Showing posts with label जगमोहन रौतेला. Show all posts
Showing posts with label जगमोहन रौतेला. Show all posts

Thursday, October 20, 2016

सम्मानजनक विदाई

यह हैं मृत होते समाज के लक्षण


जगमोहन रौतेला 

वरिष्ठ कथाकार व पत्रकार दयानन्द अनन्त का पार्थिव शरीर गत 13 अक्टूबर 2016 को प्रात: दस बजे नैनीताल के पाइन्स स्थित शमशान घाट में अग्नि को समर्पित कर दिया गया . उनकी अंतिम यात्रा भवाली के कहलक्वीरा गॉव स्थित उनके घर से प्रात: नौ बजे शुरु हुई . उनको मुखाग्नि पुत्र अनुराग ढौडियाल ने दी . उनकी अंतिम यात्रा में लेखन , पत्रकारिता व संस्कृतिकर्मी , परिवारीजन , उनके गॉव के लोग मौजूद थे . उनका अंतिम संस्कार उनकी इच्छानुसार नैनीताल के पाइन्स स्थित शमशान घाट पर किया गया . उन्होंने अपने परिवार के लोगों और मित्रों से कहा था कि उनकी मौत भले ही कहीं भी हो , लेकिन अंतिम संस्कार नैनीताल के पाइन्स शमशान घाट पर ही किया जाय .
       उनके सैकड़ों मित्रों व हजारों प्रशंसकों के होने के बाद भी उनकी अंतिम यात्रा में मुठ्ठी भर लोगों का मौजूद रहना अनेक सवाल छोड़ गया है . अंतिम यात्रा में दिल्ली से पहुँचे समयान्तर के सम्पादक व वरिष्ठ कथाकार पंकज बिष्ट , उनकी पत्नी , युवा कथाकार अनिल कार्की , रंगकर्मी महेश जोशी , भाष्कर उप्रेती , विनीत ,संजीव भगत , ग्राम प्रधान नवीन क्वीरा आदि कुछ लोग ही मौजूद रहे . पंकज बिष्ट की बीमार पत्नी का शमशान घाट तक पहुँचना अनन्त जी के प्रति उनके आत्मीय सम्बंधों व सम्मान को बता गया . युवा कथाकार अनिल कार्की का कहना है कि वे ठीक से चल भी नहीं पा रही थी , इसके बाद भी वह शमशान घाट तक पहुँची . पर मुठ्ठी भर लोगों का एक प्रसिद्ध कथाकार व अपने समय के प्रखर पत्रकार की अंतिम यात्रा में शामिल होना कार्की के लिए बहुत ही पीड़ादायक था . वह कहते हैं ," यदि जीवन के अंतिम समय में भी आप सक्रिय नहीं हैं या फिर आपके परिवार के साथ भविष्य के लिए लोगों का " स्वार्थ " नहीं जुड़ा है तो यह दुनिया आपके किसी भी तरह की सामाजिक , साहित्यिक कर्मशीलता को भूला देने में क्षण भर भी नहीं लगाती और  यह समाज बहुत ही खुदगर्ज है ". अंतिम यात्रा में उनके शुभचिंतकों , मित्रों व प्रशंसकों में से किसी के भी मौजूद न रहने पर पंकज बिष्ट को भी बहुत पीड़ा हुई . उन्होंने भाष्कर उप्रेती से सवाल किया कि क्या पहाड़ में अब लोग अपने लोगों को अंतिम यात्रा में यूँ ही लावारिस सा छोड़ देते हैं ? ये कैसा बन रहा है हमारा पहाड़ ?
