Friday, December 16, 2011

घेड़ गिंडुक की तेरहवीं


डा. शोभाराम शर्मा

ठाकुर बुथाड़ सिंह को बाप-दादों से वसीयत में जो कुछ मिला, उसमें से तीन चीजों का उल्लेख करना आवश्यक है। पहली चीज थी इलाके की थोकदारी¹, दूसरी लाइलाज बीमारी और तीसरी कोठे² के एक अंधेरे कमरे में पड़ा घेड़ गिंडुक³। सत्ता चाहे जो भी और जैसी भी हो, उसके प्राण तो लाठी में ही बसते हैं। यहां भी उधर की सत्ता ने अपना आतंक जमाने के लिए जो हथियार चुना वह घेड़ गिंडुक के रूप में सामने आया। हक-दस्तूरी⁴ की जां-बेजां वसूली के लिए वह कारगर हथियार साबित हुआ। उसके बूते उपजी दौलत, और दौलत से उपजी विलासिता। दौलत ने विलासिता को ऐसी हवा दी कि उसके असर से बच पाना आसान नहीं था। पहले शिकार बने ठाकुर बुथाड़ सिंह के अपने ही दादा। जिनकी रसिकता की चर्चा लोग आज भी चटखारे ले-लेकर करते हैं। एक से जी नहीं भरा तो चार-चार शादियां कर डालीं। एक को तो विवाह मंडप से ही उड़ा लाए। इलाके को जैसे सांप सूंघ गया। विरोध् में एक उंगली तक नहीं उठी। घेड़ गिंडुक के आगोश में मौत को गले लगाने की हिम्मत जुटाना भी तो खेल नहीं था। पिफर क्या था, वासना का ज्वार सारी सीमाएं लांघ गया। मां-बाप ने जिस बेचारी से पल्ला बांध वह तो पति की बेरुखी का अभिशाप जीवन भर भोगती रही। गनीमत हुई कि थोकदारी का वारिस उन्हीं की कोख से पैदा हुआ और इलाके के लोग 'जैजिया⁵ का संबोधन उन्हीं के सम्मान में करते थे। संतोष था तो बस इतना ही।
उधर महफिलें जमतीं, नृत्यांगनाओं के नखरे उठाए जाते, ऊपर से इलाके की सुंदरियों की टोह भी लेनी पड़ती। रखैलों का ध्यान भी गाहे-बगाहे रखना ही पड़ता। सुरा-सुंदरी के मोहपाश में ऐसे फंसे कि असमय ही बुढ़ापे के लक्षण प्रकट होने लगे। हल्का-सा ताप और ऊपर से खांसी की मार। लगता था कि एक हरे-भरे पेड़ को बेरहम काठ कीड़ा भीतर से खोखला करने में लगा हो। रोग बढ़ता गया और एक दिन खून उगलते-उगलते वे दुनियां ही छोड़ गए।
बेटे ने शादियां तो दो ही कीं लेकिन सुरा-सुंदरी के आकर्षण से बच पाना उसके बस में भी नहीं था। बाप की सौगात जल्दी ही ऐसा रंग लाई कि अधबीच जवानी में ही रोग ने धर दबोचा। आज तीसरी पीढ़ी के ठाकुर बुथाड़ सिंह उसी की चपेट में हैं। थोकदारी के साथ बीमारी भी खानदानी हो गई। खानदान पर लगे इस घुन से पीछा छुड़ाने के लिए क्या कुछ नहीं किया गया। देवी-देवता, पूजा-पाठ, जप-तप, तीरथ-व्रत, झाड़-फूंक और दवा-दारू सबकुछ तो किया लेकिन ढाक के वही तीन पात। अभी तक तो छुटकारा मिला नहीं। ठाकुर बुथाड़ सिंह को तो बस यही चिंता खाए जा रही थी कि उनका अपना तो जो कुछ हो लेकिन अगली पीढ़ी इस बला के चंगुल में न फंसे। ऊपर से एक मुसीबत और। गोरखों तक तो ऊपरवालों से तालमेल बिठाने में कोई अड़चन नहीं आई लेकिन इधर जब से सात समंदर पार के पिफरंगी मालिक बने थोकदारी पर भी संकट के बादल मंडराते नजर आने लगे। बड़े-बड़े नवाब और राजे-महाराजे तक जिस कंपनी बहादुर के आगे नहीं टिक पाए, उसका थोकदार जैसे बौने सामंत भला क्या बिगाड़ लेते? अपनी इस बेबसी पर ठाकुर बुथाड़ सिंह भीतर-ही-भीतर कसमसा रहे थे कि बाहर से किसी की पदचाप सुनाई दी। दरवाजा ठेलकर अपने ही कुलपुरोहित प्रकट तो हुए पर झिझकते हुए कुछ दूरी बनाकर बतियाने लगे। बोले- ''ठाकुर साहब! राजवैध की दवाइयों से कुछ लाभ हुआ कि नहीं?
''किसका लाभ और कहां का लाभ पंडित जी। लगता है अब ऊपर जाने के दिन नजदीक आ गए हैं। मायूस होकर ठाकुर बुथाड़ सिंह ने जवाब दिया।
''इतने निराश न हों ठाकुर साहब। हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहने से तो कुछ होगा नहीं। राजवैध यह भी तो सुझा गए थे कि मांसाहारी का मांस लाभ पहुंचा सकता है।
''तो आप चाहते हैं कि मैं गीदड़, कौवे और उल्लू आदि का मांस लेकर अपना अगला जनम भी अकारथ कर डालूं। नहीं पंडित जी मन नहीं मानता। आखिर अपने संस्कार भी तो कुछ हैं।
''आपका कहना भी सही है मन ही न माने तो उपाय भी व्यर्थ हो जाते हैं। लेकिन कुछ-न-कुछ तो करना ही होगा। आपकी जन्मकुंडली देखकर मैंने जो वर्षफल निकाला है उसके अनुसार शनि की साढ़े साती का अब एक ही साल शेष रह गया है। इस बीच अगर शनि-कोप-विमोचन-जाप किसी शिव मंदिर में शुरू कर दें तो रोग का प्रकोप अवश्य धीमा पड़ेगा और साल भर बाद अगर भगवान आशुतोष की कृपा हुई तो आप इस जानलेवा बीमारी के चंगुल से भी छुटकारा पा लेंगे।
''आप कहते हैं तो यही सही। लेकिन एक बात समझ में नहीं आती। यह साढ़े साती मेरे ही पीछे पड़ी है या मेरा पूरा खानदान ही इसकी चपेट में है। मैं तो तीसरी पीढ़ी में हूं। इसी रोग के मारे मेरे पुरखे भी असमय काल-कवलित हो गए। उन्होंने भी तो सारे उपाय किए थे। लेकिन हुआ क्या? जो कीड़ा खानदान की जड़ में लग गया वह तो छूटने का नाम ही नहीं लेता।
''देखिए ठाकुर साहब, शनि महाराज का कुछ स्वभाव ही ऐसा है कि किसी पर प्रसन्न हुए नहीं कि राज-योग बैठ गया और कहीं कुपित हो बैठे तो सालों-साल साढे़ साती के कोल्हू में पेर दिया। अति तो हर चीज की बुरी होती है। भगवान शनिदेव की कृपा से राजयोग बैठता तो है लेकिन विलास की अति उन्हें भी पसंद नहीं। राजयोग को राजयक्ष्मा में बदलते उन्हें देर नहीं लगती। कहते हैं कि अति विलासिता के कारण भगवान राम का वंश तक इसी रोग से समाप्त हो गया था। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि हम भाग्य भरोसे बैठे रहें। मैं जिस जाप की सलाह दे रहा हूं, शायद वही काम कर जाए, कौन जाने?
''लेकिन मेरी सिथति क्या जाप करने की है?
''आपको नहीं, जाप तो मुझे करना है आपके लिए। आप तो बस संकल्प भर कर दें।
