बिन्‍दु उन्‍हें उस पारंपरिक आकदमिक आलोचना से बाहर जाकर बात करने को मजबूर करता है जिसका दायरा कवि के सम्‍पूर्ण निजी जीवन तक बेशक न जाता हो पर उसके साहित्यिक जीवन की परिधि को तो छूता ही है। कवि पर विद्धानों की राय या चुप्पियां, पुरस्‍कारों और सम्‍मानों के प्रश्‍न या फिर तय तरह फैलाई गई चुप्पियों के खेल लगभग हर आलेख की विषय वस्‍तु को निर्धारित कर रहे हैं।

नील कमल की आलोचना की सीमाएं दरअसल तात्‍कालिक घटनाक्रमों पर अटक जाना है। वह अटकना ही उन्‍हें आग्रहों से भी भर देने वाला है। बानगी के तौर पर देख सकते हैं जब वे आशुतोष दुबे की कविता ‘धावक’ पर टिप्‍पणी कर रहे हैं तो कविता के विश्‍लेषण में वे जमाने की अंधी दौड़ को विस्‍तार देने की बजाय उसे साहित्‍य की दुनिया में व्‍याप्‍त छल छदमों तक ही ‘रिड्यूस’ कर दे रहे हैं। ऐसा इसलिए भी होता है कि आलोचना लिखने से पहले ही नील कमल अपने सामने एक ऐसी दीवार देखने लग जाते हैं जो इतनी ऊंची है कि अपनी सतह से अलग किसी भी दूसरी चीज पर निगाह पहुंचा देने का अवसर भी नहीं छोड़ना चाहती। नील कमल उस कथित दीवार को कूद कर पार जाने का प्रयास करते रहते हैं। लेकिन दीवार की ऊंचाई को पार करना आसान नहीं। जमाने का दस्‍तूर दीवार को चाहने वाले लोगों की उपस्थिति को बनाये रखने में सहायक है। यदा कदा की छील-खरोंच पर पैबंद लगाने वाले जत्‍थे के जत्‍थे के रूप में हैं। दीवार की वजह से ही नील कमल भी दूसरी जरूरी चीजों को सामने लाने में अपने को असमर्थ पाने लगते हैं और दीवार उन्‍हें उनके लक्ष्‍यों से भटका भी देती है। साहित्‍य की दुनिया के छल छदम जरूर निशाने पर होने चाहिए लेकिन विरोध का स्‍वर सिर्फ वहीं तक पहुंचे तो कुछ देर को ठहर जाना ही बेहतर विकल्‍प है। फिर ऐसी चीजों के विरोध के लिए जिस रणनीति की जरूरत होती है, मुझे लगता है, नील कमल का कौशल भी वहां सीमा बन जाता है। कई बार तो वह विरोध की बजाय आत्‍मघातक गतिविधि में भी बदल जाता है। शतरंज के खेल की स्थितियों के सहारे कहूं तो सम्‍पूर्ण योजनागत तरह से प्रहार करने में नील कमल चूक जाते हैं।

नील कमल इस बात को भली भांति जानते हैं कि विचारधारा को आत्‍मसात करना और उसे इस्‍तेमाल करने के लिए वैचारिक दिखना दो भिन्‍न एवं असंगत व्‍यवहार है। यूं तो इसको समझने के लिए उनके पास उनके आदर्श, वे सचमुच के फक्‍कड़ कवि और विचारक ही हैं, लेकिन उन फक्‍कड़ अंदाजों को आत्‍मसात करते हुए नील कमल से कहीं उनसे कुछ छूट जा रहा है। वह छूटना मनोगत भावों का हावी हो जाना ही है। आत्‍मगत हो जाना भी। बल्कि अपने ही औजार, वस्‍तुनिष्‍ठता को थोड़ा किनारे सरका देना है। जबकि यह सत्‍य है कि वस्‍तुनिष्‍ठता पर नील कमल का अतिरिक्‍त जोर है। कमलादासी के दुख को देखते और समझते हुए, पंक्तियों के बीच भी कविता का पाठ ढूंढते हुए, एक औरत के राजकीय प्रवास का प्रशनांकित करते हुए आदि अधिकतर आलेखों में वस्‍तुनिष्‍ठ हो कर विशलेषण करने वाला आलोचक भी मनोगत आग्रहों की जद में आ जाए तो आश्‍चर्य होना स्‍वाभाविक है। ऐसा खास तौर पर उन जगहों पर दिखाई देता है जहां नील कमल पहले से किसी एक निर्णय पर पहुंच चुके होते हैं और फिर अपने निर्णय को कविता में आए तथ्‍यों से मिलाते हुए कविता का विश्‍लेषण करते हुए आगे बढ़ते हैं।

शराब बनाने बनाने के लिए फरमेंटेशन आवश्‍यक प्रक्रिया है। फरमेंटेशन का पारम्‍परिक तरीका और डिस्टिलेशन के द्वारा शराब निकालने के दौरान होने वाली फरमेंटेशन की प्रक्रिया में लगने वाले समय में इतना ज्‍यादा अंतर है कि तुलना करना ही बेतुका हो जाएगा। डिस्टिलेशन शराब बनाने की तुरंता विधि है। मात्र फरमेंटेड को छानने की प्रक्रिया भर नहीं। 

ध्‍यान देने वाली बात यह है कि दोनों विधियों से प्राप्‍त होने वाले उत्‍पाद में नशा तो जरूर होता है लेकिन वे दो भिन्‍न प्रकार के उत्‍पाद होते हैं। ‘वाइन’ के नाम से बिकने वाला उत्‍पाद फरमेंटशन की पारम्‍परिक प्रक्रिया का उत्‍पाद है और आम शराब के रूप में बिकने वाला उत्‍पाद डिस्टिलेशन की तुरंता प्रक्रिया से तैयार उत्‍पाद है। नील इन दोनों ही विधियों को पदानुक्रम में रखकर शराब बना देना चाहते है। यह बारीक सा अंतर इस कारण नहीं कि नील दोनों प्रक्रियाओं से प्राप्‍त होने वाले उत्‍पादों से अनभिज्ञ है, बस इसलिए कि वांछित तथ्‍यों के दिख जाने पर वे उसके अनुसंधान में और खपने से बचकर आगे निकल चुके होते हैं।

कविताओं में लोक के पक्ष को प्रमुखता देते हुए नील कमल अज्ञेय की असाध्‍य वीणा को परिभाषित करना चाहते हैं। लोक और सत्‍ता के अन्‍तरविरोध को परिभाषित तो करते हैं लेकिन मनुष्‍य और प्रकृति के सह-अवस्‍थान में वे लोक को वर्गीय चेतना से मुक्‍त स्‍तर पर ला खड़ा करते हैं। लोक के दमित स्‍वपनों का अपने तर्को के पक्ष में रखते हुए वे उस पावर डिस्‍कोर्स की बात करते हैं जो शोषणकर्ता और शोषक से विहिन दुनिया तक के सफर में एक रणनैतिक पड़ाव ही हो सकता है। लिखते हैं कि एक गरीब आदमी भी जब अपने लिए वैभव की कल्‍पना करता है तो उस कल्‍पना में वह राजा ही होता है जहां उसके नौकर-चाकर होते है, जहां उसे श्रम नहीं करना होता है।

एक सच्‍चे साधक की कल्‍पना से झंकृत हो सकने वाली वीणा के स्‍वर में वे जिस लोक को देखते हैं उसमें उन राजाश्रयी प्रलोभनों को भी थोड़ी देर के लिए गौण मान लेते हैं, जो कि खुद उनकी आलोचना का स्रोत बिन्‍दु है। असाध्‍य वीणा का वह लोकेल क्‍या उस प्रतियोगिता से भिन्‍न है जो आज की समकालीन दुनिया में विशिष्‍टताबोध को जन्‍म दे रहा है। वह विशिष्‍टताबोध जो लोक की सर्वाजनिनता को वैशिष्‍टय की अर्हता से छिन्‍न-भिन्न कर दे रहा है ?

