Monday, March 31, 2008

सांस सांस में बसा देहरादून


बहुत पुराना किस्सा है। एक बुजुर्ग शख्स अपने बंगले के हरे भरे लॉन में शाम के वक्त चहल कदमी कर रहे थे। तभी उन्होंने देखा कि गेट पर उनका कोई प्रिय मेहमान खड़ा है। उसे देखते ही उनकी खुशी का ठिकाना न रहा। उन्होंने अपनी छड़ी वहीं नरम घास में धंसा दी और गेट खोलने के लिए लपके। मेहमान को ले कर वे बंगले के भीतर चले गये। छड़ी रात भर के लिए वहीं धंसी रह गयी।
अगले दिन सुबह उन्हें अपनी छड़ी की याद आयी तो वे लॉन में गये तो देखते क्या हैं कि छड़ी पर छोटे छोटे अंकुए फूट आये हैं।
तो ये होती है किसी जगह की उर्वरा शक्ति कि छड़ी में भी रात भर में अंकुए फूट आते हैं।
ये किस्सा है देहरादून का। इस शहर के बारे में कहा जाता है कि वहां आदमी की बात तो छोड़िये, छड़ी भी ठूंठ नहीं सकती और रात भर की नमी में हरिया जाती है।
लेकिन किस्से तो किस्से ही होते हैं। न जाने कितने लोगों द्वारा सुने सुनाये जाने के बाद भेस, रूप, आकार और चोला बदल कर हमारे सामने आते हैं। हुआ होगा कभी किसी की छड़ी के साथ कि पूरे बरसात के मौसम में वहीं लॉन पर रह गयी होगी और ताज़ी टहनी की बनी होने के कारण हरिया गयी होगी, लेकिन किस्से को तो भाई लोग ले लड़े। इस बात को शहर की उर्वरा शक्ति से जोड़ दिया।
आदमी की बात और होती है। उसे छ़ड़ी की तरह हरे भरे लॉन की सिर्फ नरम, पोली और खाद भरी मिट्टी ही तो नहीं मिलती। हर तरह के दंद फंद करने पड़ते हैं अपने आपको ठूंठ होने से बचाये रखने के लिए। हर तरह के पापड़ बेलने पड़ते हैं अपने भीतर की संवेदना नाम के तंतुओं को सूखने से बचाने के लिए। फिर भी गारंटी नहीं रहती कि आदमी ढंग से आदमी भी रह पायेगा या जीवन भर काठ सा जीवन बिताने को होगा अभिशप्त।

अब किस्मत कहिये या कुछ और, यह बांशिदा भी उसी देहरादून का है। यह बात अलग है कि इस बदें का बचपन लॉन की हरित हो आयी छड़ी की तरह नहीं, बल्कि झाड़ झंखाड़ वाली उबड़ खाबड़ तपती ज़मीन पर लगभग नंगे पैरों चलते बीता है। कितना ठूंठ रहा और कितना अंकुरित हो कर कुछ कर पाया उस मिट्टी की उर्वरा शक्ति से कुछ हासिल करके, यह तो मेरे यार दोस्त और पाठक ही जानते होंगे लेकिन एक बात ज़रूर जानता हूं जो कुछ हासिल कर पाया उसके लिए कितनी बार टूटा, हारा, गिरा, उठा और बार बार गिर गिर कर उठा, इसकी कोई गिनती नहीं। लगभग तेरह चौदह बरस में सातवीं कक्षा में पहली तुकबंदी करने के बाद ढंग से लिख पाना शुरू करने में मुझे सच में नानी याद आ गयी। बीस बरस से भी ज्यादा का वक्त लग गया मुझे अपनी पहली कहानी को छपी देखने के लिए। लोग जिस उम्र तक आते आते अपना बेहतीन लिख चुके होते हैं, तब मैं दस्तक दे रहा था। बेशक देहरादून पहली बार बाइस बरस की उम्र में 1974 में और हमेशा के लिए दूसरी बार 1978 में छूट गया था और बाद में वहां सिर्फ मेहमानों की तरह ही जाना होता रहा, और अब तो पांच बरस से वहां जा ही नहीं पाया हूं ( 11 दिसम्‍बर 2007 को जाना तय था, टिकट भी बुक था, लेकिन 10 दिसम्‍बर 2007 को दिल्‍ली में हुए भीषण सड़क हादसे ने मेरी पूरी जिंदगी की दिशा ही बदल डाली, अब तक जख्‍म सहला रहा हूं) लेकिन पहली मुकम्मल कही जा सकने वाली कहानी 1987 में पैंतीस बरस की उम्र में ही लिखी गयी। लेकिन इस बीच, अगर अज्ञेय की कविता से पंक्ति उधार लेते हुए कहूं तो कितनी नावों में कितनी बार डूबते उतराने के बाद ही, कई कई नगरों, महानगरों में दसियों नौकरियों में हाथ आजमाने के और दुनिया भर के अच्छे बुरे अनुभव बटोरने के बाद ही यह कहानी कागज पर उतर पायी थी।
फिलहाल उस सब के विस्तार में न जा कर मैं अपनी बात देहरादून और देहरादून में भी अपनी मौहल्ले तक ही सीमित रखूंगा और कोशिश करूंगा बताने की कि कितना तो बनाया उस मौहल्ले ने मुझे और कितना बनने से रोका बार बार मुझे।