''तो ठीक है, जिस चीज की भी जरूरत हो आप निस्संकोच यहां से लेते रहें। हां … । ठाकुर बुथाड़ सिंह ने कुछ कहने के लिए गला सापफ करना चाहा तो खांसी उभर आई। कहीं थूक के छींटे उन तक न पहुंचे इस डर से पुरोहित ने मुंह फेर लिया। खांसी का वेग थमा तो बुथाड़ सिंह गहरी सांस छोड़कर बोले- ''पंडित जी, एक आप ही थे जो सामने आकर बतिया लेते थे। अब तो आप भी मुंह फेरने लगे हैं। खैर! आपको ही क्या दोष दूं जब अपने ही सामने आने से कतराते हैं। और-तो-और घरवाली तक छूने से परहेज करने लगी है। बस भोजन-पानी और दवा-दारू देकर कमरे से बाहर निकलने की जल्दी में रहती है। जबसे यह रोग लगा बेटे और बहू की एक झलक तक देखने को तरस जाता हूं। नाते-रिश्तेदार और इलाके के लोग बाहर-बाहर से हमदर्दी जताकर खिसक लेते हैं। एक तो बीमारी ऊपर से अकेलेपन का एहसास, इन दोनों ने तो मुझे भीतर से तोड़  दिया है। सोचता हूं इस दुनिया से जितनी जल्दी उठ जाउफं, उतना ही अच्छा।
''ठाकुर साहब! धीरज रखें एक ही साल की बात तो है। साढे साती निपटी नहीं कि आपको चंगा होने में देर नहीं लगेगी। हां, अगर चिंता ही करनी है तो थोकदारी को लेकर करें। पंडित जी ठाकुर की ओर मुखातिब होकर कह बैठे।
''क्यों? क्या कोई नई बात सामने आई है? बेगार और बरदाइश लेने का अधिकार हमसे तो छीन लिया लेकिन अपने अफसरों के लिए उसे कानून सम्मत मानने में कोई हिचक नहीं। गनीमत है अभी हक-दस्तूरी की ओर इस सरकार की नजर नहीं गई।
''बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी, ठाकुर साहब। थोकदारी के पर कुतरने का तो पुख्ता इंतजाम हो चुका। सारे मामले तो अब पटवारी और तहसीलदार जैसे सरकारी मुलाजिमों को देखने हैं। ऊपर से जमीन के बंदोबस्त की जो कवायद चल रही है उससे तो थोकदारी के हाशिए पर चले जाने का पूरा खतरा है। हिस्सेदार-तो-हिस्सेदार खैकरों और यहां तक सिरतावों को भी अब जमीन छिन जाने का भय नहीं रहेगा। रहे पायकाश्त तो उनकी संख्या ही कितनी है। डर के बिना तो लोग हक-दस्तूरी भी देने से रहे। लगान भी अब आगे से नकद जमा करने की बात सुनने में आई है। यह सुनकर ठाकुर साहब का चेहरा तो पीला पड़ा ही मुंह भी खुला-का-खुला रह गया। किसी तरह खांसी रोक कर बोले-''खटका तो मुझे भी था पंडित जी। आपने और भी आंखें खोल दीं। इन फिरंगियों के नियम-कानून कुछ समझ में नहीं आते। लगता है हम लोगों के दिन लद गए हैं। अंधेरा-ही-अंधेरा नजर आता है। दुख तो इस बात का है कि यह सब मेरी ही पीढ़ी के साथ होना था। बेटा ऐसा कि भविष्य की कोई चिंता नहीं। हर बात को मजाक में लेता है। सुनता हूं कि अब मनमानी पर भी उतर आया है। सात-सात खून माफ होने की बात उछालकर लोगों को धमकाने से भी बाज नहीं आता। ना-समझी तो मैंने भी की थी और उसका परिणाम भी भोग रहा हूं। पिफर भी जहां तक खानदान के हित का सवाल है, मैंने कभी अनदेखी नहीं की। लेकिन थोबू है कि इस ओर से बिल्कुल बेखबर। पिफरंगी सरकार के तौर-तरीकों से तालमेल नहीं बैठा तो अगली पीढि़यां भीखमंगों की जमात में शामिल होने से नहीं बचेंगी। सोचता हूं तो कलेजा मुंह को आता है।
तन और मन की दुहरी चिंता में घुलते थोकदार जी को सान्त्वना देने की गरज से पंडित जी बोले-''हरि इच्छा मानकर चिंता करना छोडि़ए ठाकुर साहब। उम्र की बढ़ती के साथ बेटा भी सब सीख जाएगा। जमाने के थपेडे़ उसे सही राह पर ले आएंगे। आप सोच-सोचकर क्यों जी हलकान करते हैं। मन को शांत रखिए और सबकुछ उफपर वाले पर छोड़ दीजिए वरना हालत और गंभीर हो सकती है।
''हां! और चारा भी क्या है पंडित जी, र्इश्वर की जो इच्छा।
''अच्छा तो मैं चलूं। कल से ही जाप शुरू कर देता हूं। यह कहकर पंडित जी कमरे से बाहर हो गए। भीतर बुथाड़ सिंह पिफर से खांसने लगे थे। खांसी के साथ-साथ कराहने का स्वर थोकदन⁶ के कानों में पड़ा तो वह नीचे चली आर्इ। कमरे में प्रवेश करते ही पूछ बैठी-''आपने दवा ली कि नहीं? थोकदार जी थूकदान में कपफ के साथ पहली बार खून के कतरे देखकर परेशान थे। उदास नजरों से थोकदन के चेहरे पर देखते हुए बुझे-बुझे स्वर में बोले-''जी कर ही क्या करूंगा जो दवा लूं।
''शुभ-शुभ बोलो जी! आप ही हिम्मत हार बैठे तो हमारा क्या होगा। थोकदन ने कहा।
''मन रखने को कुछ भी कहती रहो ठकुराइन लेकिन यहां मेरी चिंता ही किसको है। कारबारी हों या सिरताव-खैकर, नाते-रिश्तेदार हों या अपनी औलाद, सब-के-सब तो दूरी बरत रहे हैं। पास पफटकने में तो सबकी नानी मरती है। तुम तो अर्धंगिनी हो मेरी, सात पफेरे लिए हैं तुमने लेकिन जब से यह रोग लगा, पास आने में कतराती हो। बतियाने तक में कंजूसी बरतने लगी हो। ऐसे बच निकलती हो जैसे मैं आदमी न हुआ अजगर हो गया जो साबुत निगल जाउफंगा।
''हाय राम! यह सोच भी कैसे लिया आपने? कौन अभागिन होगी जो अपने सुहाग के बारे में ऐसा सोचे? कहते हैं इस रोग में दूरी बरतना ही सबके हित में है। यही सोचकर मैं अपने मन पर काबू रखने का प्रयास करती हूं। नहीं तो साथ निभाने की इच्छा किसकी नहीं होती।
घरवाली के मुंह से आत्म-नियंत्राण और संयम बरतने की बात सुनकर बुथाड़ सिंह के मुंह से बोल नहीं पफूटे। एकटक पत्नी के सुघड़ चेहरे पर देखते रहे। जवानी के दिन याद आने लगे तो बोले-''थोबू की मां! सोचता हूं देर-सवेर तो मरना ही है पिफर क्यों न जीवन का भरपूर आनंद उठाकर मरें। दूर क्यों खड़ी हो? पास आकर बैठो न। और वे पत्नी की ओर सरकने लगे। पत्नी ने बरजा-''छोड़ो भी। दादा-दादी की उम्र होने को आर्इ, उफपर से ऐसी बीमारी, कुछ तो खयाल करो।
लेकिन थोकदार जी अब कहां मानने वाले थे। झटके-से खड़े हुए और हिंसक पशु की तरह थोकदन की ओर लपके। आंखों में वासना के लाल डोरों की झलक देखकर थोकदन तेजी से बाहर निकल गर्इ। वह तो हाथ क्या चढ़ती, कमजोरी के कारण बुथाड़ सिंह की टांगे लड़खड़ार्इ और माथा दरवाजे से जा टकराया। आंखों के आगे चिनगारियां उड़ने लगीं और पिफर अंध्ेरा छा गया। लेकिन दिमाग की सुर्इ बीते दिनों के भूले-बिसरे परिदृश्यों पर जाकर अटक गर्इ। याद आया कि वे भी क्या दिन थे जब उनकी इच्छा ठुकराने का साहस किसी में नहीं था और आज अपनी ही घरवाली … । थोकदारी का आहत अहंकार जाग उठा और वे गुस्से में पास के उस अंध्ेरे कक्ष में घुस पड़े जहां बहुत दिनों से बेकार पड़ा घेड़ गिंडुक दीवार के सहारे खड़ा था।
