Tuesday, August 26, 2008

महमूद दरवेश की कविताएं

फिलिस्तीन के कवि महमूद दरवेश, 9 अगस्त को जिनका निधन हुआ, को याद करते हुए यादवेन्द्र जी द्वारा उनकी कविताएं के अनुवाद प्रस्तुत हैं।


महमूद दरवेश


बहुत बोलता हूं मैं


बहुत बोलता हूं मैं
स्त्रियों और वृक्षों के बीच के सुक्ष्म भेदों के बारे में
धरती के सम्मोहन के बारे में
और ऐसे देश के बारे में
नहीं है जिसकी अपनी मोहर पासपोर्ट पर लगने को


पूछता हूं : भद्र जनों और देवियों,
क्या यह सच है- जैसे आप कह रहे है-
कि यह धरती है सम्पूर्ण मानव जाति के लिए ?
यदि सचमुच ऐसा है
तो कहां है मेरा घर-
मेहरबानी करे मुझे मेरा ठिकाना तो बता दे आप !


सम्मेलन में शामिल सब लोग
अनवरत करतल ध्वनि करते रहे अगले तीन मिनट तक-
आजादी और पहचान के बहुमूल्य तीन मिनट!


फिर सम्मेलन मुहर लगाता है लौट कर अपने घर जाने के हमारे अधिकार पर
जैसे चूजों और घोड़ों का अधिकार है
शिला से निर्मित स्वपन में लौट जाने का।


मैं वहां उपस्थित सभी लोगों से मिलाते हुए हाथ
एक एक करके
झुक कर सलाम करते हुए सबको-
फिर शुरु कर देता हूं अपनी यात्रा
जहां देना है नया व्याख्यान
कि क्या होता है अंतर बरसात और मृग मरीचिका के बीच
वहां भी पूछता हूं : भद्र जनों और देवियों,
क्या यह सच है- जैसा आप कह रहे हैं-
कि यह धरती है सम्पूर्ण मानव जाति के लिए ?



शब्द


जब मेरे शब्द बने गेहूं
मैं बन गया धरती।
जब मेरे शब्द बने क्रोध
मैं बन गया बवंडर।
जब मेरे श्ब्द बने चट्टान
मैं बन गया नदी।

जब मेरे श्ब्द बन गये शहद
मक्खियों ने ले लिए कब्जे मे मेरे होंठ



मरना


दोस्तों आप उस तरह तो न मरिए
जैसे मरते रहे हैं अब तक
मेरी बिनती है- अभी न मरें
एक साल तो रुक जाऐं मेरे लिए
एक साल
केवल एक साल और-
फिर हम साथ साथ सड़क पर चलते हुए
अपनी तमाम बातें करेगें एक दूसरे से
समय और इश्तहारों की पहुंच से परे-
कबरें तलाशने और शोकगीत रचने के अलावा
हमारे सामने अभी पढ़े हैं
अन्य बहुतेरे काम।



अनुवाद:- यादवेन्द्र

Saturday, August 23, 2008

दोस्ती फूलों की बरसात नहीं है भाई



दीवान सिंह मफ्तून और कवि कुलहड़ के साथ अपने अंतरंग संबंधों से भरे, वरिष्ठ कहानीकार और व्यंग्यकार, मदन शर्मा के लिखे संस्मरणों को यहां हम पहले भी दे चुके हैं । मदन शर्मा अपने अंतरंग मित्रों के साथ बिताए समय को सिल सिलेवार दर्ज करते हुए हमें एक दौर के देहरादून से परिचित कराते जा रहे हैं। हम आभारी है उनकी इस सदाश्यता के कि हमारे अनुरोध पर बिना किसी हिचकिचाट के वे हमारी इस चिटठा-पत्रिका के पाठकों के लिए लगातार लिख रहे हैं। अपने पाठकों को सूचित करना अपना कर्तव्य समझते हैं कि ब्लाग वाणी के आंकड़ों के मुताबिक मदन शर्मा इस चिटठा-पत्रिका के अभी तक सबसे ज्यादा पढ़े गए लेखक हैं।
मदन शर्मा 0135-2788210


एक अज़ीम शायर कंवल ज़ियायी



कुछ अर्सा पहले, हिंदी साहित्य के वरिष्ठ आलोचक डा0 नामवर सिंह ने, जब उर्दू शायरी पर अपने खय़ालात का इज़्हार करते हुए, अचानक ही यह फ़रमान जारी कर डाला, कि बशीर बद्र इस सदी के सब से बड़े शायर हैं, तो मेरा चौंक जाना स्वाभाविक था। मेरी नज़र में, बशीर बद्र, एक असाधारण शायर है। मैं स्वयं उनकी उम्दा शायरी का प्रशंसक रहा हूं। मगर दर हकीक़त, इस या पिछली सदी के दौरान, उर्दू में एक से बढ़कर एक, चोटी के शायर हुए हैं, जिन्होंने अपनी बेमिसाल शयरी की बदौलत, उर्दू अदब को अपनी बेहतरीन खिदमत पेश की हैं। अब मैं यहां पर, यदि अपने करीबी रिश्तों के मद्देनज़र यह कह डालूं, कि जनाब 'कंवल" ज़ियायी ऐशिया के सबसे बड़े शायर हैं, तो यह उर्दू अदब के साथ, नाइन्साफ़ी होगी। चुनांचे मैं अपने इस लेख में, महज़ इतना कहना चाहूंगा, कि जनाब हरदयाल दता 'कंवल" ज़ियायी, इस दौर के एक अज़ीम शायर हैं।
एक मुशायरे में, बशीर बद्र के ही, अनेक जुगनुओं से सुशोभित अशआर के जवाब में, जब कवंल साहब ने निम्नलिखित शेर पढ़ा तो पंडाल में देर तक तालियों का शोर बरपा रहा :-
तुम जुगनुओं की लाश लिये घूमते रहोलोगों ने बढ़ के हाथ पर सूरज उठा लिया
'कंवल" ज़ियायी साहब का संबंध, पंजाब के ज़मींदार घराने से है। सुप्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेता राजेन्द्र कुमार इनके बचपन के दोस्त थे। यह दोस्ती ताउम्र कायम रहने वाली पी दोस्ती थी। दोनों एक ही गांव 'करूंड़दतां' में, जो ज़िला सियालकोट (पाकिस्तान) में है। वहीं जन्मे, पले पढ़े, खेले और शरारतें कीं। मुल्क की तकसीम के बाद, वे एक साथ दिल्ली पहुंचे और जिंदगी के लिये संघर्ष शुरू किया। यहां से, एक फ़िल्मों में किस्मत आज़माई के लिये बम्बई रवाना हो गया। दूसरे ने भारतीय-सेना में कलर्की को अपना लिया और शायरी शुरू कर दी। मगर ये अलग हुए रास्ते, सिर्फ रोज़ी कमाने के माध्यम थे। उनकी दोस्ती की राह एक थी, जिस पर चलते हुए, वे न तो कभी फिसले और न थके। 'कंवल" साहब का ज़मींदाराना कददावर शरीर, रोआबदार चेहरे पर बड़ी-बड़ी मूंछें और आंखों में तैरती सुर्खी देख, कितने ही लोग धोखा खा चुके हैं। एक किस्सा वह खुद ही बयान किया करते हैं--- किसी मुशायरे में हिस्सा लेने, वे अन्य शायरों के साथ जब हॉल में दाखिल हुए, तो इनके सियाहफ़ाम चेहरे पर बड़ी-बड़ी मूंछें देख, किसी ने सरगोशी की--- ये साहब गज़ल पढ़ने आयें हैं या डाका डालने! 'कंवल" साहब ने स्टेज पर खड़े होकर जब यह शेर पढ़ा, तो श्रोताओं के दिल पर, सचमुच ही डाका पड़ गया :-
शक्ल मेरी देखना चाहें तो हाज़िर हैं मगरमेरे दिल को मेरे द्रोरों में उतर कर देखिये
जिस तरह 'कंवल" साहब के कलम में बला की ताकत है, भाषा में सादगी और रवानगी है, शब्दों का उम्दा चयन है, उसी तरह उनकी ज़बान में भी चाश्नी है। उनके पास बैठे कितनी देर तक बातचीत करते जायें, कभी उठने को मन न होगा। शायरी में बेहद संजीदा और बातचीत में उतने ही मस्त और फक्कड़। 'कंवल" साहब की आंखों मे जो सुर्खी तैरती नज़र आती है, वह शराब की नहीं, शायरी का 'खुमार" है। मौजूदा बदनज़ामी और बेहूदगियों के खिलाफ़ एक आग है, जो हरदम उनके दिल में भी धधकती रहती हैं। वे शराब नहीं पीते। कभी पी भी नहीं। हाथ में थामें जाम से, कोका कोला के घूंट भर-भर कर, वे कितनों को धोखा दे चुके हैं। शराब कभी न चख कर भी, वे शराब पर अनगिनत शेर कह चुके हैं :-
रात जो मयकदे में कट जायेकाबिल-ए-रश्क रात होती हैबाज़ औकात मय काहर कतराइक मुकम्मल हयात होती है
'कंवल" साहब एक खुद्दार शायर हैं। वे दूसरों पर एहसान करना जानते हैं, एहसान लेना नहीं जानते। कभी अपनी रचना किसी के पास छपने के लिये नहीं भेजेंगे। कोई यार दोस्त या ज़रूरतमंद, रचना मांग ले, तो अपनी नवीनतम गज़ल या नज़्म भी, उठा कर बड़ी विनम्रता और खलूस से पेश कर देंगे। उन के अब तक दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं। 'प्यासे जाम' उनके कलाम का पहला संग्रह था, जिस का हिन्दी रूपांतर तैयार करने का शुभ अवसर मुझे प्राप्त हुआ था। इन्द्र कुमार कड़ ने इस पुस्तक का संपादन किया था। दूसरा संग्रह 'लफ़ज़ों की दीवार" उर्दू लिपि में छपा, जिसका विमोचन भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा जी ने किया। इन दोनों संग्रहों में शामिल गज़लों, नज़्मों या कतआत का एक भी मिस्रा ऐसा नहीं, जिसे किसी भी जानिब से कमज़ोर कहा जा सके। फिल्म अभिनेता पदम श्री राजेन्द्र कुमार के साथ, 'कंवल" साहब की दोस्ती, मुस्तकिल और पुख्ता थी। दोनों ही, यह रिश्ता निभाने में माहिर निकले। 'कंवल" साहब चाहते, तो एक मामूली से इशारे पर ही, राजेन्द्र कुमार इनकी गज़लों यां नज़्मों का इस्तेमाल, स्तरीय संगीतकारों के माध्यम से फ़िल्मों में करा सकते थे, जिस से 'कंवल" साहब रूपयों से मालामाल हो जाते। मगर कंवल साहब ऐसा इशारा करने वाले नहीं थे और राजेन्द्र कुमार अपनी ओर से कुछ करने में इसीलिये संकोच करते रहे कि ऐसा करने से कहीं दोस्त की 'खुददारी" को ठेस न पहुंच जाये :-खुदी मेरी नहीं कायल किसी एहसानमंदी कीमेरे खून-ए-जिगर से मेरा अफ़साना लिखा जाये 'कंवल साहब" से, पहली बार मेरी मुलाकात, एक अदबी नशिस्त के दौरान हुई। इस गोष्ठी में मेरे संस्थान के साथी और शायर स्व0 कृपाल सिंह 'राही" को अपनी नई लिखी गज़ल, समीक्षा के लिये पेश करनी थी। 'राही" साहब ने गज़ल का एक-एक शेर पढ़ना शुरू किया। प्रतिक्रिया देने के इरादे से 'कंवल" साहब ने हर शोर गौर से सुना और जब प्रतिक्रिया स्वरूप कहना शुरू किया, तो 'राही" साहब को तो ऊपर से नीचे तक तो पसीना आया ही, स्वयं मेरी भी हालत, लगभग 'राही" साहब जैसी हो गई, क्योंकि मैं भी अपना अफसाना 'बचपन का दोस्त" यहां पढ़ने के इरादे से, कोट की जेब में रख कर ले आया था। 'राही" साहब की हालत देख, मेरा हाथ, कोट की जेब तक पहुंचने के लिये हिल भी नहीं पाया और खुदा गवाह है, कि मैं आज तक, अपनी कोई रचना, उनके सामने पेश करने को हौंसला नहीं कर पाया। यह दीगर बात है कि 'कंवल" साहब से मुझे हमेशा अपनों जैसा प्यार और विश्वास मिला है। फिर हमारी मुलाकातों का सिलसिला ही शुरू हो गया। साहित्य सम्पादक इन्द्र कुमार कड़ के साथ मुझे कितनी ही बार 'कंवल" साहब के निवास पर जाकर, उन से बातचीत करने का मौका मिलता रहा। वहां हमें, उन से बहुत कुछ सीखने को मिला, जिस का संबंध, शायरी के अलावा, इन्सान और जिंदगीं की किताब से था। 'कंवल" साहब के ज्ञान का दायरा बहुत विस्तृत है और उन्होंने जिंदगीं को बडे करीब से देखा है।
जिंदगीं मेहरबान थी कल तकआज मैं जिंदगीं का मारा हूंआसमां के हसीन दामन काइक टूटा हुआ सितारा हूं
कंवल साहब के शागिर्दों की तादाद लंबी है। कहा जाता है, कि वे अपने आप में एक 'इस्टीटयूशन' हैं। 'बज़्म-ए-जिगर' नाम की साहित्य-संस्था के माध्यम से, उन्होंने एक लम्बे अर्से तक देहरादून के माहौल को उर्दूमय बनाये रखा। अपनी शायरी की आरंभिक अवस्था में उन्होंने प्रसिद्ध शायर जनाब पंडित लब्भूराम 'जोश' मलसियानी साहब से इस्लाह ली। इनकी शायरी, हज़रत 'दाग' की रवायती शायरी के काफ़ी नज़दीक तसलीम की जाती है। 'कंवल' साहब की शायरी के बारे में, मैं स्वयं अपनी तरफ़ से कुछ कहने के लिये, मौज़ूं अलफ़ाज़ तलाश करना, मेरे लिये बहुत कठिन काम है। ऐसे अलफ़ाज़, जो 'कंवल' साहब की शायरी के स्तर को छू सकें। वैसे भी इस बारे में जो कुछ कुंवर महेन्द्र सिंह बेदी 'सहर', 'साहिर' होशियारपुरी, रामकृष्ण 'मुज़्तिर", पदमश्री राजेन्द्र कुमार, साहित्य समीक्षक इन्द्रकुमार कक्कड़, 'विकल' ज़ेबाई, अवधेश कुमार, राशिद जमाल 'फ़ारूकी' और दीगर साहिबान, लिख चुके हैं, उसके बाद लिखने को कुछ भी बाकी नहीं रह जाता। अलबता अपनी जानिब से मैं 'लफ्जों की दीवार' कविता-संग्रह से चंद अशार दर्ज करना चाहूंगा, ताकि पढ़ कर आप खुद अंदाज़ा लगा सकें, कि जनाब 'कंवल' ज़ियायी का, उर्दू और हिंदी के मौजूदा दौर में, शायरी का क्या मकाम है।
लफ्ज़ों की दीवार के आगे अक्स उभर आया है किसकाखंजर लेकर कौन खड़ा है लफ्ज़ों की दीवार के पीछे
मैं छुप कर घर में आना चाहता हूंलगी है किस गली में घात लिखना
जिंदगीं आज है इक ऐसे अपाहिज की तरहला के जंगल में जिसे छोड़ दिया बच्चों नेआज के दौर की तहज़ीब का पत्थर लेकरएक दीवाने का सिर फोड़ दिया बच्चों ने
हमारा खून का रिश्ता है सरहदों का नहींहमारे खून में गंगा भी है चिनाव भी है
हम न हिंदु हैं न मुसलिम है फ्क़त इन्सां हैंहम फ़कीरों की कोई ज़ात नहीं है भाईदोस्ती उड़ती हुई गर्द है वीरानों कीदोस्ती फूलों की बरसात नहीं है भाई
मैं भी इन्सां हूं तू भी इन्सां हैक्यों मुझे देखता है खुदा की तरह
इक इन्कलाब आके मेरे पास रूक गयामुझ से ही मेरे घर का पता पूछता हुआतू मुझ को क्या पढ़ेगी ऐ निगाह-ए-वक्तवो खत हूं जिसका हर लफ्ज़ है मिटा हुआ
सोच रहा हूं कदम बढ़ाऊं किस जानिबआगे आग का दरिया है पीछे सूली है
कांधों पर रख के अपने फ़रायज़ के बोझ कोअपने ही घर में हम रहे मेहमान की तरह
वोह शख्स मेरे सामने मुजरिम की तरह हैमैं उस के रूबरू हूं गुनाहगार की तरह
मुफ़लिस तो हूं ज़रूर बिकाऊ नहीं हूं मैंक्यों मुझको देखता है खरीदार की तरह
साफ़ था जब ज़ीस्त का शीशा तो आंखें खुश्क थींज़ीस्त के शीशे में बाल आया तो रोना आ गया
हमारी मुफ़लिसी की आबरू इसी में हैन तुझ से मैं ही कुछ मांगू न मुझ से तू मांगे
जिन जंगलों में छोड़ गई हम को ज़िदगींउन जंगलों से लौट कर कोई न घर गया
पेट के शोलों का जब आयेगा होंटों पर सवालएक रोटी से करेंगे मेरा सौदा आप भीधज्जियां जिस की उड़ा दी हैं बदलते वक्त नेदरम्यां इक दिन गिरा देंगे वोह पर्दा आप भी
सुना है आप के हाथों में इक करिश्मा हैजो हो सके तो सकूने-ए-अवाम लौटा दो
बातचीत के दम पर आओ वक्त काट लेंदोस्ती पे गुफ्तगू दोस्ती से बेहतर है
जब से खाई है कसम तुमने वफ़ादारी कीइक नये रूप का इनसान निकल आया हैजिस को दरवेश समझ बैठे थे बाज़ार के लोगवोह इसी शहर का धनवान निकल आया है
अपनी ही जगह अच्छी अपना ही मकाम अच्छाअम्बर से उतर आओ धरती पे चलो यारो
हम किसी तौर-ए-तअल्लुक के नहीं कायलजो सज़ा हम को सुनानी है सुना दी जाये
शक सा होने लगा है देख कर माहौल कोघर को शायद लूट लेना चाहते हैं घर के लोग
अब न दीवाना कोई है न कोई उठती नज़रघर का दरवाज़ा अंधेरे में खुला रहने दोमौत अपनी का तमाशा भी तो खुद देख सकेहर नई लाश की आंखों को खुला रहने दो
चंद साँसों के लिये बिकती नहीं है खुद्दारीज़िंदगीं हाथ पे रखी है उठा कर ले जा
'कंवल" ज़ियायी साहब ने, एक कलर्क का आम जीवन भी हँसते-खेलते और बड़ी शान के साथ व्यतीत किया है। उसी अल्प आय में, उन्होंने बच्चों को पाला, पढ़ाया-लिखाया और शादियां कीं। उर्दू साहित्य में आज वे जिस मकाम पर हैं, वहां तक पहुंचाने में, निश्चित ही आदरणीया श्रीमती वेदरानी दत्ता साहिबा का बड़ा हाथ रहा है, जिन्होंने 'कंवल" साहब की शायरी को, कभी 'सौत" नहीं माना और ज़िंदगीं के हर एक नरम या सख्त दौर में, एक आदर्श भारतीय नारी की तरह पति का साथ दिया और सेवा की है। उन्हीं से सुनी एक दिलचस्प घटना का ज़िक्र कर रहा हूं। एक बार किसी महफ़िल में, चंद दोस्तों ने शरारतन, 'कंवल" साहब के कपड़ों पर शराब छिड़क दी। वे दरअसल देखना चाहते थे, कि 'कंवल" साहब जब घर तशरीफ़ ले जायेंगे, तो भाभी जी उनका किस तरीके से इस्तकबाल करती हैं। वे घर पहुंचे और 'कंवल" साहब के कपड़ों से निकलती गंध नाक तक पहुंची, तो उन्होंने हंसते हुए महज़ इतना ही दरियाफ्त किया, 'यह शरारत किसने की है?'