राजपुत्रों के लिए आयोजित सीता स्‍वयंवर के धनुष भंग से किस तरह भिन्‍न है असाध्‍य वीणा को स्‍वर दे सकने की अर्हता।

लोक को विशिष्‍टता के पद से परिभाषित किया जाना संभव होता तो समाज में अफरातफरी मचा रही पूंजी के मंसूबे भी लोक की स्‍थापना में जगह पा रहे होते। महंगे से महंगे रेस्‍ट्रा, हवाई यात्राओं के अवसर, उम्‍दा से उम्‍दा गाडि़यों के मॉडल और आधुनिक तकनीक के वे उत्‍पाद जो उपयोगकर्ता को विशिष्‍टता प्रदान करने वाले आदर्श को सामने रख रहे हैं, लोक की स्‍थापना के आधार हो गए होते। उन्‍हें लपकने की चाह भी उसी तरह लोक का स्‍वर हो गई होती जिस तरह देखा जा रहा है कि लोक के दमित इच्‍छाओं के स्‍वप्‍नों में राजसी जीवन सजीव हो जाना चाहता है।

आलोकधनवा की कविता पर टिप्‍पणी करते हुए नील कमल कविता की पहली पंक्ति में दर्ज समय से जिस इंक्‍लाबी राजनीति का खाका सामने रखते हैं, अपने आग्रहों के तहत वहां माओवाद को चस्‍पा कर दे रहे हैं।

इतिहास साक्षी है कि चीनी इंक्‍लाब के मॉडल- गांवों से शहर को घेरने की रणनीति पर पैदा हुई वह राजनैतिक धारा उस वक्‍त माओवाद के नाम से नहीं जानी गई। माओवाद एक राजनैतिक पद है और जिसको इसी सदी के शुरुआत में ही सुना गया। यह बात इसलिए कि पूरी कविता का विश्‍लेषण इस आधार पर करते हुए नील कमल कविता की व्‍यवाहारिक सफलता को संदिग्‍ध ठहरा रहे हैं। हालांकि कविता की व्‍यवहारिक सफलता जैसा कुछ होता हो, यह अपने में ही विचारणीय है।     

आलोचना भी दुनियावी बदलाव की गतिविधियों को गति देने में प्रभावी विधा है, बशर्ते कि आग्रह मुक्‍त हो। खास तौर पर नील जिस सकारात्‍मक तरह से आलोचना विधा का इस्‍तेमाल कर रहे हैं। बदलावों के संघर्ष में कविता की अहमियत पर बात करते हुए और एक कवि की भूमिका को रेखांकित करते हुए नील कमल उस पक्ष को अपना पक्ष मानते हैं जो कवि ऋतुराज के संबंध में वे खुद ही उर्द्धत करते हैं, ‘’जब तक कोई कवि आम आदमी की निर्बाध जीवन शक्ति और संघर्ष में सक्रियता से शामिल नहीं होता तब तक कवियों के प्रति अविश्‍वास और उपेक्षा बनी रहेगी। वे निर्वासित, विस्‍थापित और नि:संग अपराधियों की तरह रहेंगे।‘’

इस तरह से वे कविता को ‘’एक सांस्‍कृतिक संवाद कायम करना’’ कहते हैं।

सिर्फ इस जिम्‍मेदारी को एक कवि पर आयद ही नहीं कर देना चाहते, बल्कि इसी पर खुद  भी यकीन भी कर रहे हैं। कविता से उनकी ये अपेक्षाएं इसलिए अतिरिक्‍त नहीं, क्‍योंकि चमकीले स्‍वप्‍नों की बजाय वे स्‍वप्‍न भंग की किरचों को भी कविता में यथोचित स्‍थान देने के हिमायती दिख रहे हैं। कविता को उम्‍मीद और निराशा के खांचों में बांटकर नहीं देखना चाहते हैं। इतिहास की अंधी गलियों से गुजरते हुए वर्तमान के पार निकल जाने को कविता का एक गुण मानते हैं। मितकथन भी कविता का एक गुण है, उनके आलेखों में यह बात बार-बार उभर कर आती है। दुख के अभिनय को निशाने पर रखते हैं। कविता की आलोचना को ही आलोचकीय फर्ज नहीं समझते, अपितु, कवि को भी सचेत करते रहते हैं कि प्रलोभनों के मायावी संसार के भ्रम जाल में न फंसे।     



नील कमल के ही शब्‍दों में कहूं तो लहू बहाए बिना ही कत्‍ल करने की अदा को वे लगातार निशाना बनाते चले जाते हैं, और इस तरह से जहां एक ओर तथाकथित रूप से सम्‍मानित कविता की कमजोरियों का उदघाटित करते हैं तो वहीं उम्‍मीदों का वितान रचती, किंतु अलक्षित रह गई और रह जा रही कविता से परिचित कराने को बेचैन बने रहते हैं।

नीलकमल मूलत: कवि हैं। अभी तक उनके दो महत्‍वपूर्ण कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।

 

 

Sunday, October 29, 2017

रनर

"नवरंग" के वार्षिकांक (2017) में प्रकाशित कहानी ‘रनर’- पूंजीवाद चुनाव तंत्र के उस रूप से साक्षात्कार कराती है जिसमें चुनाव प्रक्रिया एक ढकोसला बनती हुई दिखती है। 
नील कमल मूलत: कवि है, और ऐसे कवि हैं जिनकी निगाहें हमेशा अपने आस पास पर चौकन्नी बनी रहती हैं। कहानी एवं उनके आलोचनात्‍मक लेखन पर भी यह बात उतनी ही सच है। यह भी प्रत्यक्ष है कि उनकी रचनाओं की प्रमाणिकता एक रचनाकार के मनोगत आग्रहों से नहीं, बल्कि वस्‍तुगत स्थिति के तार्किक विश्ले षण के साथ अवधारणा का रूप अख्तियार करती है। कवि, कथाकार एवं आलोचक नील कमल की यह महत्व पूर्ण रचना ‘रनर’, जिसको पढ़ने का सुअवसर मुझे उसके प्रकाशन के पूर्व ही मिल गया था, इस ब्लाग के पाठकों के लिए प्रस्तु त है। कथाकार का आभार कि कहानी को प्रकाशित करने की सहर्ष अनुमति दी। आभार इसलिए भी कि उनकी इस रचना से यह ब्‍लाग अपने को समृद्ध कर पा रहा है।

वि.गौ.

