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Wednesday, September 2, 2015

भ्रष्ट मध्यवर्गीय आधुनिकता के पूर्व प्रसंग

यह आलेख इलाहाबाद से भाइ्र संतोष चतुर्वेदी के सम्‍पादन में प्रकाशित होने वाली पत्रिका अनहद में प्रकाशित हुआ है। हिन्‍दी कहानियों के जरिये समाज में व्‍याप्‍त ओर कला साहितय को प्रभावित करती गंवई आधुनिक प्रवृत्तियों को समझने की कोशिश की यह दूसरी कड़ी है। इससे पूव्र एक आलेख हिन्‍दी चेतना में प्रकाशित हुआ। यहां क्लिक करके उसे पढ़ा जा सकता है। इस कड़ी का तीसरा आलेख कथाकार उदय प्रकाश की कहानी 'मोहन दास', अखिलेश की 'ग्रहण' और अरूण कुमार असफल की कहानी 'पांच का सिक्‍का' को आधार बना कर लिखा जा रहा है। अनहद के अगले अंक में उसको पढ़ा जा सकेगा। आगामी आलेख की योजना संभवत: कथाकार अल्‍पना मिश्रा, नवीन नैथानी और कुमार अम्‍बुज की कहानियां से गुजरते हुए गंवइ आधुनिक समय के साथ विकसित होती भाषा को समझने की कोशिश के तौर पर रहेगी। पाठकों की बेबाक राय के बिना मेरे लिए आगे बढ़ना मुश्किल है। अत: विनम्र निवेदन है कि निसंकोच अपनी राय जरूर दें और मुझे इस विषय को समझने का मार्ग सुझाएं। 

विजय गौड़


इस वक्त तीन ऐसे कथाकरों के संग्रहों के साथ हूं, जिनको पिछले कुछ समये से प्रचलन में आयी संज्ञा 'युवा कहानीकार और उनकी रचनाओं को 'युवा कहानी' कहा जाता रहा है। हिन्दी साहित्य के चरणबद्ध इतिहास में निर्धारित हुए आधुनिक काल के भीतर जारी साहितियक आंदोलनों की इस सबसे नयी संज्ञा वाले आंदोलन की विशेषतायें क्या हैं ? किन रचनाओं को इसमें अटा हुआ माने जाये ? ऐसे कोर्इ स्पष्ट मानदण्ड तो मेरे देखे में नहीं है। इसीलिए रचनाओं को अलग अलग आंदाेंलनों के साथ पहचानना मेरे लिए हमेशा मुशिकल रहा है। हां, सबसे नयी संज्ञा 'युवा कहानी आंदोलन से मेरा परिचय आधुनिक काल के साहितियक इतिहास में गिनाये गये अन्य कहानी आंदोलनों की तरह ही हुआ। आंदोलन विशेष के साथ रचनाकारों के नाम गिनाऊ आलोचनाओं ने ही कथाकारों के नामें से भी परिचित कराया है। यदि रचनाओं के साथ रचनाकार का नाम न हो और रचना पहले से  संज्ञान में भी न हो तो मैंने हमेशा महसूस किया है कि अमुक रचना को किस आंदोलन के से देखा जाये, यह तय करने में मैंने हमेशा परेशानी महसूस की है। जहां तक मेरा अनुमान है, यह समस्या मुझ अकेले की ही नहीं है बल्कि बहुत से दूसरे लोगों की भी हो सकती है। सबसे ज्यादा तो उस आलोचना की होनी चाहिए जो आंदोलन की प्रवृत्तिजन्य विशेषताओं में रचना की व्याख्या करना चाहेगी।

मेरा मानना है कि रचनाओं की प्रवृत्ति, उसमें व्यक्त होते दौर विशेष की सामाजिक चेतना से पहचानी जा सकती है। उससे भिन्न उसका कोर्इ अस्तित्व हो नहीं सकता। इस तरह से देखें तो हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल जिस सामाजिकी में विकसित हुआ, उसकी प्रवृत्तियां भी रचनाओं में साथ साथ मौजूद रही। विधागत भिन्नताओं में भी उन्हें खोजना मुशिकल नहीं। हां, यह जरूर है कि कथा साहित्य के जरिये उसको पहचानना ज्यादा आसान है। बहुत धीमी गति से बदलती सामाजिकी आजादी के आदाेंलन से आज तक एक सतत प्रवाह में रही है।  जिक्र किये जा रहे संग्रहों की रचनाओं की  पृष्ठभूमि हाल ही में गुजर गये और साथ-साथ गुजर रहे समय वाली है। सवाल है कि क्या है वह रोजमर्रा का जीवन ? क्या है उसकी सामाजिकी ? और कैसे चरणबद्ध तरह से वह लगातार विकास करती रही ? साथ ही, रचनाओं में उसके ज्यों का त्यों आ जाने के मायने क्या है ?

