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Thursday, October 27, 2022

न जन्नत देखा, न जहन्नुम देखा, जो कुछ देखा, यहीं देखा

 भारती सिंह 


      "ब़कद्रे-शौक़ नहीं ज़र्फे-तंगना-ए-ग़ज़ल 
      कुछ और चाहिए वुसअत मेरे बयाँ के लिए "
 अपने समय का प्रत्येक सृजनहार अपने-अपने तरीके से इतिहास के सहारे वर्तमान की चुनौतियों से लड़ते-भिड़ते, वक़्त की नब्ज को समझने की कोशिश करता है। यह अलग बात है कि अभिव्यक्ति की अपनी मौलिक धार से अपनी अनुभूतियों को कहां तक सशक्ति से प्रस्तुत कर पाता है। यह अनुभूतियाँ विभिन्न विधाओं का पैरहन बन, जन-मन तक, चेतना एवं विचारों को छूती हुई, देशकाल में बदलाव का अभीष्ट बयार लेकर आती हैं। इन्हीं विधाओं में ग़ज़ल का अपना रुआब और मिज़ाज रहा है। सदियों लम्बी यात्रा में बेशक़ ग़ज़ल को धीरज और भरोसे के साथ अपना सफ़र जारी रखना पड़ है। आज यही यात्रा अपने हासिल को पा सकी है। उर्दू के प्रभाव और संपर्क में पली-बढ़ी ग़ज़ल हिन्दी की जुबान को अपना कर अधिक असरकारक तथा समसामयिक मुद्दों पर और अधिक समृद्ध हुई है। 
कल्पनाओं के फ़लक से उतर कर, निजता एवं एकल मनोभावों से हटकर यथार्थ की ज़मीन पर अपनी नयी पहचान मुकर्रर की है। माधव कौशिक ने लिखा है-
       "सफ़र में दर्द भरी दस्तान रख दूंगा
        मैं पत्थरों पे लहू का निशान रख दूंगा"
 उस यथार्थ में जीवन की कितनी विषमताओं का यथार्थ है और कितना कुंठित कामनाओं का यथार्थ, इसकी भी पड़ताल एवं मूल्यांकन आवश्यक है। मानवीय तत्वों के विघटन से उत्पन्न कुंठाएं एवं वाह्य आवरण के ढकोंसलोंं ने इस सीमा तक पंगु एवं शिथिल बना दिया है कि अपनी अकर्मण्यता, निष्क्रियता एवं क्षरित मूल्यों का कारुणिक, विवादास्पद तथा अश्लीलता का प्रदर्शन ही उसकी नियति बन गई है। नतीजतन, कभी-कभी सृजनात्मकता हाशिए पर आ गई लगती है। ऐसे में चिंतन मनन तक में ना सिमटकर संवेदनाओं की मोटी पड़ती गई परत को खुरच कर अधिक संवेदनशील बनाने की सार्थक पहल आवश्यक होती है। तभी माधव कौशिक ने कहा है - 
     " ऊँगली ज़बान हाथ नज़र इस्तेमाल कर 
       बेखौफ़ होके वक़्त से सीधे सवाल कर।"
हिन्दी कविता के सृजन के लिए जिन तत्वों, जिन संवेदनाओं की आवश्यकता थी, उन्हीं को लेकर हिंदी ग़ज़लों की ज़मीन तैयार हुई है। हालांकि हिंदी साहित्य में गज़लों को वह मुकाम अब तक हासिल न हो सका है जिसकी वह हक़दार है। जबकि पचास, सत्तर वर्षो में ग़ज़लें ,गीत और दोहे ही हैं जो जन-जन तक अपनी पकड़ काफी मजबूत बनाए हुए हैं। फिर अन्य विधाओं की तरह ग़ज़ल को आलोचना के केंद्र में क्यों न रखा गया ! मैनेजर पाण्डेय जैसे वरिष्ठ आलोचक ने  माना है कि वह रचनाएँ  जो अनुशंसित एवं आलोचना के केंद्र में रहीं, काफी हद तक लोकप्रियता एवं सार्थकता की सीमा तक पहुंची। तो क्या हिन्दी कविता से हिन्दी ग़ज़ल को दूर ही रखा गया, या अन्जाने ही उपेक्षा की शिकार हुई । तभी ग़ज़लगो विनय कुमार मिश्र की पीड़ा छलछला उठी है इन पंक्तियों में-
                    "मैं किसे चाहूँ न चाहूँ बात होती है
                    पर ये भी तय कर रही है अब नई दिल्ली"
हालांकि ग़ज़लों की लंबी सुदृढ़ परंपरा में उर्दू ग़ज़लों  का रसूख एवं चलन जन- मन में अपनी मजबूत दखल बना चुका था। पाठकों की समृद्ध उपस्थिति भी देखने को मिलती रही है। लेकिन हिंदी में ग़ज़लें उपेक्षा एवं इग्नोरेंस की शिकार हुई, वज़ह हैरान करती है। नामवर सिंह जैसे आलोचना के शिखर पुरुष मिर्ज़ा ग़ालिब और अहमद फ़राज़ साहब की ग़ज़लों को कोट करते हुए अपने आख्यानों एवं वक्तव्यों की शुरुआत करते रहे हैं। लेकिन उनकी इनायत से ग़ज़ल महरूम रही। छह दशकों की लंबी यात्रा एवं हजारों ग़ज़लकारों की उन्नतिशील प्रवाहमय यात्रा आज भी अनवरत जारी है। फिर भी 'बड़ी हसरत से उम्मीद का चेहरा तकती' रही है। किंतु संतोषजनक बात है कि आज हिन्दी कविता के बीच ग़ज़ल अपनी शिनाख्त करा चुकी है। वैसे तो गज़लों की दीर्घ परम्परा रही है लेकिन हिन्दी में दुष्यंत कुमार की ग़ज़लें बड़ी अदब और दमखम के साथ साहित्यिक दुनिया में खुद को साबित करतीं हैं और फिर यहीं से ग़ज़ल कल्पना और रुमानियत की हद से बाहर निकल कर ज़िन्दगी की असलियत से वाकिफ होती है -
      " मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ 
         वो ग़ज़ल आप को सुनाता हूँ 
दुष्यंत अपनी ग़ज़लों में ज़िन्दगी को आईने के बतौर पेश करते हैं। फिर भी कहन का विस्तार में रचना की ज़मीन संकुचित नहीं होती है, बल्कि उसका फ़लक बड़ा और घना है-
       " वे कह रहें हैं इश्क़ पर संजीदा गुफ़्तगू 
         मैं क्या बताऊँ मेरा कहीं और ध्यान है" 
हालांकि दुष्यंत इस आग्रह से ख़ुद को पूरी तरह से मुक्त नहीं कर पाते। गाहे- ब -गाहे यह रूहानी भाव कुछ यूँ अभिव्यक्ति को प्राप्त होता है-
     " तू किसी रेल सी गुज़रती है
        मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ 
         
       एक आदत सी बन गयी है तू 
       और आदत कभी नहीं जाती "
अद्भुत शैली, भाव एवं ताज़गी से छलकता यह क़लाम दुष्यंत की लेखनी की समृद्धि का सुंदरतम नमूना है।प्रेम की सहजता, सघनता की यह लयात्मक अभिव्यक्ति दुष्यंत को अमर करती है। शायर ने भिन्न-भिन्न तरीके से शैली बदल -बदल कर बात की है।
          "अब तो इस तालाब का पानी बदल दो 
           ये कंवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं"

बहुत कम शब्दों का सहारा लेकर ग़ज़लों के मिज़ाज एवं तरबीयत पर कुछ तथ्य काबिले ग़ौर है कि कविताएं जहां एक खास वर्ग अर्थात बौद्धिक समाज एवं प्रबुद्ध पाठकों तक ही अपनी गरिमा को स्थापित कर पाईं, तब भी समय-समय पर इसकी स्थिति भी संतोषप्रद नहीं रही। कारण- शिक्षा का गिरता स्तर एवं पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं के प्रति पाठकों में कम होता लगाव। वहीं साहित्यिक अभिरुचि न रखने वाला व्यक्ति भी रोज़मर्रा की अपनी ज़िंदगी में ग़ज़लों की दो चार पंक्तियों के माध्यम से हमजुबा ग़ज़लों का सहारा लेकर अपनी अभिव्यक्ति को पुख्ता करता मिल जाता है। अब सवाल यह है कि ग़ज़लें इतनी लोकप्रिय होते हुए भी साहित्य की मुख्य धारा में स्वयं को सशक्ति से क्यों स्थापित नहीं कर पाईं। वज़ह साफ़ तौर पर यही मालूम होती है कि "ग़ज़ल को मुक्त छंद में लिखी जाने वाली कविता की तरह जीवन में खुली आवाजाही का अवकाश ज्यादा नहीं रहता, वह बहर और रदीफ़- क़ाफ़िया के बंधनों के अनुशासन में अपनी यात्रा तय करती है।" शायद एक यह भी वज़ह रही हो कि अभिव्यक्ति के लिए सरल और सहज पद्धति न होने के कारण ग़ज़लों को तनिक दुरूह मान लिया गया, जबकि मुक्त छंद में लिखी कविताओं को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाना आसान रहा हो।अलंकार और मात्राओं की हद में बांधने की कवायद में कथ्य की संप्रेषणीयता, उसकी सरलता बाधित होने लगती हो, विषय-वस्तु, कहन का उद्देश्य व्यापक और जनकल्याणकारी हो तो उसे किसी बंदिश में न बाँधकर  मुक्त भी रखने में कोई ख़राबी नहीं है। महाप्राण निराला ने कभी न कभी इन्हीं नियमों एवं परम्पराओं की बंधन की लाचारगी को अवश्य समझा होगा तभी उन्होंने मुक्तक छंद की रवायतों पर बल दिया होगा। यह एक अलग वैचारिकता की मांग है। 
बहरहाल ग़ज़लों की समूची विरासत एवं इतिहास को मूल्यांकित करने के लिए व्यापक विमर्श एवं चर्चा की आवश्यकता को महसूस करना लाजमी है। इन संदर्भों को लेकर हाल के दिनों में कई पुस्तकें आई हैं जिन्‍होंने ग़ज़ल की परम्परा और मिज़ाज को परखने मेें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 
समकालीन ग़ज़ल में यथार्थ-बोध को लेेेकर कुछ चर्चा करना चाहूूँगी, उन ग़ज़लों में समय और समाज में फैली विषमता और त्रासदी को चिन्हित कर कुछ बात हो। ऐसे में  विनय मिश्र की इन पंक्तियों का आसरा लेना चाहूँगी-
      " तुक मिलाने से कहीं ज़्यादा ज़रूरी थी कहन 
         बेतुकी-सी बात थी लेकिन ढिठाई से लिखा। "
ग़ज़ल के बंधन को निभाते हुए उसे आधुनिक रूप देना एक बड़ी रचनात्मक चुनौती है जिसे समकालीन ग़ज़लकारों ने बड़ी सफलता और सार्थकता के साथ निभाया। इसीलिए बल्ली सिंह चीमा ने लिखा है-
     " ये ग़ज़ल जो राजमहलों की कभी जागीर थी 
       अब तो इसको झोपड़ो की अंजुमन तक ले चलो"
बल्ली सिंह चीमा की यह ग़ज़ल इस बात का पुख्ता सबूत है कि समकालीन ग़ज़लकारों ने समय की संवेदना को बख़ूबी समझा और इस संकल्प के साथ अपनी साहित्यिक -यात्रा को जारी रखा कि अब ग़ज़लें एक ख़ास चौखटे से बाहर निकल कर जन-जन तक अपनी लोकप्रियता हासिल करें। ऐसे में इसका तेवर बदल गया। यह ग़ज़लें केवल मनोरंजन या शौक का जरिया नहीं रहीं बल्कि मनुष्य की विडम्बनाओं एवं सामाजिक अराजकता, असहिष्णुता और भौतिकतावदी मनोविकारों का सही-सही चित्र उकेरना इनका मूल उद्देश्य बना। इसलिए चीमा लिखते हैं-
         " बहुत जी लिए इन अंधेरों से डरकर 
           चलो देख लें काली रातों से लड़कर।"
 इसमें सबसे अधिक नुकसान मनुष्यता का हुआ -
         " जैसे तैसे बचा रह गया 
         आदमी और क्या रह गया" 
अपनी कहन एवं शैली के माध्यम से सामाजिक-बोध और जीवन-मूल्यों को सहेजने के लिए ग़ज़लकारों ने जिस आत्मसंघर्ष को अपनाया है, उसकी पड़ताल उदारता के साथ ही मुमकिन है। एक रचनाकार का संवेदन ही उसे सचेत और बेबाक बनाता है । विनय मिश्र की यह पंक्तियाँ क़ाबिल-ए-ग़ौर है -
       " ख़ुद में अपने से ही छूटकर 
         भीड़ में हर दफ़ा रह गया " 
 इन ग़ज़लों को पढ़ना और समझना अपने आप में अनुभव से गुजरते हुए परिपक्व होना है। इस दौर के ग़ज़लकारों की ख़ूबी यही है कि उनकी सृजनात्मकता का चेहरा निहायत व्यक्तिगत है, लेकिन इनमें गहरे उतरते जाएँ तो धीरे-धीरे वक़्त का अक्स उभरने लगता है। इन्होंने काल्पनिक सृजन-संसार की बजाय दुनिया की असलियत एवं गहरे जड़ जमाए हुए कुरीतियों और त्रासदियों को ग़ज़लों के लिए चुना। हरेराम समीप की लिखी यह पंक्तियाँ सोचने पर मजबूर करती हैं-
  " इस सियासत की गिनाऊ और क्या उपलब्धियां 
    त्रासदी- दर - त्रासदी -दर -त्रासदी -दर  त्रासदी " 
व्यंग्य मुस्कुराता हुआ है तो कहीं-कहीं यही व्यंग्य अधिक तल्ख और आक्रामकता के साथ हालातों को रखता है। अधिकतर विडंबनापूर्ण उक्तियाँ समय की जटिलता को व्यक्त करते हुए पाठकों को उत्तेजना और चिन्तन के लिए मजबूर करती हैं। अदम गोंडवी आक्रोश और आवेग- संपन्न रचनाकार हैं। उनका काव्यादर्श एक तीखी टिप्पणी बन पाठकों के भीतर बौखलाहट पैदा करता है। वह लिखते हैं- 
         "जी में आता है आईना को जला डालूँ
         भूख से जब मेरी बच्ची उदास होती है 