कहानी 

 नील कमल



दिनभर के चुनाव कार्य के बाद मतगणना समाप्त हो चुकी थी | विजयी उम्मीदवारों को पुलिस अपनी हिफाजत में बाहर ले जा रही थी | रास्ते के दोनों ओर लोग लगभग दहशत में खड़े थे | उस लड़के ने उसी समय अपने स्मार्ट फोन का कैमरा ऑन कर लिया था | थाना प्रभारी जो मौके पर सुबह से ही मौजूद था लड़के की इस हरकत पर आपे से बाहर हो गया | थाना प्रभारी ने लड़के का गिरेबान पकड़ कर उसे खींचा और उसके ऊपर जोरदार प्रहार किया | लड़का नीचे गिर पड़ा | लड़के का स्मार्ट फोन जब्त करने के बाद उसे पुलिस की जीप में लेकर वह थाने की तरफ निकल गया | इस काम को बिजली की गति से अंजाम दिया गया था लिहाजा इससे पहले कि वहाँ जमा लोग कुछ भी समझ पाते, लड़का पुलिस हिरासत में था |
1.
बड़ा ही खूबसूरत सा गाँव है यह | पक्की सड़क के दोनों तरफ धान के विस्तीर्ण खेत | एकदम हरे भरे | गाँव के निवासी यातायात की सुविधा के लिए सड़कों के किनारे आ बसे हैं | वरना गाँव की मूल आबादी पहले इस सड़क से काफी भीतर की ओर बसती थी | सड़क बमुश्किल 12 फीट चौड़ी है | यह सड़क गाँव से निकल कर पूरब दिशा में एक भेरी पर समाप्त हो जाती है और पश्चिम दिशा में शहर की तरफ जाने वाले मुख्य मार्ग से जुड़ती है | भेरी, मतलब विशाल जलाशय | सड़क के दाहिने-बाँये, जहां-तहां गहरी खाईं है जो इस वक़्त शैवाल से भरी पड़ी थी | यह खाईं शायद मकानों के निर्माण के लिए निकाली गई मिट्टी के कारण बन गई होगी जिसमें बरसात का पानी ठहर जाता होगा | इस क्षेत्र में ऐसी खाँइयों को खाल कहते हैं | आधुनिक आर्किटेक्चरल डिजाइन वाले भवनों को देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि गांव में सम्पन्न लोग भी अच्छी संख्या में होंगे | लेकिन इस संपन्नता के बीच ही मिट्टी के परंपरागत घर भी हैं जिनपर टिन या पुआल की छप्पर पड़ी है | इन घरों के बाहर मुर्गियों के चूज़े, बत्तखें और बकरियाँ दिख जाती हैं | ये आदिवासी परिवार हैं जो विकास की दौड़ में तमाम सरकारी योजनाओं और घोषणाओं के बावजूद जीवन स्तर के मामले में अभी भी पिछड़े हुए हैं और छोटे मोटे काम के लिए सम्पन्न घरों की तरफ देखते रहते हैं |

इस गाँव के किसी किसान ने आज तक आत्महत्या नहीं की | पढ़े लिखे युवा गाँव छोड़कर नौकरियों की तलाश में शहर जरूर निकल गए थे पर कुल मिलाकर यह एक खुशहाल गाँव था | खेती यहाँ आजीविका का मुख्य साधन थी | धान की तीन फसलों के अलावा आलू, सरसो की खेती यहाँ के किसान बड़ी कुशलता के साथ करते | अधिकांश परिवारों से कोई न कोई व्यक्ति उस बैंक का सदस्य था जिसके बोर्ड के गठन के लिए यह चुनाव हो रहा है | ये किसान अपनी फसलों का बीमा कराते थे | उन्नत किस्म के बीज, रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक के प्रयोग में ये निपुण थे | यह बैंक इनकी अपनी संस्था थी जो इन्हें खेती के लिए आवश्यकतानुसार ऋण भी उपलब्ध कराती थी | बैंक का सालाना लाभ दस लाख रुपए तक निश्चित ही हो जाता था | एक करोड़ रुपए की रकम गाँव के किसानों ने अपनी गाढ़ी कमाई और बचत से बैंक के पास अमानत के तौर पर जमा रखी थी जिससे बैंक की व्यावसायिक जरूरत पूरी होती थी | गाँव की महिलाएँ किसी न किसी स्वनिर्भर समूह से जुड़ी थीं और आर्थिक रूप से स्वच्छंदता को महसूस करती थीं | गाँव में एक सरकारी स्कूल और स्वास्थ्य केंद्र भी ठीक ठाक काम कर रहे थे |

2.
दिनभर के चुनाव कार्य के बाद मतगणना समाप्त हो चुकी थी | विजयी उम्मीदवारों को पुलिस अपनी हिफाजत में बाहर ले जा रही थी | रास्ते के दोनों ओर लोग लगभग दहशत में खड़े थे | उस लड़के ने उसी समय अपने स्मार्ट फोन का कैमरा ऑन कर लिया था | थाना प्रभारी जो मौके पर सुबह से ही मौजूद था लड़के की इस हरकत पर आपे से बाहर हो गया | थाना प्रभारी ने लड़के का गिरेबान पकड़ कर उसे खींचा और उसके ऊपर जोरदार प्रहार किया | लड़का नीचे गिर पड़ा | लड़के का स्मार्ट फोन जब्त करने के बाद उसे पुलिस की जीप में लेकर वह थाने की तरफ निकल गया | इस काम को बिजली की गति से अंजाम दिया गया था लिहाजा इससे पहले कि वहाँ जमा लोग कुछ भी समझ पाते, लड़का पुलिस हिरासत में था | यह बैंक के प्राक्तन सचिव का इकलौता बेटा था जो शहर के प्रतिष्ठित कॉलेज में पढ़ता था और खास तौर पर इस चुनाव में वोट डालने के लिए गाँव आया हुआ था |

राजनीति उस जोरन की तरह है जो सद्भाव रूपी दूध में जब पड़ जाता है तो वह दूध अपना प्राकृतिक स्वरूप ही खो देता है | उसे दही में बदलते बहुत देर नहीं लगती है | राजनीति की जोरदार पैठ इस गाँव में भी थी | महिला पुरुष समेत कम से कम 2000 की आबादी का गाँव था यह | पिछले तीस वर्षों से इस बैंक के बोर्ड में एक ही दल के लोग काबिज रहते आए थे | बैंक के पिछले बोर्ड ने सदस्यता बढ़ाने में कोई रुचि नहीं दिखाई क्योंकि उसे इस बात की आशंका थी कि नए सदस्यों की राजनैतिक समझ उनसे भिन्न भी हो सकती है और ऐसी स्थिति में बैंक पर से उनका वर्चस्व भविष्य में कभी भी समाप्त हो सकता था | सदस्यता के नए आवेदन को वे यह कर कर टाल देते कि उस परिवार से एक सदस्य तो पहले ही है | नई उम्र के लोग बात को बहुत तूल न देकर शहर के निजी बैंकों में खाता खोले हुए थे हालांकि शहराती बैंकों की अपेक्षा यह बैंक अधिक सुविधाजनक था | उन्हें उम्मीद थी कि कभी जब बोर्ड बदलेगा तो उनके आवेदन भी मंजूर कर लिए जाएँगे |

