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Saturday, September 23, 2017

कितना लंबा इंतज़ार

कथादेश के सितम्बर अंक में छपे हमारे मित्र और इस ब्लाग के सहलेखक  यादविन्द्र जी की डायरी के कुछ अंश पुनः प्रकाशित हैं पढ़ें और अपनी बेबाक राय दें। 
वि गौ




आज सुबह सुबह सैर के वक्त एक दिलचस्प लेकिन ठहर कर सोचने के लिये प्रेरित करने वाली घटना हुई -- एक मामूली कपड़े पहने आदमी ने(बाद में बातचीत से मालूम हुआ प्राइवेट सिक्युरिटी गार्ड का काम करता है) अनायास मुझे रोका और सड़क पर पड़े हुए दस रुपये के नोट को दिखा कर पूछा :"सर, ये नोट कहीं आपकी जेब से तो नहीं गिर गया ?"ताज्जुब भी हुआ कि दूर से वः मुझे आता हुआ देख रहा था और वहाँ पहुँचने पर पूछ रहा है कि नीचे सड़क पर पड़ा नोट मेरा तो नहीं है..... गिरने की गुंजाइश तो तब होती जब मैं वहाँ से होते हुए आगे बढ़ गया होता। मैंने इन्कार किया तो उसने उसी  कंसर्न के  साथ पीछे आते व्यक्ति को रोक कर यही सवाल पूछा ।फिर एक और ....और ....और। मुझे इस खेल में मज़ा आने लगा था सो वहीं ठहर गया।इनकार करने वाले लोगों की गिनती जब बढ़ती गयी तब मैं उस से इस मसले की बाबत पूछने लगा ...  उसने बताया कि अभी थोड़ी देर पहले वह रात की सिक्युरिटी गार्ड की ड्यूटी पूरी करके वापस घर लौट रहा था तो अचानक उसकी निगाह सड़क पर पड़े इस दस रु के नोट पर पड़ गयी  ....और तब से वह उस आदमी को ढूँढ़ने की कोशिश कर रहा है जिसकी जेब से अनजाने में यह नोट फिसल कर सड़क पर आ गिरा ..... ठिकाने पर पहुँच कर ,या आगे कहीं रुक कर उसको  नोट की ज़रूरत पड़ी होगी तो बेचारा परेशान हो रहा होगा - कहीं किसी मुसीबत में न हो। मालूम हो जाये किसका है यह नोट तो मैं उसके घर जाकर पहुँचा दूँ। 
उसकी बात में कहीं कोई दिखावा या नाटक नहीं था ,यह उसके चेहरे पर छाये हाव भाव से साफ़ झलक रहा था।मैं भी खड़ा होकर लौट आने वाले  का इंतज़ार करने लगा ,मुझे देखकर रोज रोज की पहचान वाले दो तीन और लोग ठहर गए।    
 "मैंने सोचा इतने सारे लोग इस सड़क से गुज़र रहे हैं और ऐसा हो नहीं सकता कि किसी की नज़र उस नोट पर न पड़ी हो .... मैं पहला इंसान तो नहीं हूँ जो सड़क पर पड़े इस नोट को देख रहा है। हो सकता है जिसका नोट  गिरा हो वह उसको ढूँढ़ता हुआ पलट कर इसी रास्ते आ रहा हो। मैंने पहले सोचा था वहाँ से गुज़रते हुए दस आदमियों से नोट के बारे में पूछ कर देखूँगा ,इतने समय में ज़रूर नोट का मालिक मिल जायेगा..... दस की गिनती पूरी होने पर सोचा और दस लोगों से पूछ लूँ --  मेरा क्या है ,घर ही तो जाना है मैं घंटे भर बाद भी घर पहुँच  जाऊँगा तो कुछ नुक्सान नहीं होना ,पर एक दो मिनट से कोई गरीब अपना खोया हुआ पैसा फिर से हासिल करने से चूक जाये तो बहुत बुरा होगा।सर ,आप सत्रहवें आदमी हो जिनसे मैंने पूछ कर अपनी आत्मा की भरपूर तसल्ली कर ली .....फिर भी मेरा मन मानता नहीं।  "
मैं थोड़ी दूर से खड़ा खड़ा देखता रहा कि बीस की गिनती पार कर के वह व्यक्ति हताश होकर अपनी साइकिल के साथ साथ दूर तक पैदल चलने लगा पर हर दो कदम पर पीछे मुड़ मुड़ कर उम्मीद भरी नज़रों से ताकता रहा --- शायद उसको लापरवाही में दस का नोट जेब से गिरा चुके अभागे के लौट कर आ जाने का इन्तज़ार अब भी था।
"ठरकी है साला ....खुद उसकी जेब से गिर गया होगा नोट और अब सिम्पैथी के लिये नाटक कर  
रहा है ..... लगता है दस का नोट नहीं कोहिनूर हीरे की अँगूठी गिर गयी हो। "कहते हुए एक साहब वहाँ से इस अंदाज में आगे बढ़े कि किसी ने उनका हाथ पकड़ कर तमाशा देखने को रोक लिया हो और तमाशा हुआ ही नहीं - टाँय टॉय फिस्स !
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अपने प्रोफेशनल काम से मुझे सड़क यात्रा बहुत करनी होती है ,ख़ास तौर पर पहाड़ पर…… मैदानी क्षेत्रों में भी। आम तौर पर नौजवान ड्राइवर तेज गति से  गाड़ियाँ चलाते हैं और जबतक आप उनको रुकने के लिये मनायें तबतक दो सौ चार सौ मीटर आगे बढ़ चुके होते हैं - फिर पीछे मुड़कर लौटना बहुत भारी पड़ता है … और कई बार तो जबतक आप पीछे लौटें तबतक परिदृश्य पूरा बदल चुका होता है। 
अभी कल सुबह सुबह की बात है ,हम लखनऊ से अयोध्या जा रहे थे -फूलगोभी के लम्बे चौड़े खेत लगभग वर्गाकार बिलकुल एक आकार के दिखाई दे रहे थे और भोर की ओस के ऊपर सुनहरी धूप  पड़ने पर मोहक रंग बिखेरते पौधे बार बार बरबस अपनी ओर ध्यान खींच  रहे थे .....  मैं उनकी कुछ तस्वीरें लेने की सोच रहा था। ज्यादातर खेत सड़क से थोड़ी दूर अंदर थे और मैं धीरज रख कर किसी बिलकुल सड़क किनारे खेत का इंतज़ार कर रहा था ..... पर इंतज़ार करते करते जब धीरज खो बैठा तब देखा ,गोभी के खेतों का स्थान केले के बागानों ने ले लिया है। पूछने पर ड्राइवर पारस ने बताया अब आपको गोभी के खेत नहीं मिलेंगे ,वह इलाका बीत चुका है। 

एक जगह खेत से भाप का चमकता हुआ बगूला जैसे उठ रहा था उसने मुझे मनाली से लेह जाने वाले लगभग रेगिस्तानी रास्ते के गंधक तालाबों की याद आई जिनसे उठती हुई ऐसी ही भाप दूर से दिखाई देती है - सुबह सुबह की सुनहरी धूप उसको और चमका देती है । दरअसल जुते हुए खेत में सिंचाई के लिए डाले जाते पानी से उठती भाप दूर से दिखाई दे रही थी पर जब खाली सड़क पर सौ किलोमीटर की रफ़्तार से भागते हुए हम आगे निकल गए तो मन को मना लिया कि आगे फिर देख लेंगे - आगे हम इंतज़ार करते ही रहे ,पर साध कहाँ पूरी हुई। 

जीवन ऐसी ही स्मृतियों की अनवरत श्रृंखला है - लपक कर जिसको पकड़ लिया वह तो जैसे तैसे हाथ आ जाता है .... और जो छूट गया सो छूट गया।     

मेरी कवि मित्र ने उन्हीं दिनों किसी शायर की एक शानदार नज़्म मुझे भेजी थी जो कल वाली घटना पर बिलकुल सटीक बैठती है :

