Saturday, June 1, 2013

कविता के वाद्ययंत्र पर झंकृत जीवन की लय



                                - महेशचंद्र पुनेठा



  सिद्धेश्वर सिंह युवा पीढ़ी के उन विरले कवियों में हैं जो बिना किसी शोर-शराबे के अपने कवि कर्म में लगे है। अपनी कविता को लेकर उनमें न  किसी तरह की आत्ममुग्धता है और न कहीं पहुंचने या कुछ  पा लेने की हड़बड़ाहट। उनका विश्वास चुपचाप अपना काम करने में है। फालतू कामों में लगकर स्वयं को नष्ट नहीं करना चाहते हैं। एक साधक के लिए यह बड़ा गुण कहा जा सकता है। विज्ञापन के इस युग में यह बड़ी बात है। कवि किसी तरह के बड़बोलेपन का शिकार भी नहीं है और न ही किसी बड़े आलोचक का बरदहस्त पाने के लिए उतावला।  उनके व्यक्तित्व की इन वि्शेषताओं की छवि हमें पिछले दिनों प्रका्शित उनके पहले कविता संग्रह "कर्मनाशा" की कविताओं में भी दिखाई देती है।उनकी कविताओं में किसी तरह का जार्गन न होकर धीरे-धीरे मन में उतरने का गुण है।ऊपर से देखने में सीधी-सपाट भी लग सकती हैं। वे अपनी बात को अपनी ही तरह से कहते हैं।पूरी शालीनता से। अच्छी दुनिया के निमार्ण की दिशा में अपनी प्राथमिकता को बताते हुए  "काम" कविता में वे कहते हैं-दुनिया बुराइयों और बेवकूफ़ियों से भरी पड़ी है/ऊपर से प्रदूषण की महामारी /अत:/धुल और धुंए से बचानी है अपनी नाक/ पांवों को कीचड़ और दलदल से बचाना है/आंखों को बचाना कुरूप दृश्यों से/और जिह्वा को बचाए रखना है स्वाद की सही परख के लिए।

  माना कि "अच्छी दुनिया के निर्माण" के लिए इतना पर्याप्त नहीं है पर आज के दौर में जब "हर ओर काठ और केवल काठ" ही दिखाई दे रहा हो खुद को काठ होने से बचा लेना भी किसी संघर्ष से कम नहीं है। यही से होती है दुनिया को बचाने की शुरुआत। सिद्धे्श्वर "ठाठें मारते इस जन समुद्र में/वनस्पतियों का सुनते हैं विलाप" यह सामान्य बात नहीं है। यह उनकी संवेदनशीलता कही जाएगी कि उन्हें पहाड़ खालिस प्रकृति के रूप में नहीं दिखाई देते हैं- पहाड़ केवल पहाड़ नहीं होते/न ही होते हैं/नदी नाले पेड़ बादल बारिश बर्फ/पहाड़ वैसी कविता भी नहीं होते /जैसी कि बताते आए हैं कविवर सुमित्रानंदन पंत। पहाड़ को कवि उसके जन के सुख-दु:ख और संघर्षों के साथ देखता है। उनकी  कविता "दिल्ली में खोई हुई लड़की" इसका प्रमाण है। यह अपने-आप में एक अलग तरह की कविता है जिसके कथ्य में एक मार्मिक कहानी बनने की पूरी संभावना है। यह कविता उस पहाड़ के दर्द को व्यक्त करती है-जहां से हर साल ,हर रोज धीरू जैसे पता नहीं कितने धीरू दिल्ली आते हैं और खो जाते हैं। जिनकी ईजाएं रात-रात भर जागकर डाड़ मारकर रोती हैं और आज एक "बैणी" अपने भाई को ढूंढने निकली है। जिसे वहां हर जगह-हर तीसरा आदमी धीरू जैसा ही लगता है। वह सोचती है-क्यों आते हैं लोग दिल्ली/क्यों नहीं जाती दिल्ली कभी पहाड़ की तरफ? कविता में बस कंडक्टर का यह कहते हुए उस लड़की को समझना कि-तेरे जैसों के लिए नहीं है दिल्ली/हम जैसों के लिए भी नहीं है दिल्ली/फिर भी यहां रहने के लिए अभिशप्त हैं हम। मानवीय विडंबना को व्यक्त करती है।साथ ही ये पंक्तियां कविता को एक राजनैतिक स्वर प्रदान करती है। यह कविता दिल्ली पर लिखी गई तमाम कविताओं से इस अर्थ में अलग है कि इसमें दिल्ली में एक और ऐसी दिल्ली है जहां के लोगों को "लोगों में गिनते हुए शर्म नहीं आती"। इस कविता में पहाड़ के संघर्ष और दिल्ली के हृदयहीन चरित्र को व्यक्त करने की पूरी को्शिश की गई है।                                   

