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Saturday, December 22, 2018

हिंदी जापानी साहित्य संवाद


हिंदी की महत्वपूर्ण कथाकार अल्पना मिश्र की 15 दिनों की  जापान की साहित्यिक यात्रा, भारत और जापान के साहित्यिक-, सांस्कृतिक सम्बन्ध की दिशा में एक बड़ा कदम है । हिंदी साहित्य के इतिहास में यह पहला अवसर था, जब कोई हिंदी का लेखक  वैश्विक स्तर पर सीधा संवाद कर रहा था।  यह दोनों देशों के बीच एक ऐसा बहु आयामी संवाद था जिसे न सिर्फ लंबे वक्त तक याद रखा जाएगा, बल्कि यह दुनिया के इतिहास में   दर्ज की गई परिघटना है। इस दौरान दुनिया के मशहूर लेखकों  में शुमार हिरोमी इटो के साथ अल्पना मिश्र का  विचारोत्तेजक ढाई घंटे का सीधा संवाद दोनों देशों के लिए एक उपलब्धि बना, जो सहेज कर रखने योग्य है।

इस दौरान अल्पना मिश्र के जीवन और लेखन के विभिन्न पहलुओं पर एक वृत्तचित्र भी दिखाया गया।
 
जापान के चार मुख्य शहरों में आयोजित विभिन्न साहित्यिक कार्यक्रम अल्पना मिश्र के लेखन और जीवन पर फोकस किया गया था। इस कार्यक्रम श्रृंखला की शुरुआत 22 नवंबर को इबाराकी में ओटेमोन विश्वविद्यालय के साथ वहाँ के कल्चरल सेंटर में हुई। यहां अल्पना मिश्र ने लम्बा व्याख्यान दिया, जिसमें भारतीय संस्कृति और स्त्रियों की स्थिति पर टिप्पणी के साथ अपनी लेखकीय यात्रा के बारे में भी उन बातों का उल्लेख किया जो उनके लेखक बनने में सहायक रहीं, जिसमें दुनिया के विभिन्न भाषाओं की उन पुस्तकों का भी जिक्र आया जिसने उनके जीवन पर प्रभाव छोड़ा था। व्याख्यान के बाद उपस्थित जापान के बौद्धिकों के साथ भारत जापान के साहित्यिक सांस्कृतिक परिवेश से संबंधित खुला संवाद हुआ । 25 नवंबर की सुबह ओसाका विश्वविद्यालय, ओसाका में जापानी छात्रों के साथ संवाद का सिलसिला जारी रहा । यह एक सुखद बात थी कि जापानी छात्रों में भारत के सांस्कृतिक परिवेश को समझने की जिज्ञासा तीव्र नजर आई । भारत जापान के रिश्ते की मजबूती के लिए साहित्य और संस्कृति को एक सेतु बनाना चाहते हैं । यहाँ उनकी बातों का जापानी में अनुवाद प्रोफेसर ताकाहाशी ने किया। दुनिया की सबसे तेज पूर्ण विकसित व्यस्त और इनोवेटिव शहर टोक्यो में, टोक्यो विश्वविद्यालय के प्रांगण में 28 नवंबर को अल्पना मिश्र के कथा साहित्य के बहाने भारत और हिंदी के मन मिजाज को समझने की  उत्कटता अभिभूत करने वाली थी। अल्पना मिश्र के व्याख्यान के बाद जापान के दो प्रखर आलोचकों कोजी तोको और नाकामुरा काजुए ने अल्पना मिश्र के कथा साहित्य की गहन समीक्षा की।



राजकमल से प्रकाशित उनके उपन्यास 'अस्थि फूल' की रचना प्रक्रिया और उसके सामाजिक राजनैतिक पहलुओं पर विस्तार से बात हुई। 01 दिसम्बर को जापान के खूबसूरत शहर कुमामोटो में जापान की विश्व प्रसिद्ध लेखक हिरोमी ईटो से अल्पना मिश्र का सीधा संवाद हुआ। हिरोमी इटो ने संवाद के क्रम में अल्पना मिश्र से उनकी रचनाओं और भारत में औरतों के हालात के संबंध में  तीखे  सवाल किए जिनका उन्हें माकूल जवाब भी मिला ।वह प्रसन्न और  संतुष्ट भी हुई। दोनों लेखकों ने अपनी अपनी रचनाओं के अंशों का पाठ भी किया । अल्पना मिश्र के साहित्य का जापानी में किये गए अनुवाद की बुकलेट श्रोताओं के बीच सभी शहरों में वितरित की गई। यात्रा के दौरान कई प्रमुख हस्तियों ने कथाकार अल्पना मिश्र  से संवादों - साक्षात्कारओं के मार्फत उनके लेखन और हिंदी कथा साहित्य के परिवेश को जानने समझने की कोशिश की, जिनमें जापान में हिंदी विद्वान प्रोफेसर मिजोकामी, प्रोफेसर नाम्बा, प्रोफेसर कोमात्सु, श्री याजीरो तनाका, डॉ चिहिरो कोइसो, श्री रीहो ईशाका, श्री हाईदकी इशीदा के साथ साथ अनेक जापानी मीडिया के लोग, प्रोफेसर, फॉरेन ऑफिसर्स, अर्थशास्त्री, इतिहासकार, रसियन,चीनी, जर्मन भाषा के विशेषज्ञ और बौद्धिक शामिल थे।


चंद्रभूषण तिवारी




Friday, August 22, 2014

प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान २०१४

वर्ष २०१४ का प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान कथाकार अल्पना मिश्र को उनके उपन्यास 'अन्हियारे तलछट में चमका' के लिए दिए जाने की घोषणा की गयी है.२००६ से प्रतिवर्ष दिए जा रहे इस सम्मान का यह ७ वां संस्करण है जिसके निर्णायक मंडल में वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी, कथाकार शिवमूर्ति और डॉ चन्द्रकला त्रिपाठी रहीं.
निर्णायकों के अनुसार यह उपन्यास निम्नमध्यवर्गीय जीवन का महाख्यान है जो स्त्री-लेखन को एक बड़ा विस्तार देता है और स्त्री-संसार की एकायामिता को तोड़ता है.कहन के अनूठे अंदाज़ और भाषा-विकल्पन के गहरे नए रूपों से संमृद्ध यह  हिंदी उपन्यास क्षेत्र में अब तक के प्रचलित  सभी खांचों को तोड़ कर सृजनात्मकता के नए शिखर निर्मित करता है.

Wednesday, January 2, 2013

क्या यह एक जरूरी काम नहीं है?