इधर पिछले कुछ वर्षों में रियासत में निजाम बदलने के बाद गाँव-दखल , पंचायत- दखल, जिला-दखल जैसे नारे ज़ोर शोर से समाचार माध्यमों में सुर्खियों में आ रहे थे | बदले हुए निजाम में बैंक के बोर्ड पर शासक दल अपना कब्जा चाहता था | इतिहास अपने आप को शायद इसी तरह दोहराता है | खेल वही चलता रहता है | खिलाड़ी बदल जाया करते हैं | नहीं बदलता है कुछ तो वह है खेल का नियम | चुनाव पंचायत स्तर का था जिसमें कुल मतदाता महज 726 की संख्या में थे | गाँव की पंचायत, विरोधी दल के कब्जे में थी जबकि विधान सभा में इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व शासक दल का विधायक कर रहा था | गाँव के किसानों के इस बैंक में अब तक बोर्ड के सारे सदस्य विरोधी दल से ताल्लुक रखने वाले थे | जिस दिन से नए बोर्ड के गठन के लिए चुनाव की घोषणा हुई थी उसी दिन से शासक दल ने इसे जीतने के लिए जोड़ तोड़ शुरू कर दी थी | स्वतःस्फूर्त और निष्पक्ष चुनाव की सूरत में इस बदली परिस्थिति में  शासक दल की हार निश्चित थी जिसे अगले ही साल होने वाले विधानसभा चुनावों के मद्देनजर शासक दल किसी भी सूरत में जीत में बदलने के लिए दृढ़संकल्प था | इसकी तैयारियां बहुत पहले ही शुरू हो गई थीं

3.
बैंक के पुराने बोर्ड के सचिव गाँव के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे और उनकी लोकप्रियता असंदिग्ध थी | उन्हें मतदान में हराना असंभव था | इधर शासक दल के समर्थकों ने उन्हें धमकाना शुरू कर दिया था जिससे वे उम्मीदवार ही न बनें | लेकिन जब धमकियों से बात बनती न दिखी तो थाने में प्राक्तन सचिव के खिलाफ महिला यौन उत्पीड़न का केस दर्ज करा दिया गया | केस गैर जमानती था | स्थानीय विधायक भी इस चुनाव में पूरी दिलचस्पी ले रहा था | मजे की बात यह कि इलाके का थाना प्रभारी विधायक का साला था | खेल जम गया | सचिव को गाँव छोड़ कर भूमिगत हो जाना पड़ा | किन्तु किसी तरह नामांकन पत्र उनका जमा हो चुका था इसलिए उम्मीदवारी तय हो गई थी | इधर शासक दल गाँव के प्राइमरी स्कूल के एक दबंग अध्यापक को नए सचिव के तौर पर प्रोजेक्ट कर रहा था सबसे पहले विभागीय जिला अधिकारी पर दबाव बनाने का काम शुरू किया गया | मंत्री से लेकर जिला परिषद अध्यक्ष और स्थानीय विधायक की तरफ से स्पष्ट वार्ता दे दी गई कि शासक दल का बोर्ड ही वहाँ सुनिश्चित करना होगा | विभागीय अधिकारी सरकार पक्ष की तरफ से गठित चुनाव आयोग के द्वारा रिटर्निंग ऑफिसर नियुक्त थे | मामले की गंभीरता को समझते हुए इस चुनाव के लिए एक विश्वस्त असिस्टेंट रिटर्निंग ऑफिसर को उन्होने ज़िम्मेदारी सौंप दी | चुनाव के लिए ड्राफ्ट वोटर लिस्ट तैयार करने और चुनावी कार्यक्रम की अधिसूचना जारी करने के दौरान स्थानीय थाना प्रभारी और विधायक के साथ असिस्टेंट रिटर्निंग ऑफिसर की कई बैठकें हुईं |
बैठक के दौरान थाना प्रभारी के प्रस्ताव को सुनकर असिस्टेंट रिटर्निंग ऑफिसर को यकीन हो चला कि यह चुनाव इतना आसान नहीं होने वाला | भविष्य में उसकी नौकरी खतरे में पड़ सकती है, अगर ऐसे विकट प्रस्ताव पर अमल किया गया | थाना प्रभारी ने अपने चैंबर में सिगरेट का कश खींचने के बाद धुंवा छोडते हुए जो प्रस्ताव रखा था वह भयानक था |
देखिए, आप ऐसा कीजिए कि दो सेट बैलट छपवाइए | एक सेट पर आप बूथ पर मतदान करवाइए | दूसरे पर हमारे लोग मुहर लगाएंगे | काउंटिंग से पहले आप बक्से बदल देंगे” |
“इसकी जरूरत क्या है” ? असिस्टेंट रिटर्निंग ऑफिसर ने असहज होते हुए अपना पैंतरा बदला , “आपको जीतने से ही मतलब होना चाहिए | तरीका हमें तय करने दीजिए” |
चुनाव को लेकर गाँव का माहौल उत्तप्त था | पिछली रात को ही थाना से पुलिस की जीप में सिपाही आए थे और विरोधी दल के चार युवा समर्थकों को ले जाकर लॉक अप में डाल दिया | उन पर आपराधिक मामले ठोंक दिए थे पुलिस ने | सुबह नौ बजे से मतदान आरंभ होना था | आठ बजे के लगभग जब चुनाव कर्मियों को लेकर तीन चार गाड़ियों ने गाँव की सीमा में प्रवेश किया तो मंजर किसी बड़े चुनावी जंग जैसा नजर आया | बूथ के सौ मीटर के रेंज में पुलिस ने बैरीकेटिंग कर रखी थी |  सौ डेढ़ सौ की संख्या में पुलिस कर्मी परिसर को घेरे हुए थे | मतदान के लिए बने तीन बूथों के साथ एक बड़ा सा पंडाल बनाया गया था जिसमें प्रवेश करने वालों की जांच पड़ताल चल रही थी | डी वाई एस पी मौके पर खुद मौजूद थे | थाना प्रभारी सुरक्षा व्यवस्था का जायजा लेते हुए टहल रहे थे | बूथ संलग्न इलाके में धारा 144 लगी हुई थी |
सुबह सात बजे से ही बूथ संख्या तीन पर भारी संख्या में लोग कतार में खड़े थे | इनमें महिलाएँ और बुजुर्ग बड़ी तादाद में थे | कुछ महिलाओं की गोद में शिशु भी थे जो टुकुर टुकुर देख रहे थे और समझ नहीं पा रहे थे कि आस पास क्या हो रहा है | अन्य बूथों पर भी वोटर कतार में खड़े थे | जिला स्तर के कुछ नेता जो शासक दल की तरफ से जिला परिषद सदस्य भी थे मोटर बाइक पर गश्त लगा रहे थे | लगभग चार पाँच सौ की संख्या में लोग बूथ के सौ मीटर के दायरे में फैले हुए थे | रिटर्निंग ऑफिसर बूथ के बाहर ही थाना प्रभारी के साथ बैठे स्थिति पर नजर बनाए हुए थे | ठीक नौ बजे मतदान शुरू हुआ |
बैलट पेपर पर उम्मीदवारों के नाम और उनके चुनाव चिन्ह सिलसिलेवार छपे हुए थे | चूंकि यह किसानों के एक बैंक का चुनाव था इसलिए राजनैतिक दलों के चुनाव चिन्ह यहाँ व्यवहार में नहीं लाए जा सकते थे | बैंक के बोर्ड के लिए छह सदस्यों को इनमें से चुना जाना था |

