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Thursday, October 20, 2016

सम्मानजनक विदाई

यह हैं मृत होते समाज के लक्षण


जगमोहन रौतेला 

वरिष्ठ कथाकार व पत्रकार दयानन्द अनन्त का पार्थिव शरीर गत 13 अक्टूबर 2016 को प्रात: दस बजे नैनीताल के पाइन्स स्थित शमशान घाट में अग्नि को समर्पित कर दिया गया . उनकी अंतिम यात्रा भवाली के कहलक्वीरा गॉव स्थित उनके घर से प्रात: नौ बजे शुरु हुई . उनको मुखाग्नि पुत्र अनुराग ढौडियाल ने दी . उनकी अंतिम यात्रा में लेखन , पत्रकारिता व संस्कृतिकर्मी , परिवारीजन , उनके गॉव के लोग मौजूद थे . उनका अंतिम संस्कार उनकी इच्छानुसार नैनीताल के पाइन्स स्थित शमशान घाट पर किया गया . उन्होंने अपने परिवार के लोगों और मित्रों से कहा था कि उनकी मौत भले ही कहीं भी हो , लेकिन अंतिम संस्कार नैनीताल के पाइन्स शमशान घाट पर ही किया जाय .
       उनके सैकड़ों मित्रों व हजारों प्रशंसकों के होने के बाद भी उनकी अंतिम यात्रा में मुठ्ठी भर लोगों का मौजूद रहना अनेक सवाल छोड़ गया है . अंतिम यात्रा में दिल्ली से पहुँचे समयान्तर के सम्पादक व वरिष्ठ कथाकार पंकज बिष्ट , उनकी पत्नी , युवा कथाकार अनिल कार्की , रंगकर्मी महेश जोशी , भाष्कर उप्रेती , विनीत ,संजीव भगत , ग्राम प्रधान नवीन क्वीरा आदि कुछ लोग ही मौजूद रहे . पंकज बिष्ट की बीमार पत्नी का शमशान घाट तक पहुँचना अनन्त जी के प्रति उनके आत्मीय सम्बंधों व सम्मान को बता गया . युवा कथाकार अनिल कार्की का कहना है कि वे ठीक से चल भी नहीं पा रही थी , इसके बाद भी वह शमशान घाट तक पहुँची . पर मुठ्ठी भर लोगों का एक प्रसिद्ध कथाकार व अपने समय के प्रखर पत्रकार की अंतिम यात्रा में शामिल होना कार्की के लिए बहुत ही पीड़ादायक था . वह कहते हैं ," यदि जीवन के अंतिम समय में भी आप सक्रिय नहीं हैं या फिर आपके परिवार के साथ भविष्य के लिए लोगों का " स्वार्थ " नहीं जुड़ा है तो यह दुनिया आपके किसी भी तरह की सामाजिक , साहित्यिक कर्मशीलता को भूला देने में क्षण भर भी नहीं लगाती और  यह समाज बहुत ही खुदगर्ज है ". अंतिम यात्रा में उनके शुभचिंतकों , मित्रों व प्रशंसकों में से किसी के भी मौजूद न रहने पर पंकज बिष्ट को भी बहुत पीड़ा हुई . उन्होंने भाष्कर उप्रेती से सवाल किया कि क्या पहाड़ में अब लोग अपने लोगों को अंतिम यात्रा में यूँ ही लावारिस सा छोड़ देते हैं ? ये कैसा बन रहा है हमारा पहाड़ ?
       यह स्थिति तब हुई जब नैनीताल , भवाली , हल्द्वानी , रामनगर , रुद्रपुर , अल्मोड़ा , भीमताल में ही लेखन , साहित्य , संस्कृतिकर्म और तथाकथित जनसरोकारों से जुड़े चार - पॉच सौ लोग तो हैं ही . और इनमें कई लोग दयानन्द जी से सीधे तौर पर जुड़े हुए भी थे . या यूँ कहें कि उनके पारिवारिक सदस्यों की तरह थे . उनके साथ आत्मीय सम्बंधों के बारे में इन लोगों के बयान तक छपे . पर इनमें से भी किसी ने उन्हें अंतिम विदाई देने के लिए जाना तक उचित नहीं समझा . कुछ लोगों ने पहले ही दिन उनके घर जाकर अपनी सामाजिक व उनके प्रति आत्मीय जिम्मेदारी पूरी कर ली थी . इनमें से किसी ने भी यह सोचने व सुध लेने की कोशिस नहीं की कि कल उनकी अंतिम यात्रा कैसे होगी ? ऐसा भी नहीं है कि उनकी मौत की सूचना लोगों तक नहीं पहुँची हो . चौबीस घंटे पहले उनकी मौत हो गई थी . सोशल मीडिया और अखबारों के माध्यम से उनके मौत की खबर दूर - दूर तक पहुँच गई थी . इसके बाद भी उनकी अंतिम यात्रा में रचनाकर्म से जुड़े लोगों का न पहुँचना भी हमारी सामाजिक संवेदना व जिम्मेदारियों के प्रति एक बड़ा व घिनौना सवाल खड़े करता है ? क्या समाज में खुद को सबसे बड़ा संवेदनशील होने का ढ़िढौरा पिटने वाले लोग भी दूसरों की तरह ही असमाजिक व असंवेदनशील हो गए हैं ? जिनके पास अपने रचनाकर्म की बिरादरी के एक व्यक्ति को अंतिम विदाई तक देने का समय नहीं था ? या उन्होंने इसकी अपनी सामाजिक जिम्मेदारी ही नहीं समझी ?
       इससे आहात भाष्कर उप्रेती कहते हैं ," नैनीताल को आज भी चिंतनशील , सांस्कृतिक चेतना व वैचारिक धरातल वाले लोगों का शहर माना जाता है . जो समय - समय पर सरकारों की जनविरोधी नीतियों के सावर्जनिक प्रतिरोध के रुप में सामने भी आता रहा है . पर अनन्त जी की अंतिम यात्रा में शहर के लोगों ने जिस तरह की बेरुखी दिखाई उसने मुझे अंदर तक हिला कर रख दिया है . मैं यह सोचने को विवश हूँ कि इस शहर के लोग इतने आत्मकेन्द्रित कब से हो गए ? क्या हमारी सामाजिक व सांस्कृतिक चेतना केवल गोष्ठियों , सभा , प्रदर्शनों तक ही सीमित है ?" इसी तरह का सवाल भवाली के उन लोगों के लिए भी है , जो शहर में सांस्कृतिक व वैचारिक कार्यक्रम करवाते रहते हैं और उसमें बाहर से लोगों को आमंत्रित भी करते हैं . जिनमें अनन्त जी जैसे लोग भी बहुत होते हैं . ये लोग भी अपने शहर के पास ही रहने वाले अनन्त जी की अंतिम यात्रा से क्यों दूर रहे ? उन्होंने एक सामाजिक जिम्मेदारी तक का निर्वाह क्यों नहीं किया ?
       सवाल भवाली से मात्र आधे घंटे की दूरी पर रामगढ़ में स्थित कुमाऊं विश्वविद्यालय के महादेवी वर्मा सृजन पीठ पर भी उठता है . पीठ की स्थापना साहित्यिक विचार - विमर्श व लेखकों को साहित्य सृजन के लिए एक अनुकूल वातावरण प्रदान करने के लिए की गई है . जहॉ ठहर कर लेखक अपनी रचनाओं का सृजन कर सकते हैं . तो क्या पीठ सिर्फ इसके लिए ही है ? इसका उत्तर हो सकता है कि वह सरकार के अधीन है और उसी आधार पर कार्य करता है . यह बात सही भी है , लेकिन सृजन पीठ की क्या यह नैतिक जिम्मेदारी नहीं बनती थी कि वह अपने समय के एक वरिष्ठ कथाकार के अवसान की जानकारी पीठ से जुड़े सभी रचना व संस्कृतिकर्मियों को देता ? और भवाली के आस - पास रहने वाले इस तरह के सभी लोगों से अनन्त जी की अंतिम यात्रा में शामिल होने का अनुरोध करता ? यदि हम किसी लेखक , कवि, कथाकार व संस्कृतिकर्मी की अंतिम यात्रा के समय अपनी सामाजिक जिम्मेदारी भी पूरी नहीं कर सकते हैं तो फिर उनके न रहने पर उनकी रचनाओं का विश्लेषण और उन पर शोध व चर्चा करने का नैतिक अधिकार हमारे पास रहता है क्या ?
