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Sunday, August 13, 2023

महा परियोजनाओं का सांस्कृतिक परिदृश्य


देहरादून की नाट्य संस्था वातायन ने पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह की  पहलकदमी दिखाई है, नाटकों के मंचन किये, इसमें कोई दो राय नहीं कि देहरादून रंगमंच के इतिहास में वह हमेशा दर्ज रहेगी. उन पर निगाह डाले तो आश्चर्यजनक खुशी मिलती है. मूल रूप से रंगमंच के लिए समर्पित इस संस्था की पिछली चार नाटय प्रस्तुतियां अपने विषय के कारण उल्लेखनीय कही जा सकती है. दिलचस्प है कि ये चारों प्रस्तुतियां कमोबेश अपने अपने तरह से भारतीय स्वतंत्रता के संघर्ष की कहानी और उस दौर के सामाजिक राजनैतिक और आर्थिक परिदृश्य पर ध्यान खींचतीं हैं. 2019 में रचा गया और मंचित किया गया नाटक दांडी से खाराखेत तक. स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में देश भर में व्याप्त नमक सत्याग्रह आंदोलन की आवाज देहरादून में लून नदी में नमक बनाने की कार्रवाई के साथ सुना गया था, नाटक उसी अल्पज्ञात इतिहास को सामने लाने के लिए गोरखाली समाज के नायक और नमक सत्याग्रह आंदोलन के दौरान ही गांधी जी के सम्पर्क में आए खड‌क बहादुर सिंह के नायकत्व को स्थापित करने की कोशिश करता है. उसके बाद  2022 में नागेंद्र सकलानी एवं तिलाड़ी कांड को आधार बना कर रचे और मंचित किया गया नाटक- मुखजात्रा, और आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष 2022-23 के  दौरान कथाकार प्रेमचंद के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यास गोदान पर आधारित नाट्य आलेख का मंचन और इस माह अगस्त 11 एवं 12 की सबसे ताजा प्रस्तुति वीर चंद्र सिंह गढवाली’.    


इन चारों प्रस्तुतियों की एक खास बात यह है कि इनके नाट्य आलेखों को तैयार करने में वातायन के कलाकारों की भूमिका विशेष रही है और इनके प्रथम मंचन भी वातायन ने ही किये. दांडी से खाराखेत का नाट्य आलेख वातायन द्वारा 2019 में आयोजित उस रंग शिविर में तैयार हुआ जिसका संचालन निवेदिता बौंठियाल द्वारा किया. नाटक का निर्देशन निवेदिता बौंठियाल ने किया. लगभग 40-42 वर्ष पहले निवेदिता बौंठियाल (उनियाल) रंगमंच के अपने सफर की शुरुआत वातायन से ही की थी और पिछले लगभग 30-35 वर्षों से वे बम्बई में एवं कलाकार के रूप में सक्रिय हैं. मुखजात्रा सुनील कैंथोला द्वारा लिखे और प्रकाशित नाटक को एक रंग शिविर में मंचिय प्रक्रिया तक पहुंचाने का उपक्रम बना था. यह रंगशिविर उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध रंगकर्मी डॉ सुवर्ण रावत के नेतृत्व में सम्पन्न हुआ था और वे ही नाटक के निर्देशक थे. सुनी सुनायी खबरों के हवाले से यह रंगशिविर गढवाल महासभा ने अयोजित किया था.शायद इसीलिए नाटक का पहला मंचन प्रशासन द्वारा आयोजित कौथीग-2022 में हुआ हो. कुछ दिनों बाद नाटक में कुछ मामूली बदलावों के साथ नाटक का मंचन टाउन हाल देहरादून में वातायन की ओर से किया गया और डॉ सुवर्ण रावत ही नाटक के निर्देशक थे. गोदान की स्क्रिप्ट को नाटक के निर्देशक मंजुल मयंक मिश्रा ने प्रेमचंद के उपन्यास के कुछ खास हिस्सों को लेकर तैयार किया. वीर चंद्र सिंह गढवाली के मंचन के दौरान वितरत फोल्डर से नाटय स्क्रिप्ट के लेखक के बारे में तो कोई सूचना नहीं मिलती है, लेकिन मंचन से पूर्व उदघोषक की सूचना से जानकारी मिली थी वातायन के कुछ युवा साथियों द्वारा यह नाट्य आलेख राहुल सांकृत्यायन द्वारा वीर चंद्र सिंह गढवाली की लिखी जीवनी पर आधारित है.    

चारों नाटको के विषय चयन को देखते हुए यह ध्यान बरबस ही जाता है कि कुछ बड़ा करने और बड़ा रचने की सदइच्छाओं के साथ वातायन लगातर अपने आपको तैयार करता जा रहा है. अति महत्वकांक्षा से भरी वातायन की यह परियोजना दून रंगकर्म पर किस तरह से प्रभाव डाल रही है और शेष भारत की साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियों से इनका क्या रिश्ता है ? उसे समझना चाहें तो वह समीकरण ही दिखाई देगा जिसका कमोबेश लक्ष्य यही होता है कि दिखती हुई दूरी के साथ अंदरखाने सत्ता से एक सम्पर्क सधा रहे ताकि कार्यक्रम आयोजित करने के लिए बजट, पुरस्कार, विदेश यात्राएं जैसे मिलने वाले लाभ झोली में बने रहें. गतिविधि विशेष को अलोचना के दायरे में  लाए बगैर भी कहा जा सकता है कहाँ सिर्फ विषय भर से और कहाँ विषय को एक सीमा तक तोड़ मरोड करके शुद्ध सांस्कृतिक कर्म किया जा सकता है और इतना ही नहीं,जनपक्षीय तक बना रहा जा सकता है. नाटक सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की काव्य रचना राम की शक्ति पूजा से लेकर प्रेमचंद का गोदान के सहारे देशभर में नहीं विदेशों तक घूमा जा सकता है. बिना इस और सोचे हुए कि हवाई खर्चे से लेकर महंगे होटलों तक में रुकने की सुविधा के खर्च कहां से आते होंगे, कविकुंभों का हिस्सा हुआ जा सकता है. 

 

किसको पिता तुल्य कह दिया गया और किस तरह आयोवा हुआ जा सकता है, जब यह आज छुपाया नहीं जाया जा पा रहा है तो क्यों नहीं माथे पर त्रिपुंड लगाकर चिढाती हुई  हंसी हो लिया जाये? मंदिर के नाम पर दिए गए चंदे के चेक को लहरा लिया जाए. पुरस्कार वापसी जैसी जबरदस्त कार्रवाई का हिस्सा होते हुए बहुत भी आयोजित हो रहे किसी कार्यक्रम का चुपके से हिस्सा हो लिया जाये? साहित्य अकादमी ही आयोजक हो चाहे. तो फिर क्या हाल ही में मंचित वातायन के नाटक वीर चंद्र सिंह गढवाली भी उस महत्ती परियोजना का सबसे विकसित रूप तो नहीं जिसकी शुरुआत नजीबाबाद का इफ्तार हुसैन वाली मासूम संस्कृतिक चिंता से हुई थी?

चलिए, इसको थोड़ा परख लिया जाए और नाटक के उस अंतिम दृश्य को याद कर लिया जाए जो नाटक की टैग लाइन बना दिया गया- आखिर क्या दिया? क्या दिया? क्या दिया? और इस बात तक को दरकिनार कर दिया जाए कि एक इक्लाबी चरित्र किस तरह रिड्यूस होकर अपनी गरिमा खो दे रहा है. यह दृश्य आजादी के बाद उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पेशावर कांड के सिपाही वीर चंद्र सिंह गढ़वाली को दी गई तुच्छ पेंशन पर सवाल उठाते हुए नाटक का अंत करता है और यहीं पर नाटक का किरदार- राहुल सांकृत्यायन चीख चीख कर चिल्ला रहा है - आखिर क्या दिया? क्या दिया? क्या दिया? इतना नहीं  अपने साथी किरदार के साथ जीवन की घटनाओं को शेयर करता वीर चंद्र सिंह गढवाली का किरदार भी दाहड़ मारकर रोते हुए वही दोहरा रहा है - आखिर क्या दिया? क्या दिया? क्या दिया? नाटक अपने अंत की ओर है और पार्श्व से अन्य कलाकार भी अब मंच पर आकर उतनी ही तीखी आवाज और कोरस के से स्वर में दोहरा रहे हैं - आखिर क्या दिया? क्या दिया? क्या दिया?


यह आरोप नहीं बल्कि उस अनुगूंज को याद दिलाना है, पिछले कुछ सालों से जिसका हल्ला खूब सुनाई दे रहा है कि मानो भारत देश मात्र आठ दस साल पहले आजाद हुआ हो और अब आजाद देश की जो पहली सरकार है, वह पहले के दौर की सरकारों से भिन्न है.

