Wednesday, October 19, 2011

खिलंदड़ ठाट




जलती हुई बत्ती के साथ फड़-फड़ाते अंधेरे में दरवाजे, चौखटों और कमरे में भरे पड़े सामानों में किसी जीव के दुबक जाने की सरसराहट परेशान करने वाली होती। किचन के भूतहे अंधेरे में उड़ते हुए तिलचट्टों के प्रहार होते। कितनी ही 'लक्ष्मण रेखाएं", 'फ्लिट" की तीखी गंध से पस्त होते पंखों को समटेने की लिजलिजी कार्रवाई की थकान के बावजूद नींद गायब होती, पर सिर दुख रहा होता।
'फॉल्स सीलिंग" के भीतर किसी भारी भरकम जीव के दौड़ने की धमक भीतर घ्ाुस आये चोरों का अंदेशा पैदा करती। दहशत के मारे जागे हुए परिवार की मौन-सरसराहट में घनी काली रात का अंधेरा बेहद डरावना हो गया था। जाने कौन घ्ाुस आया है भीतर ? सीलिंग के भीतर से बाहर निकल, बस नीचे कूदने-कूदने को है। पांवों की सरसराहट से कांपती सीलिंग की धमक ऐसी कि कमरे की दीवारें तक भड़-भड़ा रही हों मानो।
- खुली हुई खाट की बाँहें कहाँ रखी हैं ?
धर के भीतर घुस चुके चोरों से निपटने का दायित्व मुखिया पर था। मरता क्या नहीं करता। बान की खुली हुई बाँहें तो संभाल कर फॉल्स सीलिंग में ही रखी गयी थी।
"बिना हथियार के कैसे निपटा जाएगा किसी हथियारबंद से ?" दबी-दबी और डरी-डरी आवाज में भी पत्नी को कोसना न छूटा था-
- अब निपट खुद--- बड़ी आई संभालने वाली। ले दे के डण्डे हथियार हो सकते थे, वो भी दुश्मनों के हवाले है तेरे कारण।      