4.
शुरू के डेढ़ दो घंटे मतदान लगभग शांतिपूर्ण ढंग से चलता रहा | पहचान पत्र के साथ लोग आते और मतदान करके चले जाते | इसके बाद पीठासीन अधिकारियों ने लक्षित किया कि लगभग हर दूसरे वोटर के साथ एक कंपेनियन वोट डालने आने लगा | कंपेनियन वोटर ! यह कुछ कुछ वैसा ही था कि जैसे क्रिकेट मैच के दौरान किसी बल्लेबाज को चोट आ जाए तो वह अपनी सहायता के लिए एक रनर बुलावा सकता है | बल्लेबाज शॉट खेलता है और रनर उसके बदले दौड़ कर रन बनाता है | चुनाव की नियमावली में इसी तरह कंपेनियन वोटर का एक प्रावधान होता है | यह उनके लिए प्रयोज्य है जो अंधे हों, शारीरिक रूप से अक्षम हों या निरक्षर हों | वे अपनी सहायता के लिए एक सहायक या कंपेनियन बूथ तक ले जा सकते हैं | आम चुनावों में ऐसे कंपेनियन उसी बूथ के वोटर भी हों यह अनिवार्य नियम होता है लेकिन इस चुनाव में ऐसी किसी अनिवार्यता कि बात स्पष्ट नहीं थी | तो कोई भी व्यक्ति जो उस वोटर को पसंद हो वह उसका कंपेनियन हो सकता था , भले ही वह किसी दूसरे गाँव का ही क्यों न हो | नियमावली की यह फाँक शासक दल को विभागीय अधिकारी ने दिखला दी थी | बाहर के गांवों से चार पाँच सौ लोग इसी तैयारी के साथ बुलवा लिए गए थे | यह बात पुलिस और प्रशासन के संज्ञान में पहले से ही थी | इस प्रक्रिया में ग्यारह बजे के बाद मतदान की गति धीमी होती गई और लोगों का जमावड़ा बढ़ता गया | कतार में लगभग हर दूसरे वोटर के साथ एक बहिरागत साये की तरह लगा हुआ था | वोटर की पहचान होती, उसे बैलट इशू होता और उस बैलट के साथ वह बहिरागत कंपेनियन मतदान कक्ष में प्रवेश कर जाता | वोटर बेचारा असहाय देखता रह जाता | यह दृश्य बदस्तूर चल रहा था | तभी दो नंबर बूथ पर अचानक तनावपूर्ण स्थिति बनती हुई नजर आई | बूथ के पीठासीन अधिकारी ने पूछताछ आरंभ कर दी थी |
महिला वोटर थी | जैसे ही बैलट उसके हाथ में आया उसके साथ वाले व्यक्ति ने उसे लपक लेना चाहा | लेकिन उसने तभी पीठासीन अधिकारी की तरफ देखते हुए उससे फरियाद की |
“साहब, मैं अपना वोट खुद डाल सकती हूँ लेकिन ये ज़बरदस्ती मेरे साथ घुसे चले आ रहे हैं” |
“क्यों भाई, आप कौन” ?
“सर, मैं इनका वोट डालूँगा” |
“क्यों, अप क्यों इनका वोट डालेंगे जबकि ये कह रही हैं कि ये अपना वोट खुद डाल सकती हैं” |
“ऐ, बैलट मुझे दे” |
“अरे, अरे, आप इधर आयें ... क्या तकलीफ है आपको ? आखिर वोटर ये हैं या आप .. आप बाहर जाएँ..” |
वह व्यक्ति जो कंपेनियन वोटर की हैसियत से बूथ के भीतर दाखिल हुआ था अब अपने रौद्र रूप में आ चुका था | दाहिने हाथ से उसने पीठासीन अधिकारी की छाती पर धक्का देते हुए बाँये हाथ से महिला से बैलट छीन लिया और बूथ के भीतर जाकर मुहर लगाने लगा | पीठासीन अधिकारी इस आकस्मिक हमले से बड़ी मुश्किल से संभला | तभी बूथ संलग्न पंडाल के बाहर विधायक की गाड़ी पूरे लाव लश्कर के साथ आकार रुकी | विधायक को बूथ की हर घटना की पल पल की खबर दी जा रही थी | गाड़ी से उतरते ही वह डी वाई एस पी पर भड़क उठा |
“आप लोग यहाँ क्या कर रहे हैं ! आपसे कहा गया था कि यहाँ पुलिस फोर्स कि जरूरत नहीं है” |
“सर, हम तो बस अपना काम कर रहे हैं” |
“तुम लोग ऐसे नहीं समझोगे बात को .. लातों के भूत हो तुम सब | अभी हटाओ फोर्स को यहाँ से” !
इसके बाद विधायक रिटर्निंग ऑफिसर की तरफ बढ़ा |
“और .. आप कर क्या रहे हैं यहाँ ! आखिए सरकार किसलिए पोस रही है आपलोगों को .. जनता के पैसे से वेतन दिया जाता है आपको” !
“सर, सबकुछ शांतिपूर्ण ढंग से हो रहा है” |
“क्या शांतिपूर्ण हो रहा है ! यहाँ क्या लोकसभा का चुनाव हो रहा है ! सुन लीजिए , कोई पहचान पत्र नहीं चेक किया जाएगा यहाँ..” |
विधायक की गाड़ी के हटते ही बूथ परिसर का माहौल एकदम से बदल गया | पुलिस बूथ छोड़ कर सड़क पर कुर्सियाँ डाल कर बैठी रही | दूसरे गांवों से आए चार पाच सौ लोग पंडाल के भीतर आ गए | धारा 144 की धज्जियां, धुनी जा रही रुई के फाहों सी उड़ती रहीं |