सरकारी चरित्र में वास करती अमानवीयता को छुपाते हुए गैर राजनैतिक दिखने का यही साहित्यिक-सांस्कृतिक तरीका है. और यही समझदारी तथ्यों में हेर फेर कर देने का उत्स होती है. देख लेते हैं कि राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखी जीवनी में पेशावर कांड के सिपाही की स्थिति क्या है, 

“ ... 25  जुलाई 1955  को उत्तर प्रदेश सरकार ने लिखा कि राज्यपाल को इसके लिये बड़ी प्रसन्नता है कि चन्द्र सिंह गढ़वाली को अब १४ रुपया मासिक आजीवन पेन्शन दी जायगी। यह जले पर नमक छिड़कना था। भला आजकल के जमाने में 14 रुपये से क्या बनता है? बड़े भाई ने 16  अगस्त 1955 को सरकार को चिट्टी लिखकर इस पेंशन को स्वीकार करने से इंकार कर दिया। यह खबर समाचार-पत्रों में भी प्रकाशित हुई। बड़े भाई की चिट्टी का कुछ अंश निम्न प्रकार है-

.. मेरी उमर 65 साल की है। आपने 14  रुपये मुझे पेंशन दिये हैं। क्या मैं यह समझँ कि हमारे गणतन्त्र राज्य ने मेरे लिये अन्तिम कार्य के लिये उपरोक्त पेंशन ही उचित और काफी समझी....? मैं आपके भेजे हुये पेंशन के पत्र को वापस करता हूँ.... । क्षमा । “[1]


कोई भी रचना या कलाकृति अपने समकाल से निरपेक्ष नहीं हो सकती। किसी बदले हुए समय में उसके पाठ भी अपने समय भिन्न कैसे हो सकते हैं फिर। राहुल सांकृत्यायन के पात्र के माध्यम से नाटक का यह अंत आखिर कहना क्या चाहता है? यह बिंदु अहम रूप से विचारणीय है। यह एक बड़ी विडंबना है, जब रचनात्मकता सत्ता की भाषा हो जाना चाहती है और एक नायक के जीवन से केवल उन क्षणों को

चुनती है जो उसके द्वारा चुन लिए गए अंत का विकास कर सकते हैं
, या थोड़ा बहुत तोड़ मरोड़ कर, कुछ अतिरिक्त जोड़ घटाकर, वैसा कर सकने में सहायक हो सकते हैं।

 



राजनैतिक पार्टी और सरकार के फर्क को भूला देने वाली राजनीति की चेतना ही पेशावर के नायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली जेल जीवन के दौरान डिप्रेशन में दिखा सकती है। उसे खुद के कपड़े फाड़ कर बिलख बिलख कर रोता हुआ दिखा सकती है। वरना राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखी वीर चंद्र सिंह गढ़वाली की जीवनी पेशावर कांड का घटनाक्रम घटने से पहले ही नहीं, बल्कि बाद में सजा पाए गढ़वाली को भी जेल में अन्य कैदियों के साथ सम्पर्क बनाये रखते हुए ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ संघर्ष करते वीर का परिचय देती है। मूल जीवनी का निम्न हिस्सा यहां देख सकते हैं,

इस एकान्त काल कोठरी में चन्द्र सिंह कभी सोचते— “चन्द्र सिंह, तुम क्या कर बैठे ? मारे जाओगे। पिता, स्त्रि[i]याँ, बच्चे सदा के लिये तुमसे छूट चुके । तुम इस अंधेरी कोठरी में पड़े हुए हो, न जाने कब तक के लिये ?"

फिर उनके मन में यह सोचकर गर्व हो उठता- "चन्द्र सिंह शाबाश, तुमने मानुष जीवन का फल पा लिया। अपनी तुच्छ शक्ति के अनुसार तुमने देश माता के लिये यह सब कुछ किया। देश-भक्ति कसूर नहीं है। यह शर्म करने या घबराने की चीज नहीं है। तुमने अपने जीवन की कीमत वसूल कर ली। अपने परम कर्त्तव्य को पूरा कर लिया। जब तक साँस चलती है, तब तक इस कोठरी में आनंद से रहो। जो तुम चाहते थे, वही तुमको मिला।" वह इस प्रकार के विचारों में अपने आपको भूल गये इसी समय बूटों की आहट से उनका ध्यान टूटा। जंगले से बाहर शौककर देखा कि नम्बर १ और नम्बर ४ प्लाटून के सैनिक जा रहे हैं उन्होंने जोर से आवाज़ दी — “ जवानों, घबड़ाना मत। मैं भी यहीं हूँ” [2]

                                              

सिर्फ अपने बारे में, परिवार, मां, बाप, पत्नी और बच्चों के बारे में सोचते हुए अपने किये पर पश्चाताप करते हुए डिप्रेशन का शिकार होकर विक्षिप्त अवस्था को प्राप्त हो चुके चन्द्र सिंह गढवाली को प्रस्तुत करने के लिए पूरे नाटक का जो ताना बाना बुना गया उसकी शुरुआती झलक एक मांगल गीत से होती है. जिसे गाते हुए कलाकार दर्शकों पर फूल बरसाते हुए एक दम बीचोंचीच से जाते हुए गुजरते हैं, मंच पर सामूहिक अभिनंदन करते हैं और विंग्स के पीछे निकल जाते हैं. यहाँ उस तरह की ओपनिंग और मंगल गीत की प्रासंगिकता का सवाल करना बेमानी है क्योंकि अभी आप नहीं जानते कि नाटक किस तरह से डेवेलप होगा. और वह अपने पहले दृश्य में उस बालक च्न्द्र सिंह से परिचित कराता है जिसकी बहादुरी का यह किस्सा नाटय टीम  के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है कि कैसे बालक चंद्र सिंह एक क्रोधित अंग्रेज अधिकारी के सिर पर एक तांत्रिक के मंत्र से शक्तिकृत भभूत चुपके से छिडक कर उसके क्रोध को कम कर देता है और निर्दोष लेकिन गुनहगार ठहराये जा रहे गांव वाले सिर्फ छोटे से जुर्माने की सजा में ही निपट जाते हैं.

अगले दृश्य पार्श्व में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आक्रोशित जनसमूह की आवाजें हैं, मंच पर हवलदार चन्द्र सिन्ह और उसकी बटालियन के दूसरे सिपाहियों को जनता पर गोली चलाने का हुक्म देते अंग्रेज फौजी अफसर हैं और जवाब में अपने साथियों सीज फायर का हुक्म देता हवलदार चन्द्र सिन्ह है.यही है पेशावर विद्रोह. जो ऐसे लगता है जैसे एकाएक घटा हो. ऐसा नहीं है कि तैयारी की आवश्यक कार्रवाइयों के विवरण राहुल संकृत्यायन द्वारा लिखी जीवनी में न हो. लगभग 415 पृष्ठ और 26 प्र्करणों में लिखी मूल जीवनी के लगभग 350 पृष्ठ ऐसे ही विवरणों से भरे हैं. लेकिन नाटय टीम की दिक्कत है कि यदि वह उन विवरणों के एक छोटे से प्रकरण को भी मंच पर लाए तो दो समस्यायें हैं.

1.      नाटक की समयावधि बढ सकती है क्योंकि बाकी वे हिस्से तो उसके लिए जरूरी ही हैं जिनसे अपनी कर्रवाई पर पछताते हुए असहाय से दिखते चंद्र सिंह के प्रति दर्शकों के भीतर सहानुभूति का भाव उपजाने और अपने लक्ष्य तक पहुंचना है.

2.      वैसे दूसरी दिक्कत ज्यादा बड़ी है,क्योंकि दर्शकों के भीतर पहले से ही मौजूद वीर चंद्र सिंह गढवाली की छवि को तोड‌ना तो मुश्किल ही हो जाएगा तो फिर अपनी पेंशन के लिए लाचार होकर गिडगिडाते चंद्र सिंह गढवाली को कैसे दिखाया जा सकता था.

घटनाक्रम के बाद जेल जीवन के दृश्य हैं और उससे पहले मोर्चे से वापिस भेज दिये गए बगावती सिपाहियों की आपसी बतचीत है. जिसमें चन्द्र सिन्ह के आर्यसमाजी हिंदू होने का खुलासा नाटय टीम को ज्यादा महत्वपूर्ण लगा है. खैर, प्रसंगों के चयन में  नाट्य टीम की स्वतंत्रता को सवाल क्यों किया जाए ? जबकि राहुल सांकृत्यायन की मूल जीवनी और पृष्ट 198 में दर्ज एक ऐसा ही विवरण हमारे पास हो,उसे देख लेते हैं,

            “चन्द्र सिंह के ऊपर आर्यसमाजी होने की बात कह करके एक और इल्जाम खड़ा किया गया था, जिसके लिये कोर्ट मार्शल ने एबटाबाद के डिप्टी कमिश्नर लेफ्टिनेंट कर्नल एम० ई० रेकी से गवाही ली थी, बयान भी लिया था।“[3]

यह विवरण राहुल उस वक्त देते हैं जब चंद्र्सिंह को बगावत का गुनाहगार घोषित करने के लिए सरकारी गवाह सूबेदार जय सिंह और सूबेदार त्रिलोक सिंह के बयानों का जिक्र मूल जीवनी में हो रहा है. सवाल है पेशावर कांड के वीर सिपाही को आर्यसमाजी हिंदू साबित करके वातायन नाट्य दल क्या कहना चाहता है. यहां यह आग्रह  नहीं कि वातायन को नागेंद्र सकलानी हो चाहे चन्द्र सिंह गढवाली, दोनों की कम्यूनिस्ट पहचान दिखानी ही चाहिए थी. जबकि अपनी परियोजना के सबसे मह्त्वपूर्ण नाटक मुखजात्रा में नागेंद्र सकलानी की मूल पहचान-कम्यूनिस्ट को छुपाने का एक इतिहास पहले से है. मूल जीवनी से चन्द्र सिंह गढवाली की जो छवि बंनती है उसकी एक बानगी यहां प्रस्तुत है कि अपने जनसमाज के बारे में वह समझदारी क्या थी,   