जवाब देने और तकरार करने का वक्त न था। मुसीबत की घ्ाड़ी थी। दुश्मन छत में है कि जाने फॉल्स सीलिंग के भीतर ही घुसा बैठा है। कभी बहुत दबे पांव चलने और कभी सीलिंग को कँपा देने वाली भड़-भड़ाहट के साथ गुजरती रात में चौंकन्नापन बस इतना ही था कि देखा जायेगा जो होगा अब। हमला हथियारबंद हुआ तो कच्चे परिवार की सही सलामती की गुहार लगा लेने के अलावा कोई दूसरा रास्ता शेष नहीं। संदूक की चाबियां हाथ में थमा देनी होंगी। लेकिन मौसम के लिहाज से अनुपयोगी कपड़ों से भरे संदूक की तलाशी के बाद का मंजर खतरनाक हथियार की मार को कैसे रोक पाएगा ? खबरें जो हर ओर सुनायी देती थी, अखबारों में उनकी हकीकत होती- घर से सौदा-सुलफ के लिए निकली स्त्री की गले की चैन खींच कर मोटर-साइकिल पर फरार हो चुके युवकों ने जब पाया कि चैन सोने की नहीं है तो वापिस लौटे और हादसे से अभी पूरी तरह उबर भी न पायी डरी सहमी स्त्री के गाल पर थप्पड़ जड़ा, चैन मुँह पर मारी और ये जा, वो जा। सड़क पर घटा हादसा सिर्फ थप्पड़ से टल सकता है लेकिन जब हथियारबंद और बेखौफ डकेत घर में घुसे होंगे और पकड़ा दी गयी चाबियों पर खुले पड़े संदूक, मात्र पुराने कपड़ो से भरे पड़े हों तो अंजाम क्या होगा, उसकी कल्पना नहीं की जा सकती। डर और आशंका की अनंत लकीरें चेहरे ही नहीं बालों के भीतरी हिस्से को भी गीला करने लगी। 
- सुनो!
आई हुई मुसिबत से निपटने की जरूरी चिन्ता बेहद खामोशी भरे लहजे में, थी। बढ़ जाती तकरारों को निपटाने वाला हमेशा का समपर्ण पूरी तरह से गायब था। आवाज में एक दृढ़ता थी जो कठिन समय से लड़ने के लिए मन बना चुके व्यक्ति के भीतर से स्वत: उठने लगती है।
- माचिस देना जरा---मुझे गैस जलानी है।
स्वर बेशक दबा दबा था लेकिन चिन्ता से मुक्त हो जाने और खुद को अकेला न मानने का आश्वासन एकदम स्पष्ट सुना जा सकता था।
- मैं गैस जलाती हूं।।।एक पर पानी और दूसरे चूल्हे पर तेल रखकर उबाल रही हूँ।
कठिन समय में भी धैर्य न खोने वाली पत्नी की सूझ-बूझ के आगे जब पहले ही कभी जबान न खुली तो सिर पर मण्डराते खतरे के वक्त तो जेब से माचिस निकल ही जानी थी। हां, चिन्ता और अनजाने डर के बेहद चौकन्ने समय में माचिस पकड़ाने से पहले एक सिगरेट सुलगाना जरूरी लगा था। धुंए का गोला छोड़ते हुए उभरे मौलिक विचार को शेयर करना जरूरी लगा। पत्नी किचन में चूल्हे के पास खड़ी थी और कढ़ाई में खोलाये जा रहे तेल को ताक रही थी। विचारों की प्रक्रिया जारी थी। बहुत कमजोर किस्म के लोगों द्वारा किसी बलिष्ठ के विरुद्ध लड़ी गई लड़ाइयां तर्क दे रही थी कि कठिनाई के ऐसे वक्त में निपटने के लिए जरूरी नहीं कि कोई उम्दा हथियार ही आपके पास हो। भीतर के डर को दूर फेंक निपटने के लिए तैयार हो जाओ तो बहुत पारम्परिक हथियार से भी शत्रु के छे छुड़ाये जा सकते हैं।