        इससे तो यही लगता है कि हम चाहे खुद को जितना संवेदनशील , समाज चिंतक व उसका पैरोकार होने का दावा करें , लेकिन हम भीतर से पूरी तरह से खोखले और लिजलिजे हो चुके हैं .उनका पुत्र अनुराग स्थानीय रुप से बिल्कुल ही अकेला पड़ गया था . अगर ग्राम प्रधान नवीन क्वीरा ने अपने स्तर से उनके अंतिम यात्रा की तैयारी न की होती तो क्या होता ? तब शायद अनुराग और उनकी मॉ उमा अनन्त को इस समाज के प्रति घृणा व गुस्सा ही पैदा होता और कुछ नहीं ! अपने प्रसिद्ध रचनाकार पति की अंतिम यात्रा में मुठ्ठी भर लोगों को देखकर पीड़ा व क्षोभ का भाव तो उनके मन में होगा ही . भले ही वह उसे अभी बाहर नहीं निकाल पा रही हों . यह सोचकर ही मन ग्लानि व शर्म से भर उठता है .
        अंतिम यात्रा में न तो स्थानीय विधायक ही दिखाई दी और न कोई मन्त्री और संत्री . दूसरे स्तर के और भी किसी जनप्रतिनिधि ने भी अंतिम यात्रा में शामिल होना उचित नहीं समझा . किसी छुटभय्यै और मवाली टाइप के नेता की मौत को भी समाज के लिए अपूरणीय क्षति बताने के लम्बे - लम्बे बयान देने और शवयात्रा में शामिल होकर घड़ियाली ऑसू बहाने वाले जिले के छह विधायकों , दो मन्त्रियों और कई पूर्व विधायकों में से किसी ने उनकी अंतिम यात्रा में शामिल होना तो दूर उनके शोक में दो शब्द तक नहीं कहे . यह हमारे राजनैतिक नेताओं के चरित्र के दोगलेपन की धज्जी तो उड़ाता ही है , साथ ही यह भी बताता है कि अपने समय , समाज , संस्कृति , लोक व साहित्य की चिंता करने और उसको संरक्षित करने के इनके भारी - भरकम बयान कितने उथले और छद्म से भरे होते हैं .
          मुख्यमन्त्री हरीश रावत गत 14-15 अक्टूबर को दो दिन हल्द्वानी में रहे , लेकिन उन्होंने भी अनन्त जी के घर जाकर पारिवार के लोगों से संवेदना व्यक्त करने की आवश्यकता नहीं समझी . ऐसा नहीं हो सकता कि मुख्यमन्त्री को अनन्त जी के बारे में कोई जानकारी ही न हो कि वे कौन थे ? जब अनन्त जी दिल्ली से " पर्वतीय टाइम्स " का सम्पादन कर रहे थे , तब मुख्यमन्त्री अल्मोड़ा से सांसद होते थे . जिन तेवरों के साथ " पर्वतीय टाइम्स " उत्तराखण्ड के सवालों व मुद्दों को लेकर निकल रहा था उसमें वे अखबार , उसके सम्पादक व उसकी टीम से अवश्य ही परिचित रहे होंगे . उनका साक्षात्कार भी उसमें प्रकाशित हुआ होगा ( मुझे इसकी जानकारी नहीं है , इसलिए ) . हो सकता है कि एक लम्बा अर्सा बीत जाने से मुख्यमन्त्री उन्हें भूल गए हों , क्योंकि करना अधिकतर नेताओं के डीएनए में शामिल होता है . पर क्या उनके भारी - भरकम सूचना तंत्र और उनकी सलाहकार मंडली ने भी उन्हें इसके बारे में कोई जानकारी नहीं दी ? यदि यही सच है तो फिर उनके इस लापरवाह सूचना तंत्र का " सर्जिकल स्ट्राइक " किए जाने की तुरन्त आवश्यकता है .
       यह जिले के सूचना विभाग व जिला प्रशासन की कार्यप्रणाली पर भी गम्भीर सवाल उठाता है . जो मीडिया की आड़ में दलाली करने , बड़े नेताओं व प्रशासनिक अधिकारियों की गणेश परिक्रमा करने वालों के हर सुख - दुख का ख्याल बहुत ही संजीदा होकर तो करता है , लेकिन अनन्त जी जैसे प्रसिद्ध कथाकार व पत्रकार की मौत पर कोई प्रतिक्रिया तक व्यक्त नहीं करता . इससे साफ पता चलता है कि उसके पास अपने जिले में रहने वाले हर क्षेत्र के सक्रिय व प्रसिद्ध लोगों के बारे में कितनी जानकारी है ? क्या सूचना विभाग का कार्य केवल मन्त्रियों के दौरे पर विज्ञप्तियॉ जारी करना और मीडिया की आड़ में दलाली करने वालों की जी हजूरी करना भर रह गया है ?
      यह असंवेदनशीलता लोगों ने केवल अनन्त जी के बारे में ही दिखाई हो , ऐसा भी नहीं है . उनकी मौत से दो दिन पहले ही प्रसिद्ध इतिहासकार व महाविद्यालयों में प्राचार्य रहे डॉ. राम सिंह की भी पिथौरागढ़ में 10 अक्टूबर की रात मृत्यु हुई थी . जिनका अंतिम संस्कार 11 अक्टूबर 2016 को किया गया . वे पिथौरागढ़ शहर से कुछ दूर गैना गॉव में रहते थे . उनकी अंतिम यात्रा में भी गॉव व उनके पारिवार के 20-25 लोगों के अलावा और कोई नहीं था . उनकी अंतिम यात्रा में पहुँचे वरिष्ठ पत्रकार व कहानीकार प्रेम पुनेठा भी पिथौरागढ़ के लोगों के इस असामाजिक व्यवहार से बहुत दुखी हैं . वे कहते हैें ," ऐसा नहीं है कि डॉ. राम सिंह पिथौरागढ़ के लिए कोई अनजान चेहरा हों . शहर में होने वाले किसी भी तरह के वैचारिक , सांस्कृतिक गोष्ठी में वे ही मुख्य वक्ता होते थे . उनके बिना इस तरह के आयोजनों की कल्पना तक नहीं होती थी . और कुछ भी नहीं तो उनके साथ अध्यापन कार्य करने वाले और उनके पढ़ाए हुए ही दर्जनों लोग पिथौरागढ़ में हैं . उन लोगों में से भी किसी ने उनकी अंतिम यात्रा में शामिल होना जरुरी क्यों नहीं समझा ? यह सवाल मुझे बहुत व्यथित किए हुए है . जिसका एक ही जबाव मुझे नजर आता है कि हम दोहरी व सामाजिकता के नाम पर बहुत ही खोखली जिंदगी जी रहे हैं ".
     अपने - अपने क्षेत्र के प्रसिद्ध व समाज को अपने कार्यों से बहुत कुछ देने वाले इन दो व्यक्तियों की अंतिम यात्रा में समाज के लोगों ने जिस तरह की बेरुखी दिखाई उससे यह लगता कि जैसे आपकी दुनिया से सामाजिक रुप से सम्मानजनक विदाई के लिए भी आपको किसी " गिरोह " का सम्मानित सदस्य होना आवश्यक है . अन्यथा जो लोग आपके जीवित रहते आपके साथ बैठने और सानिध्य पाने में गर्व का अनुभव करते थे , वे भी आपसे किनारा करने में क्षण भर नहीं लगायेंगे . यह एक तरह से तेजी के साथ मृत होते समाज के ही लक्षण लगते हैं .