संदर्भित कथा संग्रहों की रचनाओं की समकालीन प्रवृतित को जानने के लिए वैश्विक स्तर पर होने वाले बदलावों के प्रभाव में असरकारी रही स्थानिकता को समझना जरूरी है। देख सकते हैं कि इस बिन्दु से गुजरते ही बहुत कुछ साफ दिखायी देने लगता है और हिन्दी कथा साहित्य की प्रवृत्ति का इतिहास भी खुद ब खुद तार्किक परिणति पाने लगता है। यूं भी उसके लिए बहुत पीछे जाने की जरूरत नहीं है। बीसवीं सदी के आरम्भ में जारी आजादी के संघर्ष के साथ ही हम अपने समय की आधुनिकता को पहचानते रहे हैं। वही समय, जब प्रथम विश्वयुद्ध के साथ ही वैशिवक पूंजी ने यह भली भांति जान-समझ लिया था कि शुरू हो चुके दुनियावी बदलावों के माहौल में प्रत्यक्ष औपनिवेशिक ढांचों को कायम रखना अब संभव नहीं। परिणामत:, अप्रत्यक्ष औपनिवेशिक ढांचों की विश्व व्यवस्था को विस्तार देने के लिए नये प्रारूपों के मायाजाल तैयार करना उसकी प्राथमिकता हो गया और द्वितिय विश्वयुद्ध के अंत के साथ ही वह अपने प्रत्यक्ष शासन वाले औपनिवेशिक चेहरे से किनारा करने का रास्ता तलाशने लगी। अपने प्रति नरम रुख रखने वाले स्थानीय नेतृत्व को इक्टठा करके सरकार बनाने की लेने की प्रक्रिया तक वह प्रत्यक्ष दिखायी देती है लेकिन सत्ता की बागडोर बनवा दी गयी स्थानिक सरकारों के हवाले कर देने के बाद से उसके प्रत्यक्ष रूप को देखना तो उन क्षणों में भी संभव नहीं हुआ जब आधुनिक से आधुनिक हथियारों से सुसज्जित उसकी सेनायें देश विशेष की सीमाओं के भीतर घुस कर आदिम हवलावरों की तरह आक्रामक होती रही हैं। स्थानीय नेतृत्व के सहयोग से बनवा दी गयी सरकारोंं के मुख्य घटक उसके तय किये गये उसे खेमे से रहे जिन्हें उसने काफी हद तक अपने मंसूबो के करीब पाया। सामान्य जन का एक सीमित धड़ा, जो औपनिवेशिकता के प्रति तीखा नहीं था, और जनभागीदारी के चलते अप्रसांगिक हो चुके प्रभुवर्ग लोग उसे इसके लिए सबसे अनुकूल नजर आये। अप्रसांगिक हो चुके प्रभु वर्गं के लिए भी यह एक स्वर्णिम अवसर था, कि पुन: अपनी पूर्व सिथति को प्राप्त कर सके और शासन की बागडोर को अपने हाथ में ले ले। जैसे भी हो, जल्द से जल्द वह सत्ता हस्तातंरण की प्रक्रिया को निपटवा लेना चाहता था। खूनी जंग भरा बंटवारा तक उसके मंसूबों को रोक नहीं सकता था। चोला बदलकर सत्ता हासिल करने की उसकी रणनीति वैशिवक पूंजी के ऐसे मंसूबों को भी साधती थी जिसके जरिये तख्ता पलट कर आवाम का राज कायम करने वाली सिथतियाें से बेखौफ हुआ जा सकता था। सामान्य जन का वह सीमित धड़ा तो सामाजिक पिछड़ेपन से निपटना चाहता था और औपनिवेशिक शासन की उन खूबियों का कायल था जो सामाजिक बदलाव की उसकी कार्रवाइयों का पक्षधर ही थी। भारतीय मध्यवर्ग का यह सबसे आधुनिक चेहरा था और यकीनन ज्ञान विज्ञान के साथ विस्तार लेती आधुनिकता के प्रभाव में राष्ट्रवादी होते हुए भी शासन के स्तर पर किसी बड़े बदलाव के प्रति बहुत मुखर नहीं होना चाहता रहा।  और देखते देखते, जनतंत्र का छदम फैलाती शासन व्यवस्थाओं ने पांव पसारने शुरू किये।

शोषण का चक्र चलाती शासन व्यवस्था के खिलाफ शुरू हो चुकी शोषितों की जंग और जंग में विजय की स्थितियों से निपटने के लिए वैशिवक पूंजी कल्याणकारी राज्यों की अवधारणा वाले अर्थतंत्र के साथ समाने आ रही थी। अप्रत्यक्ष औपनिवेशिक नियंत्रण को पूरी तरह से कायम करने में उसे वह माडल ज्यादा असरकारी दिख रहा था। तीसरी दुनिया के प्रभु वर्ग को भी ऐसे ही शासन प्रसाशन वाले माडल के नुस्खे दिये गये। अपने हितों की सुरक्षा के लिए भी प्रभु वर्ग को माडल भा रहा था। जनता के एक छोटे हिस्से को थोड़ी सुविधा जनक स्थिति में आने के अवसरों को मुहैया कराते हुए सामाजिक विभेद की गहरी खार्इ को खोदना उसके लिए आसान था। आजादी का झूठ रचती ये ऐसी स्थितियां थी जो राष्ट्रवाद का विभ्रम भी फैलाने लगी और झूठी राष्ट्रवादी ताकतों को भी आवाम के बीच घुसपैठ करने का मौका देने लगी और खतरनाक मंसूबों के साथ समाज को बांटने असरकारी होने लगीं। आवाम के लिए ऐसी स्थितियों में राष्ट्रवादी उभार के सच और झूठ को पहचानना मुश्किल भी रहा। और बाजार के विस्तार और उसके लिए ही अपना सर्वोच्च न्यौछावर कर देने वाले झूठे नायकों को ही जननायक नायक बनाकर प्रस्तुत करने वाला प्रभुवर्ग झूठे राष्ट्रवाद को ही वास्तविक राष्ट्रवाद के रूप में प्रचारित करने में सफल होता रहा।