मेरा कमरा

- अल्पना मिश्र

स्त्री का कोई अपना कमरा हो सकता है क्या, जहॉ बैठ कर वह अपने आप को जी सके? ऐसा कोई एकांत कोना ही, जहॉ वह अपनी तरह से दुनिया जहान पर विचार कर सके? मेरी समझ से यह हमारे वक्त का अभी भी एक जरूरी सवाल है। स्त्री जहॉ खड़ी होती है, वहीं अपना कमरा मतलब अपना स्पेस रच लेती है। मेरा भी हाल यही है। अलग से कोई जगह, कोई कुर्सी मेज नहीं मिली कि लिखने के सारे साजो सामान के साथ लेखक की भव्यता को महसूस करते हुए लिख सकूं ।
            बालपन और युवापन के बीच के समय की बात है, जब अपने में मगन होने को जी चाहता और कोई कविता सूझ रही होती तो बिना पलस्तर की नई बन रही किसी ऊंची दीवार पर चढ़ कर बैठ जाती। यह हमारे घर की दीवार होती, जो उस समय बन रहा था। उसमें एक अलग सी नमी और ठंडक मिलती। मिट्टी, सीमेंट और ईंटों की अद्भुत सी गंध बिखरी होती। यहॉ यह भी बता दूं कि जो कविता मुझे सूझ रही होती, वह किसी रोमानियत से नहीं निकल रही होती, बल्कि गुस्से और प्रतिरोध के लिए वह एक बेचैन माध्यम होती। धीरे धीरे यह माध्यम मुझे बेहद मजबूत माध्यम लगता चला गया और मैं कविता से गद्य की तरफ आती गयी। गद्य में आ कर लिखने के लिए ज्यादा स्थिर जगह की जरूरत पड़ती। पर जगहें तो वही मयस्सर थीं, थोड़ी सी प्रकृति, थोड़ी सी रसोई, कुछ बरतन, आटे का बड़ा वाला कनस्तर, बिस्तर पर अरवट करवट कि कहीं छोटे भाई बहन जग न जायें, बाद में बच्चे जग न जायें, रजाई के भीतर मद्धिम रोशनी -- - और हॉ, टॉयलेट, वह सोचने की सबसे मुफीद जगह थी। खैर तो मेरी ढूंढ़ाई होती और मैं एकदम निश्चित पते पर मिल जाती। फिर मुझे तरह तरह के भाषा प्रयोगों से बताया जाता कि मैं किस तरह के फालतू काम में लगी हूं। अगर इतने समय में अपनी पाठ्यपुस्तकें पढ़ती तो किसी की मजाल नहीं थी कि मुझे टॉप करने से रोक पाता। फिर एक दो और भी जगहें थी, जहॉ कलम कागज लिए पॅहुच जाती। आम के पेड़ की छॉव थी। वहॉ बहुत एकान्त होता। यह पेड़ घर के ठीक पीछे के अहाते में लगा था। और भी बहुत से पेड़ पिता जी ने लगाए थे। पर यह आम का पेड़ बड़ा शानदार लगता। इसकी छाया मेरा वह खुशबूदार कमरा थी, जहॉ बैठ कर शादी के बाद भी मैंने कई कहानियॉ लिखीं। 'मुक्तिप्रसंग" कहानी का पहला ड्राफ्ट  यहीं तैयार हुआ था। यह कहानी 'कथादेश ’04 में आई थी। 'मिड डे मील" तो यहीं की हवा में फैली मिलेगी आपको। मेरे पहले कहानी संग्रह 'भीतर का वक्त" की तमाम कहानियॉ ऐसे ही इधर उधर से समय और जगह निकालते लिखीं गयीं। अब तो आम की इस घनी छाया पर, न जाने किस लोक से आकर बंदरों ने अपना आधिपत्य जमा लिया है और मुझसे मेरा वह निजी बिन दीवारों का कमरा छीन लिया है।
                एक बात और हुई। शादी के बाद पेड़ की किसी डाल पर चढ़ कर विचार मग्न होना और किसी टूटी फूटी या बनती हुई दीवार पर चढ़ना मर्यादा विरूद्ध बना दिया गया। लेकिन मेरी अनुशासनहीनता को बॉध पाना इतना आसान था क्या? 'जो मुझे बॉधना चाहे मन तो बॉधे पहले अनंत गगन---" कुछ इसी तर्ज पर लेखन चल रहा था। कभी रसोई तो कभी डाइनिंग टेबल तो कभी थोड़ा सा दोपहर का समय चुरा कर धूप में कुर्सी खींच खींच कर लिखना। कभी सीढ़ियों के आखिरी उपरी पायदान पर बैठ कर, छिप कर लिखना और वह रात रात भर जाग कर बिस्तरें में सोते जागते हुए लिखते रहना। तब तक लिखना, जब तक कि द्रारीर पूरी तरह आपका साथ न छोड़ दे। यह रात भर जागना किसी तपस्या से कम न होता। लिखना शुरू करने के लिए विचारों को जल्दी जल्दी कोई भी काम करते हुए नोट करते जाना होता, जैसे कि रोटी बनाते हुए कागज कलम धरे हैं पास में और विचारों के उफान में से कुछ कतरे नोट कर ले रहे हैं कि जब फुरसत के क्षण आऐंगे तब इसी थाती को खोल कर काम ले लेंगे। फुरसत का क्षण आता, जब पति और बच्चे सो जाते। तब तक कम से कम रात के गयारह, साढ़े ग्यारह होने लगते। कभी बारह भी बज जाता। नौकरी और बच्चों के स्कूल दोनों ही कारणों से सुबह जल्दी उठने को जरा भी टालना असंभव होता। पति सेना में अधिकारी हैं और प्राय: बार्डर पर पोस्टिंग होती रहती। उनकी नौकरी ऐसी कि जब वे छुट्टी आते तो वे दिन उत्सव के दिन बन जाते और बच्चों समेत उस समय को कितना पा लिया जाए, इसी पर बल होता। बहुत काम रोजमर्रा की जरूरतों से बचे होते। वे प्राय: बचे ही रह जाते। इस तरह वे बहुत मददगार होना चाह कर भी नहीं हो पाते। पर जितना सपरता, उतना मदद करते ही। बच्चों की हर तरह की जिम्मेदारी मेरे उपर होती। इस सब में यह भी होता कि कई बार याद आने पर बच्चों के जूते रात के किसी पहर में उठ कर पॉलिश करती। फिर बड़े होते हुए बच्चों ने बहुत से काम अपने उपर ले लिए और जूते पॉलिश जैसे तमाम छोटे कामों से मैं मुक्त हो गयी। इस तरह सब काम निबटाने के बाद लिखने का नम्बर आ पाता। जबकि मैं मानती हूं कि लिखना एक जरूरी काम है और दुनिया को बदलने का ख्वाब देखने वालों को बोलना तो पड़ेगा ही। हस्तक्षेप करने की इच्छा रखने वालों का माध्यम कुछ भी हो सकता है, पेंटिंग, लेखन या राजनीतिक सक्रियता या जन आन्दोलन या सामाजिक, सांगठनिक आन्दोलन। यह सब अलग अलग नहीं आपस में जुड़ी-गुंथीं चीजें हैं। इसके बावजूद कि मैं यह मानती थी, लिखने का वक्त सबसे आखिरी में मिल पाता या लिखने का वक्त सबसे आखिरी में निकाल पाती, कुछ भी कह लें , यही जीवन की सच्चाई रही। तो रात भर जाग कर काम करना पड़ता। बड़े जुनून में काम होता। 'छावनी में बेघर" कहानी ऐसे ही चार रात जग कर लिखी गयी। सोए हुए बच्चों को साथ लिपटाए दो तकिए पीठ के पीछे रख कर लिखी गयी यह कहानी।
इसी तरह देहरादून के घ्रर का, लिखने के जुनून का एक और दृश्य याद आ रहा है। मेरे बेटे की हाईस्कूल की परीक्षा थी। वह चाहता था कि मैं कुछ देर उसके पास रहूं। लेकिन नौकरी समय बहुत खींच लेती, फिर परम्परागत सारे काम होते ही। उसका कमरा ऊपर था। मैंने वहीं जमीन पर अपना बिस्तर लगा लिया था। काम खतम कर के, उसके लिए काफी बना कर लाने और ऊपर पॅहुचने में हमेशा रात के ग्यारह बजने लगते। बेटा कहता-''तुम भी पढ़ो।"" मैं पढ़ती, सुबह का लेक्चर तैयार करती। एक बार ऐसा हुआ कि मेरे दिमाग में विचार बड़े आवेगात्मक तरीके से आ रहे थे। मैंने कुछ कतरे रसोई में काम करते हुए नोट भी किया। लेकिन विचार थे कि रूकते ही न थे। तब मैंने बेटे के लिए कॉफी बनाई और एक कॉख में कागज कलम दबाए और दूसरे हाथ में कॉफी का मग ले कर उपर पॅहुची। थोड़ी देर तो पढ़ाई लिखाई चली। फिर बेटे ने कहा कि -''मॉ , आज रेस्ट नहीं किया । अब सोउंगा।"" मैंने कहा-''ठीक है।"" और बत्ती बुझा कर हम सो गए। लेकिन मेरे दिमाग की सिलाई तो उधड़ चुकी थी। ठाठे मार कर विचार का समुद्र बहा जा रहा था। मैंने अंधेरे में सादे पन्ने पर नोट करने की कोशिश  की। लेकिन जैसे ही मैंने कलम चलाया, बेटे ने भॉप लिया। तुरंत उठ बैठा। जल्दी से लाइट जला दी। ''अम्मॉ, तुम अंधेर में  लिख रही हो। यहॉ बैठ कर लिखो।"" उसने तुरंत अपनी टेबल कुर्सी मुझे ऑफर की। मैंने मना कर दिया। थके बच्चे के साथ यह अन्याय होता। मैंने कहा-'' तुम चिंता क्यों कर रहे हो। ऐसे ही कुछ दिमाग में आ गया तो नोट कर लिया।"" वह आश्वस्त हुआ। हम फिर से सोए। लेकिन यह तो मेरा दिमाग था! काहे को माने! फिर से वही हाल। फिर पन्ने पर बहुत धीरे से कुछ घसीटा। फिर बेटा उठ गया। उसने लाइट जला दी। फिर मैंने कागज कलम दूर रख दिया और कहा कि '' यह आज की आखिरी पॅक्ति थी, जो सूझी थी।"" इस पर बेटे ने कहा कि -''तुम कह रही थी कि कुछ बम बिस्फोट और आम आदमी की बात लिख रही हो। क्या यह एक जरूरी काम नहीं है? उठो और काम करो।"" मैं उसकी संवेदनशीलता पर दंग रह गयी। इसके बाद उस रात नहीं लिखा मैंने। सुबह जब फुरसत के क्षण में ठीक किया तो पाया कि यह एक अलग ढंग की कहानी तैयार हो रही थी। यह कहानी 'बेदखल" नाम से छपी 'बया" के पहले अंक में और फिर इसे कई जगह मित्रों ने बार बार प्रकाशित किया। चर्चा खूब मिली। वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह ने दू्रदर्शन  पर कहा कि 'यह हिंदी की पहली कहानी है, जो बम बिस्फोट और आतंकवाद की समस्या उठाती है।" उनका यह वक्तव्य 'पब्लिक ऐजेंडा" ने छापा भी।
अब तो ज्यादा काम लैपटॉप पर करने लगी हूं। कागज कलम अब भी है। पर टाइपिंग ने ज्यादा जगह पा ली है। इंटरनेट और मेल की सुविधा जुड़े होने से यह आसान लगने लगा है। खुद टाइप करते हुए कई बार कहानी का पहला ड्राफ्ट भी सीधा कम्प्यूटर पर ही लिखने लगी हूं। लैपटॉप पर काम करने के बावजूद आज तक लिखने की जगहें बिखरी हुई ही हैं। तो बिन दीवारों के इन्हीं कमरों में लगता है मन मेरा, जिसका विस्तार इतना हो कि सारी दुनिया समा जाए और एक ही पल में आदमी अकेला भी हो ले, अपने में डूब ले या सबमें डुबकी लगा कर बाहर आ ले।
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अल्पना मिश्र
एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, दिल्ली विच्च्वविद्यालय, दिल्ली-7
मो। 9911378341






       

Sunday, October 28, 2012

गुमशुदा



- अल्पना मिश्र
  09911378341


जो तेज नहीं था, वह स्मार्ट भी नहीं था।
स्मार्ट होना, आज के लोग होना था।
स्मार्ट लोग, और स्मार्ट होना चाहते थे।
इस तरह जो, जो था, उससे अलग हो जाने को बेचैन था।

शासकीय खौफ पैदा करती किसी भी भाषा के विरूद्ध ठेठ देशज आवाज की उपस्थिति से भरी भारतीय राजनीति का चेहरा बेशक लोकप्रिय होने की चालाकियों से भरा रहा है। लेकिन एक लम्बे समय तक आवाम में छायी रही उस लोकप्रियता को  याद करें तो देख सकते हैं कि उस दौरान औपनिवेशिक मानसिकता से जकड़ी तथाकथित आधुनिकता उस देशज ठसक का कैरीकेचर बनाकर भी कुछ बिगाड़ पाने में नाकामयाब रही है।
अल्पना मिश्र की कहानियों के पात्रों का देखें तो ठेठ देशज चेहरे में वे भी तथाकथित आधुनिकता के तमाम षड्रयंत्रों का पर्दाफाश करना चाहते हैं। लेकिन उनकी कोशिशें भारतीय राजनीति में स्थापित हुई सिर्फ भाषायी ठसक वाली लोकप्रिय शैली से इतर सम्पूर्ण अर्थों में लोक की स्थापना का स्वर होना चाहती हैं। अल्पना के पहले कथा संग्रह ''भीतर का वक्त" को पढ़ते हुए उनकी कहानियों का एक भरपूर चित्र करछुल पर टंगी पृथ्वी के रूप में देखा जा सकता है। सामूहिक उल्लास की प्रतीकों भरी गुजिया या दूसरे देशज पकवानों वाली दुनिया जिस तरह से उनकी कहानियों का हिस्सा हो जाती है, वह विलक्षण प्रयोग कहा जा सकता है। यह चिहि्नत की जाने वाली बात है कि अल्पना, ऐसे ही देशज पात्रों के माध्यम से घटनाक्रमों से भरी एक सम्पूर्ण कहानी को भी काव्यात्मक अर्थों तक ले जाने की सामार्थ्य हासिल करती है। 
प्रस्तुत है अल्पना मिश्र की कहानी- गुमशुदा।