Wednesday, November 4, 2015

गैरसैण विधानसभा सत्र का औचित्य

दिनेश चन्‍द्र जोशी 
लेखक; कवि साहित्यकार, देहरादून

फिलवक्त तक उत्‍तराखंड की काल्पनिक राजधानी गैरसैण में विधानसभा के सत्र को आयोजित करने का हो हल्ला बड़े जोर ,शोर से चल रहा है। बिजली, पानी, आवास,सड़क, चमक दमक ,हाल ,माईक ,सजावट ,सोफे, कालीन ,बुके फूलमाला, गाडि़यों ,मिनरल वाटर , भोज, डिनर की व्यवस्था बाकायदा कार्यदल बना कर हो रही है। इस कार्य हेतु करोड़ों से कम बजट क्या लगेगा। जनभावना के सम्मान हेतु इतना गंवा भी दिया तो कोई हर्ज नहीं। खबरों में यह दृश्य बड़ा ही उत्साहजनक व पर्व की तरह पेश किया जा रहा है और राज्य की भोली भावुक जनता को दिगभ्रमित किया जा रहा है। 
गैरसैण भौगोलिक रूप से कुमाऊ व गढ़वाल के मèय व संगम स्थल पर, चौरस घाटी होने की वजह से निर्माण व विकास की संभावना से युक्त है। जल संसाधन व पर्यावरण की दृष्टि से भी निरापद है। भूकम्प व आपदारोधी होने की मान्यता हेतु गठित वैज्ञानिकों की कमेटी ने भी तीन चार सुझाये नामों में गैरसैण को अमान्य करार नहीं दिया है। इस कारण गैरसैण उत्‍तराखंड की स्थाई राजधानी हेतु एक फेवरेट ब्रांडनेम है। जनभावनाओं की अभिव्‍यक्ति, सामाजिक सरोकारों से जुड़े बुद्धिजीवी, जनप्रतिनिधि, आन्दोलनकारी ,पत्रकार व कलाकारों का पक्ष भी गैरसैण को साियी राजधानी बनाने के पक्ष में है। 
संयोग है कि यह स्थल वीर चन्‍द्र सिंह गढ़वाली के जन्म स्थान के निकट स्थित है। इन दिलचस्प तथ्यों को ही ध्यान में रखते हुए राजधानी के सवाल पर स्वंय डांवाडोल सरकारें भी जब तक विधानसभा सत्र आयोजित करके एक तीर से कई निशाने साधना चाहती रही हैं। सारा मसला वोट बटोरू राजनीति का है और अगले चुनाव को ध्यान में रखते हुए ही जिसका समय 2017 निकट आता जा रहा, वर्तमान सरकार अपने झूठ को गैरसैण ब्रांड की मारकेटिंग के साथ फोकट में ही लाभ अर्जित करने की मंषाएं पाले विधानसभा सत्र और मेले ठेले आयोजित करना चाहती है। 
अब जरा गौर से इस गैरसैण सत्र प्रकरण का विश्लेषण करें तो यह सारा माजरा पुराने जमाने के गोचर मेले, जौलजेबी, नन्दा देबी मेले या स्याल्दे, मोस्टमानू मेले जैसे सांस्‍कृतिक पर्व का आभास कराता प्रतीत होता है, जिनमें लोक संस्‍कृति व स्थानीय उत्पादों की बिक्री व ब्रांडिग होती थी। फर्क सिर्फ इतना है कि इस सत्र द्वारा गैरसैण मेले में वर्तमान सरकार,नेताओं, मंत्रियों, नोकरशाहों, अधिरकारियों, छुटभय्यों, ठेकेदारों व उत्साही कार्यकर्ताओं की ब्रांडिग व बिक्री होगी।
एक दो दिवसीय सत्र हेतु पूरी सरकार देहरादून से गैरसैण शिफ्ट होगी।कारों के काफिले दौड़ेंगे, प्राइवेट टैक्सी,इनोवा, स्र्कापियो गाड़ी वैन्डरों को काम मिलेगा, उनकी  चांदी कटेगी। हैलीकाप्टरों का उपयोग किफायत दर्शाने हेतु वÆजत किया जायेगा। मंत्रियों, नौकरशाहों को मार्ग की टूटफूट, दुर्गमता व कठिन भूगोल में नौकरी करने का अभ्यास कराया जायेगा। लेकिन कुल मिला कर यह एक सुगम व पिकनिकनुमा अवसर ही होगा,
केदारनाथ त्रासदी के वक्त जैसा कष्टपूर्ण व चुनौती भरा मौका तो यह कतई नहीं होगा, जब सरकार को अग्नि परीक्षा के बेहद कठिन दौर से गुजरना पड़ा था। उस वक्त बड़े बड़े आला अधिकारियों, चीफसेक्रेटरी,कलक्टर से लेकर छोटे कर्मचारियों तक को रुद्रप्रयाग  गुप्तकाशी, फाटा तक में कैम्प आफिस लगा कर आपदा राहत कायों की देखरेख कर असली नौकरी करने का कष्ट झेलना पड़ा था  साथ ही  मुख्यमंत्री सहित विधायकों तक की नींद हराम हो गई थी, हालांकि ठोस जमीनी कार्य सेना, अर्धसैनिक बलों व स्वैचिछक संगठनों ने किया था,पर संयोजन प्रबन्धन हेतु सरकार की भी एक भूमिका थी। 

गैरसैण सत्र के मौके पर यह अवांतर प्रसंग इसलिये जेहन में आना लाजमी है कि जब हम उस त्रासद कष्टपूर्ण समय में उतने दुर्गम स्थलों पर गये, ठहरे व सराकारी गैरसरकारी संगठनों के माèयम से एक बदतर सुविधा विहीन पहाड़ में सेवाभाव अथवा मजबूरीवश ही सही समस्या का समाधान कर पाये तो गैरसैण में स्थाई राजधानी बना कर क्यों नहीं रह सकते।
यह आयोजन इस कारण एक मजबूरीनुमा कर्तब्य जैसा ही है। मजबूरी इसलिये कि जनभावना को पटाये रखना है, कर्तब्य इसलिये कि मुद्दा जीवन्त बना रहे तो आज नहीं तो कल उसका लाभ उठाने की दहाड़ लगाई जा सके। हो सकता है गैरसैण स्थाई राजधानी बन ही जाय। लोकतंत्र की गति व आंखमिचौली इसी तरह चलती रहती है, जिसमें कभी रंगमंच भी वास्तविक यथार्थ के रूप में तब्दील हो जाता है।
हम उमीद करते हैं कि आने वाले बच्चों के समान्य ज्ञान में गैरसैण उत्‍तराखंड की राजधानी के रूप में अंकित हो, और वे, वीर चन्‍द्रसिंह गढ़वाली सहित दूसरे तमाम आन्दोलन कारियों को उस इतिहास में पढ़ें.बांचें और जान पाएं कि एक नामालूम से गांव गैरसैण के राजधानी बनने में कैसे कैसे संघर्ष और छद्म मौजूद रहे। दुनिया को खुशहाल बनाने की उम्‍मीद संजाेयी संघर्षशील जनता काे कभी हताश न होने का संदेश भी दे सके और संघर्ष की जीत के लिए छद्मों से निपटने के पाठ भी पढ़ा सके।  