5.
ठीक दो बजे मतदान समाप्त हुआ | अब मतगणना कि बारी थी | ऐसे चुनावों में मतदान के तुरंत बाद ही गणना आरंभ कर देनी होती है | चुनाव के फलाफल भी मतगणना के अंत में घोषित कर दिए जाते हैं | बूथ नंबर एक पर शासक दल के पैनल को ठीक ठाक बढ़त मिल रही थी | बूथ नंबर दो पर भी यह बढ़त बनी रही | तीसरे बूथ के परिणाम में विलंब हो रहा था | इधर शासक दल के पैनल के जीत की गंध मिलते ही उनके तमाम समर्थक एक दूसरे के चेहरे पर गुलाल मलने लगे | उत्सव का दृश्य बन रहा था | लेकिन बूथ नंबर तीन के परिणाम ने गणित को उलट दिया था | मुक़ाबला कांटे का हो रहा था | अंतिम राउंड की मतगणना के मुताबिक छह सदस्यों वाले नए बोर्ड में शासक दल के तीन और विरोधी दल के पैनल से तीन सदस्य जीत रहे थे | पिछले बोर्ड के सचिव जो भूमिगत रह कर चुनाव लड़ रहे थे उनके जीतने की खबर चौंकाने वाली थी सबके लिए | 726 वोटरों में से 233 कंपेनियन वोट पड़े थे |
परिणाम घोषित किए जाने का वक़्त आ गया था | नए बोर्ड में दोनों पैनलों से तीन-तीन सदस्य जीते थे | शासक दल के समर्थक उत्तेजित थे | पीठासीन अधिकारियों को मारने की खुली धमकी देने लगे |
“साले, हमारी सरकार से वेतन लेते हो .. किसी काम के नहीं .. टाँगें तोड़ कर वापस भेजेंगे आज तुम सबको” !
इस परिणाम ने स्थिति को जटिल बना दिया था | बैंक के नियमों के मुताबिक छह सदस्यों के बोर्ड में किसी जरूरी फैसले के लिए कम से कम चार का समर्थन जरूरी था | इतना ही नहीं बोर्ड की मीटिंग के लिए भी कोरम भी चार सदस्यों की उपस्थिति से ही पूरा होता था | मिलजुल कर काम करने की संभावना नहीं दिख रही थी | लेकिन इस जटिलता का कोई जादुई हल निकालना ही होगा रिटर्निंग ऑफिसर को | चलते चलते उसने फोन पर विधायक को आश्वस्त करते हुए बड़ी मुलायमियत भरी आवाज़ में कहा, “सर, सात दिन के बाद ही ऑफिस बियरर इलेक्ट कर देंगे हम .. आप बिलकुल चिंता न करें सर ..” | इस बीच उसे उस लड़के का ख्याल आया जिसे पुलिस जीप में थाना प्रभारी थोड़ी देर पहले ले गया था | थाना प्रभारी से कह तो दिया था, “बच्चा है, केस मत दीजिएगा.. कैरियर खराब हो जाएगा बच्चे का ..” पर क्या वह उसकी बात मानेगा ?
सूरज ढलने को था | चुनाव कर्मी गाड़ियों में वापस लौट रहे थे | हाथ में गुलाल लिए कुछ लोग किंकर्तव्यविमूढ़ भाव से खड़े थे | चुनावी आंकड़ों के आधार पर यह साबित करने में कोई कठिनाई नहीं थी कि गाँव के 726 मतदाताओं में से 233 या तो अंधे थे या शारीरिक रूप से अक्षम या फिर निरक्षर | चुनाव कि भाषा में ब्लाईंड, इंफर्म ऐंड इल्लीटेरेट वोटर्स ! क्रिकेट की भाषा में इतने ही रनर !
संपर्क : 
नील कमल
244, बांसद्रोणी प्लेस (मुक्त धारा नर्सरी स्कूल के निकट) 
कोलकाता – 700070

मोबाइल – (0) 9433123379          

Tuesday, October 25, 2016

वस्तुनिष्ठता की मांग अपराध नहीं

कुछ सूत्र जो एक किसान बाप ने बेटे को दिए
केदारनाथ सिंह

मेरे बेटे
कुँए में कभी मत झाँकना
जाना
पर उस ओर कभी मत जाना
जिधर उड़े जा रहे हों
काले-काले कौए

हरा पत्ता
कभी मत तोड़ना
और अगर तोड़ना तो ऐसे
कि पेड़ को जरा भी
न हो पीड़ा

रात को रोटी जब भी तोड़ना
तो पहले सिर झुकाकर
गेहूँ के पौधे को याद कर लेना

अगर कभी लाल चींटियाँ
दिखाई पड़ें
तो समझना
आँधी आने वाली है
अगर कई-कई रातों तक
कभी सुनाई न पड़े स्यारों की आवाज
तो जान लेना
बुरे दिन आने वाले हैं

मेरे बेटे
बिजली की तरह कभी मत गिरना
और कभी गिर भी पड़ो
तो दूब की तरह उठ पड़ने के लिए
हमेशा तैयार रहना

कभी अँधेरे में
अगर भूल जाना रास्ता
तो ध्रुवतारे पर नहीं
सिर्फ दूर से आनेवाली
कुत्तों के भूँकने की आवाज पर
भरोसा करना

मेरे बेटे
बुध को उत्तर कभी मत जाना
न इतवार को पच्छिम

और सबसे बड़ी बात मेरे बेटे
कि लिख चुकने के बाद
इन शब्दों को पोंछकर साफ कर देना

ताकि कल जब सूर्योदय हो
तो तुम्हारी पटिया
रोज की तरह
धुली हुई
स्वच्छ
चमकती रहे


 बेनाम दास की कविता 

मेरे बच्चे
स्पैम में कभी मत झाँकना
देखना पर उस ओर कभी मत देखना
जिधर फैलते जा रहे हों
अश्लील वाइरल विडियोज़ ।

लिखा कमेंट
कभी मत डिलीट करना
और अगर करना तो ऐसे
कि मॉडरेटर को ज़रा भी
न हो पीड़ा ।

रात को लिंक जब भी खोलना
तो पहले आँख-कान खोल कर
पोस्ट करने वाले को याद कर लेना ।

अगर कभी ढेरों लाइक्स
दिखाई पड़ें
तो समझना
कोई अफवाह आने वाली है
अगर कई कई दिन तक सुनाई न दे
कमेंट-शेयर की आहट
तो जान लेना
पोस्ट फ्लॉप होने वाली है ।

मेरे बेटे
हैकर की तरह कभी मत गिरना
और कभी गिर भी पड़ना
तो क्रैकर की तरह फट पड़ने के लिए
हमेशा तैयार रहना ।

कभी बहस में
अगर खो बैठो अपना विवेक
तो प्रतिक्रियाओं पर नहीं
दूर से इनबॉक्स में आते मेसेज़ेस पर
भरोसा करना ।

मेरे बेटे
मंगल को लॉग-इन कभी मत करना
न शुक्र को लॉग-आउट ।

और सबसे बड़ी बात मेरे बेटे
कि स्टैटस अपडेट के बाद
सारे टैग्स रिमूव कर देना

ताकि कल जब फेसबुक खोलो
तो तुम्हारी टाइमलाइन
रोज की तरह
स्पैम-फ्री
टैग-फ्री
दमकती रहे ।


 

हिन्दी की लोकप्रिय कविताओं का प्रतिसंसार भी हिन्दीं की समकालीन कविता का एक चेहरा बनाता है। बहुप्रचलित अंदाज में लिखी जाने वाली लोकप्रिय कविताओं का मिज़ाज थोड़ा बड़बोला होता है और सूंत्रातमकता के आधार स्तम्भों पर खड़ी ये कविताएं पंच लाइनों से अपना महत्व साबित करवाती है। हिन्‍दी में ऐसी बड़बोली कविताएं अक्सर स्थापित कवियों की कविता की पहचान है। अकादमिक बहसों में उनकी पंच लाइनों को कोट करने और दोहरा दोहरा कर रखने से ही उनका महत्व स्थापित हुआ है। 