Thursday, August 21, 2008

सवाल दर सवाल हैं हमें जवाब चाहिए+

शैलेय की कविताओं को पढ़ा जाना चाहिए, ऐसा कह कर सिफारिश करता हुआ होना नहीं चाहता - यह उनकी कविताओं का अपमान ही होगा। मैं बहुत छोटी-सी कविता पढ़ता हूं कभी, कहीं -
हताश लोगों से /बस/एक सवाल
हिमालय ऊंचा /या/बछेन्द्रीपाल ?

और अटक जाता हूं। कवि का नाम पढ़ने की भी फुर्सत नहीं देती कविता और खटाक के साथ जिस दरवाजे को खोलती है, चारों ओर से सवालों से घिरा पाता हूं। जवाब तलाशता हूं तो फिर उलझ जाता हूं। कुछ और पढ़ने का मन नहीं होता उस दिन। कविता का प्रभाव इतना गहरा कि कई दिनों तक गूंजती रहती है वे पंक्तियां। हाल ही में प्रकाशित शैलेय की कविताओं की किताब "या" हाथ लग जाती है तो पाता हूं कि पहले ही पन्ने में वही कविता मौजूद है। पढ़ता हूं और चौंकता हूं। इतने समय तक जो कविता मुझे कवि का नाम जानने का भी अवकश न देती रही, वह शैलेय की है तो सचमुच गद-गद हो उठता हूं। पर अबकी बार उस सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश खुद से नहीं करता। बस संग्रह की दूसरी कविताओं में ढूंढता हूं। उस जवाब को ढूंढते हुए ढेरों दूसरे सवालों से घेरने को तैयार बैठी शैलेय की अन्य कविताऐं मुझे फिर जकड लेती हैं। लेकिन उन सवालों से भरी कविताओं को फिर कभी। अभी तो जवाब देती कविताओं को ही यहां देने का मन है।


शैलेय 09760971225


या

हताश लोगों से
बस
एक सवाल

हिमालय ऊंचा
या
बछेन्द्रीपाल ?



पगडंडियां

भले ही
नहीं लांघ पाये हों वे
कोई पहाड़

मगर
ऊंचाइयों का इतिहास
जब भी लिखा जाएगा
शिखर पर लहराएंगी
हमेशा ही
पगडंडियां।



इतिहास

ढाई साल की मेरी बिटिया
मेरे लिखे हुए पर
कलम चला रही है
और गर्व से इठलाती
मुझे दिखा रही है

मैं अपने लिखे का बिगाड़ मानूं
या कि
नये समय का लेखा जोखा

बिटिया के लिखे को
मिटाने का मन नहीं है
और दोबारा लिखने को
अब न कागज है
न समय।



बातचीत

मोड़ के इस पार
सिर्फ इधर का दृश्य ही दिखाई दे रहा है
उस पार
सिर्फ उसी दिशा की चीजें

ठीक मोड़ पर खड़े होने पर
दृश्य
दोनों तरफ के दिखाई दे रहे हैं
किन्तु सभी कुछ धुंधला

दृश्यों के हिसाब से
जीवन बहुत छोटा
दोनों तरफ की यात्राएं कर पाना कठिन

काश !
किसी मोड़ पर
दोनों तरफ के यात्री
मिल-बैठकर कुछ बातचीत करते।


+सवाल दर सवाल हैं हमें जवाब चाहिए - एक जनगीत की पंक्ति है। अभी रचनाकार का नाम याद नहीं। संभवत: गोरख पाण्डे। कोई साथी बताए तो ठीक कर लूंगा। लेकिन गोरख पाण्डे के अलावा रचनाकार कोई दूसरा हो तो अन्य दो एक पंक्तियां और पुष्टि के लिए भी देगें तो आभारी रहूंगा। क्योंकि मेरे जेहन में गोरख पाण्डे की तस्वीर उभर रही है तो उसे दूर करने के लिए पुष्ट तो होना ही चाहूंगा।