ज़रूरी बात कहनी हो 
कोई वादा निभाना हो 
उसे आवाज़ देनी हो
उसे वापस बुलाना हो 
हमेशा देर कर देता हूँ मैं …… 
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मेरी अम्मा अस्सी के आसपास पहुँच रही हैं पर शरीर की सीमाओं को स्वीकार करते हुए मन से  अब भी एकदम युवा हैं - चाहे कहीं घूमने का मौका हो या फ़िल्म देखने का। बहते हुए पानी को देख कर  पिछली बार यहाँ आने तक वे भी वैसे ही मचला करती थीं जैसे उनके बेटे की बेटी का बेटा पलाश। पिछले हफ़्ते जब हमने हरिद्वार घूमने का नाम लिया तो तैयार तो वे फ़ौरन हो गयीं पर वहाँ पहुँचने के बाद नहाने को कहने पर ना नुकुर करने लगीं - यह अम्मा के स्वभाव से बिलकुल उलट था।पहले हरिद्वार ऋषिकेश जाने पर कोई और गंगा में उतरे या न उतरे अम्मा और उनका यह बेटा ज़रूर उतरता था। जब बहुत ज़िद कर के मेरी बहन उनको सीढ़ियाँ उतार कर नीचे पानी तक ले आयी तो उन्होंने हिचकिचाने का कारण बताया -- अप्रैल मई के महीनों में पटना में महसूस होने वाले भूकम्प के झटकों और सब कुछ तहस नहस कर डालने वाले दुनिया के सबसे बड़े भूकम्प आने की अफ़वाहों के बीच कई बार घुटनों की तकलीफ़ के बावज़ूद उन्हें बदहवासी में जैसे घर की सीढ़ियों से कूदते फाँदते हुए रात बिरात उतरना पड़ा उस से उनको किसी भी हिलती चीज़ से हिलती हुई धरती का एहसास होने लगता है। पानी की तेज़ धार के साथ उस दिन अम्मा की बड़ी संक्षिप्त मुलाकात हुई …मैं सोचता रहा वास्तविक भूकम्प के केन्द्र से सैकड़ों मील दूर (भूकम्प का केन्द्र नेपाल की सुदूर पहाड़ियों में बताया जा रहा था ) रह रही बेहद दृढ़ निश्चयी और साहसी अम्मा के मन में जब इतनी दहशत बैठ गयी तो महाविनाश के केन्द्र में रहने वाले अभिशप्तों के मन की दशा कितनी डाँवाडोल होगी।
मन की अंदरूनी परतों में दुबक कर बैठे डर मौका मिलते ही कैसे सिर उठाते फुफकारते हैं ....    =============
मामूली चीजें भी आपको कभी कभी एकदम हतप्रभ कर देती हैं … बात पुरानी है , बीसियों साल पहले रेल से पटना से रुड़की आते हुए लक्सर स्टेशन पड़ने पर अम्मा ने बाल सुलभ सरलता से मुझे बताया था कि बचपन में अपने नाना के साथ वे महीने भर के लिए पहली बार रेल पर चढ़ कर गृह शहर आरा (बिहार) से हरिद्वार आयी थीं --- रास्ते में पहले तो बक्सर( आरा से महज पचास किलोमीटर) पड़ा और नौ सौ किलोमीटर और चलने के बाद लक्सर स्टेशन दिखाई दिया। स्कूल में मास्टरजी ने उन्हीं दिनों दुनिया गोल है वाला पाठ पढ़ाया था और कहा था कि इसका प्रमाण यह है कि किसी स्थान से यदि यात्रा शुरू की जाए तो चलते चलते मुसाफ़िर उसी स्थान पर दुबारा पहुँच जाएगा --- बच्ची अम्मा नींद से उठी उठी थीं और लक्सर बक्सर के एक ही होने की उलझन में आसानी से उलझ गयी थीं.... जहाँ से चली थीं इतनी लम्बी यात्रा के बाद फिर वहीँ पहुँच गयीं ( ब के बदले गलती से ल भी तो लिखा जा सकता है )…… उनको पक्का प्रमाण मिल गया ,सचमुच दुनिया गोल है।  
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कल रात निकोलस इवांस के अत्यंत लोकप्रिय उपन्यास "द हॉर्स व्हिस्परर" पर आधारित इसी नाम की फ़िल्म फ़िर से देखी -- शायद पाँचवी बार।उसका राउल मेलो की भावपूर्ण आवाज़ में गाया "ड्रीम रिवर" गीत हर बार की तरह मन में इस बार भी कहीं ठहर गया …… एक चलताऊ अनुवाद ,जिसने साँस लेने की गुंजाइश बनायीं और मन हल्का किया : 


सपनों की नदी में डूबते उतराते
ऊपर छाये हुए चाँद सितारे 
आस लगाये हूँ उनसे मदद की 
कि दिलवा दें प्रेम तुम्हारा 
पूरा पूरा अ टूट ....

कालिमा की अंतिम कोठरी में सोया हूँ 
तुम्हें बाँहों में समेटे होने के ख़्वाब देखता ....
काश, यह सपना सच हो जाता 
और ऊपर से नीचे तक तर जाता मेरा मन। 

नहीं चाहता पल पल बीती जाये ये रात  
और मैं रह जाऊँ तुम बिन ,बिलकुल नहीं चाहता  

सपनों की नदी में डूबते उतराते
सोचता हूँ तुम साथ हो बिलकुल बगल में …  
जानता हूँ फ़कत चाहत के सिवा यह कुछ नहीं  
फ़िर भी इतना करो 
कि नींद में रहने दो, जगाओ मत मुझे।  

नहीं चाहता पल पल बीती जाये ये रात  
और मैं रह जाऊँ तुम बिन ,बिलकुल नहीं चाहता .......   
सपनों की नदी में डूबते उतराते
सोचता हूँ तुम साथ हो बिलकुल बगल में …  
जानता हूँ फ़कत चाहत के सिवा यह कुछ नहीं  
फ़िर भी इतना करो 
कि नींद में रहने दो, जगाओ मत मुझे।    
जानता हूँ फ़कत चाहत के सिवा यह कुछ नहीं  
फ़िर भी इतना करो 
कि नींद में रहने दो, जगाओ मत मुझे।  
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कोई पंद्रह दिन पहले की बात होगी - एक मित्र के साथ सुबह सात बजे चाय पीने का वायदा था ,वे रिटायर होकर शहर छोड़ रहे थे। मैं अपने हिसाब से उठा और घूमने के लिए दरवाजे से बाहर निकल ही रहा था कि बहन का फ़ोन आ गया। फ़ोन पर बात करते करते मैं घर के आहाते से बाहर निकल आया और घूमता टहलता मित्र के घर पहुँच गया। बातचीत के दौरान मेरे दूधवाले का फोन आया तब मुझे मालूम हुआ कि मुझसे दरवाज़ा बगैर ताले के खुला ही छूट गया है। जल्दी जल्दी मैं रास्ते भर अपने बुढ़ापे और याददाश्त के क्षरण के बारे में सोचता सोचता घर लौटा - अपने भुलक्कड़पन को सोचते सोचते कुछ साल पहले आरएसएस के पूर्व प्रमुख सुदर्शन जी के बारे में पढ़ी एक खबर याद आ गयी जब वे ऐसे ही सुबह की सैर को निकले और अपना पता ठिकाना भूल पीने का पानी ढूँढ़ते हुए किसी अजनबी घर जा बैठे। वे बड़े आदमी थे,बात पुलिस तक पहुँची और उन्हें सुरक्षित  घर पहुंचा दिया गया। मुझे बार बार यह लगता रहा कि मेरे साथ ऐसा हो जाए तो क्या होगा - अपने शहर में तो लोग पहचान लेंगे पर किसी दूसरे शहर में ???????
बरसो पहले पढ़ी और सहेज कर रखी बिली कॉलिन्स की चर्चित कविता "विस्मरण" कुछ ऐसे ही पलों का बड़ा मार्मिक विवरण देती है :

"सबसे पहले लेखक का नाम गुम होता है
और लगता है जैसे डूबते डूबते उसने समझाया  हो 
किताब के नाम को .... विषय को ... और दारुण अंत को भी 
कि चलते चले आओ पदचिह्न ढूँढ़ते मेरे पीछे पीछे 
और पल भर भी नहीं लगता पूरे उपन्यास को विस्मृत होते 
जैसे पढ़ना तो बहुत दूर, सुना भी न हो उसका नाम कभी इस जीवन में 
 
जो जो भी आप याद करने का यत्न करते हैं 
दिमाग पर भरपूर जोर डाल के 
सब का सब बच कर दूर छिटक जाता है आपकी ज़बान से
या कि आपकी तिल्ली (spleen) के किसी अंधेरे कोने में 
रुक रुक कर जुगनू सरीखा टिमटिमाता रहता है......