विकासक्रम की इस समूची प्रक्रिया में प्रभु वर्ग पूरी तरह सामंती मूल्यों के लिए प्रतिबद्ध था लेकिन आधुनिकता चेतना के साथ गठजोड़ करना उसकी मजबूरी थी। निर्णायक भूमिका में होने के कारण पुरातन चेतना ने न सिर्फ आधुनिक मूल्यबोध की गति को अवरूद्ध करना शुरू किया बल्कि किसी भी नये विचार की स्वीकारोक्ति को उन पिछड़ी मान्यताओं की नैतिकता के आधार पर ही प्राथमिक मानने की सिथति पैदा की। कानून लिखी हुर्इ किताब होने लगा और उसके लागू होने की स्थितियां सीट पर बैठे व्यक्ति की चेतना पर निर्भर करने लगी। चैराहे पर खड़े सिपाही की सीटी की आवाज या उसका उठा हुआ हाथ ही वह निर्देश हो गया जिस पर सवाल उठाना तक भी राष्ट्रद्रोह करार दिया जा सकता था और दिया भी जाने लगा। आधुनिक होने की चाह रखते हुए भी पिछड़े मूल्यबोध को ही पैमाना मानकर हमेशा किलशने, कलपने वाली इन स्थितियों ने एक ऐसे मध्यवर्ग को जन्म दिया जो दिखते हुए तो आधुनिक होना चाहता था लेकिन गंवर्इ पिछड़ेपन से भी उसे ऐसा परहेज न रहा कि उसके विरूद्ध निर्णायक संघर्ष ही छेड़ दे। साहित्य के भीतर उसकी सीमायें, संवेदनाओं का जागरण करने के बावजूद, निर्णायक संघर्षों की दिशा का पक्ष न चुन पा रहे पात्रों के रूप में जगह पाने लगी। एक ओर आधुनिक मूल्य चेतना और दूसरी ओर पुरातनपंथी सांस्कृतिक मूल्य, आदर्श के रूप में प्रस्तुत किये जाने लगे। ऐसे ही मंसूबों की कामयाबी के लिए उस शिक्षा पद्धति को ही आधुनिक कहकर स्वीकार्य बनाया जाने लगा, जो नये किस्म के गुरूकुलों वाली थी। सांस्कृतिक निर्माण की इस पूरी प्रक्रिया ने समाज को इस कदर 'गंवर्इ आधुनिक बनाये रखा कि आधुनिकता के वास्तविक मायने क्या हो सकते हैं, लगातार विकसित होता मध्यवर्ग उसके कोर्इ ठोस पैमाने तय करने में अक्षम हुआ। प्रवृत्तियों के आधार पर रचनाओं को विश्लेषित न कर पाने की आलोचना ने ऐसे आधुनिक काल को ही भिन्न भिन्न साहितियक आंदोलनों वाली संज्ञाओं से विभूषित करने में ही अपने होने को सार्थकता दी। जबकि रचनाओं को समाज की मूल प्रवृतित के संग साथ 'गंवर्इ आधुनिकता से परिभाषित करना ज्याद तार्किक हो सकता था। मनोगत आधार पर व्याख्याओं की ये स्थिति सिर्फ साहित्य के क्षेत्र का ही मसला नहीं रही बलिक आजादी के बाद विकसित होते गये भारतीय समाज की ऐसी प्रवृत्ति के रूप में दिखायी देता है जिसने ज्ञान-विज्ञान से लेकर जीवन के कार्यव्यापार के हर क्षेत्र को गंवर्इ-आधुनिक बनाये रखने में कोर्इ कसर नहीं छोड़ी। झूठ, मक्कारी, धोखेबाजी, दलाली जैसी गतिविधियां सार्वजनिक मंचों पर सम्मान की हकदार होने लगी। किसी भी गैर तार्किक और भ्रष्ट सिथति पर आलोचनात्मक रवैया अपनाते हुए भी भिन्न स्थिति में खुद वैसा ही व्यवहार करती गंवर्इ मानसिक बुनावट वाले समाज का ताना बाना विस्तार लेता रहा। वैशिवक पूंजी की चमक और जटिल होते जा रहे सामाजिक ढांचे के बीच आधुनिकता के नाम पर में ऐसे आदर्श भी निशाने पर रखे जाने लगे, जो सांझी विरासत की सामाजिक जिम्मेदारियों से भरे थे। सहयोग, ममत्व और संवेदनाओं भरे व्यवहार को पिछड़ा समझा जाने लगा। लगातार की इन स्थितियों के चलते गंवर्इ आधुनिकपन में डूबी मध्यवर्गीय मानसिकता बहुत आधुनिक दिखने की चाह में सहमति और असहमति को स्पष्ट रखने से परहेज करते हुए भले भले का पाठ होने लगी।

देख सकते हैं कि कथा साहित्य के भीतर मौजूद यह सत्तता ही वह ताना बाना बुनती रही जिन्हें भिन्न भिन्न संज्ञाओं वाले साहितियक आंदोलनों से पहचानने की कोशिश की गयी। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि आंदोलनं विशेष की खास-खास प्रवृतितयों को चिहिनत करना जरूरी नहीं समझा गया।

जिक्र की जा रही तीनों किताबों की रचनायें न सिर्फ रचनाकारों की पृष्ठभूमि वाले भौगोलिक स्थिति के कारण जुदा है बलिक संवेदना के स्तर पर भी भिन्न सामाजिक रिश्तों के साथ हैं। जहां एक में पहाड़ी जनमानस की तकलीफें हैं तो बाकी दो में मैदानी क्षेत्रों का कस्बार्इ समाज और कुछ कुछ शहराती क्षेत्रों का घटनाक्रम। पहाड़ के भूगोल पर दिनेश कर्नाकटक का कथा संग्रह ''पहाड़ में सन्नाटा। कस्बार्इ जनसमाज पर केनिद्रत कथानकों वाली विमल चन्द्र पाण्डेय की किताब ''उत्तर प्रदेश की खिड़की जिसमें मैंदानी क्षेत्रों के गांव की झलक भी दिखती ही रहती है और दीपक श्रीवास्तव का कहानी संग्रह ''सत्तार्इस साल की सांवली लड़की जो अपनी कथाओं में कस्बे से शहर की ओर प्रसार करते जीवन की झलक लिये है। तीनों ही किताबों को पढ़ने के बाद एकाएक जो कहते बन पड़ रहा है वह यही कि उपरोक्त चिहिनत की गयी गंवर्इ-आधुनिकता भौगोलिक पृष्ठभूमि तक सीमित नहीं रहती बलिक संवेदनात्मक दायरे की सरहदों तक विस्तार किये होती है। एक और बात- गंवर्इ आधुनिकता के गंवर्इपन को छांटने में जुटी वैशिवक पूंजी के प्रभाव भी एक ही तरह से असर डालते हैं। हिन्दी साहित्य की पड़ताल में भारतीय राज्य का राजनैतिक नक्शा बेशक उसका वास्तविक भूगोल हो पर संवेदना के स्तर वह उन वैश्विक दूरियों तक मौजूद हो सकती है जहां-जहां आधुनिकता का चरण सामंती मिजाज से गठजोड़ करने के कारण जनतांत्रिक प्रक्रिया के विकास में ही रुकावट होता चला गया। इन तीनों ही किताबों में जो बात प्रमुखता से दिखायी देती है वह यही कि यथार्थ को सृजित करने के लिए कहानियों के कथानक- सामाजिक बुनावट, अर्थतंत्र, राजनीति और संस्कृति जैसे ढेरों अन्य संदर्भो से एक साथ टकराना चाहते हैं। लेकिन टकराहट की गड़गड़ाहट में झांकता उनका गवंर्इपन उस मध्यवर्गीय आधुनिकता की लपक वाला है जो 'भ्रष्ट आधुनिकता के पूर्व प्रसंगों के रंग में रंगा दिखता है। वही भ्रष्ट आधुनिकता जो खुद के करेक्ट होने का क्लेम ज्यादा करती है लेकिन व्यवहार में आक्रामक शकितयों के पैमाने को ही सर्वोच्च मानते हुए वैसा ही माहौल रच देना चाहती है।