हमारा घर मच्छी बाज़ार में था। एक लम्बी सी गलीनुमा सड़क थी जो शहर के केन्‍द्र घंटाघर से फूटने वाले शहर के उस समय के एक मात्र मुख्य बाज़ार पलटन बाज़ार से आगे चल कर मोती बाज़ार की तरफ जाने वाली सड़क से शुरू होती थी और आगे चल कर पुराने कनाट प्लेस के पीछे पीछे से बिंदाल नदी की तरफ निकल जाती थी। मोती बाज़ार नाम तो बाद में मिला था उस सड़क को, पहले वह कबाड़ी बाज़ार के नाम से जानी जाती थी। कारण यह था कि वहां सड़क के सिरे पर ही कुछ सरदार कबाड़ियों की दुकानें थीं। ये लोग कबाड़ी का अपनी पुश्तैनी धंधा तो करते ही थे, एक और गैर कानूनी काम करते थे। देहरादून में मिलीटरी के बहुत सारे केन्‍द्र हैं। आइएमए, आरआइएमसी और देहरादून कैंट में बने मिलीटरी के दूसरे ढेरों दस्ते। तो इन्हीं दस्तों से मिलीटरी का बहुत सा नया सामान चोरी छुपे बिकने के लिए उन दुकानों में आया करता था। पाउडर दूध के पैकेट, राशन का दूसरा सामान, फौज के काम आने वाली चीजें और सबसे खास, कई फौजी अपनी नयी यूनिफार्म वहां बेचने के लिए चोरी छुपे आते थे और बदले में पुरानी यूनिफार्म खरीद कर ले जाते थे। तय है उन्हें नयी नकोर यूनिफार्म के ज्यादा पैसे मिल जाते होंगे और पुरानी और किसी और फौजी द्वारा इस्तेमाल की गयी पोशाक के लिए उन्हें कम पैसे देने पड़ते होंगे। मच्छी बाज़ार में ही रहते हुए हमारे सामने 1964 की ओर 1971 की लड़ाइयां हुई थीं। लड़ाई में जो कुछ भी हुआ हो, उस पर न जा कर हम बच्चे उन दिनों ये सोच सोच कर हैरान परेशान होते थे कि जो सैनिक अपनी यूनिफार्म तक कुछ पैसों के लिए बाज़ार में बेच आते हैं, वे सीमा पर जा कर देश के लिए कैसे लड़ते होंगे। एक सवाल और भी हमें परेशान करता था कि जो आदमी अपनी ड्रेस तक बेच सकता है, वह देश की गुप्त जानकारियां दुश्मन को बेचने से अपने आपको कैसे रोकता होगा। (यहां इसी सन्दर्भ में मुझे एक और बात याद आ रही है। मैं अपने बड़े भाई के पास 1993 में गोरखपुर गया हुआ था। ड्राइंगरूम में ही बैठा था कि दरवाजा खुला और एक भव्य सी दिखने वाली लगभग पैंतीस बरस की एक महिला भीतर आयी, मुझे देखा, एक पल के लिए ठिठकी और फ्रिज में छः अंडे रख गयी। तब तक भाभी भी उनकी आहट सुन कर रसोई से आ गयी थीं। दोनों बातों में मशगूल हो गयीं। थोड़ी देर बाद जब वह महिला गयी तो मैंने पूछा कि आपको अंडे सप्लाई करने वाली महिला तो भई, कहीं से भी अंडे वाली नहीं लगती। खास तौर पर जिस तरह से उसने फ्रिज खोल कर अंडे रखे और आप उससे बात कर रही थीं। जो कुछ भाभी ने बताया, उसने मेरे सिर का ढक्कन ही उड़ा दिया था और आज तक वह ढक्कन वापिस मेरे सिर पर नहीं आया है।
भाभी ने बताया कि ये लेडी अंडे बेचने वाली नहीं, बल्कि सामने के फ्लैट में रहने वाले फ्लाइट कमांडर की वाइफ है। उन्हें कैंटीन से हर हफ्ते राशन में ढेर सारी चीजें मिलती हैं। वैन घर पर आ कर सारा सामान दे जाती है। वे लोग अंडे नहीं खाते, इसलिए हमसे तय कर रखा है, हमें बाज़ार से कम दाम पर बेच जाते हैं। और कुछ भी हमें चाहिये हो, मीट, चीज़ या कुछ और तो हमें ही देते हैं। इस बात को सुन कर मुझे बचपन के वे फौजी याद आ गये थे जो गली गली छुपते छुपाते अपनी यूनिफार्म बेचने के लिए कबाड़ी बाज़ार आते थे। वे लोग गरीब रहे होंगे। कुछ तो मज़बूरियां रही होंगी, लेकिन एक फ्लाइट कमांडर की बला की खूबसूरत बीवी द्वारा (निश्चित रूप से अपने पति की सहमति से) अपने पड़ोसियों को हर हफ्ते पांच सात रुपये के लिए अंडे सिर्फ इसलिए बेचना कि वे खुद अंडे नहीं खाते, लेकिन क्यूंकि मुफ्त में मिलते हैं, इसलिए लेना भी ज़रूरी समझते हैं, मैं किसी तरह से हजम नहीं कर पाया था। उस दिन वे अंडे खाना तो दूर, उसके बाद 1993 के बाद से मैं आज तक अंडे नहीं खा पाया हूं। एक वक्त था जब ऑमलेट की खुशबू मुझे दुनिया की सबसे अच्छी खुशबू लगती थी और ऑमलेट मेरे लिए दुनिया की सबसे बेहतरीन डिश हुआ करती थी। मैं आज तक समझ नहीं पाया हूं कि जो अधिकारी चार छः रुपये के अंडों के लिए अपना दीन ईमान बेच सकता है, उसके ज़मीर की कीमत क्या होगी।) मैं एक बार फिर कबाड़ियों चक्कर में भटक गया। हां तो मैं अपने मच्छी बाज़ार की लोकेशन बता रहा था। बाद में मच्छी बाजार का नाम भी बदल कर अन्सारी मार्ग कर दिया गया था। हमारे घर का पता था 2, अन्सारी मार्ग। मच्छी बाज़ार के दोनों तरफ ढेरों गलियां थीं जिनमें से निकल कर आप कहीं के कहीं जा पहुंचते थे। आस पास कई मौहल्ले थे, डांडीपुर मौहल्ला, लूनिया मौहल्ला, चक्कू मोहल्ला। सारी गरीब लोगों की बेतरतीबी से उगी छोटी छोटी बस्तियां। बिना किसी प्लान या नक्शे के बना दिये गये एक डेढ़ कमरे के घर, जिन पर जिसकी मर्जी आयी, दूसरी मंजिल भी चढ़ा दी गयी थी। कच्ची पक्की गलियां, सडांध मारती गंदी नालियां, हमेशा सूखे या फिर लगातार बहते सरकारी नल। गलियों के पक्के बनने, उनमें नालियां बिछवाने या किसी तरह से एक खम्बा लगवा कर उस पर बल्ब टांग कर गली में रौशनी का सिलसिला शुरू करना इस बात पर निर्भर करता था कि किसी भी चुनाव के समय गली मौहल्ले वाले सारे वोटों के बदले किसी उम्मीदवार से क्या क्या हथिया सकते हैं। (ये बात अलग होती कि ये सब करने और वोटरों के लिए गाड़ियां भिजवाने के बदले उस उम्मीदवार को वादे के अनुसार साठ सत्तर वोटों के बजाये पांच सात वोट भी न मिलते। उस पर तुर्रा यह भी कि अफसोस करने सब पहुंच जाते कि हमने तो भई आप ही को वोट दिया था।)
हमारे घर में लाइट नहीं थी। पड़ोस से तार खींच कर एक बल्ब जलता था। ऐसे ही एक चुनाव में हम गली वाले भी अपनी गली रौशन करवाने मे सफल हो गये थे। चूंकि गली का पहला मोड़ हमारे घर से ही शुरू होता था, इसलिए गली को दोनों तरफ रौशन करने के लिए जो खम्बा लगाया गया था, वह हमारी दीवार पर ही था। इससे गली मे रौशनी तो हुई ही थी, हम लोगों को भी बहुत सुभीता हो गया था। हम भाई बहनों की पढ़ाई इसी बल्ब की बदौलत हुई थी। ये बात अलग है कि हम पहले गली के अंधेरे में जो छोटी मोटी बदमाशियां कर पाते थे, अब इस रौशनी के चलते बंद हो गयी थीं।
इस गली की बात ही निराली थी। हमारे घर के बाहरी सिरे पर पदम सिंह नाम के एक सरदार की दुकान थी जहां चाकू छुरियां तेज करने का काम होता था। कई बार खेती के दूसरे साजो सामान भी धार लगवाने के लिए लाये जाते। ये दुकान एक तरह से हमारे मौहल्ले का सूचना केन्‍द्र थी। यहां पर नवभारत टाइम्स आता था जिसे कोई भी पढ़ सकता था। बीसियों निट्ठले और हमारे जैसे छोकरे बारी बारी से वहां बिछी इकलौती बेंच पर बैठ कर दुनिया जहान की खबरों से वाकिफ होते। जब नवभारत टाइम्स में पाठकों के पत्रों में मेरा पहला पत्र छपा था तो पदमसिंह के बेटे ने मुझे घर से बुला कर ये खबर दी थी और उस दिन दुकान पर आने वाले सभी ग्राहकों और अखबार पढ़ने आने वालों को भी यह पत्र खास तौर पर पढ़वाया गया था। दुकान के पीछे ही गली में पहला घर हमारा ही था। वैसे नवभारत टाइम्स सामने ही चाय वाले मदन के पास भी आता था लेकिन उसकी दुकान में अखबार पढ़ने के लिए चाय मंगवाना ज़रूरी होता जो हम हर बार एफोर्ड नहीं कर पाते थे।
तो उसी पदम सिंह की दुकान के पीछे हमारा घर था। हम छः भाई बहन, माता पिता, दादा या दादी (अगर दादा हमारे पास देहरादून में होते थे तो दादी फरीदाबाद में चाचा लोगों के पास और अगर दादी हमारे पास होतीं तो दादा अपना झोला उठाये फरीदाबाद गये होते), चाचा और बूआ रहते थे।
न केवल हमारा घर उस गली में पहला था बल्कि हम कई मामलों में अपनी गली में दूसरों से आगे थे। वैसे भी उस गली में कूंजड़े, सब्जी वाले, गली गली आवाज मार कर रद्दी सामान खरीदने वाले जैसे लोग ही थे और उनसे हमारा कोई मुकाबला नहीं था सिवाय इसके कि हम एक साथ अलग अलग कारणों से वहां रहने को मजबूर थे। ये सारे के सारे घर पाकिस्तान या अफगानिस्तान से आये शरणार्थियों को दो दो रुपये के मामूली किराये पर अलाट किये गये थे और बाद में उन्हीं किरायेदारों को बेच दिये गये थे। हमारा वाला घर हमारी नानी के भाई का था और जिसे हमारे नाना ने अपने नाम पर खरीद लिया था। अब हम अपने नाना के किरायेदार थे। बेशक पूरे मौहल्ले से हमारा कोई मेल नहीं था फिर भी न तो उनका हमारे बिना गुज़ारा था और न ही हम पास पड़ोस के बिना रह सकते थे। न केवल हमारा घर गली में सबसे पहले था बल्कि हम कई मायनों में अपने मुहल्ले के सभी लोगों और घरों से आगे थे। सिर्फ मेरे पिता, चाचा और बूआ ही सरकारी दफतरों में जाते थे और इस तरह बाहर की और पढ़ी लिखी दुनिया से हमारा साबका सबसे पहले पड़ता था। उन दिनों जितनी भी आधुनिक चीजें बाज़ार में आतीं, सबसे पहले उनका आगमन हमारे ही घर पर होता। प्रेशर कूकर, गैस का चूल्हा, अलार्म घड़ी और रेडियो वगैरह सबसे पहले हम ही ने खरीदे। बाद में ये चीजें धीरे धीरे हर घर में आतीं। हमारी देखा देखी आलू बेचने वाले गणेशे की बीवी ने अलार्म घड़ी खरीदी। इसके बाद से उनके घर के सारे काम अलार्म घड़ी के हिसाब से होने लगे। घर के सारे जन किसी काम के लिए अलार्म लगा कर घड़ी के चारों तरफ बैठ जाते और अलार्म बजने का इंतजार करते। अलार्म बजने पर ही काम शुरू करते। वे हर काम अलार्म लगा कर करते। चाय का अलार्म, सब्जी बनाने का अलार्म, खाना खाने या बनाने का अलार्म।
उस मुहल्ले में हमें दोस्त चुनने की आज़ादी नहीं थी। स्कूल वाले यार दोस्त तो वहीं स्कूल तक ही सीमित रहते, या बाद में कम ही मिल पाते, गुज़ारा हमें अपनी गली में उपलब्ध बच्चों से करना होता। गली में हर उम्र के बच्चे थे और खूब थे। हमारी उम्र के नंदू, गामा, बिल्ला, अट्टू, तो थोड़े बड़े लड़कों में प्रवेश, सुक्खा, मोणा वगैरह थे लेकिन एक बात थी कि हर दौर में अमूमन सभी बड़े लड़के गंदी आदतों में लिप्त थे। पता नहीं कैसे होता था कि चौदह पन्‍द्रह साल के होते न होते नयी उम्र के लड़के भी उनकी संगत में बिगड़ना शुरू कर देते। बड़े लड़के छोटे लड़कों की नेकर में हाथ डालना या उन्हें हस्त मैथुन करने या कराने के लिए उकसाना अपना हक समझते। शुरुआत इसी से होती। बाद में अंधेरे कोनों में अलग अलग कामों की दीक्षा दी जाती। आगरा से छपने वाले साप्ताहिक अखबारों, कोकशास्त्र और मस्तराम की गंदी किताबों का सिलसिला चलता और सोलह सत्रह तक पहुंचते पहुंचते सारे के सारे लड़के इन कामों में प्रवीण हो चुके होते। ये लड़के आस पास के दस मौहल्लों की लड़कियों को गंदी निगाह से ही देखते और उनके साथ सोने के मंसूबे बांधते रहते लेकिन गलत आदतों में पड़े रहने के कारण बुरी तरह से हीन भावना से ग्रस्त होते। वे बेशक अपनी चहेती लड़कियों का पीछा करते रोज़ उनके कॉलेज तक जाते या शोहदों की तरह गली के मोड़ पर खड़े हो कर गंदे फिकरे कसते, लेकिन वही लड़की अगर उनसे बात भी कर ले तो उनकी पैंट गीली हो जाती। मेरी गली का बचपन भी इन्हीं सारी पीढ़ियों के बीच बड़ा होता रहा था। कोई भी अपवाद नहीं था। बचने का तरीका भी नहीं था।
ये तो हुई गली के भीतर की बात, गली के बाहर यानी मच्छी बाज़ार का नज़ारा तो और भी विचित्र था। अगर मोती बाज़ार से स्टेशन वाली सड़क पर जाओ तो मुश्किल से पांच सौ गज की दूरी पर पुलिस थाना था और अगर मच्छी बाजार वाली ही सड़क पर आगे बिंदाल की तरफ निकल जाओ तो हमारे घर से सिर्फ तीन सौ गज की दूरी पर देसी शराब का ठेका था। यही ठेका हमारे पूरे इलाके के चरित्र निर्माण में अहम भूमिका निभाता था। ठेका वैसे तो पूरे शहर का केन्‍द्र था, लेकिन आस पास के कई मौहल्लों की लोकेशन इसी ठेके से बतायी जाती। हमें कई बार बताते हुए भी शरम आती कि हम शराब के ठेके के पास ही रहते हैं। उसके आस पास थे सट्टा, जूआ, कच्ची शराब, दूसरे नशे, गंदी और नंगी गालियां, चाकू बाजी, हर तरह की हरमजदगियां। ये बाय प्राडक्ट थे शराब के ठेके के। शरीफ लड़कियां शर्म के मारे सिर झुकाये वहां से गुज़रतीं। हमारी गली के सामने मदन की चाय की दुकान के साथ एक गंदे से कमरे में अमीरू नाम का बदमाश रहता था। चूंकि उसका अपना कमरा वहां पर था इसलिए वह खुद को इस पूरे इलाके का बादशाह मानता था और धड़ल्ले से कच्ची और नकली दारू के, सट्टे और दूसरे किस्म के नशे के कारोबार करता था। चूंकि ठेके में सिर्फ शराब ही मिलती थी और ठेका खुला होने पर ही मिलती थी, अमीरू का धंधा हर वक्त की शराब और सट्टे के कारण खूब चलता था। वैसे तो हर इलाके के अपने गुंडे थे लेकिन अमीरू का हक मारने दूसरे इलाकों के दादा कई बार आ जाते। एक ऐसा ही दादा था ठाकर। शानदार कपड़े पहने और तिल्लेदार चप्पल पहने वह अपनी एम्बेसेडर में आता। उसके आते ही पूरे मोहल्ले में हंगामा मच जाता। उसके लिए सड़क पर ही एक कुर्सी डाल दी जाती और वह सारे स्थानीय गुर्गों से सट्टे का अपना हिसाब किताब मांगता। शायद ही कोई ऐसा दिन होता हो कि उसके आने पर मारपीट, गाली गलौज न होती हो और छुटभइये किस्म गुंडे छिपने के लिए हमारी गली में न आते हों। वह अपनी चप्पल निकाल का स्थानीय गुंडों को पीटता और वे चुपचाप पिटते रहते। कई बार चाकू भी चल जाते और कई बार कइयों को पुलिस भी पकड़ कर ले जाती। एक आध दिन शांति रहती और फिर से सारे धंधे शुरू हो जाते। कई बार फकीरू नाम का एक और लम्बा सा गुंडा आ जाता तो ये सारे सीन दुहराये जाते। अमीरू और फकीरू में बिल्कुल नहीं पटती थी, दोनों में खूब झगड़े होते लेकिन दोनों ही ठाकर से खौफ खाते। ज्यादातर झगड़े सट्टे की रकम और दूसरे लेनदेनों को ले कर होते लेकिन किसी को भी पता नहीं था कि कभी कभार हमारी शरारतों के कारण भी उनमें आपस में गलतफहमियां पैदा होती थीं।