          जनता के पास एक ही चारा है बगावत
           ये बात कह रहा हूं होशो हवास में"
बगावती तेवर के साथ अपने अभाव एवं फकीरी में भी रचनाकार लिखता है और बिगुल फूंकता है कि अब हाथ पर हाथ धरे बैठने से कुछ ना होगा। अदम गोंडवी की ग़ज़लों में बेचैन आत्मा का संघर्ष पूरी शिद्दत और प्रमाणिकता के साथ मौजूद है। तेवर, मिज़ाज और कहन में तल्ख और आक्रोश एवं  विक्षुब्धता का गरजता स्वर है। उनकी ग़ज़लों में यथार्थ का स्वरूप अधिक आक्रामक और परिवर्तनकारी रहा है। यही वज़ह है कि अपने पूर्ववर्तियों और समकालीनों से अलग नज़र आते हैं ।सत्ता पर ,व्यवस्था पर काबिज़ अयोग्य एवं शोषकों को चुनौती देना होगा, तभी स्थितियाँ बदल सकती हैं, यह स्वर उनकी गज़लों  की पहचान है-
          " घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। 
            बताओ कैसे लिख दूं धूप फागुन की नशीली है।।
             ×            ×                ×                   ×
     बगावत के कमल खिलते हैं दिल की सूखी दरिया में।
     मैं जब भी देखता हूं आंख बच्चों की पनीली है ।।"्र
इस अभिव्यक्ति से यथार्थ की पेशानी पर भी बल पड़ जाए। अनुभवों की तीखी चुभन और टीस अदम गोंडवी की रचनाओं की ज़मीन है -
       " सदन को घूस देकर बच गई कुर्सी तो देखोगे। 
         अगली योजना में घूसखोरी आम कर देंगे।।" 
अदम गोंडवी विकृत सामाजिक व्यवस्था एवं अवयवों का खाका अपनी ग़ज़लों में रूपायित करते हैं जो वास्तव में विकृत और कुरूप हो चुके हैं। कभी कठिन परिस्थितियां रचनाकार को जन्म देती है तो कभी यही रचनाकार अपनी लेखनी की ताक़त से विश्वव्यापी परिवर्तन का कारण बनता है। सब कुछ सहने और चुप रहने की फ़ितरत पर अदम बौखला जाते हैं और फिर कहते हैं-
      " नीलोफर शबनम नहीं अंगार की बात करो
        वक्त के बदले हुए मेयार की बातें करो 

        भाप बन सकती नहीं,पानी अगर हो नीम गर्म
        क्रांति लाने के लिए हथियार की बातें करो। 
अदम गोंडवी यहीं तक नहीं रुकते, वह गाँधी की नीतियों पर भी सुबहा और सवाल करते हुए कहते हैं-
      " लगी है होड़-सी देखो अमीरों और गरीबों में
        यह गांधीवाद के ढांचे की बुनियादी ख़राबी है

      तुम्हारी मेज चांदी की तुम्हारे जाम सोने के 
     यहां जुम्मन के घर में आज भी फूटी रकाबी है"
अदम तल्खी और तेज़ाबी तेवर में दुष्यंत कुमार से एक क़दम आगे हैं। दुष्यंत की ग़ज़लों में जीवन की इसी असामानता, असहिष्णुता, अव्यवस्था, अराजकता , अनैतिकता से भिड़ने की पूरी वफ़ादारी मिलती है।
   " हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए "
लेकिन अदम गोंडवी के यहाँ यह चिंगारी पाठकों  को परिवर्तनकारी निष्कर्ष तक पहुँचाता है, जो शुरुआत की चिंगारी दुष्यंत कुमार देते हैं। अदम के यहाँ वह आग अधिक जनप्रिय होकर हर दिल में घर कर गयी है- 
     "जामो -मीना की खनक से थी ये वाबस्ता जरूर 
        देखिए अब जिन्दगी की तजुर्मानी है ग़ज़ल। "
आज़ादी के बाद जिस समृद्ध और विकसित समाज और देश की परिकल्पना की गई थी, वह चंद स्वार्थी तत्वों और सत्तासीन शासकों की महत्त्वाकांक्षाओं की भेंट चढ़ गयी।
       "कैसा सम्मोहन है उसकी बातों में 
        नेता तो पूरा जादूगर लगता है " 
क्या यह वर्तमान का यथार्थ नहीं है ! एक ऐसा यथार्थ,  जहां लोकतंत्र के नाम पर हम इस्तेमाल हो रहे हैं और चंद मुठ्ठी भर तथाकथित देश के कर्णधार बनते यह नेता अपनी चिकनी चुपड़ी बातों से झांसे में लेकर हमारे अधिकारों एवं हितों का दोहन करते हैं और हम उनकी गिरफ्त में आ जाते हैं। हमारी स्थिति ऐसी है जैसे ' बहेलिया आएगा दाना डालेगा, फंसना नहीं'। लेकिन हमारी विडंबना है कि बहेलिया आता है, दाना डालता है, इसे रटते, समझते हुए भी हम 'फंस' जाते हैं। इस मुद्दे से ताल्लुक रखती महेश कटारे सुगम जी की ग़ज़ल भी स्वागत योग्य है-
      " बेईमान ख़िदमतगारों  से क्या होगा 
        लोक तंत्र के हत्यारों से क्या होगा " 
यह ग़ज़ल भी  समय को बताती है- 
     फट जाएंगे एक रोज़ शिक़म अहले हवश
     जनता का ये लोग बजट खाने में लगे हैं।" 
 विकास के नाम पर पूंजीवादी ताकतों का बंदरबांट, महत्वाकांक्षाओं एवं जरूरतों के बीच से मिटता भेद, आम जनजीवन को कितना खोखला और मूल्यरहित करता जा रहा है, इसकी बेचैनी इन पंक्तियों में देखी जा सकती है -
         "उन्हें पटरी बिछानी है, उन्हें सड़कें बनानी है
         तेरी खेती छिने या घर,उन्हें क्या फ़र्क पड़ता है।
राम नारायण हलधर की यह पंक्तियाँ भी समय की भयावहता को उजागर करती हैं। बेबसी और लाचारी का बड़ा मार्मिक चित्र पेश करते हैं अपनी ग़ज़लों में।अलग-अलग भाव-भूमि को लेकर ताज़गी और टटकेपन को बरकरार रखते हुए विभिन्न ग़ज़लगो ने बड़ी साफ़गोई से स्थितियों को उद्घाटित किया है। 
          "  श्रद्धा हो तो पत्थर शंकर लगता है 
             वरना शंकर में भी पत्थर लगता है।"
 लवलेश दत्त की इन पंक्तियों में लोक-जीवन में तैरता एक बंद 'मानो तो देव नहीं तो पत्थर' की स्मृतियों में ले जाता है। इसे जरा नए रूप में उतार कर अपनी लोक संस्कृति एवं आस्था को सहेजने का यह हुनर सराहनीय है। उनकी एक और ग़ज़ल की यह पंक्तियाँ बहुत स्पष्ट शब्दों में मौज़ूदा वक़्त को हमारे सामने रखती है-
      " रोटी कपड़ा घर को भूले 
        अब मंदिर-मस्जिद मुद्दा है " 
इतनी बेबाकी और स्पष्टता के साथ सृजन करना उसकी विश्वसनीयता को चिन्हित एवं सूचित करता है। यही वज़ह है कि रचनाकार को किसी खास विचारधारा अथवा खेमे से ताल्लुक न रखकर समसामयिक गतिविधियों एवं कार्यान्वयनो का सटीक परख होना, उसे दृष्टि संपन्न एवं कृतियों को कालजई बनाता है। हालातों को समझते हुए परिस्थितियों के साथ समझौते के लिए  विवश होने को इन पंक्तियों में बखूबी देखा जा सकता है-
      "अपनी शर्तों पर जीने का मंजर नहीं रहा
        जिंदा रहना अब अपने पर निर्भर नहीं रहा"
 मौजूदा दौर एक संवेदनशील व्यक्ति के लिए किसी बड़ी विडंबना और विफलता के रूप में उपस्थित है। यह पंक्तियां साफ़तौर पर जता रही हैं। विषम परिस्थितियों से निर्मित खुरदरी ज़मीन पर विनय मिश्र की ग़ज़लें कहीं खिलखिलाती, कहीं मुस्कुराती तो कहीं उग्र तेवर का मिज़ाज लेकर प्रस्फुटित हुई हैं।
       "यह समय का खुरदुरापन है इसी पर तो 
       मेरी ग़ज़लों की उगी हैं मखमली घासें
        ×              ×        ×                 ×
       लड़ाई हार भी जाऊं मगर संघर्ष बोलेगा 
      मेरी ग़ज़लों में गूंगा देश भारतवर्ष बोलेगा "
मुलायमियत के साथ संघर्ष की चिंगारी को अपने भीतर जोगा कर रखती यह ग़ज़लें अपने उद्देश्यों को पुख्ता करती हैं, साथ ही आने वाली पीढ़ियों को समसामयिक अराजकता एवं व्यवस्था पर प्रतिरोध करने का हौसला देती हैं- 
     "हमारा काम है बाज़ार में भी आदमी गढ़ना 
      तुम्हारा काम घर आंगन को भी बाज़ार करना है"
उपनिवेशवादी ताकतों का फैलाव, बाज़ारवादी संस्कृतियों के हाथों हमारे सपने गिरवी रखे जा चुके हैं। विनय मिश्र आत्मसजग ग़ज़लगो हैं 
      "अपने घर में ही किराएदार हूँ 
      सोचिए मैं किस क़दर लाचार हूं"
भौतिकवादी मनोवृति आज इतना हावी हो चुकी है कि अपनी जरूरतों एवं महत्वाकांक्षाओं के बीच की खींची महीन लकीर को समझ पाने में पूर्णता असफल हो चुके हैं। नतीजा मनुष्य अकेलापन, हताशा और कुंठा का शिकार हो चुका है। अपनी अस्मिता को खोकर, संवेदनहीन हो मशीन बनता जा रहा है। इसलिए वह लिखते हैं -
             "यह आदमी जितना पढ़ो 
              पहचान में आता नहीं"

          बस किसी उम्मीद का था आसरा 
          इसलिए मैं टूट कर बिखरा ना था"
समय बार -बार अपने विद्रूप शक़्ल व सूरत में  बेढब और आक्रामक रूप से अलग-अलग ग़ज़लों में रूपायित होता  आया है ।ज़हीर कुरैशी की ग़ज़लों में समय का संत्रास, मनुष्य की जड़ता, एकाकीपन, मानसिक द्वंद, राजनीतिक पैतरेबाजी ,उपभोक्तावादी दबाव, बाज़ार का फैलता मकड़जाल का जटिल यथार्थ पेश करता है-
      "कितने हज़ार डर हैं हर एक आदमी के साथ
      क्या आपको भी आपके डर का पता लगा?"
 डर का यथार्थ कितने पुरज़ोर तरीक़े से मनुष्य से सवाल करता है कि प्रत्येक डरा हुआ व्यक्ति को अपने डर की वज़ह का पता चलता है। डर ,आशंका, हताशा के बीच से हमारी सहज मानवीय रागात्मकता कहीं लुटती जा रही है। अपने द्वारा रचे गए अप्राकृतिक परिवेश का कुछ तो असर रखेगा -
           "यहां हर व्यक्ति है डर की कहानी-
            बड़ी उलझी है अंतर की कहानी"
जीवनानुभूति जितनी गहन होगी, रचना उतनी ही प्रासंगिक एवं असरकारक होगी। ज़हीर कुरैशी ने लिखा है कि-
     " चिन्तन ने कोई गीत लिखा या ग़ज़ल कही
       जन्में हैं अपने आप ही दोहे कबीर के। "
विराट तकनीकी सभ्यता के विकास के समय में भी 'क्या खोया क्या पाया' का मलाल क़ायम रखना होगा। किन मूल्यों को खोकर, किस क़दर खोखला हो रहें हैं। 
     " सत्य का पक्ष लेने के बाद लोग कायर दिखाई दिए
       उस परीक्षा में हर प्रश्न के चार उत्तर दिखाई दिए" 
सत्य का कोई विकल्प नहीं होता है लेकिन आज का दौर की सच्चाई है कि सत्य का भी कई विकल्प है। सबके 'अपने-अपने सच' हैं। मेयार सनेही की कहन की शैली एवं विषय का यथार्थ की बानगी सोचने को विवश करती है-
        "कभी इसका तो कभी उसका निज़ाम आता है 
        देखना यह है कि कब दौरे आवाम आता है"
 ग़ज़ल की यह पंक्तियां लोकतंत्र पर कटाक्ष है। इस लोकतंत्र के दौर-ए-जहाँ में  कुछ भी सुरक्षित और स्थिर नहीं है। इसी तरह दिव्या जैन के अश्आरो  में जीवन का यही कड़वा यथार्थ समय की भयावहता को दर्शाता है-
     "मुझको अब घर से निकलते हुए डर लगता है 
      अब हर एक राम में रावण का बसर लगता है"
इसमें हमारे दौर का वह स्याह सच है,जिसे हम रोज़ सहते हैं और सहते रहने को अभिशप्त हैं।
     "ये रोटी कितनी महंगी है ये वो औरत बताएगी
     कि जिसने जिस्म गिरवी रख के ये कीमत चुकाई है"