गंवर्इ आधुनिकपन और भ्रष्ट आधुनिकता के अन्र्तर्विरोधों को पहचाने बगैर इन्हें व्याख्यायित करना संभव नहीं। विमल चंद्र पाण्डेय की ज्यादातर कहानियां तय निष्कर्षों की कहानियां हैं। शिल्पविधान के रचनात्मक कौशल के बावजूद उनकी बुनावट के बिखराव में कथा के अन्यत्र फैलते जाने का सिलसिला लगातार बना रहता है। एक ही कहानी में बहुत कुछ कह देने की आतुरता 'उत्तर प्रदेश की खिड़की और 'सातवां कुंआ' में ज्यादा साफ तौर पर दिखती है। दिनेश कर्नाटक की कहानी 'काली कुमाऊ का शेरदा भी वैसे ही व्यामोह में फंसी हुर्इ है। 'सातवां कुंआ की बुनावट जिस फ्रेम के साथ की गयी है, स्वाभाविक है दुनिया को तान लेने की गुंजार्इश उसमें है। लेकिन कहानी का फोकस बिन्दु डगमगाता रहता है। गोल-गोल घूम कर फिर फिर प्रस्थान बिन्दु की ओर लौटना लेखक की मजबूरी होता रहता है। यहां सवाल उस फ्रेम का नहीं है जिसका इस्तेमाल विमल चन्द्र पाण्डे ने किया है बलिक उसके मोह की गिरफत में होने की मन:सिथति का है जो इधर युवा कहलायी जा रही कहानियों में ज्यादा प्रमुखता से नजर आता है। 'पहल-97 में सबसे ताजा प्रकाशित मनोज रूपड़ा की लम्बी कहानी 'आग और राख के बीच को यहां प्रसंगवश देख सकते हैं। युवा कहलायी जा रही इन कहानियों में मध्यवर्गीय आधुनिकता की उस पदचाप को साफ सुना जा सकता जो गंवर्इ आधुनिकता से त्रस्त तो है लेकिन उससे मुकित के रास्ते को ठहर कर तलाशने की बजाय हड़बड़ाहट भरी तीव्रता में है। 'वागर्थ अक्टूबर 2014 के अंक में प्रकाशित जितेन ठाकुर कहानी 'एक अण्डे का स्वागत गान का उल्लेख इसलिए भी जरूरी हो जाता है कि पारम्परिक शिल्प और अनावश्यक विस्तार से बचते हुए, चमकदार भाषा और शिल्प के नये पन के लिए छटपटाती युवा कहानियां जिसके बिना अधुरी हैं,  अपनी दिशा का मूल्यांकन करा सकती है।

सामाजिक अन्र्तर्विरोधों की टकराहट को पकड़ने की कोशिशों में इन कहानियों का कहानीपन कर्इ बार औपन्यासिक विस्तार की उन हलचलों तक चला जा रहा है, जहां कहानी का शास्त्रीय ढांत्रा टूटने लगता है। यानी कहानियाें में एक केन्द्रीय कथा को बचाये रखना रचनाकार के लिए मुशिकल हो जाने वाला सा भी दिख रहा है। गौर किया जा सकता है कि इधर ऐसी कहानियों को सिर्फ 'कहानी की संज्ञा से उच्चारित करने के बजाय 'लम्बी कहानी कहा जाने लगा है। यह समझने की जरूरत है कि हिन्द कहानी में आ रहे इन बदलावों के कारण क्या हो सकते हैं ? क्या इसे नये मूल्य बोध का तलाशने में स्वंय जगह बना ले रहे शिल्प के रूप में देखा जा सकता है ? कहानी के भीतर अक्सर बहुत सी अवांतर कथाऐं दिखायी दे रही हैं। कथाकार बार बार उस कथा बिन्दु की ओर लौटता रहता है जो कहानी की केन्दीय संवेदना होती है। वैसे भिन्न संवेदनों को संजोयी अवांतर कथायें अक्सर ऐसे व्यवधान भी उत्पन्न कर दे रही हैं जिनकी भूल भूलैया में न सिर्फ पाठक खो जाने को मजबूर है बल्कि देख सकते हैं कि लेखक भी उन गलियों में ही भटक चुका होता है। भटकाव के कारणों को रचनात्मक कौशल की सीमा भी माना जा सकता है या, ऐसा भी जान पड़ता है कि वे कहानियां शायद रचनाकरों के भीतर पूर्व में ही आकार ले चुके अंत की कहानियां हैं और चलन में लम्बी कहानी कहलाये जाने भर के लिए ही असंगत अवांतर कथाओं के साथ हैं।