“हमारे गढ़वाल में ताँबा -लोहे की खानें हैं। नाना प्रकार की जड़ी-बूटियाँ, औषधियाँ हैं। पत्थर, लकड़ी है, कागज बनाने की सामग्री, मधु, शिलाजीत, इंगुर, फूल और फलों से जंगल सम्पन्न हैं। इससे भी बड़ी और महत्व की चीज बहती हुई गंगा की धारा है, जिससे हम करोड़ों किलोवाट बिजली पैदा करके घर-घर पहुँचा सकेंगे। हमारा गढ़वाल औद्योगिक प्रदेश हो जायगा । हम समय और शक्ति का सदुपयोग करेंगे।”

"हमें स्वस्तन्त्र भारत में जनतान्त्रिक गढ़वाल बनाने का मौका मिलेगा। हम १० लाख गढ़वालियों की आर्थिक समस्या, संस्कृति, भाषा, भारत के ६६० जिलों से भिन्न है। "

आज के टिहरी गढ़वाल और ब्रिटिश गढ़वाल, अपर-गढ़वाल और लोअर - गढ़वाल, ठाकुर और ब्राह्मण, डोम और बिष्ट, खैकर और हिस्सेदार, राजा और प्रजा, नहीं रहेंगे, लेकिन, हमको उस समय के इन्तजार में बैठे नहीं रहना होगा। हमें उस समय को लाने के लिये महान् से महान् प्रयत्न करने होंगे। जनता के बीच जाकर, उनके दुःखों का अध्ययन करके, उन्हीं के सामने रखकर उनको दूर करने का प्रयास करना होगा। जन-संगठन के द्वारा शक्ति प्राप्त करना, जनता में राजनीतिक जागृति लाना। भूख, महामारी, हर प्रकार के आशंकाओं के समय उनकी सहायता करके उनमें विश्वास प्राप्त करना होगा। आज संसार में ऐतिहासिक परिवर्तन होने जा रहा है। हमको भी इस ऐतिहासिक निर्माण में सक्रिय भाग लेना पड़ेगा। हमारी आजादी भी संसार की आजादी में निहित है, इसलिये हमें आपसी छोटे-छोटे झगड़ों को छोड़ देना चाहिये। वैसे तो डोला- पालकी का सवाल भी गौण सवाल नहीं है। इसमें भी नागरिक अधिकार और सामाजिक स्वतन्त्रता की माँग मौजूद है। मगर इस झगड़े से आम डोम जाति का उपकार हो सकेगा। शब्दों में चाहे आर्य कहो या हरिजन, अछूत कहो या आदिवासी, या डोम; उनके लिये अलग मंदिर बना दो, अलग कुआँ खोद दो या थोड़ी देर के लिये उनके हाथ का बनाया लड्डू भी खा लो, इन सबसे उनका असली उपकार नहीं हो पायेगा।“[4]

मंचन के लिहाज से बात की जाये तो बहुत ही बचकाना सा मामला था. जबकि अपने इस नाटक के साथ ही वातायन अपनी रंग यात्रा के 45 वर्षों का जिक्र करती है. इतना ही नहीं आजादी के अमृत महोत्सव के समय की अपनी इस नाटक को दिल्ली के गिन्नी बब्बर से निर्देशित करवाती है. जिनके परिचय में दर्ज करती है कि उन्होने  वर्ष 2012 में श्रीराम सेंटर फॉर आर्ट एंड कल्चर,नई दिल्ली से दो वर्षा का अभिनय में डिप्लोमा प्राप्त किया है. राजेंद्र नाथ, त्रिपुरारी शर्मा, बापी बोस,हेम सिंह, लेंडी ब्रायन, राज बिसारिया, रुद्र्दीप चक्रवर्ती,स्वरूपा घोष, चितरंजन गिरी,के एस राजेंद्रन,मुश्ताक काक व कई अन्य जाने-माने राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त व्यक्तियों/निर्देशकों के सानिध्य में काम किया है.       



[1] वीर चन्द्र सिंह गढवाली, राहुल सांकृत्यायन, किताब महल प्रकाशन, वर्ष 2006, ध्रुवपुर (1950) ,  पृष्ठ 415

 

[2] वीर चन्द्र सिंह गढवाली, राहुल सांकृत्यायन, किताब महल प्रकाशन, वर्ष 2006, गिरफ्तारी (1930 में),  पृष्ठ 179

 

[3][3] वीर चन्द्र सिंह गढवाली, राहुल सांकृत्यायन, किताब महल प्रकाशन, वर्ष 2006, फौजी फैसला (1930 में),  पृष्ठ 198

 

[4][4] वीर चन्द्र सिंह गढवाली, राहुल सांकृत्यायन, किताब महल प्रकाशन, वर्ष 2006, गांधी जी के पास,  पृष्ठ 305



उपयोग की जा रही सभी तस्‍वीरों के लिए जयदेव भट्टाचार्य का आभार। तस्‍वीरें उनके कैमरे का कमाल हैं।  

Wednesday, April 5, 2023

देहरादून में गोदान का सफल मंचन

 

यह स्‍वीकृत सत्‍य है कि नाटक अभिनेता/ अभिनेत्री का माध्‍यम है और इसी बात को एक बार फिर से साबित किया वातायन द्वारा मंचित नाटक गोदान ने। गोदान का मंचन  3 एवं 4 मार्च 2023 को टाउन हाल देहरादून में संपन्‍न हुआ। मंजुल मयंक मिश्रा क निर्देशन में खेला गया यह नाटक वातायन के युवा और वर्षो से रंगमंच कर रहे रंगकर्मियों का ऐसा सुंदर संतुलन था जिसमें निर्देशकीय समझ निश्चित ही सफलता का एक पैमाना बन रही थी।   

प्रस्‍तुति के लिहाज से संदर्भित नाटक ने न सिर्फ वातयान को ऐतिहासिक सफलता से गौरवान्वित होने का अवसर दिया, अपितु देहरादून रंगमंच के लिए भी यह प्रस्‍तुति एक यादगार प्रस्‍तुति के रूप में याद रखे जाने वाले इतिहास को गढने में सफल कही जा सकती है। 

 

संदर्भित नाटक का आलेख, हिंदी में यथार्थवादी साहित्‍य के प्रणेता कथाकार प्रेमचंद के प्रसिद्ध उपन्‍यास ‘’गोदान’’ के आधार पर तैयार किया गया था और उपन्‍यास की उस मूल कथा को आधार बनाकर रचा गया है, आजादी पूर्व भारतीय किसान के जीवन की त्रासदी के प्रतीक के रूप में जिसके मुख्‍य चरित्र होरी के  जीवन का खाका प्रमुख तरह से प्रकट होता है। यानि ग्रामीण समाज के जंजाल को ही नाटक में प्रमुखता से उकेरा गया है। यद्यपि नाटक के उत्‍तरार्द्ध में गांव से भाग कर, शहरी जीवन के अनुभव से विकासित हुए गोबर के चरित्र की एक हल्की झलक भी मिल जाती है। लेकिन शहरी जीवन के छल छद्म और आजादी पूर्व के ग्रामीण समाज के जीवन को प्रभावित कर रही शहरी हवा और इन अर्न्‍तसंबंधों को परिभाषित करने वाले गोदान उपन्‍यास के अंशों से एक सचेत दूरी बरतते हुए निर्देशक ने जिस नाट्य आलेख के साथ गोदान को प्रस्‍तुत करने की परिकल्‍पना की, उसने नाटक की सफलता की जिम्‍मेदारी होरी और धनिया के कंधों पर पहले ही डाल दी। यानि नाट्य आलेख के इस रूप ने भी निर्देशक को पार्श्‍व में धकेलते हुए पात्रों को ही असरकारी भूमिका में प्रस्‍तुत होने का एक अतिरिक्‍त अवसर दिया। मंचन के दौरान यह स्‍पष्‍टतौर पर दिखा भी। धनिया के पात्र को जीते हुए सोनिया नौटिायन गैरोला और होरी की भूमिका में धीरज सिंह रावत ने निर्देशकीय मंतव्‍य को प्रस्‍तुत करने में अहम भूमिका अदा की। बल्कि यह कहना ज्‍यादा उचित होगा कि होरी के परिवार के अन्‍य पात्रों:  सोना के रूप में अनामिका राज, रूपा की भूमिका में सिद्धि भण्‍डारी और गोबर की भूमिका में शुभम बहुगुणा दर्शकों की निगाहों में ज्‍यादा प्रभावी तरह से प्रस्‍तुत होते रहे। लेकिन यह भी सत्‍य है कि अवसर की अनुकूलता के कारण से ही नहीं, अपितु अपने जीवन के सम्‍पूर्ण अनुभव को प्रतिभा के द्रव में घोलकर जिस तरह से सोनिया नौटियाल गैरोला ने धनिया के किरदार का जीवंत रूप में प्रस्‍तुत किया, उसे उनका दर्शक‍ एक लम्‍बे समय तक भुला नहीं पाएगा। रंगकर्म के अपने छोटे से जीवन में ही एक परिपक्‍व अभिनेत्री के रूप में सोनिया नौटियाल गैरोला को देखना और वैसे ही छोटे अंतराल के रंगकर्म के सफर में होरी के किरदार धीरज सिंह रावत का अभिनय इस बात की आश्‍वस्ति दे रहा है कि दून रंगमंच अपने ऐतिहासिक मुकाम की नयी यात्रा पर आगे जरूर बढेगा। रंग संस्‍था वातायन के लिए भी यह आश्‍वस्‍तकारी है कि नये-उत्‍साही और गंभीरता से नाटक करने वाले रंगकर्मियों का इजाफा उनके यहां हुआ है।