Monday, August 18, 2008

कौन है जो तोड़ता है लय

वह कोई अकेला दिन नहीं था। हर दिनों की तरह ही एक वैसा दिन - जब सड़क के किनारे, कच्चे पर दौड़ते हुए उसका पांव लचक खा जाता था। पांवों से फूटता संगीत जो एक रिदम से उठते कदमों पर टिका होता, कुछ क्षण को थम जाता। लेकिन उस दिन संगीतमय गति में उठता उसका पांव ऐसा लचक खाया कि उसको बयां करना संभव ही नहीं। करना भी चाहूं तो ओलम्पिक में जाने वाली टीम से वंचित कर दी गई वेटलिफ्टर, मोनिका की तस्वीर उभरने लगती है। उसके रुदन के बिना बयां करना संभव भी नहीं।
जब वह दौड़ता हुआ होता तो पांव लगातार आगे पीछे होते हुए एक चक्के को घूमाती मशीन की गति से दिखाई देते। कभी दो-पहिया वाहनों की खुली मोटर देखी है - मोटर की क्रेंक भी देखी होगी। उसी क्रेंक की शाफ्ट की गति जो पिस्टन को आगे पीछे धकेलने के लिए लगातार एक लयबद्ध तरह से घूमती है। उसके घूमने में जो लय होती है और संगीत, ठीक वैसा ही संगीत उठता है - एक लम्बी रेस का धावक जब अपनी लय में दौड़ रहा होता है। क्रेंक तो दो पहिये क्या चार पहिये वाले वाहनों में भी होती ही हो शायद और यदि होती होगी तो निश्चित है उसकी शाफ्ट भी एक लय में ही घूमेगी। बिना लय के तो गति संभव ही नहीं। इंजन फोर-स्ट्रोक हो चाहे आम, डबल-स्ट्रोक।
वह भी अपने क्रेंक की शाफ्टनुमा पांवों के जोर पर दौड़ते हुए अपने शरीर को लगातार आगे बढ़ा रहा होता था - उस तय दूरी को छूने के लिए जो उसने खुद निर्धारित की होती अपने लिए - अभ्यास के वक्त। या, प्रतियोगिताओं में आयोजकों ने। लम्बी रेस का धावक था वह। लम्बी रेस के अपने ही जैसे उस धावक से प्रभावित जिसको शहर भर उसके नाम से जानता था।
सुबह चार बजे ही उठ जाता। अंधेरे-अंधेरे में। आवश्यक कार्यों को निपटा हाथों पांवों को खींच-तान कर, कंधे, गर्दन और कलाई एवं एड़ी को गोल-गोल घुमा, एक हद तक शरीर को लचकदार बनाते हुए पी सड़क के किनारे-किनारे कच्चे में उतरकर दौड़ना शुरु हो जाता। उसका छोटा भाई, जिसको नींद में डूबे रहने में बड़ा मजा आ रहा होता, उसकी यानी बड़े भाई की सनक के आगे उसे झुकना ही होता। और भाई के साथ उसे भी निकलना होता - साइकिल पर उसके साथ-साथ। वहां तक चलना होता जो धावक की तय की हुई दूरी होती। शुरु-शुरु में वही एक शागिर्द हुआ करता था जिसे उसके उन कपड़ों को, जिन्हें उतार कर वह दौड़ रहा होता या दौड़ने के कारण उत्पन्न होते ताप के साथ जिसे उतारते जाना होता, साइकिल के कैरियर में दबाकर चलना होता। अपने "खप्ति" भाई की खप्त में शरीक होने को छोटे भाई की मजबूरी मानना ठीक नही, भीतरी इच्छा भी रहती ही थी उसमें भी। कई-कई बार, जब भाई को बहुत दूर तक नहीं जाना होता और वह बता देता कि चल आज सिर्फ एक्सरसाईज करके ही आते हैं, तो उस दिन साईकिल नहीं थामनी होती। उस दिन उसे कपड़े नहीं पकड़ने होते। वह भी साथ-साथ दौड़ता हुआ ही जाता था। दौड़ना इतना आसान भी नहीं जितना वह मान लेता था - साईकिल पर चढ़े-चढ़े। उसे तो एक लम्बी दूरी तक साईकिल चला देना ही थका और ऊबा देने वाला लगता। यह ज्ञान उसे ऐसे ही क्षणों में होता। वह साईकिल पर जब खूब तेज निकलता और दौड़ता हुआ भाई पीछे रह जाता तो उसके पीछे रहने पर उसे खीझना नहीं चाहिए, ऐसे ही क्षणों में उसके भीतर भाई के प्रति कुछ कोमल-सी भावनाएं उठतीं। उस मैदान तक दौड़ते हुए, जहां एक्सरसाईज की जानी होती, उसकी सांस फूलने लगती। कई बार जब कोख में दर्द उठता तो भाई की सलाह पर नीचे झुककर दौड़ते हुए वह देखता कि पेट दर्द गायब हो चुका है। तो भी उसे दौड़कर मैदान में पहुंचना साईकिल पर चलते हुए लम्बी दूरी को तय करने से सहज और अच्छा भी लगता। कई बार तो मन ही मन तय करता कि भाई की तरह एक धावक बन जाए। पर फिर साईकिल के कैरियर पर कपड़ों को लादकर कौन जाऐगा ? उसे तो बस ऋषिकेश के नजदीक उस नटराज सिनेमा के चौराहे तक पहुंचना होता जहां तक सड़क के किनारे-किनारे कच्चे पर दौड़-दौड़ कर पहुंचा हुआ उसका भाई ढालवाला को उतरने वाली सड़क पर बनी पुलिया पर बैठकर सांस लेता था। लगभग 35-40 किलोमीटर की दूरी दौड़ कर तय करते हुए पसीने से तर धावक का बदन पारदर्शी हो जाता। पुलिया पर विश्राम करते हुए पहाड़ी हवाओं के झोंको से पसीना सूख जाने के बाद वह तपा हुआ दिखाई देता। जब तप-तपाया शरीर अपनी पारदर्शिता को भीतर छुपा लेता वह कपड़े पहनता और साईकिल पर डबलिंग करते हुए दोनों भाई वापिस घर लौट आते।
बाद-बाद में जैसे-जैसे छोटी-छोटी प्रतियोगिताओं में जीत हांसिल करते हुए बड़े भाई का नाम होता गया और नये-नये शागिर्द बनते गए, बड़े भाई के आदर्शों से भटक कर छोटा भाई अपने उस रास्ते पर निकलने लगा जो जोश-खरोश से भरा था। पर जिसमें हर वक्त खतरनाक किस्म के छूरे बाज कब्जा किए होते। वह बेखौफ उनसे भिड़ जाता था उत्तेजना और रोमांच से भरा - युवा मानस।
उस रोज जब लम्बी रेस का वह कुशल धावक, घर से सैकड़ों मील दूर दक्षिण में शायद कोयम्बटूर या कोई अन्य शहर में आयोजित प्रतियोगिता को जीत चुका था या जीतने-जीतने को रहा होगा, उसी समय या उसके आस-पास का समय रहा होगा, किसी दिन उसके छोटे भाई से सीधे-सीधे न निपट पाए एक खतरनाक छुरे बाज का चाकू छोटे भाई की पसलियों के पार उतर गया और बीच चौराहे में वह जाबांज तड़फते हुए हमेशा के लिए सो गया। एक ही दिन एक ही अखबार के अलग अलग पृष्ठों में दोनों भाईयों की खबर दुर्योग ही कही जा सकती है।
देहरादून हरिद्वार रोड़ पर वह उसी किनारे, कच्चे में उतरकर, जहां उखड़ रही सड़क की रोड़ियां भी पड़ी होती, दौड़ता हुआ नटराज सिनेमा चौराहे तक पहुंचता था जिस किनारे गढ़ निवास, मोहकमपुर में वो बिन्द्रा डेरी है जिसे आज की भाषा में फार्म हाऊस कहा जा रहा है। जी हां उस वक्त (उस वक्त क्या आज भी यदि अखबारों को छोड़ दे तो आम बोलचाल में स्थानीय निवासी) उसे बिन्द्रा डेरी के ही नाम से जानते हैं। यह अलग बात है कि भविष्य में वो डेरी भी न रहे और उसकी जगह कोई पांच सितारा खड़ा हो। अभिनव के पिता ने अपने बेटे को उसकी स्वर्ण सफलता के उपलक्ष्य में उपहार में उसे इसी रुप में भेंट करना चाहा है - अखबारों की खबरों के मुताबिक उस फार्म हाऊस पर पांच सितारा का निर्माण होगा। स्वर्ण विजेता बेटे को दिये गये उपहार में एक पिता की वो अमूल्य भेंट होगी - यह अखबारों के मार्फत है जो अभिनव बिन्द्रा के पिता का कहना है ।
वह जिस दौर में उस सड़क पर दौड़ता था बिन्द्रा डेरी उसके लिए एक रहस्य भरी जगह थी। जिसके बाहर हर वक्त चौकीदार पहरा दे रहा होता। रहस्य से पर्दा डेरी का चौकीदार उठाता जो स्थानीय लोगों की उत्सुकता के जवाब भी होते। चौकीदार की भाषा का तर्जुमा करते हुए लगाने वाले शर्त लगाते - बताओ कितनी गाएं हैं बिन्द्रा डेरी में ? और जवाब पर संतुष्ट न होने पर फिर गेट पर खड़े चौकीदार से जाकर पूछते। या फिर कितनी दूध देती है ? और कितनी इस वक्त दूध नहीं देतीं ? या, बताओ कौन से देश से खरीदकर लायी गई हैं गाएं ? इस तरह की आपसी शर्तो में गेट पर खड़े चौकीदार की भूमिका निर्णायक होती। मालूम नहीं चौकीदार भी निर्णय देने में कितना सक्षम होता पर उसकी बात पर यकीन न करने का कोई दूसरा कारण होता ही नहीं। डेनमार्क जैसे देश का नाम उस डेरी की बदौलत ही सुनकर स्थानीय लोग अपने सामान्य ज्ञान में वृद्धि करते। और पिता बच्चों से सवाल पूछते, दुनिया में सबसे ज्यादा दुग्ध उत्पादक देश कौन सा है ? बच्चे भी बिन्द्रा डेरी के वैभव और वहां की गायों के आकर्षण में सुने हुए नाम को बताते - डेनमार्क।
डेनमार्क वास्तव में किस चीज का नाम है, यदि इस तरह के बेवकूफाना सवाल कोई उनसे पूछता तो शायद मौन रहने के अलावा उनके पास कोई जवाब न होता। उनके लिए तो डेनमार्क एक शब्द था जो बिन्द्रा डेरी की जर्सी गायों के लिए कहा जा सकता था। उनकी बातचीत किंवदतियों को गढ़ रही होती - मालूम है मशीन से दूध निकाला जाता है बिन्द्रा डेरी की उन गायों का जो डेनमार्क से लायी गई हैं। ऐसी ही कोई सूचना देने वाला सबका केन्द्र होता और खुद को केन्द्र में पा वह महसूस करता मानो कोई ऐसा बहुत बड़ा रहस्य उसके हाथ लगा है जिसने उसे एक महत्वपूर्ण आदमी बना दिया। उसके द्वारा दी जा रही जानकारी पर कोई सवाल जवाब करने की हिम्मत किसी की न होती। वे तो बस फटी आंखों से ऐसे देखते मानो मशीन उनके सामने-सामने गाय को जकड़ चुकी हो और बिना हिले-डुले गाय का दूध बाल्टी में उतरता जा रहा हो। बिन्द्रा डेरी के साथ ही उतरती वो ढलान जहां से सड़क के दूसरी ओर चाय बगान को निहारा जा सकता था, उस उतरती हुई ढलान पर तो पैदल चलते हुए ही गति बढ़ जाती फिर जब दौड़ रहे हों तो पांव को लचक खाने से बचाने के लिए सचेत रहना ही होता। दुल्हन्दी नदी के पुल तक, हालांकि मात्र 100-150 मीटर का फासला होगा। दौड़ते हुए जब पुल तक पहुंचते तब कहीं समतल कहें या फिर हल्की-सी उठती हुई चढ़ाई, पांव अपनी सामान्य गति में होते।
धावक के साथ-साथ दौड़ रहे उसके शागिर्द तो, जो वैसे तो धावक ही बनना चाहते, दौड़ते हुए रुक ही जाते और पैदल चलते हुए ही पुल तक पहुंचते। कोख में दर्द उठता हो या चाय बगान का आकर्षण या फिर बिन्द्रा डेरी के भीतर झांक लेने का मोह, पर वहां पर पैदल चलना उन्हें अच्छा लगता। बिन्द्रा डेरी की डेनमार्की जर्सी गायों का आकर्षण, उनके कत्थई-लाल चमकते बदन की झलक पाने को तो हर कोई उत्सुक ही रहता। तब तक धावक उन्हें मीटरों दूर छोड़ चुका होता। रोज-रोज की दौड़ ने बिन्द्रा डेरी का आकर्षण उसके भीतर नहीं रख छोडा फिर उसका लक्ष्य तो एक धावक बनना हो चुका था। लेकिन उसके पीछे पीछे शागिर्दों की दौड़ भी जारी ही रहती। हालांकि यह तो झूठा बहाना है कि ढाल पर रुक जाने की वजह से वे लम्बी रेस के उस कुशल धावक से पीछे छूट गए। जबकि असलियत थी की उसकी गति के साथ गति मिलाकर दौड़ने की ताकत किसी में न होती। वह तो लगातार आगे ही आगे निकलते हुए एक लम्बा फासला बनाता रहता। जिस वक्त किसी प्रतियोगिता में ट्रैक पर दौड़ रहा होता तो देखने वाले देखते कि वह अपने साथ दौड़ने वालों को लगभग-लगभग एक चक्कर के फासले से पीछे छोड़ चुका है जबकि अभी रेस का एक तिहाई भाग ही पूरा हुआ है। बिन्द्रा डेरी की भव्यता उस डेरी के भीतर, कभी कभार झलक के रुप में दिखाई दे जाती जो उन डेनमार्की जर्सी गायों के लाल-कत्थई रंगों में छुपी होती। गेट पर चौकीदार न होता तो, जो कि अक्सर ही होता था, डेरी के भीतर घुस उनके कत्थई रंगों को हर कोई छूना चाहता। भविष्य के उस सितारे, वर्ष 2008 के ओलम्पिक स्वर्ण विजेता की शैशव अवस्था के चित्र भी उनकी स्मृतियों में दर्ज हो ही जाते। पर जिस तरह यह मालूम नहीं किया जा सकता था कि बिन्द्रा डेरी मे कितनी गाएं हैं ? कितनी दूध देती हैं ? और कितना देती हैं ? दूध मशीनों से निकाला जाता है या फिर उनको दूहने वाले भी कारिदें है ? ज्यादातर किस रंग की है ? और उनमें जर्सी कितनी और देशी कितनी ? या, देशी हैं भी या नहीं ? ठीक उसी तरह सड़क के बाहर से गुजर जाने वाला कैसे जान लेता कि भविष्य का सितारा इसी चार दीवारी के भीतर अभी अपनी शैशव अवस्था में है और अपनी मां की गोद से उछलकर कहीं निशाना साधने को लालायित। उसके बचपन के उन चित्रों को भी तो, जिन्हें स्थानीय अखबारों ने बड़े अच्छे से प्रस्तुत किया कि कैसे किसी कारिंदे के सिर पर रखी बोतल में वह निशाना साधता था, बाहर सड़क से गुजरते हुए या रुक कर भी नहीं देखा जा सकता था।
उसी बिन्द्रा डेरी से उतरती गई ढाल पर उस मनहूस दिन उसका पांव लचका। वह लचकना कोई आम दिनों की तरह लचकना नहीं था। अन्तर्राज्यीय प्रतियोगिताओं में जीतने के बाद उस समय वह राष्ट्रीय टीम के चयन कैम्प की तैयारी में व्यस्त था। क्या मजाल किसी शागिर्द की जो उस समय उसके साथ दौड़ने का अभ्यास भी करे। वह तो सरपट निकल जाएगा मीलों मील। उसे तो अपने ट्रैक समय को कम से कम करना था। अपने रिकार्ड को हर सैकण्ड के दसवे हिस्से तक कम करने में उसे मालूम था कि गति में जरा भी विचलन नहीं होना चाहिए। सड़क किनारे के ऊबड़-खाबड़ कच्चेपन की क्या मजाल जो उसकी गति में बाधा पहुंचा सके। लगातार एक लय में दौड़ते उसके पांवों की पिण्डलियों के चित्र खींचे जा सकते तो बताया जा सकता कि उनमें कैसी कैसी तो लहर उठती थी जब पांव उठा हुआ होता और दूसरे ही क्षण जब जमीन में लौटकर फिर उठ रहा होता था।
उस दिन पैर मुड़ा तो मुड़ा का मुड़ा ही रह गया। एक दबी-दबी सी चीख उसके मुंह से निकली और वह पांव पकड़ कर बिन्द्रा डेरी की चार दीवारी के बाहर उगी घास पर बैठा रहा। वह चीख ऐसी नहीं थी कि साईकिल में साथ-साथ चल रहा शागिर्द भी सुन पाता। वह तो अपनी साईकिल पर तराना गाता हुआ, चाय बगान को निहारता हुआ और कभी पैण्डलों के सहारे उचक कर बिन्द्रा डेरी के भीतर झांकता हुआ, अपनी ही धुन में चलता रहा। काफी आगे निकल जाने के बाद, लक्ष्मण सिद्ध के मोड़ तक, जब उसने पीछे घूम कर देखा तो धावक दिखाई न दिया। कुछ देर रुक कर उसने धावक का इंतजार करना चाहा। हालांकि वह जान रहा था कि रुकने का मतलब अपने को धोखा देना है। क्योंकि ऐसा संभव ही नहीं कि दूर-दूर तक भी वह दिखायी न दे। अपने ऊपर अविश्वास करने का यद्यपि कोई कारण नहीं था पर एक क्षण को तो ख्याल उसके भीतर आया ही होगा कि कहीं आगे ही तो नहीं निकल गया। यदि साईकिल को मरियल चाल से चला रहा होता या क्षण भर को भी वह बीच में कहीं रुका होता तो निश्चित ही था कि पीछे लौटने की बजाय आगे ही बढ़ा होतां पर उसे अपने पर यकीन था और अपनी आंखों पर भी। रेलवे क्रासिंग को पार करते हुए ही उसने अपनी साईकिल तेजी से दौड़ा दी थी। क्यों कि गाड़ी के गुजरने का सिगनल हो चुका था और रेलवे का चौकीदार ऊपर उठे हुए उन डण्डों को नीचे गिराने जा रहा था जिसके बाद इधर वालों को इधर और उधर वालों को उधर ही रुक जाना था। उसके पांव पैण्डल थे जो तेज चल सकते थे।
लम्बी रेस के धावक के लिए अपनी गति को कभी ज्यादा और कभी कम नहीं करना होता, उसे तो बस एक लय से दौड़ना होता। गति बढ़ेगी भी ऐसे जैसे संगीत के सुर उठते हैं। यूं तो गति नीचे गिराने का मतलब है पिछड़ जाना तो भी यदि कभी उसमें परिवर्तन करना भी पड़ जाए तो वैसे ही - एक लय में।
वैसे दौड़ का मतलब ही अपने आप में प्रतियोगिता है ओर प्रतियोगिता में गति का कम होते जाना मतलब बाहर होते जाना है। उसमें तो गति को बढ़ना ही है बस। लिहाजा धावक भी फाटक के गिरने से पहले ही पार हो जाना चाहता था। उसकी गति जो बढ़ी तो नीचे उतरने का सवाल ही नहीं था। तय था कि जिस गति को वह पकड़ चुका है यदि रेस पूरी कर पाया तो अभी तक के अपने रिकार्डो को ध्वस्त कर देगा ओर यहीं से उसके भीतर यह आत्मविश्वास भी पैदा होना था कि उसकी क्षमता इस गति पर भी दौड़ सकने की है। फिर तो क्या मजाल की वह नीचे गति में दौड़े। अपनी गति को परखते हुए हर धावक अपनी क्षमताओं को विकसित करने की ओर ऐसे ही अग्रसर होता है। धावक ही क्यों एक निशानेबाज भी। जैसे अभिनव बिन्द्रा हुआ होगा और एक वेट लिफटर भी, जैसे मोनिका ने किया होगा। चूंकि उस दिन की गति और दिनों की अपेक्षा कुछ ज्यादा ही थी लिहाजा संभल कर दौड़ने की भी और ज्यादा जरुरत थी।
शागिर्द, जो अपनी साईकिल में चढ़ा-चढ़ा ही आगे निकल गया था वापिस लौटने लगा। बिन्द्रा डेरी की चारदीवारी के बाहर ही घास पर बैठा वह अपने पांव को पकड़े था। डेरी का चौकीदार अपनी पहरेदारी में मुस्तैद। वह अकेला था। पांव को मलासता हुआ। पांव के जोर पर खड़ा न हो पाने के कारण असहाय सा बैठा वह धावक शागिर्द को लौटते देख अपने भीतर नई ऊर्जा को महसूस करते हुए उठने उठने को हुआ तभी एक जोर की चीख के साथ उसे वही बैठ जाना पड़ा। टखना फूल गया था। एक गोला सा बना हुआ था। पांव जमीन पर रखते ही लचक मार जा रहा था। जैसे तो कैसे शर्गिद ने उसे सहारा देकर साईकिल में आगे डण्डे पर बैठाया और घर तक पहुंचा। लम्बे इलाज के बाद भी पांव ठीक होने-होने का न हुआ। कैम्प की तारीख निकलती जा रही थी। न जाने कितने दिन बिस्तर पर लेटे रहना था। जब उसे डाक्टर के पास ले जाया जाता तो वह डाक्टर से मिन्नते करता कि कैसे भी उसे बस चालू हालत में पहुंचा दो डॉक्टर सहाब। मिले हुए मौके को वह गंवाना नहीं चाहता था। डॉक्टर भी क्या करता। सिर्फ दिलासा देने के।
अरे जीवन में बहुत मौके आएगें दोस्त। अभी तुम आराम करो।
उसका वश चलता तो वह डॉक्टर की सलाहों को ताक पर रख कैम्प के लिए निकल जाता पर कम्बख्त पांव शरीर का बोझ उठाने के काबिल ही न हुआ और कैम्प में जाने का समय निकल गया। उस दिन वह सचमुच जार-जार रोया। ऐसा, जैसा लोगों ने इसी ओलम्पिक में शामिल न हो पाई पूर्वोत्तर की भरात्तोलक को रोते हुए देखा होगा, पहले टैस्ट के दौरान जिसे डोव टैस्ट में पाजिटिव पाए जाने के कारण टीम में शामिल होने से वंचित होना पड़। । उसकी चीखती आवाजें सुनने वाला उस वक्त कोई न था। वह जान रही थी कि एक साजिश रची जा रही है उसके विरुद्ध। उसका सरे आम ऐसा कहना कि मुझे गोली मार देना यदि मैं ड्रगिस्ट पायी गई तो, यूंही नहीं था। तकनीकी तरह से अयोग्य घोषित करके उसे टीम से बाहर किया जा रहा है - वह अपने दूसरे ओर तीसरे टेस्ट की प्रतीक्षा नहीं कर सकती थी। पर फिर भी ऐसा करना उसकी मजबूरी थी और जब बाकी के टेस्टों में वह सचमुच नैगेटिव पायी गई तब तक आला कमानों की टीम, जो उसको टीम में शामिल करने न करने का फैसला जेब में लिए घूम रहे थे, ओलम्पिक मशाल को जलाने पहुंच चुके थे।
बस वैसे ही रोया था वह भी उस दिन। उसके जीवन का वह पहला रोना था। उसकी मायूसी में उसके रोने को साथ वाले महसूस कर सकते थे। उसके पास तो कहने को भी काई ऐसा आधार न था कि उसके विरुद्ध कोई साजिश हुई। वह तो बस सड़क में बहुत पतले तल्ले वाले जूते में दौड़ते हुए लचक गया था। कहने को पांव ठीक हो गया पर वो ही जानता था कि अब दौड़ पाना उसके लिए संभव न रहा और धीरे-धीरे वह अपने शागिर्दों से भी प्रतियोगिताओं में पिछड़ने लगा।