Sunday, July 13, 2014

पसंद से ज्यादा नापसंद का इज़हार

                                      ---  यादवेन्द्र 
सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति वाला गोपाल सुब्रहमण्यम मामला अभी ठण्डा भी नहीं हुआ था कि वर्तमान शासन की सोच से मेल न खाती एक फ़िल्म के प्रति नापसंदगी को ज़ाहिर करता अधैर्य सामने आ गया।  
एक छोटी सी लगभग अचर्चित ख़बर यह है कि 2013 के 61 वें राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कारों से सम्मानित फ़िल्मों के जून के अंतिम दिनों में संपन्न दिल्ली समारोह की पूर्व घोषित प्रारंभिक फ़िल्म हंसल मेहता की शाहिद थी पर बदले हुए राजनैतिक परिदृश्य में बगैर कोई तार्किक कारण बताये इसके स्थान पर मराठी की सुमित्रा भावे निर्देशित अस्तु दिखला दी गयी। सभी राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फ़िल्मों को दिखलाना ही था सो शाहिद  को अगले दिन प्रदर्शित किया गया।इस बदलाव से पूर्ववर्ती कार्यक्रम के लिए स्वयं उपस्थित रहने की अपनी औपचारिक सहमति दे चुके हंसल मेहता ने न सिर्फ़ दुखी और अपमानित महसूस किया बल्कि उन्हें इसमें राजनैतिक रस्साकशी की बू भी आयी। 
  
ध्यान रहे कि 61 वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की जूरी के अध्यक्ष अलबर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है और नसीम जैसी अविस्मरणीय फ़िल्में बनाने वाले सईद अख़्तर मिर्ज़ा थे और एम एस सथ्यु ( गर्म हवा जैसी मील का पत्थर फ़िल्म के निर्देशक )और उत्पलेंदु चक्रवर्ती( सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का पुरस्कार पाने वाली बांग्ला फ़िल्म चोख के निर्देशक ) समिति के सदस्य थे --इसी जुड़ी ने शाहिद को श्रेष्ठ निर्देशन और अभिनय  के लिए पुरस्कृत किया गया तो अस्तु को श्रेष्ठ संवादों और सहायक अभिनेत्री के लिए इनाम दिया गया। यहाँ तक तो हिसाब किताब बराबर पर सृजनात्मक कृतियों को तुलनात्मक तौर पर वैसे बिलकुल नहीं तोला जा सकता है जैसे तराजू पर कोई सामान रख कर डंडियों का झुकाव देख लिया जाता है -- ज़ाहिर है अपने अपने तरीके और दृष्टिकोण से शाहिद और अस्तु नाम से दो अलहदा फ़िल्में बनायीं गयी हैं और उनको डंडी वाले तराजू पर सामान की माफ़िक तोला नहीं जा सकता। पहली फ़िल्म मानवाधिकारों की रक्षा और निर्दोष गरीबों को इन्साफ़ दिलाने के लिए अपनी जान तक जोखिम में डाल देने वाले वकील शाहिद काज़मी के जीवन की वास्तविक घटनाओं पर आधारित बायोपिक फ़िल्म है जबकि दूसरी फ़िल्म डिमेंशिया से ग्रसित एक वृद्ध संस्कृत विद्वान और पिता की चिंता में दिन रात एक किये हुए उनकी बेटी के आपसी रिश्तों की बारीक और आम तौर पर ओझल रहने वाली परतों की मार्मिक कथा है जिसमें बेटी कभी बेटी तो कभी माँ की भूमिका में नज़र आती है। इन दोनों की तुलना कैसे की जा सकती है ?

आहत हंसल मेहता जब यह कहते हैं कि किन्हीं कारणों से यदि मेरी फ़िल्म को प्रारम्भिक फ़िल्म के गौरव से वंचित करना ही था तो उसकी जगह आनंद गांधी की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का पुरस्कार जीत चुकी शिप ऑफ़ थीसियस का प्रदर्शन किया जा सकता था …  हाँलाकि वह अगली साँस में ही बतौर एक फ़िल्म अस्तु की प्रशंसा करना भी नहीं भूलते।बेशक किसी भी कलाकार का अपनी कृति के साथ गहरा भावनात्मक लगाव और आग्रह जुड़ा होता है पर उसके स्थानापन्न के चुनाव में "अ" बनाम "ब" का मापदण्ड अपनाना उचित और नैतिक नहीं होगा। 

पर हंसल मेहता ने इस घटना के सन्दर्भ में जिन प्रश्नों को उठाया है उनसे मुँह मोड़ना चिंगारी देख कर भी धुँए से इंकार करने सरीखा होगा। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि फिल्म के प्रदर्शन में बदलाव के कारण सिनेमा से परे हैं -- उन्होंने अनौपचारिक तौर पर बतलाये गए कारणों (शाहिद की  विषयवस्तु  के कारण कम दर्शकों की उपस्थिति की आशंका और अस्तु के कास्ट और क्रू का समारोह स्थल पर उपस्थिति होना ) को सिरे से नकार दिया। पर उनको समारोह के पहले दिन 29 जून को फ़िल्म के साथ आमंत्रित करने की तारिख ( 15 मई ) पर गौर करें तो सबकुछ शीशे की तरह एकदम साफ़ हो जाता है --- अगले दिन देश का राजनैतिक नक्शा पूरी तरह से बदल जाता है। ऐसे में सम्बंधित अफ़सरान की निष्ठा इधर से उधर हो जाये तो इसमें अचरज कैसा ?
हंसल इस बर्ताव से गहरे तौर पर आहत हुए हैं और कहते हैं कि शाहिद को पुरस्कार मिलने पर कई लोगों ने इसकी सृजनात्मक श्रेष्ठता को नहीं बल्कि एक समुदाय विशेष का पृष्ठपोषण करने को रेखांकित किया … पर यह फिल्म भारतीय समाज में बड़े पैमाने पर व्याप्त गैर बराबरी चाहे वह किसी भी जाति या सम्प्रदाय की हो के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाती है।गहरी पीड़ा के साथ वे आगे कहते हैं कि वे पिछली सरकार की आडम्बरपूर्ण तुष्टिकरण की नीतियों का विरोध करते थे और शाहिद इन्हीं विचारों का प्रखर दस्तावेज़ है।वैसे ही वे बदले हुए माहौल में देश के ऊपर मँडरा रही अराजक बहुसंख्यावादी शक्तियों का भी अपनी कला के माध्यम से भरसक विरोध करेंगे। उन्होंने आयोजनकर्ताओं को सिनेमा को सिनेमा रहने देने की नसीहत दी और आग्रह किया कि वे अपने राजनैतिक बाध्यताएँ सिनेमा के ऊपर न थोपें।

अच्छे दिनों की यह गला घोंटने वाली कैसी आहट है ? 