उम्‍मीद की जा सकती है कि गोदान के मंचन की यह सफलता वातायन को नयी ऊर्जा से जरूर भरेगी। बेहतर टीम वर्क ही उल्‍लेखित नाटक के मंचन  की सफलता को तय करता हुआ दिख रहा था। संगीत और प्रकाश का खूबसूरत संयोजन भी नाटक को प्रभावी बनाने में अहम भूमिका अदा कर रहा था।




उपयोग की जा रही सभी तस्‍वीरों के लिए जयदेव भट्टाचार्य का आभार। तस्‍वीरें उनके कैमरे का कमाल हैं।  

Friday, August 19, 2022

स्मृतियों का शहर

पिछ्ले दिनों मेरा भोपाल जाना हुआ. वहां जाकर मुझे मालूम हुआ कि भोपाल भी देहरादून की तरह की ऐसी जगह है, रोजी रोजगार की वजह से भोपाल पहुुंचा शख्स एक उम्र गुजार लेने के बाद फिर कहीं दुसरी जगह जाना ही नहीं चाहता, यहां तक कि अपने गृह प्र्देश  लौटने की बजाय वहीं बस जाने के लिए एक छोटी सी झोपडी जुटा लेना चाहता है. यदि किन्हींं कारणों से गृह प्रदेेश लौटना भी हो गया तो जेहन से न तो देहरादून निकलता है और न भोपाल. 
भोपाल में ही मालूम हुआ कि भोपाल के बाशिंदा एवंं हिंदी गजल के पर्याय दुष्यंत के पूर्वज तो  पश्चिमी उत्तरप्रदेश निवासी रहे. मेरे मित्र, प्रशिक्षण क्षेत्र के राष्ट्रीय व्यक्तित्व एवं तुरंता हास्य को जन्म देने वाले कलाकार ओ पी द्विवेदी ने, जिनका युवा दौर दुष्यंत जी के सानिंध्य में बीता, वायदा किया है कि वे दुष्यंत के जीवन के अभी तक उधाटित न हो पाये कुछ चित्रों की स्मृतियोंं से हमेँ परिचित कराएंगे. उम्मीद है देहरादून शहर की स्मृतियों पर आधारित श्री प्रकाश मिश्र का संस्मरण भाई ओ पी द्विवेदी को उनके वायदे के स्मरण मेँ ले जा सकने में सक्ष्म होगा. श्री प्रकाश मिश्र, एक समय की महत्वपूर्ण लघु पत्रिका उन्नयन के संपादक रहे हैं. वर्तमान में इलाहाबाद में रहते हैं. ज़पनी स्मृति के शहर- देहरादून और वहाँ के लोगों के संग साथ हाँसिल अनुभवों को वे यहां सांझा कर रहे हैं. विगौ       

स्मृतियों में बसा नगर : देहरादून :


श्री प्रकाश मिश्र


इसी अगस्त की यही सोलहवीं तारीख थी,जब मैं १९७९ में देहरादून पहुंचा आइजाल से शिलांग , शिलांग से लखनऊ, लखनऊ से मेरठ ‌होकर। ट्रैन शाम को पहुंची, खूब बारिश हो रही थी, इसलिए मैंने स्टेशन पर पड़े रहने को ठानी , प्रथम श्रेणी के प्रतिक्षालय में स्थान लिया। पहले रिटायरिंग रूम का कमरा लेना चाहा, पर देनेवाला सक्षम अधिकारी नहीं मिला। शाम आठ बजे के बाद उपस्थित परिचारक परेशान हो गया। अब कोई ट्रेन आने -जाने वाली नहीं थी। यह‌ समय उसके घर जाने का था। वह मेरे पास आया और बोला,"कब जाएंगे साहब?" मैंने कहा," कल दस बजे।" वह परेशान हो गया। कहा , " रात में यहां रुकने की इजाजत नहीं है साहब।" "किसने ‌कहा " मैंने पूछा, तो उसने बेहिचक जवाब दिया, " स्टेशन मास्टर ने।" "उन्हें बुलाओ", मैंने कहा, "उनका कहना गलत है।" मैं बिस्तर लगाने में लग गया। मेरी छरहरी काया और विशाल मूंछों के नाते वह मुझे फौजी समझ रहा था। कहा,"फौज की गाड़ी आई तो थी सात बजे। आप गये नहीं।"" मैं क्यों जाता फौज की गाड़ी से?" मैंने कहा। वह और परेशान ‌हो गया और उसी परेशानी में कहा, " शैलानी हैं? शैलानियों को यहां रुकने की कोई इजाजत नहीं। पास में होटल हैं, वहां जाइए।" मैंने कड़ाई से कहा," मैं आज रात यहीं रहूंगा।" वह कुछ देर तक घूरता रहा, फिर चला गया। आधे घंटे बाद आया और बोला, "स्टेशन मास्टर साहब बुला रहे हैं।" मैं उस वक्त खाना खा रहा था। मेरठ में मित्र बने ‌ स्टेनो टी.पी.सिंह ने शुद्ध घी की पूड़ी तरकारी बांध दी थी, जो वाकई बड़ी स्वादिष्ट थी। गुस्सा तो लगा, पर उस पर नियंत्रण कर उंगली से इशारा कर कह, "खा करि आता हूं।"
मैं खाना ‌खा कर स्टेशन‌मास्टर के कमरे में गया। वे रजिस्टर में आंख गड़ाए होने का नाटक करते मुझे आपाद-मस्तक कुछ देर तक देखते रहे। मैं भी उन्हें अपनी आर-पार चीर कर देखनेवाली आंखों से (जैसा कि मेरी प्रेमिकाएं कहती रही हैं) देखता रहा। फिर उन्होंने कहा, "आप हायर क्लास वेटिंग रूम में रुके हैं?" मैंने कहा," जी हां।" उन्होंने कहा,"सुरक्षित नहीं ‌है, साहब। चोर-उचक्के रातभर घूमते हैं। वेटिंग रूम को भीतर से बंद करने की इजाजत नहीं ‌है।" "मैं उनकी तलाश में रहता हूं।"मैंने कहा। "वे समूह में आते हैं , छुरा -चाकू रखते हैं।" "मैं भी हथियार बंद हूं।"
आप हथियार लेकर रुके हैं?" "जी।" उनके चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं। कहा,"आप क्या करते हैं?" "सी.बी.आइ.में अफसरी।" साहब - साहब कहकर वह घिघियाने लगा, "पहले बताए होते।" "आपने मौका‌ही बाद में दिया।"
वह उठ खड़ा हुआ। "मैं आप के दफ्तर फोन कर गाड़ी मंगा देता हूं या सवारी कर देता हूं।" " नहीं मैं चुपचाप बिना बताए ही वहां जाना चाहता हूं कल दफ्तर के समय। आज यहीं रहने दीजिए। हां यदि रिटायरिंग रूम बुक कर दें तो कृपा होगी।" "हां -हां "करते हुए उन्होंने एक कमरा बुक कर कहा कि आधा घंटा लगेगा कमरा ठीक करने में। चद्दर कंबल यहां रहता नहीं, लोग दुरुपयोग करते हैं।" "ठीक है",‌मैंने कहा।