       यह स्थिति तब हुई जब नैनीताल , भवाली , हल्द्वानी , रामनगर , रुद्रपुर , अल्मोड़ा , भीमताल में ही लेखन , साहित्य , संस्कृतिकर्म और तथाकथित जनसरोकारों से जुड़े चार - पॉच सौ लोग तो हैं ही . और इनमें कई लोग दयानन्द जी से सीधे तौर पर जुड़े हुए भी थे . या यूँ कहें कि उनके पारिवारिक सदस्यों की तरह थे . उनके साथ आत्मीय सम्बंधों के बारे में इन लोगों के बयान तक छपे . पर इनमें से भी किसी ने उन्हें अंतिम विदाई देने के लिए जाना तक उचित नहीं समझा . कुछ लोगों ने पहले ही दिन उनके घर जाकर अपनी सामाजिक व उनके प्रति आत्मीय जिम्मेदारी पूरी कर ली थी . इनमें से किसी ने भी यह सोचने व सुध लेने की कोशिस नहीं की कि कल उनकी अंतिम यात्रा कैसे होगी ? ऐसा भी नहीं है कि उनकी मौत की सूचना लोगों तक नहीं पहुँची हो . चौबीस घंटे पहले उनकी मौत हो गई थी . सोशल मीडिया और अखबारों के माध्यम से उनके मौत की खबर दूर - दूर तक पहुँच गई थी . इसके बाद भी उनकी अंतिम यात्रा में रचनाकर्म से जुड़े लोगों का न पहुँचना भी हमारी सामाजिक संवेदना व जिम्मेदारियों के प्रति एक बड़ा व घिनौना सवाल खड़े करता है ? क्या समाज में खुद को सबसे बड़ा संवेदनशील होने का ढ़िढौरा पिटने वाले लोग भी दूसरों की तरह ही असमाजिक व असंवेदनशील हो गए हैं ? जिनके पास अपने रचनाकर्म की बिरादरी के एक व्यक्ति को अंतिम विदाई तक देने का समय नहीं था ? या उन्होंने इसकी अपनी सामाजिक जिम्मेदारी ही नहीं समझी ?
       इससे आहात भाष्कर उप्रेती कहते हैं ," नैनीताल को आज भी चिंतनशील , सांस्कृतिक चेतना व वैचारिक धरातल वाले लोगों का शहर माना जाता है . जो समय - समय पर सरकारों की जनविरोधी नीतियों के सावर्जनिक प्रतिरोध के रुप में सामने भी आता रहा है . पर अनन्त जी की अंतिम यात्रा में शहर के लोगों ने जिस तरह की बेरुखी दिखाई उसने मुझे अंदर तक हिला कर रख दिया है . मैं यह सोचने को विवश हूँ कि इस शहर के लोग इतने आत्मकेन्द्रित कब से हो गए ? क्या हमारी सामाजिक व सांस्कृतिक चेतना केवल गोष्ठियों , सभा , प्रदर्शनों तक ही सीमित है ?" इसी तरह का सवाल भवाली के उन लोगों के लिए भी है , जो शहर में सांस्कृतिक व वैचारिक कार्यक्रम करवाते रहते हैं और उसमें बाहर से लोगों को आमंत्रित भी करते हैं . जिनमें अनन्त जी जैसे लोग भी बहुत होते हैं . ये लोग भी अपने शहर के पास ही रहने वाले अनन्त जी की अंतिम यात्रा से क्यों दूर रहे ? उन्होंने एक सामाजिक जिम्मेदारी तक का निर्वाह क्यों नहीं किया ?
       सवाल भवाली से मात्र आधे घंटे की दूरी पर रामगढ़ में स्थित कुमाऊं विश्वविद्यालय के महादेवी वर्मा सृजन पीठ पर भी उठता है . पीठ की स्थापना साहित्यिक विचार - विमर्श व लेखकों को साहित्य सृजन के लिए एक अनुकूल वातावरण प्रदान करने के लिए की गई है . जहॉ ठहर कर लेखक अपनी रचनाओं का सृजन कर सकते हैं . तो क्या पीठ सिर्फ इसके लिए ही है ? इसका उत्तर हो सकता है कि वह सरकार के अधीन है और उसी आधार पर कार्य करता है . यह बात सही भी है , लेकिन सृजन पीठ की क्या यह नैतिक जिम्मेदारी नहीं बनती थी कि वह अपने समय के एक वरिष्ठ कथाकार के अवसान की जानकारी पीठ से जुड़े सभी रचना व संस्कृतिकर्मियों को देता ? और भवाली के आस - पास रहने वाले इस तरह के सभी लोगों से अनन्त जी की अंतिम यात्रा में शामिल होने का अनुरोध करता ? यदि हम किसी लेखक , कवि, कथाकार व संस्कृतिकर्मी की अंतिम यात्रा के समय अपनी सामाजिक जिम्मेदारी भी पूरी नहीं कर सकते हैं तो फिर उनके न रहने पर उनकी रचनाओं का विश्लेषण और उन पर शोध व चर्चा करने का नैतिक अधिकार हमारे पास रहता है क्या ?