वि.गौ. 
''मम्मी, ओ मम्मी!"" भोलू ने दो तीन बार आवाज लगाई, लेकिन कोई असर दिखाई न दिया। तब वह चिल्लाया - '' मम्मिया---या---आ---आ---।""
उपेक्षा से उपजे आवाज के गुस्से का असर तत्काल हुआ। सॉंवले से गोल चेहरे वाली एक औरत बाहर आई। बिना बोले उसने झुंझलाया हुआ चेहरा भोलू की तरफ किया।
''वो तरफ।" भोलू चहक उठा।
औरत ने उधर, उस दिशा की तरफ देखने की बजाय भोलू की खबर ली -'' ठीक से बोलो। शहर में आने का क्या फायदा? अब से मम्मिया बोला तो चार झापड़ जड़ूंगी। डैडी से कहूंगी तो अपने सुधर जाएगा।"
चार झापड़ की बात पर भोलू ने ध्यान नहीं दिया, पर डैडी की बात पर वह संभल गया।
''मम्मी! ऐ मम्मी! तू बेकार है।"  भोलू ने संभलने के बावजूद अपना गुस्सा दिखया और पल भर में लोहे का गेट खोल कर गली के अंधेरे की तरफ खड़ा हो गया।
’बेकार’ शब्द उछल कर पत्थर की तरह औरत की छाती में लगा। औरत ने अपनी चोट दबा ली और बाहर की तरफ झपटी।
''इस समय बाहर मत जा बाबू। अंधेरा हो गया है।"
जिस तरफ औरत खड़ी थी, उधर कुछ उजाला था। मकान मालिक के बारामदे में जलते शून्य वॉट के बल्ब के उजाले का आखिरी हिस्सा गेट पर गिर रहा था। उनके दो कमरे पीछे की तरफ थे। लेकिन गेट एक ही था। इसलिए गेट का इस्तेमाल वे भी करते थे और बारामदे के शून्य वॉट के बल्ब का भी । मकान मालिक के घर में कोई नहीं रहता था। वे लोग कभी कभी  अपना घर देखने आते थे। 
भोलू की तरफ अंधेरा था।
''ये देखो कंचा!" भोलू ने किसी काली, गुदगुदी चीज को छूआ। कंचे जैसी दो ऑखें चमक रही थीं।
'' अरे बाप रे पाड़ा!" खुशी, हैरानी और आवेग में भोलू को झपट कर पकड़ी औरत के मुंह से निकला।
''देखा, शहर में पाड़ा होता है मम्मी!" भोलू ने पाड़ा यानी बछड़े के गले में हाथ डाल कर कहा।
''छूओ मत। चलो, चलो!" औरत ने भोलू को घर की तरफ खीचा। पाड़ा गंदा था। मिट्टी, घास और गोबर उस पर चिपका था और इनकी मिली जुली गंध उसके चारों तरफ लिपटी थी। गॉव में यह गंध बुरी नहीं लगती थी। शहर में आते ही बुरी लगने लगी थी। कहीं भोलू के कपड़ों में यह गंध चिपक न जाए, औरत को चिंता हुई। इसीलिए पाड़ा को देख कर हुई अपनी खुशी और हैरानी को उसने दबा लिया। इसीलिए भोलू को खीच कर उसने भीतर चलने को कहा।
''गाय भी होगी?"
''होगी ही, नहीं तो दूध कहॉ से आता।"
''सब कुछ होगा, बस दिखता नहीं है!"
औरत ने बछड़े पर हाथ फेर दिया, फिर कुछ उदास हो उठी। इस इतने बड़े महानगर में गाय गोरू है, गोबर भी होगा ही। बछड़ा है तभी तो दिखा। न देखने पर ऐसा लगता रहता है कि महानगर में बछड़ा नहीं होता। बछड़ा नहीं होगा तो उसकी गंध भी नहीं होगी।
इसतरह सब कुछ साफ सुथरा होने का आभास बना रहेगा।
साफ सुथरा करने से, साफ सुथरा होने का आभास ज्यादा बड़ा था।
इसी पर उसे अपना गॉव भी याद आया और यह भी कि बछड़ा, गाय और गोबर--- ये सब पिछड़ेपन की निशानी है। औरत अपने लिए पिछड़ापन नहीं चाहती थी। उसके पिछड़ेपन के कारण ही उसे दस साल तक, गॉव में सास ससुर की सेवा करते हुए गुलामों का कठोर जीवन जीना पड़ा था। लड़का, यही भोलू छ: साल का हो गया तो इसके पिता को ख्याल आया। इसके पिछड़ जाने का भय इतना भारी था कि वे भोलू को पढ़ाने शहर ले आए। पीछे पीछे सेवा सुश्रुसा के लिए वह भी आयी। आयी तो इस हिदायत के साथ कि कोई गॅवई बात न सिखाई जाए, बल्कि अब तक सीखी गॅवई हरकतों को झाड़ पोछ कर साफ कर दिया जाए। भाषा में सावधानी रखी जाए, जैसे कि दूध को मिल्क बोला जाए, पानी को वॉटर, पाठशाला को स्कूल, किताब को बुक---।
तभी तो लड़का अंग्रेजी के युद्ध में हारने से बच सकता है।
तभी तो लड़का पढ़ लिख कर बड़ा आदमी बन सकता है।
औरत ने इस पर काफी मेहनत की। वह भी नहीं चाहती थी कि उसकी तरह बच्चा गॅवई और पिछड़ा माना जाए। लेकिन कभी कभी यह सब धरा रह जाता। किसी आवेग वाले क्षण में, दुख या खुशी में, उसके मुंह से वही ठेठ बोली निकल जाती। तब वह कुछ शर्मिंदा हो उठती, जैसे कि अभी कुछ देर पहले 'अरे बाप रे पाड़ा!’ खुशी, हैरानी और आवेग में उसके मुंह से निकल पड़ा था। उसने गॅवार होने के कारण पति द्वारा गॉव में छोड़ दिए जाने का लम्बा कठोर दंड झेला था। इस दंड ने उसे सावधान किया था। भोलू के लिए वह कोई दंड नहीं चाहती थी, इसीलिए अगले पल संभल गयी।
''और इ गाय का बेबी रास्ते में यहीं रात भर बैइठा रहेगा मम्मी?"
''इ मत बोलो। और यह गाय का बेबी---।"
''अच्छा, अच्छा, इसको घर ले चलो मम्मी।"
लड़के ने मम्मी को बीच में ही टोक दिया।
''पता नहीं किसका है? खोजेंगे वो लोग।"
इतने में एक मोटर साइकिल आयी और बछड़े से टकराते टकराते बची। मोटरसाइकिल सवार ने गुस्से में बछड़े को देखा और आगे बढ़ गया।
गली जैसा रास्ता है तो क्या, चोबीसों घंटे गाड़ियों का आना जाना लगा रहता है। 'पें-पें, चें- चें’ सुनाई पड़ती रहती है। कोई कोई म्यूजिकल हार्न, कोई कोई ट्रक बस जैसा हार्न भी बजाता है। कई लड़कों ने शौक में अपनी मोटरसाइकिलों का सायलेंसर निकलवा दिया है। 'फट - फट’ की जोर की आवाज गरजती भड़कती लगती है। लड़के आनन्दित हो कर तेज चलाते हैं।
'तेज’ एक जीवन मूल्य था।
जो तेज नहीं था, वह स्मार्ट भी नहीं था।
स्मार्ट होना, आज के लोग होना था।
स्मार्ट लोग, और स्मार्ट होना चाहते थे।
इस तरह जो, जो था, उससे अलग हो जाने को बेचैन था।
''चलो, मंत्री की दुकान पर चलते हैं।"
चिंता के मारे औरत को दुकान के लिए 'शॅाप' बोलना याद न रहा। मंत्री की दुकान इस मोहल्ले की दुकान थी।
कृपया यहॉ 'मोहल्ले’ की जगह 'कॉलोनी’ पढ़ें।
कारण - मोहल्ला कहने से समुदाय का बोध होता था। कॉलोनी कहने से आधुनिक, स्मार्ट और अलग लगता था।
जैसे कि आदमी, आधुनिक हो कर अलग, अकेला और स्मार्ट हुआ था।
स्मार्ट का भावानुवाद करना हिंदीभाषा वालों के लिए मुश्किल था। वह एक साथ बहुत सारे भावों, तौर तरीकों, पैसा रूपया बनाने की कला से ले कर जीवन शैली आदि आदि का गुच्छ था।
भोलू की मम्मी इसी राह पर थीं। स्मार्ट बन जाना चाहती थीं, नहीं बन पा रही थीं। उन्हें बछड़े की चिंता थी। वे मंत्री की दुकान पर पॅहुच कर कहने लगीं - '' भाई जी, बछड़ा एकदम बीच सड़क में बैठा है। रात बिरात किसी गाड़ी से कुचल सकता है। उसको किनारे कर देते या पता करते कि कहॉ से आया है? खबर कर देते उसके घर या छोड़ आते मतलब छुड़वा देते किसी से।" यह कहते कहते उनका आत्मविश्वास ढीला पड़ गया। मंत्री की तरफ वे जिस तेजी से आयी थीं, वह जाती रही। आखिरी वाक्य तक आते आते उन्हें मंत्री पर विश्वास न रहा। मंत्री उनकी बात निश्चित तौर पर नहीं सुन रहा था।
वह उनकी तरफ देखता रह गया। फिर चिप्स का पैकेट निकाल कर देने लगा। क्या चाहिए होगा इस औरत को? लड़के के लिए चिप्स, चाकलेट---।
''बछड़ा---बछड़ा---।" हाथ से चिप्स लेना इंकार करते हुए औरत ने बिना विश्वास वाली आवाज में कहा।
''बछड़ा!"
फिर मंत्री अपनी हैरानी दबा कर बोला - ''बैठा है तो हट जायेगा।"
''बीच रास्ते में है भइया। अंधेरा है। टकरा जायेगा किसी गाड़ी से तो मर जायेगा।"
'मर गया तो हमें पाप लगेगा।’ इस वाक्य को कहने से अपने को रोक लिया औरत ने।
''अरे कुछ न मरेगा इतनी जल्दी।" दुकान से झांक कर मंत्री ने बछड़े को देखा।
''भइया तुम देख तो लेते। इसके पापा तो हैं नहीं अभी---।"
इसी बीच में एक औरत किसी ऐसे नाम की कंपनी का शैम्पू मॉगने लगी, जो मंत्री की समझ में न आया। उसने झल्ला कर कहा-
''ठीक है आप जाऔ। ये मैडमें भी---।"
मंत्री उसका नाम था, जो लड़का दुकान चलाता था। लेकिन असली मंत्री वह नहीं था। असली मंत्री होता तो खुद दुकान नहीं चलाता। बहुत सारी दुकानें चलवाता या सारी दुकानों के ऊपर एक ऐसी दुकान होती, जो मंत्री की होती। दुकान ऐसी वैसी न होती, मोहल्ले की तो हर्गिज नहीं। दुकान में ए.सी. जरूर होता। एक गद्देदार रौब गांठती कुर्सी होती। या शायद इससे कहीं ज्यादा, बहुत बहुत ज्यादा होता, इतना ज्यादा, जिसके बारे में औरत सोच नहीं सकती थी। नकली मंत्री की कल्पना शक्ति भी वहॉ तक नहीं पॅहुच पाती थी। मंत्री की कल्पना केवल ताकतवर मालिक की बन पाती थी। ऐसे में नकली मंत्री अपने नाम का स्पष्टीकरण करते हुए इतना भर कह पाता था कि 'मालिकों से हमारी क्या बरोबरी!’
''देख लेना जरूर। बेचारा मर न जाए।" जाते जाते औरत ने कहा।
'कल्लू गार्ड को बुलाता हूं।" नकली मंत्री ने कहा।
''मेरे घर में रखना।" भोलू ने कहा।
इस पर नकली मंत्री हॅस दिया।