Saturday, August 16, 2008

हर जाड़े में शिखर लेटेंगे बर्फ की चादरें ओढ़कर

समकालीन कविता के मह्त्वपूर्ण कवि अनूप सेठी मुंबई में रहते हैं। लेकिन उनके भीतर डोलता पहाड उन्हें हर वक्त बेचैन किए रहता है। जगत में मेला उनकी कविताओं का संग्रह इस बात का गवाह है। यहां प्रस्तुत कविताऎं कवि से प्राप्त हुई है। इन कविताओं के साथ कवि अनूप सेठी का स्वागत और आभार।
अनूप सेठी 098206 96684

अशांत भी नहीं है कस्बा

एक

आएगी सीढ़ियों से धूप
बंद द्वार देख के लौट जाएगी
खिड़की में हवा हिलेगी
सिहरेगा नहीं रोम कोई
पर्दों को छेड़कर उड़ जाएगी
पहाड़ी मोड़ों को चढ़कर रुकेंगी बसें
टकटकी लगा के देखेगी नहीं कोई आंख

हर जाड़े में शिखर लेटेंगे
बर्फ की चादरें ओढ़कर
पेड़ गाढ़े हरे पत्तों को लपेटकर
बैठे रहेंगे घास पर गुमसुम
चट्टानों पर पानी तानकर
ढोल मंजीरे बजाती
गुजर जाएगी बरसाती नदी

ढलान पर टिमटिमाता
पहाड़ी कस्बा सोएगा रोज रात
सैलानी दो चार दिन रुकेंगे
अलसाए बाजार में टहलती रहेगी जिंदगी

सफेद फाहों में चाहे धसक जाए चांद
चांदनी टीवी एंटीनों पर बिसूरती रहेगी
मकानों के बीच नए मकानों को जगह देकर
सिहरती हुई सिमट जाएगी हवा चुपचाप
किसी को खबर भी नहीं होगी
बंद देख के द्वार
लौट जाती है धूप सीढ़ियों से

दो

जिले के दफ्तर नौकरियां बजाते रहेंगे
कागजों पर आंकड़ों में खुशहाल होगा जिला
आसपास के गांवों से आकर
कुछ लोग कचहरियों में बैठे रहेंगे दिनों दिन
कुछ बजाजों से कपड़ा खरीदेंगे
लौटते हुए गोभी का फूल ले जाएंगे

कुछ सुबह सुबह आ पंहुचेंगे
धीरे धीरे नए बन रहे मकानों में काम शुरू हो जाएगा
अस्पताल बहुत व्यस्त रहेगा दिन भर
आखिरी बसें ठसाठस भरी हुई निकलेंगी

कुछ देर पीछे हाथ बांध के टहलेगा
सेवानिवृत्त नौकरशाह की तरह
फिर घरों में बंद हो जाएगा कस्बा
किसी को पता भी नहीं चलेगा
मिमियाएंगी इच्छाएं कुछ देर
बंद संदूकों से निकल के
रजाइयों की पुरानी गंध के अंधेरे में दब जाएंगी

बंजारिन धूप अकेली
स्कूल के आहातों खेतों और गोशालाओं में झांकेगी
मकानों की घुटन से चीड़ के जले जंगलों से भागी
लावारिस लुटी हुई हवा
सड़क किनारे खड़ी रहेगी
न कोई पूछेगा न बतलाएगा
धरती के गोले पर कहां है कस्बा

बस्ता उठाके कुछ साल
लड़के स्कूल में धूल उड़ाते रहेंगे
इन्हीं सालों में तय हो जाएंगी
अगले चालीस पचास सालों की तकदीरें

कुछ को सरकार बागवानी सिखाएगी
कुछ खस्सी हो जाएंगे सरकारी सेवा में
कुछ फौज से बूढ़े होकर लौटेंगे
कुछ टुच्चे बनिए बनेंगे

कुछ कई कुछ बनते कुछ नहीं रहेंगे
कुछ बसों में बैठकर मोड़ों से ओझल हो जाएंगे
न भूलेंगे न लौट पाएंगे
धूल उड़ाते हुए तकरीबन हर कोई सीखेगा
दाल भात खाके डकार लेना
सोना और मगन रहना
कोई न पहचानेगा न पाएगा
पर्वतों का सीना बरसाती नदी का उद्दाम वेग
सूरज का ताप हवा की तकलीफ
द्वारों पर ताले जड़े रहेंगे
दिल दिमाग ठस्स पड़े रहेंगे

अपनी ही खुमारी में अपना ही प्यार
कस्बे को चाट जाएगा
खबरों में भी नहीं आएगा कस्बा
और बेखबर घूमता रहेगा दुनिया का गोला  (1988)

भूमंडलीकरण

अंतरिक्ष से घूर रहे हैं उपग्रह
अदृश्य किरणें गोद रही हैं धरती का माथा
झुरझुरी से अपने में सिकुड़ रही है
धरती की काया
घूम रही है गोल गोल बहुत तेज

कुछ लोग टहलने निकल पड़े हैं
आकाशगंगा की अबूझ रोशनी में चमकते
सिर के बालों में अंगुलियां फिरा रहे हैं हौले हौले

कुछ लोग थरथराते हुए भटक रहे हैं
खेतों में कोई नहीं है
दीवारों छतों के अंदर कोई नहीं है

इंसान पशु पक्षी
हवा पानी हरियाली को
सूखने डाल दिया गया है
खाल खींच कर

मैदान पहाड़ गङ्ढे
तमाम चमारवाड़ा बने पड़े हैं

फिर भी सुकून से चल रहा है
दुनिया का कारोबार

एक बच्चा बार बार
धरती को भींचने की कोशिश कर रहा है
उसे पेशाब लगा है
निकल नहीं रहा

एक बूढ़े का कंठ सूख रहा है
कांटे चुभ रहे हैं
पृथ्वी की फिरकी बार बार फैंकती है उसे
खारे सागर के किनारे

अंतरिक्ष के टहलुए
अंगुलियां चटकाते हैं
अच्छी है दृश्य की शुरुआत l(1993)

Wednesday, August 13, 2008

कविता क्रिकेट की गेंद नहीं

विजय गौड

एक कवि और एक क्रिकेट खिलाड़ी में फर्क होता है और यह फर्क होना भी चाहिए। क्रिकेट बाजारवादी प्रवृत्तियों का रोमांचकारी प्रतीक है। दुनिया के दूसरे खेल भी बाजार के लिए अपने तरह से स्पेश छोड़ते, अपनी-अपनी स्थितियों के कारण, कमोबेश वैसे ही हैं जैसा क्रिकेट। लेकिन स्पेश की दृष्टि से क्रिकेट तो हर क्षण विज्ञापन परोसने का एक खुला मैदान बनाता है। बावजूद इसके कह सकते हैं कि क्रिकेट के विरोध में जब हम बहुधा दूसरे खेलों को बढ़ावा देने की वकालत कर रहे होते हैं तो उस वक्त एक बड़ी पूंजी के खिलाफ छोटी (पिछड़ती जा रही) पूंजी की स्वतंत्रता को स्थापित करने के लिए ही बात कर रहे होते हैं। योरोप में बड़ी पूंजी का खेल क्रिकेट से इतर फुटबाल में दिखायी देता है। क्रिकेट के खिलाफ अन्य खेलों के प्रति हमारी पक्षधरता लोकतांत्रिक पूंजीवादी दुनिया की स्थापना के लिए एक प्रयास ही होता है। खेलो के भीतर छिपा वह तत्व जो पक्ष और प्रतिपक्ष को एक दूसरे के विरुद्ध रणनीति और कार्यनीति बनाने वाला होता है, उसी में छुपी होती है रोमांचकता और उसी रोमांच के बीच बहुत चुपके से बैठ जाने वाला बाजार (पूंजी ) उसे उत्तेजक बना देता है। बाजार का बाजारुपन हर चीज के बिकाऊपन के साथ झट से हावी हो जाना चाहता है और रोमांच के क्षणों को इतनी तेजी से उत्तेजना में बदल देता है कि दर्शक भी खिलाड़ी में तब्दील होने लगते हैं। इधर सटोरियों की चांदी और उधर - घूमते हुए बल्ले के साथ एक साधारण से व्यक्ति का नायक बनते जाना दर्शकों के बीच से ही अच्छे खिलाड़ियों की संभावना का वह प्रस्थान बिन्दू है जो आरम्भ में ही बहुत छोटे-छोटे बच्चों की भ्रष्ट स्कूलिंग के साथ होता है।

क्रिकेट में उत्तेजना के क्षणों की यह आकस्मिकता इतनी आक्रामक होती है कि रोमांचक क्षण पल भर में ही परदे से दूर हट जाते हैं। उत्तेजना के चरम को हिंसा में तबदील करने वाला बाजार इतना चिढ़ाऊ होता है कि हार के बावजूद बेशर्म चेहरों के साथ उत्पाद की मार्केटिंग करने वाले नायक खलनायक में बदल जाते हैं और प्रशंसकों की नाराजगी बेजुबान चीजों पर कहर ढााती है। वरचुल उपस्थिति के साथ बार बार एक नये उत्पाद को खिलखिलाते चेहरे वाले उनके नायक, नायक नहीं रह पा रहे होते है। उनसे सीधे संवाद न कर पाता भविष्य का संभावित खिलाड़ी-दर्शक आदर्श का जो पाठ पढ़ रहा होता है उसमें पूंजी की महिमा का गीत उसकी नसों में नशा बन कर बहने लगता है। पैसा ही सब कुछ है, ऐसे आदर्शो का ललचाऊ आकर्षण उनके मानस को बहुत कम उम्र में ही विकृत बनाने वाला होता है। विकृति का खास कारण वह उम्र ही होती है जब स्थितियों के विश्लेषण की कोई उछल-कूद उस मस्तिष्क में हो ही नहीं सकती। यदि अपने आस-पास देखें तो पायेगें कि बचपन के सारे क्रिकेटर यदि क्रिकेट मैदान के बहुत नामी खिलाड़ी नहीं बन पाये तो दुनिया के दूसरेे मैदानों में उनके चौके-छककों को रोकने वाला विधान उनके हुनर के आगे अपाहिज सा नजर आता है। उनकी कलाइयों के जौहर से सरक गयी गेंद को ताकने के सिवा, किसी के भी पास काई दूसरा रास्ता नहीं।

वे बुजुर्ग जो जमाने के उस ठंडेपन के दौर में क्रिकेट के दीवाने रहे और आज भी उसके प्रति वैसा ही अनुराग रखते है, इस तरह के आरोपों से बरी हो जाते हैं। उनके दौर का क्रिकेट भी दूसरे अन्य क्षेत्रों के आदर्श से खड़ी बांडरी के ऊपर से गेंद बाहर फेंकने की ताकत हांसिल न कर पाया था। आज के दौर का क्रिकेट इसीलिए अपने मूल्य स्थापनाओं में उस दौर के क्रिकेट से नितांत भिन्न है। पांच-पांच दिनों तक धूप-ताप में तपने वाले खिलाड़ियों के बहते पसीने के चित्र यूं तो उपलब्ध न थे पर कानों पर कान सटाकर सुनी जा रही कमेंटरियों में उनका जिक्र पिचके हुए गाल वाले खिलाड़ियों की तस्वीर ही कल्पना में गढ़ रहा होता था। बाजार भी उस वक्त इतना बदमिजाज न हुआ था, होने-होने को था। आज उसके बरक्स जो एक दिवसीय से लेकर कुछ घंटों के उत्तेजक मंजर वाला लोकप्रिय क्रिकेट दिखायी दे रहा है, उसी बाजार की फटाफट जरुरत है। फटाफट ऐसा कि फटाफट होता रहे। हर क्षण खबर को अप-डेट करता हुआ भी। यह नहीं कि साल भर में सिर्फ कोई एक तय श्रृंखला के लिए ही खबरनवीश इंतजार करते रहें। अपने कल्पनालोक के दौर में डूबे आज भी कुछ बूढे ऐसे हैं जो क्रिकेट के प्रति इस मान्यता से असमर्थ होंगे। वे युवा जो उस फटाफट के कायल है उनकी असहमति तो जमाने के साथ है। लेकिन असहमति की भाषा को सुनते हुए यदि संयम न खोए तो इस फर्क को अलग-अलग रख पाने का जरुरी काम संभव है। वरना सिर्फ और सिर्फ अराजकता में आलोचना करते हुए अटैक करते नजर आने का खतरा दिखाने वाले ज्यादा मुखर हो जाते हैं। फिर तो क्या तर्क और क्या कुतर्क। एक संयत आलोचना की जिम्मेदारी है कि वे जमाने के बदलते हुए आदर्श को परिभाषित करते हुए ही खिलाड़ी के उन तमाम सॉटस की व्याख्या करे जो अपनी कलात्मकता के साथ भी खूबसूरत खेल के प्रदर्शन हैं या फिर सटोरियों के हिसाब से खेले गये किसी सॉट के प्ार्याय हैं। एक सॉट मतलब एक लाख् रुपये या भविष्य में एक करोड़ भी हो तो कोई आश्चर्य नहीं।

यहां हम कवि और क्रिकेटर के बीच के अन्तर पर बात करना चाहते थे। क्रिकेट की बाजारु प्रव्रत्ति के कारण भी और अन्तर्निहित पक्ष-प्रतिपक्ष की रणनीति के कारण भी क्रिकेट एक कवि के मानस के अनुरूप नहीं। फ़िर जब एक कवि भी क्रिकेटर नजर आये तो माना जा सकता है कि कवि जमाने के चालाकियों से पका और उसी में इतना रमा है कि हर क्षण अपने अर्जित हुनर से पाठक को चौंका रहा है। पाठक उसका प्रशंसक है, ऐसा जानते हुए भी वह प्रतिद्वंद्वी की तरह उस पर अपनी कविताओं के प्रहार करता है। और कविताओं से असहमति दर्ज करने वाले पाठक के विरुद्ध बार-बार चीख-चीख कर उसके आऊट होने की अपील इम्पायरनुमा उन आलोचक की ओर निगाहों को उठकार करता है जो अपने निर्णायक फैसलों में उसके पक्ष में दिखायी देते हैं। वे बताते हैं कि कवि की हर पंक्ति उन अंधेरे कोनो की पड़ताल है जिसमें एक ऐसा "डिस्कोर्स" है जो जनतांत्रिक स्थापनाओं के लिए एक माहौल रचता है। या ऎसा ही कोई और भारी भरकम आशयों से भरा वक्तव्य। उनके आशय की पड़ताल क्रिकेट की भाषा में करें तो कहा जा सकता है कि कवि एक अच्छा बॉलर है जो अपने पाठक को अपना प्रशंसक बनाये रखने के लिए ठीक वैसे ही चौंका रहा है जैसे एक खिलाड़ी-बॉलर अपने प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ी-बैट्समैन को छकाने के लिए ही अज्रित की गई कुशलता का प्रयोग करता है। या कई बार एक बैट्समैन की भूमिका में होता हुआ अपने प्रतिपक्ष में खड़े हो चुके बॉलर पर। कई बार बैट्समैन कवि, यह जानते हुए भी कि क्या गलत है और क्या सही, वह अपने अभ्यास की कुशलता से उन गेंदों को, जो उसकी रचना की आलोचना के रुप में होती है, बिना टच किये ही यूंही निकल जाने दे रहा होता है। उसकी बैटिंग की इस खूबसूरती का बयान भी ढेरों कमेंटरेटर अपने अपने अनुबंधित चैनलों पर उसके नये से नये सॉट का रिपले दिखा-दिखा कर ही करते हैं। वे उसके उन सॉट्स के जिक्र न कर पाने के इस अवकाश के साथ होते है कि देखो अभी कितना खूबसूरत सॉट खेला गया। कितनी कलात्मकता है उसके इस नये सॉट में। बेवजह अटैक करने वाले पाठक तो एक खास मानसिकता से ग्रसित हैं। उनकी समझदारी में ही है गड़गड़ जो उसकी रचनाओं से ऐसे अनाप-शनाप अर्थ निकाल रहे हैं। जबकि बल्लेबाज कवि को तो देखो जो पहले के तमाम उन बल्ले बाजों, जो ऐसे ही सॉटों के लिए जाने जाते रहे, उनसे बहुत आगे निकल रहा है अपने हर सॉट में। तथ्यात्मक आंकड़ों की यह बाजीगरी कई बार एक कवि को भी क्रिकेटर बना दे रही होती है।