असंगति का विन्यास बहुधा इधर की कहानियों के शीर्षकों में भी उभरता है। यह असंगति कर्इ बार बहुत ही अतार्किक हो जाती है तो कर्इ बार उनके अर्थों का दायरा इतना विस्तृत होता है कि बहुत सीधी-सीधी और सहज कहानी को उसके शीर्षक से ध्वनित होते अर्थ के लिए पाठक को उसके एक से ज्यादा पाठ करने को भी विवश हो जाना होता है। यहां उन कहानियों का उल्लेख यदि न भी किया जाये जो एक समय मेंं 'कथादेश के 'गहरे पानी पैठ शीर्षक के अन्तरगत प्रकाशित होती रहीं तो भी दीपक श्रीवास्तव की कहानी 'लघुत्तम समापवर्तक के शीर्षक पर बात की ही जा सकती है। यह एक महत्वपूर्ण कहानी है। विकास की अफरातफरी में आधुनिकता को बाधित करती गंवर्इ स्थितियों को बहुत साफ तरह से रखने में सक्षम है। इस कहानी के जरिये उन स्थितियों को भी पकड़ पाना सहज हो रहा है जो श्रम को हेय मानने वाली मानसिकता के रूप में आधुनिक होना चाहती रही और जिसने समाज में गंवर्इ आधुनिकपन की स्थितियों को विस्तार दिया। आधुनिकता के नाम पर संवेदनहीन होते जाते समय की अवश्यम्भाविता का माहौल रचा। यह कहानी, प्रेम और संवेदना के लघुगणक को तलाशने की कोशिश करती है और गंवर्इ आधुनिकता में विस्तार ले चुकी समाजिकता के कारणं उपेक्षित हो जा रहे सोनू जैसे पात्रों के सपनों, उनकी इच्छाओं का साथ देने का पाठ हो जाना चाहती है। घर परिवार के बड़ों की हिकारत के कारण हिंसा की मानसिकता की गिरफत में होता जा रहा सोनू अभी भी प्रेम की झिड़कियों भरी प्रताड़ना को पहचान पा रहा है, ऐसे विश्वास जगाती यह कहानी उन सामाजिक खतरों की ओर भी इशारा कर रही है जो समाज मेंं निरूददेश्य जारी हिंसा के बीज बोने वाली होती है। प्रसंगवश यहां दिनेश कर्नाटक की कहानी ''कितने युद्ध'' का पात्र गोपाल भी याद आ रहा है जो सामाजिक प्रताड़ना के कारण हिंसक होते जाने की उस पराकाष्ठा में पहुंच जाता है कि जीवन के संघर्ष में आत्मीय आधारों के सहारे आगे बढ़ने वाली मां को भी लांछित कर आरोपित करने लगता है। लेकिन जीवन की घमासान के लगातार सम्पर्कों से मिलने वाले अनुभव में वह भी दीपक श्रीवास्तव की कहानी के पात्र की तरह मीठी झिड़क को मचल रहा होता है। लघुत्तम समापवर्तक का पात्र सोनू प्रेम की झिड़कियां देती दादी को प्रताडि़त करते दूसरे पात्रों की तरह नहीं देखता बलिक ऐसे ही क्षणों में ममतामयी दादी के असली रूप को पा रहा होता है। इस तरह से देखे तो दीपक श्रीवास्तव की कहानी लघुत्तम समापवर्तक का शीर्षक तार्किक संगति में ही रहता है लेकिन गणित में इस्तेमाल होने वाले इस पद से अनभिज्ञ पाठक के लिए, बहुत ढूंढ कर लाये गये, ऐसे शीर्षक कहानी की निरर्थकता को ही रख रहे होते हैं। लघुत्तम समापवर्तक गणित का पद है। दो और दो से अधिक संख्याओं का लघुत्तम खण्ड। लेकिन यह सवाल तो उभरता ही है कि कहानी के पाठक के लिए गणित के इस पेचीदे पद भरे शीर्षक में क्यों उलझा दिया जा रहा है ? गंवर्इ आधुनिकता के रंग में रंगी मध्यवर्गीय मानसिकता, चलन की विचित्रता के साथ होती है। इधर की कहानियों में यह बहुतायत से देखी जा सकती है। विशिष्टता के दायरे में हो जाने की यह चाह हमारे दौर की उस सच्चार्इ से भी रूबरू करवाता है जो गंवर्इ आधुनिकता में विकसित होती जा रही उस भ्रष्ट आधुनिकता के प्रभाव का होना साबित करती है जिसकी जकड़बंदी एक हद तक सामाजिक रूप से सचेत समूहों को भी अपनी लपेट में लिये है। अपने असरकारी प्रभाव में वह मुनाफाखौर पूंजी के प्रति मध्यवर्गीय आकर्षण के होने से उपजते है। चौंकाऊपन को ही सौन्दर्य का मानक मानते हुए मुनाफाखौर संस्कृति को सैद्धानितक आधार देती मध्यवर्गीय आधुनिकता उत्पादों की ब्राण्डीय किस्म को ही गुणवत्ता की कसौटी मानने वाली होती है। यह समझ पाना मुशिकल नहीं कि चौंकाऊपन के रंग में रंगा मध्यवर्ग ही सामाजिक बदलाव के वास्तविक संघर्षों के रास्ते में बाधा बना है और आधुनिकता की किसी सकारात्मक धारा की बजाय भ्रष्टता की ओर बढ़ता हुआ है। 'पहाड़ में सन्नाटा दिनेश कर्नाटक की किताब की शीर्षक कथा भी है। शीर्षक की अनुगूंज ऐसी कि पाठक के भीतर बहुत से सवाल पैदा करती है। लेकिन एक खबर की सनसनी की तरह कहानी अपने शीर्षक से बिल्कुल जुदा दिखायी देती है। शीर्षक की अनुगूंज से पैदा होते प्रश्न अनुतरित ही रह जा रहे हैं। देख सकते है कि शीर्षकों की स्वतंत्र सत्ता भी रचनाओं की प्रवृतित के तौर पर दिखायी दे रही है।