- सुनो पिसी हुई मीर्च कहां है--थोड़ी मुझे दे द---जेब में रख लेता हूँ। जरूरत पड़ने पर आँखों में झोंक दूंगा।
बेहद चुप्पी भरी रात का स्याहपन फॉल्स सीलिंग में रह-रह कर होती आवाजों पर चौकन्ना रहने को मजबूर कर रहा था।
एक लम्बी जाग के बाद फटती पौ, थकी हुई आंखों में नींद का बसेरा ढूंढ रही थी। पति को डयूटी और बच्ची को स्कूल न जाना होता तो वे भी सो जाती। नींद का झोंका बिस्तर छोड़ने की छूट किसी को न दे रहा था। डरते-डरते कटी पूरी रात ने आगे किसी भी दिन आ जाने वाली सचमुच की मुसिबत की घड़ी से निपटने के लिए खुली पड़ी चारपाई की बाँहों को फॉल्स सीलिंग से नीचे उतार लेने को मजबूर कर दिया। बिखरे हुए कबूतर के पँख चारपाई की बाँहों के साथ कमरे में लहराने लगे। कहाँ से, कैसे आ गए ये पँख ? प्रश्न अनेकों थे। पर जवाब मिलना आसान न था।
''अरे पहले से ही पड़े होंगे --- सिफ्टिंग के वक्त जब मैं कह रही थी ठीक से साफ-सफाई करवा लो तो उस वक्त तो मैं बेवकूफ नजर आयी न ---"
सुना गया वाक्य चिढ़ और खीझ पैदा कर रहा था पर कहते कुछ बना नहीं। बीती रात की फॉल्स सीलिंग की धमक वैसे ही मुक्त न होने दे रही थी।
''मुझे लगता है रात बिज्जू था सीलिंग में। कबूतर उसने ही मारा है।"
''बिज्जू---!!!"
''कबर-बिज्जू --- बड़ा ही बेहुदा जानवर। मुर्दे का दुश्मन। सोये हुए आदमी को भी मुर्दा जान उस पर हमला कर देता है कई बार।"
'' कबर-बिज्जू ---!!!"
''हां, एकदम बिल्ली की तरह होता है। जंगली प्रजाती का। रात चिमनी में दुबके बैठे कबूतर को दबोच लिया होगा। इन पुराने टाइप के मकानों में यही दित है। उस दिन कोई बता रहा था कि एक दिन रात को जब सोये हुए थे तो नींद में ही अहसास हुआ कि जैसेएड़ी पर कोई दांत गड़ा रहा है। हड़बड़ा कर उठा तो डरके पीछे हटते और कोने में दुबके बिज्जू की बिल्लौरी आंखें उसे दिखाई दी। वो तो गनीमत रही कि फॉल्स सीलिंग का वह छेद जहां से वह कूद कर नीचे उतरा होगा इतना बड़ा था कि बिज्जू को वहाँ से भागने में परेशानी न हुई, वरना झपट ही पड़ता। जान पर तो उसके भी बन आई थी न।"
''मैं तो नहीं रह सकती यहाँ --- फिर अकेले तो कतई नहीं।"
''बहुत ही खतरनाक जानवर होता है। वैसे तो जिन्दा आदमी से डरता है, पर मरे हुए को तो नोंच-नोंच डालता है। बताते हैं कि मुर्दे पर भी हमला करते हुए पहले टखने के पीछे ही दांत गड़ाता है। दरअसल कई बार होता यह है न कि मुर्दा भी अंगड़ाई लेता है, उस वक्त, बताते हैं कि उसकी टांग आगे को ऎंठती हुई कुछ ऊपर को उठ जाती है। बस इसीलिए टखने के पीछे की वह नस जिसके कारण कहीं टांगों में खिंचाव न हो जाए, उसे ही काट देता है सबसे पहले। लोग कहते हैं कि दिन के वक्त तो कहीं ओने कोने में दुबका रहता है पर रात को ही शिकार के लिए निकलता है। अब आस पास के जंगल में तो कोई बच्चे भी दफ़न नहीं करता जो वहीं कर्बे खोदे। ले दे कर रसोई की इन खुली पड़ी चिमनियों में रात को दुबक कर बैठे कबूतर ही तो हैं जो पकड़ के दायरे में हैं।"