सुबह आठ बजे तैयार हुआ। सामान क्लाक रूम में जमा किया । जैसा कि मेरी आदत है नये नगर को पैदल चलकर देखना, उसके लिए निकल पड़ा।रात भर पानी बरसा था। सोचा कि सड़कें पानी और कीचड़ से भरी होंगी। पर वे धुलकर साफ चमक रही थीं। स्टेशन से बाहर निकल कर अपने दफ्तर का रास्ता पूछा और और चल पड़ा। अगले ही मोड़ पर जैन धर्मशाला और अग्रवाल धर्मशाला था, खूब भव्य। सामने मिठाई -पूडी की दुकान थी। दही -जलेबी का नाश्ता किया। स्वाद ऐसा था कि मजा आ गया। चलते चलते पलटन बाजार के चौक पर पहुंचा। शिलांग में पुलिस बाजार, गोरखपुर में उर्दू बाजार --सभी फौज से जुड़े। चौक पर घंटाघर है। ऊपर दो - तीन लोग चढ़े थे। उनके देखा - देखी मैं भी चढ़ गया। अजनवी को देखकर वे चौंक गये। पूछा,"कौन" ? मैंने कहा,"शहर में नया आदमी हूं। यहां से पूरे शहर को नजर घुमा कर एकसाथ देखना चाहता हूं।"वे सफाई वाले थे।एक खिड़की खोल दी। वहां से पूरे शहर को देखा। चारो तरफ छोटी छोटी पहाड़ियां थी, बीच में विस्तृत मैंदान में बसा शहर। तभी उत्तर तरफ से चल कर एक बादल का विशाल काला टुकड़ा नगर पर टंग गया। लगा कि कटोरी जैसी घाटी में दही की साढ़ी जैसे बादल जम गये ‌हों। वहां से उतर कर हाथीबड़कला चला। वहीं कालिदास रोड पर मेरा दफ्तर था,१३-ए बंगले में। तब कालिदास रोड देहरादून का सबसे पोश इलाका माना जाता था। टिहरी के राजा और तमाम सेवानिवृत्त बड़े फौजी अधिकारियों के बंगले वहां थे। जिस बंगले में मेरा दफ्तर था, उसे देख कर चकित रह गया। लगभग एक एकड़ में लीची का बाग था, कुछ आम के पेड़। गेट पर ही चन्दन और कपूर के क ई गाछ। बीच में दक्षिणी किनारे पर एकपलिया लाल बंगला, लंबोतरा। आधे से दफ्तर, आधे में मेरा आवास। देखकर तबीयत खुश हो गई।
मैं गेट खोलकर भीतर घुसा।दफ्तर में घुसते वक्त जिसने मुझे टोका उसका नाम दाता राम काला था। जैसा नाम, वैसा ही रूप। लम्बा, दुबला पतला, चुचका चेहरा, बेहद काला। बाद में पता चला कि वे पितांबर दत्त बड़थ्वाल के गांव के हैं। बड़थ्वाल हिंदी के प्रथम डी लिट् थे। नाथ संप्रदाय पर काम किया था। इसलिए बड़ा नाम था। उनके भतीजे के दो बेटे लखनऊ में मेरे विभाग में तैनात थे। पता चला कि उस गांव के अधिकांश लोग बड़े कुरूप होते हैं। पितांबर जी की संतानें भी बड़ी कुरूप हुईं, बिल्कुल बंदर जैसी और प्रतिभा से शून्य। वे कुछ कर नहीं पाईं। मैं तो उनसे कभी मिला नहीं।
ग्यारह बजे से ज्यादा हो रहा था, पर अठ्ठारह लोगों में सिर्फ तीन लोग हाजिर थे। तो मुझे ठीक बताया गया था कि लोग भरसक दफ्तर आते नहीं, और जो आते हैं, वे दो बजे के बाद दारू पीते हैं और घर चले जाते हैं। इसलिए वहां कुछ काम - घाम नहीं होता। पर बाद में पता चला कि लोग फिल्ड में काम पूरा करके लंच के बाद आते हैं। देहरादून बहुत फैला शहर है। फौज के अड्डे और तिब्बतियों के इलाके बहुत दूर-दूर हैं। इसलिए यह नियम बनाना कि लोग पहले दफ्तर आएं, फिर फिल्ड में जाएं, बहुत उपयोगी नहीं हो सकता था। ड्राइवर आया तो एक व्यक्ति को साथ लेकर स्टेशन गया और अपना सामान ले आया। इस बीच हमारे रहने के हिस्से को ‌साफ-सुथरा कर दिया गया था। रहने के साथ-साथ खाने-पीने की भी समुचित व्यवस्था तुरंत हो गयी।

उसी बंगले के आउटहाउस में बंगले के मालिक के सबसे छोटे बेटे ठाकुर रहते थे। उनका पूरा नाम याद नहीं आ रहा है। वे हम -उम्र थे , इसलिए तुरंत खूब पटने लगी। पता चला कि यह बंगला उनके पिता ने एक अंग्रेज से खरीदा था, जब अंग्रेज भारत छोड़ कर जाने लगे। पिता नेपाली मूल के भारतीय फौज में अफसर थे। बाद में रक्षा मंत्रालय में चले गए थे और डिप्टी सेक्रेटरी होकर सेवा निवृत्त ‌हुए थे और सपरिवार यहां रहने लगे थे। ठाकुर क ई भाई थे, जिनकी आपस में नहीं पटती थी। वे ठाकुर को देखना नहीं चाहते थे, क्यों कि वे एक दूसरी जाति की लड़की से शादी कर लिए थे। मकान किराए पर देने का कारण भी यही था कि वे घर छोड़ कर चले जांय। पर ऐसा हो नहीं पाया। वे आउटहाउस में बने रहे। वे‌ पहले नेपाल पौलिस में थे। कब वह काम छोड़ कर होटल प्रेसिडेंट में नौकरी करते थे। उनसे देहरादून के बारे में काफी कुछ पता चला। यह भी कि देहरादून की कुल जनसंख्या में एक तिहाई नेपाली हैं। उन्होंने कालिदास रोड के तमाम घरों में लेजाकर मेरा परिचय करवाया। ऐसे बहुत कम लोग होते हैं जो अपने पूरे मित्र समाज को नये मित्र को‌सौंप देते हैं।
उसी सड़क पर घूमते हुए मैंने एक दिन एक भव्य ब़गले के सामने नेमप्लेट पढ़ा , "एस.एम. घोष"।मैं चौंका, इसलिए नहीं कि उस सड़क पर किसी बंगाली का होना अजीब था, बल्कि इसलिए कि वह नाम कुछ कुछ जाना था। बांग्लादेश की लड़ाई समाप्त हो जाने के बाद मैं कुछ दिन धुबुड़ी में रुका। बंगाली की पुस्तक रमनी विक्षा में मैं धुबुड़ी की उत्पत्ति की कथा पढ़ चुका था कि नगर का यह नाम एक धोबिन के कारणि पड़ा था, जो यहां ब्रह्मपुत्र के तट पर कपड़ा धोती थी।उस जगह को देखने की मेरी बहुत इच्छा थी। पर कोई दिखा नहीं पाता था। एक दिन मेरे एक मातहत नन्दी (
पूरा नाम भूल रहा हूं ) ने घोषबाड़ी में ले जाने की बात कही। घोष लोग वहां के पुराने जमीनदार रहे हैं, जैसे गौरीपुर और लखीपुर के जमींदार। गौरीपुर घराने से प्रमथेश बरुआ हुए, जिन्होंने पहली देवदास फिल्म बनाई, जिसमें सहगल के गाये गानों को रेडियो सिलोन पर सुनकर हमारी पीढ़ी बड़ी हुई। लखीपुर के जमींदार मन से अंग्रेजों की मातहती स्वीकार नहीं कर पाए। वे दोनों घराने असमिया हैं। घुबुड़ी का घोष घराना बंगाली है। एस.एन.घोष उसी घराने के थे। वे संभवतः पहले आइ.पी.एस. बैच के थे,असम कैडर के। जब नागालैंड को अलग राज्य बनाने का निर्णय गृहमंत्रालय ने लिया तो उन्होंने उसका भरपूर विरोध किया। वे उस वक्त केंद्र के इंटेलिजेंस ब्यूरो में शिलांग में उपनिदेशक के रूप में नियुक्त थे। उनका कहना था कि इससे नगालैंड की समस्या नहीं सुलझेगी, ऊपर से असम के अनेक टुकड़े होने का का रास्ता खुल जाएगा। तत्कालीन आई बी के निदेशक भोला नाथ मलिक ने उनकी दूरदृष्टि की भूरी -भूरी प्रशंसा की है। घोष साहब इस निर्णय से इतना आहत हुए कि आई बी की नौकरी छोड़ दी। फिर असम ही छोड़ दिया। असम सरकार उन्हें आई जी बनाकर रखना चाहती थी। पर वे नहीं माने। देहरादून आकर बस गए। मर गये, पर असम नहीं गये। बोर्ड देखकर लगा कि यह उसी घोष साहब का घर है। इच्छा हुई कि तुरंत उनसे मिलूं। पर हिम्मत नहीं पड़ी। सोचा कि पहले दफ्तरवालों से पता करूंगा, फिर समय लेकर मिलूंगा। दफ्तरवालों को उनके बारे में कुछ पता नहीं था। क ई दिन उनके घर के सामने से गुजरा। फिर एक दिन ठान लिया कि मिलूंगा ही। शाम को उनके घर की कालबेल दबा दी। नौकर के हाथ में अपना परिचय पत्र थमा दिया। कहा कि साहब को देकर कहो कि मैं मिलना चाहता हूं। वे तुरंत बाहर आए। मुझे बैठक में ले गये । आने का उद्देश्य पूछा। वे अंग्रेजी में बोल रहे थे, हिंदी भाषी समझकर। मैं औपचारिकता के बाद बंगाली में बोलने लगा। इससे वे बहुत आकर्षित हुए। मैं चलने को हुआ तो वे बार-बार आने के लिए बोले। यह भी कहा कि क ई वर्षों से सुनता हूं कि आप लोगों का दफ्तर यहां है। पर कभी कोई नहीं आया। आप पहले आदमी हैं। फिर मैं अक्सर वहां जाने लगा।