यह सीधा सीधा कल्लूराम गार्ड का कसूर था कि एक साफ सुथरी कॉलोनी के अंदर, जिसमें मोहल्ले भर से चंदा करके गार्ड रखा गया था और सुबह सुबह एक मेहतर भी आता था, जो हर त्योहार पर सबसे बख्शीश मॉगता था, जो अभी तक रजिस्टर्ड कॉलोनी नहीं थी, इसलिए उसका कोई पदाधिकारी भी नहीं था। इसलिए यह सीधा सीधा गार्ड का जुर्म माना गया कि एक साफ सुथरी कॉलोनी के अंदर काला बछड़ा घुस कर रास्ते में बैठ गया था। गार्ड को पता नहीं था। वह हैरान रह गया। इस बात पर नहीं कि बछड़ा कैसे आया? बल्कि इस बात पर कि उसने बछड़े को आते कैसे नहीं देखा? कोई एक ऐसा पल था जिसमें उसे नींद की एक हल्की सी झपकी आ गयी थी और वह उस एक झपकी में अपने घर के पिछवाड़े चला गया था, जहॉ वह घर का पिछवाड़ा देख कर परेशान था। इस पिछवाड़े में सारे शहर की गंदगी समेटे बिना ढॅका नाला उपर चढ़ आया था। उसमें पॉलीथिनों के ढेर के ढेर फॅस जाने से उसका बहाव रूक गया था। जब नाला उफन कर बाहर आया तो पॉलीथिनों का इतना बड़ा ढेर बाहर उलट पड़ा था कि उसका एक टीला या कम ऊंचा पहाड़ बन जाता, जिसके ऊपर पेड़ पौधे नहीं होते, न चीड़, न चिनार, न देवदार, न शाल---कुछ भी नहीं। नीले, हरे, पीले, काले---रंगों वाले पॉलीथिन धोखे वाले पेड़ पौधे फूल बन जाते---।
लेकिन रह रह कर नाली का बदबूवाला भभका इतनी तेज उठता कि धोखेवाले पहाड़, धोखेवाले पेड़ पौधों, फूलों, काई और हरेपन से बदबू को दबा नहीं पाते। घरों के भीतर आदमी रोटी सेंकता तो लगता बदबू सेंक रहा है। रोटी खाता तो लगता बदबू खा रहा है। पानी पीता तो लगता बदबू पी रहा है। नहाने के लिए कैसे कैसे पानी जुगाड़ता और नहाता तो लगता बदबू नहा रहा है। इस तरह पानी न हुआ, बदबू हुआ। रोटी न हुई, बदबू हुई। कपड़ा न हुआ, बदबू का कपड़ा हुआ। घर न हुआ, बदबू का मकान हुआ।

न मिट्टी में सोंधी महक थी।
न गेहूं में सोंधी खुशबू।
इस तरह जीवन में नाक बंद करना बेमाने था।
    धोखे की दुनिया में घना अंधेरा था। लोग एक दूसरे को अंदाज से पहचानते थे। कभी कभी इस अंधेरे में अपने आप को पहचानना मुश्किल हो जाता। एक दिन घर पॅहुच कर कल्लूराम  गार्ड ने अपने तीनों बच्चों से, जो पॉलीथिन के टीले को झाड़ू की सींक से तोड़ रहे थे, पूछा-
''कल्लूराम गार्ड अब तक घर नहीं आया?"
बच्चों ने कल्लूराम गार्ड को न पहचान कर कहा - ''मालिकों ने रोक लिया होगा। कोई अपनी गाड़ी धुलवाने लगा होगा, कोई गैराज साफ करा रहा होगा।"
इस पर कललूराम गार्ड को तसल्ली हुयी। तब उसने मझले लड़के का नाम ले कर पूछा -''सूरजा कहॉ है?"
मझले लड़के ने एक काली पॉलीथिन सींक से निकाली और चिल्लाया -''सूरजा शहर भाग गया?"
''शहर!"" कल्लूराम गार्ड उदास हो गया।
''ये शहर नहीं है?" उसने बड़के से पूछा।
''पता नहीं।" बड़का सोच में पड़ गया और पॉलीथिन निकालना छोड़ कर वहीं खड़ा हो गया।
पॉलीथिनों से निकल कर बहुत सारे कीड़े मकोड़े छितरा गए थे।
''कीड़ों मकौड़ों पर से हटो।" कल्लू गार्ड ने बच्चों को डांटा।
बच्चों को हटा हटा कर कल्लू गार्ड कीड़ों को पहचानने में लग गया। उसे पॉलीथिन का काला भयानक पहाड़, काला भयानक अंधेरा लगा। इसी काले भयानक अंधेरे में से बछड़ा आगे से निकल गया होगा।
''धोखे की झपकी थी।" गार्ड ने सोचा।
वह धीरे धीरे आया और नकली मंत्री के साथ मिल कर बछड़े को खींच कर किनारे करने की कोशिश करने लगा। बछड़ा टस से मस न हुआ। बछड़ा अंगद का पॉव हो गया। नकली मंत्री ने बछड़े को गले से पकड़ कर खीचा, उसके आगे का पॉव खीचा। गार्ड ने उसके गर्दन खीचने में गर्दन खीचा, पॉव खीचने में पॉव खीचा।
''अरे, गर्दन खीचने से मर जायेगा। पैर अकड़ गया होगा।" औरत धीरे से चिल्लायी। जोर से चिल्लाती, तब भी दोनों गले से खीचते। बछड़े ने दोनों पॉव मोड़े हुए थे, इसलिए ठीक से खिच नहीं रहा था। ठीक से इसलिए भी नहीं खिच रहा था, क्योंकि नकली मंत्री अपनी जांगर बचा कर खीच रहा था। गार्ड अपना जांगर छिपा कर खीच रहा था। इसतरह खिचना खीचना रह गया। औरत का भय बेकार गया।
    औरत का पति मोटरसाइकिल से आया। उसने अपनी बजाज की बढ़िया स्कूटर बेच कर सस्ती मोटरसाइकिल खरीदी थी। मोटरसाइकिल से चलना ठीक लगता था। यही नया चलन था। स्कूटर से चलना, चलना नहीं रह गया था। साइकिल से चलना गरीबी का प्रदर्शन करते हुए चलना था। और उससे भी ज्यादा अमीर गाड़ियों से कुचल जाने के खतरे के साथ चलना भी था। ऐसा खतरा मोटरसाइकिल के साथ भी था, पर वह चलन में थी। इसके साथ का रिस्क भी चलन में था।
रिस्क, रिस्क में फर्क था।
आदमी, आदमी में फर्क था।
यही समय था।
औरत के पति की मोटरसाइकिल भी बछड़े से टकराते टकराते बची थी। उसने घ्ार के अंदर, बारामदे में मोटरसाइकिल चढ़ाते हुए एक हाथ उठा कर नकली मंत्री को दिखाया, जिसका मतलब था 'खीच कर हटा रहे हो, बहुत ठीक।’
नकली मंत्री जवाब में  मुस्कराया। गार्ड नहीं मुस्कराया।
''मैडम गॉव से आयी है।"  कोई बुदबुदाया।
जब औरत अपने पति की मोटरसाइकिल के पीछे पीछे चली तो शब्द का एक और पत्थर उछल कर उसकी छाती में लगा। उसने फिर अपनी चोट छिपा ली। फिर बछड़े को देखने की इच्छा जोर मारने लगी।
''मम्मी, गाय का बेबी भूखा होगा।" भोलू ने सोते समय कहा।
''सुनो जी, एक रोटी दे आउं?" औरत ने कहा।
''इतनी रात को दरवाजा खोलना ठीक नहीं होगा।" आदमी ने कहा।
''बस, अभी ही तो आयी। गेट में ताला भी लगा आउंगी।"
औरत ने झट से एक रोटी मोड़ी और फुर्ती से गेट से निकल कर बछड़े के मुॅह के पास रख आयी। गेट पर ताला बंद करके लौटी तो पति सोने चला गया था।
''लगता है बछड़ा रोटी नहीं खायेगा। बीमार लग रहा है।"
उसने सोते पति से कहा।
''बहुत हो गया बछड़ा, बछड़ा।" पति थका था। वह नींद से बाहर नहीं आ सकता था।