''तुम्हें जब यह सब कुछ मालूम था तो क्यों लिया तुमने ये क्वार्टर ? मैं तो अब एक पल भी नहीं रह सकती।""
''नहीं लेता तो क्या करता। कितने सालों के बाद तो नम्बर आया। अब जो खाली था वही तो मिलता न। बढ़ते हुए किराये और मकान मालिकोंे की आए दिन की चिक-चिक पर बंजारों की तरह ही भटकते रहते क्या ?""
''लेकिन---"
''अरे तब तक तो दिन काटने ही पड़ेंगे जब तक कोई नये टाइप का क्वार्टर खाली नहीं होता। खाली होगा तो चेंज मिलना आसान हो जाएगा। और फिर जान ले यही क्वार्टर हैं जिनमें एक जमाने में ब्रिटिश अफसर रहा करते थे। जब तक ये बहुमंजिला जमाना नहीं आया था न, ऐरे गैरे को तो ये भी नहीं मिलते थे। आज भी इतना आसान तो नहीं ही है।"
''अब ज्यादा शेखी न बघारों --- अंग्रेजों के टाइम इनकी ऐसी हालत तो नहीं रही होगी न कि रोज सुबह किचन में चिमनी वाले छेद से कबूतर की बीट नीचे गिरती होगी और रात को जंगली जानवर उसी रास्ते भीतर घुस कर धमा चौकड़ी मचाते होंगे।"
गर्मियों में ठंडे और सर्दियों में गरम रहने वाले मकानों के खुले खुले आंगन का सुख भी कबर बिज्जू के आतंक के प्रभाव में कम हो गया था। क्वार्टर बदलने लेने की कवायद करना जरूरी लगने लगा था।
बहुमंजिला इमारतों का बेहद चुप्पापन बेशक एकांगी हो पर कीड़े मकोड़ों और हिंसक जानवरों की उपस्थिति से बचा रहने वाला है। जुगत लगे कि खाली होता हुआ क्वार्टर मिल जाए। सोचने मात्र से उसे हासिल नहीं किया जा सकता था, जबकि क्वार्टरों को सिर्फ बेहद चापलुसी के व्यवहार से हासिल किया जा सकना एक नयूनतम योग्यता जारी हो।
-बगल वाले शर्मा जी को देखो।।। आप ही कह रहे थे कि आपसे जूनियर हैं।
-हाँ हाँ --- मिले थे मुझे आज ही शर्मा जी --- बता रहे थे कि कैसे तप रही है चौथी मंजिल। दिन भर कमरों को पानी से लबालब भरे रहने के बाद भी रात की उमस में नींद उड़ी जा रही है उनकी।
- और तुम्हारी नींद ---!!! उसका भी तो कहो जो हल्की सी धमक पर तुम्हें उकड़ू बैठकर बीड़ी सुलगा लेने वाली हो जा रही है।
- तुम तो नाहक बात का बतंगड़ बनाने लगती हो।
किच-किच और चिक-चिक के ज्यादा आगे बढ़ते कि उससे पहले ही एक साथ खाली हुए दो क्वार्टरों के आदेश पर ग्राउँड फ्लोर का ही चुनाव ज्यादा सही लगा था। चारपाई की खुली पड़ी बाँहों और अंधियारी धूल से सने सामानों के भाग फूटे, गैराज से सटे ग्राउँड फ्लोर की बॉलकनी को स्टोर रूम की तरह इस्तेमाल करने की कार्रवाइ ने अंजाम पा लिया।     