महीने भर के भीतर मैंने उन तमाम लोगों से संबंध बना लिया जो मेरी नौकरी में काम आने वाले थे, फिर रुटीन काम में लग गया। मुझसे उम्मीद की गई थी कि मैं सेना से विशेष संबंध बना कर रखूंगा, जिसका मुझे विशेष अनुभव ‌था और देहरादून में इसकी बेहद कमी थी। इसी सिलसिले में मेजर प्रभाकर से‌मुलाकात हुई। वे मराठी मूल के इलाहाबादी थे। विद्यार्थी जीवन में बहुत अच्छ फुटबाल खेलते थे और क ई वर्षों तक यू.पी. एलेवेन में रहे। मुझे फुटवाल का खेल देखना बहुत अच्छा लगता था, क्योंकि स्वयं अच्छा खेल नहीं पाता था। प्रभाकर लेफ्ट आउट पोजीशन से खेलते थे और बहुत ही अच्छा ग्रासकट किक मारते थे। मैं उनका प्रशंसक था और थोड़ी जान-पहचान हो गयी थी। कोई ग्यारह वर्षों बाद मिलने पर लगा कि जैसे वह जान-पहचान दोस्ती हो। एकदिन दोपहर बाद वे अपने कलीग कप्तान के.पी.सिंह के साथ मिलने आये। हम उनको लेकर लान में बैठ गये और एक मातहत को चाय वगैरह की औपचारिकता के लिए सहेज दिया और कमरे से बिस्कुट वगैरह लाने के लिए भेजा। काफी देर हो गयी, पर वह आया नहीं। उधर प्रभाकर चलने की बात करने लगे। एक दूसरे आदमी को भेजकर सामान मंगा खातिरदारी की औपचारिकता पूरी की। उनके चले जाने के कुछ देर बाद वह आदमी मेरे सोने के कमरे से बाहर आया और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। मुझे उसपर क्रोध तो बहुत आया पर, उस पर नियंत्रण कर कहा,"जाओ"। वह वैसे ही हाथ जोडे खड़ा रहा। मैंने फिर कहा कि जाओ। उसने कहा कि मैं एक बात कहना चाहता हूं साहब। मैंने कहा, "मैं समझ गया हूं, जाओ।" "नहीं साहब आप मुझे क्षमा कर दें।"
"कर दिया "
वह थोड़ा खिसिया कर हंस कर कहा,"मैं क्षमा उसके लिए नहीं मांग रहा हूं कि चाय की व्यवस्था नहीं कर पाया। उसके लिए तो जो सजा दें, भुगतने के लिए तैयार हूं। मैं क्षमा दूसरी बात के लिए मांग रहा हूं।"
मैं चौंका और प्रश्नवाची निगाहों ‌से देखा। उसने कहा, " मैंनै आपकी डायरी पढ़ी है।"
मुझे ख्याल आया कि सुबह डायरी मेज पर खुली छोड़ दी थी। वही पढ़ा होगा। कहा, "कोई बात नहीं। उसमें तो बस इधर-उधर की बातें लिखीं हैं, कुछ प्रकृति के चित्र वगैरह..."
"नहीं साहब, यदि उनमें थोड़ा सुधार कर दिया जाय, थोड़ी सिमेट्री बदल दी जाय तो वे अद्भुत कविताएं बन जाएंगी।"
मैं उसके 'सिमेट्री'शब्द के प्रयोग पर चौंका, पर कहा कि तुम कविता के बारे में क्या जानते हो?
तभी दाता राम काला अपने स्थान से बैठे ही बोले,"यह बहुत अच्छा गाता है साहब!"
मैं क्षण भर के लिए सोचता रहा, फिर कहा, "ठीक है दफ्तर के ‌बाद इनका गाना सुनते हैं।"
जब वह जाने लगा तो मैंने उसे गौर से देखा : कंधे ‌से नीचे तक लटकते बाल, दुबली -पतली लचकती काया। ससुर नचनिया ही ‌होंगे--मन-ही-मन कहा।
दफ्तर बंद कर सभी ल़ोग लान में बैठे। शाम होने में देरी थी। पश्चिम तरफ आसमान साफ था, इसलिए वृक्षों की परछाइयों से लान ‌भरा था। पूरब तरफ से बादल का एक पारदर्शी टुकड़ा आ कर स्थिर हो गया था। उत्तर की तरफ से हवा बह रही थी, न ठंडी, न गर्म। दक्षिण तरफ के आम के पेड़ पर धामिन (घोड़ा पछाड़) सांप चिड़िया के पुराने घोंसले में जीभ डाल रहा था। उसने गाना शुरू किया," जिंदगी है एक शिकन रुमाल की/देखते ही देखते उड़ जाएगी यह चिरैया डाल की'। गाना समाप्त किया तो मैंने कहा,"यह तो कुंवर बेचैन की कविता है।"
उसने कहा,"वे मेरे मित्र हैं।"
मैं चौंका, सहसा विश्वास ही नहीं हुआ। कहां वे पोस्ट-ग्रेजुएट कालेज में प्राध्यापक और कहां यह जुनियर अफसर! पूछा,"कैसे?"
उसने बताया कि हम एकसाथ मंचों पर जाते हैं।
"तुम खुद गीत लिखते हो?"
"जी हां।"
"सुनाओ"
उसने सुनाया : दर्द मेरा मनमीत बन गया
सुधियों के आंगन में पल कर
गंगाजल सा पुनीत हो गया.....
उसकी आवाज में जो खनक थी, वह अद्वितीय थी, जो वेदना थी उससे सबकी आंखें नम हो गई। मुझे विश्वास हो गया कि यह कोई सामान्य आदमी नहीं है। मुझे अपने अबतक के व्यवहार पर बड़ा पछतावा हुआ। मैं क्षमा तो नहीं मांग सका, पर आगे बहुत विनीत हो गया। उसका नाम राजगोपाल सिंह था।



एक दिन सुबह राजगोपाल सिंह आये और मेरी डायरी ले गये। दो-तीन घंटे तक पढ़ते रहे और निशान लगाते रहे। मुझे लौटाते हुए कहा कि जहां -जहां निशान लगाया है उनको यदि एक सिमेट्री में लिखा जाय तो अच्छी कविताएं बन जाने की संभावना है। मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि उसने निशान उन्हीं अंशो पर लगाया है, जिन्हें लेकर मैंने कुछ कविताएं अंग्रेजी में लिखी थीं शिलाङ में १९७४-७५ में जो इलुस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया में छपी थीं। पर तब मैंने कवि बनने के लिए नहीं सोचा था।(शिलाङ प्रसंग की चर्चा कभी मैं अलग से करूंगा। वैसे वह रघुवीर शर्मा को दिये साक्षात्कार में आया है और डा. सुरेश चंद्र संपादित 'रचनाधर्मिता की परख' में संकलित है।) इससे मुझे लगा कि उसे कविता के बारे में --कथ्य और शिल्प, दोनों स्तरों पर-- गहरी जानकारी है, मुझमें कवि बनने की प्रतिभा देख रहा है और उसे बाहर लाना चाह रहा है।
मैंने उसका विस्तृत परिचय पूछा। पता चला कि वह रूड़की के पास मंगलौर के एक गांव का रहनेवाला है। जाति का नाई है। पिता हमारे ही विभाग में अधिकारी हैं दिल्ली में तैनात। गाजियाबाद के एक कालेज से हिंदी साहित्य में एम.ए. प्रिवियस तक पढ़ा है। पढ़ाई पूरी नहीं कर पाया क्योंकि पिता की कमाई से घर नहीं चल पाता था। उन्होंने बड़े अधिकारियों से कह कर इस पद पर रखवा दिया। ट्रेनिंग के बाद पोस्टिंग काला पानी, धारचूला, माना आदि में होती रही। पिछले दो साल से देहरादून में है। तीन बच्चे हैं। उन्हें किसी तरह से जिला रहा हूं। कविता लिखना पढ़ते समय से ही शुरू कर दिया था। उसी समय से आज के गीतकारों से परिचय होने लगा था। पर महत्व सिर्फ कुंवर बेचैन को देता हूं। कविता ‌सिर्फ उनके गीतों में ‌है। दूसरे गला और चुटकुला के बल पर कमाते - खाते हैं। उसने यह भी बताया कि देहरादून में कुछ बड़े अच्छे साहित्यकार हैं। उन सबसे उसका परिचय है मैं चाहूं तो वह सबसे परिचय करा सकता है। उनसे मिलने - जुलने से रचना में निखार आएगा, उनके वजन का पता चलेगा, आज की प्रवृत्तियों का ज्ञान होगा, आगे बढ़ने का मौका मिलेगा। मैं साहित्य की इस दुनिया को देखने के लिए अपने को मन ही मन तैयार किया।