    सुबह बड़ी हलचल थी। छोटी मोटी भीड़ दिख रही थी। एक आदमी हर घर की घंटी बजा कर पैसे मॉग रहा था। उसके हाथ में एक कागज था, जिस पर वह पैसा देने वाले का नाम, मकान नम्बर लिख लेता। लोग श्रद्धानुसार रूपये, पैसे दे रहे थे। यह श्रद्धा पचास रूपये से नीचे नहीं होनी थी। यह उसने साफ साफ बता दिया था।कुछ लोग ना नुकर कर रहे थे। कुछ सीधे सीधे पैसे कम कराने पर अड़े थे।  किसी ने बछड़े पर सफेद गमछा उढ़ा दिया था। कुछ गेंदे के फूल पड़े थे। वहीं बछड़े के कुछ पास एक आदमी नंगे पॉव जल चढ़ा रहा था। एक दो औरतें अचानक प्रकट हो गयी थीं। वे स्टील की प्लेट में दो चार फूल, एक दो केला, अक्षत, रोली, हल्दी--- रखे थीं। एक ने आगे बढ़ कर बछड़े पर सिंदूर छिड़क दिया। दूसरी ने कहा -''जय बाबा भोले नाथ की। उनके सेवक नंदी बैल की जय!"
कहीं से सफेद कुर्ता पैजामा पहने एक नेतानुमा आदमी अवतरित हो गया। वह इधर उधर घूम रहा था। उसका मन भाषण देने देने को था। पर लोग थे कि समय का रोना रो कर निकल लेते थे। ऑफिस समय पर पॅहुचना था। स्कूल समय पर जाना था। भोलू और भोलू के डैडी भी अपने अपने काम पर निकल गए। बछड़े की वजह से इस पर असर नहीं लिया जा सकता था। तभी कहीं से नेता जी को ज्ञान का प्रकाश मिला कि अगर जनता के पास जाना चाहते हो तो टी वी पर जाओ। वहॉ से सब कुछ साफ और पास दिखता है। नेता जी ने तुरंत एक खबरिया चैनल को फोन कर के डांटा, धमकाया कि आ कर के बछड़े के साथ उनका फोटो ले और भाषण भी। चैनल वाले ने अपने किसी कर्मचारी को डांटा कि आज या तो बछड़ा और नेता जी की फोटो या तो तुम्हारी नौकरी ? कर्मचारी नौकरी का जाना अफोर्ड नहीं कर सकता था। उसे कैमरा चलाना नहीं आता था। फिर भी वह आया। उसके साथ जो आया, उसे रिकार्डिंग और रिपोर्टिंग नहीं आती थी। फिर भी वह आया। दोनों ने मिल कर चैनल को नेता प्रकोप से बचा लिया। असली पत्रकारों, रिपोर्टरों तक बात नहीं पॅहुची। वे सो रहे थे। ज्यादातर रात में चौबीस घंटों के लिए रिपोर्ट लगा कर गए थे। चौबीस घंटे खबर ढूढना बेमाने था। इसमें वे लोग कोई और काम कर लेते थे। कोई कोई पत्रकारिता, मीडिया जैसे विषय कहीं, किसी कॉलेज, संस्थान वगैरह में पढ़ा भी आते था। इससे एक पंथ दो काज वाली कहावत चरितार्थ होती थी।
    चैनल पर भाषण दे देने के बाद वे अखबार के पत्रकारों को फोन पर बताने लगे। यही बछड़े के अवतार की कथा। धीरे धीरे भीड़ बढ़ने लगी। गॉव से ट्र्क में भर भर कर लोग आने लगे और गदगद भाव से दूध, फल, फूल,पैसा पानी चढ़ाने लगे। जो आदमी सुबह सुबह घरों से रूपया मॉग कर कागज पर नोट कर रहा था, वह अब बछड़े के पास मुस्तैदी से डटा था। पैसे रूप्ाये ज्यादा होने पर उन्हें धीरे से बछड़े पर से हटाता और एक थैले में डालता जाता। कुछ पैसे रूपये तब भी बछड़े पर पड़े रहते। देखते देखते कॉलोनी में तिल रखने की जगह न रही। लोगों के लिए कहॉ स्कूल दफ्तर जाना मुश्किल लग रहा था, कहॉ लौटना असंभव सा लगने लगा। कॉलोनी के लोग अपनी गाड़ी मोटर दूर रोक कर पैदल रास्ता बनाते हुए घर तक पॅहुचने की कोशिश कर रहे थे।
''अरे भाई, जरा रास्ता। बस, यही दस कदम पर---।"
''ऐ भाई, जाने दो, सुबह के निकले हैं।"
''अरे, अरे, यही 83 नम्बर घर है, जरा हटना।"
भीड़ आस्था से ओतप्रोत थी। पंडे और पुजारी अलग अलग मंदिरों से आ रहे थे। बछड़े को प्रसाद चढ़वा कर अपने मंदिरों के आगे स्टॉल लगवा दिए थे। तमाम फूल माला बेचने से लेकर गुब्बारा, सिंदूर, चुनरी, धूप बत्ती, माचिस, प्लास्टिक के खिलौने, तीर धनुष, सर्फ, साबुन ---वगैरह बेचने वाले भीड़ को कुछ न कुछ खरिदवा डालने पर आमादा थे। मज़मा बदल गया था। कुछ देर पहले मुश्किल से टी वी चैनल को बुलाने वाला नेता खबरिया चैनलों से घिर गया था। चौबीस घंटे अब यही राष्ट्र की सबसे बड़ी खबर थी। कोई कोई अपने यहॉ डॉक्टर, पुजारी और वैज्ञानिक की बहस भी चला रहा था। इस चौबीस घंटे मानो दुनिया में कुछ भी न हुआ था।
    जिस औरत ने बछड़े पर सबसे पहले सिंदूर छिड़का था, वह बाल खोल कर अस्पष्ट सा बड़बड़ाते हुए झूम रही थी। लोग उसके पास भी कुछ न कुछ चढ़ा देते। भोलू की मम्मी लोहे के गेट के अंदर से यह देख कर हैरान थी। यह तो गॉव में देवता आने के जैसा दृ्श्य था। गॉव के इस दृश्य की असलियत भोलू की मॉ को पता थी। वह हैरान सी लोहे के गेट तक आती और ये सब देख कर लौट जाती। जब तक किसी तरह भोलू और उसके डैडी अंदर न पॅहुच गए, उसे चैन न हुआ।
जो जैसे जैसे अपने घर पॅहुचता, वह डर के मारे बाहर न आता।
    नेता नुमा आदमी किनारे खड़े हो कर केला खा रहा था, जब एक चैनल वाले ने उसकी प्रतिक्रिया जाननी चाही। केला खत्म कर लेने तक चैनल वाले रूक नहीं सकते थे। वह केला मुंह में चबाते चबाते बोलने लगा-      '' उ---सके माथे पर त्रिफूल खा नि---शान---।" केला खाते खाते बोलने से ऐसा निकला। इसका अहसास तुरन्त नेतानुमा को हो गया। उसने वहीं, अपने बगल में केला फेंक दिया और गर्जना के स्वर में कहने लगा-    '' कलयुग में साक्षात नंदी बैल आये थे। देखिए जहॉ आ कर बैठे, उतनी धरती काली पड़ गयी है। यह देखिए---यह इधर---।" इसके बाद चैनल वाले और नेतानुमा दोनों अदृश्य हो गए।
जहॉ नेता ने केले का छिलका फेका था, वहीं एक रोटी भी पड़ी थी।
रोटी कड़ी हो चुकी थी। 
''सुबह जब ये लोग आए तो बछड़ा जिंदा था। था या नहीं?" भोलू की मम्मी को जिज्ञासा हुयी।
    रात आयी तो नेतानुमा भी आया। देर रात तक भीड़ छंट गयी। बछड़े की देह से उठती बदबू अधिक सघन हो गयी। धूप दीप उसे छिपाने में असफल होने लगे।
''अब और नहीं रखा जा सकता।" नेतानुमा ने कहा।
''झोंटा बॉध! सामान बॉध!" यह उसने बाल खोल कर झूमने वानी औरत से कहा।
बाल खोल कर झूमने वाली औरत लगातार झूमने से थक गयी थी। उसकी थुलथुल कॉपती देह पसीने से तर थी। वह दूध, पानी, गंगाजल, फूल और बेलपत्रों से पटी जमीन पर भहरा कर गिर गयी। आदमी, जो भारी भीड़ के बीच भी पैसे इकट्ठे करने की अपनी ड्यूटी पर तैनात था, उसने अपने साथी लड़कों और दूसरी औरत के साथ मिल कर, झटपट रूपये, पैसे, फल, फूल, बेलपत्र आदि  आदि अलगा कर थैलों में डाला और ला कर नेतानुमा के सामने रख दिया।
''गुड! चलो, गाड़ी में रखवाओ।"
नेतानुमा ने आदेश दिया। तभी उसका ध्यान ऑख बंद कर लेटी हुयी औरत की तरफ गया।
''साली। यहॉ भी नौटंकी। उठ, चल के दारू के ठेके पर बैठ, नहीं तो तेरी लड़की को बैठा दूंगा।" नेतानुमा ने अपने जूते से औरत की कमर पर कोंचा। औरत लड़की का नाम सुनते हड़बड़ा कर उठ गयी। उससे उठा नहीं जा रहा था। लेकिन उठना जरूरी था।
''मालिक, आज का पैसा दे दो।" औरत ने उठते उठते कहा।
''चल, वहीं मिलेगा सब।" कह कर नेतानुमा हॅसा।
उसकी गाड़ी चली गयी तो बाल खोल के झूमने वाली औरत ने वहॉ से कुछ सड़े गले, छंटनी में बेकार कर दिए गए फल उठाए और अपनी साड़ी के कोने में बॉध लिया।

    सुबह फिर हलचल थी। बछड़े से उठने वाली बदबू से लोग परेशान थे। कुछ लोगों ने नगर निगम को फोन करने की कोशिश किया था। भोलू के डैडी भी नगर निगम को फोन करते रहे। घंटी बजती थी, पर कोई उठाता नहीं था। स्कूल जाने के समय बच्चे अपने अपने बसों की तरफ नाक पर रूमाल रख कर गए। दफ्तर के वक्त लोग नाक दबा कर अपने अपने ठिकानों की तरफ गए। इतने में वही आदमी फिर दिखा, जो नेतानुमा के साथ आया था और देर रात तक पैसा बटोरने की अपनी ड्यूटी पर तैनात रहा था। उसके साथ दो आदमी और थे। उनके पास लम्बा डंडा और मोटी रस्सी थी। वे जब बछड़े की अकड़ी देह के पास पॅहुचे तो मक्खियॉ भरभरा कर उड़ीं, दो चार कौवे चौंक कर उड़े, दो एक कुत्ते भाग खड़े हुए, एक चील आकाच्च से तेजी से कुछ नीचे आती और सर्र से उपर चली जाती। ऐसे में उन दोनों ने बछड़े को उलट पलट कर रस्सी से बॉधा और डंडे में फॅसा कर उठा लिया। बछड़े पर पडा सफेद गमछा उन्होंने उसी डंडे पर टांग लिया। दोनों ने एक एक तरफ से डंडे को कंधे पर रखा और चल दिए। कुछ मुरझाए फूल इससे इधर उधर गिर कर छितरा गए।
''आप लोग नगर निगम से हैं?" किसी ने चलते चलते पूछ लिया।
''नहीं जी, हम तो कसाईबाड़ा से आए है।"
दोनों आगे बढ़ गए। भोलू की मम्मी लोहे के गेट के भीतर खड़ी सुन रही थीं। उनकी ऑखों में ऑसू आ गए। उन्होंने तुरन्त ऑसू इस तरह पोंछा कि कोई देख न ले।




Monday, May 7, 2012

कहानी-पाठ और परिचर्चा

२८ अप्रैल २०१२  को इलाहबाद शहर में प्रसिद्ध  कहानीकार  अल्पना मिश्र का  कहानी-पाठ तथा उनके तीसरे नवीनतम कहानी-संग्रह  "कब्र भी कैद औ' जंजीरें भी " पर परिचर्चा का आयोजन किया गया . यह आयोजन जन संस्कृति मंच तथा हिंदी विभाग ,इलाहबाद  विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में विभाग के सभागार में संपन्न हुआ  . परिचर्चा का प्रारंभ जन संस्कृति मंच के सचिव व आलोचक  प्रणय कृष्ण के  स्वागत -व्यक्तव्य से हुआ . उन्होंने कहानीकार अल्पना मिश्र का परिचय दिया  और  उन पर लिखित हिंदी के मुख्य कथाकारों  कृष्णा सोबती, चित्र मुद्गल और ज्ञानरंजन के विचार पढ़ कर सुनाये . इस प्रकार अल्पना मिश्र के कहानियों के वृहत्तर परिदृश्य का परिचय उपस्थित विद्वान्  श्रोताओं को दिया . अपने आत्म-व्यक्तव्य में अल्पना मिश्र ने आज के समय और समस्याओं की ओर संकेत करते हुए कहा, " जीवन पहले भी इकहरा नहीं था , पर आज  जटिलताए बढ़ी हैं  . आज के समय में दो तरह की सामानांतर दुनिया  है, एक तरफ  चमकती हुई दुनिया है , भौतिकता की प्रतिस्पर्धा है जो की पैदा की गयी है , स्वाभाविक नहीं है . दूसरी तरफ अन्धकार की दुनिया है जिसमें शोषण , दमन, विस्थापन ,गरीबी ,जन-असंतोष और जनांदोलनों का उभार है . एक लेखक की जिम्मेदारी है कि वह इन दोनों के बीच के परदे को खींच कर असल दुनिया सामने लाये . वह सच सामने लाये जो दरअसल बेदखल तो कर दिया गया है पर अपनी अनुपस्थिति में भी उपस्थित है . मेरा लेखन इसी दिशा में एक छोटा सा प्रयास है ." आत्म-व्यक्तव्य के बाद उन्होंने नए संग्रह की पहली कहानी 'गैर हाज़िर में हाज़िर' का पाठ किया . परिचर्चा का प्रारंभ करते हुए  अनीता गोपेश ने अल्पना मिश्र को स्पष्ट सरोकारों का कहानीकार बताया . उन्होंने कहा ."अल्पना जी की कहानियां बहुत तेजी से ऊपर से गिरता हुआ प्रपात नहीं है जिसके छींटे आपको भिगों दें, बाढ़ में उफनती नदी नहीं है जो आपको बहा ले जाए बल्कि एक ऐसी शांत नदी है जो अपने सतत प्रवाह में चलती है आपको आह्वान करती हुई की आओ मेरे साथ चलो और समय की गति को पकड़ो , देखो दोनों कूलों पर क्या घटित हो रहा है . अल्पना जी की कहानियों में स्त्री-विमर्श की जगह सशक्तिकरण है. परिचर्चा  के क्रम में आलोचकीय वक्तव्य देते हुए  प्रणय कृष्ण ने तीनों संग्रहों को क्रमानुसार नहीं बल्कि समानांतर देखने की बात कही . उन्होंने कहा ,'ये तीनों संग्रह २१ वीं शताब्दी के हैं और इसलिए २० वीं शताब्दी में  जो कुछ हुआ और नया कुछ जो इस शताब्दी में होना है उन दोनों के जंक्शन पर लिखी हुई ये कहानियां हैं .' उन्होंने कहानियों के शिल्प के बारे में बताते हुए कहा कि 'जो लोग आतंरिक विवशता से लिखना शुरू करते हैं वो शिल्प से आक्रांत नहीं होते और जो ऐसा नहीं करते उनकी चिंता शिल्प पे ही टिकी रहती है . चित्रा मुद्गल इसिलए इनकी कहानियों के बारे में लिखती हैं कि ये शिल्पाक्रांत नहीं हैं.'  परिचर्चा की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ कहानीकार शेखर जोशी ने अल्पना मिश्र की पूर्व की लिखी कहानियों के साथ इस संग्रह की सभी कहानियों पर क्रमशः अपनी बात रखी . अपने व्यक्तव्य में उन्होंने कहानीकार के साधारण जीवन के असाधारण और सूक्ष्म पर्यवेक्षण की प्रशंसा की और बल  देते हुए  कहा कि अल्पना की कहानियां जमीन से जुडी हुई कहानियां हैं . कार्यक्रम का कुशलता पूर्वक सञ्चालन डॉ सूर्यनारायण ने किया तथा  डॉ लालसा यादव ने धन्यवाद ज्ञापित किया . कार्यक्रम में  राम जी राय,  राधेश्याम अग्रवाल , हरिश्चंद्र पाण्डेय ,  विवेक निराला ,संतोष कुमार चतुर्वेदी  , विवेक कुमार तिवारी , पद्मजा ,  चन्द्रकला जोशी , नीलम शंकर , विभागाध्यक्ष डॉ मीरा दीक्षित  तथा हिंदी विभाग के सभी प्राध्यापक एवं छात्र उपस्थित थे . 
- सुशील कृष्णेत                                                                                                          
                                                                                            