वहीं लवलेश जी लिखा है - 
    " भूख से व्याकुल बचपना देखा है 
       हाट में बिकता यौवन देखा है " 
यानी, लगातार सभी संवेदनशील रचनाकारों ने अपने मिज़ाज और अनुभव के तर्ज़ पर समय को मूल्यांकित किया है। ऐसे ही तथाकथित सभ्य समाज का हकीकत बयां करते अदम अपनी लेखनी के दायरों को अधिक विस्तृत करते हुए जहां भूख और गरीबी को चिन्हित करते हैं, वहीं जीवन के फलसफे को भी हमारे समक्ष ला खड़ा करते हैं-
       "आप कहते हैं जिसे इस देश का स्वर्णिम अतीत
        वो कहानी है महज प्रतिशोध की, संत्रास की
          ×                 ×                ×                ×
        इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आखिर क्या दिया 
       सेक्स की रंगीनियाँ या गोलियां सल्फास की।" 
मिटती सभ्यता और घायल संस्कृति का मूल कारण बढ़ता बाज़ारवाद है और चाहे कि अनचाहे आज प्रत्येक व्यक्ति इसकी चपेट में आ गया है-
         " है कोई इन्सान जो उठकर कहे इस बज़्म में 
          मैंने अपने आप को बाज़ार में बेचा नहीं   " 
 कितना दारूण और स्याह पक्ष है हमारी तथाकथित उपलब्धियों का। जीवन का रंग और राग हमेशा के लिए रूठ गये लगते हैं। बाज़ार की रौनक बनती स्त्री, नई पीढ़ी का भटकाव, अतीत का मोह, राजनीति का गिरता स्तर ,समाजवाद का पतन, कामनाओं की अतिशयता, जातीयता और सांप्रदायिकता का बढ़ता विकृत रूप, भाषाई स्तर पर अलगाववाद का हिंसात्मक प्रतिरूप हर ओर विघटन है। ऐसे में किसी भी संवेदनशील व्यक्ति प्रतिरोध का स्वर दबाकर नहीं रह सकता। बल्कि वह गुहार लगाता है - 
            हमसफ़ीरों न तुम ख़ामोश रहना 
             मैं आवाज़ दूँ, तुम आवाज़ देना" 
और उस आवाज़ में असर होता है। आवाज़ आवाज़ को आमंत्रित करती है और वह साथ होने का नमूना पेश करती है माधव कौशिक के अल्फ़ाज में -
          " मेरी तरह उदास थे कुछ लोग भी 
            ऐसा नहीं मैं शहर में तन्हा उदास था"
यह उदासी कई आयामों को ज़ाहिर करती है। यह उदासी है विस्थापन की, खोखलेपन की, चिन्तन की जड़ता की, प्रतिरोध की नपुसंकता की, प्रेम के प्रति एकनिष्ठता की।
     "उस घर से कितनी यादें जुड़ी हैं मैं क्या कहूँ 
      जिस घर में लौटकर मैं दुबारा नहीं गया "
कितनी खलिश है विनय मिश्र की इस पंक्ति में। बाज़ार की चकाचौंध और दो वक़्त की रोटी की तलाश में अपनों से किस क़दर दूर हो गये। लेकिन इन स्थितियों के लिए ज़िम्मेदार लोगों के खिलाफ़ आवाज़ उठाने में भी हिचक अनुभव करते हैं लोग। और प्रतिरोध का मतलब आप अब उनके निशाने पर हैं ।तभी तो पुरुषोत्तम प्रतीक जी ने लिखा है -
     "चाकू के गांव में इंसान की बातें न कर 
      है बहुत खतरा यहां ईमान की बातें न कर "
अब यह आपका नैतिक दायित्व है कि आपको किस का पक्ष लेना है। अराजकता को हवा देंगे अथवा उन्हें रोकने, अंकुश लगाने के लिए अभिव्यक्ति के खतरे उठाएंगे।यह आपका निजी चुनाव है आप किस ओर रूख और करेंगे। इतिहास तो दोनों का लिखा जाना तय है और मनुष्यता एक न एक रोज़ कटघरे में खड़ा करेगी। तभी दुष्यंत को सुझा होगा - 
       "यहां तो सिर्फ गूंगे और बहरे लोग बसते हैं 
       खुदा जाने यहां पर किस तरह जलसा हुआ होगा"
यही आलम आज भी बना हुआ है। तभी मक़बूल मंजर की क़लम आह भरती है-
     "कहने को सलामत हूँ, मगर टूट रहा हूँ 
      हालात के हाथों का खिलौना जो हुआ" 
लेकिन ज़िन्दगी थमती नहीं, उम्मीदें टूटती नहीं। ' वो सुबहो कभी तो आएगी ' साहित्य समाज का प्रतिरूप है, और कल्पना उसमें नई भोर का अस्तित्व तलाशती है। 
यह तभी मुमकिन है जब हमारे भीतर ' जो है उससे बेहतर ' की चिंगारी जगी रहे। दुष्यंत के यहाँ यह भरोसा क़ायम है -
      " एक चिंगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तों 
        इस दीए में तेल से भीगी हुई बाती तो है"।
अमीर खुसरो से होते हुए भारतेंदु से लेकर चली हिंदी ग़ज़ल मुक्तिबोध, शमशेर बहादुर सिंह, दुष्यंत कुमार, नागार्जुन, पुरुषोत्तम प्रतीक ,केदार जी, रामकुमार  कृषक, अदम गोंडवी ,  ज़हीर कुरैशी, हरेराम समीप, बल्ली सिंह चीमा, ज्ञान प्रकाश विवेक, विनय मिश्र जैसे सशक्त ग़ज़लगो ने समय-समय पर मानवीय मूल्यों, वातावरण की संवेदना पर, वैश्विक सौहार्द्र,  सामाजिक समरसता के लिए, ग़ज़लों से सरोकार रखते हुए अभिव्यक्ति की तमाम आग्रहों को अपनाते हुए लेखनी की लंबी और चौड़ी रेखा खींची है। इन तमाम ग़ज़लों में अपने समय का समाज, आम आदमी की अजीयतें, प्रेम का पलायन ,अभावग्रस्त जीवन का संघर्ष, अव्यवस्था, महंगाई, शोषण से अभिशप्त जीवन जीने की बाध्यता को लेकर आए। साथ ही दुष्यंत कुमार ने ग़ज़ल की जो रहनुमाई की उसका अनुकरण करते हुए आगे की पीढ़ियां नए परिदृश्य रचने के लिए, बदलाव के बयार को लाने के लिए प्रतिबद्ध दिखते हैं -
    "दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर
     और कुछ हो या ना हो आकाश-सी छाती तो है"।
निधि सिंह की ग़ज़लों में यही आश्वासन नज़र आता है -
     " बहुत मुमकिन है सोता फूट जाए 
       कई बरसों से हम पत्थर रहे हैं।" 


 परिचय





भारती सिंह 
साहित्यिक गतिविधि- दस्तावेज़, वागर्थ ,पाखी , लहक ,सापेक्ष, वाक ,परिकथा, चौपाल, ककसाड़,  सुबह की धूप आदि पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित ।
संपर्क - नेहरू नगर ,चिनिया रोड, गढ़वा, झारखंड 
822114 
मोबाईल नम्बर- 9955660054

Sunday, July 1, 2018

सऊदी अरब:लम्बे संघर्ष के बाद स्त्रियों को ड्राइविंग की छूट

24 जून 2018 को स्त्रियों को ड्राइविंग से दूर रखने वाला दुनिया का इकलौता देश सऊदी अरब स्त्रियों के लम्बे अहिंसक संघर्ष के बाद अंततः झुक गया और पुरुषों की तरह वहाँ की राजशाही ने सऊदी स्त्रियों को भी अपनी कार चलाने की आज़ादी दे दी - हाँलाकि अभी भी इस्लामी शुद्धता को अक्षुण्ण रखने के नाम पर इसमें अनेक स्त्रीविरोधी शर्तें समाहित हैं। इस से पहले जब जब भी साहसी स्वतंत्रचेता सऊदी स्त्रियों ने प्रतीकात्मक विरोध प्रदर्शन किया उनपर इस्लाम विरोधी, विदेशियों के उकसावे से प्रभावित,अनैतिक और देशद्रोही होने का आरोप लगाया गया। मजेदार तथ्य यह है कि देश के कानून की कोई धारा स्त्रियों को ड्राइविंग करने से नहीं रोकती पर वहाँ इस्लामी नैतिकता की हिफ़ाजत करने वाली पुलिस बीच में आ जाती है और ज्यादातर मामलों में बगैर मुकदमा चलाये आंदोलनकारी स्त्रियों को प्रताड़ित करती है ,हिरासत में रखती है और उनकी आज़ादी का हनन करती है। 24 जून को यह इजाज़त दे तो दी गयी पर पिछले महीने इसकी माँग करने वाली प्रमुख स्त्री अधिकार कार्यकर्ताओं को अब भी हिरासत में रखा गया है - जाहिर है इसका श्रेय शासन स्त्रियों के संघर्ष को नहीं देना चाहती।मीडिया में यह बताया जा रहा है कि इस फैसले से बड़ी संख्या में शिक्षित स्त्रियाँ बाहर निकल कर कामकाज में लगेंगी और सऊदी अर्थव्यवस्था पर इसका सकारात्मक असर पड़ेगा। वास्तविक परिणाम तो आने वाला समय ही बताएगा। डॉ आयशा अलमाना ,डॉ हिस्सा अल शेख और डॉ मदीहा अल अजरूश हर वर्ष नवम्बर के शुरुआती हफ़्ते में पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार वार्षिक मेल मुलाकात के लिए एकत्र होने वाली करीब पचास सऊदी महिलाओं के समूह का हिस्सा हैं जो सऊदी अरब के इतिहास में दर्ज़ हो गये 6 नवम्बर 1990 के ऐतिहासिक विरोध प्रदर्शन की स्मृति ताज़ा करने और विरोध की मशाल जलाये रखने के लिये आयोजित की जाती हैं , "ड्राइवर" लिखे हुए टी शर्ट पहनती हैं और कार का चित्र बना हुआ केक काटती हैं -- वर्षगाँठ के रूप में साल दर साल मनाये जाने वाले वे इस प्रतीकात्मक विरोध प्रदर्शन की फ़ोटो खींच कर एकत्र करती रही हैं।इंटरनेट ,फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल मिडिया में ये तस्वीरें उपलब्ध हैं भले ही सऊदी अरब का शासन उनके ऊपर दमनात्मक शिकंजा कितना भी कसता रहे। सऊदी स्त्रीवादी आंदोलन की जनक मानी जाने वाली डॉ आयशा अलमाना एक शिखर व्यवसायी होने के साथ साथ देश की पहली महिला पी एच डी हैं और किसी शिक्षा संस्थान की पहली प्रिंसिपल भी हैं। समाजशास्त्र के क्षेत्र में उनके शोध का विषय भी सऊदी महिलाओं का आर्थिक उत्थान ही था। "फ़ोर्ब्स मिडिल ईस्ट" पत्रिका ने उनको अपना खानदानी व्यवसाय चलाने वाली पाँचवीं सबसे प्रभावशाली अरब महिला के रूप में नामित किया। डॉ शेख यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर हैं और डॉ अजरूश स्त्री अधिकार ऐक्टिविस्ट होने के साथ साथ देश की जानीमानी फ़ोटोग्राफ़र भी हैं। डॉ आयशा, डॉ शेख और डॉ अजरूश ने मिलकर नवम्बर 1990 के ऐतिहासिक ड्राइविंग प्रतिरोध प्रदर्शन पर एक संस्मरणात्मक किताब लिखी है जो मार्च 2014 के रियाद बुक फ़ेयर में हॉट केक की तरह बिकी (फ़ोटो )-- सऊदी अरबिया की निर्भीक ब्लॉगर ईमान अल नफ़्ज़ान इस किताब का अरबी से अंग्रेज़ी अनुवाद कर रही हैं। इसका एक छोटा सा अंश उन्होंने saudiwoman.me ब्लॉग ने पोस्ट किया है -- यहाँ पाठकों के लिए उसका हिंदी अनुवाद प्रस्तुत है।
प्रस्‍तुति : यादवेन्‍द्र