- चल हट
- उधर से ---उधर से---उधर से भगा न।
उठा-पटक और हो-हल्ले के साथ आकाश सिर पर उठाए एक निरीह छछुंदर के भीतर घुस आने पर कितनी बौखलाहट थी ? किचन में सिंक की ओर दौड़ती छछुंदर न जाने कहां गुम हो गई।
आवाजाही के ज्ञात रास्तों की नाकेबंदी के बावजूद उसका दिख जाना कोई नयी बात न थी। बाहर से भीतर आने के एक मात्र रास्ते वाले दरवाजे की कुंडियां इसीलिए हमेशा चढ़ी रहती। खुली हों तो झल्लाहट के शब्दों के साथ चढ़ जाती-
''क्या करती हो यार---दरवाजा खुला छोड़ रखा है। तबी तो घुस आती है छछुंदर--- अबकी बार मैं नहीं भगाऊंगा। "
हाँफ-हाँफ कर दरवाजे के कोने, अलमारी के पीछे और उलट-उलट जाते कपड़ों को डण्डे से पछाड़ते रहने के निशान पसीने से भीग चुकी देह पर दिखायी देने लगे थे। लेट-लेट कर प्लंग के नीचे तक दुबकी बैठी छछुंदर पर किये जाने वाले प्रहार की हड़बड़ाहट में फर्श की धूल कपड़ों पर अपना अक्श छोड़ चुकी थी। लेकिन छछुंदर का कहीं कुछ पता न लगा रहा था। 'जाने भीतर ही है या किसी चोर रस्ते से बाहर भाग चुकी", जाना नहीं जा सकता था। भीतर और बाहर के चोर रास्ते तक पहुँच पाना इतना आसान नहीं था। पिछली मर्तबा जब ऐसी ही उठा-पटक के दौरान जान बचाती हुई छछुंदर किचन की ओर दौड़ी तो निगाहें पीछा करते हुए सिंक के नीचे उस सूराख तक पहुंच गई, ड्रेनेज पाइप जिसमें झूलता हुआ नीचे को उतरता था। कितनी ही बार पीछा करते हुए जान बचाकर उसी सूराख के भीतर घुस जाती छछुंदर से कैसे निपटा जाए, यह परेशानी का सबब था। सूराख को बंद नहीं किया जा सकता था। लेकिन कई बार उसमें घुस कर गायब हो जाने वाली छछुंदर से छुटकारा बिना उसे बंद किये नहीं पाया जा सकता था। कोशिशें हुई कि पाइप भर का खुला हिस्सा ही बचा रहे। मुडे-तुडे कागजों से लेकर फटे-पुराने कपड़ो के मरोड़ ठूंसे गये। पर छछुंदर की मनमानी को रोका नहीं जा सका। थक हार कर सूराख को बंद करवाने की सोची गयी तो सहसा ठिठक जाना हुआ। जिसे मात्र सूराख मानने की गलती कर रहे हैं वह तो हल्की सी चोट से भरभरा कर ढह गये फर्श को मलवे में बदल एक बड़े गढढे के रूप में मुंह खोले था। कोई उस गढढे के रास्ते सेंधमारी करना चाहे तो बस्स मुश्किल इतनी कि उसमें सीधे उतरने के बाद सिर साफ चमकता हुआ दिखाई दे। लेकिन सेंध मारी करने वाले जानते हैं कि सेंध लगाने के बाद पहले-पहले सीधे सिर भीतर नहीं घ्ाुसाया जाता। मारी जा रही सेंध की भनक से जाग गया व्यक्ति बेशक भीतर से भयभीत हो, पर हमला करने को तैयार भी रह सकता है और भीतर के घने अंधेरे में भी लगी हुई सेंध पर होने वाली हरकत के साथ ताबड़तोड़ हमला कर सकता है। सेंधमार ऐसे में एक बड़े से डण्डे के सहारे उल्टे घड़े को भीतर घुमाता है, जाँचने के लिए कि कहीं कुछ खतरे की आशंका लगे तो बाहर ही बाहर हो जाए बित्ती।     
''कितनी बार कहा तुम्हें दरवाजा बंद रखा करो।।।अब सुनो रात भर छुछुरपन। गलती हो गई जो किचन का गढढा बंद करवा दिया---कम से कम रात को वहाँ से खुद ही निकल तो जाती।"
घर पहुँचने पर पानी की छपाकों से हाथ-पाँव धोकर पोशाक बदल लेने के बाद तसल्ली की चाय का जायकेदार स्वाद छुछुरपन के हवाले हो चुका था। सोते हुए भी रात भर नाक के भीतर घुस जाने वाली छछुंदर की गंध के अहसास ने तुरन्त निपटने को उकसाया। एक किनारे रखा जाला साफ करने वाला पाइप हाथ में था और ओने कोनो में जगह-जगह छछुंदर की तलाश शुरु हो गयी। भीतर के कमरे में जा छुपी छछुंदर को बाहर खदेड़ने की कार्रवाइयां जारी रही और अलमारी से लेकर पलंग के बहुत नीचे तक फंसा पड़ा कबाड़, जो हर दिन की जाती सफाई के बावजूद बहुत चुपके से दुबका रह जाता, पाइप में लिपट कर बाहर झांकने लगा। किचन के सिंक की ओर बचकर निकल भागती छछुंदर की छवी झिलमिलायी थी। सिंक के नीचे अवाजाही के बेहद चुप्पा रास्ता को बंद पा बदहवास सी दौड़ती छछुंदर गैस में चढ़ी चाय के पांवों पर ऐसा गुदगुदा अहसास दे गयी कि डर के मारे निकली चीख के साथ ही स्लेब पर रखे बेलन का जबरदस्त प्रहार हुआ। बेलन के फर्श पर टकराने के बाद उठी आवाजों को कोलाहल आवाक कर देने वाला था। मानो सड़क पार करती किसी बुढ़िया के खरामा-खरामा चलने के अंदाज ने युवा मोटर-साइकिल सवार को जैसे ब्रेक मार देने पर मजबूर कर दिया हो। दूसरे ही द्वाण सड़क के साथ रगड़ खाते पहियों की सी आवाज करती छछुंदर बलखाते मोटर साइकिल सवार की सी तेज गति में दौड़ चुकी थी। इसे इत्तेफाक कहना ही ठीक होगा कि किसी नयी बन रही बाई-पास रोड़ पर पहले से मौजूद रिहाइसों के भीतर से बाहर निकलने वाली गली के मुहाने पर बहुत तेज गति से अचानक प्रकट हो गये मोटर साइकिल सवार ने ठिठका दिया। ऑफिस से लौट कर घ्ार के दरवाजे पर कदम रखते ही छछुंदर की उपस्थिति का वह क्षण भी कुछ ऐसा ही था।