        इससे तो यही लगता है कि हम चाहे खुद को जितना संवेदनशील , समाज चिंतक व उसका पैरोकार होने का दावा करें , लेकिन हम भीतर से पूरी तरह से खोखले और लिजलिजे हो चुके हैं .उनका पुत्र अनुराग स्थानीय रुप से बिल्कुल ही अकेला पड़ गया था . अगर ग्राम प्रधान नवीन क्वीरा ने अपने स्तर से उनके अंतिम यात्रा की तैयारी न की होती तो क्या होता ? तब शायद अनुराग और उनकी मॉ उमा अनन्त को इस समाज के प्रति घृणा व गुस्सा ही पैदा होता और कुछ नहीं ! अपने प्रसिद्ध रचनाकार पति की अंतिम यात्रा में मुठ्ठी भर लोगों को देखकर पीड़ा व क्षोभ का भाव तो उनके मन में होगा ही . भले ही वह उसे अभी बाहर नहीं निकाल पा रही हों . यह सोचकर ही मन ग्लानि व शर्म से भर उठता है .
        अंतिम यात्रा में न तो स्थानीय विधायक ही दिखाई दी और न कोई मन्त्री और संत्री . दूसरे स्तर के और भी किसी जनप्रतिनिधि ने भी अंतिम यात्रा में शामिल होना उचित नहीं समझा . किसी छुटभय्यै और मवाली टाइप के नेता की मौत को भी समाज के लिए अपूरणीय क्षति बताने के लम्बे - लम्बे बयान देने और शवयात्रा में शामिल होकर घड़ियाली ऑसू बहाने वाले जिले के छह विधायकों , दो मन्त्रियों और कई पूर्व विधायकों में से किसी ने उनकी अंतिम यात्रा में शामिल होना तो दूर उनके शोक में दो शब्द तक नहीं कहे . यह हमारे राजनैतिक नेताओं के चरित्र के दोगलेपन की धज्जी तो उड़ाता ही है , साथ ही यह भी बताता है कि अपने समय , समाज , संस्कृति , लोक व साहित्य की चिंता करने और उसको संरक्षित करने के इनके भारी - भरकम बयान कितने उथले और छद्म से भरे होते हैं .
          मुख्यमन्त्री हरीश रावत गत 14-15 अक्टूबर को दो दिन हल्द्वानी में रहे , लेकिन उन्होंने भी अनन्त जी के घर जाकर पारिवार के लोगों से संवेदना व्यक्त करने की आवश्यकता नहीं समझी . ऐसा नहीं हो सकता कि मुख्यमन्त्री को अनन्त जी के बारे में कोई जानकारी ही न हो कि वे कौन थे ? जब अनन्त जी दिल्ली से " पर्वतीय टाइम्स " का सम्पादन कर रहे थे , तब मुख्यमन्त्री अल्मोड़ा से सांसद होते थे . जिन तेवरों के साथ " पर्वतीय टाइम्स " उत्तराखण्ड के सवालों व मुद्दों को लेकर निकल रहा था उसमें वे अखबार , उसके सम्पादक व उसकी टीम से अवश्य ही परिचित रहे होंगे . उनका साक्षात्कार भी उसमें प्रकाशित हुआ होगा ( मुझे इसकी जानकारी नहीं है , इसलिए ) . हो सकता है कि एक लम्बा अर्सा बीत जाने से मुख्यमन्त्री उन्हें भूल गए हों , क्योंकि करना अधिकतर नेताओं के डीएनए में शामिल होता है . पर क्या उनके भारी - भरकम सूचना तंत्र और उनकी सलाहकार मंडली ने भी उन्हें इसके बारे में कोई जानकारी नहीं दी ? यदि यही सच है तो फिर उनके इस लापरवाह सूचना तंत्र का " सर्जिकल स्ट्राइक " किए जाने की तुरन्त आवश्यकता है .