आंखें मिचमिचाकर दीवार की ओर देखा तो घेड़ गिंडुक नजर आया। भारी-भरकम अजगरी आकार और सुरसा जैसा भयानक मुंह। यातना का वह राक्षसी औजार देखते ही ठाकुर को उफपर से नीचे तक झुरझुरी दौड़ गर्इ। कान भी बजने लगे। लगा कि जैसे घेड़ गिंडुक के भीतर कैद कोर्इ अभागा असहनीय यातना के मारे अपने भाग्य पर रो रहा हो। ठाकुर को घेड़ गिंडुक के मुंह से किसी आदमी का सिर बाहर लटकता नजर आया। बेतरतीब दाड़ी-मूछों वाला वह अजीब-सा चेहरा कभी सामने आया हो, ऐसा नहीं लगा। ठाकुर बुथाड़ सिंह यह नजारा देखकर किसी दूसरी ही दुनिया में खोते चले गए। देखते क्या हैं कि घेड़ गिंडुक से उछलकर वह दढि़यल सामने आकर मुंह चिढ़ा रहा है। उसने पहला व्यंग्य बाण छोड़ा-''अपमान पी जाना और गुस्सा थूक देना नागवंशी नागों ने कब से सीखा? कोर्इ प्रतिक्रिया होती न देखकर उसने पिफर कहा-''पुरखों के प्रताप का जाप झेल नहीं पाए क्या, जो आवाज तक नहीं निकलती। घबराहट में किसी तरह थूक निगलकर ठाकुर बुथाड़ सिंह बोले-''तुम हो कौन जो इस तरह बोल रहे हो?
''मैं … मैं तुम्हारे वंश का वह इतिहास हूं जो दगा-पफरेब, जालसाजी और लाठी के बल पर लिखा गया है। धूर्तता की जिस बुनियाद पर तुम्हारी थोकदारी टिकी है उसका पहला शिकार मैं हूं। सुनना चाहते हो? तो सुनो- बात उस समय की है जब खोहद्वार का यह इलाका मैदानी लुटेरों की शिकारगाह बना हुआ था। दरबार तक खबर पहुंची तो तुम्हारे दादा को इस आशय से भेजा गया कि वे लुटेरों को मार भगाएं। वे आठ-दस सैनिक लेकर यहां पहुंचे। पहली ही मुठभेड़ में दो सैनिक लुटेरों के हाथों मारे गए। एक बघेरे का शिकार हो गया। दूसरी मुठभेड़ में लुटेरों ने घात लगाकर दो और सैनिकों का काम तमाम कर डाला। उफपर से तुम्हारे परदादा और शेष तीन सैनिक मच्छरों के मारे जूड़ी-ताप के शिकार हो गए। निराश होकर वे किसी बस्ती की खोज में थे कि एक ओर अध्मरा सैनिक अजगर के पेट में समा गया। तुम्हारे पड़दादा और उनके दो साथी यहीं गध्ेरे⁷ के किनारे एक पत्थर की आड़ में अपनी मौत की बाट जोह रहे थे। मैंने उन्हें मरणासन्न अवस्था में देखा तो मुझसे रहा नहीं गया। मैं उन्हें अपने दो भाइयों की मदद से घर ले आया। हमारी सेवा-सुश्रुषा से वे कुछ ही दिनों में स्वस्थ हो गए। हां, तुम्हारे पड़दादा ध्ुन के तो सचमुच पक्के थे उन्होंने मुझे और गांव के दूसरे जवानों को भी अपनी मुहिम में शामिल कर लिया। एक मुठभेड़ में तुम्हारे पड़दादा के प्राण संकट में थे लेकिन मौके पर मेरी सूझबूझ ने पासा पलट दिया। खूंखार लुटेरा सरदार मारा गया। बाकी लुटेरे भाग खड़े हुए। इलाके को उनके आतंक से मुकित मिल गर्इ। लेकिन हमारे सरसब्ज गांव को देखकर तुम्हारे पड़दादा की आंखों में जो चमक पैदा हुर्इ उसका मतलब बाद में ही मालूम हो पाया।
हमारे पुरखों ने गांव की यह जमीन जंगल से छीनी थी। उसकी उर्वरता देखकर वे स्थायी बस्ती बसाने को प्रेरित हुए थे। गध्ेरे से गूल इस तरह निकाली गर्इ कि गांव की एक इंच भूमि भी असिंचित नहीं रह पार्इ। पूरा-का-पूरा गांव एक सेरे⁸ के रूप में उभर आया। गांव के नीचे भाबर का विशाल वन और सिर पर बांज-बुरांसों का शीतल जंगल। यह सब देखभाल कर तुम्हारे पड़दादा अपने दो साथियों के साथ राज-दरबार में अपनी कामयाबी की वाहवाही लूटने विदा हो गए। बात आर्इ-गर्इ हो गर्इ। लेकिन एक दिन वे घोड़े पर सवार हो थोकदारी का पटटा लेकर आ ध्मके। उनके साथ राज्य के दो सैनिक और एक पंडित जी भी थे। आते ही सबसे पहले मेरी पुकार हुर्इ। और जिस अकड़ के साथ मेरा चार नाली⁹ का खेत कोठे के लिए मांगा गया, सुनकर मैं तो हक्का-बक्का रह गया। कुछ कह नहीं पाया तो पंडित जी बोले-''देखो भार्इ! जमीन की तो कोर्इ कमी यहां है नहीं लेकिन वास्तुशास्त्रा के अनुसार तुम्हारा यह खेत कोठे के लिए सबसे शुभ ठहरता है। मैंने मिटटी का परीक्षण करके भी देख लिया है। देखो यह तो नागवंशी ठाकुर की भलमनसाहत है जो तुमसे जमीन का एक टुकड़ा मांगने की नम्रता बरत रहे हैं। मैं पिफर भी कुछ नहीं बोला तो नए-नए थोकदार जी ने पफरमाया- 'मैं तुम्हारा अहसान नहीं भूला हूं भार्इ। लेकिन पंडित जी का कहना है कि यही खेत कोठे के लिए सबसे उत्तम है तो क्या करें। इसके बदले तुम यहां चाहे जितनी जमीन ले लो मुझे कोर्इ आपत्ति नहीं।
इस पर मैंने कहा- 'इस खेत की उपज की भरपार्इ तो दूसरी जमीन शायद ही कर पाए। पिफर यहां आपकी कौन-सी जमीन है जो बदले में आप मुझे देने का सौजन्य बरत रहे हैं। उत्तर नहीं बन पाया तो पंडित जी यजमान की मदद को आगे आए। वे प्रश्न-पर-प्रश्न उछालते गए और खुद ही उत्तर भी देते गए। बोले-'यह ध्रती, यह दुनिया किसने बनार्इ? ईश्वर ने। तो पिफर यह दुनिया किसकी जागीर है? ईश्वर की। और ईश्वर ने इसकी देख-रेख का काम किसको सौंपा है? राजा को। और राजा ने किन लोगों में अपना दायित्व बांटा है? थोकदार-जमींदारों में। तो पिफर इलाके भर की जमीन किसकी हुई? थोकदार जी की। ध्र्मशास्त्रा तो यही कहते हैं भाई! वैसे तुम जानो। और मैं अनपढ़-गंवार भला क्या कहता। धर्मशास्त्र ने तो मेरी बोलती ही बंद कर दी थी।
दूसरे ही दिन मेरे उस खेत में कोठे के लिए नींव खुदने लगी। इलाके भर के सारे जवान मर्द-औरतों को प्रभु सेवा में जोत दिया गया। कुछ लोग चिनार्इ के पत्थर निकालने लगे। कुछ छवार्इ के पठाल¹⁰ तो कुछ लोग जंगल में इमारती लकड़ी तैयार करने में जुट गए। एक विशाल पेड़ के तने को घेड़ गिंडुक का आकार लेते भी हमने पहली बार देखा। इलाके भर के नामी ओड¹¹ भी धर लिए गए थे। थोकदार जी के कोठे की चिनार्इ साधरण बेजड़¹² से तो होनी नहीं थी सो इलाके भर से उड़द की ढेरों दाल इकटठा की गई। यहां तक कि शादी के लिए जमा उड़द भी छीन ली गर्इ। गांव की औरतों को उड़द की पीठी बनाने में जोत दिया गया। और इस तरह तुम्हारे पुश्तैनी कोठे ने आकार ग्रहण करना शुरू किया। पूरा होने पर परिवार भी आकर घेड़ गिंडुक के साथ यहां रहने लगा। लेकिन थोकदार जी परिवार के प्रति निष्ठावान होने के कायल कभी नहीं रहे। अपनी अमलदारी के चार अन्य गांवों में भी रखैलों के लिए प्रभु सेवा में घर बने। इन घरों में थोकदार जी का आना-जाना बारी-बारी लगा रहता। रखैलों में से किसी को उठा लाए थे तो कोर्इ उनके रौबदाब के मारे खुद ही गले पड़ गर्इ थी। खैर यहां तक तो गनीमत थी लेकिन जब एक बादिन¹ को