गंवर्इ आधुनिकता के गंवर्इपन से मुक्ति का मध्यवर्गीय आधुनिकता वाला रास्ता सिद्धान्त और व्यवहार की असंगतता से उपजने वाली वैचारिकता और बदलावों के अतिवादी दावों में शरण पाता है एवं वित्तीय पूंजी के चालाक मंसूबों के पक्ष को ही मजबूत होने के अवसर देता है। अतिदावों की छवियां शिल्प और भाषा की विशिष्टता में ही नहीं, अपितु वाचाल होने की हद तक वैचारिक प्रदर्शनों के रूप में होती हैं। वैचारिक संकट की ऐसी ही सिथतियों को हर उस जगह देखा जा सकता है जहां खुद को पाक साफ मानने वाली मध्यवर्गीय आधुनिकता न सिर्फ अपने से ऊपर और नीचे के ऊध्र्वाधर वर्गीय आधार पर निशाना साधती हुर्इ होती है बल्कि क्षेतीज में फैले हुए अपने ही वर्ग के सदस्यों तक को भी भ्रष्ट माने हुए होती है। ऐसा उन मनोगत कारणो की वजह से भी होता कि जिनमें व्यकितवादी प्रवृतितयाें की पराकाष्ठा अहंकार की हदों तक होती हैं। सामाजिक अन्तर्विरोधों को पूरी तरह से समझने में वे चूकती ही नहीं रहती बलिक ऐसे विभ्रम में होती हैं कि भ्रष्टता के मूल कारणों को समझना उसके लिए हमेशा मुशिकल होता है। अपनी सबसे उन्नत चेतना में वे विरोध के ऐसे ऐसे 'लोकप्रिय अंदाजों वाले प्रयोग करती है कि मुनाफाखौर बाजार की चालाकियों के शिकार मीडिया के लिए विरोध का इवेंट हो जाती है। वही मीडिया जो तटस्थ रह कर सूचनाओं को प्रेषित करने की बजाय टी आर पी को बढ़ा कर ज्यादा से ज्यादा पूंजी जुटा लेने की मानसिकता से ग्रसित है। उसकी चालाक कोशिशों का नतीजा है कि किसी भी तरह की अनैतिकता और भ्रष्ट स्थिति पर साधे जाने वाले विरोध के निशाने ही मखौल बना दिये जा रहे हैं। गैर जनतांत्रिक गंवर्इ आधुनिकता की वैचारिकी में ही ऐसी स्थितियां विस्तार करती मध्यवर्गीय आधुनिकता का आदर्श बन कर चारों ओर व्याप्त होती जा रही हैं। हिन्दी कथा साहित्य में भी दिखायी देती इस प्रवृत्ति, उसके विस्तार एवं स्वीकारोकित को इस रूप में भी देखा जा सकता है कि सामाजिक प्रतिबद्धता की बजाय व्यकितगत कौशल को चमकाने के असर ने हिन्दी के रचनात्मक जगत पर अपने प्रभाव बढ़ाने शुरू किये हैं।

प्रगतिशील पक्षधरता और इंक्लाबी पक्षधरता गंवर्इ आधुनिकता के दो पक्ष रहे हैं लेकिन हिन्दी भाषायी चेतना में इन्हें दो भिन्न पक्ष मानने की बजाय प्रगतिशील पक्षधरता के साथ ही परिभाषित किया जाता रहा। उसका मुख्य कारण हिन्दी क्षेत्र में पूरी तरह से गायब रही इंक्लाबी राजनीति का असर है। जबकि अन्य भाषायी क्षेत्रों में यदा कदा की उपसिथतियों के बावजूद बदलाव के स्वर में उसके महत्व को स्वीकारने की सिथति भी बनी रही। यही वजह है उन स्थितियों के गहरे प्रभाव अमुक भाषायी साहित्य की प्रगतिशीलता को इंक्लाबी पक्ष में जांचने वाले भी रहे। मारठी में दलित पैंथर का दौर उल्लेखनीय है जिसने अन्य भाषाओं के साहित्य में भी दलित अनुगूंज को स्थापित होने में मदद की। इंक्लाबी पक्षधरता को धारण करते हुए गंवर्इ आधुनिकता अपने गंवर्इपन से मुक्त हो सकती थी लेकिन उस तरह के राजनैतिक आंदोलन की अनुपसिथति और वैशिवक पूंजी की बढ़ती हुर्इ पहुंच के साथ विस्तार लेती भ्रष्ट मध्यवर्गीय आधुनिकता में उसका मिथ्या इंक्लाबी रूप ज्यादा बिकाऊ होने वाला हुआ और उसकी उपस्थिति को एक मूल्य मान लेने वाले भाषायी चौंकाऊपन में नक्सल, माओ, जंगल, आदिवासी, दलित आदि शब्दावली के साथ कथा को संयोजित कर ले जाना नये पन का परिचायक हुआ है। विमल चंद्र पाण्डे की कहानी 'उत्तर प्रदेश की खिड़की यहां उस दायरे में देखी जा सकती है। युवा कहलायी जाने वाली कर्इ अन्य रचनाओं में प्रवृत्तिजन्य इस उपस्थिति की पुष्टी के लिए इधर आयी बहुत सी कहानियां और कविताऐं भी संदर्भ हो सकती हैं। तत्काल याद आ रही चन्दन पाण्डे की कहानी 'भूलना और 'पहल-82 एवं 'जलसा के एक अंक में प्रकाशित देवी प्रसाद मिश्र की कविताओं को संदर्भ के रूप में देख सकते हैं। वैसे 'भूलना में चौंकाऊपन की बजाय इंक्लाबी राजनीति से जुड़ाव की मासूमियत का अंदाज उसे यादगार कहानी बनाता है। वैशिवक पूंजी के प्रभाव में विस्तार लेती भ्रष्ट आधुनिक चेतना संवदेन के उन क्षेत्रों से भली भांति परिचित होती है जो किसी भी नये उत्पाद को विशिष्ट पहचान देने में सहायक हो सकते हैं। समाज की उन नब्जों पर हाथ रखकर ही मुसिबतों से राहत दिलाने के नाम पर वह उपभोगतावाद को मथती रहती है और अपने उत्पाद के इस्तेमाल करने वाले के भीतर विशिष्ट हो जाने का सा भाव पल्लवित करती रहती है। उसके द्वारा मूल्य और आदर्श के झूठे खेल रचना अपनी उस चालाकी को छुपा ले जाने के लिए जरूरी होता है जो उसके मूल मंतव्यों को छुपा ले जाने में सहायक होता है। 'उत्तर प्रदेश की खिड़की की अन्तरकथा को खोलने पर पाया जा सकता है कि वह दो मुंहेपन की प्रवृत्ति, सामाजिकी और राजनीति के पक्ष में नहीं है, उन्हें तात्कालिक निशाने पर रखती है लेकिन परिदृश्य के सम्पूर्ण विभ्रम पर तीखेपन के साथ प्रहार करने की बजाय लुत्फ लेते हुए अंदाज में कथानक का विस्तार करती है। बदलाव का इंक्लाबी संघर्ष मजबूत और निरंकुश शासन व्यवस्था के होते हुए लम्बे समय तक कैसे अपनी उपसिथति को बनाये रखने वाला रहा, पाठक को उसकी वास्तविक पड़ताल करने तक को प्रेरित करने की बजाय वह अपने प्रिय पात्र उदभ्रांत की गिरफतारी के विवरणों से उसके होने को ही संदेह के घेरे में ला देती है। समझी जाने वाली बात है कि मनोगत आग्रहों से किसी राजनीति का न तो समर्थन संभव है न ही विरोध। जरूरी है कि रचनाओं में भी ऐसी घटनाओं की वस्तुपरक उपसिथति हो क्योंकि वर्तमान दौर का बिका हुआ मीडिया तो पहले ही अपनी प्राथमिकता मुनाफे के साथ तय किये है और रिपोर्टिंग के स्तर पर भी एक निशिचत पक्ष को ही रखने में माहिर है। पाठक मीडिया केे मिथ्या प्रचार के प्रभाव से पैदा होते आग्रहों से मुक्त होकर किसी राजनैतिक दिशा को ठीक तरह से समझे, लेखकीय चिन्ता के दायरे ऐसे भी तय होने चाहिए। यहां दिनेश कर्नाटक की कहानी 'मुमताज के बहाने टिप्पणी करना मुझे समीचीन लग रहा है जो साम्प्रदायिकता पर केन्द्रीत कथा है। चंद प्रचलित मुहावारों वाले संवादों के जरिये दिनेश कर्नाटक साम्प्रदायिकता विरोध की ऐसी कहानी रच रहे हैं जो ऐसे सहृदय मंसूबों के साथ है जिसमें साम्प्रदायिकता की उन्मादी लहर के उभरने के कारणों को नहीं तलाशा जा सकता।