अपनी बेसुरी आवाज के कतरे को छोड़ती छछुंदर जाने कहाँ बिला गयी थी। अनुपस्थिति का सन्नाटा क्षण भर का नहीं, दिनों का था। लेकिन स्मृतियों में धंसा छुछुरपन इतनी आसानी से गायब कैसे हो जाए भला। कोई धीमी सी चरमराहट, कौंध किसी चीज की, छछुंदर के भीतर होने का अहसास करा देती। दफ्तर से घ्ार लौटते हुए दरवाजे का बहुत चुपके से खोलकर देखा जाता। दिख जाने पर बाहर खदेड़ने की इच्छाएं हमेशा बलवती रहती। पांवों पर से गुजर गये किसी गुदगुदे अहसास की सरसराहट पर चौंकन्ना बने रहने की मानसिकता चूल्हे पर चढ़ायी चाय में चीनी उड़ेल रही पत्नी के हाथों से चम्मच कई बार छिटका देती। घ्ानी अंधेरी रातों में टूट जाने वाली नींद के वक्त पानी पीने की जरूरत होती और पानी के लिए किचन की जलायी जाने वाली बत्ती के साथ इधर उधर दौड़ रहे काक्रोचों का लिजलिजा अहसास भयभीत करता। तेज पड़ती बारिस के दौरान किसी उदंड मेढ़क का भीतर घ्ाुस आना बाहर खदेड़ने की उछल कूद कार्रवाई हो जा रहा होता। मिट्टी में लिसड़कर बरामदे की फर्श तक आ गया केंचुआ ऐसा गिलगिलापन छोड़ता कि कौन उसको झाड़ू से बाहर की ओर पलट दे, चालाकियां बरती जाती। एकाएक गायब हो गयी और कईयों दिनों तक दिखायी न दी छछुंदर का यूं गायब हो जाना रहस्यमयी घ्ाटना हो गया था। बावजूद अपने होने का अहसास कराती नथुनों के भीतर बैठी उसकी गंध से छुटकारा पाना संभव न था। मितली भरे भभकारे के साथ खाये पिये को उल्ट देने को बेचैन करने वाली उस गंध का तीखापन घ्ार के पिछवाड़े की खुली नाली में बहते कीच की दुर्गंध भी जैसा तीखा लगा।  हड़बड़ाकर उठी पत्नी ने भी उस तीखेपन पर नाक भौं सिकोड़ी थी, 'यह दुर्गंध नाली के कीच की नहीं है", बहुत स्पष्ट जानते हुए तय कर लिया गया था कि बाहर बॉलकनी में सोया जाए। सामने की इमारत में दूसरी, तीसरी और चौथी मंजिल की बॉलकनी में लगी चारपाइयां मच्छरदानियों से ढकी थी। भीतर सोये हुए व्यक्ति की हरकत पर झूलते पल्लों का हिलना जारी थी। गहन सन्नाटे से भरी रात बारिस की बौछारों से संगीतमय हो रही थी। बौछार के पड़ते छींटो में गहरी नींद सुला देने की अदभुत गति थी। बाहर सोना हो तो घ्ार के किवाड़ बाहर से ही बंद किये जा सकते थे और वे बंद भी कर ही दिये गये थे। भीतर की दुर्गंध बंद किवाड़ों की झिर्रियों से बाहर आने का जितना भी प्रयास करती बारिस की संगीतमय लय उसे दबोच लेती।