6 नवम्बर 1990 को दोपहर बाद के करीब ढ़ाई बजे की बात है ,सेफ़ वे सुपर मार्किट की पार्किंग में ढेर सारी महिलायें एकत्रित होने लगी थीं। उनमें से कुछ को उनके ड्राइवर वहाँ ले के आये थे और कुछ को उनके शौहर या बेटे --- पार्किंग के अंदर पहुँच कर चाहे ड्राइवर हो या शौहर या बेटा ,सबने गाड़ी महिलाओं के हवाले कर दी। देखने से साफ़ मालूम हो रहा था कि कारों की संख्या की तुलना में महिलाओं की उपस्थिति कहीं ज्यादा थी -- कुल जमा चौदह कारें थीं जबकि विरोध प्रदर्शन में भाग लेने के लिए सैंतालीस महिलायें।ऐसा नहीं था कि सब एक दूसरे से परिचित सखियाँ सहेलियाँ ही थीं ,बल्कि उनमें से अनेक ऐसी थीं जो एक दूसरे से पहली मर्तबा मिल रही थीं। जिन जिन महिलाओं के पास सऊदी अरबिया के बाहर के  देशों से प्राप्त कानूनी ड्राइविंग था वे एक एक कर स्टीयरिंग सँभाल कर बैठ गयीं और दूसरी औरतें साथ देने के लिए बगल और पीछे की सीटों पर बैठ गयीं।दोपहर बाद की नमाज़ (जौहर) की अज़ान जैसे ही शुरू  महिलाओं ने अपनी अपनी गाड़ियाँ स्टार्ट कर दीं। उन सभी महिलाओं के ड्राइवर ,शौहर और बेटे पूरी खामोशी से पार्किंग में खड़े खड़े सबकुछ देखते रहे।इस आंदोलन की सरलता और सच्चाई ने इन महिलाओं को एक दूसरे के प्रति इतना भरोसा दिला दिया था कि वे एक तरह के श्रद्धाभाव में आकर साझा विरोध प्रदर्शन का साहस जुटाने में सफल रहीं। एकसाथ नहीं बल्कि एक के पीछे दूसरी ,तीसरी,चौथी …गाड़ी चली।कारों के इस काफ़िले में सबसे आगे आगे वफ़ा अल मुनीफ़ की कार चल रही थी .... डॉ आयशा अलमाना उनके पीछे पीछे थीं।किंग अब्दुल अजीज़ स्ट्रीट से शुरू होकर यह काफ़िला ओरोबा स्ट्रीट तक गया ,फिर बाँयी तरफ़ मुड़ गया और थालाथीन स्ट्रीट पर आ गया। वहाँ लाल बत्ती होने के कारण काफ़िला थोड़ा धीमा हुआ। इस दरम्यान कई बार आगे की कारें इसलिए धीमी हुईं कि पीछे वाले साथ आ जाएँ -- उन्होंने शुरू में ही साथ साथ चलने और रहने का फैसला किया था। कार चलाती महिलाओं को पैदल राह चलते लोग और दूसरी गाड़ियाँ चलाते लोग भरपूर अचरज के साथ मुड़ मुड़ कर देख रहे थे .... उन्हें अपनी आँखों पर विशवास नहीं हो रहा था, वे सदमे में थे पर कुछ कर नहीं पा रहे थे -- हतप्रभ होकर ताकते रहे। 


बागी तेवर अपनाये हुए ये महिलायें इस बात से उत्साहित थीं कि पुलिस ने उनको कहीं रोक नहीं … या यूँ कहें कि उनकी तरफ आँखें उठा कर नहीं देखा। नेतृत्व कर रही महिलाओं ने एक और चक्कर लगाने का निश्चय किया .... पर  जैसे ही दूसरा चक्कर शुरू हुआ पुलिस एकदम से हरकत में आ गयी- हाथ देकर गाड़ियों के काफ़िले को रोक दिया। रियाद पैलेस फंक्शन हॉल के सामने किंग अब्दुल अजीज़ स्ट्रीट पर एक एक कर सभी कारों को रोक दिया गया। पुलिस के पीछे देखते देखते धार्मिक पुलिस (आधिकारिक नाम ,कमीशन फॉर द प्रमोशन ऑफ़ वर्च्यू एंड प्रिवेंशन ऑफ़ वाइस ) के लोग जत्था बना कर खड़े हो गये। 
पुलिस ने महिलाओं की गाड़ियों का काफ़िला रोकने के बाद सबसे पहला काम यह किया कि एक एक कर ड्राइविंग सीट पर बैठी सभी महिलाओं से उनके ड्राइविंग लाइसेंस माँगे। आगे बढ़ कर एक महिला ने तपाक से अमेरिका में हासिल किया हुआ अपना ड्राइविंग लाइसेंस थमा दिया -- इस अप्रत्याशित घटना के लिए वह तैयार नहीं था ,सो घबरा कर वह अपने अफ़सर को बुलाने अंदर चला गया।उसके पीछे पीछे पुलिस के आला अफ़सर तो आये ही धार्मिक पुलिस के लोग भी सामने आ खड़े हुए। दोनों के बीच इस बात को लेकर खींच तान होने लगी कि उन महिलाओं के साथ कौन निबटेगा -- धार्मिक पुलिस के अफ़सर महिलाओं को अपने कब्ज़े में रख कर जाँच करना चाहते थे। महिलायें इसके लिए बिलकुल तैयार नहीं हुईं ,न ही पुलिस अफ़सर उन्हें धार्मिक पुलिस को सौंपने के लिए राज़ी हुए। " 
कट्टरपंथी सत्ता को खुले आम चुनौती देने वाले इस प्रदर्शन का नतीज़ा यह हुआ कि इसमें भाग लेने वाली नौकरी पेशा महिलाओं और उनके पतियों को गिरफ़्तार कर लिया गया और जेल से छूटने पर नौकरी से या तो निकाल दिया गया या प्रताड़ित किया गया।सार्वजनिक तौर पर अपमानित किये जाने का सिलसला अबतक चल रहा है पर स्वतंत्रचेता स्त्रियों के हौसले पस्त नहीं पड़े। थोड़े थोड़े समय बाद प्रतीकात्मक विरोध की ख़बरें निरंतर आती रहीं। कुवैत पर इराकी कब्ज़े के समय जब पूरा अरब जगत भयभीत था ,एकबार फिर सऊदी महिलाओं ने सामूहिक तौर पर ड्राइविंग का प्रदर्शन कर के कठमुल्लेपन को चुनौती दी -- उनका तर्क था कि पुरुषों को  लड़ाई के लिए पूर्णकालिक तौर पर उपलब्ध कराने के लिए यह ज़रूरी है कि महिलाओं को अपना कामकाज संपन्न कर सकने के लिए ड्राइविंग करने की इजाज़त दी जाये।   
प्रतिकार के इस ऐतिहासिक प्रदर्शन के इक्कीस साल बाद मक्का के पवित्र शहर में जन्मी युवा इंजिनियर मनल अल शरीफ़ ने 2011 की गर्मियों में जब सारा मध्य पूर्व लोकतंत्र की माँग करते हुए युवा विद्रोह की ज्वाला में धू धू कर जल रहा था तब सऊदी अरब की स्त्रियों की आज़ादी के लिये प्रतीकात्मक तौर पर खुली सड़क पर घंटा भर कार चला कर एक बार फिर से बड़ा धमाका कर दिया -- पहले अकेले और दूसरी बार भाई के साथ बैठ कर कार चलाने का कारनामा मनल ने इसबार रियाद में नहीं पूर्वी राज्य खोबर में किया। उनको इस "गुस्ताख़ी"के लिए न सिर्फ़ बार बार गिरफ़्तार किया गया बल्कि "अरामको" जैसी बड़ी कम्पनी की सम्मानित नौकरी से निकाल दिया गया। जेल से रिहाई के लिए शासन तब तैयार हुआ जब मनल के पिता स्वयं सऊदी अरब के बादशाह  के दरबार में माफीनामे के साथ हाज़िर हुए। एक गैर अरबी युवक से शादी के लिए शासन ने उनको अनुमति नहीं दी तब उनको देश छोड़ कर दुबई में नौकरी लेनी पड़ी -- हर हफ़्ते वे दुबई से पहली शादी से हुए बेटे से मिलने सऊदी अरब आती हैं। बाद में वे ऑस्ट्रेलिया जाकर बस गयीं। 
मई 2011 में खुले आम सऊदी सड़कों पर गाड़ी चला कर तूफ़ान खड़ा कर दीं वाली मनल कहती हैं : "मेरे आसपास सभी लोग सऊदी औरतों के ड्राइविंग पर लगे प्रतिबन्ध की आलोचना तो करते थे पर आगे आने को कोई तैयार नहीं था … उनदिनों अरब बसंत की चर्चा और हवा चारों ओर फ़ैल रही थी ,सो मुझे लगा कि घर में बैठे बैठे स्थितियों को कोसते रहने का कोई फायदा नहीं.... करना है कुछ तो इसी समय करना है ,अब और इंतज़ार नहीं .... कोई न कोई तो होगा ही जिसको अगुआई करनी होगी ,दीवार ध्वस्त करनी होगी कि अब देखो ,क्या हुआ जो तुमने खुली सड़क पर गाड़ी चला दी … ऐसा करने पर कोई रेप थोड़े कर देगा। "
आगे मनल बताती हैं कि जब पुलिस ने उनको रोका और बोला :"ऐ लड़की ,ठहरो और गाड़ी से उतर  कर  बाहर आओ .... इस मुल्क में औरतों को गाड़ी चलाने की इजाज़त नहीं है। " मैंने पूछा :"मेहरबानी कर के मुझे बतायें मैंने कौन सा कानून तोड़ा है ?"
इसका जवाब किसी के पास नहीं था ,वे सिर्फ़ यह बोले :"तुमने कोई कानून नहीं तोड़ा ....पर चलन / परिपाटी का उल्लंघन किया है। "
अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए व्यापक जान समर्थन जुटाने के लिए उन्होंने woman2drive अभियान की शुरुआत की। शासन के प्रतिबंधों का उल्लंघन करने के लिए उन्हें महीनों जेल में रहना पड़ा। माँ पिता और बेटे के सामने मनल को सार्वजानिक तौर पर वेश्या कह कर पुकारा गया - माँ जब इससे आहत होकर बेटी से अपना रास्ता बदल देने का आग्रह करतीं तो मनल का एक ही जवाब होता कि जिस दिन सऊदी सरकार पहली औरत को ड्राइविंग लाइसेंस जारी करेगी उस दिन मैं अपना अभियान रोक दूँगी। उनकी मौत की झूटी अफ़वाह भी फैलाई गयी। ड्राइविंग के अतिरिक्त सऊदी शासन के अनेक दमनात्मक कानूनों की उन्होंने खुली मुख़ालफ़त की। उन्हें इन प्रताड़नाओं के कारण अपना देश छोड़ कर जाना पड़ा ,अब वे ऑस्ट्रेलिया में रहती हैं। उनका कहना है कि पिछले कुछ वर्षों से मेरे दो चेहरे हैं - मेरे अपने देश में मैं एक विलेन हूँ - एक ऐसी गिरी हुई औरत जो धर्म को चुनती देती है इसलिए घृणा का पात्र है। पर बाहर की दुनिया में मैं एक हीरो हूँ। 
मनल को अपूर्व साहस का परिचय देने के लिए 2012 के ओस्लो फ्रीडम फ़ोरम में व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया गया और क्रियेटिव डिसेंट के हेवेल प्राईज़ से नवाज़ा गया। टाइम पत्रिका ने उन्हें 2012 में दुनिया के सर्वाधिक प्रभावशाली लोगों के समूह में शामिल किया है। अपने देश लौटने पर उनपर आक्रमण और तेज हो गए और अंततः नौकरी से हाथ धोना पड़ा। उनके इन संस्मरणों की किताब "डेयरिंग टु  ड्राइव:ए सऊदी वुमन्स अवेकेनिंग" (2017)  दुनिया के एक बड़े प्रकाशन से छप कर आ चुकी है जिसके अनेक भाषाओँ में अनुवाद हुए हैं।  

Friday, November 10, 2017

खाने में जो भी स्वाद था, सब नमक की वजह से था



यह एक स्‍वीकृत सत्‍य है कि नाटक एक्‍टर का माध्‍यम है तो फिल्‍म डाइरेक्‍टर का। लेकिन फिल्‍म एवं नाटकों की दुनिया का यथार्थ जो तस्‍वीर बनाता रहा है, वह तस्‍वीर कुछ भिन्‍न प्रभाव छोड़ती रही है। इधर यह भिन्‍नता कुछ ज्‍यादा चमकीली हुई है। हिन्‍दी नाटकों की दुनिया में यह रौशनी कई बार तडि़त की सी चौंध बिखेरती हुई है। नाटकों की दुनिया में उभरते सिद्धांत और व्‍यवहार के ये अन्‍तर्विरोध कोलकाता में आयोजित हुए राष्‍ट्रीय नाटय महोत्‍सव ‘जश्‍न-ए-रंग’ में प्रदर्शित हुए नाटकों में भी दिखायी देते रहे। 