सामाजिक रूप से बढ़ते अन्याय, असमानता, गैरबराबरी, जातीय उन्मांद और साम्प्रदायिक सिथतियों की प्रवतितयाें के यदि वर्गीय विश्लेषण किये जायें तो पायेगें कि आधुनिक हलचलों के साथ अपनी संततियों को आगे बढ़ता हुआ देखने की चाह संजोया भारतीय मध्यवर्ग जहां एक ओर उसे घुड़सवारी, तैराकी, नौकाचालन, आधुनिक से आधुनिक मशीन का परिचालन करने सकने की दक्षता से वाकिफ करने और व्यकितत्व विकास की प्रक्रिया वाली दूसरी बहुत सी शिक्षा देना चाहता रहा वहीं ठेठ पारम्परिक गुरूकलों के उस वातावरण को बनाये रखने का हिमायती हुआ जो अपने विचारों, इच्छाओं और सपनों को स्वतंत्र रूप से रखने की छूट भी नहीं देना चाहता है। द्विचितेपन के गंवर्इ आधुनिक माहौल ने न सिर्फ हिंसा और बलात्कारी स्थितियों को बढ़ाया है बलिक जमाने भर को बड़े पैमाने पर मानसिक रुग्णता में डूबते जाने को मजबूर किया है। 'काली कविता के कारनामे, विमल चंद्र पाण्‍डेय की कहानी इसलिए उल्लेखनीय है मानसिक रूगणता के खिलाफ मुखर होता स्त्री स्वर आश्वस्त करने वाला है। झूठे मानदण्ड खड़े करती शिक्षा व्यवस्था पर सवाल उठाते आश्वस्ती के स्वरों का असर साफ दिखता है। ढेठे जननायको के कारनामों प्रश्न उठाती चेतना कहानी में शुरू से अंत तक दिखायी देती है। बानगी के लिए एक पूछा गया प्रश्न और दिया गया जवाब उल्लेखनीय है,

''बेटा भारतीय कि्रकेट टीम का कप्तान कौन है ?
''पता नहीं सर कोर्इ होगा, इसका हमारे पाठयक्रम से क्या मतलब है ?

गंवर्इ आधुनिकता हमेशा अपने गंवर्इपन की यादों के साथ ही आधुनिक होना चाहती है। अपने समय की ऐतिहासिक विसंगतियों पर वह बहुत आलोचनात्मक होने से बचती है बल्कि कालांतर के किसी समय को ही वर्तमान पर चस्पा किये रहती है और निष्कर्षों में बनावटी हो जाती है। लड़की के विवाह के प्रसंग पर केनिद्रत एक कहानी दीपक श्रीवास्तव की है- 'सतार्इस साल की सांवली लड़की और एक इसी शीर्षक से अभी हाल ही में 'पाखी में प्रकाशित हुर्इ हरीचरण प्रकाश की कहानी है। इक्क्सवीं सदी के दूसरे दशक में प्रकाशित होते हुए भी दीपक श्रीवास्तव की कहानी 1990 के आसपास के समय बाहर नहीं निकलती। अवांतर कथाओं की अनंत गलियों से गुजरती रहती है और अन्तत: स्त्री विमर्श के उस सीमित पाठ से आगे नहीं बढ़ पाती जो आर्थिक स्वतंत्रता में ही स्त्री विमुकित को देख रही है। हरीचरण प्रकाश की कहानी का पाठ थोड़ा भिन्न है। हालांकि हरीचरण प्रकाश जिस पाठ के साथ आते हैं वह भी दीपक श्रीवास्तव की कहानी के पाठ की तरह एक सीमित सामाजिक सिथति है तब भी देख सकते हैं कि वहां गंवर्इ आधुनिकता की फलांग लैंगिक असमानता को लांघ जाने की कोशिशों के साथ है। ऐसे ही विषय पर एक अन्य कहानी विमल चंद्र पाण्डेय की है- 'खून भरी मांग। विमल जाति और धर्म की खाइयों में धंसी समाज व्यवस्था के भीतर उतर कर कथा को रचते हैं। दहेज प्रथा जैसी सामाजिक बुरार्इ पर आधारित यह कहानी उस सार्वभौमिक यथार्थ की कहानी है जो गंवर्इ आधुनिकता के निशाने पर हमेशा से रहा है। गंवर्इ आधुनिकपन की ऐसी मिसालों को पकड़ने के लिए तीनों ही कथाकारों की कर्इ कहानियों की पृष्ठभूमियां उल्लेखनीय है। आधुनिकता की वास्तविक बयार में विकसित होता जन समाज कैसे अपने गंवर्इपन से मुक्त हो चुका होता है, दिनेश कर्नाटक की कहानी 'खाइयां के ड्राइवर से होने वाली बातचीत उसका पता देती है। कहानी का वह आखिरी संवाद जिसमें एक ऐसी सूत्रात्मकता है कि जीवन की कैसी भी जड़ताओं को ठीक से विश्लेषित करने का रास्ता दिखा रही है!