कोई अचरज नहीं कि आधी रात अचानक आपकी नींद उचट जाये 
और आप किताबों में ढूँढने लगें किसी ख़ास लड़ाई की तारीख़ 
कोई अचरज नहीं कि आपको अनमना देख  
खिड़की से बाहर दिख रहा चन्द्रमा 
आँख बचा कर भाग जाये उस प्रेम कविता से भी बाहर
जो आजीवन आपके मन में बोलती बतियाती रही...."

मुझे इस हिंसक समय में प्रेम कविताओं के विस्मृत हो जाने का बड़ा डर सताने लगा है उस दिन से .....
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 कल शाम दिल्ली से लौटते हुए एफ़ एम रेडियो पर एक ग़ज़ल इतनी दिलकश जनाना आवाज़ में कानों में पड़ी कि लगा थोड़ी देर के लिए जीवन उलट पलट हो गया - सड़क के शोर शराबे के कारण शब्द शब्द सुनना और समझना उस तसल्ली से नहीं हो पाया जिस से मैं चाह्ता था। पहले तो मुझे लगा कि ड्राइवर राधेश्याम ने अपने पेनड्राइव कलेक्शन से यह ग़ज़ल सुनायी ,सो उसको दुबारा बजाने को कहा। पर जब मालूम हुआ कि रेडियो पर आ रही थी तो इंटरनेट पर ढूँढ़ने लगा और गूगल सर्च के पहले पन्ने पर 1994 की फ़िल्म "विजयपथ" का इन्दीवर का लिखा और अलका याग्निक का गाया गीत हाथ लगा। मेरी स्मृति ने इन्दीवर वाला गीत स्वीकार करने से मना कर दिया और वह आवाज़ भी अलका जी की नहीं थी। आज सुबह जब मुझे अंदलीब शादानी की यह मूल ग़ज़ल हाथ लगी तब इन्दीवर जी की खिचड़ी सामने आ गयी। पर अब भी यह पता नहीं लग पाया कि कल मैंने किसकी दिलकश आवाज सुनी थी : आस ने दिल का हाल न छोड़ा  वैसे हम घबराये तो .... घबराने का ऐसा भी अनूठा अंदाज़ हो सकता है ,मुझे इल्म भी न था। बहरहाल यह ग़ज़ल :


देर लगी आने में तुमको  शुक्र है फिर भी आये तो
आस ने दिल का साथ न छोड़ा  वैसे हम घबराये तो…

शफ़क़ धनुक महताब घटायें  तारे नग़मे बिजली फूल 
इस दामन में क्या क्या कुछ है  दामन हाथ में आये तो ....

चाहत के बदले में हम बेच दें अपनी मर्ज़ी तक 
कोई मिले तो दिल का गाहक  कोई हमें अपनाये तो … 

क्यूँ ये मेहर अंगेज़ तबस्सुम मद्द ए नज़र जब कुछ भी नहीं 
हाय!! कोई अनजान अगर  इस धोखे में आ जाये तो…

सुनी सुनाई बात नहीं ये  अपने ऊपर बीती है 
फूल निकलते हैं शोलों से  चाहत आग लगाये तो …

झूठ है सब तारीख़ हमेशा  अपने को दोहराती है 
अच्छा मेरा ख़्वाब ए जवानी  थोड़ा सा दोहराये तो…

नादानी और मज़बूरी में यारों कुछ तो फ़र्क करो 
एक बे आस इंसान करे क्या  टूट के दिल आये तो .... 