‘जश्‍न-ए-रंग’ कोलकाता की नाट्य संस्‍था लिटिल थेस्पियन के प्रयासों का सातवां क्रम था। पिछले कुछ वर्षों से लिटिल थेस्पियन, कोलकाता द्वारा आयोजित होने वाले ऐसे जलशों में देश भर की कई नाट्य मण्‍डलियां कोलकाता पहुंचती रही हैं। इस बार, 3 नवम्‍बर से 8 नवम्‍बर 2017 तक आयोजित हुए इस नाट्य उत्‍सव में लिटिल थेस्पियन के अलावा जम्‍मू से ‘एमेच्‍योर थियेटर ग्रुप’, इलाहाबाद से ‘बैक स्‍टेज’, नई दिल्‍ली से ‘पीपुल्‍स थियेटर’ एवं बेगुसराय से ‘आशीर्वाद रंगमण्‍डल‘ नाट्य दलों की उपस्थिति रही। इस उत्‍सव की विशेषता थी कि नाटकों के साथ रंग के अन्‍य प्रयोग जैसे किस्‍सा कहानी, नुक्‍कड़ एवं कहानी पाठ जैसी अन्‍य गतिविधियां उत्‍सव का मंच बनी। कोलकाता के बाशिंदे एवं गुजराती भाषा के कलाकार- दिलीप दवे एवं दिनेश वडेरा, मॉरिसस के कलाकार- लीलाश्री, शावीन, शाबरीन एवं वोमेश, पटना से दिनकर एवं बहुत से अन्‍य कलाकारों ने इस तरह की गतिविधियों से 6 दिन तक चले इस उत्‍सव को यादगार बनाने की पहलकदमी में अपनी भूमिका निभायी। 6 दिवसीय इस आयोजन में एक नाटकों के विकास में अखबारों एवं शिक्षण संस्‍थानों की भूमिका पर भी विचार विमर्श हुआ। प्रबंधन के कौशल के पेशेवराना अंदाज के कारण भी लिटिल थेस्पियन का यह एक महत्‍वपूर्ण आयोजन कहा जा सकता है। हर दिन के कार्यक्रम की जानाकारी को फोन एवं एसएमएस के माध्‍यम से दर्शकों तक पहुंचाने और सीधे सम्‍पर्क बनाये रखने वाले लिटिल थेस्पियन के युवा कार्यताओं की भूमिका इस मायने में उल्‍लेखनीय रही। ध्‍यान रहे कि लिटिल थेस्पियन, कोलकाता शौकिया रंगकर्मियों की संस्‍था है जो अपने सीमित साधनों से बांगला भाषी कोलकाता में लगातार हिन्‍दी नाटकों का पक्ष प्रस्‍तुत करती रहती है।  



नाट्य समारोह के दौरान मंचित हुए नाटकों पर अलग अलग बात करने की बजाय एक लय में बहती उस समानता को देखें जो हिंदी नाटकों का वर्तमान हो रही है तो मन में यह सवाल बार--बार  उठ रहा कि कलाकारों के माध्‍यम नाटक में सिद्धांत और व्‍यवहार का यह अन्‍तर्विरोध क्‍यों उभर रहा है कि प्रमुखता निर्देशन को ही मिलती जा रही है और कलाकार हाशिए में होता जा रहा है ?

सवाल के जवाब को ‘जश्‍न-ए-रंग’ में प्रदर्शित हुए नाटकों की मूर्तता में तलाशते हुए देखा जा सकता है कि तकनीक के विकास ने नाटय निर्देशकों को सहूलियत दी है कि वे दृश्‍य जिन्‍हें पहले कभी मंचित कर पाना मुश्किल था, आज उन्‍हें भी मंचित करना आसान हुआ है। इस तरह से देखें तो यह सुखद स्थिति होनी चाहिए थी, लेकिन कुछ ही मामलों में ऐसे सुखद क्षणों के बावजूद इसने अभिनेता की स्‍वतंत्रता का ही हनन किया है। उन्‍नत तकनीक के प्रयोग से रचे जा रहे दृश्‍यबंधों ने निर्देशक को तो स्‍थापित करने में भूमिका निभायी है लेकिन प्रयुक्‍त तकनीक से सामंजस्‍य बैठाने की चिंता में ही उलझे अभिनेता को अपने पात्र में कन्‍स्‍ट्रेट होकर अभिनय करने की स्‍वतंतत्रा में बाधाएं भी खड़ी की है। परिणमत: निर्देशकों के व्‍यवहार में एक अजीब तरह की अराजकता के साथ अतिमहत्‍वकांक्षा ने भी जन्‍म लिया है। ‘जश्‍ने-ए-रंग’ के तीसरे दिन मंचित हुए ‘एमेच्‍योर थियेटर ग्रुप’, जम्‍मू के नाटक ‘द चेयर्स’ के बाद चचिर्ति निर्देशक मुश्‍ताक काक का यह कहना इस बात का गवाह है। जब वे कहते हैं, ‘’चीयर्स एक एब्‍सर्ड नाटक है और मैं हमेशा ऐसे ही नाटकों की तलाश में रहता हूं। हां, मेरे ये कलाकार जरूर मुझे हमेशा टोकते हैं कि कभी इनसे हटकर भी करूं। लेकिन मुझे तो यही पसंद हैं।‘’ इस वक्‍तव्‍य के साथ आत्‍मश्‍लाघा से भरी मुश्‍ताक काक की हंसी की आवाज भी सुनायी देती है। यूं कलाकारों के अभिनय के लिहाज से यह खूबसूरत प्रस्‍तुति थी।

‘द चेयर्स’ फ्रांसिसी नाटककार यूजिन ने लगभग पचास के दशक में लिखा है। नाटक की कथा एक निर्जन द्वीप में एकाकी जीवन बिताते एक बूढ़े दम्‍पति की है। एकाकीपन ने जिन्‍हें एक सामान्‍य मनुष्‍य भी नहीं रहने दिया है। समाज की वास्‍तविकता से कटे होने के कारण वे कुछ कुछ पगलेट तरह के असमान्‍य व्‍यवहार में जीने को मजबूर हैं। यूजिन जिस वक्‍त इस नाटक को लिखा, उस वक्‍त का फ्रांसीसी साहित्‍य अस्तितवादी के दर्शन के पक्षधर ज्‍या पॉल सात्र से प्रभावित है। अस्तित्‍ववाद के साथ अपने वर्तमान को अमूर्तता में देखने का वह दौर द्वितीय विश्‍वयुद्ध की निराशा और पस्‍ती में मनुष्‍य के जीवन को ही उददेश्‍य विहीन एवं निर्थक मानता रहा है। अस्तित्‍ववादी एवं अमूर्तता के पक्षधर मानते रहे हैं कि विश्‍व की अमूर्तता (जटिलता) का कोई तार्किक हल नहीं। आज जब दुनिया की जटिलताएं उतनी अमूर्त नहीं रह गई हैं, ‘द चेयर्स’ का मंचन करते हुए आत्‍मगौरव से भरे रहने का कारण समझ नहीं आता। इसे विशिष्‍टताबोध से भरे निर्देशक को कसने वाली अतिमहत्‍वाकांक्षा क्‍यों न माना जाए ? यद्यपि यह नाटक निर्देशक की उपरोक्‍त वर्णित प्रश्‍नांकिकता के बावजूद तकनीक के अतिश्‍य प्रयोग के बोझ से न दबी होने के कारण कलाकारों को अभिनय करने की पूर्ण स्‍वतंत्रता देती हुई थी। नाटक के दोनों ही कलाकारों ने उस अवसर को भरसक ही उपयोग किया। फिर भी अपने निर्देशक के उपरोक्‍त वक्‍तव्‍य पर उनके चेहरे पर भी एक थका देने वाली मुस्‍कान ही बिखरती रही। यह नाटक की समाप्ति पर मंच पर घट रही एक ऐसी वास्‍तविकता का नाटक था जिसकी अनुगूंज अतिमहत्‍वाकांक्षा की डोर के सहारे उड़ायी जाने वाली पतंग की सरसराहट में मंचन के सफल प्रयोग को कलाकारों की सामूहिकता में देखने की बजाय निर्देशक को प्राथमिक बना दे रही थी।

यह देखना दिलचस्‍प है कि नाटकों में विकसित तकनीकी के जिन प्रयोगों ने निर्देशकों को महत्‍वपूर्ण बनाया हैं, फिल्‍मों की दुनिया में वही तकनीक कलाकारों की भूमिका को ही महत्‍वपूर्ण रूप से स्‍थापित करने में सहायक हुई है। कलाकार की सुक्ष्‍म से सुक्ष्‍म अभिव्‍यक्ति को उभारने में वही मददगार है। जिसके प्रयोग में जबकि निर्देशक की निगाहें ही प्रमुख एवं निर्णायक होती हैं। नाटक हो चाहे फिल्‍म, दर्शकों से सीधे मुखतिब होने का अवसर तो कलाकार के पास ही रहता है। यही वजह है कि प्रयोग की जा रही तकनीक का सीधा प्रभाव भी कलाकार की अदाकारी पर ही पड़ता है। इलाहाबाद की नाट्य संस्‍था ‘बैक स्‍टेज’ प्रवीण शेखर के निर्देशन में भुवनेश्‍वर की कहानी ‘भेडि़ये’ का नाटय रूप ‘खारू का किस्‍सा’ मंचित करती है। दृश्‍य गंभीर है और कलाकार भरसक प्रयासों के साथ अभिनय करता है। भेडि़यों के हमले से खुद की जान बचाने के लिए बाप और बेटे के पास हथियारों का जखीरा खत्‍म हो चुका है। भेडि़ये हैं कि झुण्‍ड के रूप में दौड़ते चले आ रहे हैं। गाड़ी को खींचते बैल सरपट दौड़ते चले जा रहे हैं लेकिन भेडि़यों को पछाड़ना मुश्किल है। गाड़ी में तीन नटनियां भी सवार है जिसके कारण गाड़ी का बोझ खींचना बैलों के मुश्किल होता जा रहा है। बाप और बेटे तय करके एक नटनियां को भेडि़यों के शिकार के तौर पर गाड़ी से धकेल देना चाहते हैं लेकिन अपनी इस योजना का दर्शकों तक पहुंचाने के लिए खारू को गाड़ी से उतरकर मंच के अग्रभाग में आकर संवाद अदायगी करनी है और पाते हैं कि उस कारूणिक दृश्‍य में कुछ दर्शक है कि जोर जोर से हंस रहे हैं। ऐसा अगली नटनियाओं को फेंकते वक्‍त भी होता है और फिर वही हंसी पहले से ज्‍यादा तीव्र होकर सुनायी देती है। बैल खोल दिये जाने हैं ताकि भेडि़यों के झुण्‍ड से निपटा सके। लेकिन अभिनय की सारगर्भित अदायगी के बावजूद दर्शक हंस रहे हैं। बेट की सलामती के लिए बाप खुद भेडि़यों से मुठभेड़ करने के लिए गाड़ी से छलांग लगा देने की स्थिति में है और हंसने वाले दर्शक अब भी दृश्‍य की कारूणिकता के साथ नहीं हो पा रहे हैं। सवाल है कि ऐसा क्‍यों हुआ जबकि कलाकारों के हाव भाव, उनकी मुद्रा, उनकी आवाजों के उतार चढ़ाव तो उस दहशत को बयां करने में कतई कमतर नहीं थे। इसे सिर्फ यह कहकर हवा नहीं किया जा सकता कि वे वैसे ही वर्ग के दर्शक थे जिन्‍हें दूसरों की परेशानी में ही लुत्‍फ उठाने की आदत होती है। ऐसा निश्चित सत्‍य है कि आज समाज का एक वर्ग इस विकृत मानसिकता से भी ग्रसित है, पूंजी की चकाचौंध में जिसके भीतर अमानवीयता ही हावी है। लेकिन नाटक के दौरान ऐसे घटने के कारण बिल्‍कुल साफ थे कि जब कलाकार को संवाद अदायगी करनी होती थी, उस वक्‍त उसे नाटक में घट रहे घटनाक्रम वाली जगह से हटना जरूरी हो रहा था। खारू दौड़कर गाड़ी से नीचे उतरता, संवाद अदा करता और फिर गाड़ी में चढ़ जाता। क्‍योंकि गाड़ी रूपी तकनीक को मंच पर होना जरूरी है, बेशक चाहे कलाकार के उस पर चढ़ने और उतरने के दौरान दर्शक मंचित हो रहे घटनाक्रम से बाहर निकल जाए, निर्देशक को इसकी चिंता नहीं। निर्देशक की चिंता में तो दृश्‍य की सजीवता गाड़ी की उपस्थिति से ही हो रही है। उस सेट को डिजाइन करने में ही तो वह अपने निर्देशक को स्‍थापित होता हुआ देख रहा है। ‘खारू का किस्‍सा‘ फिर भी एक बेहतर प्रस्‍तुति कही जा सकती है। हां नाटक की स्क्रिप्‍ट में यदि अंत को नाटक वास्‍तविक अंत पर ही संपादित कर दिया जाए तो। क्‍योंकि खारू के किस्‍से का अंत हो जाने के बाद भी जारी रहने वाली उपदेशात्‍मकता नाटक के पूरे प्रभाव को ही लील जा रही थी। 