दरअसल मामला ये था कि पदम सिंह की दुकान की हमारी गली वाली दीवार में इन्हीं लोगों ने ईंटों में छोटे छोटे छेद कर दिये थे और सट्टा खेलने वाले हमारी गली के अंधेरे में खड़े हो कर और कई बार दिन दहाड़े भी अपने सट्टे का नम्बर एक कागज पर लिख कर अपनी दुअन्नी या चवन्नी उस कागज में लपेट कर इन्हीं छेदों में छुपा जाते और बाद में अमीरू या उसके गुर्गे पैसे और पर्ची ले जाते। हम छुप कर देखते रहते और जैसे ही मौका लगा, कागज और पैसे ले का चम्पत हो जाते। कागज कहीं फेंक देते और पैसों से ऐश करते। हम ये काम हमेशा बहुत डरते डरते करते और किसी को भी राज़दार न बनाते। हो सकता है बाकी लड़के भी यही करते रहे हों और हमें या किसी और को हवा तक न लगी हो।
तय है कि जब मच्छी बाजार है तो मीट, मच्छी, मुर्गे, सूअर और दूसरी तरह के मांस की दूकानें भी बहुत थीं। कुछ छोटे होटल भी थे जो बिरयानी, मछली या मीट के साथ गैर कानूनी तरीके से शराब भी बेचते थे। इन शराबियों में आये दिन झगड़े होते। कुछ ज्यादा बहादुर शराबी सुबह तक नालियों में पड़े नज़र आते।
उन्हीं दिनों ऋषिकेश में आइपीसीएल का बहुत बड़ा कारखाना रूस के सहयोग से बन रहा था। वहां से हफते में एक बार बस शॉपिंग के लिए देहरादून आती तो ढेर सारी मोटी मोटी रूसी महिलाएं स्कर्ट पहले सूअर का मांस खरीदने आतीं। हम उन्हें बहुत हैरानी से खरीदारी करते देखते क्योंकि हमारे बाजार के दुकानदारों को हिन्दी भी ढंग से बोलनी नहीं आती थी और रूसी महिलाओं के साथ उनके लेनदेन कैसे होते होंगे, ये हम सोचते रहते थे। किसी भी तरह के विदेशियों को देखने का ये हमारा पहला मौका था।
मच्छी और मांस बेचने वाले ज्यादातर खटीक और मुसलमान थे। ये लोग आसपास छोटे छोटे दड़बों में रहते थे। इन दड़बों के आगे टाट का परदा लटकता रहता। हम हैरान होते कि इन छोटे छोटे कमरों में इनके बीवी बच्चों का कितना दम घुटता होगा क्योंकि कभी भी किसी ने उनके परिवार के किसी सदस्य को बाहर निकलते कभी नहीं देखा था। ये लोग बेहद गंदे रहते, आपस में लड़ते झगड़ते और मारपीट करते रहते। अक्सर लौंडेबाजी के चक्कर में हमारे ही मौहल्ले के लड़कों की फिराक में रहते। उन्हें दूध जलेबी या इसी तरह की किसी चीज का लालच दे कर अंधेरे कोनों में ले जाने की कोशिश करते या फिर अगर दांव लग जाये तो नाइट शो में फिल्म दिखाने की दावत देते। ऐसे लड़कों पर वे खूब खर्च करने के लिए तैयार रहते लेकिन हमारी गली के सारे के सारे लड़के उनके इस दांव से वाकिफ थे और दूध जलेबी तो आराम से खा लेते या कई बार पिक्चर के टिकट ले कर हॉल तक उनके साथ पहुंच भी जाते लेकिन ऐन वक्त पर किसी लड़के को अपना चाचा नजर आ जाता तो किसी को तेजी से प्रेशर लग जाता और वह फूट निकलता। इन मामलों में हमसे सीनियर लड़का प्रवेश हमारा उस्ताद था। वह ऐसे लोगों को चूना लगाने और फिर ऐन वक्त पर निकल भागने की नई नई तरकीबें हमें बताता रहता था। प्रवेश ने तो उनके पैसों से खरीदी टिकट बाहर आ कर बेच डाली थी और गफूर नाम का कसाई हॉल के अंदर उसकी राह देखता बैठा रहा था। कुछ दिन तो गफूर उसे गालियां देता फिर किसी और लड़के को पटाने की कोशिश करता।
उन्हीं दिनों एक पागल औरत नंगी घूमा करती थी सड़कों पर। किसी ने खाने को कुछ दे दिया तो ठीक वरना मस्त रहती थी। कुछ ही दिनों बाद हमने देखा था कि वह पगली पेट से है। सबने उड़ा दी थी कि ये सब गफूर मियां की दूध जलेबी की मेहरबानी है।
तो ऐसे माहौल में मैंने अपने बचपन के पूरे तेरह बरस बिताये। लगभग पहली कक्षा से लेकर बीए करने तक। साठ के आस पास से तिहत्तर तक का वक्त हमने उन्हीं गलियों, उन्हीं संगी साथियों और उन्हीं कुटिलताओं के बीच गुज़ारा। ऐसा नहीं था कि वहां सब कुछ गलत या खराब ही था। कुछ बेहतर भी था और कुछ बेहतर लोग भी थे जो आगे निकलने, ऊपर उठने की जद्दोजहद में दिन गुजार रहे थे। सबसे बड़ी तकलीफ थी कि किसी के भी पास न तो साधन थे और न ही कोई राह ही सुझाने वाला था। जो था, जैसा था, जितना था, उसी में गुजर बसर करनी थी और कच्चे पक्के ही सही, सपने देखने थे। न कल का सुख भोग पाये थे न आज के हिस्से में सुख था और न ही आने वाले दिन ही किसी तरह की उम्मीद जगाते थे। किसी तरह हाई स्कूल भर कर लो, टाइपिंग क्लास ज्वाइन करो और किसी सरकारी महकमें से चिपक जाओ। इससे ऊँचे सपने देखना किसके बूते में था। कोई भी तो नहीं था जो बताता कि ज्यादा पढ़ा लिखा भी जा सकता है। खुद हमारे घर में हमारे साथ रहने वाले चाचा हमें लगातार पीट पीट कर हमें ढंग का आदमी बनाने की पूरी कोशिश में लगे रहते। हम स्कूल से आये ही होते और गली में किसी चल रहे कंचों का खेल देख रहे होते या कहीं और झुंड बना कर खड़े ही हुए होते कि हमारे चाचा ऑफिस से जल्दी आ कर हमारी ऐसी तैसी करने लग जाते। बिना वजह पिटाई करना वे अपना हक समझते थे। न हम कुछ पढ़ने लायक बन पाये और न ही किसी खेल में ही कुछ करके दिखा पाये। दब्बू के दब्बू बने रह गये।
जहां तक उस माहौल में पढ़ने लिखने का सवाल था, हमारे सामने तीन तरह के, बल्कि वार तरह के रास्ते खुलते थे। हमारी गली के आसपास कई दुकानें थीं जहां फिल्मी पत्रिकाएं और दूसरी किताबें 10 पैसे रोज पर किराये पर मिलती थीं। वहां से हम हर तरह की फिल्मी पत्रिकाएं किराये पर ला कर पढ़ते। गुलशन नंदा, वेद प्रकाश काम्बोज, कर्नल रंजीत और कुछ भी नहीं छूटता था वहां हमारी निगाहों से। उन्हीं दिनों एक आदर्शवादी सरदारजी ने वहीं कबाड़ी बाजार में एक आदर्शवादी वाचनालय खोला और अपने घर की सारी अच्छी अच्छी किताबें वहां ला कर रखीं ताकि लोगों का चरित्र निर्माण हो सके। तब मैं ग्यारहवीं में था। तय हुआ तीस रुपये महीने पर मैं स्कूल से आकर दो तीन घंटे वहां बैठ कर उस लाइब्रेरी का काम देखूं।
भला इस तरह की किताबों से कोई लाइब्रेरी चलती है। मजबूरन उन्हें भी फिल्मी पत्रिकाओं का और चालू किताबों का सहारा लेना पड़ा। वहां तो खूब पढ़ने को मिलतीं हर तरह की किताबें। दिन में तीन तीन किताबें चट कर जाते। ये पुस्तकालय छः महीने में ही दम तोड़ गया। वे बेचारे कब तक जेब से डाल कर किताबें और पत्रिकाएं खरीदते। जबकि मासिक ग्राहक दस भी नहीं बन पाये थे।
स्कूल की लाइब्रेरी में भी हमारे लाइब्रेरियन मंगलाप्रसाद पंत हमें चरित्र निर्माण की ही किताबें पढ़ने के लिए देते। जबकि अपने मोहल्ले की चांडाल चौकड़ी में हम मस्तराम की किताबों और अंगड़ाई तथा आज़ाद लोक जैसी पत्रिकाओं का सामूहिक पाठ कर रहे थे। एक और सोर्स था हमारे पढ़ने का। मैं और मुझसे बड़े भाई महेश स्कूल के पीछे ही बने सार्वजनिक पुस्तकालय में नियमिन रूप से जाते थे और वहां पर चंदामामा, राजा भैय्या, पराग जैसी पत्रिकाओं के आने का बेसब्री से इंतजार करते। हमारी कोशिश होती कि हम सबसे पहले जा कर पत्रिका अपने नाम पर जारी करवायें। वहां जा कर किताबें पढ़ने की हम कभी सोच ही नहीं पाये।
तो इस तरह के जीवन के एकदम विपरीत ध्रुवों वाले माहौल से और बचपन से गुज़रते हुए यह बंदा निकला। कोई दिशा नहीं थी हमारे सामने ओर न कोई दिशा बताने वाला ही था कि ये राह चुनो तो आगे चल कर कुछ कर पाओगे।
तो जो बना वहीं से निकल कर बना और जो नहीं बना, वह भी उसी जगह की वजह से न बना.
आमीन
सूरज प्रकाश
मूल कार्य
· अधूरी तस्वीर (कहानी संग्रह) 1992
· हादसों के बीच - उपन्यास 1998
· देस बिराना - उपन्यास 2002
· छूटे हुए घर - कहानी संग्रह 2002
· ज़रा संभल के चलो -व्यंग्य संग्रह - 2002
अंग्रेजी से अनुवाद
· जॉर्ज आर्वेल का उपन्यास एनिमल फार्म
· गैब्रियल गार्सिया मार्खेज के उपन्यास Chronicle of a death foretold का अनुवाद
· ऐन फैंक की डायरी का अनुवाद
· चार्ली चैप्लिन की आत्म कथा का अनुवाद
· मिलेना (जीवनी) का अनुवाद 2004
· चार्ल्स डार्विन की आत्म कथा का अनुवाद
· इनके अलावा कई विश्व प्रसिद्ध कहानियों के अनुवाद प्रकाशित
गुजराती से अनुवाद
· प्रकाशनो पडछायो (दिनकर जोशी का उपन्यास
· व्यंग्यकार विनोद भट की तीन पुस्तकों का अनुवाद
· गुजराती के महान शिक्षा शास्‍त्री गिजू भाई बधेका की दो पुस्तकों दिवा स्वप्न और मां बाप से का तथा दो सौ बाल कहानियों का अनुवाद
संपादन
· बंबई 1 (बंबई पर आधारित कहानियों का संग्रह)
· कथा लंदन (यूके में लिखी जा रही हिन्दी कहानियों का संग्रह )
· कथा दशक (कथा यूके से सम्मानित 10 रचनाकारों की कहानियों का संग्रह)
सम्मान
· गुजरात साहित्य अकादमी का सम्मान
· महाराष्ट्र अकादमी का सम्मान
अन्य
· कहानियां विभिन्न संग्रहों में प्रकाशित
· कहानियों के दूसरी भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित
· कहानियों का रेडियो पर प्रसारण और
· कहानियों का दूरदर्शन पर प्रदर्शन
कार्यालय में
· पिछले 32 बरस से हिन्दी और अनुवाद से निकट का नाता
· कई राष्ट्रीय स्तर के आयोजन किये
वेबसाइट: geocities.com/kathalar_surajprakash
email ID : kathaakar@gmail.com
mobile : 9860094402
सम्पर्क : रिज़र्व बैंक, कृषि बैंकिंग महाविद्यालय, ई स्क्वायर के पास, विद्यापीठ मार्ग, पुणे 411016