कोठे में ही अपनी हवस का शिकार बना बैठे तो मुझसे नहीं रहा गया। बेचारा मंगतू बादी¹⁵ मेरे पास आया था। उसने बताया कि वह कुछ पाने की गरज से थोकदार जी की सेवा में हाजिर हुआ था लेकिन अपनी बादिन से ही हाथ धे बैठा है। थोकदार जी ने बलात उसे कोठे में बंद कर दिया है। विरोध् किया तो घेड़ गिंडुक की यातना भोगने से किसी तरह बचकर निकल आया है। मैंने उसे अपने साथ चलने को कहा लेकिन वह थोकदार जी के सामने जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। मैं अकेले ही थोकदार जी के पास जा ध्मका। पहुंचते ही पूछ बैठा-'ठाकुर साहब बादिन को आपने कहां छिपा रखा है? इस पर तुम्हारे पड़दादा ने जलती आंखों से मेरी ओर ताका और बोेले- 'खसिया की औलाद, तेरी इतनी हिम्मत! मंगतू बादी क्या तेरा रिश्तेदार लगता है? समझा, तू समझता है कि कभी एक लुटेरे के प्रहार से बचाकर तूने मुझ पर एहसान किया था, इसलिए जो चाहे मेरे मुंह पर कह सकता है। लेकिन एहसान किस बात का? राज-दरबार ने मुझे जो काम सौंपा था, प्रजा के नाते उसमें हाथ बंटाना क्या तुम्हारा पफर्ज नहीं था? आज तक मैं तुम्हारी हर गुस्तखी मापफ करता रहा लेकिन अब और नहीं। जानता है ये बेड़े-मेढ़े बड़े टेढ़े होते हैं। दबाकर न रखो तो सिर पर ता-थैया करने लगते हैं। इन कंगाल भिखमंगों की झोली में बिरमा जैसी नारी-रतन की बेकæी नहीं देखी जाती। मैं तो उसे दरबार तक पहुंचाना चाहता हूं, समझे!
इस पर मैं बोल उठा-'ठाकुर आप और यह ध्ंध! सुनना था कि उनकी आंखों में खून उतर आया। वे मुझे छज्जे से नीचे पफैंकने ही वाले थे कि 'जैजिया¹⁴ चंडी का रुप धरण कर बिरमा की बांह पकड़े नीचे उतर आर्इ। थोकदार जी सकपकाकर रह गए। देखते-ही-देखते बिरमा को लेकर ठाकुर और ठकुराइन में तू-तू मैं-मैं होने लगी। ठाकुर ने लताड़ा, बोेले-'बेहयार्इ की हद हो गर्इ। कल तक तो छज्जे से नीचे कदम नहीं रखे और आज एक पराए मर्द के सामने उघाड़े मुंह चली आर्इ। उफपर से जबान लड़ाती हो और वह भी एक कमजात बादिन जैसी नचनी के लिए। भला चाहती हो तो चुपचाप उफपर चली जाओ। मेरे काम में दखल देने की हिमाकत न करो तो अच्छा है, सरेआम कुल की इज्जत उछाल रही हो तुम।
''कुल की इज्जत! उँह, वह तो कब की नीलाम कर चुके नागवंशी ठाकुर। मैं आज तक सब सहती रही। रखैलों से तुम्हारे संबंध् तो जगजाहिर हैं ही, यहां गांव में भी कौन-सी ऐसी बहू-बेटी है जिसकी इज्जत से खिलवाड़ करने का प्रयास तुमने न किया हो। लाज-शरम के मारे कोर्इ कुछ नहीं बोले, तो तुम शेर बन गए। मैं कोर्इ रखैल नहीं ब्याहता पत्नी हूं तुम्हारी। अपने इस कोठे को मैं बार्इ का कोठा नहीं बनने दूंगी। इस बेचारी में तो मुझे अपनी बेटी नजर आती है और तुमने इसी से अपना मुंह काला किया।
इस पर थोकदार जी कुछ हतप्रभ होकर बोले- ''तुम हद पार कर रही हो ठकुराइन। नागवंशी ठाकुर ऐसा अपमान सहने के आदी नहीं। तुम सरासर इल्जाम थोप रही हो। आखिर मैं पति हूं तुम्हारा। इसने कहा और तुमने मान लिया। अरे, इनका तो यह पेशा ही है। यही तो एक हथियार है इनका जिससे ये अपना मतलब निकालने की कला बखूबी जानते हैं। मैंने तो इसकी कंगाली पर तरस खाकर राज-दरबार पहुंचाने की सोची थी। लेकिन कोर्इ किसी का भाग्य थोड़े ही बदल सकता है।
इस पर ठकुराइन बोल उठी- ''तो नागवंशी ठाकुर बहू-बेटियों का भाग्य भी बदलने लगे! सोचते होंगे दरबार को खुश करके और बड़ा इलाका हथिया लेंगे। हे भगवान! कैसे आदमी से पाला पड़ा। मैं यह सब देखने से पहले मर क्यों नहीं गर्इ। और ठकुराइन ने माथा पीट लिया। ठाकुर और ठकुराइन की इस कहा-सुनी के बीच मंगतू बादी आया और बिरमा का हाथ पकड़कर जाने लगा। ठाकुर ने हाथ आया शिकार जाते देखा तो बौखलाकर चीख उठा- ''बेड़े की औलाद ठहर। बिरमा अब तेरी घरवाली नहीं, दरबार को समर्पित इस इलाके की एक तुच्छ भेंट है। रोकने के लिए आगे बढ़ने का प्रयास किया तो ठकुराइन आड़े आ गर्इ। ठाकुर का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया। बोेले-''ठकुराइन बहुत हो गया। हट जा मेरे आगे से वरना अच्छा नहीं होगा। ठकुराइन बोल उठी- ''क्या कर लोगे? बोलो! मैं भी कोर्इ ऐसी-वैसी नहीं जो घुड़की में आ जाउफँ। कत्यूरी खानदान की बेटी हूं मैं भी। मर जाउफंगी पर अपनी आँखों के आगे ऐसा अन्याय नहीं होने दूंगी।
और ठाकुर किंकत्र्तव्यविमूढ़ होकर रह गए। खिसियाकर मेरी ओर मुखातिब हुए और बोले- ''देखा तुमने, ठकुराइन पागल हो गर्इ है। कोर्इ पति का ऐसा विरोध् करता है भला। मैंने कहा-''जैजिया गलत नहीं है ठाकुर, जरा सोचकर तो देखें। इस पर ठाकुर ने त्यौरी चढ़ाकर मेरी ओर ताका और पिफर सीढि़यों से उफपर चढ़ती थोकदन को इस तरह घूरा जैसे निगल ही जाएंगे। मंगतू और बिरमा नजरों से ओझल हो चुके थे। अपने इरादों पर इस तरह पानी पिफरता देख ठाकुर तब तो हाथ मलते रह गए लेकिन उस अपमान को भूल नहीं पाए। मंगतू और बिरमा को खोज निकालने का प्रयास भी असपफल रहा। वे तो इलाका ही छोड़कर कहीं दूर जा छिपे थे। जल्दी ही ठाकुर के भीतर बैठी बदले की कुत्सा ने अपना खेल खेलना आरंभ कर दिया। पहली शिकार तो ठकुराइन ही हुर्इ। एक सुबह पता चला कि वे चल बसी हैं। मुझे उनके पफूल सिराने हरिद्वार जाने का आदेश हुआ। आदेश के पीछे ठाकुर के इरादे को भांपना मेरे बस में नहीं था। मैं हरिद्वार के लिए कुछ ही दूर निकल पाया था कि अचानक दो नकाबपोशों ने जंगल के एक मोड़ पर मुझे घेर लिया। एक ने पीछे से वार किया और ताबड़तोड़ इतने प्रहार हुए कि मैं बेहोश होकर गिर पड़ा। होश आया तो खुद को इस घेड़ गिंडुक के भीतर जकड़ा पाया। तुम्हारे पड़दादा सामने खड़े थे। भेदभरी मुस्कान के साथ बोले- ''क्यों रे, जैजिया तो गलत नहीं थी, पिफर भी दुनिया छोड़ गर्इ? हां, उफपरवाले को भी अच्छे लोगों की जरूरत होती है तो कोर्इ क्या करे। और उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही वे बाहर निकल गए। मैं अध्मरा इस घेड़ गिंडुक के भीतर कब तक जिंदा रहा, यह तो मुझे मालूम नहीं किंतु मेरी भटकती आत्मा ने ठाकुर की भूखी वासना का नंगा नाच बखूबी देखा है। ठकुराइन की मौत का