                                                       ---- अंदलीब शादानी 
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लम्बे अरसे बाद हमारे पच्चीस तीस साल पुराने मित्र ( जब हम मिले थे तो ये मस्तमौला कुँवारे थे ,उनकी शादी में शामिल होने वालों में मैं भी था और अब उनकी बड़ी बिटिया  पंतनगर विश्वविद्यालय से इंजीनियरिंग की डिग्री पूरी करने को है) नवीन कुमार नैथानी कल शाम घर आये ..... ढेर सारी गप्पें हमने मारीं और उनके सात आठ महीनों से स्वास्थ्य को लेकर परेशान रहने की विस्तार से चर्चा सुनी ....  फिर हरिद्वार जाकर कवि कथाकार सीमा शफ़क के घर खूब स्वादिष्ट भोजन किया। वैसे तो नवीन बेतक़ल्लुफ़ी में विश्वास करने वाले इंसान हैं पर घर से दूर रहने पर जब बगैर रोकटोक तबियत से खाना खाने के बाद उन्होंने "तृप्त हो गया" कहा तो सत्कार करने वाली सीमा के चेहरे पर भी तृप्ति और संतुष्टि का भाव झलक पड़ा। आज सुबह की सैर करते नवीन ने शुरूआती दिनों को याद करते हुए मज़ेदार बात बताई  कि बचपन में उनकी रूचि साइंस में बिलकुल नहीं थी पर स्व मनोहर श्याम जोशी के सम्पादन में "साप्ताहिक हिन्दुस्तान" में डॉ वागीश शुक्ल की क्वांटम फ़िजिक्स पर छपी लेखमाला पढ़ कर वे विज्ञान की ओर आकर्षित हुए - वे डाकपत्थर के सरकारी स्नातकोत्तर कॉलेज में फ़िजिक्स पढ़ाते हैं। इसी क्रम में उन्होंने विश्व प्रसिद्ध विज्ञान कथा लेखक इसाक असिमोव की उसी पत्रिका में छपी एक कहानी "टेक ए मैच" का ज़िक्र बड़े मज़ेदार अंदाज़ में किया। इस कहानी में एक अंतरिक्षयान के बादलों के विशाल समूह के बीच फँस जाता है जिसके कारण अपेक्षित मात्र में ईंधन नहीं बन पा रहा है - धरती से लाखों किलोमीटर दूर वापस लौटना संभव नहीं है और आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त ईंधन भी है नहीं।  यान में सफ़र कर रहे लोगों की जान पर बन आई है और यान के ईंधन की जिम्मेदारी जिस विशेषज्ञ फ़्यूज़निस्ट पर है उसको कोई रास्ता सूझ नहीं रहा है और वह अपनी नाकामी के चलते अपनी मूँछ भी नीची नहीं होने देना चाहता। यान में बैठे एक साइंस टीचर को इस गड़बड़ी का आभास हो जाता है और विज्ञान पढ़ाने के अभ्यास से विकल्प भी सूझ जाता है - कि माचिस की तीली को जलाने जैसी पुरातनपंथी क्रिया से जो ताप उत्पन्न होता है उसकी मदद लें तो थोड़ी मात्र में जिस ईंधन की दरकार है वह प्राप्त हो सकती है।असमंजस में पड़ा हुआ  फ़्यूज़निस्ट टीचर की बताई तरकीब अपनाता है और यान संकट से निकलने में कामयाब हो जाता है...पर यान के कैप्टन और   फ़्यूज़निस्ट की साख बनी रहे इसलिए आशा की किरण दिखाने वाले साइंस टीचर को घर में नज़रबंद कर दिया जाता है। नवीन को  फ़्यूज़निस्ट के बारे में लेखक का यह कथन हू ब हू याद था :"ए स्पेशलिस्ट ऑलवेज़ लिव इन स्पेशलिटीज़"....... अपनी बीमारी के शुरूआती दौर में स्पेशलिस्ट डॉक्टरों के एक दायरे में बंध कर रह जाने और अन्य संभावनाओं को न तलाशने की बात बताते हुए नवीन भाई को असिमोव याद आये और जिस सरसता के साथ उन्होंने सुबह मुझे यह बात बताई वह कोई कहानीकार ही बता सकता है। उनकी कहानियों का जो सकारात्मक जादुई संसार है उसकी जड़ें नवीन की पूरी शख्सियत में फैली हुई हैं ..... उनकी द्रौपदी के चीर सरीखी बातों को  सुनना एक ट्रीट है। 
अभी इस एक बात के साथ बस ... बाकी बातें फिर कभी और ..... नवीन भाई जल्द से जल्द खाने पीने के परहेज से बाहर आयें और जोरदार ठहाके लगाते हुए मिलें ,शुभ कामनायें। 
नोट : जब मैंने आज दो तीन बार उन्हें बिना चीनी की चाय पिलाई तो उन्होंने राज की यह बात भी बताई कि पहले एक मामला ऐसा था जब पत्नी के सामने झूठ बोलना पड़ता था ....अब तो वह भी छूट गया।           
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घर की भौतिक शक्ल सूरत को लेकर भले ही कितना  कुछ लिखा कहा जाए पर चार दीवारों और छत वाले एक अदद घर के अंदर व्याप्त भावनात्मक निष्ठा व ऊष्मा की अनुपस्थिति को समझे बगैर घर के मायने को समझ पाना मुमकिन नहीं होगा। अपनी किशोरावस्था में पढ़ी उषा प्रियंवदा की कहानी "वापसी" मुझे कई दिनों तक इसलिये हैरान परेशान किये रही कि गजाधर बाबू के किरदार का नौकरी से रिटायर होकर घर लौटना  और चंद दिनों में ही इस तरह उसको छोड़ कर चल देना उस अनुभवहीन अवस्था में गले नहीं उत्तर रहा था .... पर जैसे जैसे दीन दुनिया देखता गया वैसे वैसे उनके बर्ताव की असलियत मेरे मन में खुलती गयी- अपने ढर्रे पर चल रहे घर में चारपाई की तरह उनकी दैहिक उपस्थिति के असंगत लगने का मर्म समझ में आने लगा।कहानी का सिर्फ़ एक वाक्य " घर में गजाधर बाबू के रहने के लिए कोई स्थान न बचा था।" घर और मकान के बारीक अंतर को समझाने के लिए पर्याप्त है - कोई चालीस साल पहले पढ़ी कहानी का यह वाक्य मुझे अब भी अक्षरशः याद है। 
बासु चटर्जी ने राजेन्द्र यादव के उपन्यास "सारा आकाश" पर इसी नाम की फ़िल्म बना कर उसकी कई परतें और खोलीं - फ़िल्म निर्माण के दौरान उपयुक्त घर खोजने की पूरी कहानी राजेंद्र यादव ने बयान की है और लिखा भी है कि "घर बोलता है "...... पुरातन संस्कारों से जकड़े खोखले आदर्शवाद का पनपना अंधेरे भुतहे घरों के अंदर खूब होता है और इस परिवेश में क्या मज़ाल कि आधुनिक समय की ताज़ा हवा प्रवेश कर जाये। इस फिल्म में समर का कॉलेज से घर लौटते हुए साइकिल चलाना बेहद संवेदनशील ढंग से दिखाया गया है - शुरूआती उत्साह घर के पास आते आते कितना थका थका और सुस्त हो जाता है यह बेमन से ढोये जाने वाले रिश्तों की बर्फ़ीली  ईंट गारे मिट्टी के निर्माण को घर कहने की परिपाटी पर गंभीर सवाल उठाता है। 
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प्रसिद्ध ग्रीक कवि यिआन्निस रित्सोस ने लिखा :

मुझे मालूम है हम में एक एक को
कदम बढ़ाना पड़ता है प्रेम की राह पर अकेले ही 
वैसे ही आस्था के रास्ते 
और मृत्यु को जाते रास्ते पर भी 
मैं अच्छी तरह जानता हूँ 
कोशिश तो बहुतेरी की पर कर नहीं पाया कुछ  .
अब मैं एकाकी नहीं 
तुम्हारे साथ चलना चाहता हूँ 
चलोगी प्रिय? 

Friday, November 21, 2008

चेखव के घर में

अभी कुछ दिन पहले प्रिय मित्र योगेन्द्र आहूजा से बात हो रही थी, जो स्वंय कथाकार होते हुए कविताओं के अच्छे पाठक हैं, तो बातों ही बातों में उन्हें स्पेनि्श के कवि लोर्का की कविता याद गयी। कथाकार विद्यासागर नौटियाल की डायरी को पलटता हूं तो पाता हूं कि सुनी गयी वह कविता मुझे भी, खुद को दोहराने के लिए मजबूर कर रही है-

अलविदा

जब मैं मरूं/ खिड़की खुली छोड़ देना/ एक बच्चा संतरा खाता है
खिड़की से मैं उसे देख सकता हूं/ एक किसान महकाता है फसल
अपनी खिड़की से मैं उसे सुन सकता हूं
जब मैं मरूं
खिड़की खुली छोड़ देना