Monday, August 11, 2008

सिर्फ़ एक प्राथमिक वर्णमाला

एक रचनाकार के मानस को जानने समझने के लिए रचनाकर से की गई बातचीत के अलावा कोई दूसरा प्रमाणिक और बहुत सटीक तरीका नहीं हो सकता।
ऐसे में समय में जब कला, खास तौर पर पेन्टिंग और गायन जो आज अपने सरोकारों से दूर होते हुए सिर्फ एक बिकाउ माल होती जा रही है, मानवीय मूल्यों और ऐसे ही सरोकारों से, कूंची और रंग के बल पर, अपनी कल्पनाओं को जीवन के यथार्थ के साथ जोड़ने वाले कलाकार/पेन्टर हकु शाह के साथ की गई यह बातचीत न सिर्फ हकु शाह को जानने में मद्दगार है बल्कि किसी भी कलाकार के रंग संयोजन को जानने की समझ भी देती है।
युवा रचनाकार पीयूष दईया के हम आभारी है जिन्होंने हकु शाह की इस बातचीत का हमें मुहैया कराया। हकु शाह के साथ की गई एक लम्बी बातचीत, जो एक किताब के रूप में "मानुष" शीर्षक से प्रकाशानाधीन है, का यह एक छोटा सा अंश है। पीयूष दईया महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा से प्रकाशित होने वाली साहित्यिक पत्रिका बहुचन के संस्थापक सम्पादक रहे हैं। दो वुहद ग्रंथों/पुस्तकों" "लोक" एवं "लोक का आलोक" के सम्पादन के साथ लोक कला मण्डल, उदयपुर की त्रैमासिक पत्रिका "रंगायन" का भी लम्बे समय तक सम्पादन किया। हकु शाह द्वारा लिखि चार बाल-पुस्तकों के सम्पादन के अलावा अंग्रेज़ी में लिखे उनके निबन्धों का भी हिन्दी में अनुवाद व सम्पादन किया है। अनेक शोध-परियोजनाओं पर काम करने के अलावा पीयूष कुछ संस्थानों में सलाहकार के रूप में भी अपनी सेवाएं देते रहे हैं और काव्यानुवाद पर एकाग्र पत्रिका ""तनाव"" के लिए ग्रीक के महान आधुनिक कवि कवाफ़ी की कविताओं का हिन्दी में भाषान्तर किया है।
वर्तमान में विश्व-काव्य से कुछ संचयन तैयार करने के साथ-साथ पीयूष कई अन्य योजनाओं को कार्यान्वित करने और अपने उपन्यास ""मार्ग मादरजात"" को पूरा करने में जुटे हैं।



वरिष्ठ चित्रकार , शिक्षाविद् व शीर्षस्थानीय लोकविद्याविद् हकु शाह जड़ों के स्वधर्म में जीने-सांस लेने वाले एक आत्मशैकृत व प्रतिश्रुत आचरण-पुरूष है : एक अलग मिट्टी से बनी ऐसी मनुष्यात्मा जिनकी विरल उपस्थिति का आलोक जीवन के सर्जनात्मक रास्ते को उजागर करता है गो कि हमारे समय में अब कोई उस पर चलता हुआ दिखता नहीं--विधाता ने अपने कारखाने में ऐसे प्राणी बनाना बंद कर दिये हैं , मानो। उनके सादगीभरे व्यक्तित्व में निश्छल स्वच्छता है और स्वयंमेतर के साथ मानवीय साझे की वत्सल गर्माहट। उनकी हंसमुख जिजीविषा में निरहंकारी नम्रता व लाक्षणिक सज्जनता का रूपायन है और उनका कलात्मक अन्त:करण ऋजुछन्दों में सांस लेता है। गहरा आत्मानुशासन उनका बीजकोष है।
दरअसल , हकु शाह स्वदेशी पहचान के जौहरी व मर्मवेत्ता है और वे अकादमिक धारणाओं के रूढ़ चौखटों व तथाकथित कोष्ठकों से बाहर आकर सर्जना का अपना उर्वर उपजीव्य पाते हैं। बोलचाल की वाचिक लय में विन्यस्त उनकी आवाज़ में आदमियत की ज़मीनी आस्था के जो विविधवर्णी स्वर सुनायी पड़ते हैं उनके पीछे एक ऐसा असाधारण विवेक व मजबूती है जो संसारी घमासान के ऐन बीचोंबीच अवस्थित रहते हुए भी अपने उर्वर आत्म--अपनाआपा--को सलामत रख पाने का आदर्शात्मक साक्ष्य हमारे सामने इतने सहज व चुपचाप तरह से रखता है मानो पांख-सा हल्का हो। यह एक अलग तरह की रोशनी व चेतना है जिसमें सार्वभौमिक मानवीय मूल्यों पर अडिग आग्रह--अहिंसा , प्रेम व आनन्द--का संदेश यूं उजागर है गोया उनके वजूद का शिलालेख हो जिसे बांचने का मतलब स्वावलम्बी समाज-रचना व जीवन के सहज चरितार्थन के सुंदर काव्य में खिलना व सांस लेना है।
जनवरी से जून , दो हज़ार सात के दरमियान हकु शाह के साथ उनके कृतित्व व व्यक्तित्व पर एकाग्र लगभग सत्तर घण्टों का वार्तालाप सम्पन्न हुआ था और उनके दृष्टि-परास के बहुलायामों से विन्यस्त यहां प्रस्तुत प्रगल्भ पाठ इन्हीं वार्ता-रूपों से बना है जो शीध्रप्रकाश्य पुस्तक ""मानुष"" का एक किंचित् सम्पादित हिस्सा है।
यह पाठ वत्सल (संदीप) के लिए। --पीयूष दईया ई-मेल : todaiya@gmail.