भेद भी कोठे की दीवारों से बाहर नहीं जा सका। उनके न रहने पर बेलगाम ठाकुर आखिर राजरोग का शिकार हुआ और सौगात स्वरूप अपनी अगली पीढि़यों को भी सौंप गया। मेरी हत्या का रहस्य भी लोगों पर नहीं खुला। लोग तो यही जानते-मानते हैं कि हरिद्वार आते-जाते मैं किसी जंगली जानवर का शिकार बन गया। सुना है कि ठाकुर ने अपने कारिंदों से तब मेरी खोजबीन का नाटक भी करवाया था। इतना कहकर वह आÑति देखते-ही-देखते न जाने कहां तिरोहित हो गर्इ। उसकी जगह एक दूसरी ही आÑति उभर आर्इ। अपनी ओर इशारा करके वह आÑति बोल उठी- ''देख रहे हो ठाकुर, यह मेरा नीला पड़ा शरीर। यह तो कुछ भी नहीं, मेरी आत्मा में जो जहर घोला गया उसके असर का तो कोर्इ हिसाब ही नहीं। बात तब की है जब गोरखा-आंध्ी के आगे 'बोलंदा-बदरीश¹⁶ की सत्ता टिक नहीं पार्इ। हमारे कुछ खानदानी शेरों ने अनाचारियों के आगे घुटने ही नहीं टेके बलिक उनकी आड़ में अपनी कुतिसत इच्छाएं भी पूरी करने लगे। जाने कौन-सी अशुभ घड़ी थी जब अचानक पधन¹⁷ जी की तिबारी¹⁸ से मेरी बुलाहट हुर्इ। पधन जी के आंगन के एक ओर नारंगी के पेड़ पर थोकदार जी का घोड़ा बंध देखकर मैं न जाने कैसी-कैसी आशंकाओं में डूबने-उतराने लगा। तिबारी में पहुंचा तो वहां मौजूद लोगों के चेहरों पर मुर्दनी छार्इ देख मेरा रहा-सहा ध्ैर्य भी चूक गया। थोकदार जी मूछों पर ताव देकर मेरी ओर ताक रहे थे। उनके इशारे पर पधन जी बोले- ''चैतू भार्इ! थोकदार जी हम लोगाेंं की कितनी चिंता करते हैं आज पता चला। इतनी दूर से दौड़े चले आए कि हम लोग किसी मुसीबत में न पफंस जाएं। थोकदार जी को पता चला है कि गोरखा नायक तुम्हारी बेटी की पिफराक में हैं। अगर हम लोगों ने विरोध् किया तो पता नहीं क्या हो। हो सकता है गोरखे गांव के सभी जवान लड़के-लड़कियों को बतौर दास-दासियों के बेच देने की सोचें। इस टेढ़ी समस्या से निजात पाने की जो तरकीब थोकदार जी ने सोची है, मुझे तो उसी में गांव का भला नजर आता है। वैसे तुम जानो।
मुझे काटो तो खून नहीं। कुछ कहना ही नहीं आया। थोकदार जी ने खांसकर चुप्पी तोड़ी, बोले- ''गोरखे तो पिफलहाल कहीं दून की ओर गए हैं। सुना है वहां पिफरंगियों से खतरा पैदा हो गया है। कहीं लौट आए तो क्या होगा, यही सोचकर परेशान हूं। हमारी बहू-बेटियों की इज्जत पर कोर्इ बाहर वाला हाथ डाले, यह तो हमारे लिए चुल्लू भर पानी में डूब मरने की बात होगी। सोचता हूं कि लड़की को मैं स्वयं अपने सरंक्षण में ले लूं। ऐसा होने पर गोरखे सौ बार सोचने को मजबूर होंगे। वे जानते हैं कि अगर हम जैसों ने उनका साथ नहीं दिया तो वे यहां टिक नहीं पाएंगे। सवाल एक घर की इज्जत का नहीं, पूरे गांव और इलाके की इज्जत का है। मेरी अमलदारी में ऐसा कुछ हो भला मैं यह कैसे सहन कर सकता हूं। मैं आज ही लड़की को अपने साथ ले जाने आया हूं।
थोकदार जी के मन की गहरार्इ में उतरकर झांका तो खून के आंसू पीकर रह गया। हाथों के तोते उड़ गए। दिल बैठ गया। रूंध्े गले से बस इतना भर बोल पाया- ''लेकिन अगले महीने तो उसके हाथ पीले करने हैं?
''तो क्या हुआ? मामला ठंडा पड़ने पर यह भी हो जाएगा। थोकदार जी स्वयं कन्यादान कर देंगे। चिंता किस बात की? पधन जी बोल उठे।
सभी की राय वही थी मैं क्या करता। एक उमरदार रोगी के साथ बेटी को जाते देखकर मेरी छाती दरककर रह गर्इ। उसकी मां तो रो-रोकर अपनी आंखें ही पफोड़ने पर तुल गर्इ थी। लेकिन हमारे पास चारा भी क्या था। छाती पर पत्थर न रखते तो क्या करते। समधियाने खबर पहुंचा दी कि लड़की पिफलहाल अपने ननिहाल गर्इ है। लेकिन कहीं उन्हें पता चल गया तो? इसी आशंका के मारे मैं एक दिन थोकदार जी के कोठे पर जा पहुंचा। सोचा था कि अगर लड़की को सकुशल वापिस ला सका तो इज्जत मिटटी होने से बच जाएगी। थोकदार जी बड़े प्यार से मिले। खुद ही बोले- ''गोरखों का खतरा तो टल गया। पिफरंगी उन्हें ध्ूल चटाकर आगे बढ़ रहे हैं लेकिन आपसे विनती है कि लड़की को वापस ले जाने की बात न करेंं। यहां ठकुराइन की तबीयत ठीक नहीं रहती। परिचर्या के लिए उन्हें एक जवान हाथ की जरूरत है। और आपकी बेटी इस काम को बखूबी निभा रही है। अगर वह यहीं रहे तो कैसा रहे?
''लेकिन उसकी तो शादी तय है। मैंने कहा।
''तो क्या हुआ? समझ लो कि उसके भाग्य में यही घर लिखा था। थोकदार जी बोले।
''यह क्या कह रहे हैं, ठाकुर। मेरी तो बिरादरी में नाक कट जाएगी। लोग थू-थू करेंगे। कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रह पाउफंगा मैं। पिफर अपनी उमर तो देखो ठाकुर?
''अरे! अभी तो साठ पर भी नहीं पहुंचा। और मर्द तो साठे पर पाठा होता है। हमसे संबंध् जुड़ना क्या तुम्हें पसंद नहीं?
''नहीं! बिल्कुल नहीं! मैंने चीखकर कह तो दिया मगर विश्वास के पांव डगमगा रहे थे। ठाकुर ने एक व्यंग्य भरी मुस्कान मेरी ओर पफेंकी पिफर अपने कारिंदों को सुनाते हुए बोला- ''लगता है इनकी समझदारी का दायरा बहुत तंग है। कुछ ऐसा करो कि बात इनकी समझ में आ जाए। इतना कहकर थोकदार जी एक ओर हट गए। पिफर क्या था, उनके दो लठैत यमदूतों की तरह मुझे घेर बैठे। एक बोला- ''क्यों रे! बछिया के ताउफ! थोकदार जी बेटी का हाथ मांग रहे हैं और तू इनकार कर रहा है। दूसरे ने कहा- ''बौड़म है या पूरा पागल! इतने उफंचे खानदान से रिश्ता जुड़ा और तू है कि तोड़ने की बात कर रहा है।
''कहां का रिश्ता और कैसा रिश्ता? गुस्से में मैं चीखा।
