Sunday, October 13, 2013

कोरस

लिखे जा रहे उपन्यास का एक छोटा सा हिस्सा-      विजय गौड़



संगरू सिंह रिकार्ड सप्लायर था और रिटायरमेंट की उम्र तक पहुंचने से काफी पहले ही मर चुका था। अनुकम्पा के आधार पर संगरू के बेटे को अर्दली की नौकरी पर रख लिया गया था। उस वक्त उसकी उम्र मात्र बीस बरस थी। वह संगरू सिंह का बेटा था पर संगरू नहीं। संगरू सिंह ने उसे पढ़ने के लिए स्कूल भेजा था। वह एक पढ़ा लिखा नौजवान था और दूसरे पढ़े लिखों की तरह दुनिया की बहुत-सी बातें जानता था। बल्कि व्यवहार कुशलता में उसे कईयों से ज्यादा सु-सभ्य कहा जा सकता था। उसका नाम ज्ञानेश्वर है और धीरे-धीरे डिपार्टमेंट का हर आदमी उसे उसके नाम से जानने लगा था।
अर्दली बाप का नौजवान ज्ञानेश्वर दूसरे नौकरी पेशा मां-बाप की औलादों की तरह रूप्ाये कमा लेने और तेजी से बैंक बैलेंस बढ़ा लेने को कामयाबी का एक मात्र लक्ष्य मानता था और जमाने भर में चालू, अंधी दौड़ में शामिल होने के हर हुनर से वाकिफ हो जाना चाहता था। उसकी कोशिशें इन्वेस्टमेंट के नये से नये प्लान, और हर क्षण खुलते नम्बरों के साथ लाखों के वारे न्यारे कर लिए जाने के साथ रहती। इकाई के अंकों में ही अनंत दहाइयों का रहस्य छुपा है और जीवन का गणित ऐसे ही सवालों को चुटकियों में हल करने के साथ ही सफल हो सकता है, उसका जीवन दर्शन बन चुका था। सुबह से शाम तक कभी अट्ठा, कभी छा तो कभी चव्वे की आवाजें उसके भीतर हर वक्त गूंजती रहती थी। गोल्डन फारेस्ट से लेकर गोल्डन ओक, गोल्डन पाइन जैसे नामों वाली वित्तिय गतिविधियों के कितने ही गोल्डन-गोल्डन एजेंट उसके साथी थे। फुटपाथों पर कम्पनी के शेयर संबंधी कागजों की भरमार और कानाफुसी का चुपचाप बाजार जब खरीद पर भी कमीशन देने की उपभोक्तावादी नयी संस्कृति को जन्म दे रहा था, ज्ञानेश्वर अपने मित्रों परिचितों को अपनी अदाओं के झांसे में फंसाकर उनके भीतर के ललचाघ्पन को और ज्यादा उकसाने में माहिर होता जा रहा था। खामोश रहने और मंद-मंद मुस्कराने की निराली अदाओं को उसने इस हद तक आत्मसात कर लिया था कि उसके मोहक आकर्षण का दीवाना, कोई परिचित, रिश्तेदार जब उसके करीब आता तो वह उसे चुपके से और करीब से करीब आने का आमंत्रण दे चुका होता। ऐसे ही करीब आ गये प्रशंसक को वह किसी होटल की भव्यता के दायरे में लगती विस्तार वादी बाजार की कक्षाओं के महागुरूओं के हवाले कर देता। ब्रोकरो, स्टाकिस्टों और बिचौलिये के बीच बंटकर गुम हो जा रहे मुनाफे से बचने की चेतावनी को जरूरी पाठ मान लेने वालों की एक लम्बी श्रृखंला तैयार कर लेने की उसकी कोशिशें बेशक उसे आसानी से कामयाब बना देने में सहायक थी लेकिन साल-छै महीने के अन्तराल में ही उसे एहसास होने लग जाता कि महागुरूओं की आवाज का जादुईपन एक सीमा ही है। लगायी गयी रकम का रिर्टन न मिलने से निराश हो चुके परिचितों को दोपहिया से चोपहिया तक ले जा सकने के सपने दिखाना फिर उसके लिए आसान न रहता और धंधा बदलने को मजबूर हो जाना पड़ता।