Thursday, March 27, 2008

विश्व रंगमंच दिवस

दुनिया
के
साहित्य-कला प्रेमियों को

विश्व रंगमंच दिवस २७ मार्च
की
मुबारकबाद।

रंगकर्मी बर्तोल ब्रेख्त की कविता:-


सुबह के करीब
जब मै अस्पताल के एक सफेद कमरे में जागा
और कोयल को सुना
तब, बूझा मैने खूब।
काफी देर तक मुझे मौत का कोई डर नहीं रहा
क्योंकि ऐसा कुछ नहीं है जो मैं कभी खो सकूं
बशर्ते, मैं न रहूं खुद
इस वक्त उस कामयाबी तक ले गया है
मेरी खुशी को
यह सब
कि तमाम कोयलों के गीत
रहेगें मेरे बाद भी।

Wednesday, March 26, 2008

संजय कुदन की कविताऐं

योजनाओं का शहर

जो दुनियादार थे वे योजनाकर थे
जो समझदार थे वे योजनाकर थे
एक लड़का रोज़ एक लड़की को
गुलदस्ता भेंट करता था
उसकी योजना में
लड़की एक सीढ़ी थी
जिसके सहारे वह
उतर जाता चाहता था
दूसरी योजना में
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

योजनाओं में हरियाली थी
धूप खिली थी, बह रहे थे मीठे झरने
एक दिन एक योजनाकार को
रास्ते में प्यास तड़पता एक आदमी मिला
योजनाकार को दया आ गई
उसने झट उसके मुॅंह में एक योजना डाल दी।

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

योजनाऐं अक्सर योजनाओं की तरह आती थीं
लेकिन कई बार वे छिपाती थीं खुद को
किसी दिन एक भीड़ टूट पड़ती थी निहत्थों पर
बस्तियॉं जला देती थी
खुलेआम बलात्कार करती थी
इसे भावनाओं का प्रकटीकरण बताया जाता था
कहा जाता था कि अचानक भड़क उठी है यह आग
पर असल में यह सब भी
एक योजना के तहत ही होता था
फिर योजना के तहत पोंछे जाते थे ऑंसू
बॉंटा जाता था मुआवज़ा
एक बार खुलासा हो गया इस बात का
सबको पता चल गया इन गुप्त योजनाओं का
तब शोर मचने लगा देश भर में
तभी एक दिन एक योजनाकार
किसी हत्यारे की तरह काला चश्मा पहने
और गले में रूमाल बॉंधे सामने आया
और ज़ोर से बोला - हॉं, थी यह योजना
बताओ क्या कर लोगे
सब एक-दूसरे का मुॅंह देखने लगे
सचमुच कोई उसका
कुछ नहीं कर पाया।

संजय कुदन, सी 301 जनसत्ता अपार्टमेंटस सेक्टर 9, वसुंधरा, गाजियाबाद- 201012 मो। 09910257915

संजय कुंदन की कविताऐं वागर्थ के मार्च 08 अंक से साभार ली गयी। यहॉं प्रकाशन से पूर्व कवि की सहमति प्राप्त होने के बाद ही पुन: प्रस्तुत किया जा रहा है। हम उम्मीद करते हैं कि भविष्य में जल्द ही उनकी ताजा रचना भी इस ब्लाग के पाठकों के लिए प्राप्त हो सकेगी।

Sunday, March 23, 2008

क्वाण्टम भौतिकी एवं सृजन की संभावना

भाई नवीन नैथानी ने यह आलेख विशेष तौर पर इस ब्लाग पत्रिका के लिए ही लिखा है और समय-समय पर आगे भी लिखते रहने का वायदा किया है।
नवीन नैथानी एक महत्वपूर्ण कथाकार है। वर्ष 2006 में नवीन को रमाकान्त स्मृति सम्मान उनकी कहानी 'पारस" पर दिया गया था। इससे पूर्व 1998 में कहानी 'चोर घ्ाटडा" के लिए कथा सम्मान से सम्मानित किया गया था।
नवीन नैथानी विज्ञान के अध्येता है। राजकीय महाविद्यालय, डाकपत्थर, देहरादून में भौतिक विज्ञान पढ़ाते हैं।
(हम अपने ऐसे अन्य मित्रों से जिनकी पहचान जहॉं एक ओर साहित्यक क्षेत्र में उनकी अपनी सक्रियता के कारणों से है और वहीं वे दूसरी ओर किसी अन्य विषय में भी दख्ाल रखते हंै या कार्यारत हैं, अनुरोध करते है कि अपने उस विषय के साथ इस ब्लाग पत्रिका में हाज़िर हों। इसे एक सीधा अनौपचारिक आमंत्रण समझते हुए बेहिचक अपनी रचना के साथ ब्लाग में उपस्थित हों या फिर किसी भी माध्यम से हम तक पहुॅंचाने का कष्ट करें। आपकी उपस्थिति से पूर्व ही हम आपके स्वागत एवं आभार के लिए तत्पर है। - ब्लागर।)


मैं विज्ञान का विद्यार्थी हॅंू और साहित्य का अध्येता। विज्ञान पढ़ते हुए उसे साहित्य की असीम सीमाओं में बांधने की जद्दोजहद रहती है। यहॉं मजेदार बात यह है कि हम साहित्य पढ़ते हैं और विज्ञान का अध्ययन करते हैं। जो पढ़ते हैं उसे अध्ययन कहें क्या! शिक्षाविदों और शैक्षिक प्रविधयों के प्रणेताओं के पास इस प्रश्न का जवाब होगा मेरे पास नहीं। मैं काफ्का की मैटामॉर्फोसिस पढ़ता हॅंू। पढ़ते हुए मुझे एक साथ तीन चीजें अपनी ओर खींचती हैं। लेखक ;काफ्काद्ध की मन:स्थिति, उसका परिवेश और उन दोनों के बीच संतरण करता हुआ मेरा ;पाठक काद्ध समय। पढ़ते हुए मैं इन तीनों के बीच अर्न्तसंबंधों का अध्ययन अचेतन रुप में करने लगता हॅूं। मैं सापेक्षिकता पर आईस्टिन के पर्चे पढ़ता हॅंू, स्टीफन हॉकिंग की प्रख्यात पुस्तक से रुबरु होता हॅूं और क्वाण्टम ;सूक्ष्मद्ध जगत की विभिन्नताओं से परिचित होता हूूं। इन तमाम भैतिक परिघ्ाटनाओं के बारे में पढ़ते हुए मुझे सिर्फ एक ही बात अपनी तरफ खींचती है - यह जगत कैसा है ?क्या विज्ञान या वैज्ञानिक तथ्यों को जानना समझना हमारे अनुभव को इतना एकांगी रुप में सम्द्ध करता है ? या इससे मेरी चेतना अथवा मेरे संचित ज्ञान में व्द्धि कोई खलबली पैदा करती है ? इन्हीं दो प्रश्नों के बीच मैं क्वाटण्म अवधारणा के शुरुआती बिन्दुओं पर अपने विचारों को साझा करना चाहता हॅूं।मनुष्य अपने प्रारम्भ से ही विराट जगत को देखकर विस्मित होता रहा। इस विस्मय में मनुष्य में क्षुद्रता का भान तो था ही, साथ ही असीमितताऐं भी उसे उद्वेलित करती थी। आश्चर्यजनक किंतु सत्य तो यह है कि मनुष्य ने इन अनिश्चितताओं से भयभीत होना नहीं सीखा बल्कि उनके भीतर किसी अन्तर्निहित निश्चित नियम को जानने का बीड़ा उठाया।बीसवीं शताब्दी के शुरुआती दिनों में मानव सभ्यता सामूहिक चेतना के उस उत्थान बिन्दु के नजदीक पहॅुंच गयी थी जहॉं हम इन अनिश्चिततओं को सिद्धान्तों की निश्चितताओं में ढालने के अनुक्रम में जुट पाते।क्वाण्टम भौतिकी की बहुत सारी व्याख्याऐं और इसके दार्शनिक विमर्श, बेशक, अनिश्चितताओं के घ्ाटाटोप की तरफ संकेत करते हैं। ईश्वर जैसी अमूर्त अवधारणाओं के पोषक कुछ खुराक भी इनसे ले लेते हों किन्तु क्वाण्टम भौतिकी अपने शुद्ध गणितीय स्वरूप में इतनी ही निश्चित है जितनी धरती के सामने चन्द्रमा की छवि!जीवन निर्जीव तत्वों से बना है। स्टनले मिलर के प्रयोगों में यह तथ्य बीसवीं शताब्दी के छठे दशक की शुरुआत में सामने आया। स्टनले मिलर के प्रयोगों से पहले प्रख्यात भैतिकविद्ध ;और क्वाण्टम अवधारणा के प्रवर्तकों में से एक, इर्विन श्रोडिंजर ने अपने निबन्ध -वॉट इज लाईफ में इस तरफ संकेत किया था। क्रिस्टलव्द्धि की सहज रासायनिक/भौतिक परिघ्ाटना के विश्लेषण में श्रोडिंजर जीवन की उत्पत्ति में निर्जीव तत्वों के योगदान की भविष्यवाणी कर चुके थे। बीसवीं सदी के प्रारम्भ में जब प्लांक, रदरफोर्ड, आईंस्टीन, बोर आदि सूक्ष्म जगत की घ्ाटनाओं को व्याख्यायित करने की कोशिश में थे तब वह सुदूर भविष्य की बात थी। उन लागों ने सोचा भी नहीं था। और उन्हें सोचने की आवश्यकता भी नहीं थी। यह ठीक वैसा ही है जैसा कि आज बॉयोटैक्नालॉजी की इस सदी में उन घ्ाटनाओं की तरफ थोड़ा विस्मय और किंचित उपहास के साथ देखने की प्रव्त्ति पायी जाती है।विज्ञान का इतिहास हमेशा इस तरह की घ्ाटनाओं से भरा हुआ है कि अतीत के काल विशेष में किसी महान मेधा से भीषण चूक हुई है और वह उस समय विशेष की परिघ्ाटना को लक्षित/व्याख्यायित करने से रह गया जिसका खामियाजा सभ्यता को भुगतना पड़ा। वे लोग उस समय नहीं जानते थे। ठीक उसी तरह, जिस तरह हम लोग नहीं जानते हैं। हमारे आगे की पीढ़ियां तय करेगीं कि हम लोग भी नहीं जानते हैं। विज्ञान यहॉं दर्शन के सामने बौना है। और यहीं विज्ञान दर्शन से अधिक बड़ा और लचीला भी है। एक दार्शनिक अवधारणा आपके सामने भविष्य के लिए कुछ भी नहीं छोड़ती। विज्ञान के सामने आपका समूचा भविष्य खुला रहता है - सांभावनाओं और प्रयोगों की एक विस्त्त स्ष्टि जहॉं पूर्वग्रह, मत-अभिमत, धर्म, आस्थाऐं और विश्वास सब प्रश्नों की खराद पर नव सृजन के लिए तत्पर हैं। तो हम क्वाण्टम अवधारणाओं के शुरुआती प्रश्नों की तरफ लौटे। नवीन नैथानी

Saturday, March 22, 2008

देहरादून पर एक गीत

'बीटल्स' के मुख्य गायक गिटारिस्ट जॉर्ज हैरिसन का गाया गीत ' देहरादून ' पेश है। इसे " कबाड़ख़ाने" से साभार लिया गया है। बीटल्स ग्रुप के सदस्य १९६० - १९७० के दौरान, आत्मिक शांति की खातिर ऋषिकेश बहुत आया जाया करते थे। प्रस्तुत गीत उसी दौर का है।
Dehra, Dehra dun,
Dehradun, dun
Dehra Dehra, dun , Dehradun dun
Dehradun
Many roads can take you there many different ways
One direction takes you years another takes you days
Dehra, Dehra dun, Dehradun, dun
Dehra Dehra, dun , Dehradun dun
Dehradun
Many people on the roads looking at the sights
Many others with their troubles looking for their rights
Dehra, Dehra dun, Dehradun, dun
Dehra Dehra, dun , Dehradun dun
Dehradun
See them move along the road in search of life devine..........................
Beggers in a goldmine
Dehradun, Dehradun dun, Dehradun,
Dehradun dun
Dehradun, Dehradun dun
Dehradun
Many roads can take you there many different ways
One direction takes you years another takes you days
Dehradun, Dehradun dun, Dehradun,
Dehradun dun
Dehradun, Dehradun dun
Dehradun