कोई भी बंद किवाड़ हमेशा हमेशा के लिए बंद नहीं रह सकता। सुबह की जाग के साथ उनका खुलना स्वाभाविक था। खुले, तो सड़ांध के तीखे भभके ने बाहर को धकेला। दुर्गंध के उस भभके से भिड़े बगैर भीतर नहीं घ्ाुसा जा सकता था। पर बिना सोचे समझे भिड़ा नहीं जा सकता था। दुर्गंध के आतंक से घ्ाबराकर घ्ार नहीं छोड़ा जा सकता, यह एकदम स्पष्ट था। भीतर घ्ाुसने की युक्ति के बिना, बिना  विचलित हुए रह पाना कतई संभव न था। दरवाजे खिड़कियों को पूरी तरह खोलकर दुर्गंध के प्रभाव को खत्म कर देना उचित सलाह थी। दुर्गंध के कारण की पड़ताल और उससे मुक्ति की कार्रवाई आसान न थी। अटे पड़े सामानों की उथल पुथल हर उस सामान को अव्यवस्थित कर दे रही थी जिसे बहुत करीने से सजाने, लगाने के कितने ही ढंग खोजने में कितना-कितना समय गंवाया था। अव्यवस्था ऐसी की कभी कुछ व्यवस्थित भी रहा होगा या फिर से व्यवस्थित किया भी जा सकेगा, सोचने का वक्त न था। 'चीजों को दूरस्त करने में जुटा व्यक्ति ऐसे किसी सवाल से टकराये तो फिर कैसे करे कोई भी कार्रवाई।" जारी कार्रवाई के वक्त ये सारे सवाल बेईमानी हैं। 'व्यवस्थित ढांचे के एकाएक अव्यवस्थित हो जाने पर चिन्तित होना एक दर्शकीय कार्रवाई है।" दुर्गंध कोई ठोस वस्तु नहीं जिसको कहीं से पकड़ कर बाहर खींच लिया जा सकता था। हां किसी ठोस के जैविक विघटन की प्रक्रिया उसके होने का प्रमाण है। 'उसे ही खोजना और नष्ट करना होगा।" उस ठोस जैविक विघटन को जानने की समझ नहीं तो, सिर्फ और सिर्फ दुर्गंध को ही ढूंढने में जीवन होम कर देने के बावजूद, उससे मुक्त नहीं हुआ जा सकता। बल्कि हर क्षण बढ़ता उसका प्रभाव जीवन को ही लीलने वाला हो जाए।
जैसे जैसे एक एक सामान हटता तो सड़ाध का भभका और और तीखा हो जाता। वह अंतिम गट्ठर कपड़ों का, मौसम के बदलाव के वक्त जिनकी उपयोगिता भविष्य में वैसे ही मौसम के साथ हो सकती थी, अभी भी इठला रहा था। मुक्ति की ललक के साथ दुर्गंध के बीच बने रहते उसके हर तीखेपन को झेलने की मानसिकता दृढ़ और दृढ़ होती जा रही थी। तो भी खुलती गट्ठर की गंध के साथ फैलती दुर्गंध ने एक बार फिर पस्त किया था। पेट में हिलता अम्ल गले गले तक पहुंचने लगा था। पस्त होकर टूट जाने का वक्त न था। बेशक जुटे रहना मुश्किल और ऐसा थकाऊ हो चला था कि निढ़ाल होने को उकसा रहा था। खुले पड़े गट्ठर के एक एक कपड़े को छिटक कर दूर फेंका जाने लगा। सड़ाध का तीखापन कपड़े पर लिपटे और दिखायी दिये खून के कतरे के साथ और गाढ़ा हो गया। दूसरे कपड़े पर लिपटा मांस और भी ज्यादा भभक पैदा करने वाला था। फेंक कर मारे गये बेलन की तेज प्रहार से घ्ाायल और जान बचाकर भागी छछुंदर की छत-विछत देह से उठती छुछुरपन की गंध से मुक्ति की यह पस्त कर देने वाली कार्रवाई थी।