कुछ कुछ वही स्थितियां जो खारू के किस्‍से में सेट के कारण दिखायी दी, अमित रौशन के निर्देशन में मंचित हुए बेगूसराय की संस्‍था के नाटक ‘दो औरतें’ में भी दिखती है। नाटक में नैरेटर की भूमिका निभा रही अदाकारा को बीच मंच पर दोनों ओर लटक रही दो बड़ी बड़ी चावीनुमा औरतों से मुखातिब होना है। चावियों को औरत में बदलने के लिए कभी उसे उन्‍हें साथ में झूल रहे दो लम्‍बे लम्‍बे लाल दुपटटों से ढकना है कभी उन दुपटों के सहारे उसे स्‍कूटर की सवारी करनी है और कभी उन्‍हें अपने ईर्द गिर्द लपेटते हुए दर्द की आहें भरते हुए संवाद अदायगी करनी है। साथ ही बदलते हुए भावों के साथ बहुत तेज आवाज में गूंज रहे पार्श्‍व संगीत से पार पाते हुए भी अपनी आवाज दर्शकों तक पहुंचानी है। मंच के बीच एक लम्‍बा ब्‍लाक रखा है। ज्‍यादा असहजता समझे तो उस पर जाकर खड़ी हो जाए और संवाद अदा करे। इन स्थितियों में कवि नवेन्‍दु की कविता ‘नमक’ की पंक्तियां याद आ जाना स्‍वाभाविक है- खाने में जो भी स्‍वाद था, सब नमक की वजह से था। नाटक में तकनीक भी नमक की तरह से इस्‍तेमाल हो तो प्रस्‍तुति निखर उठती है लेकिन अधिकता पूरा मजा ही किरकिरा कर देती है। रंगकर्मी अजहर आलम के निर्देशन में मंचित हुए लिटिल थेस्पियन के नाटक ‘रूहे’ में तो भारी भरकम सेट पर चीख चीख कर संवाद अदा करते बूढे की दयनीयता का जिक्र करना ठीक ही नहीं लग रहा। संवाद अदायगी पर तंज कसते देहरादून थियेटर के दादा अशोक चक्रवर्ती की कही बातें याद आती हैं कि एक खाली डिब्‍बा लो, उसमें पत्‍थर भरो और जोर जोर से हिलाओ तो वे भी आवाज करते हैं। संवाद अदायगी खाली डिब्‍बे में भरे पत्‍थरों की आवाज नहीं हो सकती।


मुश्किल है दिल्‍ली की संस्‍था ‘पीपुल्‍स थिेयेटर’ के नाटक ‘अर्थ’ पर बात करना जिसका निर्देशन निलय राय ने किया। क्‍योंकि वहां तो कलाकारों को तमाम तरह के ड्रील करने थे और ड्रील करते करते ही संवाद अदा करने थे। अब वे ड्रील का अभ्‍यास किए होंगे कि अपने पात्र में डूबे होंगे। एक दूसरों की पीठ पर, कंधों पर चढ़कर जबकि कभी उनके पांव लड़खड़ाने को होते और कभी पूरा शरीर ही झूल कर लटक आने को हो रहा होता। तिस पर अतिमहत्‍वाकांक्षा में डूबा निर्देशक इतिहास कथा के उस कथानक के तार्किकता पर भी नहीं सोचता कि क्‍या चाणक्‍य की हत्‍या हो जाने और मौर्य वंश का विनाश हो जाने से ही बौद्ध धर्म कैसे अचानक उदित हो गया। बस सभी कलाकारों को गोल घेरे में बुद्धम शरणम गच्‍छामी उच्‍चारना है।







Tuesday, October 10, 2017

मुस्कुराना भी एक प्रतिरोध है


वैसे सुनने में यह अटपटा लग सकता है पर विपरीत और उग्र परिस्थितियों में घटनास्थल पर पहुँच कर खड़े हो जाना और तने हुए चेहरों के बीच मुस्कान बिखेरना भी एक प्रतिरोध है...कुछ महीने पहले ब्रिटेन के बर्मिंघम में गोरे अंग्रेजों के उग्र इस्लाम विरोधी प्रदर्शन के दौरान जब प्रदर्शनकारियों ने एक मुस्लिम युवती को चारों ओर से घेर लिया तो साफ़िया खान नामक युवती ने वहाँ पहुँच कर न सिर्फ़ भीड़ से घिरी युवती को आश्वस्त किया बल्कि बिल्कुल सहज भाव से जेब में हाथ डाले खड़े खड़े मुस्कुरा दी जैसे कुछ हुआ ही न हो...और यह संदेश भी दिया कि हम ऐसी बन्दर घुड़कियों से डरने वाले नहीं।यह प्रदर्शन कट्टर दक्षिणपंथी संगठन इंग्लिश डिफेंस लीग (EDL) ने आयोजित किया था जो मुसलमानों को वहाँ से हटाने की माँग कर रहे थे ।एशियाई देशों से आकर रह रहे नागरिक बहुल बर्मिंघम में इस तरह के प्रदर्शन के खास महत्व हैं और युवती को चारों ओर से घेर कर वे ' यह क्रिश्चियन देश है,तुम्हारा देश नहीं' जैसे जुमले उछाल रहे थे।'द गार्डियन' को भयभीत युवती सायरा जफ़र ने बताया कि नारे चिल्लाने वाली भीड़ ने उसको पकड़  कर इस्लामविरोधी बैनर उसके चेहरे पर लपेट दिया।तभी दूर खड़ी सब देख रही युवती साफ़िया खान दौड़ती हुई वहाँ आयी और आक्रामक प्रदर्शनकारियों को सहज मुस्कुराहट की भाषा में अनूठा जवाब दिया - "हम भी हैं तुम भी हो दोनों हैं आमने सामने...है आग हमारे सीने में हम आग से खेलते आते हैं/टकराते हैं जो इस ताकत से वो मिट्टी में मिल जाते है...."
उस युवती के बचाव में साफ़िया के अचानक बीच में आ जाने पर भीड़ उससे चिपट गयी...प्रदर्शनकारियों के मुखिया ने साफ़िया के गालों पर अपनी उँगलियाँ गड़ा दीं और जोर जोर से चिल्लाते हुए बदले में हाथापाई करने के लिए उसको उकसाने लगा।पर साफ़िया ने अपना आपा नहीं खोया और बगैर उत्तेजित हुए चुपचाप जेब में हाथ डाले खड़ी मुस्कुराती रही। प्रदर्शनकारियों को इस जवाबी प्रतिरोध से सांप सूँघ गया और उन्होंने उन युवतियों की घेराबंदी तोड़ दी।


इस प्रदर्शन को जाने कितनी पब्लिसिटी मिली पर जोए गिडिन्स की खींची साफ़िया खान के नायाब अहिंसक प्रदर्शन की फ़ोटो पूरी दुनिया में आग की तरह फैल गयी।
फोटोग्राफर ने टाइम पत्रिका की बताया :
"वैसे देखें तो फ़ोटो मामूली सी है - एक प्रतिरोधकर्ता,एक EDL सदस्य और एक पुलिस वाला।पर जब मैंने गौर किया तो प्रतिरोध कर रही युवती के बॉडी लैंग्वेज और उसके चेहरे के भावों पर ध्यान गया...तब मुझे इस फ़ोटो की ताकत का अंदाज हुआ।इस फ़ोटो के इतने प्रभावकारी होने का कारण उस युवती का बॉडी लैंग्वेज है।(साफ़िया)खान एकदम शांत और स्थिर लग रही थी,उसके चेहरे पर मुस्कान थी और उसके हाथ जेब में थे।इसके विपरीत क्रॉसलैंड(प्रदर्शनकारियों का नेता) बेहद क्रोधित और आक्रामक था - यह अंतर्विरोध ही इस फ़ोटो की ताकत है और इसको विशिष्ट बनाता है।उसका बिल्कुल शांत और विश्वासपूर्ण चेहरा...न तो कोई घबराहट न ही डर।"


इस अनूठे प्रतिरोध की फ़ोटो ने पाकिस्तानी बोस्निया मिश्रित मूल की ब्रिटिश की पैदाइशी नागरिक साफ़िया खान को रातों रात एक सेलिब्रिटी बना दिया।साफ़िया कहती हैं कि उस फ़ोटो ने मुझे एक गुमनाम नागरिक से अलग पहचान दे दी पर जब मैं पिछली घटनाएँ याद करती हूँ तो लगता है अच्छा ही हुआ...अब मुझे एक मकसद के लिए काम करना है...अब मैं ब्रिटेन की सड़कों पर नस्ली भेदभाव के विरोध में संघर्ष करूँगी।
"मुझे लगता है कभी कभी चीखने चिल्लाने के बदले सिर्फ़ मुस्कुराना ज्यादा असरकारी होता है", साफ़िया कहती हैं।

प्रस्‍तुति: यादवेन्‍द्र  

Tuesday, April 4, 2017

पतरोल


(यह कहानी यू के की है। ओह उत्‍तराखण्‍ड की, जो कभी उत्‍तर प्रदेश का एक हिस्‍सा था। उत्‍तराखण्‍ड के एक छोटे से शहर के बहुत मरियल नाम वाले मोहल्ले की। )    

गुड्डी दीदी, जगदीश जीजू से प्रेम करती थी। जब तक हमें यह बात मालूम नहीं थी, जीजू हमारे लिए जगदीश सर ही थे। जगदीश सर, गुड्डी दीदी के घर किराये में रहते थे और ट्यूशन पढ़ाते थे। गुड्डी दीदी भी जगदीश सर से ट्यूशन पढ़ती थी। यह बात किसी को भी पता नहीं थी कि गुड्डी दीदी, जगदीश सर से प्रेम करती है। स्‍वयं गुड्डी दीदी को भी शायद ही पता रहा हो। वे इतना भर जानती थीं कि चश्‍मूदीन होने के बावजूद जगदीश सर बड़े सुन्‍दर है, बहुत अच्‍छे से पढ़ाते हैं। लम्‍बाई भी अच्‍छी है और जब हँसते हैं तो होंठों के ऊपर उगी हुई उनकी मूँछें भी हँसती है। ये सब बातें गुड्डी दीदी हमको उस वक्‍त बताती थीं, जब जगदीश सर आसा पास भी नहीं होते। मूँछों के हँसने वाली बात पर हम खूब खुश होते थे और जोर-जोर से हँसते थे। कई बार हमें सामूहिक रूप से हँसते हुए देख जगदीश सर आ भी जाते तो बस इतना ही कहते, ‘’अरे भाई हमें तो बताआो क्‍या बात है, हँसने का हक तक तो हमें भी है।‘’ उनको देखते ही बंद हो चुकी हमारी हंसी का फव्‍वारा एक बार फिर से फूट पड़ता था। लेकिन हम जगदीश सर को अपने उस आनंद का हिस्‍सा नहीं बनाते थे, जिसका रहस्‍य उठ जाने पर न मालूम वह उसी प्रकार बना रहता या नहीं।

जगदीश सर किराये का कमरा लेकर अकेले ही रहते थे। वे किसी सरकारी विभाग में मुलाज़िम थे और खाली वक्‍त में अपने कमरे में पढ़ते रहते थे। यदा-कदा मौसी, यानी गुड्डी दीदी की मां, जब अपने लिए भी चाय बनाती तो जगदीश सर के लिए भी भिजवा देती थी। कभी खाना खाने के लिए भी बुलवा लेती। गुड्डी दीदी ही दौड़-दौड़कर जाती- चाय पहुंचा देती या खाने के बुला लाती। प्रेम क्‍या होता है, हम में से कोई नहीं जानता था। हो सकता है जगदीश सर जानते रहे हों, बहुत सी बातों के जानकार होने के कारण ही वे हम सबके सर थे।  


जगदीश सर को शुक्रगुजार होना चाहिए मोहल्ले  क के दबंगों का कि उन्‍हें इस बात की भनक उस वक्‍त नहीं लग पायी कि गुड्डी दीदी और उनके बीच प्रेम पनप रहा है। इस बात की खबर उन्‍हें तब लगी, इतने बाद में कि तब जगदीश सर को मोहल्ले का ही निवासी मान लिया गया था। वरना, वह किस्‍सा तो आज तक मशहूर है- सुशीला दीदी, दीवान जी की बेटी जो मोहल्ले  क की पहली लड़की हुई जिसका किसी सरकारी नौकरी में चयन हुआ, घर लौटते हुए एक लड़के के साथ उसकी साइकिल में बैठकर आती थी। मोहल्ले की सरहद पर वह लड़का सुशीला दीदी को साइकिल से उतार देता था और वहां सुशीला दीदी पैदल-पैदल, बार-बार ढलक जाते अपने दुपट्टे को संभालते हुए घर तक पहुँचती थी। लड़का अपनी साइकिल पर पैडल मारकर कोई मधुर गीत गाते हुए निकल जाता था। मोहल्ले के दबंगों को यह बात चुभनें लगी थी कि कोई अनजान लड़का उनके मोहल्ले  क की लड़की को रोज साइकिल पर बैठाकर छोड़ने आता है। एक दिन उन्‍होंने मंत्रणा की और सुशीला दीदी के चले जाने के बाद भी उतर गयी साइकिल की चैन को चढ़ाने में व्‍यस्‍त उस लड़के पर हमला बोल दिया। जमकर उसकी कुटाई की। उसकी साइकिल तोड़ दी। लड़के की नाक से खून निकलने लगा। खून से लथपथ हो चुके चेहरे को देख दबंगों ने उस अकेले लड़के को धक्‍का दिया और वहां से रफू-चक्‍कर हो गये।                   

Friday, March 24, 2017

गरीब का नंगापन उसकी आर्थिक दरिद्रता है तो अमीर का नंगापन उसकी प्रदर्शन प्रियता

पारिवारिक जिम्मेदारियों के साथ-साथ अध्‍ययन-अध्यापन के क्षेत्र से जुड़ी गीता दूबे मूलत: कवि हैं। कोलकाता के साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियों में अपनी बेबाक आलोचनाओं के साथ सक्रिय रहने वाली गीता दूबे, प्रगतिशील लेखक संघ (हिन्दी इकाई) कोलकाता की सचिव भी हैं। अपनी बातों को साफ तरह से रखने का बौद्धिक साहस गीता दूबे के लेखन की ही नहीं, व्‍यवहार की भी एक विशेषता है। रचनाओं को प्रकाशन के लिए भेजने का संकोच गीता दूबे के भीतर मौजूद आलसपन को भी दिखाता है। कई बार के आग्रह के बाद गीता दूबे ने अपने मन से ‘आपहुदरी’ पर लिखी समीक्षात्माक टिप्पणी भेजकर इस ब्लाग को अनुग्रहित किया है। इस आशय के साथ कि आगे भी उनके सहयोग से यह ब्लाग आगे भी समृद्ध होता रहेगा, उनकी लिखी समीक्षा प्रस्तुत है। हमें उम्मीद है कि गीता दूबे की बेबाक समीक्षा पर पाठकों की बेबाक राय भी इस ब्लाग को समृद्ध करेंगी। 

वि.गौ.