Thursday, March 20, 2008

फेंटा

कल यानी 19 मार्च 2008 को नवीन भाई (नवीन नैथानी) और मैं साथ थे। शिरीष कुमार मौर्य का ब्लाग देख रहे थे। हरजीत याद आ गया। नवीन भाई कह रहे थे, ''आज हरजीत होता तो ब्लाग पर जुटा होता।'' ऐसे जैसे स्पीक मेके के साथ जुटा रहता था, जैसे समय साक्ष्य के साथ और जैसे बाद में बच्चों के खिलौने बनाने में जुट गया था। कभी कभी एकलव्य के साथ भी। कोई कभी पूरी तरह से कभी नहीं जान पाया वह कहॉं-कहॉं जुटा है इन दिनों। ब्लाग पर भी होता तो सिर्फ अपने ही नहीं ढेरों अपने तरहों के साथ होता। कम्बख्त समय से पहले चला गया। वह हुनरमंद कारीगर था लकड़ी का। गज़ल कहता था। स्केच करता था। फोटोग्राफी करने लगा था। फोटोग्राफी सीखाने वाला हुआ अरविन्द शर्मा। वही अरविन्द जिसका पता ठिकाना था - ''टिप टॉप''। आजकल कहां है, मैं नहीं जानता। मैं तो सिर्फ इतना जानता हूं अहमदाबाद में है। हमारा देहरादूनिया भाई सूरज प्रकाश शायद जानता होगा उसका पता। अहमदाबाद आना जाना अरविन्द का पहले भी होता ही रहता था। अहमदाबाद में उसके परिवार के लोग जो ठहरे। भाई सूरज प्रकाश को वहीं से खोज कर लाया था वह और हम सब जानने लगे फिर सूरज भाई को।
जी हॉं, उसी अरविन्द शर्मा का जिक्र कर रहा हूं मैं जिसकी आंखें बेशक कैमरे की आंख में अपनी आंख गढ़ा ऑब्जेक्ट का सही फोकस न कर पाती हों पर दूरी के अनुमान से खींची गयी उसकी तस्वीरों को देखकर मजाल है किसी की जो उसके होंठ खुद ही न खुल जाएं - वाह। क्या क्लीयरटी है, क्या ऐंगल है।
उसके खींचे हुए पेडों के न्यूड कभी देख लें तो जान जायेगें कि मित्रतावश नहीं कह रहा हूं। हरजीत का या अवधेश का या कवि जी (सुखबीर विश्वकर्मा) का जिक्र हो तो कविता फोल्डर निकालने वाले उस अरविन्द शर्मा की याद न आए, ऐसा असंभव है। हो सकता है यह मेरा अरविन्द से खासा लगाव हो। अन्य मित्रों की यादों में उसकी तस्वीर न जाने कब उभर जाती है। यदि हरजीत के शब्दों को उधार लेकर कहूं तो शायद कह पाउं -

जब भी ऑंगन धुयें से भरता हैदिन हवाओं को याद करता है
साफ़ चादर पे इक शिकन की तरह मेरी यादों में तू उभरता है

हरजीत के बहाने वह अरविन्द याद आ रहा है जो अपनी रचनाओं को कभी तरतीब से न रख पाया। न जाने अब भी लिखता है या नहीं।
एक बार टिप-टॉप में अरविन्द ने अपना थैला खोला। वही थैला, जिसमें कैमरा, फिल्म, समय बे समय खींचे गये किसी के भी चित्र जो जब तस्वीर के ऑब्जेक्ट की तलाश कर लेते तो अरविन्द की रोजी रोटी का जुगाड़ हो जाते, रखे रह्ते और उसकी रचनाएं जो पन्नों के रुप में बिखरी पड़ी होतीं, वे भी उसी में। ज्यादातर कविताएं या आलेख जो किसी अखबार के पृष्ठ पर छपने को कसमसा रहे होते। पर उस दिन अरविन्द ने कागजों को जो पुलिंदा निकाला तो वो उपन्यास था।
''मैं आज तुम लोगों को उपन्यास सुनाता हूं।"" उसने कहा और लगा पढ़ने।
पहला पेज पढ़ने के बाद उसे क्रमवार दूसरा पेज ही नहीं मिला उसे। जो पढ़ा वो न जाने कौन से क्रम का था। पहले पढ़े गये पृष्ठ से वह जुड़ ही नहीं पाया। दूसरा पृष्ठ समाप्त तीसरा पढ़ा जाने वाला पृष्ठ संभवत: पच्चीसवां या तीसवॉं ही रहा हो शायद। ऐसे कईयों पृष्ठ पढ़े गये।
जीवन में कभी क्रम से न चल पाने वाला अरविन्द आखिर लिखने में कैसे क्रमवार रहता।
राजेश भाई (राजेश सकलानी) ने पूछा -''उपन्यास का शीर्षक क्या है अरविन्द ?"
जवाब हरजीत ने दिया -"फेंटा।"
और अरविन्द के हाथ से उसने उपन्यास रुपी कागजों का बण्डल झपटकर ताश की गड्डी की तरह उसे फेंटा और जोर-जोर से पढ़ने लगा- फ़ेंटा।

प्रस्तुत हैं हरजीत सिंह की गज़लें और शेर -

सोचकर सहमी हुई खामोश आवाज़ों के नाम
कितने खत लिक्खे हैं मैंने बंद दरवाज़ो के नाम
झील के पानी को छूकर जब हवा लहरायेगी
याद आयेगें मुझे तब कितने ही साज़ों के नाम
पत्थ्रों के बीच ये सरगोशियॉं कैसी भला
कोई साज़िश चल रही है आईनासाज़ो के नाम
कितने दीवारों को काला कर गया इक हादसा
इस बहाने पढ़ लिये लोगों ने लफ्फ़ाजों के नाम
फूल मसले, बाग लूटे, और खुश्बू छीन ली
मुल्क होता जा रहा है कुछ दगाबाज़ों के नाम
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

रेत बनकर ही वो हर रोज़ बिखर जाता है
चंद गुस्ताख्ा हवाओं से जो डर जाता है
इन पहाड़ों से उतर कर ही मिलेंगीं बस्ती
राज़ ये जिसको पता है वो उतर जाता है
बादलों ने जो किया बंद सभी रास्तों को
देखना है कि धुऑं उठके किधर जाता है
लोग सदियों से किनारे पे रुके रहते हैं
कोई होता है जो दरिया के उधर जाता है
घर की नींव को भरने में जिसे उम्र लगे
जब वो दीवार उठाता है तो मर जाता है
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

इक शख्स मेरे घ्ार में कई साल तक रहा
किस नाम से रहा है मुझे खुद पता नहीं

मेरे अहसास पे उभरा है इस तरह कोई कॉच पर जैसे कि उंगली का निशॉ रहता है

हम किसी और बात पे खुश हैं
तेरा मिलना तो इक बहाना है

कोई चुप हके छुपा लेता है उन बातों को
जिसके कहने से उसे लोग समझ ही सकें

Wednesday, March 19, 2008

लघु कथा

युवा रचनाकार
(चेखव को याद करते हुए)

विजय गौड

एक

वह एकदम युवा और तेजतर्रार था। जिस समय वह अपने हम उम्र और अपनी ही तरह के दूसरे तेजतर्रार साथियों के साथ खड़ा कॉलेज-गेट के बाहर बनी गुमटीनुमा चाय की दुकान में बतिया रहा था, उसके हाव भाव और उसकी जोशिली आवाज केा सुन कोई भी कह सकता था कि उसमें गजब का आत्मविश्वास है। बात रखने का उसका अंदाज ही ऐसा निराला था। उस वक्त उनकी बातचीत समकालीन पत्रिकाओं में छप रही अपनी रचनाओं और उन रचनाओं को लेकर साहित्यिक गलियारों में चल रही बहसों पर केन्द्रित थी। आये दिन निकलती चमचमाती गाड़ियों के नये से नये मॉडलों की तरह पत्रिकाओं की भीड़ ने रचनात्मक जगत की मीलों लम्बी सड़कों पर अफरातफरी का माहौल रच दिया था। रचनात्मक बिरादरी गति के विभ्रम में जीने को मजबूर हो चुकी थी। दृश्य की चकाचौंध की गिरफ्त में युवा रचनाकारों का आ जाना लाजिमि था। उन्हें इस बात के लिए एकतरफा तौर पर दोषी ठहराना कतई उचित नहीं। चुंधियाते दृश्यों के बावजूद काफी हद तक बदलते चुके माहौल पर उनकी पैनी निगाह उनके बुद्धिमान होने का एक अन्य साक्ष्य थी। उस वक्त एक बेफिक्र किस्म की हंसी में वे उन सभी पर छींटाकशी कर रहे थे, जो उनको साहित्यिक जगत में चल रही बहसों के केन्द्र मे ले आये सम्पादकों के खिलाफ, अपनी बचती बचाती टिप्पणियों को पत्रों के रुप में छपाने में लगे हुए थे। उस वक्त उनके सामने यह एक दम स्पष्ट था कि वे टिप्पणीकार लेखक भी एक हद तक वैसी ही महत्वाकांक्षाओं से ग्रसित हैं जैसे उनके आदरणीय सम्पादक। वे स्पष्ट देख पा रहे थे कि अपने सम्पूर्ण लेखन काल के अस्त होते दौर में और भविष्य में भी चर्चा से बाहर हो जाने की आंशकाओं ने उन्हें भी वैसे ही ग्रसित किया हुआ है। इस बात पर वे थोड़ा और जोर का ठहाका लगाकर हंसे थे और उस तेज तर्रार युवा लेखक से उसकी उस कहानी के विषय में जानने की कोशिश करने लगे जिसको वह जल्द ही लिखने वाला है। एक प्रतिष्ठित पत्रिका का ताजा अंक, जो उस वक्त उनके हाथों में उछाल ले रहा था उसमें अगले अंक के रचनाकारों के रुप में उस तेज तर्रार युवक का नाम घ्ाोषित हो चुका था। सभा इस बात पर विसर्जित हुई ''जाओ बच्चू जा कर लिखो कहानी, अगले अंक में पढ़गें।
"


दो

वे अभी इतने युवा थे कि एक स्त्री के मन और उसकी देह को जान सकने की उस उम्र तक अभी पूरी तरह से पहुॅचे भी नहीं थे कि साहित्य की ऐसी ही धारा की अंधेरी गलियों में भटकते हुए कहानी, कविता लिखने की ठान चुके थे। दुनिया के अन्य विषयों पर लिखने की बजाय उन्हें ऐसे विषय पर लिखना ज्यादा आसान लग रहा था। ऐसी रचनाओं के छपने की कोई ज्यादा दित थी नहीं। लेकिन उस दौर में छपना भी कोई मामूली बात नहीं थी जबकि पूरा हिन्दी साहित्य विमर्श के जिन अंतरों कानों में झांक रहा था वहां यौवन की उन्मांदकता से भरी स्त्री का जिस्म खोलती रचनाओं का ढेर लगता जा रहा था। उनके पास अनुभव का ऐसा कोई ठोस टुकड़ा भी नहीं था जो उन्हें स्त्री देह से अभी तक वाकिफ कर पाया हो। लिहाजा उन्होंने सपनों मेंं स्त्री के शरीर की गोलाई नापनी शुरु की और उस वक्त जो चेहरे उभरते रहे उसमें चाची, बुआ, भाभी और चंद चचेरी, मौसेरी बहनों के गुदाज शरीर उनकी मुटि्ठयों में भिंचते रहे। जब वे रचनायें लिखी गयीं तो पारखी नजरों ने पकड़ना शुरु किया कि बिल्कुल अन्जाने, अन्छुए अनुभवों का आकाश युवा रचनाकारों की रचनाओं में आकार लेने लगा है।