प्रस्तुत है कथाकर विद्यासागर नौटियाल की डायरी के पृष्ठ-



चेखव के घर में
विद्यासागर नौटियाल

याल्टा,29 जुलाई 1981 : 4 बजे शाम ।

रोसिया सेनिटोरियम से हमारी कारें कुछ ही देर में चेखव -स्मारक में पहुँच गईं । महान साहित्यकार चेखव के घर को एक बार देख लेने की मेरी लालसा आज पूरी हो गई । कारों से उतर कर हम पाँचों साथी आँध्रवासी नरसैय्या, पाकिरप्पा, उड़िया सेठी और आसामी कामिनी मोहन सर्माह दोनों दुभाषिया रूसी लड़कियों इरिना तथा आल्ला के साथ चेखव के बागीचे में आ गए । इरिना मॉस्को विश्वविद्यालय में हिंदी तथा मराठी की प्राध्यापिका ह। यों जानती पंजाबी भी है। लेकिन हमारे बीच कोई पंजाबी नहीं । आल्ला तमिल तथा अंग्रेजी जानती है। हमारे प्रतिनिधिमंडल में कोई तमिल-भाषी भी नहीं ।
वहाँ पहुँचते ही मेरा ध्यान देवदार के दो वृक्षों की ओर गया । एक की ओर इशारा करके मैने इरिना को बताया कि यह पेड़ रूसी नहीं लगता, इसे हमारे यहाँ से मँगवाया गया होगा ।
-इस तरह का देवदार सिर्फ हमारे यहाँ होता है। दूसरा पेड़ जो है वह है तो देवदार पर कहीं और से लाया गया होगा ।
अपनी खोजी नज़रों से किसी अंग्रेजी बोलने वाले गाइड के आने की राह देख रही इरिना ने सवाल किया ।
-आप किस पेड़ को अपना बता रहे हैं नौटियालजी ?
मैने एक देवदार के पेड़ की ओर इशारा करके उसे बता दिया ।
-रूस में इससे मिलती-जुलती प्रजाति शिश्नात की है । उसके यहाँ सोवियत संघ में बहुत खूबसूरत, घने जंगल हैं । लेकिन ये दोनों पेड़ उस प्रजाति से भिन्न हैं । इन्हें हम देवदार कहते हैं ।
कामरेड सेठी ने फिकरा कसा - आते ही पेड़ों की बात करने लगे हैं,कामरेड नौटियाल ।
अंग्रेजी भाषा के गाइड ने हमारे पास आते ही अपना काम शुरू कर दिया । उसने हम लोगों को अपने साथ घुमाना शुरू कर दिया है । और एक-एक चीज़ के बारे में तफसील से बताने लगा है ।
गाइड की बात पूरी होते न होते मैं उसका हिंदी अनुवाद करने का फर्ज निभाने लगा हूँ चूँके हमारे कुछ साथी अंग्रेजी भी नहीं जानते । मेरे सामने समस्या यह है कि मैं उन बातों को अपनी डायरी में दर्ज करूँ कि उसके आगामी वाक्यों को सुनते हुए उनका अनुवाद प्रस्तुत करूँ । वह भी चलते-चलते । और उसके द्वारा बताई जा रही चीज़ों को अपनी आँखों से देखते जाना तो इस मौके की सबसे बड़ी ज़रूरत है । मेरी आँखें उन चीज़ों को देखें कि अपनी डायरी पर ध्यान केंद्रित करें? बहरहाल! मैं अपने भरसक पूरी बातों को यथासंभव सही रूप में हिंदी में कहते जाने की कोशिश कर रहा हूँ ।
इस बाग की उम्र 80 वर्ष की है । 1898 में चेखव ने यह बाग खरीदा । उस समय यह खाली था । यह बागीचा खरीदने के बाद चेखव ने अपने हाथों से यहाँ कई प्रकार के पौधे लगाए,जिनमें कुछ अभी भी जीवित हैं। यहाँ सदाबहार तथा सर्दियों के समय झड़ जाने वाले पेड़ लगे हैं। बर्च वृक्ष इसी जगह लगाया गया था। चेखव के इस बेंच को 'गोर्की का बेंच' कहते थे। इस पर आगन्तुक बैठते थे। चेखव 1904 में मरे । मैक्सिम गोर्की अंत तक यहाँ आते रहते थे। बागीचे से सागर तट तक के रास्तों पर पत्थर बिछे हैं। चेखव यही चाहते थे। चम्पा के पेड़,बाँस का झाड़ उनके अपने हाथ से लगाये है। यह खूबसूरत,कलात्मक पात्र एक मदिरा निर्माता ने चेखव को भेंट किया था। चेखव का घर इस बागीचे के पश्चिम में है। उन्होंने अपने मन के माफिक घर बनाया था। इसके निर्माण में दस महीने लगे। चेखव मूल रूप से याल्टा के निवासी नहीं थे। विभिन्न स्थानों में निवास करने के बाद वे यहाँ आए। टी0बी0 हो जाने पर अपना पिछला घर बेच कर स्थायी तौर पर यहाँ रहने चले आए थे। पहले घर की योजना कुछ और थी। पर वैसा भवन बनाने के लिए पहले वाला घर बेचने पर पैसे नहीं मिल पाए। इसलिए चेखवने पुस्तकें लिखने की सोची। चेखव के मित्र उनसे अधिक काम नकरने को कहते थे । चेखव मजबूरी में भवन निर्माण के खर्चे उठाने के लिए लिखने में जुटे रहते थे। वह सिलसिला अंत तक जारी रहा। ज़ार के युग में इस घर की कीमत 20 हजार रूबल थी। एक देवदार का विशाल वृक्ष इस घर के आँगन में खड़ा है।
हम लोग एक बालकनी में चले आए हैं। इस बालकनी में खड़ा होना चेखव को बहुत प्रिय था। यहीं से,दूरबीन लेकर,वे सागर की ओर देखते थे। चार कमरे पहली मंजिल पर,चार दूसरी मंजिल पर,एक कमरा तीसरी मंजिल पर। तीसरी मंजिल पर बहन रहती थी,जिसे चित्र खींचने का शौक था। बर्च पेड़ चेखव ने स्वयं लगाया था,सुराही का पेड़ बहन ने लगाया । दूसरा 1919 में लगाया,जबकि चेखव की माता की मृत्यु हो गई। तीसरा सुराही का पेड़ 1957 में लगाया था,जब बहन की मृत्यु हो गई। 21 से 57 तक पार्यान्तोनेला इस संग्रहालय की मालिक रही। इस भवन के अन्दर सब चीजें जस की तस मौजूद हैं । जैसी कि चेखव के जीवनकाल में रहती थीं । उनमें किसी भी तरह के परिवर्तन नहीं किए गए हैं।
डाइनिंग रूम में दीवार पर पुश्किन का एक चित्र टँगा है। डाइनिंग मेज,दो सोफे की कुर्सियाँ,चेखव का एक चित्र। बहन का चित्र। युवती थी। दो चित्र चेखव के बनाए हुए। ये बर्तन, चेखव की सम्पत्ति थे। ये क्रिस्टल ग्लासेज़ उनकी पैतृक सम्पत्ति हैं,जो चेखव के माता-पिता के समय प्रयुक्त होते थे। चेखव का चित्र उनकी बहन ने बनाया था, जो एक लेखिका भी थीं । उनके छोटे भाई मिखाइल ने भी चेखव के बारे में एक पुस्तक लिखी । यह सामने का कमरा मेहमानों के लिए था । यहाँ आने पर गोर्की इसीमें रहते थे। शलातिन संगीतज्ञ भी यहीं रहते थे। कुप्रिन ने भी यहीं रह कर कहानियाँ लिखी थीं। गोर्की को यह स्थान बेहद प्रिय लगता था। पेन्टर लेवितान भी इसी कमरे में रहते थे। छोटी मेज पर लैम्प रखा है। यह कमरा उनकी पत्नी का कमरा था,जो छुट्टियों में आकर यहाँ रहती थीं। वह कमरा वैसा ही है(पूर्व की ओर)। वे एक्ट्रेस थीं। उनका मकबरा मॉस्को में चेखव के मकबरे के पास है। पत्नी मॉस्को में रहती थीं। चेखव ने एक पत्र में अपना असंतोष व्यक्त किया था कि मैं लेखक,तुम एक्ट्रेस इसलिए जुदा हैं। बीच के कमरे में सन्दूक है। ये सीढ़ियाँ अब प्रयुक्त नहीं की जातीं चूँके पुरानी पड़ गई हैं।
ऊपर की मंजिल के पश्चिम में सुराही का वृक्ष चेखव का लगाया है ।
पीछे छोटा भवन पहले से बना था। इस भवन के निर्माण की अवधि में चेखव यहीं रहे,बाद में वहाँ रसोई बनी। उसमें दो कमरे थे,एक में रसोइया रहती थी। दूसरे में माली। ऊपर के बाराम्दे के सामने एक छज्जा बाहर निकला है,जो चेखव के कमरे से जुड़ा है। अन्दर आल्मारी में चेखव के कपड़े रखे हैं। चमड़े का कोट प्रसिद्ध है। 1890 में सहालिन द्वीप पर इसे पहने कर रहे। अपनी डायरी में चेखव ने इस कोट का भी जिक्र किया है। सहालिन द्वीप पर वे तीन महीने रहे। वहाँ की जनसंख्या के बारे में जानकारी की। वहाँ शहर से कैदियों के रूप में रहने वाले लोग भी थे। वापिस आकर सहालिन द्वीप के बारे में पुस्तक लिखने लगे। फिर श्रीलंका देखने चले गए । देशों का तुलनात्मक विवाण प्रस्तुत किया। उन्होंने लिखा कि श्रीलंका अपेक्षाकृत स्वर्ग है। श्रीलंका से वे हाथिनों की दो मूर्तियाँ लाए, जो यहाँ रखी हैं। माँ के कमरे में नौ दिन की बनाई माँ की तस्वीर दीवार पर टँगी है । एक मीटर 83 से0मी0 का कद था, जूते भी बड़े थे। चद्गमा मॉस्को के संग्रहालय में है।