Saturday, November 5, 2011

दिल्ली से रांची या चंडीगढ़ की दूरी



गुरशरण सिंह

राम दयाल मुंडा


सितम्बर माह के आखिरी दिनों में देश ने ऐसी दो  विभूतियाँ खोयी हैं जिनकी जड़ें अपने अपने समाज में बेहद गहरी थीं पर जिनके क्रियाकलाप  पूरे देश की सांस्कृतिक अस्मिता को क्रियाशील बनाये रखने के लिए  प्राणवायु का काम कर रहे थे.लम्बे सक्रिय जीवन के बाद इन दोनों का विदा होना जितना अप्रत्याशित नहीं था उस से ज्यादा चौंकाने वाला था हमारे राष्ट्रीय कहे जाने वाले मेनस्ट्रीम सूचना माध्यमों का उनका नाम लेने की जरुरत से इनकार.इनमें से एक गुरशरण सिंह पंजाबी गाँवों शहरों में पंजाबी भाषा में अपना काम करते हुए चंडीगढ़ में गुज़र गए तो दूसरे राम दयाल मुंडा झारखण्ड के आदिवासी समाज का कायापलट करने का स्वप्न लिए हुए पूरी दुनिया में अपनी योग्यता का झंडा गाड़ने के बाद रांची के एक अस्पताल में लगभग गुमनामी में चल बसे....क्या दिल्ली से इन इलाकों की दूरी इतनी ज्यादा है कि सन्देश पहुंचना मुमकिन नहीं?
गुरशरण सिंह
27 सितम्बर को अंतिम साँस लेने वाले तत्कालीन पाकिस्तान में पैदा हुए और पिछले पचास साल से भी ज्यादा समय से पंजाब के गाँव गाँव में निर्भीकता पूर्वक अलख जगाने  वाले 82 वर्षीय गुरशरण सिंह देश में नुक्कड़ नाटकों के भीष्म पितामह के रूप में जाने जाते हैं पर उनका कद ऐसा था कि राजनैतिक जागरण का माध्यम बने नुक्कड़ नाटकों को कलाविहीन कह कर नाक भौं सिकोड़ने वाले कला पंडितों को भी उन्हें संगीत नाटक अकादमी और कालिदास सम्मान  प्रदान करना पड़ा.बिजली विभाग में इंजिनियर की नौकरी परवाह न करते हुए उन्होंने शहीद भगत सिंह के संदेशों को गाँव गाँव में पहुँचाने का जो संकल्प लिया था उसको आखिरी दम तक पूरा  किया.इमरजेंसी की सख्त पाबंदियों को धता बताते हुए और हिंसक उग्रवाद के दिनों में भी अन्याय का प्रतिकार करने और आपसी भाईचारा बनाये रखने का सन्देश देते हुए उन्होंने अपनी नाटक मंडली को निरंतर सक्रिय रखा.वामपंथी सोच वाले संस्कृतिकर्मी देश के किसी भी कोने में क्यों न काम कर रहे हों गुरशरण सिंह के नुक्कड़ नाटक उनके प्रमुख हथियार रहे और ऐसे जत्थों में या तो ग़दर की शैली  में जनगीत गए जाते थे या फिर गुरशरण सिंह की शैली में...यहाँ तक कि उन्होंने प्रसिद्ध उद्बोधन गीत इंटरनेश्नल को भी ठेठ पंजाबी धुनों में प्रस्तुत किया.कहा जाता है कि पंजाब में हर सरकारी दस्तावेज में पिता के साथ साथ माँ का नाम अनिवार्य तौर पर लिखने की पहल उन्होंने ही की और खुले तौर पर मंचों से उनको कहते सुना गया कि सामाजिकरूप में स्त्री पुरुष की  बराबरी के बारे में बहुत सी बातें अपनी बेटी से सिखने को मिलीं.उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता ऐसी थी कि मृत्यु के बाद कोई धार्मिक कार्यक्रम नहीं किया गया और अंतिम तौर पर उनके अवशेष भगत सिंह के  शहादत  स्थल हुसैनीवाला  पर ले जाकर मिट्टी को सुपुर्द कर दिए गए.पर उनकी मृत्यु की खबर पंजाबी सूबे से बाहर सुर्कियों में नहीं आ पाई...कम से कम हिंदी की मुख्यधारा को तो इसमें प्रेरणादायक मसाला  दिखा नहीं...या गुरशरण सिंह को पंजाबी भाषा भाषियों की जिम्मेदारी पर ही छोड़ने का सद्विचार  उत्पन्न हो गया.           
 
  30 सितम्बर  को देश की आदिवासी संस्कृति के बड़े विद्वान और पैरोकार 72 वर्षीय प्रो. राम दयाल मुंडा का निधन हो गया पर राष्ट्रीय कहे जाने वाले  बड़े समाचार माध्यमों में इस घटना की कहीं कोई गूंज नहीं सुनाई दी.झारखण्ड प्रदेश की परिकल्पना को व्यवहारिक रूप देने वाले विचारकों में प्रो.मुंडा अग्रणी थे, बरसों अमेरिकी शिक्षा संस्थानों में अध्यापन करने के बाद रांची विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर भी रहे.  कहा जाता है कि प्रो. मुंडा का कमरा झारखण्ड के युवा नेतृत्व  का उदगम और प्रशिक्षण स्थल रहा.दुर्भाग्य यह कि आदिवासी समाज,संस्कृति और भाषाओं पर उनका काम देश में कम  और विदेशों में ज्यादा समादृत  था इसी लिए अमेरिका सहित अनेक देशों में वे   अध्यापन कार्य करते रहे. 'नाची से बांची" का जुमला बार बार दुहराने वाले प्रो.मुंडा  एक स्वतः स्फूर्त लोक  गायक और नर्तक के रूप में भी जाने जाते थे और 2004 में मुंबई संपन्न वर्ल्ड सोशल फोरम में उनकी शिरकत में यह पक्ष खुल कर सामने आया. .उनकी इन्ही विशेषज्ञताओं  की बदौलत उन्हें  पद्मश्री और संगीत नाटक अकादमी की सस्यता से सम्मानित किया गया.कुछ समय पहले उन्हें राज्य सभा के सदस्य के रूप में नामित किया गया था.अपने विचारों के प्रचार प्रसार के लिए पहले उन्होंने खुद अपना एक राजनैतिक दल बनाया पर संगठन का अनुभव  न होने के कारण उसको उन्हें शिबू सोरेन के दल झारखण्ड मुक्ति मोर्चा  में शामिल करना पड़ा.वहाँ भी उनको जब कोई सार्थक काम होता हुआ नहीं दिखा तो कांग्रेस में शामिल हो गए.
राम दयाल मुंडा
उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि आदिवासी समाज के दस करोड़ सदस्यों को(हिन्दू समुदाय के बाद दूसरा सबसे बड़ा समुदाय) जबरन हिन्दू या ईसाई समुदाय के अंदर समाहित करने की साजिश आजादी के बाद से की जाती रही है.पर आदिवासियों की आराधना पद्धति विशिष्ट तौर पर प्रकृति पूजा की है और उन्हें देश के छह धार्मिक समुदायों से अलग मान्यता मिलनी चाहिए...उनकी धार्मिक मान्यता को नयी पहचान प्रदान करने के लिए उन्होंने आदि धर्म का आन्दोलन शुरू किया था...इसी नाम से उन्होंने आदिवासियों की प्रचलित आराधना पद्धतियों को संकलित करते हुए एक किताब भी लिखी थी.प्रो.मुंडा की अनेक स्थापनाओं से हमारी असहमति हो सकती है पर अपनी माटी और बिरासत से गहन रूप से जुड़े हुए ऐसे  इतिहास पुरुष के बारे में जानना सिर्फ झारखंडी समाज के लिए जरुरी है? क्या ऐसे मनस्वी के निधन के बाद झारखण्ड से इतर समाज के अख़बारों और समाचार माध्यमों में उनको कुछ पंक्तियों का स्थान देना भी हमारे अ-सहिष्णु समाज को मंजूर नहीं?   
 
     प्रस्तुति:-       यादवेन्द्र
yapandey@gmail.com

Sunday, July 18, 2010

उत्तराखंड में जंगल के परदेसी दुश्मन को न्योता

नैनीताल  के चाफी नामक स्थान में उगाई जा रही है खतरनाक  खरपबार यूरोपियन ब्लैक बेरी लैंटाना जैसी हमलावर प्रजाति है ब्लैक बेरी, आस्ट्रेलिया को भी इस झाड़ी ने कर रखा है परेशान