ये विचार, पिछले दिनों एक कवि के पहले संग्रह को पढ़ते हुए आए। लेकिन यह बात मैं जिस कविता को पढ़ते हुए कह रहा हूं, उस कवि और उस कविता का जिक्र करने की बजाय मैं हाल में लिखी बेनाम दास की उस कविता का जिक्र करना ज्या दा उपयुक्त समझ रहा हूं, कवि नील कमल ने जिसे अपनी फेसुबक पट्टी पर साया किया। बेनाम दास की उस कविता पर नील कमल की टिप्पणी उसे केदार-स्टाइल की कविता के रूप में याद करती है। यहां उस कवि और कविता का, जिसे पढ़ते हुए यह कहने का मन हुआ, जिक्र न करने के पीछे सिर्फ इतनी सी बात है कि उस कवि की कुछ कविताओं के अलावा अन्य कविताओं के बारे में यह बात उसी रूप में सच नहीं है कि वे लोकप्रिय कविताओं का प्रतिभास हो। फिर दूसरा कारण यह भी कि लोकप्रिय कविताओं का प्रतिभास कराती दूसरे कवियों की भी कई कई कविताओं के साथ वह कविता भी समकालीन कविता के उस खांचे में डाल देना ही उचित लग रहा, जिनके बहाने यह सब लिखने का मन हो पड़ा। 

दिलचस्प है कि हिन्दी के प्रतिष्ठित कवि केदारनाथ सिंह की कविता ‘कुछ सूत्र जो एक किसान बाप ने बेटे को दिए’ के एक अंश पर एक टिप्पणी भी नील कमल ने अपनी फेसबुक पट्टी पर लिखी थी। इससे पहले भी नील कमल कविताओं पर टिप्प्णियां करते रहे हैं, जिनमें उनके भीतर के आलोचक को कविता में वस्तुनिष्ठता की मांग करते हुए देखा जा सकता है। नील कमल को मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूं, एक जिम्मेदार रचनाकार हैं। उनसे पूर्ण सहमति न होते हुए भी रचना में एक तार्किक वस्तुनिष्ठता हो, मैं अपने को उनसे सहमत पाता हूं। रचना में वस्तुनिष्ठ ता की मांग करना कोई अपराध नहीं बल्कि उस वैज्ञानिक सत्य को खोजना है जो तार्किक परिणति में सार्वभौमिक होता है। मुझे हमेशा लगता है कि गैर वस्तुरनिष्ठतता की प्रवृत्ति में ही कोई कविता जहां किसी एक पाठक के लिए सिर्फ कलात्मक रूप हो जाती है वहीं किसी अन्य के लिए भा भू आ का पैमाना। कविता ही नहीं, किसी भी विधा, यहां तक कि कला के किसी भी रूप का, गैर-वस्तुनिष्ठता के साथ किया जाने वाला मूल्यांकन रचनाकार को इतना दयनीय बना देता है कि एक और आलोचक को गरियाते हुए भी लिखी जा रही आलोचनाओं में अपनी रचनाओं के जिक्र तक के लिए वह फिक्रमंद रहने लगता है। उसके भीतर महत्वाकांक्षा की एक लालसा ऐसी ही स्थितियों में ही अति महत्वाकांक्षा तक पेंग मारने को उतावली रहती है। यह विचार ही अपने आप में अवैज्ञानिक दृष्टिकोण है कि कविता का तो अपना विज्ञान होता है। अभी तक ज्ञात हो चुके रहस्यों की पहचान कविता का हिस्सा होने से उलट नहीं सकती है। यही वैज्ञानिकता है और जो हर विषय एवं स्थिति के लिए एक सार हो सकती है। यहां यह भी कह देना उचित होगा कि जब तक प्रकृति के समस्त् रहस्यों से पर्दाफाश नहीं हो जाता कोई ज्ञात सत्य भी अन्तिम और निर्णायक नहीं हो सकता। संशय और संदेह के घेरे उस पर हर बार पड़ते रहेंगे और हर बार उसे तार्किक परिणति तक पहुंचना होगा, तभी वह सत्य कहलाता रह सकता है। 

अकादमिक मानदण्डों को संतुष्ट करती रचनाओं ने गैर वस्तुनिष्ठता को ही बढ़ावा दिया है। बिना किसी तार्किकता के कुछ भी अभिव्यक्त‍ कर देने को ही मौलिकता मान लेने वाली अकादमिक आलोचना की अपनी सीमाएं हैं। तय है कि कल्पतनाओं के पैर भी यदि गैर भौतिक धरातल से उठेंगे तो निश्चित ही गुरूत्वाकर्षण की सीमाओं से बाहर अवस्थित ब्रहमाण्ड में उनका विचरण भी बेवजह की गति ही कहलायेगा, बेशक ऐसी कविताओं का बड़बोलापन चेले चपाटों की कविता में कॉपी पेस्ट होता रहे। देख सकते हैं बेनाम दास की कविता केदारनाथ सिंह जी कविता का कैसा प्रतिसंसार बनाती है। निसंदेह यह प्रतिसंसार होती कविता तो मूल से ज्यादा तार्किक होकर भी प्रस्तुत है। इसे इस रूप में भी समझा जा सकता है कि कहन के कच्चेपन और परिपक्वता के अंतर वाली बड़बोली कविता का स्तरबोध बेशक भिन्न हो, पर तथ्यात्मकता और अनुभव की वैयक्तिकता में भी, उनकी सूत्रात्मक पंच लाइने उन्हें कॉपी पेस्ट से अलग होने नहीं देती। 