       यह जिले के सूचना विभाग व जिला प्रशासन की कार्यप्रणाली पर भी गम्भीर सवाल उठाता है . जो मीडिया की आड़ में दलाली करने , बड़े नेताओं व प्रशासनिक अधिकारियों की गणेश परिक्रमा करने वालों के हर सुख - दुख का ख्याल बहुत ही संजीदा होकर तो करता है , लेकिन अनन्त जी जैसे प्रसिद्ध कथाकार व पत्रकार की मौत पर कोई प्रतिक्रिया तक व्यक्त नहीं करता . इससे साफ पता चलता है कि उसके पास अपने जिले में रहने वाले हर क्षेत्र के सक्रिय व प्रसिद्ध लोगों के बारे में कितनी जानकारी है ? क्या सूचना विभाग का कार्य केवल मन्त्रियों के दौरे पर विज्ञप्तियॉ जारी करना और मीडिया की आड़ में दलाली करने वालों की जी हजूरी करना भर रह गया है ?
      यह असंवेदनशीलता लोगों ने केवल अनन्त जी के बारे में ही दिखाई हो , ऐसा भी नहीं है . उनकी मौत से दो दिन पहले ही प्रसिद्ध इतिहासकार व महाविद्यालयों में प्राचार्य रहे डॉ. राम सिंह की भी पिथौरागढ़ में 10 अक्टूबर की रात मृत्यु हुई थी . जिनका अंतिम संस्कार 11 अक्टूबर 2016 को किया गया . वे पिथौरागढ़ शहर से कुछ दूर गैना गॉव में रहते थे . उनकी अंतिम यात्रा में भी गॉव व उनके पारिवार के 20-25 लोगों के अलावा और कोई नहीं था . उनकी अंतिम यात्रा में पहुँचे वरिष्ठ पत्रकार व कहानीकार प्रेम पुनेठा भी पिथौरागढ़ के लोगों के इस असामाजिक व्यवहार से बहुत दुखी हैं . वे कहते हैें ," ऐसा नहीं है कि डॉ. राम सिंह पिथौरागढ़ के लिए कोई अनजान चेहरा हों . शहर में होने वाले किसी भी तरह के वैचारिक , सांस्कृतिक गोष्ठी में वे ही मुख्य वक्ता होते थे . उनके बिना इस तरह के आयोजनों की कल्पना तक नहीं होती थी . और कुछ भी नहीं तो उनके साथ अध्यापन कार्य करने वाले और उनके पढ़ाए हुए ही दर्जनों लोग पिथौरागढ़ में हैं . उन लोगों में से भी किसी ने उनकी अंतिम यात्रा में शामिल होना जरुरी क्यों नहीं समझा ? यह सवाल मुझे बहुत व्यथित किए हुए है . जिसका एक ही जबाव मुझे नजर आता है कि हम दोहरी व सामाजिकता के नाम पर बहुत ही खोखली जिंदगी जी रहे हैं ".
     अपने - अपने क्षेत्र के प्रसिद्ध व समाज को अपने कार्यों से बहुत कुछ देने वाले इन दो व्यक्तियों की अंतिम यात्रा में समाज के लोगों ने जिस तरह की बेरुखी दिखाई उससे यह लगता कि जैसे आपकी दुनिया से सामाजिक रुप से सम्मानजनक विदाई के लिए भी आपको किसी " गिरोह " का सम्मानित सदस्य होना आवश्यक है . अन्यथा जो लोग आपके जीवित रहते आपके साथ बैठने और सानिध्य पाने में गर्व का अनुभव करते थे , वे भी आपसे किनारा करने में क्षण भर नहीं लगायेंगे . यह एक तरह से तेजी के साथ मृत होते समाज के ही लक्षण लगते हैं .