हकु शाह

एक कलाकार के सन्दर्भ में हम स्टूडियो वगैरह की बात करते हैं। मुझे यह बहुत कृत्रिम जान पड़ती है। कोई भी जगह कलाकार के लिए उचित है बशर्ते कि वह उसे पसंद हो।
चित्ररत होते समय कैनवास के बाहर के वातावरण को मैं संतोष दे देता हूं हालांकि उसमें मेरी पत्नी है , घर है , मेरा खाना व अन्य चीजें हैं। कैनवास संग शुरू करने से पहले भी मेरी यह कोशिश रहती है कि आसपास का वातावरण शान्त बना रहे हालांकि जब चित्र बना रहा होता हूं तब आजू-बाजू क्या हो रहा है उसका ज़्यादा पता नहीं रहता। असल में चित्र बनाते समय तबीअत पर आधार होने के अलावा जिस चित्र पर काम कर रहा हूं उसके अपने उभर रहे रूप पर भी बहुत कुछ तय करता है--मूड़ और रूप-स्वरूप दोनों ही। तबीअत के उतार चढाव चित्र पर किस तरह से असर करते हैं यह पता नहीं लेकिन मैं उस समय चित्र बनाता हूं जब सुबह में पांच बजे जल्दी उठ जाने से तबीअत में ताज़गी बनी रहती है हालांकि काम करते हुए वहीं चीज़ शाम को थोड़ा तकलीफ़ देने लगती है। लोग आते जाते हैं यह एक बात है, दूसरी तब जब कोई नहीं हैं और मैं काम करता हूं। तीसरी बात में यह स्वयं चित्र ही है जो मुझसे बात करता है--अकेला।
और मैं ताज़ा हूं--हालांकि तीनों बातों के सिलसिले में आधार वही बना रहता है कि चित्र कौन-सी अवस्था पर है। दरअसल किसी के आने जाने या किसी की उपस्थिति तब खलल पैदा नहीं करती जब चित्र की गति मेरे मन में तय हो ( काव्यात्मक लहज़े में कहूं तो नी ) लेकिन हां , जब चित्र बांधना हो , रूप रचने में उलझा होऊं, उस समय मैं चित्र के साथ अकेला ही खेलना पसन्द करता हूं। शायद इसलिए भी कि इन खास घड़ियों में संशय और उम्मीद दोनों ही चीज़ें अपना काम कर रही होती हैं ; पहली में यह कि चित्र में कुछ होगा कि नहीं और दूसरी यह कि कुछ होता है। दोनों ही स्थितियों में--होता है या नहीं होता है या दोनों संग--मैं मेहनत करता हूं और इसमें जिस रचनात्मक ऊर्जा व शक्ति का उपयोग होता है, उससे चित्र बनता चला जाता है।
जाहिर है ताज़गी और सुबह वाले प्रकार की भूमिका बहुत अहम है क्योंकि शाम में चित्र पर काम करते समय यह आत्म-संशय फिर दबोच लेता है--सम्भवत: थकान के चलते--कि अभी अगर चित्र को हाथ लगाया तो यह बिगड़ भी सकता है , उस समय ऐसा लगता है मानो अभी कुछ नहीं होगा ; तब इसे छोड़ देता हूं और मैं नहीं करता। सुबह होते ही चित्र अपने आप मुझे कहने लगता है--सुझाने लगता है कुछ इस तरह मानो मैं उसके वजूद को प्रकट करने का माध्यम हूं--कि ऐसे करो कि ये रंग लगाओ कि इस तरह से रेखा डालो कि इस भांति से करो--- अब इसमें अकादमिकता या पढाई-लिखाई या इस तरह की कोई चीज़ बीच में नहीं आती। दरअसल यह स्वयं चित्र है जो मुझे रंग या रेखा या अन्य चीज़ों के बारे में बराबर बताता रहता है कि फलां फलां तरह से करोगे तो ठीक रहेगा। अपने चित्र बनाने में मैं फिर उसी हिसाब से करने लगता हूं जिसमें मुझे बहुत आनन्द आता है। यही वे घड़ियां है जब चित्र अपने से बनता जाता है। जैसे कि बीते कल चित्र बनाते समय यह नहीं सोचा था कि आज ये ओढनीवाला जैसा कुछ स्वरूप औरत के पीछे आएगा ; कल लगता रहा था कि खाली रेखा डालूंगा। लेकिन आज यह स्वयं चित्र है जिसने सब बोल दिया कि मुझे न केवल पूरी रेखा डालनी है बल्कि उसमें उधर थोड़ा सफ़ेद रंग भी लगाना है जिससे बाजू वाला सफ़ेद इसका पूरक हो जाए ; यह करना अब अच्छा लग रहा है। हो सकता है मैं उतना सफल न हो पाऊं, तिस पर भी इस कैफियत में यह करने में आनन्द आ रहा है। एक बात यह है कि मेरा लोहि , मेरा रक्त चित्र में जाता है , दूसरा यह है कि मुझे शान्ति मिलती है। किसी को यह परस्पर उलटे भी लग सकते हैं मगर ऐसा होता है। मैं थकता हूं , नि:शेष होता हूं लेकिन मज़ा आता है इसमें--थकान में मज़ा , शक्ति खर्चने में मज़ा , चित्र संग होने का मज़ा। इससे मुझे उतनी ही शान्ति मिलती है जितनी किसी को अच्छी हवा में मिलती होगी बल्कि उससे कई गुना ज़्यादा।
इसीलिए चित्र बनाते समय मैं किसी भी तरह के बाहरी दबावों का शिकार नहीं बनता। जो चलता है उसमें कई चीज़ें एक साथ में चलती रहती है--अन्त:सलिल। चित्र अपने से हो रहा होता है उसमें बाहर से कुछ भी लाने का प्रयास उसे नद्गट करने जैसा है।
एक तरह से चित्र अपने से स्वयं को मेरे सम्मुख उजागर करने लगता है और मुझ संग चित्र की यह संवाद-प्रक्रिया मेरे लिए सबसे अच्छी , सबसे ऊंची चीज़ है। चित्र एकदम अपने को खिलने में ले आता है--अनपेक्षित तरह से बारम्बार--अपने अलग अलग अंग से लेकर प्रवृत्ति सहित--मैं वही करने की कोशिश करता हूं जो बन रहा चित्र बोलता है। यह समाज के संग चुनौती की भूमिका में आ जाने जैसा भी है। एक खास मायने में समाज व अन्य सब से घमासान करने जैसा भी। मान लीजिए कि अपने एक चित्र में मुझे एक मानवाकृति के सिर के बाल बनाने हैं। यह मामूली सी बात एक जटिल गुंफन में तब्दील हो सकती है क्योंकि बाल रखने न रखने या कितना रखने के विभिन्न समाजों के अपने मानक हैं जैसे बालों की चोटी बनानी चाहिए कि नहीं कि कितनी चोटियां बांधनी चाहिए कि अफ्रिकंस् सरीखी ज़्यादा चोटियां गूंथनी-बांधनी चाहिए ---ज़ाहिर है कि सिर्फ़ इस एक चीज़-मात्र से ही सब नयी नयी चीज़ें ऐसे निकलने लगती हैं कि हो सकता है कोई समझे कि बाल कम बनाने हैं और मैं ज़्यादा बना दूं या इसके उलट भी हो सकता है--यह वह खेल है जिसमें अलग अलग रूप उसी तरह प्रकट होते चले जाते हैं ( मेरे चित्रों की मानवाकृतियों को आप देख सकते हैं ) जिस तरह चित्र मुझे बताता रहता है। हर लसरका/स्ट्रोक , हर टुकड़ा/पेच , हर रेखा/लाइन चित्रफलक पर ज़रूरत के हिसाब से पड़ती है और फिर वह/वे ही अपनी जगह , अपनी दिशा तलाश लेती हैं--आप से आप। मुझे पता नहीं होता कि चित्र में क्या घटने वाला है--चित्र बनाते हुए यह विकसित होता है , पनपता है। दूसरे शब्दों में , चित्रानुभूति स्वयं में एक रास्ता है जिस पर चलते चलते आप एक चमत्कार के घटने की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं--विभिन्न रंगों , रेखाओं , जगहों/स्पेसेज़ को रचते हुए।
अपने चित्रों के सिलसिले में मुझे हमेशा यह लगता रहा है कि यह खेल के बहुत नज़दीक है--इसमें ऐसा कोई तत्व अन्तर्व्याप्त हो जाता है जो कलाकार को आनन्दित करता है। चित्र संग खेलने में मुझे गहरा आनन्द मिलता है। यह मेरे लिए एक चुनौती व प्रयोग है। यहां कभी भी कुछ भी घट सकता है लेकिन एक कसौटी कहीं नेपथ्य में बनी रहती है और वह है संवेदना संग इन्द्रियों में एक ग्राह्य खुलापन।
कई दफा ऐसा भी होता है कि संस्कारवश या फ़ैशन या चलन के चलते जो चीज़ समाज में स्वीकार्य नहीं है वही चीज़ आप चित्र में पसंद करने लगते हैं। यह मेरे लिए एक बड़ी बात है। इसे ऐसे समझे कि अपने एक चित्र की मानवाकृति के कान में मानो मैंने एक केसरिया टपका इसलिए लगा दिया है क्योंकि चित्र ने मुझे ऐसा करने के लिए कहा था। हो सकता है कि अभी के किसी प्रेक्षक को वह ठीक न जान पड़े मगर बहुत सम्भव है कि उसके या किसी और के पूरे जीवन में कभी उसे वह केसरिया टपका बहुत अच्छा लग भी जाय !
ज़रा-सा कुछ डाल कर , एक रेखा डाल कर या एक रंग लगा कर जब मैं एक रूप खड़ा करता हूं तब बहुत सम्भव है कि एक टुकड़ा , एक पैच ऐसा लग जाय कि वही मेरे लिए शाबास हो--शाबासी बन जाय कि भई अच्छा हो गया। हो सकता है कि वह टुकड़ा कान हो या शरीर के अंदर का मांस हो या पांव का एक भाग हो। वह जब बन जाता है तब औरों के लिए वह सिर्फ़ एक टुकड़ा--एक अमूर्त पैच--ही है मगर मेरे लिए पचास साल है। है तो रंग का एक टुकड़ा ही मगर यह देखना चाहिए कि उसमें जोर कितना है--- उससे पता लग जाता है---
अपने चित्रों की आकृतियों या चित्र के अन्य भागों में लगे इन पैचेस् को मैं इरादतन नहीं करता या बनाता ; वह अपने आप बन जाते हैं जिनकी नकल सम्भव नहीं ; जिनके लिए देखने वाला या समझने वाला फ़ौरन पहचान लेगा कि चित्र का यह भाग या पैच पचास साल बाद वाला है , दो साल वाला नहीं जो कि बीमार जैसा होगा-- जो शक्ति पचास साल वाले में हैं वैसा जोश ही उसमें नहीं आ पाएगा, इसीलिए नकल करने वाला भी डरेगा , उससे होगा ही नहीं ; जबकि समझने वाले के लिए यह पहचान लेना कठिन नहीं होगा कि यह काम हकुभाई का है।
हां , यह सचमुच एक रहस्यमय बात है कि अगर स्वयं मैं भी कभी वैसा ही या वही चित्र दोबारा बनाने की कोशिश करूंगा, वह वैसा नहीं बन पाएगा--सिर्फ एक बार दोबारा कुछ नहीं। रंग के टुकड़ों में , लसरको में उसका स्वभाव , उसकी मजबूती , समझ के साथ में बहती है। यह हो सकता है कि दूसरे चित्र में दूसरी चीज़ होगी , तीसरी में तीसरी--फूल जैसे होते हैं। हर नया चित्र एक नयी बात , एक नयी क्रिया होती है। नया अनुभव। नया फूल जैसे है वैसे हो जाता है यह। चित्र बनाते समय अपने हाथ को खेलने के लिए मैं खेलने दे देता हूं। अभिव्यक्ति या सौन्दर्य या जो कोई भी नाम आप उसे देना चाहे उसे विचार में लिये बिना मैं बनाता हूं हालांकि मैं नहीं जानता यह क्या है।
सम्भवत: यह अपने अभी तक के एक अनन्वेषित इलाके में दाखिल होना है--एक तरह से यह एक अपरीक्षित व अज्ञात प्रान्तर है जिसके लिए मैंने कहा कि मुझे यह पता नहीं होता कि बन रहे चित्र में आगे क्या घटेगा। सबकुछ अचानक से घटने लगता है। यह शायद उसी चीज़ का एक अन्दरूनी भाग है जिसमें एक चित्र मुझसे संवादरत होता है। अपनी पूरी इन्द्रियों सहित सक्रिय मेरे चित्रात्मक चित्त के आभ्यन्तरिक व्योम , /भीतरी स्पेस की ये घड़ियां अज्ञात से जिस तरह सम्बोधित रहती है उसमें लगता है कि मेरे काम में यह अज्ञात का तत्व चित्र के अनेकानेक रूपों में आता रहा है। हो सकता है कि यह अकादमिकता या शास्त्र या जो मैंने लिखा-बांचा है उससे नहीं आता हो बल्कि प्रकृति में , वनस्पतियों में , मानव में या कहां भी , किसी वस्तु में या मेरी पसंदीदा टेराकॉटा कृति या कसीदाकारी (कसीदा , फुलकारी या धातु का काम) में भी या हो सकता है कोई और चीज़ हो , उसमें मैं देखता होऊं/हूं। दूसरे शब्दों में , यह एक नयी धारा है , नयी शक्ति है , एक ऐसा नया व सहज प्रेरणा-स्त्रोत है जिसे मैं अपने काम में लगाने पर पाता हूं कि यह मेरे पायो के धागे हैं। सम्भवत: यह आध्यात्मिक मार्ग पर चलने जैसा है--अब यह स्त्रोत क्या है , पता नहीं ; इसकी व्याख्या नहीं कर सकता--लेकिन यह इन्द्रियां वगैरह सब के इकठ्ठेपन सहित एक तत्व है जो चीज़ों के पास जाता है और उसमें मैं देखता व इन सब संग खेलता हूं। इस दरमियान सिद्धान्त या अन्य कोई विजातीय तत्व मेरे आड़े नहीं आते।
दरअसल संस्कृति या संस्कार के जो खास मानक या रीतियां हैं उन्हें मैं बाजू में रख कर ही चित्र बनाते समय खेलता हूं--भित्ति या आधार उसी में है। मुझे लगता है कि वनस्पतियों से लेकर मानुषाकारों तक सब चित्र में के कुछ ऐसे में बदल या रूपान्तरित हो जाते हैं जिसे आप पसंद करते हैं या जो आनन्द देता है। आप उसे वहां चित्र में रखते हैं और लगता है कि यह सत्य के बहुत करीब है। एक प्रकार का सत्य जो आपको आनन्द देता है। जब चित्र में यह अवस्थित/विन्यस्त हो जाता है तब बहुत बार मैं इस संस्कृति , संस्कार के बारे में सोचता हूं लेकिन फिर इसे बाजू में रख देता हूं ताकि सिर्फ़ देख सकूं। किसी भी रचना-कृति को लेकर हमारी समझ बाह्य यथार्थ से इतनी प्रभावित व संस्कारित रहती है कि हम अक्सर बस यह सवाल करते हैं कि एक कलाकार की अभिव्यक्ति से क्या संदेश मिल रहा है , कि उस कृति में क्या सिखाया या नैरेट किया गया है , कि वह क्या बताता है , कि वह क्या उपदेश या शिक्षा देती है जबकि इसके बरक्स मुझे लगता है कि एक कलाकार जब चित्र बनाता है तब न जाने कितनी वास्तविकताओं से गुज़रते हुए अपनी रूपाविष‌॒कृति तक आ पाता है। यूं मैं कलालोचना का विरोधी नहीं हूं लेकिन किसी चित्रकृति को सामान्यीकृत सांचों में इस तरह जड़ करना कि उसमें फलां फलां जनजातीय कला से आया है या फलां तत्व लोक का है, यह मुझे गलत लगता है। हो सकता है कि उस कलाकार ने शहरी वातावरण में कुछ देखा हो जिसका उस पर असर पड़ा हो--किसी मकान की जाली या कूड़े-कचरे का , बजाय लोक तत्व के। कुछ लोग ऐसा भी मानते हैं कि जीवन व कला के बीच कोई सम्बन्ध नहीं है। जीवन से सम्बन्ध नहीं है तब समाज से भी कैसे होगा। मेरे लिए जीवन और कला एक दूसरे की पूरक है। ऐतिहासिक रूप से भी देखें। दुनिया में कला का इतिहास जिस तरह बनता गया है, जीवन का एक बहुत बड़ा भाग उसमें दिखता व उसमें से निकलता है। इसमें प्राधान्य का आग्रह किस पर--जीवन पर या कला पर--यह एक बड़ा प्रश्न है। अन्तत: यह जीवन ही है जो कला में उतरता-घटता है। कुछ लोग सामाजिक सरोकारों की बात करते हैं, कुछ नितान्त सामयिक मुद्दों की और कुछ लोग कुछ बिन्दुओं को साधारणीकृत करके उस पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं : हर कलाकार का अपना अलग संवेदनात्मक मिजाज होता है जिसके मुताबिक वह काम करता है। जब भी आप सतह की अखरोट फोड़ कर उसमें झांकेंगे, आपको कलाकार का जीवन उसके अपने काम में नज़र आएगा। हर कलाकार व व्यक्ति और इसीलिए समाज व संसार भी अपने लिए एक ऐसा अवकाश , एक ऐसी स्पेस चाहता है जहां वह स्वयं के प्रति सच्चा हो सके : इसका एक आयाम उस स्वातन्त्रय-बोध का भी है जिसकी अनुपस्थिति में अपने होने के स्वधर्म की पहचान व उसका चरितार्थन सम्भव नहीं।
मेरा खयाल है कि एक खास तरह की शक्ति है , कह सकते हैं कि आत्मा--जीव है रूप में--जो मुझे वनस्पतियों से , या किसी वस्तु से या मनुद्गय से या अ-ज्ञेय से संलग्न करता , जोड़ता है और अपने को मिलने वाले जिस आनन्द की बात मैं कर रहा था वह इस संलग्नता का चरितार्थ होना है। ऐसा नहीं है कि मैं किसी वस्तु को जैसे ही देखता हूं उसे समझने की कोशिश में लग जाता हूं बल्कि इसे देखने मात्र से ही मैं इसके रंग में रंग जाता हूं। स्वयं को बेहतर और बेहतर होता हुआ महसूस करता हूं। हो सकता है कि आज मैं एक पन्ना लिखूं और शायद कल कुछ और। यह मुझे एक ऐसा आनन्द देता है जो सारे समय , पल-छिन बह रहा है और लभ्य है। चित्र बनाते समय यही सब चीज़ें नये नये रूप ले लेती हैं। मैं शायद यह कह सकता हूं कि चित्र बनाने का आनन्द स्वयं उस चित्र में प्रवाहित होने लगता है--यह पूरी प्रक्रिया की रग रग में फैलता है। यही वह चीज़ है जो उस चित्र में जोच्च पैदा करती है।
संसारभर में अपनी पसंदीदा कलाकृतियों को देखते हुए लगता है उनमें एक जोश है जिसे मेरे गुरू के। जी। सुब्रह्मण्यन "शक्ति" कहते हैं। मेरी कला-चिन्तक मित्र स्टेला क्रमरिश ब्रीद/सांस कहती थी ---। कोई चीज़ है जो मुझे बहुत छूती है जैसे वनस्पतियों या एक पौधे को देखता हूं जिसमें से पत्ता निकला है---। ओह ! कितनी बड़ी बात है यह--अद्भुत। मानो कोई चांद पर जाता है, उतनी ही बड़ी बात है यह , मेरे लिए। कितना विस्मयकारक है कि रचना स्वयं ही बोल देती है कि उसमें कितना जोश है। ---सान फ्रांस्सिको संग्रहालय में एक मोहरा/मास्क है जिसे देख कर मेरी आंखों से पानी निकलता रहता था--खाली मेरी आंख में से पानी निकलता रहता था। मैं वह मोहरा देखता रहता था। इतना सुंदर था वह ; जिसे मैं जीव कहता हूं।
रचना में जीव या जिसे रस कहा जाता है उसके आने की सम्भावना बराबर रहती है लेकिन यह बनाने से नहीं आता , अपने से बनता है , होता है---। जनजातीय कला-रूपों में मैं यह रस पाता हूं क्योंकि उनमें करप्शन नहीं है। मैंने यह पाया है कि जहां दूषण नहीं है वहां रूप अच्छे रहे हैं। अब दूषित-पन क्या है , यह एक सवाल है। उदाहरण के लिए छोटा उदेपुर के एक कुम्हार द्वारा बनाया हुआ टेराकॉटा का एक प्लेन--हवाई जहाज--जिसे उसने अपने देवता को अर्पित किया था , मुझे अच्छा लगा था।
लोगों द्वारा की जाने वाली वे सारी चीजें जो बिना कलुष के हैं , अच्छी है। (दूसरे तत्व दाखिल होने के बाद कलुष आ जाय यह दूसरी बात है। इसीलिए मैं लोगों से कहता हूं इन जनजातीय कला-रूपों को सुधारने मत जाइए और इनकी कभी भी कॉपी नहीं करनी चाहिए। जैसे ही कॉपी करते हैं , हम उन्हें खराब कर देते हैं। हां , अध्ययन या समझने के लिए कुछ करना बिलकुल भिन्न बात है। लेकिन इसे बदलना या इन्हें निर्देशित-संचालित करना समूची चीज़ को नद्गट कर देता है। )
जन द्वारा सृजित सहज व ऋजु रूप मुझे एक प्रकार की प्रेरणा देते हैं। जैसे घड़ा या कोठी या मिट्टी से बनाये गये अन्य रूप। दैनंदिन की ज़मीनी जिंदगी में रचे-बसे इन कला-रूपों को जब देखता हूं, मुझे लगता है कि यह फूल से हल्का प्रकाश है जिसे मैं अपने चित्रों में लाने का यत्न करता हूं। मुझे प्यार है सूर्यकिरणों में स्पन्दित कणों को देखना जब धूप सीधी पड़ती है वहां। वह आंख मुझे आनन्द देती है जिसमें सुख व दर्द के आंसू है।
दरअसल , काम करते समय आपको पानी जैसा हो जाना चाहिए।
और ज़मीन जैसा भी। ज़मीन बोलती नहीं है मगर देखे कि क्या क्या देती है , कितना कुछ। लेकिन यह एक मौन चीज़ है जो इर्द गिर्द स्पन्दित है।
ऐसा ही करने का मेरा मन करता है। कुछ भी नहीं बोले , चित्र में कुछ भी नहीं देखे फिर भी कई चीज़ देख सकते हैं। रंग में कुछ भी नहीं देखे , फिर भी कई चीज़ देख सकते हैं। रूप में कुछ भी नहीं देखे , फिर भी कई चीज़ देख सकते हैं---। यही है वह जिधर मैं जाने का प्रयास कर रहा हूं ---। जिसे मैं पाने की , रूपायित करने की कोशिश करता हूं। मैंने अब तक सैंकड़ों चित्र बनाये होंगे लेकिन हर बार बराबर यही महसूस होता रहा है मानो जो मैं कर रहा हूं वह सिर्फ़ एक प्राथमिक वर्णमाला , ककहरे की चीज़ है---।

Sunday, August 10, 2008

जो गाड़ी खींचता है उसे कहो

चिट्ठाजगत की इस दुनिया में प्रवेश करने के बाद से ही मेरा परिचय महेन से हुआ। विभिन्न अंतरालों की बातचीत में जो थोड़ा बहुत मैं महेन के बारे में जान पाया हूं कि वे जर्मन भाषा-साहित्य के छात्र रह चुके हैं। बाकी उनके ब्लाग की पोस्टों के आधर पर कह सकता हूं कि संवेदनशील हैं। और उनके बातचीत के ढंग के अधार पर कहूं तो इसमें मेरे भीतर कहीं द्वविधा नहीं कि दोस्तबाज हैं, खिलंदड हैं और अपनी जानकारी को बांटने वाले भी। कम्प्यूटर संबंधी अपनी समस्याओं के हल के रूप में मैं उन्हें याद करता हूं। अपने बारे में कुछ भी कहने से महेन हमेशा बचे है। बस, बेहद सादगी से ही जो कुछ फूटा आज तक वह यही -


अपने बारे में तो मैं कुछ कह नहीं पाऊंगा।


जर्मन भाषा पर उनकी पकड़ कैसी है, मैं इससे भी परिचित कहां हो पाया हूं। वह तो आज ऑन- लाइन था, मैंने पकड़ लिया और छेड़-खानी की तो मालूम हुआ कि ब्रेख्त को पढ़ रहे हैं महेन। जर्मन में। पढ़ ही नहीं रहे कुछ कविताओं के अनुवाद भी कर डाले हैं। मैं मचल उठा उन अनुवादों को पढ़ने के लिए।
जर्मन मूल से ब्रेखत के अनुवाद वरिष्ठ कवि विष्णु खरे ने भी किये हैं। मोहन थपलियाल द्वारा किए गये ब्रेख्त के अनुवादों की पुस्तक परिकल्पना प्रकाशन ने छापी है। उत्तरकाशी के रहने वाले एक सज्जन, नाम याद नहीं, ब्रेख्त की रचनाओं का मूल जर्मन से हिन्दी अनुवाद करते हुए एक पत्रिका भी निकालते रहे हैं। हिन्दी का पाठक जगत जिस तरह से ब्रेख्त से परिचित है, मैं भी उतने में से सीमित ही परिचित हूं। महेन के अनुवादों से मैं उन्हें और जान रहा था। महेन के अनुवाद को पढ़ते हुए मुझे लगा कि मैं शायद अनुवाद तो पढ़ ही नहीं रहा हूं। यह तो मूल है। जी हां, ऐसा ही है महेन का अनुवाद।
फरवरी 1898 में जर्मनी के बावेरिया प्रान्त के ऑगसबुर्ग कस्बे में ब्रेख्त का जन्म हुआ और अगस्त 1956 में ब्रेख्त इस दुनिया को विदा कह गए। अगस्त माह में ही महेन जैसे युवा रचनाकार ब्रेख्त को बेशक अनायास याद आ रहे हों पर इसे अनायास नहीं कहा जा सकता। दौर के हिसाब से ब्रेख्त की प्रासंगिकता को वे बखूबी जानते हैं। उनके इन अनुवादों से हिन्दी का पाठक जगत ब्रेख्त की उन बहुत सी ऐसी रचनाओं से परिचित हो पाए जो अभी तक हिन्दी में नहीं आ पाई है, इस उम्मीद और शुभकामाना के साथ यहां प्रस्तुत हैं महेन के अनुवाद जो मूल जर्मन से किए गए हैं। जर्मन मूल को भी यह ध्यान में रखते हुए प्रस्तुत किया जा रहा है कि जर्मन जानने वाले पाठक महेन की क्षमताओं पर यकीन भी कर पाए ओर उम्मीद भी।


बर्तोल ब्रेख्त

Der Radwechsel

Ich sitze am Straβenrand
der Fahrer wechselt das Rad
ich bin nicht gern, wo ich herkomme
ich bin nicht gern, wo ich hinfahre
warum sehe ich denn den Radwechsel
mit ungeduld?