तीन

ओशो ने कहा- मान लेना जान लेना नहीं होता। वे माने बैठे थे कि यह दौर विमर्श का दौर है। विमर्श क्या है, यह नहीं जान पाये थे। घ्ार से भागती हुई लड़कियां इस दौर का यथार्थ है, ऐसा मानने लगे थे। जबकि भागने के नाम पर वह उस छोटे से बच्चे का नाम भी नहीं जानते थे, एक लम्बी दूरी निश्चित समय में दौड़ने के बाद भी जिसके फेफड़ों को चैक करने के बाद डाक्टरों ने कहा था- 'बिल्कुल सामान्य हंै।" वे तो उन्हीं लोगों की तरह अचम्भित थे जो ऐसी अन्होनी घ्ाटना को जानने के बाद इस चिन्ता में घ्ाुले जा रहे थे कि क्या होगा हमारे प्रोटिन युक्त डिब्बा बन्द उन आहारों का जिनमें हृष्ट-पुष्ट और खिल खिलाते बच्चे का चित्र धंुधला पड़ने लगा है। वे मानने लगे थे, ऐंसे ही भागती होगीं लड़कियां भी अपने घ्ारों से। वे उन संभावित लड़कियों के करीब जाने का सलीका और शऊर जानना चाहते थे। कल्पना के घ्ाोड़ों की उड़ान पर जब वे किसी गम्भीर समस्या पर लिखने की कोशिश भी करते तो उस वक्त भागती हुई लड़कियां उनकी रचनाओं का हिस्सा होने लगती और वे उनके करीब जाने के ऐसे नये से नये अंदाजों को खोजने की कवायद करते कि उनकी रचनाओं में मौलिकता और शिल्प का अनूठापन पारखी निगाहों को चमत्कृत करने लगता। और उनके भीतर छिपी अनंत संभावनाओं का अहसास होते ही साहित्य के कुभ के कुंभ लगने लगे थे।

Tuesday, March 18, 2008

पुस्तक समीक्षा

परितोष चक्रवर्ती का कथा संग्रह: कोई नाम न दो
विजय गौड़ सी 24/9 आयुध निर्माणी एस्टेट, रायपुर, देहरादून-248008, नेपथ्य: 09411580467
समकालीन यथार्थ के वृत्त पर, जहां बदलते सामाजिक आर्थिक मूल्यों ने संवेदनहीनता को जन्म दिया है, प्रेम और आदर्श की मिली-जुली अभिव्यक्ति से संगुम्फित, 'कोई नाम न दो" परितोष चक्रवर्ती के सद्य प्रकाशित कहानी संग्रह की कहानियॉं अपने विषय की विशिष्टता से जो जाप काटती हैं उस कटान बिन्दु से एक सीधी स्पर्श रेखा खींचने का लेखकीय प्रयास इन कहानियों में दिखायी देता है। ऐसी स्पर्श रेखा जो त्रिज्या पर समकोण बनाती है और संवेदनहीनता की उस धारा को मोड़ने के लिए प्रयासरत जान पड़ती हैं। कहानी दर कहानी बात करें तो पाते हैं कि 'सोनपत्ती" उस लोक परम्परा के वृत्त पर पल्लवित होती प्रेम कथा है जो उम्र के एक पड़ाव पर पहुॅचे हुए स्त्री-पुरुष को अकेलेपन के बीच सहारा देता है। कथानक में घ्ाटित होती घ्ाटनाऐं सम्बंधों को उस तरह की मूर्तता नहीं देती जैसा अक्सर युवा प्रेमियों की कथाओं में आकार लेता है। प्रेम की छट-पटाहट वाली मानसिक उद्विगनता नहीं, बस एक हल्का-हल्का सा अहसास जिसकी स्मृतियां सोनपत्ती पर टिकी रहती हैं। ऐसी स्मृतियां जिन्हें कैसी भी परिस्थितियां मिटा नहीं सकती। बिछोह की उदासी इंतजार की लड़ी बनकर टंगी रहती है। कहानी की नायिका सरोज का अकेलापन कप्तान सहाब के अकेलेपन का समानार्थी नहीं है। वहां तो परिवार के अन्य लोगों के बीच पूरे मान के बावजूद अन्य लोगों और उनके बीच उम्र का एक फासला है जो उन्हें अकेला किये दे रहा है। अपने छोटे भाई के परिवार के बीच अटी पड़ी वे खुद ही अकेलेपन की गिरफ्त में जकड़ी चली जाती हैं। छोटे भाई के बच्चों के साथ पार्क में होते हुए भी एक हम उम्र, हम मनस कप्तान सहाब की उपस्थिति इसी लिए सुकूनदेय लगने लगती है। कप्तान सहाब की ऐसी उपस्थिति का अचानक अनुपस्थिति में बदल जाना सरोज को बेचैन तो करता है पर ऐसी स्थिति में युवापन की छटपटाहट वाली बेचैनी के बजाय वहां गम्भीरता का एक गहरा आवरण उन्हें ढकने लगता है। वे चाहती हैं कि उनका भाई छोटू कप्तान सहाब के घ्ार जाकर उनकी खोज-खबर ले आये। छोटू के मना करने पर वे स्पष्टता के साथ पेश आती हैं- ''छोटू, मैंने तुझे पता करने को कहा है, कोई दित है तो बता।""''वृत्त से बाहर"" एवं 'घ्ार बुनते हुए" ऐसी कहानियां हैं जिनमें घ्ाटनाओं को काफी कुशलता के साथ संयोजित किया गया है। वृत्त से बाहर के पात्र रजत पर जहां आदर्शवाद हावी है वहीं घ्ार बुनते हुए का सामन्ता बेहद दयनीय नजर आता है। सामन्ता की दयनीयता को लेखक के राजनीतिक आग्रहों के दायरे में समझा जा सकता है। इस कहानी में सामन्ता को एक ऐसी राजनीति से जुड़ा दिखाया गया है जहां सिर्फ और सिर्फ हत्या और आतंक का माहौल ही रचा जा रहा है। अन्तत: सामन्ता का उससे मोहभंग होता है। मोहभंग की इस स्थिति में जाते हुए सामन्ता के भीतर भी कोई द्वंद्व है, ऐसा कहानी से दिखायी नहीं पड़ता। बस वह तो वहां से निकल भागता है रेड लाईट एरिया की ओर जहां ग्राहकों को पानी पिलाने का काम करना है। कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता, गुरुजी का आदर्श वाक्य, ''दुनिया में अपने कर्म से यदि तुम किसी को दुख-यातना या नुकसान नहीं पहुॅचा रहे हो तो वह काम खराब नहीं होता"" सामन्ता के जीवन दर्शन का सूत्र वाक्य है। इस कहानी के मार्फत यह सवाल उठाना समीचीन होगा कि क्या सिर्फ हत्या का रोमांचक खेल किसी ऐसे आंदोलन का रुप ले सकता है जिसमें आवाम का एक हिस्सा भागीदारी करता हो ? यदि नहीं, तो फिर सामन्ता के मोहभंग के वास्तविक कारण क्या हैं ? यहां लेखकीय आग्रह ही सामन्ता के चरित्र को निर्धारित करते जान पड़ते ह्रैं। कहा जा सकता है कि बिना किसी तार्किक आधार के किसी भी राजनैतिक दिशा को अप्रसांगिक ठहराना कोई गम्भीर कर्म नहीं। नक्सलवादी राजनीति का जिक्र कहानी में सनसनी बिखेरने के लिए किया गया ही जान पड़ता है। ऐसी ही कोशिश कुछ अन्य कहानियों में भी दिखायी पड़ती है। 'सड़क नम्बर तीस" के मार्फत इस बात को ज्यादा स्पष्ट तरह से कहा जा सकता है। इस कहानी में भी ऐसी ही राजनीति से जुड़ा एक कार्यकर्ता है जो अपनी कुठाओं से उबरने के लिए और हताशा के क्षणों में हौंसला प्राप्त करने के लिए रेड लाईट एरिया में पहुॅचता है, ''।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।पिछले कुछ सालों से मेरी पार्टी समाज के पूरे ढॉंचे में बदलाव की लड़ाई लड़ रही है। मेरे जैसे कई युवक घ्ार-बार छोड़कर इस लड़ाई में कूद पड़े हैं। हम गांवों के किसानों और शहर के श्रमिकों के बीच अपना काम करते हैं। पर सरकार को यह पसन्द नहीं। मैं अपने बाप का बड़ा बेटा हूॅं।।।।।।।। आज रहा नहीं गया तो इधर पॉंव उठ गए।"" घ्ार के प्रति उत्कट मोह में फंसे एक क्रांतिकारी को रेड लाईट एरिया में जाकर शरण लेना और फिर वहॉं का ग्राहक बन जाना, क्या यही है यर्थाथ ? रेड लाईट एरिया और दुनिया को बदलने की राजनीति का एक ऐसा कोलाज इन कहानियों से उभरता है जिसमें समकालीन यर्थाथ को समझना बेहद मुश्किल है। यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि ऐसी कहानियों में न तो राजनीति की वास्तविक तसवीर ही उभर पायी है और न ही प्रेम की व्याख्या हो सकी है। 'कमजोर" और 'कोई नाम न दो" इस संग्रह की महत्वपूर्ण कहानियां है। कमजोर एक ऐसी कहानी है जो इस बात को स्थापित करती है कि प्रेम विज्ञापन की वस्तु नहीं, संबंधों की निजता का नाम है। दया, करुणा, कुंठा, निराशा और हताशा की जीवन स्थितियों के बीच इन कहानियों के पात्र जिस प्रेम की आकांक्षा में तड़पते दिखायी देते हैं उसे समकालीन विमर्श के दायरे में (जहां सहानुभूतियों से भरा यथार्थ छलांग मार चुका है) पढ़े तो कहा जा सकता है कि ये कहानियां एक सीमा के बाद उसी पुरुषोचित मानसिकता का प्ार्याय बनने लगती हैं जो एकनिष्ठता की मांग सिर्फ स्त्रियों पर लादे हुए है। जहां दावा होता है वहां प्रेम नहीं होता। दावा करते हुए दया, करुणा और सहानुभूति तो बिखेरी जा सकती है पर प्रेम नहीं किया जा सकता। परितोष चक्रवर्ती की कहानियों की यह पुस्तक प्रेम का दावा करती पुस्तक है- ''प्यार की कहानियां है"" और उन तमाम लोगों को समर्पित है जिन्होंने हमेशा प्यार को मान दिया है। प्रेम में पगलाया कोई पागल-प्रेमी क्या यह कह सकता है- वह प्रेम करता है ? और क्या प्रेम करते हुए भी वह उतना ही सहज, सामान्य और दैनिक व्यवहार में अपनी सम्पूर्ण मध्यवर्गीय प्रवृत्तियों को सुरक्षित रख सकता है ? शायद ऐसा कर पाना असंभव है। वैसे प्रेम के लिए कोई तय व्यवहार या नियम हो, ऐसा तो कदापि नहीं कहा जा सकता। पर इन कहानियों के ये पात्र जिस मानसिक संत्रास से छटपटाते हुए प्रेम की ओर कदम बढ़ाते हुए दिखायी देते हैं वहां हत्या और आतंक की स्थितियों को दर्शाया गया है। ये सभी पात्र नैतिक, ईमानदार और कर्तव्यबोध से प्रेरित होकर एवं दुनिया के दुख-दर्द से द्रवित होकर उसको मिटाने के लिए जिस आंदोलन का हिस्सा होना चाहते हैं वहां हत्या और आतंक का सृजन ही (एक मात्र पक्ष) उन्हें दिखायी देता है और इसी कारण एक प्रकार की विक्षिप्तता के शिकार वे किसी की गोद में सिर रख कर प्रेम के लिए विचलित जान पड़ते है। एक राजनितिक आंदोलन की इतनी उथले तरह की व्याख्या करती ये कहानियां प्रेम की संवेदना को भी विक्षेपित कर देती हैं। क्रान्तिकारी राजनीति का ऐसा ही उत्तर-आधुनिक पाठ प्रस्तुत करने की कोशिश वी।एस।नायपॉल के उपन्यास डंहपब ैममके ;माटी मेरे देश की द्ध में ज्यादा तीव्रता के साथ दिखायी देती है। 'माटी मेरे देश की" का नायक विली तो बकायदा आधार क्षेत्रों का कार्यकर्ता बन जाता है और तथ्यों की प्रमाणिकता से बचने के लिए नायपॉल ने शिल्प के स्तर कुछ-कुछ जादूई किस्म के एक ऐसे यथार्थ का सृजन किया है जिसमें हत्या और आतंक की स्थितियां ही छायी रहती है। एक ऐसा आंदोलन जो लगातार दमन को झेलते हुए भी कैसे अपना प्रसार करता गया, उस पर ठोस विश्लेषण करने की बजाय मुक्त क्षेत्रों के बीच उस राजनीति को दिशा देने वाली नेतृत्वकारी शक्ति के साथ राय मश्विरा करता विली हर क्षण उपहास उड़ाता हुआ-सा ही नजर आता है। फर्क सिर्फ इतना ही है कि परितोष चक्रवर्ती के पात्रों को हम वी।एस।नायपॉल के पात्रों की तरह एक व्यापक आंदोलन का उपहास उड़ाते हुए नहीं पाते। वहां सिर्फ कहानीकार की वह दृष्टि ही हावी दिखायी देती है जो शायद ऐसे किसी भी आंदोलन से नाइतिफाकी रखती होगी। ऐसी किसी भी असहमति को तभी जायज ठहराया जा सकता है जब वहां तार्किकता भी हो। सिर्फ अपने मनोगत वाद के चलते किसी भी आंदोलन को अतार्किक तरह से खारिज करने की यह प्रवृत्ति सामान्य जनतांत्रिकता को भी संदेह के घ्ोरे में खड़ा ही करेगी । पुस्तक: कोई नाम न दोलेखक: परितोष चक्रवर्तीप्रकाशक: राजकमल पेपरबैक्सए नई दिल्ल्ी