Monday, March 21, 2016

वह तो एक नन्हा कैक्टस है, जड़े जिसकी हैं सबसे लम्बी

क्‍या कभी लौटा लेकर दिशा मैदान जा‍ती स्‍त्री का चित्र बनाया है किसी चित्रकार ने ? हिन्‍दी की दुनिया में ऐसे प्रश्‍न अल्‍पना मिश्र की कहानी में उठे हैं।
ऐसे प्रश्‍नों की गहराईयों में उतरे तो कहा जा सकता है कि ये प्रश्‍न स्‍त्री को मनुष्‍य मानने और तमाम मानवीय कार्यव्‍यापार के बीच उसकी उपस्थिति को दर्ज करने के आग्रह हैं। नील कमल की कविता ‘’कितना बड़ा है स्‍त्री की देह का भूगोल’ ऐसे ही प्रश्‍न को अपने अंदाज में उठाती है। पहाड़, पठार, नदी, रेगिस्‍तान, भौगोलिक विन्‍यास की ऊंचाईयों वाले उभार, या झील सी गहराइयों वाली नमी के ऐसे यथार्थ हैं जिनकी उपस्थितियों का असर भूगोल विशेष के भीतर निवास करने वाले व्‍यक्ति के व्‍यक्तित्‍व को आकार देने में अहम भूमिका निभाते हैं। लेकिन उन प्रभावों को नापने का कोई यंत्र शायद मौजूद नहीं। यदि ऐसा कोई यंत्र हो भी तो क्‍या अनुमान किया जा सकता है कि लैंगिक अनुपात का ऐसा कोई ब्‍यौरा प्राथमिकता में शामिल होगा, जिसमें स्‍त्री मन की आद्रता, तापमान और रोज के हिसाब से टूटती आपादओं के असर में क्षत विक्षत होती उसकी देह के आंकड़े होंगे ? यह सवाल निश्चित ही उन स्थितियों को याद करते हुए जहां स्‍त्री जीवन को इस इस स्‍तर पर न समझने की तथ्‍यता मौजूद है। पृथ्‍वी की ऊंचाईयों वाले उभारों, या झील की गहराइयों वाली नमी पर तैरने वाले भावों से भरी काव्‍य अभिव्‍यक्तियों के बरक्‍स नील की कविता सीधे-सीधे सवाल करती है- बताओ लिखी क्‍यों नहीं गई कोई महान  कविता/ अब तक उसकी एडि़यों की फटी बिवाइयों पर।‘’
विज्ञान के अध्‍येता नील कमल के यहां सीली हुई दीवार को सफेद धूप सा  खिला देने वाला भीगा हुआ चूना नरेश सक्‍सेना की कविता के क‍लीदार चूने से थोड़ा अलग रंग दे देता है। उसकी खास वजह है कि शुद्ध तकनीकी गतिविधियों को कहन के अंदाज में शामिल करके शुरू होती नील की कविता बस शुरूआती इशारों के साथ ही तुरन्‍त आत्‍मीय दुनिया में प्रवेश कर जाना चाहती है। सामाजिक विसंगतियों की घिचर-पिचर में अट कर रास्‍तों को तलाशने की मंशा संजोये रहती है। लेकिन कई बार प्रार्थना के ये स्‍वर भाषा के उस सीमान्‍त पर होते हैं जहां इच्‍छायें बहुत वाचाल हो जाना चाहती हैं। वे जरूरी सवाल जिन्‍हें हर भाषा की कविता ने अपने अपने तरह से उठाने  की अनेकों कोशिशें की हैं, लेकिन तब भी जिन्‍हें अंतिम मुकाम तक पहुंची हुई दुनिया का हिस्‍सा होने के लिए बार बार दर्ज किया जाना जरूरी है, अच्‍छी बात है कि नील की कविताओं के भी विषय है लेकिन उनका स्‍वर कहीं कहीं थोड़ा वाचाल है। यह आरोप नहीं बल्कि एक इशारा है, इसलिये कि नील कमल के यहां कविता के बीज अपनी धरती पर उगने की संभावना रखते हैं। सलाह के तौर पर कहा जा सकता है कि ऐसी कवितायें जो काव्‍य-स्‍पेश तो कम क्रियेट कर रही हो और बयान ज्‍यादा हो जाना चाहती हों, उनसे बचा जाना चाहिए। यहां कविता में आ रही दुनिया और उन जरूरी मुद्दों से नाइतिफाकी न देखी जाये, क्‍योंकि जरूरी मुद्दों की तरह उन्‍हें पहले ही चिह्नित किया जा चुका है। स्‍पष्‍ट है कि उन जरूरी सवालों से टकराते हुए ही नया बिमब विधान रचते हुए किसी भी तरह की पुरनावृत्ति से बचा ही जाना चाहिये। फिर वह चाहे खुद की हो या अन्‍य प्रभावों की हो।  
रोमन लिपि के पच्‍चीसवें वर्ण का एक बिम्‍ब गुलेल से बन जाता है। तनी हुई विजयी प्रत्‍यंचा की धारों पर पांव बढ़ते जाते हैं। इस छवी के साथ एक उत्‍सुकता जागने लगती है। लेकिन निशाने पर  गोपियों की मटकी है। पके हुए आम के फल हैं। जबकि प्रत्‍यंचा के तनाव पर सारा आकाश आ सकता था। यदि ऐसा हुआ होता तो शायद तब इस खबर का कोई मायने नहीं रह जाता कि अपने निर्दोषपन की छवी में भी गुलेल बेहद खतरनाक हथियार है। रचना की प्रक्रिया को जानने की कोई मुक्‍कमल एवं वस्‍तुनिष्‍ठ  पद्धति होती तो जिस वक्‍त गुलेल एक बिम्‍ब के रूप में कवि के भीतर अटक गयी होगी, उसे जाना जा सकता था, कि उसके निशाने कहां सधे थे। कविता की अंतिम पंक्तियों में उसको खतरनाक बताने वाली खबर अनायास तो नहीं ही होगी। अनुमान लगाया जा सकता है कि उभरे हुए बिम्‍ब और कविता के उसके दर्ज होने में जरूर कहीं ऐसा अंतराल है जो कवि की पकड़ से शायद छूट रहा है। इस बात को तो कवि स्‍वंय जांच सकता है। यदि यह सत्‍य है तो कहा जा  सकता है कि कविता को लिखे जाने से पहले उस वक्‍त का इंतजार किया जाना था जहां फिर से वही स्थितियां और मन:स्थिति कवि की अभिव्‍यक्ति का सहारा बनना चाह रही होती। सामाजिक, सांस्‍कृतिक ओर मानसिक स्थितियों की ऐसी छवियां जो एक समय में कोंध कर कहीं लुक गयी हों, एक कवि को उन्‍हें पकड़ने के लिए फिर से इंतजार करना चाहिये। नील कमल की बहुत सी कविताओं में वह इंतजार न करना खल रहा है। जबकि नील की कविताओं का बिम्‍ब विधान अनूठे होने की हद तक मौलिक है। ‘पेड़ पर आधा अमरूद’, ‘पेड़ो के कपड़े बदलने का समय’, ‘‍स्‍त्री देह का भूगोल’, ‘ईश्‍वर के बारे में’ आदि ऐसी कवितायें है जिनमें नील जिन अवधारणाओं के साथ हैं, वे आशान्वित करती हैं। उनके सहारे कहा जा सकता है – हे ईश्‍वर ! तुम रहो अपने स्‍वर्ग में, तुम्‍हारा यहां कोई काम नहीं। मुसीबतों में फंसे होने पर सिर्फ ‘आह’ भर का नाम नहीं होना चाहिये ईश्‍वर। यहां-  पिता नाम है, इस पृथ्‍वी पर/दो पैरों पर चलते ईश्‍वर का। ईश्‍वर के बारे में रची गयी अवधारणाओं का यह ऐसा पाठ हे जो मुसिबत की हर कुंजी को अपने पास रखने वाली ताकत को ईश्‍वर के रूप में पहचान रही है।
भावुक मासूमियत से इतर नील कमल की कविताओं का मिजाज उसी तरह से तार्किक है जैसे कवि नरेश सक्‍सेना के यहां दिखायी देता है। वहां बहुत सी ऐसी धारणायें ध्‍वस्‍त होती हैं जो अतार्किक तरह से स्‍थापित होना चाहती है। सबसे गहरी जड़ो वाला पौधा  न तो बूढ़ा बरगद है न पीपल, बल्कि वह तो एक नन्‍हा कैक्‍टस है जिसकी जड़ें धरती में उस गहराई तक उतरती हैं, पानी की बूंद होने की संभावाना जहां मौजूद हो। धरती की अपनी सतह पर के सूखे के विरूद्ध हार कर पस्‍त नहीं हो जाना चाहती। कई कवितायें इतनी सहज होकर सामने आती हैं कि हैरान कर देती। जीवन के जाहिल गणित को सुलझाने में नील की कवितायें न भूलने  वाली कवितायें हैं। अपनी पंक्तियों को वे सह्रदय पाठक के भीतर जिन्‍दा किये रहती है। दो को पहाड़ा दोहराने के लिए उन्‍हें ताउम्र भी याद रखा जा सकता है।    
- विजय गौड़