राजगोपाल ने प्रतिदिन किसी न किसी साहित्यकार के यहां चलने की योजना बनाई। राय दी कि उनसे भरसक उनके घर जाकर मिला जाय और घर सरकारी वाहन से न जाया जाय। घर पर मिलने से आत्मीयता बढ़ेगी। सरकारी वाहन से जाने पर एक तो अगल-बगल के लोगों का अनावश्यक ध्यान खिंचेगा, दूसरे जिसके घर जाएंगे वह महत्वपूर्ण आदमी आया जानकर स्वागत और औपचारिकता ‌ में लगा रहेगा, इससे आत्मीयता नहीं ‌‌स्थापित हो पाएगी , जो हमारा उद्देश्य है। मुझे उसकी बात में दम लगा। लगा कि वह सामाजिक व्यवहार के बारे में कितना अनुभव रखता है। वैसे भी उन दिनों सिर्फ तीस लीटर पेट्रोल मिलता था महीने भर में जो दफ्तर के काम के लिए भी पूरा नहीं पड़ता था। उन दिनों मेरे पास क्रुसेडर मोटरसाइकिल थी, फिरोजी रंग की चमकती हुई, जिसे मैं शिलाङ से लाया था। अभी चलाने में उतना पारंगत नहीं हुआ था। कुछ दिन अभ्यास करने में लगाया। राय दिया कि वह अपने बाल कटा डाले, रोज दाढ़ी बनाये। जमाना छायावाद का नहीं था कि सुमित्रानंदन पंत या रवींद्रनाथ टैगोर की तरह लंबे बाल रखे जांय और और उर्दू के कवियों की तरह गम में डूबा दिखा जाय। उसने मेरी बात पर अमल किया।
हम जिया नहटौरी से मिलने पहले गये कि सुखबीर विश्वकर्मा से, ख्याल नहीं आ रहा है। दोनों पल्टन बाजार के घंटाघर के दक्षिण काम करते थे। घंटाघर से जो सड़क सीधे दक्षिण जाती है, उसी पर कोई दो सौ मीटर चलकर जिया का स्टूडियो था, एक पुराने मकान की दूसरी मंजिल पर। फोटोग्राफी उनकी जीविका का साधन थी। हम पहुंचे तो लगा कि जैसे वे प्रतीक्षा कर रहे हैं। शायद राजगोपाल उन्हें सुबह दफ्तर आते वक्त बता आए थे। नाटा कद, दाढ़ी -मूंछ सफाचट, सफेद कुर्ता -पायजामा, पान से रंगे दांत और होठ। बड़ी गर्मजोशी से मिले। परिचय के बाद खुल कर बातें करने लगे, समकालीन उर्दू कविता के बारे में। अब मैं अमीर अली का उर्दू साहित्य का इतिहास अंग्रेजी में पढ़ चुका था, जिसमें अंतिम कवि के रूप में मोहम्मद इकबाल का जिक्र था। उसके आगे मेरे लिए सबकुछ नया था, इसलिए काफी जिज्ञासा थी। अंत में उन्होंने ग़ज़ल कहने का सुझाव दिया और उसका व्याकरण सिखा देने का वादा किया। पहली ही मुलाकात में हम इतने खुले कि आगे मुझे जब भी मौका मिलता था, नि: संकोच टाइम -बेटाइम उनके पास चला जाता था।
सुखबीर विश्वकर्मा से मुलाकात उनके वैंग्वार्ड प्रेस में हुई। घंटाघर से सीधे जो सडक पश्चिम जाती है, उसी पर कुछ दूर चलकर एक छोटा -सा खुला मैंदान था, जिसके दक्षिण तरफ वह प्रेस था, जहां वे काम करते थे।वैंग्वार्ड एक चार पेजी साप्ताहिक था, जिसके तीन पन्ने अंग्रेजी के होते थे, एक पन्ना हिंदी का, जिसमें कुछ साहित्य भी छपता था। बाद में वह दैनिक हो गया। सुखबीर विश्वकर्मा उस पन्ने के संपादक थे। पता चला कि वे स्वयं ठीक -ठाक कविताएं नहीं लिखते , पर कविता के बारे में उनका ज्ञान अच्छा-खासा है। नाटा कद, कुछ ज्यादे ही नीला रंग, ऊपर से ललछ ऊं, आगे के कुछ दांत गायब, बाकी पीक से रंगे, काफी हद तक गंजा सिर, चौकोर चेहरा लगभग सपाट, ठुड्डी नुकीली, नाक उठी हुई, काइयां आंखें, पूरे चेहरे पर सामने वाले के प्रति उपेक्षा का भाव। हम जब पहुंचे तो वे काम में व्यस्त थे, अखबार छप रहा था, वे फाइनल टच दे रहे थे। खाली हुए तो परिचय हुआ, कुछ बातें हुईं, चाय पीया गया। जब हम चलने लगे तो उन्होंने कहा,"जो भाषा आप बोलते हैं, उसमें कविता नहीं लिखिएगा। जो भाषा हम लोग बोलते हैं, उसमें लिखिएगा। मेरी जिज्ञासा स्वाभाविक थी, "क्यों?" "यह भाषा छायावादी है।" मैंने पहली बार जाना कि भाषा भी बीरगाथाकालीन, भक्तिकालीन, रीतिकालीन, भारतेंदु कालीन, छायावादी आदि होती है और मुझे समकालीन सामान्य लोगों की भाषा में लिखना है। उन दिनों मैं संस्कृतनिष्ठ भाषा बोलता था, जिसे लोग चेस्ट हिंदी कहते थे।

छुट्टी का दिन था। राजगोपाल सिंह सुबह- सुबह आ गये। आते ही बोले, " भाई साहब एक ग़ज़ल हुई है"। इधर वे थोड़ा बेतकल्लुफ़ हो गये थे और अकेले में कभी-कभी भाई साहब कह देते थे, विशेषकर जब वे खुशी से उत्तेजित होते थे। पहले अपपटा लगता था, अब नहीं। मैं नाश्ता करके उठा ही था। आगे का काम स्थगित कर ग़ज़ल सुनी जा सकती थी। कहा,"सुनाएं।" जो ग़ज़ल उन्होंने सुनाई, वह यूं थी :
कुछ नया करके दिखाना चाहता है आदमी
मारकर खुद को जिलाना चाहता है आदमी
अपनी दीवारों को ऊंचा और करने के लिए
दूसरों के घर गिराना चाहता है आदमी
सौंप कर सत्ता समूची हाथ में अंधियार के
रोशनी के पर जलाना चाहता है आदमी
भाषणों की रोटियों को फेंक कर माहौल में
आग पानी में लगाना चाहता है आदमी
खींच कर जम्हूरियत से कुव्वते गुफ्तार को
अम्न की दुनिया बसाना चाहता है आदमी
शहर का इक खूबसूरत चित्र क्यों इसको दिखा
गांव को फिर बर्गलाना चाहता है आदमी
(बाद में उन्होंने जिआ नहटौरी के सुझाव पर पहले शै'र की दूसरी पंक्ति बदल दी --हाथ पर सरसों उगाना चाहता है आदमी। फिर इसे पहली पंक्ति बनाकर, पहले की पहली पंक्ति को दूसरा बना दिया। और बाद में साकिब बरेलवी के सुझाने पर पांचवा शे'र हटा दिया। ग़ज़ल शायद पांच शे'रों की ही स्तरीय मानी जाती है। इसी रूप में यह ग़ज़ल उनके संग्रह "ज़र्द पत्तों का सफर" में छपी है।)
मैंने उन्हें गाकर सुनाने के लिए कहा। उसे सुनकर कैंपस के सभी ल़ोग उपस्थित हो गये। उम्मीद थी कि उनकी फरमाइश पर यह सिलसिला लंबा चलेगा, पर बात यहीं थम गई जब उन्होंने तुरंत प्रस्तावित किया कि सुभाष पंत से मिलने चलते हैं। वे यहीं पास में रहते हैं। मुझे तुरंत जाना ठीक न लगा। छुट्टी का दिन है, देर से उठे होंगे, नहाना -धोना चल रहा होगा, कुछ घरेलू काम होगा। मैं टालना चाहता था, पर राजगोपाल सिंह ने कहा कि ऐसे सोचते रहेंगे तो कभी किसी से मिलना नहीं हो पाएगा। बात तो ठीक थी। मैं चलने के लिए तैयार हो गया।
डोभालवाला गांव कालिदास रोड के दक्षिणी छोर पर स्थित है, मेरे आवास से मुश्किल से हजार कदमों की दूरी पर। पहले वह गांव रहा होगा, अब पोश शहर का हिस्सा है। पंत जी का घर पाश ही था। उनकी दो-तीन कहानियां मैं सारिका में पढ़ चुका था और "गाय का दूध" की विशेष स्मृति थी। उसी के लेखक की छवि लिए मैं उनके घर पहुंचा। वे अपने कैंपस की झाड़ियां साफ कर रहे थे। राजगोपाल सिंह से परिचित थे। राजगोपाल ने छूटते ही कहा,"मैं मिश्र जी को ले आया हूं।" अभिवादन के बाद वे अपनी बैठक में ले गये। दुबली पतली काया, नाटा शरीर, फोकचिआए गाल, टिपिकल पहाड़ी रंग, खूब छोटे -छोटे बाल, दृढ आवाज, सधे कदम, हाथ की मुठ्ठी बंधी हुई, स्वयं आत्मविश्वास से भरे हुए।