  युवा कवि-चित्रकार सिद्धेश्वर सिंह की कविताओं में-बढ़ते बाजारभाव की कश्मकश में/अब भी/बखूबी पढ़े जा सकते हैं चेहरों के भाव। सुनी जा सकती है अपील-आओ चलें/थामे एक दूजे का हाथ/चलते रहें साथ-साथ। व्यक्तिवादी समय में साथ-साथ चलने की बात एक जन-प्रतिबद्ध कवि ही कह सकता है।  उन्हें "कुदाल थामे हाथों की तपिस" दिलासा देती है कि अब दूर नहीं है वसंत---खलिहानों-घरों तक पहुंचेगा उछाह का ज्वार। उनकी कविता में सामूहिकता और उम्मीद  का यह स्वर उस उजले चमकीले आटे की तरह लगता है जिससे उदित होती है फूलती हुई एक गोल-गोल रोटी जो कवि को पृथ्वी का वैकल्पिक पर्याय लगती है। पृथ्वी को रोटी के रूप में देखना पृथ्वी में रहने वाले अनेकानेक भूखों को याद करना है।  इतना ही नहीं अपने कविता संग्रह का शिर्षक एक ऐसी नदी के नाम को बनाता है तो अपवित्र  मानी जाती है। यह यूं ही अनायास नहीं है बल्कि सोच-समझकर किया गया है। इससे साफ-साफ पता चलता है कवि किसके पक्ष में खड़ा है। उसने गंगा-यमुना को नहीं "कर्मनाशा" को चुना। पुरनिया-पुरखों को कोसते हुए वह पूछता है-क्यों-कब-कैसे कह दिया/कि अपवित्र नदी है कर्मनाशा !/भला बताओ/फूली हुई सरसों/और नहाती हुई स्त्रियों के सानिध्य में/कोई भी नदी/आखिर कैसे हो सकती है अपवित्र ? इस तरह कवि  उपेक्षित-अवहेलित चीजों-व्यक्तियों को अपनी कविता के केंद्र में लाता है। वह दो दुनियाओं को एक-दूसरे के बरक्स खड़ा कर हमारे समाज में व्याप्त वर्ग विभाजन को और दोनों ओर व्याप्त "हाय-हाय-हाहाकार" दिखाता है। उनकी कविता "दो दुनियाओं के बीच" संबंध जोड़ती, संघर्ष करती , दीवारों को तोड़ती, जनता से परिचय कराती है। " बाल दिवस " कविता में इसे देखा जा सकता है- इस पृथ्वी के कोने-कोने में विद्यमान समूचा बचपन/एक वह जो जाता है स्कूल/एक वह भी जो हसरत से देखता है स्कूल को/एक वह जो कंप्यूटर पर पढ़ सकेगा यह सब/एक वह भी/जो कूड़े में तलाश रहा है काम की चीज---पर कवि को विश्वास है कि-बच्चे ही साफ़ करेंगे सारा कूड़ा-कबाड़। अंधेरे-उजाले का संघर्ष सदियों से चला आ रहा है और तब तक चलता रहेगा जब तक धरती के कोने-कोने से अंधेरा का नामोनिंशापूरी तरह मिट नहीं जाता है। कवि जीवन के हर अंधेरे कोने में "उजास" की चाह करता है-उजाला वहां भी हो/जहां अंधेरे में बनाई जा रही हैं/सजावटी झालरें/और तैयार हो रही हैं मोमबत्तियां/ उजाला वहां भी हो/जहां चाक पर चलती उंगलियां/मामूली मिट्टी से गढ़ रही हैं/अंधेरे के खिलाफ असलहों की भारी खेप। कवि अपील करता है-आओ!/जहां-जहां बदमाशियां कर रहा है अंधकार/वहां-वहां/रोप आएं रोशनी की एक पौध। इस तरह उनकी कविता अंधेरे से उजाले के बीच गति करती है। कवि जानता है -साधारण-सी खुरदरी हथेलियों में/कितना कुछ छिपा है इतिहास। कवि हथेलियों का उत्खनन करने वालों की चतुराई को भी जानता है कि-वे चाहते हैं कि खुली रहें सबकी हथेलिया/चाहे अपने सामने या फिर दूसरों के सामने/हथेलियां बंद होकर मुटि्ठयों की तरह तनना/उन्हें नागवार लगता है। पर कवि का विश्वास है-किसी दिन कोई सूरज/यहीं से बिल्कुल यही से/उगता हुआ दिखाई देगा। ---।यह रात है/नींद/स्वप्न/जागरण/और---/सुबह की उम्मीद। सिद्धेश्वर सिंह की कविताओं में मुक्तिबोध की तरह अंधेरे और रात का जिक्र बहुत होता है इसके पीछे कहीं न कहीं कवि की रोशनी और सवेरे की आस छुपी हुई  है। कवि यत्र-तत्र उगते बिलाते देखता है उम्मीदों के स्फुलिंग, उनमें से एक कविता भी है। वह "निरर्थकता के नर्तन पर नतशीश" कविता से कुछ उम्मीद पाले हुए है। भले ही कवि के शब्दों में-कविता की यह नन्हीं-सी नाव/हिचकोले खाए जा रही है लगातार-लगातार।