अरविंद शेखर
पूरा देश लैंटाना, गाजर घास जैसी जंगल की दुश्मन झाडि़यों से पहले से परेशान है, पर इन सभी चिंताओं को दरकिनार कर निर्यात और किसानों की आय बढ़ाने के ख्वाब के साथ उत्तराखंड में जंगल के एक नए परदेसी दुश्मन को न्योता दे दिया गया है। स्टेट इन्फ्रास्ट्रक्चर एंड इंडस्टि्रयल डेवलपमेंट कॉरपोरेशन ऑफ उत्तराखंड लिमिटेड (सिडकुल) के पीपीपी मोड में चलने वाले एक फ्लोरिकल्चर पार्क में यूरोपियन ब्लैक बेरी को उगाया जा रहा है। लैंटाना की तरह की इस हमलावर प्रजाति की व्यावसायिक खेती की तैयारी चल रही है। योजना 200 से 400 स्थानीय किसानों को ब्लैक बेरी की पौध वितरित करने की है, ताकि वे यूरोपियन ब्लैक बेरी के पौधे अपने खेतों की मेढ़ों में उगा सकें। यूरोपियन ब्लैक बेरी ऐसी हमलावर विदेशी प्रजाति है जिसके प्रकोप से आस्ट्रेलिया जैसा देश परेशान है और इससे छुटकारा पाने के लिए तरह-तरह की योजनाएं चला रहा है। 1835 के आस-पास आस्ट्रेलिया पहुंची ब्लैक बेरी वहां के 88 लाख हेक्टेयर क्षेत्र यानी तस्मानिया से भी बड़े क्षेत्र पर प्रभुत्व स्थापित कर चुकी है। यह वहां की स्थानीय प्रजातियों का सफाया कर चुकी है। इसकी वजह से जंगलों के पेड़ कमजोर हो गए और उनसे मिलने वाली लकड़ी कम हो गई। 1998 की एक रिपोर्ट के मुताबिक आस्ट्रेलिया को जहां ब्लैकबेरी से छह लाख आस्ट्रेलियाई डॉलर का लाभ होता था, वहीं इसके मैनेजमैंट पर 421 लाख आस्ट्रेलियाई डॉलर खर्च हो जाते थे। 70 के दशक में ही आस्ट्रेलिया जैविक तरीकों से इसकी रोकथाम के उपाय खोज सका, मगर वे भी आज तक बहुत कामयाब नहीं हो पाए हैं। दून स्थित वन अनुसंधान संस्थान एफआरआई के वनस्पति प्रभाग के प्रमुख डॉ. सुभाष नौटियाल का कहना है कि यूरोपियन ब्लैक बेरी दो डिग्री से 30 डिग्री तापमान पर ही होती है। ठंडे पहाड़ी इलाके इसके लिए बहुत मुफीद हैं। ऐसे में यह पर्वतीय वनस्पति तंत्र के लिए खतरनाक साबित हो सकती है। मजेदार बात यह है कि नैनीताल जिले में मुक्तेश्वर के पास चाफी नामक स्थान पर इंडो-डच संयुक्त प्रोजेक्ट के फ्लोरिकल्चर पार्क के निदेशक एवं कृषि विशेषज्ञ सुधीर चड्ढा बताते हैं कि प्रदेश में यूरोपियन ब्लैक बेरी उत्पादन की व्यापक संभावनाएं हैं। उत्तराखंड में ब्लैकबेरी यूरोप से दो माह पहले उगाई जा सकती है। ब्लैकबेरी को उत्तराखंड में उन दिनों उगाया जा सकता है, जब यूरोप में भारी बर्फबारी होती है। उस अवधि में ब्लैकबेरी फ्रीज करके यूरोपवासियों को निर्यात की जा सकती है। किसान भी इसे उगाकर अपनी आय में बढ़ोतरी कर सकते हैं।

“यह लैंटाना, गाजर घास की तरह विदेशी हमलावर प्रजाति है। इसलिए इसे कड़े नियंत्रण में ही उगाया जाना चाहिए। अगर इसे अनियंत्रित तरीके से उगाया गया तो यह भविष्य में बड़ी समस्या बन सकती है।’’ - डॉ. प्रफुल्ल सोनी (प्रमुख, पर्यावरण एवं पारिस्थिकीय तंत्र प्रभाग, एफआरआई

दूनघाटी पर परदेसी वनस्पतियों का कब्जा
37.61 प्रतिशत प्रजातियां अमेरिकी मूल की ,जबकि 11.46 फीसदी चीनी, 10.77 प्रतिशत अफ्रीकी, 8.02 फीसदी आस्ट्रेलियाई, 5.27 प्रतिशत यूरोपीय, 5.04 प्रतिशत मध्य सागरीय, 3.66 फीसदी जापानी और 2.75 फीसदी वेस्टइंडीज से आई किस्में
इनकी वजह से कई प्रजातियां गायब होने की कगार पर , लैंटाना ने तो राजाजी नेशनल पार्क के 48 फीसदी हिस्से पर कब्जा जमा लिया, गाजर घास आपको जंगल क्या सड़कों के किनारे भी आसानी से फैलती नजर आ सकती है

प्रदेश की राजधानी देहरादून के जंगलों पर परदेसी हमलावरों ने कब्जा जमा लिया है। जी हां, दून घाटी के जंगलों पर अब विदेशी वनस्पति प्रजातियों का कब्जा है। यह परिणाम है दून स्थित देश के जाने माने संस्थान वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के एक अध्ययन के।
वाडिया इंस्टीटूयूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. पीएस नेगी के इस अध्ययन के मुताबिक दून घाटी में 308 विदेशी पेड़ प्रजातियों और 128 परदेसी झाड़ियों और खरपतवारों का कब्जा है। रोचक तथ्य यह है कि इसमें से 37.61 प्रतिशत प्रजातियां अमेरिकी मूल की है जबकि 11.46 फीसदी चीनी, 10.77 प्रतिशत अफ्रीकी, 8.02 फीसदी आस्ट्रेलियाई, 5.27 प्रतिशत यूरोपीय, 5.04 प्रतिशत मध्य सागरीय, 3.66 फीसदी जापानी और 2.75 वेस्टइंडीज से आई किस्में हैं। इटली के टोरिनो विश्वविद्यालय से पर्वतीय पर्यावरण और जलवायु जैव विविधता में स्नातकोत्तर कोर्स करने वाले देश के पहले वैज्ञानिक डॉ. पीएस नेगी का कहना है कि परदेसी प्रजातियों ने भले ही खुद को दून घाटी के वातावरण के अनुरूप ढाल लिया हो मगर ये स्थानीय प्रजातियों के लिए कतई ठीक नहींक्योंकि लैंटाना, गाजर घास, पॉपुलर, यूकिलिप्टस जैसी हमलावर ये प्रजातियां दून घाटी के जंगलों के मूल स्वरूप को ही बिगाड़ रही है। इतना ही नहीं, इनकी वजह से कई प्रजातियां गायब होने की कगार पर हैं लैंटाना ने तो राजाजी नेशनल पार्क के 48 फीसदी हिस्से पर कब्जा जमा लिया है। गाजर घास आपको जंगल क्या सड़कों के किनारे भी आसानी से फैलती नजर आ सकती है। यह अच्छी बात है कि केंद्र सरकार के नेशनल मिशन फॉर ग्रीन इंडिया में जंगलों की हमलावर परदेसी प्रजातियों के नियंत्रण और उन्मूलन पर खास ध्यान दिया गया है। 11वीं पंचवर्षीय योजना के तहत भी पिछले वित्तीय वर्ष के बजट में इसके लिए 30 करोड़ रुपये आवंटित किए गए लेकिन अब जब राज्य मिशन फॉर ग्रीन इंडिया के तहत अपने राज्य का एक्शन प्लान बनाएगा तब उसे इन हमलावर विदेशी प्रजातियों के विस्तार को रोकने और उनका उन्मूलन करने पर विशेष ध्यान देना होगा, नहीं तो जैव विविधता के सभी प्रयास बेकार हो जाएंगे। डॉ. नेगी का कहना है कि वन व उद्यान विभाग को दून घाटी में फैल रही इन विदेशी हमलावर प्रजातियों के बारे में गंभीरता से सोचना होगा और उनके उन्मूलन के लिए एक्शन प्लान बनाना होगा। अन्यथा एक दिन दून घाटी की स्थानीय जैव विविधता खत्म हो जाएगी।