पहिये का बदलना

मैं सड़क के किनारे बैठा हूँ
ड्राईवर पहिया बदल रहा है
कोई उत्साह नहीं मुझे कहाँ से आया हूँ मैं
कोई उत्साह नहीं कहाँ जाना है मुझे
क्यों देखता हूँ मैं पहिये का बदलना
इतनी उत्सुकता से?

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Als Lenin ging

Als Lenin ging, war es
als ob der Baum zu den Blätttern sagte:
ich gehe.

जब लेनिन गए

लेनिन का जाना
ऐसा था जैसे
पेड़ ने पत्तों से कहा
मैं जाता हूँ



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Sag ihm, wer den Wagen zieht

Sag ihm, wer den Wagen zieht
er wird bald sterben
sag ihm wer leben wird?
der im Wagen sitzt
der Abend kommt
jetzt eine Hand voll Reis
und ein gutter Tag
ginge zu Ende

जो गाड़ी खींचता है उसे कहो

जो गाड़ी खींचता है उसे कहो
वह जल्द ही मर जाएगा
उसे कहो कौन रहेगा जीता
वह जो गाड़ी में बैठा है
शाम हो चुकी है
बस एक मुठ्ठी चावल
और एक अच्छा दिन गुज़र जाएगा

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अनुवाद - मूल जर्मन महेन

Saturday, August 9, 2008

बारिस में भीगती लड़की को देखने के बाद


विजय गौड


एक


झमाझम पड़ती
वर्षा की मोटी धारों के बीच
लड़की चुपचाप
सिर पर छाता ताने चलती है

छाते से चेहरे को
इतना ढक लेती है लड़की
कि आस-पास से गुजरने वाला
चेहरा भी न देख पाये
यह कविता १९९५ के आस पास लिखी थी.

छाते से ढकी लड़की
होती है आत्म केन्द्रित;
सड़क में बहते गंदे पानी को देख
लड़की सोचती है,
कितना फर्क है नदी और नाले में
जबकि, पानी की नियति
सिर्फ बहना ही है

चप-चप करती
चप्पल की आवाज के साथ ही
लड़की गर्दन को पीछे घुमा
देखती है कपड़ों को ;
यह ख्याल आते ही
कि कपड़े तो पूरी तरह से
गंदे हो चुके हैं
लड़की कुढ़ने लगती है

बारिस है कि लगातार
बढ़ती जा रही है
लड़की चाहे जितना कोशिश कर ले
बचने की
पर सामने से आता ट्रक
नहीं छोड़ता
लड़की को भिगोये बगैर

ऊपर से नीचे तक
पूरी तरह से भीग चुकी है लड़की
यही कारण है कि
लड़की ने छाता बंद कर लिया है

बारिस के बीच ठक-ठक करती
चल रही है लड़की

दो

चाय की चुस्कियों के बीच
लड़की का ख्याल आते ही
बाहर वर्षा की मोटी-मोटी धारें
दिखायी देने लगती है
मोटी-मोटी धारों के बीच
लड़की दौड़ रही है
घंटाघर के चारों ओर

तीन

भीगी हुई लड़की को देखने के बाद
ऐसे कितने लोग हैं
जो यह सोच पाते हैं
कि लड़की का भीगना
खतरनाक हो सकता है
उसके लिए भी
और देश के लिए भी ।

Friday, August 8, 2008

हमें गहरी उम्मीद से देखो

विज्ञान के अध्येता यादवेन्द्र जी का मुख्य काम भू-स्खलन और भूकम्प संबंधी विषय पर है। लेकिन सामाजिक बुनावट के उलझावों पर भी उतनी ही शिद्दत से सोचते हैं और उसे भी परिभाषित करने के लिए बेचैन रहते हैं। विज्ञान विषयों पर पठन-पठन के साथ-साथ सामाजिक बदलाव के साहित्य में उनकी गहरी रुचि है।
इस ब्लाग के माध्यम से हमारा अपने उन सभी साथियों से अनुरोध है जो शुद्ध रुप से साहित्य के छात्र न होते हुए साहित्य कर्म में जुटे है कि वे अपने मूल विषय को केन्द्र में रखकर समकालीन समाज की व्याख्या करते हुए ऐसी रचनाओं के साथ भी प्रस्तुत हों जो कहानी कविता से इतर अन्य विधाओं में भी उन मूल विषयों पर आधारित हो। यानी वे तमाम विषय जिनका मानवीय मूल्यों से, ऊपरी तौर पर, यूं तो कोई सरोकार दिखायी नहीं देता लेकिन जिनके प्रभाव ही समकालीन दुनिया पर बहुत गहरा असर डालते हैं, उन विषयों में कार्यरत रहते हुए हम कितना मानवीय दृष्टिकोण अपनाते हैं या उसके अपनाने में किस तरह की दितें आती हैं। हिन्दी में ऐसा लेखन बहुत ही सीमित रुप में है। यदि ब्लाग जगत में सक्रिय रचनाकार, जो भिन्न विषयों में दखल रखते हैं, इस जिम्मेदारी को समझते हुए सक्रिय हो तो इससे हिन्दी ब्लाग की एक अलग छाप भी पड़ेगी और विविधता भी बनी रहेगी जो हिन्दी पाठ्कों को आकर्षित भी करेगी।

यादवेन्द्र जी ने हमारी इस तरह की बातचीत पर यकीन दिलाया है कि वे अपने मूल विषय को ध्यान में रखकर जल्द ही कुछ ऐसा लिखेगें। इससे पहले हमारे आग्रह पर
कथाकार नवीन नैथानी, जो भौतिक शास्त्र के अध्येता हैं, ने एक छोटा सा आलेख लिखा था। यादवेन्द्र एक समर्थ रचनाकार है। उनसे ऐसे लेखन की उम्मीद करना जायज भी है। अभी प्रस्तुत है उनके द्वारा अनुदित कविताएं।


1926 में नार्वेजियन मूल के माता पिता से जन्में रॉबर्ट ब्लाई आधुनिक अमेरिकी कविता के शिखर पुरुषों में शुमार किए जाते हैं। दो वर्ष नेवी में काम किया, फिर अनेक विश्वविद्यालयों में पढ़ाया। 40 से ज्यादा काव्य संकलन प्रकाशित, विभिन्न भाषाओं के अनेक प्रसिद्ध कवियों के अंग्रेजी में अनुवाद किए - पेब्लो नेरूदा, रिल्के से लेकर फ़ारसी के कवियों के। हाफिज और रुसी तक और कबीर, मीराबाई से लेकर बंगाल के अनेक आधुनिक कवियों के अनुवाद। अंग्रजी में गजलें लिखते हैं।

1966 में वियतनाम युद्ध का विरोध करने वाले
संगठन अमेरिकन राइटर्स अगेंस्ट वियतनाम वॉर के संस्थापक। 1969 में नेशनल बुक अवार्ड से नवाजे जाने पर सम्पूर्ण पुरस्कार राशि वियतनाम युद्ध के अभियान को दान दे दी। इस अवसर पर उन्होंने कहा : "हम अमेरिकियों के पास सब कुछ है। हम अनुभूतियों भरा जीवन जीने की कामना तो करते हैं पर किसी प्रकार का कष्ट उठाकर नहीं । हम भूरापूरा जीवन।।। निरंतर विजयी होते रहना चाहते हैं। हम अपेरिकियों ने हमेशा ही कष्टों से दूर-दूर बने रहने की काशिशें की हैं।।। और इसी कारण वर्तमान से हमारा नात नजदीक का नहीं बन पाता।" अपने हाल के इंटरव्यू में राबर्ट ब्लाई ने बेबाकी से कहा कि वियतनाम युद्ध के दौरान जो बात सही थी - आज इतने वर्ष बीत जाने के बाद इराक युद्ध के दौरान भी उतनी ही सही है।

इसी फरवरी में उन्हें अमेरिका के मिनिसोटा स्टेट का पोएट नियुक्त किया गया हे। यहां प्रस्तुत है राबर्ट ब्लाई की दो कविताएं जिनमें से पहली (सवाल और जवाब) इराक युद्ध के दोरान लिखी गई युद्ध विरोधी कविताओं में अग्रणी मानी जाती है। - यादवेन्द्र।




रॉबर्ट ब्लाई


सवाल और जवाब


बताओ तो कि आजकल हम
आसपास होती घटनाओं पर चीखते क्यों नहीं
आवाज क्यों नहीं उठाते
तुमने देखा कि
इराक के बारे में योजनाएं बनाई जा रही हैं
और बर्फ की चादर पिघलने लगी है



अपने आपसे पूछता हूं: जाओ, जोर से चीखो!
यह क्या बात हुई कि जवान शरीर हो
और इसकी कोई आवाज न हो ?
बुलंद आवाज से चीखो!
देखो जवाब कौन देता है
सवाल करो और जवाब हासिल करो।

खासतौर पर हमें अपनी आवाज में दम लगाना पड़ेगा
जिससे ये फरिश्तों तक पहुंच सकें -
इन दिनों वे ऊंचा सुनने लगे हैं।
हमारे युद्धों के दौरान
खामोशी से भर दिये गए पात्रों में
गोता लगाकर गुम हो गए हैं वे।

क्या इतने सारे युद्धों के लिए अपने आपको तैयार कर चुके हैं हम
कि अब खामोशी की आदत-सी हो गई है ?
यदि हम अब भी अपनी आवाज बुलंद नहीं करेंगे
तो काई न कोई (हमारा अपना ही) हमारा घर लूट ले जाएगा।

ऐसा हो गया कि
नेरूदा, अख्मातोवा, फ्रेडरिक डगलस जैसे
महान उदघोषकों की आवाज सुनकर भी
अब हम गौरैयों जैसे झाड़ियों में दुबक कर
अपनी अपनी जान की खैर मना रहे हैं ?

कुछ विद्धानों ने हमारा जीवन महज सात दिनों का बताया है।
एक हफ्ते में हम कहां तक पहुंचते हैं ?
क्या आज भी गुरुवार ही है ?
फुर्ती दिखाओ, अपनी आवाज बुलंद करो।
रविवार देखते-देखते आ जाएगा।


ठिगनी लाशों की गिनती


आओ एक बार फिर से लाशों की गिनती करें।
यदि हम इन लाशों को छोटा कर पाते-
खोपड़ी के आकार जैसा
तो इन्हें इक्टठा करके
श्वेत धवल एक चिकना चबूतरा निर्मित कर लेते
चांदनी रातों में।
यदि हम इन लाशों को छोटा और छोटा कर पाते -
तो साल भर में किए गए शिकार को
बड़ी आसानी से सजाकर रख देते
अपने सामने पड़ी छोटी-सी मेज पर।
यदि हम इन लाशों को छोटा कर पाते -
तो नग की तरह गढ़वा लेते एक अदद शिकार
यादगार के वास्ते सदा सदा के लिए
अपनी अंगूठी में ।




अंग्रेजी से अनुवाद - यादवेन्द्र

हमें गहरी उम्मीद से देखो - कवि राजेश सकलानी की कविता की पंक्ति

Wednesday, August 6, 2008

एक रचना का कविता होना

एक साथी ब्लागर ने अपने ब्लाग पर प्रकाशित कविता के बारे में मुझसे अपनी बेबाक राय रखने को कहा. पता नहीं जो कुछ मैंने उन्हें पत्र में लिखा बेबाक था या नहीं. हा समकालीन कविता के बारे में मेरी जो समझदारी है, मैंने उसे ईमानदारी से रखने की कोशिश जरूर की. उस राय को आप सबके साथ शेयर करने को इसलिए रख रहा हूं कि इस पर आम पाठकों की भी राय मिल सके और मेरी ये राय कोई अन्तिम राय न हो बल्कि आप लोगों की राय से हम समकालीन कविताओं को समझने के लिए अपने को सम्रद्ध कर सकें.

आपने टिप्पणी देने के लिए कहा था. बंधु कविता में जो प्रसंग आया है वह निश्चित ही मार्मिक है जैसा की सभी पाठकों ने, जिन्होंने भी अपनी टिप्पणियां छोडी, कहा ही है. पर यहां इससे इतर मैं अपनी बात कहना चाह्ता हू कि किसी भी घटना का बयान रिपोर्ट और रचना में जो फ़र्क पैदा करता है, उसका अभाव खटकता है. फ़िर कविताओं के लिए तो एक खास बात, जो मेरी समझ्दारी कहती है कि वह काव्य तत्व जो भाषा को बहुआयामी बनाते हुए एक स्पेस क्रियेट करे, होने पर ही कविता पाठक के भीतर बहुत दूर तक और बहुत देर तक गूंजती रह सकती है. भाषा का ऎसा रूप ही कविता और गद्य रचना के फ़र्क को निर्धारित कर सकता है वरना तो कुछ पंक्तियों को मात्र तोड-तोड कर लिख देने को ही कविता मानने की गलती होती रहेगी. समकालीन कविताओं को समझने के लिए यह एक युक्ति हो सकती है हालांकि इसके इतर भी कई अन्य बातें है जो एक रचना को कविता बना रही होती हैं.