सुभाष पंत उन दिनों एक कहानी लिख रहे थे 'समुद्र' या 'महासमुद्र' शीर्षक से। उसमें वे नेता और निचले तबके के लोगों की बढ़ती जा रही खाई का जिक्र किया था, जिसमें जनता का विशाल समुद्र भरता जा रहा था, जिसके परिणामस्वरूप न तो लोग अपनी जरूरत नेता को बता पा रहे थे और न ही नेता द्वारा प्रदत्त लाभ उनतक पहुंच पा रहा था। उसके कच्चे रूप को उन्होंने सुनाया। बताया कि वे कहानी को पहले मन ही मन पूरा लिख डालते हैं, फिर कागज पर उतारते हैं।यह मेरे लिए एक व्यावहारिक इशारा था। उन्होंने मुझसे कुछ कविताएं सुनाने के लिए कहा।कहा कि रचनाकार की पहचान रचना ही होती है। तबतक मेरे पास कोई कविता थी नहीं। याद नहीं है कह कर तोप-ढाक किया।
जिनसे अच्छा निभना होता है उसकी बुनियाद अक्सर पहली मुलाकात में ही पड़ जाती है। पंत जी के साथ भी ऐसा ही हुआ। वे इंडियन फारेस्ट इंस्टीट्यूट में वैज्ञानिक थे। बाटनी में एम. एससी. हैं । लिखने लगे तो हिंदी में भी एम.ए. कर लिया, जिससे कि दृष्टि साफ हो जाय। वह साफ दृष्टि उनकी रचनाओं में उजागर है। उपन्यास "पहाड़ चोर" उसका उत्तम उदाहरण है। खैर, दफ्तर से आने के बाद फ्रेश होकर वे अक्सर मेरी तरफ आ जाते थे, या मैं उनकी तरफ जला जाता था। हम टहलते हुए साहित्य पर बातें करते थे, जो मेरे लिए बहुत लाभदायक सिद्ध हुईं। ऐसी ही बातचीत के दौरान उन्होंने मुझे धूमिल और मुक्तिबोध की कविताओं को पढ़ने की राय दिया। दोनों का नाम मैंने सुन रखा था, पर पढ़ा कुछ नहीं था। कांग्रेस पार्टी के दफ्तर के पास ही किताबों की एक अच्छी दुकान थी, शायद अब भी ‌हो । करेंट या माडर्न बुक डिपो नाम था। धूमिल का संकलन "संसद से सड़क तक" वहां मिल गया। पर मुक्तिबोध की पुस्तक नहीं मिली। शुरू में ही तीन पंक्तियां उद्धृत थीं: "कविता भाषा में आदमी होने की तमीज है", "कविता भीड़ में बौखलाए हुए आदमी का एकालाप है", और एक पंक्ति थी जो फीलवक्त याद नहीं आ रही है। इन पंक्तियों को पढ़ कर मैं झन्न से रह जाता था। आकर्षित करती थीं, झटका देती थीं, पर उनका अर्थ गोचर नहीं होता था, एक-एक शब्द का अलग -अलग अर्थ जानने के बावजूद। मैंने फिर भी पुस्तक पढ़ी। राजगोपाल सिंह ने एक दिन उस पुस्तक को मेरी मेज पर देखा तो पूछा,"कुछ समझ में आता है?" मैंने नहीं कहा तो उन्होंने भी बताया कि वे क ई बार पढ़ चुके हैं, पर कुछ पल्ले नहीं पड़ा है। बल्कि सविता जी से भी पूछा है, पर वे भी कुछ ठीक से समझा नहीं पाये। कहे कि यह किसी बड़े ही प्रतिभा सम्पन्न आदमी की उल्टी है। सविता जी राजगोपाल के फूफा थे, जो रुड़की या मुजफ्फरनगर के किसी कालेज में अंग्रेजी साहित्य पढाते थे। स्वयं भी अंग्रेजी में कविताएं लिखते थे। बाद में जब वे संकलित होकर प्रकाशित हुईं त़ो उस पुस्तक की भूमिका मैंने लिखी थी। बाद में इन कविताओं का अर्थ तब गोचर हुआ जब मैं इलाहाबाद आया।



Monday, June 20, 2016

जिस मंगलवार का अापने वायदा किया था, वह बीत गया



आप मुझसे किसी मद्द की कोई रिक्‍वेस्‍ट करें और मैं हामी भरकर आपको आश्वंस्त कर दूं। कई बार आपके जानकारी मांगने वाले फोन कॉल्स को इग्‍नोर करूं और फिर किसी एक दिन फोन कानों में संभाल लेने के बाद कहूं कि मैं तो अपका काम पहले ही कर चुका हूं, लेकिन असलियत आप जान रहे हों कि काम नहीं हुआ। आप दुबारा कॉल करें। मैं फिर कई बार के नो रिप्लािई के बाद आपकी सूचना पर आश्चर्य व्यक्त करूं कि अरे क्या नहीं हुआ वो काम आपका, और फिर से आश्‍वस्‍त करूं कि अच्छा‍ मैं देख कर बताता हूं, लेकिन कभी अपने से न बताऊं। बल्कि किसी भी तरह का जवाब देने से बचते हुए या तो फोन ही न उठाऊं, या कहूं कि अभी बिजी हूं, बाद में बात करता हूं और वह बाद कभी न आये तो भी आपको यह छूट नहीं मिल जाती कि आप मेरे व्‍यवहार की तुलना बिल्डहर, भूमाफिया, दलालों से करें।

ऊपर जो कुछ व्यक्त हुआ है वह आज के मध्य वर्गीय जमात की आम तस्वीक जैसा है। लेकिन देहरादून के किंवदंत हो चुके तीन पात्रों के बारे में जब बात की जाए तो पाएंगे कि उनमें से किसी ने भी मध्यवर्गीय जीवन का वरण नहीं किया। लेकिन अराजक तरह से अविश्वसनीय बने रहने की प्रवृत्ति के शिकार रहे। अवधेश, हरजीत एवं अरविन्दे शर्मा। दिलचस्प‍ है कि कविताएं लिखना और स्केेच बनाना तीनों के शौक रहे। संभवत: प्रेरणास्रोत अवधेश ही रहे हों। अवधेश चित्रकार थे। हरजीत लकड़ी पर दस्तकारी में माहिर और अरविन्दव शर्मा फोटोग्राफर।

अवधेश एवं हरजीत असमय ही इस बेरहम दुनिया को छोड़कर चले गये। अरविन्‍द अब देहरादून में नहीं है और अब भी अपने तरह से कला साहित्य की दुनिया का हिस्सा है। अरविन्द तीनों में ही सबसे कम महत्वाकांक्षी व्‍यक्ति रहा। शायद इसीलिए ज्‍यादा अराजक भी। इस कदर अराजक कि न तो अपनी कविताओं को ठीक से संभाला और न ही उन तस्वीरों को जिनमें कुछ लोग ही नहीं बल्कि देहरादून इतिहास बोलता था। आज के दौर में वे तस्‍वीरें साक्ष्य हो सकती थी। लेकिन लापरवाह अरविन्‍द के पास उनका होना आश्‍चर्य की बात ही होगी।

तमाम अराजकता के बावजूद अवधेश में अपने काम के प्रति एक खास किस्‍म का लगाव था। कथाकार सुरेश उनियाल की मद्द से अवधेश को दिल्ली में एक ठौर मिली हुई थी। सुरेश उनियाल 'सारिका' में थे। अवधेश सारिका के लिए स्‍केच बना रहा था और पुस्तकों के कवर डिजाइन भी करता था। अरविन्द का कहना रहा कि अवधेश अरविन्द को एक कवि के रूप में महत्व देने को तैयार नहीं था। अवधेश को याद करते हुए अरविन्द् अवधेश की अराजकता का बयान करता है-

एक बार अवधेश ने बड़े तपाक से कहा, अरविन्द इस बार तुम्हारे लिए एक अनुबंध लाया हूं। तुम ओर मैं सोमवार को दिल्ली जा रहे हैं। पैसों की चिन्ता मत कर। मैं इंतजाम कर चुका हूं। तुम्हें केवल कैमरा लेकर मेरे साथ चलना है। अगले दिन मेरे उठने से पहले ही गुरू अपना छोटा सा थैला कंधें पर लटकाएं मेरे घर पहुंच गये- जैसे कि देवलोक से कोई देवता किसी भक्त का कल्याकण करने के लिए प्रकट हुआ हो।
जमनापार लक्मीनगर में अवधेश ने एक किराये के कमरे में डेरा बनाया हुआ था। पहली बार मुझे अवधेश के महान गुण से मेरा साक्षात्कार हुआ। मैंने जाना कि वह एक अच्छा मेहमान नवाज भी है। तरल-गरल सब सरलता से उपलब्ध कराया गया। दूसरे दिन सुबह हम एक कार्यालय के लिए रवाना हुए। बड़े सम्मान के साथ मुझे और अवधेश को वहां जलपान कराया गया। हम काफी देर तक यूंही बैठे रहे। अवधेश की बेचैनी बढ़ने लगी। कार्यालय बाबू ने काम की कोई बात ही नहीं छेड़ी।
अन्तत: अवधेश को ही कहना पड़ा, आज मंगलवार है और मैं वायदे के साथ देहरादून से अपने छायाकार मित्र को ले आया हूं।
दूसरी तरफ से उत्तर आया- हां, आज मंगलवार है लेकिन जिस मंगलवार का अापने वायदा किया था, वह बीत गया पिछले हफ्ते। अब तो धर्मवीर जैन को उस काम के लिए रख लिया गया है।

अवधेश को इस अंदाज में याद करने वाला अरविन्द आजकल कोलाज कला को साधने की कोशिश में है। कोलाज बनाने में अवधेश तीनों में ही सबसे कुशल था। पुरानी पत्रिकाओं के रंगीन ग्लेजी कागजों को काट काटकर उन्हें रचनात्मक रूप देता था। अरविन्द में इधर ठहराव आया है। उसके कोलाज किसी भी पेंटिंग से कम असरकारी नहीं। बहुधा पेंटिग ओर फोटोग्राफी का भ्रम देते हैं। प्रस्तुत हैं अरविन्द के कुछ नये कोलाज।