लिखने का काम भी ऊपर की मंजिल में । मेज पर कहानियाँ लिखते थे। मेडिकल औजार भी मेज पर रखे हैं। चेखव पहले डाक्टर थे। उन्होंने डाक्टरी का पेश छोड़ दिया था पर लोगों को देख लिया करते थे। एक पुराना फोन दीवार पर टँगा है। एक तख्ती पर 'सिगरेट पीना मना है'
लिखा है,जो एक मित्र ने लगाई थी। गुस्से में। खिड़की के ऊपर लाल और गहरे नीले काँच लगे हैं,जो पेड़ों के छोटा होने के कारण धूप से बचने के लिए लगाए गए थे। 20गुणा12 फिट का कमरा। पीछे एक सोफा भी लगा है। बीच में मिट्टी के तेल का लैम्प लटका है ।
इस कमरे में लोग आराम करने आते थे। यह आल्मारी और पियानो बहुत पुराने हैं। इनका उपयोग उनके संगीतज्ञ मेहमान करते थे । सामने का चित्र उनके दूसरे भाई का बनाया है । इसका शीर्षक गरीबी है। याल्टा में थियेटर बन जाने पर मास्को से कलाकारों ने यहाँ चेखव के दो नाटक प्रदर्शित किए। बाद में वे लोग इस कमरे में आए। उस ओर भी बाराम्दे हैं, उत्तर पूर्व में। चेखव इस घर में पाँच वर्ष रहे। चेखव यहाँ गंभीर रोगी होकर आए थे। उनकी मृत्यु हो गई । तब आयु 43 वर्ष थी । कुछ समय पहर्ले वे अपनी पत्नी से मिलने मॉस्को गए। सर्दी लग गई। वे जानते थे अंत निकट है ।( पूरा भवन पत्थरों का बना है।)
डाक्टरों ने उन्हें दक्षिण जर्मनी में आराम करने की सलाह दी । 1904 मई में वे द0 जर्मनी गए। तब उनकी पत्नी भी साथ थीं। 2 जुलाई को उनकी हालत खराब हो गई । अपनी सेहत की गंभीरता के बारे में उनको खुद ही जानकारी हो गई थी । हड़बड़ी में डाक्टरको बुलाने की तैयारी कर रही अपनी पत्नी को चेखव ने कहा- डाक्टर को मत बुलाओ,उसे बुलाना फिजूल होगा। उसके आने से पहले मैं चला जाऊँगा । बहुत धैर्य के साथ उन्होंने अन्त में शैमपेन का एक गिलास लिया । उसके बाद जर्मन में बोले- ICH STBR (मैं जा रहा हूँ)। उनका शव मॉस्को ले जाया गया। वहीं उनका मकबरा बना है।
उतना वर्णन सुन लेने के बाद मुझे लग रहा है कि चेखव के घर आकर मैने अपनी ज़िंदगी का एक महत्वपूर्ण फर्ज अदा किया है। उसे मैं अपने जीवन की एक महान उपलब्धि मानता रहूँगा। जिस रोग ने चेखव की ज़िन्दगी ले ली,इतने वर्षों के बाद मैं उससे निजात पाने के बाद यहाँ विश्राम करने आया हूँ। उनके जीवन के दौरान क्षयरोग को एक असाध्य रोग माना जाता था। बहुत बाद तक वैसी ही स्थिति कायम रही। डाक्टर अपने को निरूपाय मानने लगते थे। हमारे ज़माने के काफी करीब फ्रैंज काफ्का को भी उसने अपना शिकार बनाया। बीस साल बाद काफ्का की मौत 1924 में 41 वर्ष की उम्र में वियना के एक सेनिटोरियम में हुई। उसकी महत्वपूर्ण रचना ' ट्रायल' 1925 में छपी ।
और अब डाक्टर उसे कोई ऐसा भयंकर रोग नहीं मानते। तबसे अब तक विज्ञान और आयुर्विज्ञान ने बहुत प्रगति कर ली है ।
गाइड ने मुझे इस विषय पर ज़्यादा सोचने का मौका नहीं दिया। अपनी बात जारी रखते हुए वह बताने लगा :-
याल्टावासी चेखव पर अभिमान करते हैं। यहाँ के पुस्तकालय को चेखव ने अनेक पुस्तकें दी थीं। चेखव के नाम से एक सेनिटोरियम और एक मार्ग भी है। 1901 में चेखव सेनिटोरियम का उद्दघाटन हुआ । उसके निर्माण के लिए,अन्य साहित्यकारों के साथ,चेखव ने भी चंदा दिया था। यहाँ का थियेटर भी चेखव के नाम का है। यहाँ हर रोज दर्शक आते हैं ।
1860 में अपने जन्म के बाद 1879 तक चेखव तगानरोफ में ही रहे। वहाँ भी चेखव परिवार का संग्रहालय है। पिता छोटे व्यापारी थे। 1879 में आर्थिक संकट के कारण पिता मॉस्को गए। चेखव अकेले कहीं गाँव में रहते थे । चेखव ट्यूशन करके अपना गुजारा करने लगे। फिर 92 तक चेखव परिवार सहित मॉस्को मे रहे। पिता को नौकरी नहीं मिलती थी । गरीबी में रहते थे। टी0बी0 ने उसी कारण दबोच लिया था । मॉस्को में चेखव विश्वविद्यालय में भर्ती ह। मॉस्को में किराए के मकानों में रहते थे। उन दिनों के बारे में उन्होंने अपनी डायरी में लिखा कि हमारे फ्लैट्स से आने-जाने वालों के सिर्फ पाँव दिखाई देते हैं। माँ चाहती थीं चेखव डाक्टर बनें। पढ़ते समय वे कहानियाँ लिखने लगे। उनके पारिश्रमिक की धनराशि से परिवार की कुछ सहायता करने लगे। लेखन जारी रहा । विनोदी कहानियाँ लिखीं । 1892 में पेलेखेवा गाँव में भवन खरीदा। 92 से 99 तक पेलेखेवा गाँव में रहे। यह मॉस्को के पास एक गाँव था,जिसका नाम अब चेखव है। और यह अब मॉस्को का अंग बन गया है। 7 साल तक वहाँ रहे। वहाँ कई साहित्यिक कृतियों की रचना की। डाक्टरी की डिग्री भी ली। हैजा फैला,उसकी रोकथाम की। चेखव के चार भाई एक बहन और थे। इन सात वर्षों में गरीबी का चित्र बनाने वाले भाई तथा पिता की मृत्यु हो गई । पहली बार याल्टा आने पर चेखव को यहाँ अच्छा नहीं लगा था । लिखा मुझे अच्छा नहीं लगा । यह यूरोपियन और रूसी का घालमेल है । पर सागर से परिचय हुआ तो याल्टा भी आया । फिर लिखा याल्टा का सागर एक युवती की तरह है । इसके तट पर हजार साल तक रहने
पर भी बुरा नहीं लगेगा । प्रथम बार यहाँ तीन सप्ताह व्यतीत किए थे। फिर 1894 में आए । इसके पूर्व सखालीन द्वीप के प्रवास पर रहे,जहाँ टी0बी0 बढ़ गई। रोसियन होटल में एक महीना याल्टा में बिताया। यहाँ आए तो खाँसी दूर हो गई। फिर लेखन का काम करने लगे। इलाज बन्द कर दिया। उसके बाद दो-तीन सप्ताह के लिए अक्सर यहाँ आकर मित्रों के घर पर रह लेते थे। 1899 में भावी पत्नी से परिचय हुआ। तब दोनों यहाँ आए । यहाँ आने के बाद चेखव होटल में और ओल्गा अपने मित्रों के घर पर रहने लगे। फिर योरोप, फ्राँस का प्रवास किया। डाक्टरों ने फ्राँस में रहने की सलाह दी । चेखव ने मातृभूमि में रहना अधिक पसन्द किया। पिता की मृत्यु व अपने रोग की गंभीरता के कारण यहाँ रहने लगे । उसके बाद उनका याल्टा का जीवन शुरू हुआ ।
दूसरे महायुद्ध के समय याल्टा पर फासिस्टों ने कब्जा कर लिया था। एक फासिस्ट अधिकारी ने आकर कहा -''यहाँ मैं रहूँगा ।'' उस दौरान यहाँ बहन रहती थी । बहन को सूझा कि वे कहीं उस घर को नष्ट न कर दें। उसने भवन की एक दीवार पर एक जर्मन नाटककार को फोटो लगा दिया । उस फोटो को देखकर हाकिम ने घर को नष्ट नहीं किया। जर्मन हाकिम यहाँ आठ दिन रहा। फिर सेवोस्तोपोल चला गया। जाते समय पीछे के दरवाजे पर उसने 'मेरबाकी'(जर्मन अधिकारी की संपत्ति है ) प्लेट लगा दी । सेवोस्तोपोल से वह वापस नहीं लौटा । वह तख्ती युद्ध के अंत तक यहाँ लगी रही और उसके कारण जर्मन सैनिकों ने इसे ध्वस्त नहीं किया। गोलियाँ भवन को लगी थीं । उसकी मरम्मत हो गई । यह पेड़ केदरगियाल्यस्की(देवदार) हिमालय से आया है । दूसरा देवदार अफ्रीका से आया है ।
मैने इरिना को बताया ।
-यह गंगोत्री के पास हर्षिल से लाया गया देवदार है ।
मैं एक टकनौरी देवदार के नीच आकर खड़ा हो गया तो लगा कि चेखव के बागीचे में आकर मैं हर्षिल ही पहुँच गया हूँ । मेरा ननिहाल । और मैं अकेला नहीं,चेखव भी मेरे साथ हैं ।
उस वक्त मैने देखा मेरे सभी साथी हमारी ओर पीठ फेर कर तेजी से बाहर की ओर लपकते जा रहे थे । उस ओर जहाँ अपनी कारें खड़ी थीं ।