Wednesday, February 10, 2010

उत्तराखण्ड में पत्रकारिता की परम्परा

उत्तराखण्ड के समाजिक, राजनैतिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में युगवाणी उत्तराखण्ड की एक मासिक पत्रिका ही नहीं है बल्कि उत्तराखण्ड में पत्रकारिता का एक ऐतिहासिक सच भी है। अगस्त 15, 1947 को युगवाणी साप्ताहिक पत्र की स्थापना टिहरी राजशाही के विरोध में जन्में आंदोलन का एक रूप था। उत्तराखण्ड में जनआंदोलनों के साथ अपनी प्रतिबद्धता की परम्परा को युगवाणी ने बखूबी निभाने का प्रयास किया है। युगवाणी के संस्थापक आचार्य गोपेश्वर कोठियाल की जन्मशती पर एक कार्यक्रम का आयेाजन किया जा रहा है जिसमें पत्रकारिता की नयी चुनौतियों पर विचार विमर्श किया जाएगा। 13 फरवरी 2010 को युगवाणी द्वारा देहरादून में आयोजित होने वाले इस कार्यक्रम में लीलाधर जगूड़ी, पंकज बिष्ट, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल, समर भण्डारी, शेखर पाठक, राजेन्द्र धस्माना, शमशेर बिष्ट, राजीव लोचन शाह के साथ साथ कई लेखक पत्रकार हिस्सेदारी कर रहे हैं। उम्मीद करते हैं कि कार्यक्रम उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन, चिपको आन्दोलन, टिहरी राज्य आन्दोलन, नशा नहीं रोज़गार दो आन्दोलन, विश्व विद्यालय के लिए आन्दोलन, बाँध विरोधी आन्दोलन, बाँध विस्थापितों के हितों व उनके जनतान्त्रिक अधिकारों को समर्पित आन्दोलनों के कार्यकर्ताओं, पूर्व सम्पादकों, पत्राकारों और बुद्धिजीवियों की विरासत को भी अच्छे से स्थापित करेगा साथ ही उत्तराखण्ड की पत्रकारिता की प्रवृतियों और स्मृतियों का ब्यौरा भी संजो सकेगा।

हमारे समय में आचार्य जी

संजय कोठियाल

आचार्य गोपेश्वर कोठियाल की जन्मशती मनाने का विचार अचानक ही नहीं आया। उनके समय के टीन की छत वाले युगवाणी के दफ्रतर में कोई खास बदलाव नहीं आया है। सिर के ऊपर लकड़ी की कड़ियाँ अभी भी मौजूद हैं। एक ट्रेडल प्रेस जरूर अब यहाँ नहीं है, लेकिन मशीन मैन की जगह कभी खुद अखबार की छपाई करते, अखबार के बण्डल को कन्धों पर रखकर पोस्ट ऑफिस ले जाते हुए और सम्पादक की कुर्सी पर बैठकर सुदूर पहाड़ी गाँवों से मिलने आये लोगों से ध्यान पूर्वक हाल-समाचार लेते हुए आचार्य जी अपनी व्यक्तित्व की पूरी आभा के साथ यहाँ बराबर मौजूद लगते हैं। छोटे-बड़े सभी उम्र के लोगों के साथ वे सामान लगाव से मिलते थे, लेकिन उनसे बात करते समय खुद-ब-खुद एक जिम्मेदारी का भाव पैदा हो जाता था। बातें अर्थपूर्ण होनी चाहिए और शब्दों का उच्चारण ठीक होना चाहिए। देश की राजनीति की हलचलें उद्वेलित कर रही हैं या विभिन्न जनपदों में आन्दोलन की खबरें आ रही हैं। कहने-सुनने की बेचैनी के लिए सोचने-विचारने वाले लोग दस बाई दस के आचार्य जी के कार्यालय में जरूर आना चाहते हैं।
50 वर्षों से ज्यादा समय तक उन्होंने युगवाणी को गम्भीरता, सादगी और परिवर्तन की जन आकाँक्षाओं का केन्द्र बनाया था। वर्ष 1999 में उनके देहावसान के बाद आचार्य जी की कुर्सी की महत्ता का बोध हुआ। यह भी कि बड़े संघर्ष सरल जीवन और सरल विचारों से सम्भव होते हैं। अपने लोक और परिवेश से एकता और हर तरह की संकीर्णता से स्वाभाविक विरोध उनकी वैचारिकी का आधार था। टिहरी की राजशाही से मुक्ति संघर्ष को गति देने के लिए स्वर्गीय श्री भगवती प्रसाद पान्थरी और स्व। श्री तेजराम भट्ट के साथ मिलकर अगस्त 15, 1947 को युगवाणी साप्ताहिक पत्रा की स्थापना की थी। बाद के वर्षों में चुनौतियों की विकट शक्लें थी। पहाड़ों में सड़कों, स्कूल-कॉलेजों और अन्य विकास कार्यों के लिए अपनी चुनी हुई सरकारों से जद्दोजहद करना था। सामन्ती प्रवृतियों और निहित स्वार्थों से संघर्ष करना था।
आज के दौर में देश में पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों पर जनता का भरोसा नष्ट हो चुका है। उत्तरदायित्व विहीन पूँजी हमारे जीवन को संचालित कर रही है। सूचना और संचार माध्यमों पर कारपोरेट जगत ने कब्ज़ा कर लिया है और हमारे सांस्कृतिक, राजनैतिक जीवन को छिन्न-भिन्न करने की कोशिशें तेज हो रही हैं। छोटे क्षेत्राीय प्रकाशन केन्द्रों की जिम्मेदारियाँ बढ़ गयी हैं। हमें इस बात से ताकत मिलती है कि उत्तराखण्ड में क्षेत्रीय एकजुटता व्यापक राष्ट्रहितों के साथ तारतम्यता बनाते हुए विकसित हुई है। समय विनोद (1868), अल्मोड़ा अखबार(1871), गढ़वाल समाचार (1902), गढ़वाली (1905), पुरुषार्थ (1907), विशाल कीर्ति(1907), क्षत्रिय वीर (1922), तरुण कुमाऊँ (1923), गढ़देश (1926), शक्ति (1928), स्वाधीन प्रजा (1930), कर्मभूमि (1938) के बाद युगवाणी (1947) इस परम्परा को जिम्मेदारी के साथ निभाने को यत्नशील हैं।
"जनधारा" आचार्य जी की सीख व प्रेरणा है। नमन्
                                       
                                                                           

Monday, December 7, 2009

एक विरासत का अन्त




हिम आहुजा
(लेखक एक शोधकर्ता हैं जो आजकल टौंस घाटी, जिला उत्तरकाशी में कार्यरत हैं)

माधो सिंह भण्डारी को कौन नहीं जानता? वीरता की मिसाल, उनका नाम पूरे गढ़वाल में जाना जाता है। किन्तु दले सिंह जड़यान इतने भाग्यशाली नहीं। अपितु वीर सही, रवांई क्षेत्र में बच्चा-बच्चा उनका नाम जानता है। उनकी वीरता के कारनामे जानता है। यही सत्य है उस क्षेत्र के अनेक राजपूत वीरों की कथाओं के लिए - जैसे दले सिंह का बेटा जीतू जड़यान, नागदेऊ फन्दाटा, बहादर सिंह और कर्ण महाराज के रांगड़ वज़ीर।

इन्हीं लोगों की वीरता के किस्सों से बना है इस पूरे क्षेत्र का इतिहास। आने वाली कई पीढ़ियों के लिए यही एकमात्र तरीका है अपने पूर्वजों को याद रखने और उन्हें इज्जत देने का। परन्तु बुली दास के बिना, हरकी दून क्षेत्र के देऊरा गाँव से एक साधारण गरीब बाजगी, ये किस्से और इतिहास कब के लुप्त हो जाते।

बुली दास का ज्ञान पीढ़ियों पीछे जाकर रोमांचक, अविश्वसनीय घटनायें ढूँढ लाता था। उन घटनाओं को जिनसे पिछले सैकड़ों साल में इस क्षेत्र का भौगोलिक, सामाजिक एवं राजनीतिक इतिहास निर्मित हुआ।

उदाहरण के तौर पर हिमांचल के बुशेहर और यहां की टौंस घाटी के लोगों के बीच चरागाह विवाद, पीढ़ी दर पीढ़ी चलती आ रही राजपूत खानदानों के बीच की दुश्मनी, एवं अनेक ऐसी कथायें, घटनायें जिन्होंने सिर्फ इस क्षेत्र का इतिहास ही नहीं दर्ज किया अपितु जो लिपिबद्ध इतिहास एवं दस्तावेजों से प्रमाणित भी हुआ।