मांस के लिथड़े हुए कपड़ो को पूरी तरह से नष्ट कर देने के बाद भी छुछुरपन की दुर्गंध के अवशेष वातावरण में मौजूद थे। लेकिन लगातार खत्म होता जा रहा उनका प्रभाव आश्वस्त करने वाला था। अव्यवस्थित हो गए सामान को फिर से व्यवस्थित कर घ्ार का स्वरूप्ा गढ़ा जाना ऐसी प्राथमिकता हो गया कि बहुमंजिला इमारत के कितने ही हाथों की सामूहिकता में लगातार व्यवस्थित होने लगा। बर्तनों के लिए निर्धारित जगह को बहुत ही सुगठित कर मिसेज सोलंकि ने किचन को जो स्वरूप्ा दिया उसकी कल्पना पहले संभव न थी। मसालों के डिब्बे, अनाज के कनस्तर को बिना किसी भी तरह के व्यवधान के साथ स्लेब पर चढ़ाना और उतारना पहले से कहीं ज्यादा आसान लगने लगा। मेहमानों के लिए तय कमरे के फर्नीचर का स्थान बदलकर कमरे का खुला-खुला पन वातावरण का ज्यादा खुशनुमा बना रहा था। झाड़ पोंछ कर व्यवस्थित हो गई किताबें पढ़े जाने को ललचाने लगी। बिस्तर पर बिछी हुई चादर में छपे बेल-बूटों की आभा का रंग कुछ ज्यादा उजला हो गया था। अव्यवस्थित और उजाड़ पड़ा सामान इतनी आसानी से घ्ार को घ्ार का रूप्ा दे देगा इसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी। छछुरपन की दुर्गंध का नामोनिशान न था। प्यालियों में परोसी गयी चाय की चुस्कियां लेते हुए मिसेज सोलंकी की हंसी का फव्वारा छूट रहा था,
- पिछले कुछ रोज से मुझे तो लग रहा था कि मानो छछुदंर इलाका छोड़ चुकी है पर यह कहाँ मालूम था कि लोहनी जी उसका मर्डर कर लाश को घर में छुपाये बैठे हैं।
- लोहानी मेडम, रात आप लोगों को बॉलकनी में सोते देख मुझे लगा कि वाकई आज उमस ज्यादा ही है जिसने ग्राउँड फ्लोर वालों तक को भी बाहर सोने को मजबूर कर दिया है। भई हम चौथी मंजिल वालों का यू बॉलकनी में बिस्तर डाल लेना तो कोई नयी बात नहीं पर ग्राउँड फ्लोर वाले भी उसी तर्ज में जीएं तो आश्चर्य होता है।
बहुमंजिला इमारतों का खुलता हुआ संसार बेहद खिलंदड़ हो उठा था। दुर्गंध, बदबू और सड़ाध से निपटने के लिए उस वक्त उन तरह-तरह के रसायनों का जिक्र करने की बजाय, जिनके इस्तेमाल करने को वे लालयित रहते, सभी बहुत ही अपने तरह की ठाट में मशगूल थे।


-विजय गौड़

कहानी इससे पूर्व वागार्थ में जून 2011 के अंक में प्रकाशित हो चुकी है।

2 comments:

Vineeta Yashsavi said...

Nicely written story...

विजय गौड़ said...

Anonymous noreply-comment@blogger.com

6:11 AM (13 hours ago)

to me
Anonymous has left a new comment on your post "खिलंदड़ ठाट":

Could you write another post about this subject simply because this post was a bit difficult to comprehend?