कहानी पर टिपण्णी

पहल सम्मान-2006, जबलपुर में वरिष्ठ कथाकार संजीव जी की कहानी ज्वार पर टिप्प्णी को आधे-अधूरे तरह से ही रख पाया था। आलेख पढ़ते हुए आये गतिरोध के कारण पढ़ना बीच में ही रोक देना पड़ा था। जो पढ़ना चाहता था उसे यहॉं दे देने का मन हुआ तो प्रस्तुत कर दिया।
ज्वार के बहाने
किसी भी रचना पर बात करने से पहले उस रचना के परिप्रेक्ष्य को जान समझ कर ही उसके मंत्ाव्य विचार करते हुए उसकी व्याख्या की जा सकती है। एक परिप्रेक्षय रचना का अपना होता है जिसमें वो रची गयी होती है दूसरा जिस दौर में वो प्ाढ़ी जा रही होती है। हो सकता है दोनों ही परिप्रेक्ष्य एक समान भी हो सकते हैं और भिन्न भी। यही वजह है कि ये परिस्थितियां विशेष ही रचना के पाठ को निर्धारित करती हैं। क्या ही संभव हो कि कोई रचना अपने दौर और अपने समाज का बयान करते हुए भी हर दौर में अपने निश्चित मंत्ाव्य को ही प्रक्षेपित करती रहे। स्पष्ट है कि कथाकार संजीव की कहानी 'ज्वार" का परिप्रेक्ष्य साम्प्रदायिक हिंसा है और मंसूबा उसकी मुखालफ्त है, सर्वधर्म सम्भाव का विचार जिसका उत्स है। इसमेंं कोई दो राय नहीं कि संजीव जनवाद के प्ाक्षधर, मानवीय मूल्यों के संरक्षक, धर्म निरपेक्ष और ईमानदार व्यक्ति के रुप्ा में अपनी तमाम रचनाओं के माध्यम से बिखरे पड़े हैं। चाहे सावधान नीचे आग है, सूत्रधार, जंगल जहां से शुरु होता है या कहानियों के रुप्ा में अभी याद आ रही- सागर और सीमांत, आरोहण, तिरबेनी का तड़बना, उनका ऐसा रचना संसार है जिसमें एक प्रतिबद्ध और सचेत रचनकार के दर्शन होते हैं। इन रचनाओं के आधार पर संजीव की मंशाओं और जिस नीयत को मैं जान पाया हूं उसमें वे ऐसे ही नजर आये है।ज्वार कहानी के परिप्रेक्ष्य में जो माहौल है उसमें बाबरी विध्वंस के बाद गुजरात तक का दौर स्थानीय स्तर पर और अंतराष्टीय स्तर पर तालीबानी नृशंसता के साथ साथ उस नृशंसता के खिलाफ एक सैद्धान्तिकी को रचते हुए एक तरफा हिंसा का दौर है और हाल ही में रचा गया कैरिकैचर कांड और उसके विरोध में उपजी हिंसा का माहौल। देखना यह है कि क्या ज्वार ऐसी स्थितियों से टकराने वाली रचना बन पा रही है। इसके निष्कर्षों को यदि लागू कर दिया जाये या स्थितियां ऐसी बन जाये कि वे लागू हो जाये तो स्थितियां बदल सकती हैं। साथ ही इन निष्कर्षों को लागू होने की शर्त क्या है? उसके लिए हर सचेत व्यक्ति को क्या करना होगा? यह मूल प्रश्न ही इस कहानी को समझने और उसके विश्लेषण करने में मद्दगार हो सकते है। स्ंाजीव की कहानी ज्वार के मंतव्य, जो कि मानवीय मूल्यों की स्भापना के लिए हैं, से सहमत होते हुए भी इसकी परास की एक सीमा दिखायी देती है। कहा जाये कि हिन्दी बौद्धिक जगत और साहित्य के भीतर साम्प्रदायिकता के सवाल पर जारी बहस और उन बहसों से बनती दृष्टि से उपजी ज्यादातर रचनाये, जिनमें साम्प्रदायिकता जैसे समाज विरोधि, मनुष्यता विरोधि विचार से निपटने के लिए सर्वधर्म सम्भाव का विचार है और संवेदनात्मक स्तर पर उस विचार की वकालत है। अपनी इस सीमा का अतिक्रमण ज्वार भी नहीं कर पाती है। है। साम्प्रदायिकता के खिलाफ लिखी गयी इन रचनाओं की विशेषता है कि वे संवेदना के धरातल पर विचलित तो करती हैं पर साम्प्रदायिकता के मूल स्रोत- धर्म को बचाये रखने की भी, अन्जाने में ही चाहे हो, वकालत करने लगती है और साम्प्रदायिकता से निपटने में नाकाम रही धर्मनिरपेक्षता की वह परिभाषा, भारतीय गणतंत्र के साथ जिसने जन्म लिया था उसी की रोशनी को बिखेरने लगती है। जबकि लगातार हिंसक होते गये वातावरण ने उसकी प्रसांगिकता पर खुद ही प्रश्न चिहन लगा दिया है। यही कारण है कि ऐसी रचनायें जहां किसी समाज विशेष में साम्प्रदायिकता के विरोध में होती हैं वहीं किसी दूसरे पहले के विपरीत समाज में साम्प्रदायिक शक्तियों का हथियार बन जाती हैं। स्ाम्प्रदायिकता, जो अपनी प्रवृत्ति में एकांगीपन, संकीर्णता और नफरत की उपज है, का मूल स्रोत धर्म है। इसलिए साम्प्रदायिकता की आलोचना करते हुए धर्म की आलोचना से बचते हुए रची गयी कोई भी रचना यथार्थ का काल्पनिक आख्यान बन कर ही रहने वाली है। ऐसा मेरी समझदारी कहती है। सिर्फ हिसा की आलोचना साम्प्रदायिकता की बेहद स्थूल किस्म की आलोचना है। धर्म के भीतर निहित आध्यत्मिक गौरव की अभिव्यक्ति, परलौकिक सत्य की अवधारणा- जीवन के वास्तविक यथार्थ से दूर जाना है। धर्म के पीछे अन्धे होकर दौड़ते समुदायों का एकांगी और संकीर्णता की अन्धि गलियों में भटकने का यह एक ऐसा कल्पना लोक है जिसका आधार तर्क का निषेध और आस्था और अन्धविश्वास की जमीन पर खड़ा है। स्वतंत्र विचार की बजाय समर्पण की मांग जिसकी पहली शर्त है। मौजूदा वैज्ञानिक दौर में प्ाढ़े लिखे बौद्धिक समाज का आस्था के इस अतार्किक तंत्र को कुतर्क के सहारे उसके कर्मकाण्डिय क्रिया कलापों पर वैज्ञानिकता का जामा पहनाने की जिद निश्चित ही अवैज्ञानिक है जिसके निहितार्थ खतरनाक हिंसक माहैल से आबद्ध है। विवेक के अनुशासन से रहित भावनाओं के इस ज्वार को उन्माद की हद तक पहुॅचाने की यह खतरनाक पहल है। कहा जाता है कि धर्म तो जीवन जीने की एक प्ाद्धति है। अब सवाल है कि यह प्ाद्धति आखिर कौन से कालखण्ड की उत्पति है। स्पष्ट है कि प्रकृति की विराटता में घ्ाटती घ्ाटनाओं से अन्जान और चौंकता हुआ मनुष्य जब उस दौर के सीमित ज्ञान की सीमा की वजह से कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं कर पाता रहा तो शक्तिरुपा अज्ञात ईश्वरों की कल्पनायें उसने कटनी शुरु की और उन्हीं अज्ञात अन्जान ईश्वरों की स्थापनाओं का कार्यभार धार्मिक कर्मकाण्ड के रुप्ा में स्थापित हुआ है। इसलिए धर्म तर्क से परे की चीज हो गयी। सिर्फ भावनाओं और आस्थाओं के इस अवैज्ञानिक दृष्टिकोण ने समय समय पर अपनी श्रेष्ठता की स्थापना के लिए खून खराबे भी किये जिसे साम्प्रदायिक उन्माद कहा जा सकता है। इसलिए साम्प्रदायिकता की मुखालफत बिना धर्म पर चोट किये, उससे समाज को मुक्त किये बगैर संभव नहीं। इतिहास गवाह है कि समाज को बदलने के लिए प्राचीन काल से आज तक जितनी भी विचार प्रक्रियायें आगे बढ़ी और जिसने भी धर्म पर चोट किये बगैर सामाजिक संरचना को बदलने के लिए कुछ सीमित परिवर्तनों का या भावनात्मक संवेदनों के तहत मानवीय दृष्टिकोण का प्रचार प्रसार किया, उसकी परिणति भी अन्तत: कर्मकाण्डिय ही होती चली गयी। बैद्ध धर्म जो ईश्वर की कल्पना को पूरी तरह से ध्वस्त करने के विचार से परहेज करते हुए सामने आया, अन्तत: उसी का शिकार होता चला गया। भक्ति आंदोलन का पूरा दौर जिसने तमाम सामाजिक कुरीतियों पर जम कर प्रहार किया लेकिन उस दौर के सीमित ज्ञान की वजह से धर्म पर चोट न कर पाने की वजह से खुद उसी की गिरफत में चला गया। कबीर जैसा क्रांतिकारी कवि अन्तत: रहस्यवादी होता चला गया। अन्जाने अज्ञात भय, आशंका में दबे ढके कारणों पर से विज्ञान ने आज काफी हद तक पर्दा उठा दिया है और जिन घ्ाटनाओं के कारणेंा की वास्तविक पड़ताल आज तक भी भले ही नहीं की गयी हो उसके विश्लेषण के दर्शन जो कार्य-कारण संबंधों से संभव है कि दार्शनिकता को जन्म दिया है जिसकी रोशनी में ऐसे ही दौरों में पैदा होते गये धर्मो की प्रासंगिकता पर संदेह किया जा सकता है। इसलिए आज के दौर में साम्प्रदायिकता की मुखालफ्त बिना धर्म पर चोट किये संभव नहीं जान पड़ती। अपने बेहद मानवीय रुपों वाला धर्म भी कट्टरता की उन्हीं हदों को छूने लगता है जहां धर्म विशेष की सर्वोच्चता का तर्क आस्था का सवाल बन कर खड़ा होता है। ऐसी आस्था जो तर्क से परे है। वो आस्था जो अन्जानी घ्ाटनाओं को न सिर्फ दैवीय प्रकोप मानने को विवश करती है बल्कि उसके कारणों के विश्लेषण पर भी अंकुश लगाने पर आमादा है। धर्म यदि एक जीवन प्ाद्धति है तो उससे उपजी संस्कृति निश्चित ही अन्य धर्म से भिन्न ही होगी। यानी उसके मूल में ही खुद को विशिष्ट और एक मात्र उचित दिशा मानने की गैर जनवादी अवधारणा जिद की हद तक निहित है। इसकी जद में दुनिया में अभी तक उदय हो चुके सारे ही धर्म आते हैं। तय है कि यह धार्मिक एकता संख्याबल में बढ़ जाने पर संख्या बल में अल्प पड़ गये धार्मिकों को अपनी ही संस्कृति अपने ही धर्म के आचरण को मनवाने के लिए हिंसकता पर उतारु हो जाती है। फिर सुधारवादी आंदोलन के जरिये या अहिंसा का जाप करते हुए क्या ऐसी हिंसकता का मुकाबला संभव है? मानवीय गरिमा को बचाये रखने के लिए सिर्फ संवेदनात्मक स्तर पर साम्प्रदायिक हिंसा की मुखालफत करते हुए धर्म पर चुप्पी साधकर रची गयी कोई भी रचना साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़े जाने वाले संघ्ार्ष में कोई खास ऊर्जा प्रदान करने वाली नहीं है और न ही मानवीयता की गरिमा को बचाये रखने में मद्दगार हो सकती है। संजीव की कहानी ज्वार भी एक ऐसी ही कहानी है।भारतीय परिपे्रक्ष्य में यदि बात करें तो सामाजिक संरचना में सामंती अवशेषों के बीच पनपा मध्यवर्ग अपने सामंतीपन के साथ है जो तर्क की गुजाईश तो कतई नहीं छोड़ता। आज भी बड़े बूड़ों के सामने तमाम आधुनिक कहलाने वाले परिवारों के भीतर भी तर्क की कोई जगह नहीं है। जबकि आधुनिकता की तस्वीर बिखेरता यह मध्यवर्ग जिस तरह से इतराता फिरता है उससे उसकी पोल खुद ही खुलने लगती है। उपभोक्तवादी संस्कृति के फलस्वरुप्ा आरोपित आधुनिकता के ढोंग के बावजूद धर्म और आस्था की खाद ने उसके सामंतीपन को मुरझाने नहीं दिया है और समय बेसमय उन्माद के माहौल को पैदा करने में उसकी अग्रणी भूमिका है। एक ओर बड़ी पूंजी की दलाली और दूसरी ओर उसकी सामंती अकड़ ने माहौल्ा को बेहद खौफनाक बना दिया है और राजकीय हिंसा का ऐसा प्रपंच रचा है जो बेशर्मी की हद तक जन आंदोलन को कुचलने में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया को बढ़ाने वाला है। बेहद चालाकी और कुशलता से उसने योग और सिद्धियों की दुकान खड़ी करनी शुरु कर दी है। साथ ही जनता के खिलाफ चालू अमानवीय आर्थिक तंत्र को मजबूत आधार प्रदान करते हुए उसके विरोध के नाम पर पुरातनपंथी अवधारणाओं को पुर्नस्थापित करने का सिलसिला भी बढ़ाया हुआ है। जनविरोधि नीतियों के चलते बढ़ती तकलीफों के वास्तविक कारणों को छुपाये हुए ऐसे कल्पना लोक को खड़ा किया जा रहा है जिसमें दुविधा और हताशा की स्थितियां जन्म लेने लगी है। फलत: साम्प्रदायिक शक्तियों के हाथों गुरिल्ला कार्यवाहियों के लिए तमाम दलित आदिवासियों की फौज खड़ी दिखायी दे रही है, हिंसा के माहौल में लूटपाट का तोहफा देकर उसकी बदहाली के कारणों पर परदा डालने का दोे मुंहा खेल खेलना भी जिससे आसान हो गया है। भावनात्मक मुद्दों को उछाले जाने का और धृणा के सृजन का कृचक्र चालू है। ऐसे में फिर वो उदारतावादी विचार जो सर्वधर्म सम्भाव की बात करता है, अन्तत: उसी आधुनिक से दिखते साम्प्रदायिक वर्ग के हित साधने में ही तो अपनी उर्जा गंवायेगा जिसकी उसको बेहद जरुरत है। सबके बीच भाईचारे का तर्क बाजार के सुचारु रुप्ा से चलते रहने का भी तो तर्क है। यानी साम्प्रदायिक धार्मिक और गैर साम्प्रदायिक धार्मिक के बीच की यह नूरा कुश्ती अपने आप में एक झूठे जनतंत्र का सृजन कर रही है। हिंसा के माहौल में बिना वास्तविक कारणों पर चोट किये आंसू बहाती संवेदना एक ढकोसला ही है जो आये दिन बढ़ती आक्रमकता को रोकने में सफल्ा नहीं हो पायेगी। ऐसे में साम्प्रदायिकता के खिलाफ लिखी जाने वाली रचना सिर्फ चुभन का अहसास भर कराये तो फासीवादी की ओर संक्रमित होते दौर के खिलाफ आखिर लामबंदी कैसे संभव होगी। इस कहानी की यह विशेषता उल्लेखनीय है कि इसके भीतर नागरिक और राज्य की पहचान को धर्म से इतर देखने की कोशिश हुई है। लेकिन ऐसा भी कहा जा सकता है कि अवचेतन में स्थित किन्हीं दुविधाओं की वजह से यह विचार बहुत प्रभावी नहीं बन पाया उसकी एक सूक्ष्म सी लकीर ही दिखायी देती है जो बांग्लादेश के गठन के बाद भी कहानी के पात्रों के द्वारा उसे पाकिस्तान ही मानते रहने वाली मानसिक पर्तो को खोलने का प्रयास करती है। लेकिन अवचेतन में उपस्थित धर्म को बचाये रखने वाली मानसिकता ही यहां भी आड़े आ जाती है। फिर अपने प्रिय पात्र जो खुद लेखकीय मानसिकता से संचालित होते दिखायी देते है, साम्प्रदायिक कैसे हो सकते है। यानी कहानी की मां और अणिमा के अवचेतन में धंसी हिन्दू मानसिकता क्या इसलिए साम्प्रदायिक नहीं है क्योकि वो हिंसक नहीं है। क्या हिंसा के बीज बोने वालों के लिए अणिमा और मां का चरित्र एक मॉडल नहीं है? हिसा से बचे रहने के लिए अणिमा की अपने पूर्व धर्म का परित्याग कर देने की असहायता और उन स्थियों से साक्षात्कार करने वाली दृष्टि से आंखें चुराने की असफल चेष्टायें क्या साम्प्रायिक शक्तियों को अपने हिंसक विचार को फैलाने में मद्दगार नहीं हैं ? आखिर बांगल्ाादेश की लेखिका तसलिमा की रचनाओं को बैन करने वाली और उन्हीं रचनाओं के सहारे अपने यहां हिंसा का माहौल रचने वाली दृष्टि क्या एक ही नहीं है। मेरी निगाह में ज्वार ऐसे सवालों से टकराना तो छोड़ो उसका विरोध भी करने का साहस नहीं करती और न ही प्रेरित करती है।

