Showing posts with label जतिन दास. Show all posts
Showing posts with label जतिन दास. Show all posts

Sunday, January 30, 2011

मेले ठेले से अलग


जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के हो हल्ले से दूर जतिन दास को सुनने का सुख
                                
यदि किसी से पूछा जाये कि बाईस जनवरी सन दो हजार ग्यारह को जयपुर में कला एवम संस्कृति की सबसे महत्वपूर्ण घटना क्या थी तो वह तपाक से बोलेगा - जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल! 23 जनवरी को प्रकाशित जयपुर के सारे अखबार भी यही कह रहे थे। शायद जयपुर के चित्रकारों को भी यह बात मालूम न हो ( यदि मालूम रहती तो वे वहॉ उपस्थित रहते ही?) कि लिटरेचर फेस्टिवल के हो हल्ले से दूर जयपुर के सांस्कृतिक स्थल जवाहर कला केन्द्र ( जेकेके) के रंगायन सभागार में विश्वविख्यात कलाकार जतिन दास का ' ट्रेडिशन एण्ड कंटम्परेरी इंडियन आर्टस" पर एक महत्वपूर्ण व्याख्यान है, वह भी हिन्दी में। खुद मुझे भी कहॉ मालूम थी यह बात। हॉ कुछ दिन पहले ( जब लिटरेचर फेस्टिवल का तामझाम शुरू न हुआ था) अखबारों में पढ़ा था कि जेकेके में  21 जनवरी से जतिनदास के चित्रों की प्रदर्शनी लगने वाली है और मैंने तय किया हुआ था कि रविवार दिनॉक 23 जनवरी को लिटरेचर फेस्टिवल में विनोद कुमार शुक्ल को सुनकर वहीं से जेकेके निकल जाऊंगा परन्तु अपर्णा को नीयत ताड़ते देर न लगी और कहा कि मैं निकल जाऊंगा तो वह अकेली रह जायेगी। लिहाजा आज ही (22 जनवरी ) जवाहर कला केन्द्र चलो। तब हम लोग उस दिन शाम को जवाहर कला केन्द्र पहुंचे। लिटरेचर फेस्टिवल की वजह से हमेशा खचाखच भरा रहने वाला जेकेके का कॉफी हाऊस उस दिन खाली खाली-सा था। हॉ जेकेके के रॅगायन सभागार के सामने कुछ लोग अवश्य खड़े थे। ऐसा तभी होता है जब वहॉ या तो नाटक होने वाला हो या कोई पुरानी क्लासिक फिल्म प्रदर्शित की जाने वाली हो। जिस बात की सूचना नोटिस बोर्ड पर चस्पॉ कर दी जाती है। मैंने उत्सुकतापूर्ण नोटिसबोर्ड को देखा तो उससे भी ज्यादा उत्तेजनापूर्ण सूचना चस्पॉ थी " जतिन दास का व्याख्यान , शाम 5:30 पर रंगायन सभागार में'। जतिन दास की कलाकृतियों को देखना तथा दोनों अलग अलग अनुभव है। जतिन दास ही क्या, किसी भी कलाकार को सुनना दुर्लभ ही होता है। हम जगह पर कब्जा करने के उद्देश्य से सभागर में भागे तो यह देख कर दंग रह गये कि सभागार मुश्किल से बीस लोग थे और जतिनदास जी उपस्थित लोगों से अनौपचारिक बातचीत कर रहे थे। हमें देखते बोले- आईये आईये बैठ जाईये। पता नहीं जतिन दास को क्या महसूस हो रहा हो पर इतने कम लोगों को देख कर मुझे बहुत कोफ़्त हो रही थी। जयपुर में आये दिन चित्रों की प्रदर्शनियॉ लगती है जिससे पता चलता है कि यह शहर छोटे बड़े चित्रकारों से अटा पड़ा होगा। तो क्या उन्हे इतने बड़े चित्रकार को सुनने का समय नहीं है? या जरूरत नहीं है? आयोजको ने सफाई भी दी कि उन्होने सारे अखबारों को सूचना दी थी पर किसी ने छापी नहीं थी ( क्योकि उस दिन सभी स्थानीय दैनिक, लिटरेचर फेस्टिवल में शिरकत कर रहे जावेद अख्तर और गुलजार आदि के खबरो से भरे पड़े थे) आयोजकों ने यह भी बताया कि उन्होने सारे स्कूल कालेजों कों सूचित कर दिया था क्योंकि यह व्याख्यान कला के विद्यार्थियों के लिये सर्वाधिक महत्वपूर्ण थी। पर जो कुछ भी हो, यह हमारा सौभाग्य था कि इतने कम लोगों के बावजूद जतिन दास ने अपना व्याख्यान गर्मजोशी से दिया।