''अरे! तू दुनिया को बेवकूपफ समझता है क्या? तब जवान बेटी को चुपचाप थोकदार जी के साथ क्या सोचकर भेजा था? रिश्ता तो उसी दिन तय हो गया था। बेटी क्या कुंवारी बैठी है अभी तक। वह तो कब की छोटी ठकुराइन बन चुकी। शेर की मांद में घुसकर उसके मुंह से शिकार छीन लेगा क्या? पहले ने ध्मकी भरा सवाल किया तो दूसरे ने जोड़ा- ''पिददी न पिददी का शोरबा! छोटी मालकिन को कहीं और ब्याहेगा? अकल के अंध्े! तूझे तो खुश होना चाहिए कि तेरी बेटी राज कर रही है। यह सब सुनने पर भी जब मैंने अपनी जिदद नहीं छोड़ी तो वे दोनों मुझे यहां ले आए। मार बांध्कर जबरन घेड़ गिंडुक में ठूंस दिया गया। बहुत दिनों से खाली पड़ा घेड़ गिंडुक चूहों का घर बन चुका था। नागराज को भनक लगी तो दावत उड़ाने उसके भीतर घुस आए थे। ठुंसा-ठांसी में मेरे पैरों का दबाव नागराज के गले पर पड़ा तो उसमें पफंसा चूहा बाहर निकल भागा और नागराज ने पलटकर मुझे ही काट खाया। पांव से सिर तक दर्द की ऐसी लहर उठी कि मैं घेड़ गिंडुक से न जाने कैसे बाहर छिटक पड़ा। नागराज भी पफन उठाए बाहर रेंग आए। दोनों लठैत चिल्लाए- ''सांप! सांप! मुझे नीला पड़ता देख उनके चेहरों पर हवाइयां उड़ने लगीं। उनकी घबराहट भरी चिल्लाहट से कोठे में कुहराम मच गया। थोकदार जी खांसते, गिरते-पड़ते आए। नागराज अभी तक पफन पफैलाए घूरता नजर आया। मेरी आंखें मुंद रही थीं। उनमें मौत की छाया देखकर थोकदार जी सिथति भांप गए। मुझे घेड़ गिंडुक के पास से खींचकर सीढि़यों पर लिटा दिया गया। वे शायद मेरा हठ छुड़ाना चाहते थे, जान लेने का उनका इरादा नहीं था। और इसीलिए मेरे साथ जो कुछ घटा उसे एक दुर्घटना का रूप दे दिया गया। ठकुराइन के साथ बेटी आर्इ। बाप की दशा देखकर चीख मारकर गिर पड़ी। ठकुराइन ने उसे बड़ी मुशिकल से संभाला। कुछ और लोग भी जमा हो गए। भीड़ की बढ़ती नागराज को रास नहीं आर्इ और वह पफुपफकार छोड़ते हुए नीचे झाडि़यों में गायब हो गया। थोकदार जी ने जहर उतारने वाले तांत्रिक को तुरंत लाने का आदेश अपने लठैत को दिया तो सही लेकिन उसके रवाना होने से पहले ही मेरे प्राण-पखेरू उड़ चुके थे। मेरे साथ जो कुछ बीती, वह आज तक किसी को पता नहीं है। हां, यह घेड़ गिंडुक ही उसका एकमात्रा साक्षी है।
उस आÑति के गायब होते ही एक और चेहरा सामने आ गया। बोला- ''ठाकुर, पहचाना? बचपन के दिन याद करो। तब तुम यही दस-ग्यारह साल के रहे होगे। तुम्हारे पिता को अल्मोड़ा पिफरंगी के पास जाना था। पिफरंगी सरकार का आदेश था कि सारे कमीण-थोकदार और अहलकार अपनी अमलदारी का सबूत लेकर अल्मोड़ा पहुंचे। उतनी दूर पैदल पांव नापने का तो सवाल ही नहीं था। डांडी¹⁹ बोकने के लिए आठ-दस तगड़े जवान छांटे गए और दुर्भाग्य उनमें मेरा अपना वह बेटा भी था जिसका विवाह उसी बीच होना तय था। मैंने थोकदार जी से विनती की लेकिन वे कब मानने वाले थे। बोले- 'तो क्या हुआ? तुम खसियों में तो वर की अनुपसिथति में भी विवाह संपन्न हो जाता है। दुल्हन से केले के सात पफेरे लिवा लिए और मुहर लग गर्इ। हम बाप-बेटे इसके लिए तैयार नहीं थे। बेटा कहीं दूर की रिश्तेदारी में चला गया। उसके भाग जाने की खबर थोकदार जी के कानों में पड़ी तो उनके लठैत मुझे ही पकड़ ले गए। लड़के को वापस बुलाने के लिए मुझ पर दबाव डाला गया। मैंने हाथ जोड़े, पैरों पड़ा और जोर देकर कहा कि वह बिना बताए ही कहीं चला गया है लेकिन थोकदारी हठ के आगे मेरी क्या चलती। मालिक थे, ठान ली तो ठान ली। जमीन छीन लेने और गांव से बेदखल कर देने की ध्मकी ही नहीं दी गर्इ बलिक मार-बांध्कर मुझे इस घेड़ गिंडुक के हवाले कर दिया गया। मेरी दुर्दशा का पता जब बेटे का लगा तो वह लौट आया। मैं तो घेड़ गिंडुक में पड़ा-पड़ा मौत की घडि़यां गिन रहा था। करवट बदलना तो दूर रहा, वहां तो टस-से-मस होना भी दूभर था। हाथ-पैर सीध्े तने हुए, पैरों से गरदन तक पसीने से तरबतर हाजत हुर्इ तो वहीं- विष्टा और मूत से सराबोर नरक की यातना भोग ही रहा था कि अचानक मुझे छोड़ देने का आदेश हो गया। लेकिन उतने दिनों सीध पड़े रहने का यह परिणाम निकला कि कमर से नीचे बिल्कुल बेजान होकर रह गया। टांगों ने काम करना बंद कर दिया और मैं एक अपाहिज की जिंदगी जीने पर मजबूर हो गया। जितने दिन जिंदा रहा रोते-कलपते ही बीते।
आप-बीती सुनाकर वह चेहरा भी न जाने कहां अन्तर्धन हो गया। उसके गायब होते ही एक के बाद एक कर्इ चेहरे सामने आए। उनकी शिकायतें भी लगभग एक जैसी थीं। उन्हें हक-दस्तूरी न चुका पाने या भेंट-पिठार्इ न पहुंचाने के आरोप में कुछ समय के लिए घेड़ गिंडुक का आतिथ्य स्वीकार करना पड़ा था। अंत में एक ऐसा चेहरा प्रकट हुआ जिसकी अंध्ी आंखों से निकलने वाली अदृश्य चिंगारियों को थोकदार जी सहन नहीं कर पाए। उसने कहा- ''ठाकुर मुझे तो मारने के बाद भी तुम शायद ही भुला पाओ। अपनी मान-मर्यादा पर पड़ने वाली चोट क्या होती है, यह अनुभव तो तुम्हें मेरे ही कारण हुआ था। हमारी बहू-बेटियों से मनमाना खेल खेलना तो तुम लोग अपना अधिकार समझते रहे। तुम्हारे लेखे हम खैकर-सिरतान और उफपर से खसिया भला किस बूते तुम्हारी बगिया में सेंध् लगाने का दुस्साहस करते। मेरा कसूर इतना ही तो था कि मैंने तुम्हारी बहन को डूबने से बचाया था। कान के कच्चे तो तुम जनम से ही थे। किसी ने कान भरे कि मैं उस पर बुरी नजर रखता हूं और तुमने सच मान लिया। घेड़ गिंडुक के हवाले कर जिस बेरहमी से मेरी आंखों की रोशनी छीन ली गयी, उसकी मिसाल शायद ही कहीं और मिले। अपनी अंध्ेरी दुनिया में मैंने जो कुछ भोगा, मेरी आत्मा आज तक भुला नहीं पार्इ। यह देखकर भी भीतर की आग शांत होने का नाम नहीं लेती कि मेरी दुनिया में अंध्ेरा करने वाला आज अपने नसीब पर आठ-आठ आंसू रो रहा है। ठाकुर, तुमने और तुम्हारे पुरखों ने जो कुछ किया उसका परिणाम यही तो होना था। बुरे काम का परिणाम बुरा नहीं तो क्या भला होगा?
उसकी अंध्ी आंखों ने ठाकुर का मन कुछ-का-कुछ कर दिया। करतूत याद आर्इ तो सोचने-समझने की सलाहियत भी जाती रही। बाहर-भीतर जैसे अंध्ेरा छा गया और लगा कि अब तक देखे सारे चेहरे उसे घेरकर बदला लेने पर उतर आए हाें। बाहर भागना चाहा तो घेड़ गिंडुक से ऐसी ठोकर लगी कि संभल नहीं पाए। दीमक खाए कमजोर आधर वाला घेड़ गिंडुक ऐसा लुढ़का कि घेड़ गिंडुक ऊपर और ठाकुर नीचे। उफपर से सिर इतनी जोर से दीवार से जा टकराया कि दर्द के मारे बेचारे ठाकुर का हाथ-पैर मारना भी किसी काम नहीं आया।