'आपहुदरी' (रमणिका गुप्ता की आत्मकथा) के हवाले से


गीता दूबे 

आज का समय साहित्य के क्षेत्र में विस्फोट के साथ साथ सनसनी का भी समय है। अधिकांश रचनाकार शायद इसलिए लिख रहे हैं कि छपते ही छा जाएं। न भी छाएं तो एक सनसनी जरूर पैदा कर दें। सुजाता चौहान लिखित 'पतनशील पत्नियों के नोट्स' या फिर क्षितिज राय लिखित 'गंदी बात' जैसे किताबों ने इस क्षेत्र में नयी धारा का सूत्रपात किया है। अब यह धारा कितनी दूर जाएगी और इसमें क्या क्या बहेगा या बचेगा ,यह मुद्दा गौरतलब है और इस पर बहस जरूर होनी चाहिए लेकिन फिलहाल कुछ बातें मैं 'आपहुदरी' के बहाने स्त्री आत्मकथाओं पर करना चाहती हूं। 

इस समय आत्मकथाएं खूब लिखी जा रही हैं और उनके प्रकाशन के साथ साथ विवाद भी चलते रहते है। शायद ही कोई आत्मकथा ऐसी होगी जिसके प्रकाशन के बाद बहस का तूफान न उठा हो या आरोपों प्रत्यारोपों के दौर न चले हों। सवाल यह है कि आत्मकथाएं क्यों लिखी जानी चाहिए ? आत्मकथाओं का उद्देश्य किसी रचनाकार के सिर्फ और सिर्फ व्यक्तिगत अनुभवों से रूबरू करवाना ही है या तत्कालीन इतिहास की अनुगूंज भी उसमें सुनाई देनी चाहिए। इस संदर्भ में गांधी और नेहरू द्वारा लिखित आत्मकथाओं का जिक्र जरूरी है जिनमें सिर्फ उनके निजी अनुभव ही नहीं हैं बल्कि उनके समय का इतिहास भी झांकता है। कुछ वर्षों पूर्व प्रकाशित कुलदीप नैय्यर की आत्मकथा भी कई मायने में इतिहास की तरह पढ़ी और संजोई जा सकती है। स्त्री आत्मकथाओं के संदर्भ में बात करें तो पहले पहल जब स्त्रियों ने अपनी कहानी अपनी जुबानी सुनाने का फैसला किया तो लोगों को यह सहज उत्सुकता हुई कि ये औरतें भला कहना क्या चाहती हैं ? और कहेंगी भी तो आखिर क्या वही घर गृहस्थी के घरेलू किस्से और कहानियां। रही बात उनके सामाजिक अवदान या भूमिका की तो वह तो साहित्य में कहा और लिखा ही जा रहा है।पुरूष रचनाकार बड़े अनुग्रहपूर्ण ढंग से भारतीय स्त्रियों के त्याग और बलिदान को महिमामंडित करते हुए यदा कदा उनके दुख दर्द, शोषण और संघर्ष को भी वाणी दे ही रहे थे। लेकिन इसके बावजूद स्त्रियों ने तय किया कि अपने देखे और भोगे यथार्थ को वह खुद पूरी प्रामाणिकता से पाठकों के सामने रखेंगी। हालांकि प्रेमचंद द्वारा संपादित हंस के आत्मकथा विशेषांक में यशोदा देवी और शिवरानी देवी के आत्मकथ्य प्रकाशित हो चुके थे लेकिन पुस्तकाकार रूप में प्रतिभा अग्रवाल की दो खंडों में प्रकाशित आत्मकथा 'दस्तक जिन्दगी की' (1990) और मोड़ जिन्दगी का(1996) से स्त्री आत्मकथा लेखन की शुरुआत हुई । इसी क्रम में क्रमश: 'जो कहा नहीं गया'(1996) कुसुम अंसल, 'लगता नहीं है दिल मेरा'(1997) कृष्णा अग्निहोत्री, 'बूंद बावड़ी' (1999) पद्या सचदेव, 'कस्तूरी कुण्डल बसै'(2002)मैत्रेयी पुष्पा आदि ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। चंद्रकिरण सौनरेक्सा की 'पिंजरे की मैना' (2005) छपकर आई तो पाठकों ने उसे हाथों हाथ लिया क्योंकि पराधीनता की जंजीरों में जकड़ी नारी की मुक्ति कामना के साथ ही उसकी पीड़ा और संघर्ष को लेखिका ने बड़ी शिद्दत से उकेरा था। जानकी देवी बजाज की 'मेरी जीवन यात्रा'(2006) में मारवाड़ी परिवार की स्त्रियों का जीवन ही नहीं वर्णित हुआ बल्कि स्वाधीनता आंदोलन के कई कोलाज भी बड़ी ईमानदारी से अंकित हुए हैं। मन्नू भंडारी की 'एक कहानी यह भी'(2007) , प्रभा खेतान की 'अन्यार से अनन्या'(2007) मैत्रेयी पुष्पा की 'गुड़िया भीतर गुड़िया'(2008), कृष्णा अग्निहोत्री 'और और औरत' (2010) इस सिलसिले की अगली कड़ियां थीं। इसे उर्मिला पंवार के 'आयदान' (2003) कौशल्या बैसंत्री के 'दोहरा अभिशाप' (2009) और सुशीला टांकभौरे के 'शिकंजे का दर्द' (2011) ने एक नया आयाम दिया। 

आज का समय साहित्य के क्षेत्र में विस्फोट के साथ साथ सनसनी का भी समय है। अधिकांश रचनाकार शायद इसलिए लिख रहे हैं कि छपते ही छा जाएं। न भी छाएं तो एक सनसनी जरूर पैदा कर दें। सुजाता चौहान लिखित 'पतनशील पत्नियों के नोट्स' या फिर क्षितिज राय लिखित 'गंदी बात' जैसे किताबों ने इस क्षेत्र में नयी धारा का सूत्रपात किया है। अब यह धारा कितनी दूर जाएगी और इसमें क्या क्या बहेगा या बचेगा ,यह मुद्दा गौरतलब है और इस पर बहस जरूर होनी
अब बात करना चाहूंगी 2016 में सामयिक प्रकाशन से प्रकाशित रमणिका गुप्ता की आत्मकथा 'आपहुदरी' की । चूंकि यह शब्द पंजाबी भाषा का है संभवत इसी लिए नीचे एक पंक्ति में इसका आशय भी भी साफ कर दिया गया है , एक जिद्दी लड़की की आत्मकथा'। यहां यह बताना जरूरी है कि इसके पहले रमणिका अपनी एक और आत्मकथा 'हादसे'(2005) लिख चुकी हैं जिसमें मजदूर नेता के रूप में उनके एक्टिविस्ट और उसके साथ राजनीतिक जीवन की झलक मिलती है और उसे पढ़कर पाठक उनके जुझारू व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता । उनके जीवन संघर्ष से उपजा यथार्थ , उनकी स्त्रीवादी विचार धारा और बेबाक व्यक्तित्व पाठकों के मन पर निस्संदेह गहरी छाप छोड़ता है। उनके निष्कर्षों से सहमत भी होता है कि, " पुरूष नारी को उसी हालत में बर्दाश्त करता है जब उसे यकीन हो जाए कि वह पूरी तरह उसी पर आश्रित है और खुद कोई निर्णय नहीं ले सकती या वह स्वयं उस औरत से डरने लगे तो उसे सहता है।" चूंकि इस आत्मकथा में उनके व्यक्तिगत जीवन के अनुभवों को अभिव्यक्ति नहीं मिली थी शायद इसी वजह से उन्होंने 'आपहुदरी' रचना की। किताब के फ्लैप पर लिखी घोषणा बरबस ध्यान खींचती है, "विविधता भरे अनुभवों की धनी रमणिका गुप्ता की आत्मकथा की यह दूसरी कड़ी 'आपहुदरी' एक बेहद पठनीय आत्मकथा है।उनकी आत्मकथा की पहली कड़ी हादसे से कई अर्थों में अलग है। सच कहें, तो यही है उनकी असल आत्मकथा....।" जाहिर है कि इस घोषणा से आकर्षित या प्रेरित होकर पाठक बड़े चाव से इस रचना से मुखातिब होता है कि उसे कुछ नया जानने या समझने को मिलेगा। निस्संदेह मिलता है । रमणिका या रमना या रम्मो के परिवार का संक्षिप्त इतिहास , देश- विभाजन के एक आध चित्र और मजदूर आंदोलन के साथ साथ भारतीय राजनीति की कुछ झलकियां भी। पर सबसे अधिक पन्ने इस जिद्दी लड़की ( ?) ने अपनी प्रेमकथा के वर्णन में खर्च किए हैं। बचपन में हुए यौन शोषण और परिवार वालों द्वारा की गयी अपनी उपेक्षा के कारण वह आजीवन प्रेम की तलाश में भटकती रही और यौनेच्छाओं की पूर्ति के साथ साथ अपने विलास पूर्ण जीवन के खर्चों को पूरा करने के लिए वह लगातार एक के बाद एक साथी बदलती रहीं। रमणिका की तारीफ इस बात के लिए तो होनी ही जानी चाहिए कि वह अपने इन भटकावों , विचलनों को ईमानदारी से स्वीकारती हैं और बिना किसी अफसोस के लिखती हैं, "पीछे मुड़कर देखती हूं तो महसूस होता है, मैंने जिंदगी को भरपूर जिया। तुमुल कोलाहल के बीच भी मैंने अपने मन को कभी बनवास नहीं दिया।मेरी प्रेम यात्राएं कभी रुकी नहीं।.... कुछ ग्रंथियां और कुछ हादसे मेरे अंतर्मन में ऐसे पैठ गये थे कि मैं उनसे उबर नहीं पा रही थी। उनसे पीछा छुड़ाने के लिए मैं रास्ते तलाशने लगी और रास्ते की खोज में मैंने तय कर डाली कई यात्राएं।.....कितनी यात्राएं गिनाऊं।" इसके आगे वह लिखती हैं, "कई सच्चे और वक्ती मित्र आए और गये पर मेरी यात्रा जारी रही। दर असल तब तक मैं यह समझ न पाई थी कि यह जद्दोजहद मेरी अस्मिता की ललक का अंग है।.... बहुत बाद में मुझे स्त्री की अलग पहचान का विमर्श समझ में आया।" मेरी दिक्कत यहीं से शुरू होती है जब रमणिका अपनी यौनाकांक्षा को स्त्री मुक्ति के साथ जोड़कर देह विमर्श को ही स्त्री विमर्श के रूप में स्थापित करना चाहती हैं। स्त्री मुक्ति के साथ साथ देह पर उसके अधिकार की बात तो उठती रहती है पर जहां देह ही मुख्य हो जाती है और बाकी चीजें गौण तो माफ कीजिएगा इस मुक्ति से स्त्री हो पुरूष दोनों अर्थात् पूरे देश और समाज की भी कोई बहुत ज्यादा तरक्की होनेवाली नहीं। और डर इस बात कार्यक्रम भी है कि इस देह विमर्श की आंधी में स्त्री विमर्श के जरूरी मुद्दे कहीं उड़ न जाएं। 