बाजगी जिन्हें बेड़ा, बादी, औजी, ढ़ाकी आदि नामों से भी जाना जाता है, उत्तराखण्ड के परम्परागत गायक वादक हैं। इनका मुख्य कार्य हर अवसर पर गाँव में गाना और बजाना है। चाहे वे जन्म के गीत हों या मृत्यु के, शादी-ब्याह के, ऋतुओं के, मेलों के और देवता के उत्सवों के, बिना बाजगी के वे सम्पन्न नहीं हो सकते। वे 'मौखिक परम्परा' के भी संवर्धक हैं जिनसे समुदाय की सामुहिक स्मृति जिन्दा रहती है।

मुझे याद है जब मैं पहली बार 2005 में उनके घर गया, तो वे हाईडलबर्ग विश्वविद्यालय के डॉ। विलियम सैक्स को एक 'पंवाड़ा' (वीरता की गाथा) सुनाने में तल्लीन थे। उनका ज्ञान और असर ऐसा था कि डॉ। विलियम ने उन्हें दस साल तक लगातार वृत्तचित्रित किया और उनका रिश्ता एक खूबसूरत दोस्ती में बदल गया।

इस दशहरे, टौंस घाटी की यात्रा पर, मैं बुली दास से मिला। परन्तु इस बार एक कमजोर, निढ़ाल और संक्रमण से जूझते बुली दास ने बिस्तर से मेरा अभिवादन किया। मैं उनके लिए कुछ दवाईयाँ लेकर आया था। हम हमेशा की तरह बैठे और पुरानी कथाओं में खो गये। उनकी आवाज कमजोर थी परन्तु हिम्मत मज़बूत थी। उन्होंने गाना गाने की कोशिश की परन्तु थोड़ी देर बाद ही वे रुक गये और मुझे विस्तार से कहानी रुप में सुनाने लगे।

उनकी सेहत के बारे में चिन्तित, डॉ। विलियम उनका परीक्षण करवाने उन्हें रोहड़ू ले गये। वहाँ पता चला कि उन्हें दमा है। सब प्रकार की दवाईयाँ लेकर वे लौट आये, इस आश्वासन के साथ कि बीमारी मिल जाने पर ईलाज भी शीघ्र हो जायेगा।

आज, सिर्फ दस दिन बाद ही, 62 साल की उम्र में, बुली दास नहीं रहे। वो 'जीवित परम्परा' चली गई। पीछे छोड़ गई वो खनकती हुई हंसी जो मेरे कानों में आज भी गूँज रही है, वो सालों के अनुबद्ध और संग्रहित गाने, गाथायें, कथायें जो सिर्फ उनके समुदाय ही नहीं, अपितु आने वाली कई पीढ़ियों के काम आयेंगें और एक तीखे दर्द का एहसास जो समय के साथ बढ़ता ही जायेगा।

हमारे चारों ओर ऐसी कई 'जीवित परम्परायें' हैं जो हमेशा के लिए खो जाने के कगार पर हैं। उत्तराखण्ड की हर वादी में ऐसे व्यक्तित्व हैं जिन्होंने अपना जीवन अपने समुदाय की 'मौखिक परम्पराओं' को सुरक्षित और जीवित रखने में समर्पित कर दिया। यह उन्हें सिर्फ दक्ष ढ़ोल वादक और गायक के रुप में ही अमूल्य नहीं बनाता अपितु उस 'निरन्तरता' का संग्रहणी बनाता है जिसे हम संस्कृति कहते हैं। टिहरी रियासत से मिलने वाले प्रश्रय का खो जाना और लोगों का परम्परागत गीतों और ढ़ोलों के बजाय डी।जे। और ऑरकेस्ट्रा की धुनों में जादा रुचि लेना- इन सबके कारण इनका जीवनयापन एवं समुची परम्परा ही खतरे में है। यही समय है जब सरकार को जागकर प्रदेश की संस्कृति में इनके बहुमूल्य योगदान को पहचानना चाहिए एवं इस परम्परा को बचाने के लिए हर सम्भव प्रयास करने चाहिएं।

Saturday, October 17, 2009

एक रचनात्मक खबर



जिस तरह अरविन्द शर्मा के लिए पिछले लगभग 16-17 सालों का देहरादून का घटनाक्रम एक खबर हो सकता है, ठीक वैसे ही देहरादूनियों के लिए अरविन्द की खोज एक खबर से कम नहीं। इस खबर को संभव बनाया है एक ऐसे ही देहरादूनिये ने जिनसे मेरा पहला परिचय अरविन्द भाई ने ही करवाया था- कथाकार सूरज प्रकाश। ब्लाग पर जब भी अरविन्द भाई का जिक्र किया तो ब्लाग पोस्टों को पढ़ने के बाद हमेशा खामोश रह जाने वाले सूरज भाई उस समय खामोश न रह पाए - अरविन्द ने कल अचानक मुझे पिछले बीस वर्षों बाद फोन किया, न जाने कहां-कहां से मेरा फोन नम्बर हासिल करने के बाद। यह सूचना भाई सूरज प्रकाश ने ही मेल की थी। भला ऐसा कैसे होता कि उस गुम हो गए अरविन्द को खोज लिए जाने की खबर देहरादून के बाशिंदों को क्यों न चौंकाती। फोन नम्बर सूरज भाई से मिल गया था। अरविन्द भाई से सम्पर्क हुआ तो चौंक गए। मालूम हुआ कि वे अहमदाबाद में ही हैं और लगातार रचनारत हैं।
अवधेश, हरजीत ( दोनों ही अब इस दुनिया में नहीं हैं) और अरविन्द ये तीन ही शख्स रहे देहरादून के, जो कई सारे चित्रों को आड़ा तिरछा काट-चिपका कर कोलाज बनाया करते थे। स्कैच भी बनाते थे। स्कैच बनाने वाला तो एक और शख्स रहा रतिनाथ योगेश्वर। वही रति जिसने दलित धारा के रचनाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि के पहले कविता संग्रह - सदियों का संताप का, जो फिलहाल प्रकाशन, देहरादून से छपा था, कवर पेज स्कैच किया था। आजकल वह भी न जाने कहां है। दो वर्श पूर्व इलाहाबाद में मुलाकात हुई थी। बाद में मालूम हुआ शायद मध्य प्रदेश के किसी इलाके में स्थानानतरित हो गया है वह।
प्रस्तुत है अरविन्द शर्मा के कोलाज।

Tuesday, July 21, 2009

उम्मीदों की एक नई पहल

अभी अभी एक मेल प्राप्त हुई। एक ऎसी खबर जिसके सच होने की कामना ही की जा सकती है।

प्रिय मित्र,

कुछ समय पहले सुप्रतिष्ठित पत्रिका पहल कुछ समय के लिए स्थगित कर दी गई थी। संपादक ज्ञानरंजन की ओर से की गई इस घोषणा को लेकर साहित्य एवं बौद्धिक जगत में अच्छा-ख़ासा विवाद भी उठ खड़ा हुआ था। पहल के चाहने वालों को पत्रिका का इस तरह अचानक बंद होना बेहद अखरा था।

लेकिन अब खुशी की बात ये है कि पहल को फिर से शुरू करने की योजना बन रही है। इस ख़बर को लेकर आप क्या सोचते हैं ये संपादक ज्ञानरंजन और पत्रिका को फिर से शुरू करने वाले लोग जानना चाहते हैं। अत: आपसे निवेदन है कि अपनी विचार हमें फौरन info@deshkaal.com पर भेजें।

हम आपकी प्रतिक्रिया का व्यग्रता से इंतज़ार कर रहे हैं, इसलिए भूलें नहीं।

धन्यवाद एवं शुभकामनाएं।
संपादक
www.deshkaal.com