और ठीक उसी समय बेटे ने आकर उध्र झांका तो दंग रह गया। घेड़ गिंडुक के नीचे दबा ठाकुर एक भारी-भरकम मंेंढक की तरह पिचका हुआ कबका टें बोल चुका था। बेटे ने घेड़ गिंडुक को एक ओर हटाने का प्रयास किया लेकिन अकेले उसके बस की बात भी कहां थी। अपनी ही अमलदारी के एक गांव से वह बहुत गुस्से में लौटा था। दिमाग तो वैसे ही काम नहीं कर रहा था। बाप की सेहत के लिए किसी सिरतान ने बकरे की मांग ठुकरा जो दी थी। गांव के दूसरे लोग भी जब उसी सिरतान का साथ देने लगे तो वह बंदूक लेने आया था उन Ñतघिनयों को सबक सिखाने। लेकिन यहां तो बाप की सर-परस्ती से ही हाथ धे बैठा था। चिल्लाकर मां को आवाज दी। थोकदन आकर रोने-चिल्लाने लगी तो गांव को भी खबर हो गयी। लोग आए तो सही लेकिन छूत लगने के डर से कोर्इ लाश छूने को तैयार नहीं था। यहां तक कि अपने कारिंदे भी सिर झुकाए एक ओर खड़े थे। बेटे ने आव देखा न ताव, भीतर से बंदूक उठा लाया और लोगों की ओर तानकर घोड़ा दबाने ही वाला था कि किसी ने पीछे से आकर बंदूक छीन ली। वह कोर्इ और नहीं पटटी-पटवारी थे जो पड़दादा की किसी रखैल की तीसरी पीढी में से थे और उस नाते चाचा लगते थे। पटवारी जी बोले- ''पागल हो गया क्या थोबू? गोली चलाकर पफांसी चढने का शौक चर्राया है क्या? वे दिन हवा हुए जब हमारा वचन ही कानून था, क्यों कानून अपने हाथ में लेता है? लाश का निरीक्षण करते हुए पिफर बोले- ''लगता है भार्इ साहब मरे नहीं मारे गये हंै। हत्या की गयी है इनकी। पहले सिर पर चोट मारी गर्इ और पिफर घेड़ गिंडुक इनके उफपर गिरा दिया गया। जिसने भी यह अपराध् किया है वह सामने आए अन्यथा सारे गांव को बांध् ले जाउफंगा। यह सुनना था कि सारे लोग सकते में आ गए । सबको जैसे काठ मार गया। बोलती बंद हो गयी। मरघट के उस सन्नाटे को तोड़ते हुए पटवारी ने आंसू बहाती थोकदन से पूछ लिया- ''भाभी, आपने किसी को आते-जाते या भार्इ साहब से बतियाते तो नहीं देखा?
इस पर थोकदन ने बताया कि उसने न तो किसी को आते-जाते देखा और न बतियाते सुना। हां, कुछ ही देर पहले वह खुद दवा पिलाकर जब बाहर निकल रही थी तो थोकदार जी भी उसके पीछे हो लिए थे, वह तो उफपर अपने कक्ष की ओर चली आर्इ थी। छज्जे से नीचे आंगन पर थोकदार जी को इसी कोठरी की ओर बढ़ते देखा था। सोचा शायद यों ही मन बहलाने निकले हैं। उसके बाद क्या हुआ उसे कुछ पता नहीं।
पटवारी ने अब दूसरे कोण से सोचना आरंभ कर दिया। कहीं ऐसा तो नहीं कि अंध्ेरे कमरे में घेड़ गिंडुक से बुरी तरह टकरा जाने के कारण यह कांड घटा हो। लाश के ओर नजदीक जाकर देखा तो दायें पैर के जख्मी अंगूठे ने पटवारी के हत्या वाले शक का निवारण कर दिया। बोले- ''मैं नहीं चाहता कि मरने के बाद भार्इ साहब की मिटटी पलीद हो। मामला तो दुर्घटना का ही अधिक लगता है। किसी का हाथ होने की संभावना नजर नहीं आती। लेकिन आप लोग अभी तक चुपचाप खड़े तमाशा देख रहे हंै। थोकदार जी घेड़ गिंडुक के नीचे मरे पड़े हैं और किसी में कोर्इ हरकत नहीं। अपने सरपरस्त को इस दशा में देखकर भी आप लोग चुप हैं, ताज्जुब है।
इस पर कोर्इ पफुसपफुसाया- ''छूत का रोग जो है …
''छूत लगे या भूत, कंध तो देना ही होगा। अगर कहीं शव परीक्षण के लिए ले जाना पड़ता तो क्या तुम्हारे पुरखे आते? बहुत देर हो चुकी, जल्दी करो।
पटवारी के जोर देने पर लोग हरकत में आए और थोकदार जी का अंतिम संस्कार जैसे-तैसे संपन्न हो गया।
शव-दहन के बाद लोग कोठे पर लौटे ही थे कि रास्ते पर कुछ ढांकरी²⁰ बैठे दिखार्इ दिए। अपने बोझ खेत की मेड़ पर उतारकर वे गीत गाने में मशगूल थे। एक ने टेक उठार्इ-
उठी जा मेरी बौ ¿ ¿ ¿
(हे मेरी भाभी अब तो जाग)
दूसरों ने लंबी तान खींचकर साथ देना आरंभ किया-
गैड़ी च झूमक-डांडि-कांठयों घाम मेरी बौ गदन्यूं रूमक।
(झुमके गढ़े गए ;तुक के लिएद्ध धूप ऊंचे पर्वत-शिखरों पर पहुंच गई,
नदी-घाटियों में अंधेरा झूलने लगा है।)
उठी जा मेरी बौ ¿ ¿ ¿
(हे मेरी भाभी! अब तो जाग)
गैड़ी जाली बीछी- अगि बटी द्वाड़ा दी मैची अब केन खाई गिच्ची।
(पैरों के बिछुवे गढ़े जाएंगे ;तुक के लिए)
पहले तो प्रत्युत्तर दे रही थी, अब तेरे मुंह को क्या खा गया?
उठी जा मेरी बौ ¿ ¿ ¿ ।।
(हे मेरी भाभी! अब तो जाग।)
उनका इस तरह उल्लासपूर्वक गीत गाना बाप की क्रिया में बैठे नए थोकदार को रास नहीं आया। बस क्या था, उठकर बाहर निकल आया। बंदूक अपनी ओर तनी देखकर ढांकरियों की तो सिटटी-पिटटी गुम हो गर्इ। किसी तरह साहस जुटाकर उन्होंने बताया कि वे तो कहीं दूर दूसरे इलाके के हैं लेकिन उनकी एक नहीं चली। कहा गया कि हैं तो वे उसी इलाके में जहां के थोकदार जी का आज ही निध्न हुआ है। ऐसे में गीत गाने का दंड तो उन्हें भोगना ही पड़ेगा। उन्होंने बहुत कहा कि उन्हें पता ही नहीं था लेकिन उनकी सुनता कौन? जबरन उनके बोझ घेड़ गिंडुक वाले कक्ष में रखवा दिए गए और मृतक के नाम उन सबके सिर मुंडवाने का आदेश दे दिया गया। पता नहीं कौन-सी सनक सवार हुर्इ कि कुछ के आध्े सिर तो कुछ की आध्ी मुंछ छोड़ दी गर्इ। यही तमाशा दाढि़यों के साथ भी किया गया। उनमें एक-दो तो ऐसे भी थे जिनके मां-बाप अभी जिंदा थे लेकिन आपत्ति करने पर भी उन्हें नहीं छोड़ा गया। जो भी उन्हें देखता छिप-छिप कर मुस्करा उठता। वे बेचारे करते भी क्या? थोकदार जी की बंदूक और घेड़ गिंडुक का भय जो सामने था। विरोध् करने का साहस वे क्या खाकर जुटा पाते? बेचारे मन मसोसकर रह गए। अब तो तेरहवीं होने पर ही छुटटी मिलनी थी।
सैंकड़ोें लोगों के भोजन के लिए रसद इकटठी करने, पकाने के लिए भांडे-बर्तन और लकडि़यां जमा करने तथा पत्तल-दोने आदि तैयार करने के काम में उन्हें जोत दिया गया। और भी छोटे-मोटे काम उनसे लिए जाते रहे। लेकिन ठीक तेरहवीं के दिन सुबह से ही इतनी भारी बरसात हुर्इ कि सारी लकडि़यां गीली हो गर्इं। भोजन पकना मुशिकल हो गया तो उन्हीं में से एक ने सूखे घेड़ गिंडुक की ओर इशारा किया। थोकदन तो उसे अपने कुल का अभिशाप ही मान बैठी थी। नए थोकदार ने भी अनुभव किया कि नयी व्यवस्था में घेड़ गिंडुक का शायद ही कोर्इ उपयोग है। और इस तरह वह घेड़ गिंडुक थोकदार जी की तेरहवीं में काम आ गया। उसकी चीर-पफाड़ करते हुए एक ढांकरी ने चुपके से कहा- ''चलो अच्छा हुआ, लोगों को सताने का यह औजार भी गया।
दूसरे ने कहा- ''हां, घेड़ गिंडुक की भी तेरहवीं हो गयी। और उपसिथत लोग होठों-ही-होठों में मुस्करा उठे।