दूसरी महत्वपूर्ण बात जो मेरी समझ में आती है कि आत्मकथा लेखन सच में जोखिम और साहसभरा काम है क्योंकि खुद को लोगों के बीच उघाड़ने और उधेड़ने के लिए साहस की जरूरत तो पड़ती ही है पर जब इसमें सनसनी वाला तत्व भी जुड़ जाता है तो यह जोखिम मजे या प्रचार के लिए उठाए जोखिम में जरूर बदल जाता है । और साहित्य या समाज के लिए यह स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं मानी जा सकती है। एक गरीब का नंगापन जहां उसकी आर्थिक दरिद्रता को दर्शाता है तो वहीं अमीर का नंगापन उसकी प्रदर्शन प्रियता या फैशन को। रमणिका ने जिस तरह से रस लेते हुए अपने प्रेम प्रसंगों या देह गाथा को उकेरा है उसे प्रेम कथा के रूप में तो पढ़ा जा सकता है पर उसे स्त्री मुक्ति का आख्यान मानने में मुझे आपत्ति है। कुछ पाठकों को इस तरह की कथा में रस भले ही मिले पर सिर्फ और सिर्फ यही पढ़ना हो तो इस विषय पर प्रचुर साहित्य सहज ही उपलब्ध है। आश्चर्य होता है कि देह की भूख क्या इतनी प्रबल है कि ट्रेन में सफर के दौरान एक अजनबी के साथ भी बड़ी सहजता से निसंकोच उसे तृप्त किया जा सकता है। इसके साथ ही एक ही समय में एकाधिक साथियों के साथ अपने संबंधों को भी लेखिका ने गर्व के साथ स्वीकारा है। लगता है लेखिका सिर्फ देह का उत्सव मनाते हुए , उसे गरिमा मंडित करते हुए हर हाल में सही ठहराना चाहती हैं। हालांकि अपनी कमजोरियों को रमणिका सहज भाव से स्वीकारती हैं, " सत्य तो यह है कि मुझे खुद ही खुद से मुक्त होना है । मैं अपनी ही कमजोरी काम शिकार होकर फिसल जाती रही हूं ।जिन कमजोरियों के खिलाफ मैं झंडा बुलंद करती रही, उन्हीं कार्यक्रम शिकार मैं खुद होती रही। पुरुष मेरी ग्रंथि है।औरत को खुद अपने को ही मुक्त करना है पुरुष ग्रंथि से।" पता नहीं लेखिका इस ग्रंथि से मुक्त हो पायीं या नहीं पर अपनी प्रेम कथाओं के साथ साथ उन्होंने अपने पारिवारिक सदस्यों की कथाओं का भी खुलकर वर्णन किया है। ऐसा लगता है कि संसार की एकमात्र सच्चाई देह ही है और दैहिक तृप्ति ही वास्तविक तृप्ति है। 

ईमानदारी से कहना चाहती हूं कि रमणिका की यह आत्मकथा पढ़ते हुए मुझे तसलीमा याद आती रहीं जिन्होंने 'द्विखंडित' (2004) में अपने पुरुष मित्रों के साथ अपने संबंधों को खुल कर स्वीकारा था और यौन प्रसंगों का सतही और उत्तेजक वर्णन भी किया था। और शायद उसपर लगे बैन और विवादों के कारण लोगों ने उसे खूब पढ़ा भी था पर पसंद शायद ही किया था। और एक किताब का नाम लेना चाहूंगी वैशाली हलदणकर की 'बारबाला' (2009)। उसमें भी ऐसे प्रसंग भरे पड़े हैं। प्रश्न यह भी है कि ऐसी आत्मकथाएं क्या सिर्फ इसीलिए पढ़ी जानी चाहिए कि इनमें यथार्थ के नाम पर मुक्त यौन चित्र हैं भले ही इनसे स्त्री मुक्ति की रूपरेखा बने या न बने । या फिर इससे किसी को प्रेरणा मिले न मिले। एक जिद्दी लड़की क्या सिर्फ पैसों , शोहरत, ऐशो आराम या सत्ता के गलियारे में पैठ बनाने के लिए अपने शरीर को इस्तेमाल करने में ही अपनी जिद और स्वाभिमान की इंतहा मानती है ? उसका स्वाभिमान क्या छोटे छोटे सुखों पर न्योछावर किया जा सकता है,? क्या पेट की भूख और शरीर की भूख में कोई अंतर नहीं है ? और इस भूख की आग में रिश्ते नाते भी जला दिए जाएं ? आखिर हमें कहीं तो रुकना पड़ेगा, या इस भूख या छद्म मुक्ति की तलाश में हम यूं ही भटकते रहेंगे ? इस तरह के कई सवाल इस आत्मकथा को पढ़ते हुए मन में उपजते हैं। सच में अगर स्त्री का संघर्ष और उसकी उपलब्धियों से रूबरू होना ही है तो क्यों न हम एक विकलांग पर जुझारू महिला नसीमा हुरजूक की आत्मकथा 'कुर्सी पहियों वाली' (2010) जैसी किताब पढ़े जो पूरे समाज को उद्वेलित ही नहीं प्रेरित भी करती हैं। और अगर देह गाथा ही पढ़नी है तो उसके लिए एक दूसरी तरह काम साहित्य सहज ही उपलब्ध है।

Tuesday, October 25, 2016

वस्तुनिष्ठता की मांग अपराध नहीं

कुछ सूत्र जो एक किसान बाप ने बेटे को दिए
केदारनाथ सिंह

मेरे बेटे
कुँए में कभी मत झाँकना
जाना
पर उस ओर कभी मत जाना
जिधर उड़े जा रहे हों
काले-काले कौए

हरा पत्ता
कभी मत तोड़ना
और अगर तोड़ना तो ऐसे
कि पेड़ को जरा भी
न हो पीड़ा

रात को रोटी जब भी तोड़ना
तो पहले सिर झुकाकर
गेहूँ के पौधे को याद कर लेना

अगर कभी लाल चींटियाँ
दिखाई पड़ें
तो समझना
आँधी आने वाली है
अगर कई-कई रातों तक
कभी सुनाई न पड़े स्यारों की आवाज
तो जान लेना
बुरे दिन आने वाले हैं

मेरे बेटे
बिजली की तरह कभी मत गिरना
और कभी गिर भी पड़ो
तो दूब की तरह उठ पड़ने के लिए
हमेशा तैयार रहना

कभी अँधेरे में
अगर भूल जाना रास्ता
तो ध्रुवतारे पर नहीं
सिर्फ दूर से आनेवाली
कुत्तों के भूँकने की आवाज पर
भरोसा करना

मेरे बेटे
बुध को उत्तर कभी मत जाना
न इतवार को पच्छिम

और सबसे बड़ी बात मेरे बेटे
कि लिख चुकने के बाद
इन शब्दों को पोंछकर साफ कर देना

ताकि कल जब सूर्योदय हो
तो तुम्हारी पटिया
रोज की तरह
धुली हुई
स्वच्छ
चमकती रहे


 बेनाम दास की कविता 

मेरे बच्चे
स्पैम में कभी मत झाँकना
देखना पर उस ओर कभी मत देखना
जिधर फैलते जा रहे हों
अश्लील वाइरल विडियोज़ ।

लिखा कमेंट
कभी मत डिलीट करना
और अगर करना तो ऐसे
कि मॉडरेटर को ज़रा भी
न हो पीड़ा ।

रात को लिंक जब भी खोलना
तो पहले आँख-कान खोल कर
पोस्ट करने वाले को याद कर लेना ।

अगर कभी ढेरों लाइक्स
दिखाई पड़ें
तो समझना
कोई अफवाह आने वाली है
अगर कई कई दिन तक सुनाई न दे
कमेंट-शेयर की आहट
तो जान लेना
पोस्ट फ्लॉप होने वाली है ।

मेरे बेटे
हैकर की तरह कभी मत गिरना
और कभी गिर भी पड़ना
तो क्रैकर की तरह फट पड़ने के लिए
हमेशा तैयार रहना ।

कभी बहस में
अगर खो बैठो अपना विवेक
तो प्रतिक्रियाओं पर नहीं
दूर से इनबॉक्स में आते मेसेज़ेस पर
भरोसा करना ।

मेरे बेटे
मंगल को लॉग-इन कभी मत करना
न शुक्र को लॉग-आउट ।

और सबसे बड़ी बात मेरे बेटे
कि स्टैटस अपडेट के बाद
सारे टैग्स रिमूव कर देना

ताकि कल जब फेसबुक खोलो
तो तुम्हारी टाइमलाइन
रोज की तरह
स्पैम-फ्री
टैग-फ्री
दमकती रहे ।


 

हिन्दी की लोकप्रिय कविताओं का प्रतिसंसार भी हिन्दीं की समकालीन कविता का एक चेहरा बनाता है। बहुप्रचलित अंदाज में लिखी जाने वाली लोकप्रिय कविताओं का मिज़ाज थोड़ा बड़बोला होता है और सूंत्रातमकता के आधार स्तम्भों पर खड़ी ये कविताएं पंच लाइनों से अपना महत्व साबित करवाती है। हिन्‍दी में ऐसी बड़बोली कविताएं अक्सर स्थापित कवियों की कविता की पहचान है। अकादमिक बहसों में उनकी पंच लाइनों को कोट करने और दोहरा दोहरा कर रखने से ही उनका महत्व स्थापित हुआ है। 

ये विचार, पिछले दिनों एक कवि के पहले संग्रह को पढ़ते हुए आए। लेकिन यह बात मैं जिस कविता को पढ़ते हुए कह रहा हूं, उस कवि और उस कविता का जिक्र करने की बजाय मैं हाल में लिखी बेनाम दास की उस कविता का जिक्र करना ज्या दा उपयुक्त समझ रहा हूं, कवि नील कमल ने जिसे अपनी फेसुबक पट्टी पर साया किया। बेनाम दास की उस कविता पर नील कमल की टिप्पणी उसे केदार-स्टाइल की कविता के रूप में याद करती है। यहां उस कवि और कविता का, जिसे पढ़ते हुए यह कहने का मन हुआ, जिक्र न करने के पीछे सिर्फ इतनी सी बात है कि उस कवि की कुछ कविताओं के अलावा अन्य कविताओं के बारे में यह बात उसी रूप में सच नहीं है कि वे लोकप्रिय कविताओं का प्रतिभास हो। फिर दूसरा कारण यह भी कि लोकप्रिय कविताओं का प्रतिभास कराती दूसरे कवियों की भी कई कई कविताओं के साथ वह कविता भी समकालीन कविता के उस खांचे में डाल देना ही उचित लग रहा, जिनके बहाने यह सब लिखने का मन हो पड़ा। 

दिलचस्प है कि हिन्दी के प्रतिष्ठित कवि केदारनाथ सिंह की कविता ‘कुछ सूत्र जो एक किसान बाप ने बेटे को दिए’ के एक अंश पर एक टिप्पणी भी नील कमल ने अपनी फेसबुक पट्टी पर लिखी थी। इससे पहले भी नील कमल कविताओं पर टिप्प्णियां करते रहे हैं, जिनमें उनके भीतर के आलोचक को कविता में वस्तुनिष्ठता की मांग करते हुए देखा जा सकता है। नील कमल को मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूं, एक जिम्मेदार रचनाकार हैं। उनसे पूर्ण सहमति न होते हुए भी रचना में एक तार्किक वस्तुनिष्ठता हो, मैं अपने को उनसे सहमत पाता हूं। रचना में वस्तुनिष्ठ ता की मांग करना कोई अपराध नहीं बल्कि उस वैज्ञानिक सत्य को खोजना है जो तार्किक परिणति में सार्वभौमिक होता है। मुझे हमेशा लगता है कि गैर वस्तुरनिष्ठतता की प्रवृत्ति में ही कोई कविता जहां किसी एक पाठक के लिए सिर्फ कलात्मक रूप हो जाती है वहीं किसी अन्य के लिए भा भू आ का पैमाना। कविता ही नहीं, किसी भी विधा, यहां तक कि कला के किसी भी रूप का, गैर-वस्तुनिष्ठता के साथ किया जाने वाला मूल्यांकन रचनाकार को इतना दयनीय बना देता है कि एक और आलोचक को गरियाते हुए भी लिखी जा रही आलोचनाओं में अपनी रचनाओं के जिक्र तक के लिए वह फिक्रमंद रहने लगता है। उसके भीतर महत्वाकांक्षा की एक लालसा ऐसी ही स्थितियों में ही अति महत्वाकांक्षा तक पेंग मारने को उतावली रहती है। यह विचार ही अपने आप में अवैज्ञानिक दृष्टिकोण है कि कविता का तो अपना विज्ञान होता है। अभी तक ज्ञात हो चुके रहस्यों की पहचान कविता का हिस्सा होने से उलट नहीं सकती है। यही वैज्ञानिकता है और जो हर विषय एवं स्थिति के लिए एक सार हो सकती है। यहां यह भी कह देना उचित होगा कि जब तक प्रकृति के समस्त् रहस्यों से पर्दाफाश नहीं हो जाता कोई ज्ञात सत्य भी अन्तिम और निर्णायक नहीं हो सकता। संशय और संदेह के घेरे उस पर हर बार पड़ते रहेंगे और हर बार उसे तार्किक परिणति तक पहुंचना होगा, तभी वह सत्य कहलाता रह सकता है। 

अकादमिक मानदण्डों को संतुष्ट करती रचनाओं ने गैर वस्तुनिष्ठता को ही बढ़ावा दिया है। बिना किसी तार्किकता के कुछ भी अभिव्यक्त‍ कर देने को ही मौलिकता मान लेने वाली अकादमिक आलोचना की अपनी सीमाएं हैं। तय है कि कल्पतनाओं के पैर भी यदि गैर भौतिक धरातल से उठेंगे तो निश्चित ही गुरूत्वाकर्षण की सीमाओं से बाहर अवस्थित ब्रहमाण्ड में उनका विचरण भी बेवजह की गति ही कहलायेगा, बेशक ऐसी कविताओं का बड़बोलापन चेले चपाटों की कविता में कॉपी पेस्ट होता रहे। देख सकते हैं बेनाम दास की कविता केदारनाथ सिंह जी कविता का कैसा प्रतिसंसार बनाती है। निसंदेह यह प्रतिसंसार होती कविता तो मूल से ज्यादा तार्किक होकर भी प्रस्तुत है। इसे इस रूप में भी समझा जा सकता है कि कहन के कच्चेपन और परिपक्वता के अंतर वाली बड़बोली कविता का स्तरबोध बेशक भिन्न हो, पर तथ्यात्मकता और अनुभव की वैयक्तिकता में भी, उनकी सूत्रात्मक पंच लाइने उन्हें कॉपी पेस्ट से अलग होने नहीं देती।