(इस ब्लाग को अप-डेट करने वालों में दिनेश जोशी हमारे ऐसे साथी हैं जो कहानी, कविता के साथ-साथ व्यंग्य भी लिखते हैं और यदा कदा पुस्तकों पर समीक्षात्मक टिप्पणियां भी। यहां प्रस्तुत है उनकी एक ताजा कविता।)

दिनेद्रा चन्द्र जो्शी

अंधेरी कोठरी


खरीदा महंगा अर्पाटमैन्ट बहू बेटे ने
महानगर में,
प्रमुदित थे दोनों बहुत
मां को बुलाया दूसरे बेटे के पास से
गृह प्रवेश किया,हवन पाठ करवाया।
दिखाते हुए मां को अपना घर
बहू ने कहा, मांजी सब आपके
आशीर्वाद से संभव हुआ है यह सब
इनको पढ़ा लिखा कर इस लायक बनाया आपने
वरना हमारी कहां हैसियत होती इतना मंहगा घर लेने की
मां ने गहन निर्लिप्तता से किया फ्लैट का अवलोकन
आंखों में चमक नहीं / उदासी झलकी
याद आये पति संभवत: / याद आया कस्बे का
अपना दो कमरे, रशोई,एक अंधेरी कोठरी व स्टोर वाला मकान
जहां पाले पोसे बढ़े किये चार बच्चे रिश्तेदार मेहमान
बहू ने पूछा उत्साह से ,कैसा लगा मांजी मकान !
'अच्छा है, बहुत अच्छा है बहू !
इतनी बड़ी खुली रशोई,बैठक,कमरे ,गुसलखाने कमरों के बराबर
सब कुछ तो अच्छा है ,पर इसमें तो है ही नहीं कोई अंधेरी कोठरी
जब झिड़केगा तुम्हें मर्द, कल को बेटा
दुखी होगा जब मन,जी करेगा अकेले में रोने का
तब कहां जाओगी, कहां पोछोगी आंसू और कहां से
बाहर निकलोगी गम भुला कर, जुट जाओगी कैसे फिर हंसते हुए
रोजमर्रा के काम में ।'

Tuesday, August 5, 2008

कुत्ते का काटना

पहल-89 । गीत चतुर्वेदी मेरे पसंदीदा लेखकों में से हैं। इधर तेजी से उभरे ऊर्जावान युवा रचनाकारों के बीच गीत की रचनाओं तक पहुंचना मेरी प्राथमिकता में रहता है। मुझे उनकी भाषा में समकालीन दुनिया के तनाव और उन तनाव भरी स्थितियों के कारकों के खिलाफ एक गुस्सा हमेशा प्रभावित करता है। गीत को मैं सिर्फ उनकी रचनाओं से जानता हूं, कोई व्यक्तिगत परिचय नहीं। होता तो कह सकता कि कभी-कभी कुछ असहमतियों के साथ भी रहता हूं मित्र। सतत रचनारत गीत दुनियाभर की साहित्यिक हलचलों के साथ भी जुड़े रहते हैं और हिन्दी पाठक जगत को उससे अवगत कराने के लिए भी उत्सुक रहते हैं, ऐसा उन्हें पढ़ने के कारण कह पा रहा हूं। अभी पहल का नया अंक प्रकाशित हुआ है। पहल-89 । हाल ही में कनाडा के छोटे से शहर रॉटरडम में सम्पन्न हुए कविता समारोह की एक अच्छी रिपोर्ट गीत ने तैयार की है जो पहल के इस अंक में प्रकाशित हुई है। साथ ही गीत द्वारा अनुदित अरबी मूल की कवि ईमान मर्सल की डाायरी का अनुवाद भी पहल के इसी अंक में है। युवा कवि ईमान मर्सल वर्ष 2003 में रॉटरडम कविता समारोह में आमंत्रित थी। उसी समारोह के उनकी डायरी में दर्ज अनुभवों का अनुवाद पहल ने प्रकाशित किया है। यहां प्रस्तुत है उसका एक छोटा सा हिस्सा।


ईमान मर्सल

जब मैं कॉलेज में पढ़ती थी, तब एक बार गली में कुत्ते ने मुझे काट लिया। इक्कीस दिनों तक लगातार हर सुबह मैं अल-मंसूरा अस्पताल के नर्स कार्यालय के सामने लगने वाली कतार में खड़ी रहती थी, ताकि एंटी-रैबीज इंजेक्शन ले सकूं। इंतजार करते हुए मैं अक्सर सबको एक-दूसरे से यह पूछते सुनते थी - किसने काटा ? कुत्ते, बिल्ली या घोडे ने ? यह मुझे बहुत बाद में पता लगा कि इनमें से किसी ने भी काटा हो, इंजेक्शन तो एक ही लगेगा। लेकिन यह पूछताछ इसलिए होती थी ताकि इंतजार करते हुए लोग एक-दूसरे से बात कर सकें। हर किसी की कहानी में एक अलग किस्म की नाटकीयता और अलगाव होता था। जबकि कतार से खड़े पुराने मरीज बताते थे कि जिस समय पेट में सुई लग रही हो, उस समय कैसे दर्द को संभालना चाहिए।

यहां आमंत्रित इन सारे कवियों को सुनते हुए मुझे वह दृश्य बरबस याद आता रहा। ये सारे कवि एक-दूसरे को अपना परिचय देते हुए बताते रहे थे कि उन्होंने इतने साल जेल में काटे हैं या इस-तरह की यातनाओं से गुजर चुके हैं। ऐसा नहीं कि जेल या यातना के अनुभवों को न सुना जाए या हमदर्दी न जताई जाए, बल्कि एक कवि या लेखक के तौर पर ये बातें एक किस्म की भूमिका के रूप में होती हैं, कि यह उनक लेखन के अलावा एक सकारात्मक गुण है। पच्च्चिमी संस्थाएं जब लेखकों को उनके जेल या यातना के अनुभवों के आधार पर चुनती हैं, तो उनका उद्देश्य यह बताना होता है कि फलां देश में अभिव्यक्ति स्वातंत्रय न होने की वजह से लेखक कितना असहाय है। हो सकता है कि यह उस भूमिका के प्रति एक किस्म का नकार हो, जो कि पश्चिम कुछ खास क्षेत्रों जैसे मिडिल-ईस्ट, में स्वतंत्रता को न उभरने देने में निभाता है।

अनुवाद - गीत चतुर्वेदी

Monday, August 4, 2008

अलबर्ट आइंस्टाइन का सिगमंड फ्रॉयड को लिखा एक महत्वपूर्ण पत्र

एक दौर में दिनमान, नवभारत टाइम्स, हिन्दुस्तान, कादम्बनी आदि पत्र-पत्रिकाओं में अपने विज्ञान विषयक आलेखों के कारण जाने जाने वाले यादवेन्द्र एक प्रतिबद्ध रचनाकार हैं। पिछले एक लम्बे समय से उनकी खोमोशी जिन स्थितियों पर मनन करती रही है, उसकी आवाज को हम उनके हाल ही में इधर नया ज्ञानोदय में प्रकाशित हुए नेल्सन मंडेला के पत्रों का अनुवाद एवं जनसत्ता, समयांतर, कथादेश और अहा जिन्दगी में अनेकों प्रकाशित साहित्यिक अनुवादों के रुप में देख सकते हैं। आज वैश्विक पूंजी का जो रुप सामने आया है उसने दुनिया के बाजारों पर कब्जा करने की जिस हिंसक कार्रवाई को जन्म दिया उसके खिलाफ जारी वे छोटे प्रतिरोध के बिन्दु जो इधर उधर बिखरे पड़े हैं, यादवेन्द्र पूरी शिद्दत से उन्हें एक जगह इकक्टठा करते जा रहे हैं। विज्ञान के अध्येता यादवेन्द्र इस बात को बखूबी जान रहे हैं कि विज्ञान को भी बंधक बनाकर अपने तरह से इस्तेमाल करने वाला यह तंत्र न सिर्फ सामूहिकता से भरी मानवीयता के खिलाफ है बल्कि वह एक ऐसा सांस्कृतिक वातावरण भी रच रहा है जिसमें उसकी आमानवीय कार्रवाइयां जायज ठहराई जा सके।

यादवेन्द्र जी ने हमारे आग्रह को स्वीकार करते हुए अलबर्ट आइंस्टाइन का सिगमंड फ्रॉयड को लिखा एक महत्वपूर्ण पत्र हमें अनुवाद कर मुहैया कराया है। उनके इस अनुवाद को यहां प्रकाशित करते हुए हम उनका स्वागत भी कर रहे हैं और आभार भी। आगे भी ऐसी सामाग्री, जो समय समय पर हमें उनसे प्राप्त होती रहेगी, जैसा कि उन्होंने वायदा किया है, हम प्रकाशित करते रहेगें।


आधुनिक काल के सबसे बड़े वैज्ञानिकों में से एक अलबर्ट आइंस्टाइन सजग नागरिक व चिंतक भी थे। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद और द्वितीय विश्वयुद्ध के शुरु होने से पहले "लीग ऑव नेशंस" (संयुक्त राष्ट्रसंघ का पूर्ववर्ती) द्वारा गठित विश्व भर के बुद्धिजीवियों के एक दल के नेता के तोर पर उन्होंने युद्ध के कारणों ओर मानव मन की गुत्थियों को समझने की कोशिशें कीं - उसी क्रम में विज्ञान के इस शिखर पुरुष ने मनाविज्ञान के तत्कालीन शिखर पुरुष सिगमंड फ्रॉयड को पत्र लिखकर उनकी विशेष राय जाननी चाही। दुर्भाग्य से आइंस्टाइन और फ्रॉयड का यह पत्र-व्यवहार हिटलर के सत्तासीन होने के कारण उनके जर्मनी छोड़कर चले जाने के बाद नाजी शासन द्वारा जब्त/नष्ट कर दिया गया।


अनेक दशकों बाद यह दस्तावेज जब मिला तो इसको धरोहर के तौर पर प्रतिष्ठा प्रदान की गई। यहां आज के दौर में बेहद प्रासंगिक आइंस्टाइन के इस पत्र का अनुवाद प्रस्तुत किया जा रहा है। यह पत्र ऑटो/नाथन एवं हींज नार्डेन द्वारा संपादित पुस्तक "आइंस्टाइन ऑन पीस" (शाकेन बुक्स, न्यूयार्क/1960 से उद्धृत है। ) - यादवेन्द्र

09997642661



प्रिय श्री फ्रॉयड

सत्य की तह तक जाने की आपकी ललक का मैं बड़ा प्रशंसक रहा हूं और यही ललक आपकी सोच को दिशा प्रदान करती है। आपने अदभुत बोधगम्यता के साथ हमें समझाया है कि मानव मन अनिवार्यत: जैसे प्रेम और जीवन की लालसा से संचालित होता है, वैसे ही आक्रामक और विध्वंसक प्रवृत्ति भी इसी का अविच्छिन अंग है। साथ ही साथ आपके युक्तिपूर्ण तर्क युद्ध की विभीषिका से मानव की आंतरिक और बाहरी मुक्ति के प्रति आपकी गहरी निष्ठा भी साबित करते हैं। जीसस से लेकर गोथे और कांट तक नैतिक और धार्मिक नेताओं की ऐसी अटूट परम्परा रही है जो अपने काल और स्थान की सीमा का अतिक्रमण कर ऐसी ही गहरी आस्था की धारा प्रवाहित करते रहे हैं। यह बात कितनी महत्वपूर्ण है कि पूरी दुनिया ने ऐसे सभी व्यक्तियों को अपना नेता स्वीकार किया जबकि मानव इतिहास की धारा बदल देने की उनकी कामना असरहीन ही रही। हमारे चारों ओर ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं जहां राष्ट्रों का भाग्य निर्धारित करने वाले सभी कामकाजी औजार पूरी तरह से गैर जिम्मेदार राजनैतिक नेताओं के हाथें में अनिवार्य तौर पर निहित हैं।


राजनैतिक नेता और सरकारें बल प्रयोग से या आम चुनाव के जरिए शक्ति प्राप्त करते हैं पर राष्ट्र के नैतिक या बौद्धिक स्वरूप में इस शक्ति को श्रेष्ठता का प्रतीक नहीं माना जा सकता। हमारे समय में बुद्धिजीवी वर्ग विश्व के इतिहास पर किसी तरह को प्रत्यक्ष प्रभाव डालने की स्थिति में नहीं है - ये इतने अलग-अलग हिस्सों में बंटे हुए हैं कि आज की समस्याओं का समाधान ढूंढने के लिए भी इनमें आपसी सहयोग मुमकिन नहीं। आप मेरी इस बात से सहमत होगें कि दुनिया के अलग भागों में काम और उपलब्धियों के तौर पर अपनी योग्यता और विश्वसनीयता प्रमाणित कर चुके लोगों का एक खुला मंच बनाकर परिवर्तन की मुहिम शुरु की जानी चाहिए। इस अंतराष्ट्रीय समूह के बीच विचारों का आदान-प्रदान निरंतर चलता रहेगा जो राजनैतिक समस्याओं पर निर्णायक प्रभाव डाल सकता है। बशर्ते सभी सदस्यों के हस्ताक्षरयुक्त वक्तव्य अखबारों में प्रकाशित किये जाऐं। मुमकिन है ऐसे मंच में वे तमाम कमियां हो जो अब तक प्रबुद्ध समाजों के अध:पतन का कारण बनती रही हैं और मानव प्रकृति की अपूर्णता (imperfection) के मद्देनजर पतन की गति की और बढ़ जाए। पर क्या इन खतरों का हवाला देकर हम ऐसे मंच के गठन की कोशिश छोड़ दें और हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाएं ? मुझे तो यह अपना अनिवार्य दायित्व लगता है।


वास्तव में ऊंचे कद के बुद्धिजीवियों का ऐसा मंच एक बार अस्तित्व में आ जाए तो अगले कदम के रूप में धार्मिक समूहों को साथ में जोड़ने की जोरदार कोशिशें शुरु की जा सकती हैं जिससे सब मिलजुल कर युद्ध के विरुद्ध संघर्ष छेड़ सकें। ऐसे मंच के गठन से उन अनेक व्यक्तियों को नैतिक बल मिलेगा जिनके इरादे तो नेक हैं पर उन्हें नैराश्यपूर्ण समर्पण का फालिज मार गया है - इतना ही नहीं इससे लीग ऑव नेशंस को घोषित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए भी महत्वपूर्ण नैतिक समर्थन मिल सकेगा।


इस मौके पर मैं अपना निजी हार्दिक सम्मान प्रेषित कर रहा हूं और आपके लेखन को पढ़ने में व्यतीत किए गए आनन्दपूर्ण समय के लिए आपको धन्यवाद दे रहा हूं। यह बात मुझे बहुत चकित करती है कि आपके सिद्धांतों से असहमति रखने वाले लोग भी अक्सर अचेतन तौर पर अपने विचारों और भाषाओं में आप ही की शब्दावली का प्रयोग करते पाए जाते हैं।



आपका

अलबर्ट आइंस्टाइन


अनुवाद - यादवेन्द्र

Sunday, August 3, 2008

संवेदना देहरादून, मासिक गोष्ठी - अगस्त 2008

गोष्ठी में उपस्थित रचनाकार एवं साहित्य प्रेमी



संवेदना की मासिक गोष्ठी, जो हर माह के पहले रविवार को होती है, आज काफी अच्छी उपस्थिति रही। उपस्थितों में मुख्यरुप से कथाकार विदध्यासागर नौटियाल, सुभाष पंत, अल्पना मिश्र, जितेन्द्र शर्मा, दिनेश चंद्र जोशी, मदन शर्मा, जितेन्द्र भारती, नवीन नैथानी, कवि राजेश सकलानी, प्रेम साहिल, रामभरत "सिरमोरी" आदि रचनाकारों के अलावा सामाजिक कार्यकर्ता गीता गैरोला, पत्रकार भास्कर उप्रेती, सुनीता, शिक्षाविद्ध रचना नौटियाल मौजूद थे।


यह एक सामान्य गोष्ठी थी। संवेदना की सामान्य गोष्ठियों की विशेषता है कि ऐसी गोष्ठी में शहर भर के रचनाकार अपनी उन रचनाओं का पाठ करते है जो उन्होंने अभी लिखी भर हों और जिन पर प्रकाशन से पहले वे मित्रों की राय चाहते हों। रचनाओं पर विस्तृत चर्चा का एक अच्छा-खासा माहौल अपनी पूरी जीवन्तता के साथ होता है।


दिनांक 3।8।2008 को हिन्दी भवन, देहरादून पुस्तकालय में सम्पन्न हुई इस गोष्ठी में प्रेम साहिल ने अपनी कविता का पाठ किया। कथाकर मदन शर्मा ने एक संस्मरण सुनाया। मदन शर्मा इस बीच अपने जीवन के लम्बे दौर में साथ रहे अंतरग संगी साथियों को याद करते हुए एक श्रृंखला के तौर पर संस्मरण लिख रहे हैं। जांसकर यात्रा के कुछ अनुभवों को लिपीबद्ध रूप में मैंने भी रखा।

मदन शर्मा अपनी रचना का पाठ करते हुए