..0—0..0...



¹ थोकदारी . पहाड़ की छोटी-मोटी जमींदारी जिसे कमीणचारी भी कहा जाता था।
² कोठे. थोकदार बनाम कमीण या सयाणा का किलेनुमा घर।
³ घेड़ गिंडुक . कटे पेड़ का विशाल तना जिसे भीतर से खोखला कर दिया जाता था ताकि अपराध्ी को उसके भीतर ठूंसकर सजा भोगने के लिए मजबूर किया जाए।
⁴ हक-दस्तूरी .कमीण-सयाना-थोकदार या पधन आदि द्वारा लिया जाने वाला कर।
⁵ जैजिया .जिया- लोकप्रसिदध् कत्यूरी रानी। कुछ कत्यूरी वंशजों में 'जिया शब्द मां का अर्थ भी देने लगा और आज भी कहीं-कहीं सुनने को मिलता है। 
⁶ थोकदन .थोकदार की पत्नी
⁷ गध्ेरे . छोटी-मोटी नदी
⁸ .सेरे.उपजाउफ सिंचित भूमि
⁹ नाली . लगभग दो सेर
¹⁰ पठाल. 
¹¹ ओड . चिनार्इ करने वाले कुशल कारीगर
¹² बेजड .गारे-मिटटी का मिश्रण
¹³ .बादिन या बेडि़न- नाचने गाने वाली जाति की स्त्राी
¹⁴ बादी .नाचने-गाने वाली जाति का पुरुष 'बादी  
¹⁵ जैजिया.थोकदन
¹⁶ बोलंदा-बदरीश .बोलता हुआ अर्थात साकार बदरी नारायण
¹⁷ पधन .पधन मèय पहाड़ी समाज में कुल का मुखिया गांव का मुखिया भी होता था जिसे बि्रटिश सरकार ने भी मान्यता प्रदान कर दी थी।
¹⁸ तिबारी .उफपरी मंजिल का स्तंभों वाला एक ओर को खुला स्थान जो बैठक का काम देता था।

 ¹⁹ डांडी .पीनस या एक तरह की पालकी जिसे दो आदमी कंधें पर ढोते हैं।

²⁰ढांकरी . दूर किसी हाट-बाजार से घर के लिए आवश्यक सामान खरीदकर लाने वाले लोग।




2 comments:

स्वप्नदर्शी said...

कहानी के पीछे जो सूचना है, उस बीते समाज के बारे में, वो महत्तवपूर्ण है. अपेक्षाकृत रूप से पहाडी समाज का सामंती स्वरुप ढीला रहा है, और लोगों को सांस लेने की जगह शायद थोड़ी ज्यादा रही है.

विजय गौड़ said...

Anonymous noreply-comment@blogger.com

6:11 AM (13 hours ago)

to me
Anonymous has left a new comment on your post "घेड़ गिंडुक की तेरहवीं":

Great article and blog and we want more :)