Thursday, November 20, 2008

फायर लाइन का पहरेदार

कथाकार विद्यासागर नौटियाल की स्म्रतियों में दर्ज टिहरी के ढेरों चित्र उनके रचना संसार में उपस्थित हो कर पाठक के भीतर कौतुहल जगाने लगते हैं। इतिहास की ढेरों पर्ते खुद ब खुन खुलने लगती है।
प्रस्तुत है उनकी डायरी के प्रष्ठ
विद्यासागर नौटियाल

उन दिनों मेरे पिता टिहरी -गढ़वाल रियासत की राजधानी नरेन्द्रनगर के पास फकोट नामक स्थान पर तैनात थे । वहां एक राजकीय उद्यान था, पिता उसके अधीक्षक थे । उस उद्यान में सिर्फ सब्जियां उगाई जाती थीं । इतनी सब्जियां कि नरेन्द्रनगर राजमहल में रोजाना दो खच्चर सब्जी भेजी जी सके ।
बाद में पिता को फिर वन विभाग में रेंज ऑफीसर बना दिया गया । सन् 1939 ई0 उस वक्त मेरी उम्र सात बरस की थी जब शिमला की राह पर जुब्बल रियासत के पड़ोस में रियासत के अंतिम क्षेत्र में हमारा परिवार बंगाण पट्टी के कसेडी नामक रेंज दफ्तर में जा पहुंचा ।