Monday, January 11, 2016

यह कैसी सांस्‍कृतिक होड़ है

तकनीक पर पूरी तरह से अपनी गिरफ्त डाल कर मुनाफे की हवस से गाल फुलाने वाले बाजार ने विकास के मानदण्‍ड के लिए जो पैमाने खड़े किये हैं, उसने वैयक्तिक स्‍वतंत्रता तक को अपना ग्रास बना लिया है। मनुष्‍यता के हक के किसी भी विचार को शिकस्‍त देने के लिए उसने ऐसे सांस्‍कृतिक अभियान की रचना की है, हमारे मध्‍यवर्ग मूल्‍य भी उसके आगोश में खुद ब खुद समाते जा रहे हैं। विभ्रम फैलाते उसके मंसूबों को पहचानना इसलिए मुश्किल हुआ है। सौन्‍दर्य प्रतियोगिताओं का फैलता संसार उसकी ऐसे ही षडयंत्रों की सांस्‍कृतिक गतिवि‍धि है। देख सकते हैं पिछले कई सालों से दुनिया भर के तमाम पिछड़े इलाकों में उसकी घुसपैठ ने सौन्‍दर्य प्रसाधनों का आक्रमण सा किया है। ऐसे ही एक अाक्रमण के प्रति पत्रकार जगमोहन रौतेला की चिन्‍ताएं देहरादून से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका युगवाणी के जनवरी 2016 के पृष्‍ठों पर दिखायी दी है जिसे यहां इस उम्‍मीद के साथ पुन: प्रस्‍तुत किया जा रहा है कि बाजारू संस्‍कृति के आक्रमणकारी व्‍यवहार पर एक राय बनाने में मद्द मिले।
- वि.गौ.          

*** जगमोहन रौतेला 


महिलाओं को बाजार का हिस्सा बनाने का एक दूसरा षडयंत्र है तरह- तरह की सौंदर्य प्रतियोगितायें . वैसे ये प्रतियोगितायें सालों से होती आ रही हैं , लेकिन पहले इसमें मध्यवर्ग की महिलायें ( लड़कियॉ ) हिस्सा नहीं लेती थी . फैशनपरस्त परिवार की लड़कियॉ ही इसमें हिस्सेदारी किया करती थी . पिछले कुछ दशकों से जब से बाजारवाद ने मध्यवर्ग को भी अपनी चपेट में लेना शुरु किया तब से इस वर्ग की लड़कियों में भी " सुन्दर " दिखने की चाह जाग उठी है . सुन्दर दिखाने की यही चाहत उसे देश और विदेश में सौन्दर्य के नाम पर होने वाली कथित प्रतियोगिताओं की ओर भी आकर्षित कर रही है . यही आकर्षण मध़्यवर्ग की लड़कियों को इन प्रतियोगिताओं में भाग लेने को " उत्तेजनापूर्ण " तरीके से प्रेरित करता है . बाजारवाद के इस अतिवाद भरे दौर में जब से 1990 के दशक में ऐशवर्या राय को " मिस वर्ड " और सुष्मिता सेन को " मिस यूनिवर्स " बनाया गया तो तब से भारत के मध्यवर्ग में अपनी लड़कियों को सौन्दर्य प्रतियोगिताओं में भेजने की एक अलग तरह की होड़ सी मची है . कुछ इसी तरह की होड़ राज्य बनने के बाद उत्तराखण्ड में जबरन दिखायी जा रही है . यहॉ के अधिकतर शहर उच्च जीवन शैली वाले न होकर कस्बाई संस्कृति वाले ही हैं . इसके बाद भी कुछ लोग जबरन देहरादून जैसे कथित आधुनिक शहर में सौन्दर्य प्रतियोगितायें करवाते रहते हैं . इसकी चपेट में अब हल्द्वानी को लिया जाने लगा है . कुछ साल पहले देहरादून की निहारिका सिंह ने भी कोई अनजान सी सौन्दर्य की प्रतियोगिता जीत (?) ली थी . उसके बाद वह जब देहरादून आयी तो उसने एक लम्बा - चौड़ा बयान अखबारों को दिया कि उत्तराखण्ड की हर लड़की निहारिका सिंह बन सकती है . कुछ समय तक मीडिया की सुर्खियों में रहने वाली निहारिका सिंह अब कहॉ है और क्या कर रही है ? शायद ही आम लोगों को पता हो ? निहारिका आज जहॉ भी हो लेकिन उत्तराखण्ड में सौन्दर्य का बाजार तलाशने वाले कुछ चंट - चालाक लोगों के मंशूबे अवश्य ही फलीभूत हुये हैं . ऐसे ही लोगों ने कोटद्वार निवासी उर्वशी रौतेला के पिछले दिनों मिस यूनिवर्स प्रतियोगिता में हिस्सा लेने पर मीडिया के माध्यम से यह प्रचारित किया कि वे उत्तराखंड की गरीमा , देश की प्रतीक और भविष्य की उम्मीद हैं . मीडिया और इस तरह की तथाकथित सौन्दर्य प्रतियोगिताओं से जुड़ कर अपना व्यवसायिक हित साधने वाला कार्पाेरेट ऐसा वातावरण बना रहे थे कि मानो उर्वशी समाज के हित में कोई बहुत बड़ा कार्य करने जा रही हो और वह वहॉ से कथित तौर पर जीतकर लौटी तो उत्तराखण्ड और देश की शान में चार चॉद लग जायेंगे . प्रतियोगिता में हिस्सेदारी के लिये लास वेगास जाने से पहले उर्वशी ने देहरादून और कोटद्वार का दौरा भी किया और जगह-जगह लोगों से अपने पक्ष में वोट देने की अपील भी की . उसने अनेक देवताओं के थानों में मत्था टेककर अपने लिये आशीर्वाद तक मॉगा . बाजारवाद की हिमायती हमारी सरकार के मुखिया हरीश रावत ने भी लोगों से उर्वशी के पक्ष में वोट देने की अपील कर डाली .पर जब 21 दिसम्बर 2015 को लास वेगास में उर्वशी के हाथ कुछ नहीं लगा तो उसने अपनी भड़ास आयोजकों पर यह कह कर निकाली कि उसके साथ भेदभाव किया गया और उसे जानबूझकर हराया गया . अतिरेक में वह यह तक कह गयी कि मेरे राज्य उत्तराखण्ड व देश से मुझे ज्यादा समर्थन ( वोट ) नहीं मिला . जिसकी वजह से मैं हार गयी . मतलब ये कि उर्वशी अपनी तथाकथित हार का ठीकरा दूसरों के सिर ऐसे फोड़ रही थी मानो उसे न जीताकर देश और उत्तराखण्ड ने एक भयानक गलती कर दी हो . वास्तव में सौन्दर्य के नाम पर आयोजित की जाने वाली इस तरह की प्रतियोगितायें पुरुषों द्वारा सार्वजनिक रुप से नारी के शरीर को सौन्दर्य के नाम पर कामुकता भरी नजरों से देखने के सिवा और कुछ नहीं हैं . ऐसा नहीं है तो क्यों उसे एक तरह से निरावरण होकर अपने शरीर का कथित सौन्दर्य पुरुषों को दिखाना पड़ता है ? और उसके कथित सौन्दर्य को परखने के पैमाने में शरीर के हर अंग को मापदंड क्यों बनाया जाता है ? सौन्दर्य को परखने की कोई प्रतियोगिता करनी ही है तो उसे महिलायें ही महिलाओं के सामने क्यों नहीं परखती ? क्या नारी अपने सौन्दर्य को खुद नहीं परख सकती है ? उसका पारखी क्या केवल और केवल पुरुष ही हो सकता है ? यदि यही सच है तो फिर ये प्रतियोगितायें सौन्दर्य के नाम पर पुरुषों की कामुक नजरों का " ठंडा " करने के सिवा और कुछ नहीं हैं . तब ऐसी स्थिति में हमें किसी निहारिका सिंह या किसी उर्वशी के इस तरह की प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने पर कतई नहीं इतराना चाहिये . ये लोग हमारे समाज की महिलाओं के लिये कतई आदर्श नहीं हो सकते हैं , वह इसलिये भी कि ऐसी कथित प्रतियोगितायें महिला को एक " भोग की वस्तु " के अलावा और कुछ समझने के लिये तैयार नहीं हैं . और ऐसी सोच को बढ़ावा देने से महिलाओं का मान नहीं अपमान ही होता है . **