Friday, March 16, 2012

महबूब जमाना और जमाने में वे

 अल्पना मिश्र हिंदी कहानी के सूची समाज में अनिवार्य रूप से शामिल नहीं हैं लेकिन वे उसकी सबसे मजबूत परम्परा का एक विद्रोही और दमकता हुआ नाम हैं। उन्हें उखड़े और बाजारप्रिय लोगों द्वारा सूचीबद्ध नहीं किया जा सका। कहानी का यह धीमा सितारा मिटने वाला, धुंधला होने वाला नहीं है, निश्चय ही यह स्थायी दूरियों तक जायेगा।
अल्पना मिश्र की कहानियों में अधूरे, तकलीफदेह, बेचैन, खंडित और संघर्ष करते मानव जीवन के बहुसंख्यक चित्र हैं। वे अपनी कहानियों के लिए बहुत दूर नहीं जातीं, निकटवर्ती दुनिया में रहती हैं। आज, पाठक और कथाकार के बीच की दूरी कुछ अधिक ही बढ़ती जा रही है, अल्पना मिश्र की कहानियों में यह दूरी नहीं मिलेगी। आज बहुतेरे नए कहानीकार प्रतिभाशाली तो हैं पर उनका कहानी तत्व दुर्बल है, वे अपने निकटस्थ खलबलाती, उजड़ती दुनिया को छोड़ कर नए और आकर्षक भूमंडल में जा रहे हैं। इस नजरिए से देखे तो अल्पना मिश्र उड़ती नहीं हैं, वे प्रचलित के साथ नहीं हैं, वे ढूंढती हुई, खोजती हुई, धीमे धीमे अंगुली पकड़ कर लोगों यानी अपने पाठकों के साथ चलती हैं।
'गैरहाजिरी में हाजिर", 'गुमशुदा",'रहगुजर की पोटली", 'महबूब जमाना और जमाने में वे",'सड़क मुस्तकिल", 'उनकी व्यस्तता", 'मेरे हमदम मेरे दोस्त",'पुष्पक विमान" और 'ऐ अहिल्या" कुल नौ कहानियॉ इस संग्रह में हैं। इन सभी में किसी न किसी प्रकार के हादसे हैं। भूस्ख्लन, पलायन, छद्म आधुनिकता,जुल्म, दहेज हत्याएं, स्त्री शोषण से जुड़ी घटनाएं अल्पना मिश्र की कहानियों के केन्द्र में हैं। इन सभी कहानियों में लेखिका की तरफदारी और आग्रह तीखे और स्प्ष्ट हैं। वे अत्याधुनिक अदाओं और स्थापत्य के लिए विकल नहीं हैं। उनकी कहानियॉ अलंकारिक नहीं हैं, वे उत्पीड़न के खिलाफ मानवीय आन्दोलन का पक्ष रखती हैं और इस तरह सामाजिक कायरता से हमें मुक्त कराने का रचनात्मक प्रयास करती हैं। मुझे इस तरह की कहानियॉ प्रिय हैं।
- ज्ञानरंजन

Wednesday, March 14, 2012

देहरादून की साहित्यिक हलचल

''सौरी"" की ''चढ़ाई"" चढ़ते हुए एक समय बस्ती से देहरादून पहुंची अल्पना मिश्र अब दिल्ली निवासी हैं। देहरादून की साहित्यिक बिरादरी में उन्हें हमेशा अपने बीच ही महसूस किया जाता है। हाल ही में संपन्न हुए विश्व पुस्तक मेले के दौरान देहरादून के दो रचनाकारों की पुस्तकें सामने आयी हैं। युवा रचनाकार अल्पना मिश्र की कहानियों की किताब कब्र भी कैद औ" जंजीरें भी एवं वरिष्ठ रचनाकार गुरुदीप खुराना की किताब  एक सपने की भूमिका । अपने इन साथी रचनाकारों की पुस्तकों के लोकापार्ण के वक्त पुस्तक मेले में मेरी उपस्थिति एक संयोग रही, जिसे अपनी उपलब्धि के खाते में डालते हुए पुस्तकों के लोकार्पण की तस्वीरें आप सब के साथ सांझा कर रहा हूं।  दोनों रचनाकरों को बधाई। 





Saturday, April 18, 2009

हजारों दुख की बात होगी अगर औरतें मर्दों की तरह लिखने लगें

सामान्य भौतिक परिस्थितियां- एक ही काम को करते रहने की उक्ताहट, दुनिया जहान के कलह-झगड़े, ऐसी ही तमाम कठिनाईयां, जो कहीं कहीं भीतर ही भीतर किसी को भी छीज रही होती हैं औरशरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को भी समाप्त कर रही होती हैं, जीवन में उत्साह और विश्वास की अनुकूल स्थितियों के विरुद्ध गहरे संत्रास और निराशा को जन्म देती हैं। स्त्री जीवन की ऐसी तमाम कठिनाईयों को और ज्यादा बढ़ाती हुई और उन्हें बर्दाश्त करना मुश्किल बनाती हुई संसार की उपेक्षाओं का दंश अल्पना मिश्र की रचनाओं की मूल कथा रहा है।
नफरत, विक्षोभ, निराशा, कड़ुवाहट जैसे भावों को एकल रूप में प्रस्तुत कर, रचनात्मक ऊर्जा व्यय करने की बजाय अल्पना ने ऐसे सभी भावों को गहन संवेदनाओं में गूंथ कर ऐसा कोलाज तैयार किया है जिसमें आत्म समर्पण की हद तक भरा त्याग और विरोध की विद्रोहात्मक मन:स्थितियों की पर्तों में उलझी हुई ढेरों स्थितियां जब काव्यात्मक सी लगती उनकी कहानियों की भाषा में प्रकट होती है तो गहरे अर्थों से भरी होती हैं। कई बार कहानी के तय मानदण्डों में कैद समझ की सीमायें उन अर्थों तक पहुंचने में चूकने लगती है जिसके लिए वे रची गयीं हैं। कहा जा सकता है कि उनकी कहानियों में छुपे उस अन्तर्निहित कथ्य, जो इनकी बुनावट में जटिल हो गया सा लगता है, को पकड़ने के लिए पाठक को एकाग्रचित होकर उन्हें पढना लाजिमी हो जाता है। विशुद्ध पितृसत्तात्मक समाज के घने कुहरे के बीच वो सब कुछ कह जाना जो स्त्रियों की व्यथा को सहानुभूति की तरह नहीं बल्कि आत्मसम्मान के साथ रख पाये और उस पर नफरत और घ्रणा के भावों की छाया भी पड़े, कहने के लिए जिस ईमानदारी और प्रतिभा की जरुरत होनी चाहिए, अल्पना की कहानियां उसकी गवाह हैं।
अल्पना की कहानियों में स्त्रीपन का लैंगिक प्रभाव ज्यादा स्पष्ट होकर उभरा है। कलछुल पर टंगी पृथ्वी की कल्पना और जीवन के संदर्भों में उसकी अभिव्यक्ति किसी पुरुष मानसिकता के लिए संभव है क्या ? शायद नहीं। ऐसे बिम्ब ओर प्रतिकों को रचते हुए शायद उसे भी चूल्हे चौके में उलझी उसी स्त्री का सहारा लेना पड़ेगा जिसके श्रम को अभी तक प्रभावी मर्दाना मानसिकता ने निरर्थक और बिना मूल्यों का माना है। यहां स्त्री और कथा साहित्य पर वर्जीनिया वुल्फ़ के विचारों का सहारा लेकर कहा जा सकता है कि यह हजारों दुख की बात होगी अगर औरतें मर्दों की तरह लिखने लगें, या मर्दों की तरह रहने लगें, क्योंकि संसार की विशालता और विविधता को देखते हुए अगर दो लिंग भी नाकाफी हैं तो फिर केवल एक लिंग से कैसे काम चलेगा ? क्या शिक्षा का यह कर्तव्य नहीं होता कि समानताएं पैदा करने की बजाय विभिन्नताओं को पैदा करे और मजबूत बनाए? स्त्री के जीवन में छाये अंधकार जो उसके श्रम की निरर्थकता के कारण हैं, आखिर कैसे उसे अपने इतिहास से टकराने और समाजसे जुड़ने में मद्द करेगें। क्या एक स्त्री के जीवन का इतिहास उसके आये दिन की गतिविधियों से अलग हो सकता है ? क्या कोई स्त्री यह बता सकती है कि वो यादगार हल्वा, जिसका स्वाद आपकी जीभ पर आज भी टिका है, उसने किस दिन बनाया था। बर्तनों की वो चमक जिसे देखकर तुम भ्रमित हुए थे कि शायद कलई किये जा चुके हैं, किस दिन साफ किये गये। इतमिनान के क्षणों में भी एक मर्द की शान को चार चांद लगाते वस्त्रो पर की गयी इस्तरी कीतारीख को याद रख जा सकता है क्या ? अपने स्त्रीपन के किन दिनों में दूसरों द्वारा अपवित्र मान लिये जाने पर ही नहीं उस स्थिति में लगातार काम पर खटने की मजबूरी से पैदा होती उक्ताहट वाला दिन कौन सा रहा होगा ? ऐसी ही गतिविधियों में लगी स्त्री के जीवन में यह गतिविधियां क्या इतिहास का हिस्सा हुई हैं कभी ? एक स्त्री के पास ऐसे किसी भी दिन को याद कर लेने की फुर्सत नहीं और ही उसे याद करने की जरुरत। शायद किसी भी मर्द मानसिकता केपास ऐसे कामों में कला या सृजनात्मकता को खोज लेने की दृष्टिसंभव नहीं। इसे तो कोई स्त्री मस्तिष्क ही संभव कर सकता है। अल्पना की कहानियों में स्त्री लैंगिकता का यह पक्ष खूबसूरत ढंग से उभरता दिखायी देता है।

भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता द्वारा अल्पना मिश्र को आज वर्ष 2008 का हिन्दी का युवा लेखक सम्मान प्रदान किया गया। तीन अन्य युवाओं को भी अन्य भाषाओं के लिए पुरस्कृत किया गया। निर्मला पुतुल को संथाली भाषा के लिए,एस. श्रीराम को तमिल और मधुमित बावा को पंजाबी भाषा के लिए।
वरिष्ठ साहित्यकार और पहल के संपादक ज्ञानरंजन को हिंदी साहित्य में अमूल्य योगदान देने के लिए वर्ष 2008 के साधना सम्मान से सम्मानित किया गया। ज्ञानरंजन के अलावा तमिल साहित्य के लिए वेरामुत्थु, उड़िया साहित्य के लिए रामचंद्र बेहरा और पंजाबी साहित्य के लिए डा. महेन्द्र कौर गिल को भी सम्मानित किया गया।
उंडिया के चर्चित कवि रमाकान्त रथ कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे।
सम्मान समारोह के अवसर पर दिए गया अल्पना मिश्र का वक्तव्य प्रस्तुत है-


मेरे साहित्य में मेरा समय और समाज

- अल्पना मिश्र

सबसे पहले मैं भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता को और इस पुरस्कार के निर्णायक मंडल को धन्यवाद देती हूं कि उन्होंने मुझे इस पुरस्कार के योग्य समझा। वह भी ऐसे समय में, जब साहित्य का परिदृश्य पुरस्कारों के बाजार जैसा दिखाई पड़ रहा है। जिस तरह की होड़ मची है, जोड़ तोड़ के जो किस्से सुनने में आ रहे हैं और स्वार्थों की टकराहट में साहित्यिक आपाधापी और घमासान का जो दृश्य आये दिन दिख रहा है, वह हमारे आज के असहनीय और हिंसक होते समाज का ही प्रतिबिम्ब है। ऐसे में यदि कुछ लोग व संस्थाएं, निष्ठा और ईमानदारी बचाए हुए काम कर रही हैं तो इस आशा और विश्वास को बल मिलता है कि सही के पक्षधर लोग, विवेक और न्याय बचे हुए हैं। यह भी कि आज जो लिखा जा रहा है, उसे पढ़ा और परखा भी जा रहा है।
आप सबने यह सम्मान देकर मेरे सिर पर जिम्मेदारी की जो दुधारी तलवार टांग दी है, उसका अहसास भी मुझे हो रहा है। मेरी जितनी समझ है, उसके मुताबिक मेरी पूरी कोशिश होती है कि अपने समय और समाज को ईमानदारी, निर्भयता और गंभीरता से अपने लेखन में व्यक्त कर सकूं और अपने जीवन में भी सामाजिक सरोकारों के प्रति अधिक सक्रिय हो सकूं, क्योंकि जितना जरूरी है जिम्मेदारी का अहसास, उतना ही जरूरी है उसके निर्वहन का साहस। और लेखक के लिए अभिव्यक्ति के साहस से बड़ा कोई अस्त्र नहीं।
जब मैं इस लेख को लिखने बैठी तो मेरे मन में बार बार यह आ रहा था कि पहले प्रेशर कुकर धोकर आलू उबाल लेती, तब लिखने बैठती तो अच्छा रहता। लेकिन आलू उबाल लेने के बाद लगातार दूसरे काम उससे जुड़ते चले जाते और लिखना, कई बार की तरह इस बार भी स्थगित हो जाता।
मैं जानती हूं कि इस छोटी सी गैरजरूरी लगने वाली बात से जो मैंने अपने लेख की शुरूआत की है तो यह बौद्धिक वर्ग को बहुत अटपटा लग सकता है। लेकिन सच यही है। यह छोटी सी बात यह बताती है कि स्त्री के दिमाग को किस हद तक अनुकूलित किया गया है। पढ़ने, लिखने, विवेक और समझ के साथ स्त्री को पहले अपने आप से लड़ना पड़ता है, अपने ही दिमाग के उस अनुकूलन से, जिसे भारतीय स्त्री की लुभावनी छवि के भीतर चौबीसों घंटे के अथक परिश्रम में बॉध दिया गया है और जिसमें जरा सी कमी रह जाने पर स्त्री अपने ही भीतर की ग्लानि से त्रस्त हो जाए। कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि खाना बनाना एक अनावश्यक काम है। साफ सुथरा भोजन पकाना और संतुलित भोजन खाना सबके लिए जरूरी है, पर यह किसी एक की अनवरत जिम्मेदारी नहीं है। यह सबकी सहभागी जिम्मेदारी है। समय ऐसा है कि यहॉ घर बाहर कहीं भी, किसी भी समय एक बच्ची से लेकर बूढ़ी स्त्री तक को बेइज्जत किया जा सकता है, फिर उसके बनाए भोजन का अपमान करना कितना आसान होगा! घर के भीतर वैसे भी नियंत्रण के तरीके बाहर से कम हिंसक नहीं हैं। तमाम राजनैतिक, सामाजिक उथल पुथल के बावजूद यह आज भी हो रहा है। यहॉ लेनिन का वाक्य याद आ रहा है कि - "महिलाओं को मुक्त करने के सारे कानूनों के बावजूद वह एक घरेलू गुलाम बनी हुई है, क्योंकि घर का छोटा छोटा काम उसे दबाता है, मूर्ख बनाता है और बेइज्जत करता है। उसे रसोई और नर्सरी से बॉधता है और वह अपने श्रम को ---छोटे छोटे, दिमाग खराब करने वाले, बेतुके और दबाने वाली घरेलू चाकरी पर बर्बाद करती है।"
इसलिए इस पर विचार करना जरूरी लगता है कि स्त्री के लिए लेखन सबसे आखिरी में क्यों आ पाता है और आलू उबालने की चिंता सबसे पहले? आलू उबालना भूल जाने से होने वाली गड़बड़ियों की चिंता भी सबसे पहले? ऐसा क्यों?
क्या लिखना छूट जाने से गड़बड़ नहीं होगी?
हम, जो कुछ कहना, बताना चाहते हैं।
हम, जो दुनिया बदलने का स्वप्न देखते हैं।
हम, जो न्यायपरक दुनिया की बात करते हैं।
व्यवहारिक रूप में हमारा ही ये काम प्राथमिकता में क्यों नहीं आ पाता?
सोचना यह भी है कि घर के ये सारे काम, जो परम्परागत रूप से स्त्री के हिस्से माने जाते हैं, उन पर स्त्री का वास्तविक अधिकार कितना है? यह शुरू से रहा है कि ये घरेलू काम भी, जैसे ही अर्थिक लाभ के साथ जुड़ते हैं, उन पर पुरूषों का एकाधिकार हो जाता है। स्त्री बाहर कर दी जाती है। जिस सिलाई, कढ़ाई, भोजन पकाने, कपड़े धोने आदि काम को स्त्री का काम माना गया और जिसमें उसके श्रम और दिमाग को लगातार झोंका गया, वे स्त्री के लिए लाभ का सा्रेत, आर्थिक आजादी के आधार नहीं बन पाए। लेडीज टेलर, हलवाई, लांड्री आदि पर बाहर, पुरूषों का कब्जा रहा। यह कैसी विरोधाभासी स्थिति है कि जो पुरूष अपने कपड़े अपनी पत्नी से धुलवाता है, वही बाहर आजीविका के नाम पर दूसरों के कपड़े बिना किसी संकोच के धोने को तैयार है! इस सामंती सोच के विध्वंस के बिना ही आज की बदली परिस्थितियों ने और मुश्किलें खड़ी की हैं, जिनका विध्वंसकारी प्रभाव स्त्री और समाज के कमजोर तबके पर सबसे ज्यादा पड़ा है।
यहॉ एंगेल्स को याद किया जा सकता है कि "उद्यमों में समूचे महिला समुदाय का प्रवेश महिला मुक्ति की पहली बुनियाद है।"
आज की स्थिति यह है कि मुक्त बाजार तंत्र ने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया है। इस मुक्त बाजार से उपजे सामाजिक, आर्थिक दबाव की मार सबसे अधिक स्त्रियों और समाज के इसी कमजोर तबके पर पड़ी है। कुछ वर्ष पहले तक तीसरी दुनिया की स्त्रियॉ इस बड़े बाजार को श्रम शक्ति के रूप में उपलब्ध नहीं थीं। वे ग्रामीण अर्थव्यवस्था में शामिल जरूर थीं, पर न तो उन्हें किसान के रूप में मान्यता प्राप्त हुई और न ही घरेलू उत्पाद के उद्यम को बढ़ावा मिला, बल्कि उल्टा हुआ, बाजार तंत्र ने छोटे घरेलू उत्पाद्य के उद्यम और उनकी संभावनाएं समाप्त कीं। उसने स्त्रियों के श्रम की सही कीमत दिए बिना, उन्हें सस्ता श्रम की आसान उपलब्धता में बदल जाने की परिस्थितियॉ सृजित कीं। बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा तैयार की गयी फैक्ट्रियों में मजदूरी कर रही स्त्रियों को न तो ट्रेड यूनियन बनाने का अधिकार है और न ही स्वास्थ्य, सुरक्षा व अन्य जरूरी सुविधाएं हासिल हैं। इस तरह के असंगठित श्रम में वे अपने हक की लड़ाई भी नहीं लड़ पातीं। यही हाल मजदूरों का भी है। इसके साथ पारिवारिक तनावों और सामाजिक उत्पीड़न का शिकार होना भी स्त्री के साथ जुड़ जाता है और पुरूषों के साथ जुड़ती है कुंठा, जिसकी मार अंतत: स्त्री को ही झेलनी होती है।
अब चूंकि परिवार के भीतर पुरानी परिस्थितियॉ बनी हुई हैं और बाहर का परिदृश्य बदल गया है। ऐसे में जिन कुछ स्त्रियों ने शिक्षा, आर्थिक स्वालम्बन से कुछ जगह बनाई है, या कह लें कि थोडा समृद्ध और ताकतवर दिखाई पड़ती हैं, वहॉ भी सिर्फ दिखने वाला भ्रमात्मक सच है। उनकी स्थिति इतनी विकट है कि वे पहले से कहीं ज्यादा अकेली हुई हैं और वर्गीय अलगाव की शिकार भी। इन स्थितियों ने उनके लड़ने की ताकत कम की है। उनकी व्यापक एकता, जो बन सकती थी, उसे कमजोर किया है। बाजार ने ऐसी स्त्रियों के लिए जो आर्थिक आजादी के क्षेत्र खोले हैं, वे भी सेवाक्षेत्र ही हैं। चाहे वह एयर होस्टेस हों, बी पी ओ कर्मचारी, दुकानों पर सेल्स का काम या किसी कम्पनी के प्रबन्धन में सहयोग सम्बंधी रोजगार। यह सभी किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी को अपनी सेवाएं देना ही है और सेवाक्षेत्र इतना टिकाउ नहीं है। क्योंकि आजादी तो उत्पादन पर निर्भर है। जब सेवा क्षेत्र टिकाउ नहीं है, तो यह दिखने वाली आर्थिक स्वतंत्रता टिकाउ कैसे हो सकती है?