जतिन दास के व्याख्यान में उनकी मुख्य चिन्ता कला के एकेडिमिक प्रशिक्षण को लेकर थी। उन्होने कहा कि कला सर्वव्यापी है जबकि विद्यालयों में इसे दायरे में बॉधना सिखाया जाता है और कलाकृतियों के प्रदर्शन के लिये गैलरियों में जगह निर्धारित कर दिया गया है। प्रशिक्षुओं को लोक कलाओं की विस्तृत जानकारी नहीं दी जाती है। शुरूआत में ही एक्र्रेलिक थमा दिया जाता है जबकि प्रारॅभ में उसे पारंपरिक कलाओं को पारंपरिक तरीके से करने का अभ्यास करना चाहिये। कला के विकास के लिये साधना आवश्यक है जबकि लोग विद्यालय से निकलने के बाद बाजार में घूमने लगतें हैं और अपने काम का मूल्यॉकन उसके दाम से करने लगतें हैं।उन्होने दुख व्यक्त किया कि कला की अन्य विधाओं जैसे साहित्य संगीत का मूल्यॉकन उसके सौन्दर्य शास्त्र के हिसाब से होता है जबकि चित्रकला में उसी चित्र को श्रेष्ठ मानने का रिवाज़ हो गया है जिसकी बोली ज्यादा लगती है। यह स्थिति कला के लिये अत्यन्त घातक है। उन्होने कहा कि आजकल कला के क्षेत्र विलगाव की भी घातक प्रवृत्ति देखी जा रही है । साहित्य के लोग चित्रकला की बात नहीं करतें हैं चित्रकार साहित्य नहीं पढ़ता। संगीत वालो की अपनी अलग दुनिया होती है। जबकि पहले ऐसा नहीं होता था। कई चित्रकार अच्छे कवि भी थे और कई कवि अच्छे चित्रकार भी रहे हैं। राष्ट्रभ्पति भवन की जिसने आर्किटेक्टिंग की थी वह आर्किटेक्ट नहीं, बल्कि एक चित्रकार था। जतिन दास ने जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल पर कटाक्ष करते हुये कहा कि मेले के हो हल्ले के बीच कवि अपना कविता पाठ करता है वह किसी काम का? जबकि कविता पाठ के लिये एक अलग माहौल चाहिये होता है। जतिन दास ने कला सीखने वालों को एक मूलमन्त्र बताया ' लर्न- अनलर्न-क्रियेट"। अर्थात पहले सीखो, फिर जितना सीखा है वह भूल जाओ और अपना सृजन करो।जतिन दास का व्याख्यान लगभग आधा घन्टा चला। उसके बाद उन्होने अपने चित्रों का स्लाईड शो किया तथा सभागार में उपस्थित लोगो से विनोदपूर्ण शैली में अनौपचारिक बातचीत भी करते रहे। स्लाईड शो के बीच उनके मुंह से वाह वाह निकल जा रहा था तो एक ने विनोदपूर्ण तरीके से उन्हे टोका तो उन्होने जवाब दिया कि जब बनाई थी तब उतनी अच्छी नहीं लग रही थी, अब लग रही है तो तारीफ कर रहा हूं। उन्होने एक और मजेदार बताई कि वे एक बढ़िया कुक भी हैं। एक कलाकर कोई भी काम करेगा तो पूरे मनोयोग से करेगा। इसलिये ज्यादातर कलाकार खाना भी बढ़िया बनातें हैं।
दुर्भाग्य से इतनी महत्वपूर्ण कलात्मक गतिविधि की रिपोर्टिगं के लिये आयोजको द्वारा निमिंत्रत किये जाने के बावजूद एक भी पत्रकार सभागार में उपस्थित न था। मुझे सन्तोष इस बात का है कि हाल ही में खरीदे गये अपने सस्ते साधरण हैडींकैम से मैंने व्याख्यान की शतप्रतिशत रिकार्डिगं कर ली है। यह ऐसी अमूल्य निधि है जिसे सबको बॉट कर खुशी होगी। इस हैडींकैम का भविष्य में इससे बेहतर इस्तेमाल शायद ही हो। पर धन्यवाद की पात्र तो पत्नी अपर्णा ही रहेगी जिसने उस दिन जवाहर कला केन्द्र जाने का हठ किया था।

-------- अरूण कुमार 'असफल, जयपुर,
09461202365] arunasafal@rediffmail.com