'' ड्राइवर होने के नाते ये मेरा अनुभव हुआ कि मशीन आदमी को धोखा कम ही देती है। आदमी खुद ही धोखा खा जा जाता है और अपनी गलती को छुपाने के लिए बात किस्मत पर डाल देता है।

दिनेश कर्नाटक की कहानियों के विषय की केन्द्रीयता पहाड़ी युवाओं के भीतर मचलती सतरंगी दुनिया के आकर्षण को भी अपने में समेटती है। वालीवुड के बीच खुद की सिथति को देखने वाले शंकर जैसे पात्र फिल्मी दुनिया के सच को जीवन की कथा बनाना चाहते हैं लेकिन उन मजबूत किवाड़ों को खोलने में अक्षम है जो अवसरों के फर्श से चमचमाते कमरे के रूप में बंद पड़े होते हैं। कुंठा, हताशा में डूब जाने को मजबूर करती स्थितियां उन्हें उसी जीवन में वापिस लौटने को मजबूर करती है जिससे निकल भागने को वे हर वक्त मचलते रहते हैं। मध्य वर्गीय आधुनिकता ने पिछड़ी पृष्ठभूमि के हार खाये युवाओं के भीतर ऐसी कुंठाओं को जन्म दिया ह,ै जिसमें खुद की सिथतियों पर सहानुभूति से भरी कोर्इ आवाज भी उन्हें तंज लगती है। तिलमिलाहट में वे अपने करीबी के प्रति भी नफरत से भरे रहते हैं। वहीं दूसरी ओर उच्श्रंृखल किस्म का वातावरण का निर्माण करती युवा चेतना को ही नये युग की शुरूआत माना जाता रहा।

आधुनिकता के प्रतीक निर्मिति की भव्यताओं में शहरीपन का सबब हुए हैं। 'बड़े लोगों का पार्क, विशिष्ट जीवन शैली के रूप में उभरा है जिसने आम जनमानस की सार्वजनिकता पर हमला किया है। प्रतिरोध का गंवर्इपन क्यों जगह न पाये फिर ? ऐसे ही प्रतिरोधों को आकार देती दीपक श्रीवास्तव की कहानी भ्रष्ट आधुनिकता के साथ बढ़ते वर्गीय विभाजन को रखने में कोतार्इ नहीं बरतती है। प्रतिरोधों के जनवादी, प्रगतिशील सामान्तरी और दलित अंदाज का उत्कृष्ट नमुना कहानी को यादगार बनाता है। यह देखना दिलचस्प है कि जश्न का झूठ उस गंवर्इ आधुनिकता को ही मुखरित करता है जो भ्रष्ट मध्यवर्गीय आधुनिकता का रास्ता पकड़ती है। दीपक श्रीवास्तव कहानी 'पिशाचों की उर्वशी हो चाहे 'प्रेम का उपरांत दोनों ही कहानियों के संकेत स्पष्ट हैं कि भ्रष्ट मध्यवर्गीय आधुनिकता पद और प्रतिष्ठा की सार्वजनिक भूमिकाओं में बेहद शालीन और सभ्य दिखायी दे रही हो पर अपने एकांत में वे बेहद वाहियात होती हैं। दलाल मानसिकता में विकसित होती यह आधुनिकता मूल रूप से लम्पट होने की प्रवृतित के साथ होती है। 'प्रेम के उपरांत कहानी ये संकेत भी कर रही है कि गैर उत्पादक गतिविधियों के दम पर बाजार के उतार चढ़ाव को ही प्रमुख मानने वाली कुशलता के अर्जन के बावजूद भी बाजार की चालाकियों से लड़ना आसान नहीं। साम्राज्यवादी मूल्यों का अटटाहास प्रतिरोध की बजाय स्थितियों से पलायन को ही प्रमुख मान लेने के साथ है।

यूं पीडि़त का पक्ष बनते हुए ही गंवर्इ आधुनिकता का आलोक साहित्य और कलाओं में प्रगतिशीलता के दायरे तय करता रहा है। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि नैतिक रूप से वंचित का पक्षधर होते हुए भी गंवर्इ आधुनिकता वैचारिक विभ्रम को पूरी तरह से चिहिनत न कर पाने की सीमा के साथ होती है और वैचारिक शुद्धता की मांग करते हुए भी बदलाव के निर्णायक संघर्षों की दिशा का पक्ष नहीं चुन पाती। कारणों की तलाश समाज के विस्तृत अध्ययन के सर्वेक्षण और सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक दायरे में तलाशे जा सकते हैं। साहित्य के भीतर उसकी उपसिथति को रचनाओं की पृष्ठभूमि, पात्रों के सृजन, भाषायी और शिल्पगत कौशल और प्रबल रूप से मौजूद रचनात्मक हस्तक्षेप के अध्ययन से पाया जा सकता है।