साम्रज्यवाद ने मुक्त बाजार के नाम पर तीसरी दुनिया के देशों पर एकतरफा कब्जा किया है। उसकी नीयत साफ नहीं है और उसका उद्देश्य संसाधनों पर कब्जा जमाना और अपना मुनाफा है, तीसरी दुनिया के देशों में गरीबी और बेरोजगारी दूर करना नहीं। ऐसा पहले भी रहा है, पर तब औपनिवेशिक व्यवस्था साफ दिखाई पड़ती थी। दूसरे का शासन दिखता था। उसे स्थानीय आदमी समझ पाता था, पर आज वह दिखता हुआ नहीं है। वह बहुत व्यापक और छिपे हुए रूप में है। इस बड़े बाजार ने रोजगार की संभावनाओं के नाम पर सेवाक्षेत्रों का विस्तार किया है। उत्पादन न होने की स्थिति मे ये सेवा क्षेत्र समाप्त हो जायेंगे। आज इसी आधार पर दुनिया की बड़ी मंडी में लाखों लोग बेरोजगार हुए हैं। उसमें स्त्री भी बेरोजगार हुई है।
कुल मिला कर उत्पादन में हिस्सेदारी के बिना मुकम्मल आर्थिक स्वतंत्रता हासिल नहीं की जा सकती।
आज जरूर अमेरिका द्वारा बनाए गए पूंजी के साम्राज्य में आर्थिक मंदी का दौर आया है, पर इससे यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि पूंजीवाद चरमरा गया है। अभी हाल में सम्पन्न हुआ योरोपीय देशों का जी 20 सम्मेलन तो ऑख खोलने वाला है। इस सम्मेलन का ब्रिटिश नागरिकों द्वारा विरोध किया गया। अमेरिका के प्रति नागरिकों का प्रत्यक्ष विरोध और जनता व शासक वर्ग के बीच का फासला खुल कर दिखाई पड़ा। परंतु साम्राज्यवादी ताकतों ने लगभग पूरे विश्व में आजमाई जा रही दमन की राजनीति के सहारे जनता के इस छोटे से विरोध की आवाज दबा दी। इस सम्मेलन में जो उपाय खोजे गए, उन पर गौर करें। जी 20 सम्मेलन में भाग लेने वाले देश इस आर्थिक मंदी से निपटने के लिए सम्मिलित रूप से अरबों, खरबों का धन लगायेंगे। प्रश्न यह है कि यह धन किसका है? बाहर विरोध करती जनता का! जनता की पूंजी कारपोरेट सेक्टर को सौंप देना कैसा उपाय है? अमेरिका तो ऐसे संकट में पहले ही जनता के खून पसीने की कमाई टैक्सों के रूप में लगा चुका है। और जरा अपने देश को देखिए - किस प्रेम के चलते भारत इस सबके बीच अंतरराष्ट्रीय बैंकों यानी आई एम एफ, विश्व बैंक और ऐशियाई विकास बैंक के नाम पर बीस अरब डालर यानी लगभग एक लाख करोड़ रूपए दे आता है? यह दान का पैसा किसका है? और भारत के प्रधानमंत्री को बिना किसी सार्वजनिक सम्मति, सूचना या जानकारी दिए बगैर ऐसा निर्णय करने का अधिकार कैसे है?
अमेरिकी राजनीति के शिकार, विकास के भ्रम में परेशानहाल तीसरी दुनिया के देच्चों पर भी आप नजर डाल सकते हैं।
आज प्रतिरोध की शक्ति की जितनी ज्यादा जरूरत है, उतना ही आम आदमी जीवन की जटिलताओं में उलझ कर इस सोच से निष्क्रिय होने लगा है। जन आन्दोलनों की गति धीमी हुई है। बाजार की चकाचौंध, प्रभुत्व और कठिन जीवन की थकान, उलझाव, समयाभाव व शो्षण की बारीक होती चालों ने भ्रमात्मक प्रगति के नाम पर बेहतर दुनिया के स्वप्न की धार कम कर दिया है। इस भयावह समय को अभ्यास की सुप्तावस्था में ही सहन किया जा सकता है।
स्वप्न और आकांक्षा का गुम जाना खतरनाक स्थितियों की ओर संकेत करते हैं। इसे ही पाश ''सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना---" कहते हैं। यह व्यवस्था आम जन के लिए किस हद तक निष्ठुर और अमानवीय है। इसी के बीच स्त्री भी है, जिसकी पुरानी परिस्थितियॉ तो हैं ही, आज की परिस्थितियों ने रहा सहा भी उससे छीना है। औद्योगिक विकास ने उसका समाज उससे छीन कर उसे अकेला और अलगावग्रस्त बनाया है। यह अलग बात है कि इस जूझने में कौन कितना बचा रह जाता है?
आलू उबालने की चिंता से लेकर, आलू के बाजार चिप्स आदि आदि से होते हुए जी 20 सम्मेलन तक का जो पूरा परिदृच्च्य है, उसी के बीच से स्त्री जीवन के सामाजिक सरोकारों को भी देखा जाना चाहिए। पूरे समाज पर बात किये बिना अकेले स्त्री जीवन पर बात नहीं की जा सकती। उसकी समस्याओं को आज के समय के भीतर, बाजार, व्यवस्था, राजनीति या जीवन के किसी भी पहलू से काट कर नहीं समझा जा सकता।
कई गुना जिम्मेदारी के बोझ से दबी स्त्री फिर भी च्चिक्षा और आर्थिक स्वालम्बन के लिए जद्दोजहद करती हुई मुक्ति के बारे में सोचने का साहस करती है। परिवार में दिन रात होने वाली छोटी छोटी बातें, घटनाएं, स्त्री जीवन को नियंत्रित करने के हथकंडे उसे कितना असामान्य और दिमागी तौर पर किस तरह विक्षिप्त बनाते हैं। इसे देखने , समझने की कोशिश भी जरूरी है। प्राय: उच्च शिक्षित परिवारों तक में स्त्री को निर्णय लेने की स्वतंत्रता नहीं मिली है। यहॉ तक कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी उसके हिस्से नहीं है। यह सच कितनी स्त्रियॉ खुल का स्वीकार करने का साहस कर सकती हैं कि आज भी परिवार के भीतर तर्क, बहस करने पर सिर काट लिए जाने की धमकीभरी परम्परा हमारी भारतीय संस्कृति के रूप में गर्व के साथ उपस्थित है। उपर से यह समय, जो स्वतंत्रता के नाम पर उच्छृंखलता को बढ़ावा देता है। घुमा फिरा कर स्त्री को उसी राह ले जाता है, जिससे मुक्त होने की सारी को्शिश है। स्वतंत्रता की समझ के लिए विवेक बुद्धि की जरूरत है, उच्छृंखल हो जाने की नहीं।
यह दु:खद घटना आपको बताना चाहती हूं कि अपनी 'मिड डे मील" कहानी पूरी करने के बाद यह खबर मुझे मिली कि उत्तर प्रदे्श में किसी गॉव के ग्राम प्रधान ने स्कूल के हेड मास्टर की गला दबा कर हत्या इसलिए कर दी कि वह स्कूल में 'मिड डे मील" के पैसों के लिए विद्यार्थियों की उपस्थिति सौ प्रतिशत दिखाने को तैयार नहीं था और शायद पैसों की बंदरबाट के लिए भी नहीं। इस जिद की कीमत उसकी जान हो सकती है। सरकारी अस्पतालों का हाल दयनीय है और चमकते हुए प्राइवेट अस्पताल आम आदमी की जेब के बाहर की चीज हैं। जीवन की अत्यंत आवश्यक सामूहिक आवश्यकताओं के प्रति हमारी सरकारों का रवैया ऐसा ही है। हर सार्वजनिक आवश्यकताओं की चीजों का प्राइवेटाइजेशन। यह निजीकरण की व्यवस्था यद्धपि विकल्प के रूप् में है, पर यह इतनी आक्रामक है और प्राय: विकल्प की बजाय सिर्फ और सिर्फ वही बची रहती है, जिसकी चपेट में आम आदमी पैसों से लुट कर बेकार सिद्ध किया जाता है।
यही हाल शिक्षा जगत का है। व्यावसायिक शिक्षा के नाम पर जो कुछ आम आदमी के हित में था,उसे उपलब्ध था, वह उससे छीन कर निजी हाथों में सौंप दिया गया है। सरकारी कॉलेजों में टीचर्स ट्रेनिंग कोर्स खोलने की बजाय निजी संस्थानों को ये कोर्स बॉटे गए हैं और अब ये इतने मॅहगे हैं कि आम आदमी की पॅहुच से बाहर हो चुके हैं। लड़कियों के लिए ये एक महत्वपूर्ण कोर्स हुआ करते थे, खर्च की दृष्टि से भी और आर्थिक संबल चुनने की दृष्टि से भी। उनका बड़ा नुकसान हुआ है। नुकसान छात्रों का भी हुआ है। जीविका के माध्यम की एक बड़ी तैयारी को पैसों के खेल में बदल दिया गया है। अन्य व्यावसायिक पाठ्यक्रम तो वैसे भी बड़े मॅहगे हैं।
एक तरफ सांस्कृतिक संकट के हाहाकार के बावजूद तमाम सांस्कृतिक अवधारणाएं चूर हुई हैं और सोवियत संघ के विघटन के बाद पूंजीवाद ने तीव्र उभार पाया है। आर्थिक उदारीकरण की नीति के साथ पूंजी के वर्चस्व का विकराल स्वरूप और विकास का भ्रमात्मक दृश्य सामने है। इस दिखने वाले आर्थिक विकास के पीछे बेरोजगारी, भुखमरी, अन्याय, अत्याचार, जल, जंगल, जमीन से बेदखली, सार्वजनिक हितों की अनदेखी और सार्वजनिक उपयोग के निजीकरण पर बल, आतंकी गतिविधियों से लेकर प्रगति के प्रतीकों के लिए भयावह विस्थापन तक भयानक तरीके से उपलब्ध हुआ है।
पूंजीवादी वर्चस्व से नियंत्रित इस समय ने जीवन को उपर से भ्रमात्मक और भीतर अधिक जटिल, अधिक मुच्च्किल बनाया है। हिंसा का आनंदीकरण इसी समय की देन है। दूसरी तरफ इस समय ने इतिहास, परम्परा, मूल्यों और अस्मिता का पुनर्मूल्यांकन करने के लिए भी विवश किया है। इस पुनर्मूल्यांकन की जरूरत ने साहित्य का परिदृ्श्य भी बदला है। वह पहले से अधिक मुखर हुआ है। उसकी तकनीक भी पहले से बदली है। आज के कथा साहित्य ने तो कविता की तकनीक के प्रयोग के साथ साथ गद्य के लगभग सभी रूपों को समाहित कर लिया है। समय के इस निरन्तर फिसलते भ्रमात्मक यथार्थ को पकड़ने की कोशिश कर रहे आज के साहित्य को पुराने औजारों से नहीं मापा जा सकता।
साम्राज्यवादी ताकतों का असली चेहरा और पूंजीवाद के प्रबलतम दु्ष्परिणाम के निशान बहुत साफ आम आदमी की जिंदगी में दिखाई पड़ते हैं। इस तरह सारी चकाचौंध के पीछे के ये सच, जिन्हें बेदखल मान लिया जाता है, उपस्थित होते हैं और इन्हें देखने, समझने और दिखाने की बेहद जरूरत है। आज के समय में सबसे बड़ी बेदखल कर दी गयी चीज इंसानियत है।
मेरे दौर के साहित्य में इसी समय और समाज को रचनाकारों ने अलग अलग तरह से पकड़ने की कोशिश की है। एक जिम्मेदार लेखक समाज, व्यवस्था, राजनीति, धर्म, विश्व की गतिविधियों आदि आदि कारक तत्वों को नजरअंदाज करके कैसे लिख सकता है? अब यह जो समय और समाज है, वह मेरे साहित्य में कितना अभिव्यक्त हो पाया है, इसका मूल्यांकन पाठक ही बेहतर कर सकता है, फिर भी मैने यहॉ कोशिश की है कि अपने लेखन में प्रकट किए गए अपने मंतव्य को आपके सामने स्प्ष्ट कर सकूं।
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