   प्रस्तुत संग्रह की बहुत सारी कविताएं पाठक को अपने साथ यायावरी में भी ले जाती हैं। नए-नए स्थानों के दर्शन कराती हैं।वहां के जनजीवन से  परिचित कराती हैं।साथ ही कुरेदती है वहां के "व्यतीत-अतीत" को और खंगालती है इतिहास को।"बिना टिकट-भाड़े-रिजर्वेशन के" कभी वे विंध्य के उस पार दक्षिण देश ले जाते हैं, कभी आजमगढ़ तो कभी शिमला ,कौसानी ,रामगढ़,रोहतांग,नैनीताल। कवि वहां की प्रकृति और जन के साथ एकाकार हो जाता हैं। उसको अपने-भीतर बाहर महसूस करने लगता है। खुद से नि:शब्द बतियाने लगता है। अडिग-अचल खड़ा नगाधिराज,तिरछी ढलानों पर सीधे तने खड़े देवदार, बुरांस , सदानीरा नदियां, फूली हुई सरसों के खेत के ठीक बीच से सकुचाकर निकलती कर्मनाशा की पतली धार ,तांबे की देह वाली नहाती स्त्रियां ,घाटी में किताबों की तरह खुलता बादल उनकी कविता में एक नए सौंदर्य की सृर्ष्टी करते हैं।साथ ही पिघलते हिमालय की करुण पुकार ,आरा मशीनों की ओर कूच कर रहे चीड़ों, नदियों में कम होते पानी,ग्लोबल वार्मिंग की मार से गड़बड़ाने लगा शताब्दियों से चला आ रहा फसल-चक्र की चिंता उनकी कविताओं में प्रकट होती है। यह प्रकृति और  पर्यावरण के प्रति उनकी अतिरिक्त चेतना और संवेदना को बताता है। एक पर्यावरण चेतना का कवि ही इस तरह देख सकता है-यत्र-तत्र प्राय: सर्वत्र/उभर रही हैं कलोनियां/जहां कभी लहराते थे फसलों के सोनिया समंदर/और फूटती थी अन्न की उजास/वहां इठला रही हैं अट्टालिकाएं/एक से एक भव्य और शानदार(रसना विलास)। उसे ही महसूस हो सकती है-डीजल और पेट्रोल के धुएं की गंध।सूर्य का ताप।  यही है "हमारी लालसाओं की भट्ठी की आंच" जिसके चलते नगाधिराज की देह भी पिघलने लगी है। उनका विनम्र "आग्रह" है कि-कबाड़ होती हुई इस दुनिया में/फूलों के खिलने की बची रहनी चाहिए जगह। कवि वसंत को खोजता है। उस समय को खोजता है जब आग,हवा,पानी ,आका्श ,प्यार यहां तक कि नफरत भी सचमुच नफरत थी। कुछ खोते जाने का अहसास इन कविताओं में व्याप्त है जो बचाने की अपील करता है।यह बचाना पर्यावरण से लेकर मानवीय मूल्यों को बचाना है।  

 समीक्ष्य संग्रह की अनेक कविताओं में व्यंग्य की पैनी धार भी देखी जा सकती है। पुस्तक समीक्षा आज एक ऐसा काम होता जा रहा है जिसे न पढ़ने वाला और न छापने वाला कोई भी गंभीरता से नहीं लेता है। उसका इंतजार रहता है तो केवल पुस्तक-लेखक को। यह बहुत चिंताजनक स्थिति है पर इसके लिए खुद समीक्षक जिम्मेदार है। जितनी चलताऊ तरीके और यार-दोस्ती निभाने के लिए समीक्षा लिखी जा रही है उसके चलते समीक्षा इस हाल में पहुंच गई है। सिद्धेश्वर सिंह की कविता "पुस्तक समीक्षा" इस पर सटीक और तीखा व्यंग्य करती है। व्यंग्य का यह स्वर "इंटरनेट पर कवि", "कस्बे में कवि गोष्ठी","लैपटाप","टोपियां","बालिका वर्ष"," जानवरों के बारे में" आदि कविताओं में भी सुना जा सकता है।