टिहरी शहर से सौ मील की दूरी पर कसेडी रेंज दफ्तर बंगाण पट्टी में एक बेहद सुनसान जगह पर स्थित था । वहां से गांव बहुत दूरी पर थे । घाटी में सामने की ओर दूसरे पहाड़ पर जौनसार -बाबर का इलाका दिखायी देता था । वहां राजा का नहीं,अंग्रेज का राज था।
वन विभाग के कर्मचारियों के लिए एक ज़रूरी काम जंगलों को आग से संभावित नुकसान से बचाना होता था । घने जंगल में मामूली आग दावानल का रूप धारण कर सकती है। रियासत में वनों की आग से रक्षा करने के नियम बहुत कठोर थे। राह चलते आदमी के लिए अनिवार्य होता था कि वह आग दिखायी देने पर उसे बुझाने के काम में लग जाय । गांव के निवासियों को भी अपने आस-पास के किसी वन में धुंआ दिखायी देने पर अपने काम-धंधे छोड़ कर जंगल की ओर दौड़ जाना कानूनी तौर पर लाजमी होता था । गर्मियों का मौसम जंगलातियों के लिए विपदा का मौसम माना जाता था । जब तक बरसात शुरू नहीं हो जाती थी जंगलात के किसी भी अधिकारी-कर्मचारी को छुट्टी मंजूर नहीं हो सकती थी । आग से वनों की रक्षा करने के लिहाज से गर्मियों के शुरू होने से पेश्तर एतिहायत के तौर पर हर साल फ़ायर लाइन काटी जाती थी । रक्षित वनों के चारों ओर उसकी चौहद्दी में फैली हुई घास को एक निश्चित चौड़ाई में काट कर इस बात की व्यवस्था कर ली जाती थी कि उससे बाहर के क्षेत्र में फैलने वाली आग की लपटें उस जंगल के अन्दर प्रवेश न कर सकें । फ़ायर लाइन काटने का एक दूसरा उपाय यह भी होता था कि रक्षित वन की चौहद्दी में उगी हुई घास पर खुद ही आग लगा कर उसे वन की दिशा में बुझाते चलें । इस काम में कई लोगों को एक साथ मिल कर जुटना पड़ता है । आग को वन के अन्दर और वन के बाहर दोनों दिशाओं में बुझाते हुए आगे बढ़ते रहते हैं । उस लाइन के उस तरह काट दिए जाने से भी बाहर की आग के वन के भीतर प्रवेश कर सकने की संभावना खत्म हो जाती थी । हमारे रेंज दफ्तर से नीचे के इलाके में आम रास्ते के बराबरी पर पिछले कुछ दिनों से आग लगा कर लाइन काटी जा रही थी । उस काम को वन विभाग के कर्मचारियों के अलावा कुछ दिहाड़ी मजूर भी शामिल रहते थे। आग लाइन के काम के शुरू होते ही मैं भी उस जगह पहुंच जाता था । उनके साथ आग जलाते-बुझाते हुए आगे बढ़ते रहने में मुझे बहुत मज़ा आता था । मेरे मन में यह भाव भरने लगता था कि इस वक्त मैं भी एक बेहद जुम्मेदारी का काम निभा रहा हूं। उस काम में शरीक होने के लिए मुझे कोई बुलाने भी नहीं आता था,वहाँ से हट जाने को भी नहीं कहता था । रेंजर साहब के बेटे को कोई कुछ कह भी कैसे सकता था ?
उस काम की योजना के बारे में पिता को जब भी फुरसत में पाता मैं विस्तार से जानकारी लेता रहता था । रेंज क्वार्टर से नीचे के क्षेत्र में चल रहे काम के पूरा हो जाने के फौरन बाद उससे ऊपर की ओर के ढलानों पर काम किया जाना था । पहाड़ की चोटी तक । बड़े पाजूधार की तरफ घने जंगल थे । उन जंगलों के नक्शे मेरे दिमाग में दर्ज रहते थे । पाजूधार बंगले तक रोज जाते आते मुझे अच्छी तरह याद हो गया था कहां क्या है ्र क्या नहीं है ।
उस दिन जन्माष्ठमी के व्रत के कारण रेंज दफ्तर में छुट्टी थी । उस छुट्टी के कारण पिता दौरे पर नहीं थे, घर पर मौजूद थे । परिवार में हंसी-खुशी का माहौल था । बच्चों में भाईजी तो काफी लंबे समय से घर पर रहते नहीं थे । वे पढ़ाई करने के लिए देहरादून में रहने लगे थे। सिर्फ गर्मियों की छुट्टियों में हमारे पास आ पाते थे । दूसरे नम्बर पर दीदी थीं । उनके जीवन को पिछले काफी समय से नानीजी के निर्र्देशों के मुताबिक ढाला जाने लगा था, जिसमें उम्रदार लड़कियों का व्रत लेना एक मुख्य ज़रूरत होती थी । दीदी ने पिछले साल भी व्रत लिया था । साल में दो बड़े व्रत आते थे-शिवरात्रि और जन्माष्ठमी । उन दोनों व्रतों के दिन घर पर होने वाली कुल घटनाओं के विवरण मुझे यों भी पूरी तरह याद रहते थे । उस दिन सुबह की चाय पी लेने के फौरन बाद मेरा मांजी से झगड़ा होने लगा था । मुझे व्रत लेने के लिए मना किया जा रहा था । मेरा कहना था कि मेरी बहनें कमला और उर्मिला अभी छोटी हैं, इसलिए वे व्रत न रखें तो कोई बात नहीं। पर मैं तो अब खूब बड़ा हो गया हूं और मैं तो व्रत लूंगा ही लूंगा ।
-तू अभी छोटा है बेटा ।
-हां मांजी, मैं अभी छोटा हूं । पर यह बात तुम तब तो नहीं कहते जब मैं फायर लाइन बुझाने जाता हूं । तब नहीं होता मैं छोटा ।
-अच्छा विद्यासागर,जो तू बड़ा हो गया है तो पहले मेरे दूध के पैसे दे दे ।
दूध के पैसे । रोज़-रोज ताने देती रहती हैं -तुझे मैने दूध पिलाया है। उस दिन मैं पूरा हिसाब चुकता करने पर उतारू हो गया। मेरे पैसे भी मांजी के ही पास रहते थे। लकड़ी के संदूक के अन्दर, एक कोने पर । मेरे पास पैसे कहां से आते हैं ? जब कभी कोई मेहमान या रिश्तेदार हमारे घर आते हैं तो उनमें से कुछ लोग जाते वक्त मुझे कुछ पैसा दे देते हैं - ले विद्यासागर, तू अपने लिए किताब ले लेना । उस तरह की मेरी कुल जमा पूंजी कुल कितनी है, कितना पैसा किसने दिया था इस बात की मुझे बखूबी जानकारी रहती थी । और उनकी याद भी रहती थी । उस वक्त मांजी के संदूक में मेरे कुल पांच रूपए जमा थे ।
-ज्यादा से ज्यादा पांच रूपए का तो पिया होगा मैने तुम्हारा दूध। तुम ही रख लेना मेरे वे सब रूपए, जो तुम्हारे पास हैं ।
कमला और उर्मिला बहुत उत्सुक होकर देखने लगी थीं कि आज व्रत के दिन दूध के उस हिसाब के चुकता हो जाने के बाद अब मेरे व्रत लेने न लेने के बारे में मांजी क्या निर्णय देती हैं । इस मौके पर वे दोनों कामना करने लगी थीं कि मांजी की जुबान से किसी तरह फिसल कर, एक बार 'नहीं मानता तो रहले भूखा " निकल आए । मुझे इजाजत मिल जाने पर उनके लिए भी व्रत लेने की राहें खुल सकती थीं । तब उनकी भी व्रत रखने का अपना दावा पेश कर देने की बारी आ सकती थी । उसके लिए चाहे जितनी भी आरजू मिन्नत करनी पड़े । थोड़ा रोना, थोड़ा रूठना, थोड़ा हल्ला मचाना। पर पहले रास्ता रोक रही यह मुख्य बाधा तो दूर हो ।
मैं अपने को बाकायदा एक जुम्मेदार व्यक्ति मानने लगा था और मैने करीब करीब तय कर लिया था कि दिन के मौके पर, रात हो जाने से पहले, दीदी की तरह मैं भी खाना नहीं खाऊंगा और व्रत रखूंगा। पिछले साल की तरह अब मैं किसी के झांसे में नहीं आने वाला, जब मुझे दोपहर के वक्त, आकाश में सूरज के मौजूद रहते यह झूठ-झूठ कह कर खाना खिला दिया गया था कि बच्चों के आधा दिन के बाद खाना खा लेने पर भगवानजी नाराज नहीं होते और ऐसे बच्चों का खा लेने के बाद चर्त नहीं होता । (चर्त गढ़वाली में व्रत के उल्टे को कहा जाता है।)
बादल-विहीन आकाश में जब सूरज कुछ ऊपर चढ़ आया तो मैं अपने नि्श्चय को मन ही मन अटल मानता हुआ अपनी जेब में एक माचिस लेकर चुपचाप घर से निकल पड़ा । छुट्टी के फौरन बाद रेंज दफ्तर से ऊपर की ओर की फायर लाइन काटी ( लगाई-बुझाई)जानी थी । यह बात मुझे पहले से मालूम थी । अपने पिता के विभाग के कल के काम को कुछ हलका करने के लिहाज से मैं थोड़ा बहुत काम आज ही निपटा लेना चाहता था। रेंज दफ्तर की सीमा से बाहर जंगल में पहुंचते ही मैने पेड़ों की दो-तीन छोटी शाखाओं को उठा कर उनको जमीन पर एक साथ रखा । उनका इस्तेमाल आग बुझाने के लिए किया जाना था । तब धीरे से माचिस की एक तीली झाड़ी और बेतहाशा उगी हुई घास पर एक जगह पर आग छुआ दी । उस आग को इस हिसाब से बुझाते रहना था कि वह जंगल की ओर न बढ़ सके,रेंज दफ्तर की ओर ही आती रहे, जिधर उसके ज़्यादा फैलने की कोई संभावना नहीं हो सकती थी। उधर पहले ही फायर लाइन काटी जा चुकी थी। आग जो लगी तो लग ही गई । वह बेतहाशा फैलने लगी । मैने काफी को्शिश की कि आग को ऊपर की ओर बढ़ने से रोक लिया जाय । लेकिन वह सूखी घास की खूराक पाकर ऊपर की ओर ही लपकती जा रही थी । मेरे देखते-देखते उसका घेरा इतना बढ़ गया कि नीचे रेंज दफ्तर से आकाश की ओर उठता हुआ धुआं साफ-साफ नज़र आने लगा ।
जन्माष्ठमी का त्यौहार। कृष्ण के जन्म के मौके पर यमुना में बाढ़ आ गई थी। यहां यमुना हमसे काफी दूर है। और आकाश में,लगता है, धुंए के अलावा और कुछ है ही नहीं। त्यौहार मनाने में व्यस्त जंगलाती अचानक लग गई उस आग को देख भयभीत हो गए थे। किसका व्रत ? किसका त्यौहार ? अपने घर पर जो जैसी हालत में था वैसा ही वन की ओर दौड़ता चला आ रहा था ।
पता नहीं उस सुनसान जगह पर, जहां दो या तीन परिवारों के अलावा मीलों तक कोई इन्सानी आबादी नहीं थी, उतने सारे लोग उस वक्त कहां से आ लगे । लेकिन आग थी कि वह किसी के वश में नहीं आ रही थी।
ऐसे संकट के समय मुझे मौके पर पिता के हाथों कितनी मार पड रही है, उसका मैं कोई हिसाब कैसे रख सकता था । मुझे दिखायी दे रहा था कि आग की लपटें सुरक्षित वन के एकदम पास पहुंचने लगीं हैं। अचानक एक आश्चर्य घटित हुआ । आकाश में जाने कहां से बादल घिर आए और पानी बरसने लगा । ऐसी तेज बरखा कि कुछ ही देर बाद सुरक्षित जंगल की ओर बढ़ती आग की लपटों का कहीं पता ही नहीं चला । व्रतधारी विद्यासागर की भी जान में जान आ गई । मुझे याद नहीं कि उस मशक्कत के बाद घर लौट आने पर मेरे व्रत का चर्त करवा दिया गया था या नहीं ।