 कवि-अनुवादक सिद्धेश्वर सिंह रोजाना बरती जाने वाली भा्षा में अपनी बात कहने वाले कवि हैं। उनका इस बात पर विश्वास है-भा्षा के चरखे पर/इतना महीन न कातो/कि अदृश्य हो जाएं रे्शे/कपूर-सी उड़ जाए कपास। आज लिखी जा रही बहुत सारी कविता के साथ "अद्रश्य" हो जाने का संकट है।यह संकट उनकी भा्षा और कहन के अंदाज ने पैदा किया है।  इसकी कोई जरूरत नहीं है ---इस तद्भव समय में कहां से प्रकट करूं तत्सम शब्द-संसार/रे्शमी रे्शेदार शब्दों में कैसे लिखूं-/कुछ विशिष्ट कुछ खास। कविता के लिए "रेशमी-रे्शेदार शब्दों" की नहीं उन शब्दों की जरूरत है जो क्रियाशील जन के मुंह से निकले हैं।किसी भी समय और समाज  की सही अभिव्यक्ति उसके क्रिया्शील जन की भाषा-शैली में ही संभव है। यहां मैं प्रसंगवश "अलाव" पत्रिका के अंक-33 के संपादकीय में कवि-गीतकार रामकुमार कृ्षक की बात को उद्धरित करना चाहुंगा-"" कविता का कोई भी फार्म और उसकी अर्थ-गर्भिता अगर सबके लिए नहीं तो अधिसंख्यक पाठकों के लिए तो ग्राह्य होनी ही चाहिए। मैं उन विद्वानों से सहमत नहीं हो पाता हूं ,जो चाहते हैं कि कविता में अधिकाधिक अनकहा होना चाहिए या शब्दों से परे होती है, अथवा जिसे गद्य में कहा जा सके , उसे पद्य में क्यों कहा जाए।"" अच्छी बात है कि सिद्धे्श्वर की कविता अधिसंख्यक पाठकों के लिए ग्राह्य है। यह दूसरी बात है कि कुछ कविताओं में सिद्धे्श्बवर हुत दूर चले जाते हैं जहां से कविता में लौटना मुश्किल हो जाता है। शब्दों और पंक्तियों के बीच अवकाश बढ़ जाता है और कविता अबूझ हो जाती है। कुछ कविताओं में वर्णनाधिक्य भी हैं। पर ऐसा बहुत कम है।  

  सिद्धेश्वर उन कवियों में से है जो अपनी पूरी काव्य-परम्परा से सीखते भी हैं और तब से अब तक के अंतर को रेखांकित भी करते हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए सुमित्रानंदन पंत ,महादेवी वर्मा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला,नागार्जुन, मुक्तिबोध, वेणुगोपाल, हरी्श चंद्र पांडेय, विरेन डंगवाल, जीतेन्द्र श्रीवास्तव आदि कवि अलग-अलग तरह से याद आते हैं। उनकी कविता अपने समय को देखती-परखती-पहचानती चलती है जो एक बेहतर दुनिया के सपने देखती है। वह अपने समय को हवा-पानी की तरह निरंतर बहता देखना चाहते हैं। इस संग्रह की एक खास बात यह है कि इनमें कविता के परम्परागत वि्षयों से बाहर निकलकर फेसबुक, इंटरनेट, मोबाइल, लैपटाप जैसे वि्षयों पर भी कविताएं लिखी गई हैं। भले ही कवि को इन कविताओं में और गहराई में जाने और संश्लिष्टता लाने की जरूर थी बावजूद इसके इन कविताओं के माध्यम से  कवि अपने समय की गति से अपनी चाल मिलाता चलता है।  उन्हें कवि कर्म "शब्दों की फसल सींचना" या "शब्दों को चीरना" "शब्दों का खेल कोई" जैसा कुछ लगता है। "सिर्फ जेब और जिह्वा भर नहीं है जिनका जीवन" वे जरूर सुन सकते हैं उनकी कविता के वाद्ययंत्र पर झंकृत जीवन की लय। आशा करते हैं उनकी कविताओं में जीवन की यह लय आने वाले समय में और व्यापक और गहरी होती जाएगी।

   

कर्मनाशा ( कविता संग्रह) सिद्धेश्वर सिंह  प्रका्शक - अंतिका प्रका्शन गाजियाबाद। मूल्य-225 रु0 

3 comments:

vandana gupta said...

्सही में समीक्षा हो तो ऐसी

ब्लॉग बुलेटिन said...

आज की ब्लॉग बुलेटिन शो-मैन तू अमर रहे... ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

Onkar said...

कमाल की रचनाएँ. निःशब्द