Sunday, March 16, 2008

कागज का नक्शाभर नहीं है देहरादून

कागज पर खींच दिये गये किसी नक्शे की शक्ल में देहरादून को दिखा पाना मेरे लिए असंभव है। रेखांकन करने का वो हुनर, जो हुबहू नहीं तो आभास जैसा कुछ गढ़ पाये, मेरे पास नहीं। एक ड्राफ्रट्समैन वाली समझ तो कतई भी नहीं। मौसम के बारे में कहूॅं तो हर बार के मौसम मुझे गये सालों के मौसम से ज्यादा तीखे ही दिखायी दिये और वही उक्ति दोहराने को मजबूर हॅंू - इस बार गर्मी बड़ी तीखी है बारिश भी हुई इस बार ज्यादा औ ठंड भी पड़ी पहले से अधिक ।इतिहास की पाठ्य पुस्तकें, जिन्हें पढ़कर प्राप्त हुआ सरकारी मोहर लगा कागज़, जिसे हर वक्त अपनी जान की तरह सुरक्षित रखने को विवश हॅंू, वह समझ दे ही नहीं पाया कि किसी भी जन-जीवन के विकास को क्रमवार विश्लेषित कर पांऊँ। फिर जिन पाठ्य पुस्तकों को मैंने पढ़ा, उनमें देहरादून तो क्या देश भर के कितने ही अनगिनत इलाके हैं, जिनका उनमें कोई जिक्र ही नहीं रहा।ऐसे में आये दिन तेज गति से बदल रहे देहरादून के भूगोल के साथ-साथ माहौल की बदल रही आबो हवा को समझ सकूं और आपके सामने रख पाऊँ, इसमें मैं अपने को अक्षम पाता हॅू। स्पष्ट है कि यह समझ सिर्फ किताबों को पढ़ लेने भर से हांसिल नहीं की जा सकती। उसे तो व्यवहार से जाना जा सकता है। व्यवहार का मामला तो यह है कि एक हद तक उसी मध्यवर्गीय शालीन मानसिकता में, जिसमें असहमति को खुलकर न रख पाने का दब्बूपन और उस दब्बूपन के भावों को छुपाये रखने की कला का कुशलता के साथ प्रयोग किया जाता है, अपने को जकड़ा हुआ पाता हॅूं - जो देहरादून के मिजाज की खासियत के तौर पर चारों ओर बिखरी हुई है। देहरादून के मिजाज में आयी ये व्यवाहारिक गड़बड़ रिटायर्ड नौकरशाहों और थैलीशाहों के लिए ऐशगाह बन जाने के कारण ही पनपी है। सरकारी मुलाजिमों के एक बहुत बड़े वर्ग ने, जिनका मासिक वेतन इस शहर की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, उसके चलते ही ऐसी मानसिकता न सिर्फ पनपी है बल्कि दनि प्रति दिन ज्यादा मजबूत होती जा रही है। पुश्त दर पुश्त बॅंटती गयी खेती की सीमित ज़मीन और अविकसित खेती की कंगाल व्यवस्था में खुद को जिन्दा रख सकने वाली रेढ़ी-ठेली वाली बाजार व्यवस्था को वैकल्पिक रूप्ा में जब देखा जाने लगा था उस वक्त के देहरादून और आज के देहरादून में जो एक खास अन्तर दिखायी दे रहा है, वह यही कि आज ज़मीनों की उछाल लेती कीमतों ने उस वैकल्पिक बाजार व्यवस्था को बेदखल करना शुरु कर दिया है। राजधानी बन चुके देहरादून के सौन्दर्य के नाम पर रेढ़ी-ठेली वाली व्यवस्था को पूरी तरह से बेदखल कर देने की कोशिश 'मॉल" संस्कृति को पनपाने का एक दूसरा पहलू है। राज्य बनने के बाद एकाएक आये ज़मीनों के इस उछाल में जहॉं एक ओर अपना काफी कुछ बेचकर 'आय" के उन तलाशे गये स्रोतों को अपनाने वाले उस दौर के युवा किसान अपने को ठगा-सा महसूस करने लगे हैं, वहीं आज के इस दौर में बिल्डरों-भूमाफियाओं की तेजी से बढ़ती आक्रमकता का नशा अपना जाल फैलाती दलाल संस्कृति मंें बाकी के बचे रह गये किसानों को अपनी अपनी ज़मीनों को बेचकर चमत्कृत दुनिया के सपने दिखाने लगा है। और इस सपने ने ही उस दौर के बाद बची रह गयी कुछ खेती योग्य भूमि को बीसवा, गज और फुटों की नाप जोख वाली संस्कृति में बदलकर रख दिया है। वर्तमान समय में देहरादून की अर्थ-व्यवस्था में 'उछाल" का यह मायावी खेल उत्पादकता के बेशक छोटे-छोटे, लेकिन स्थायी तंत्र को तहस-नहस कर उपभोक्तवाद की अंधि दौड़ में चकाचौंध पैदा कर रहा है। कोई भी सामान्य समझ से कह सकता है कि उत्पादकता के अभाव में फैलने वाली यह तात्कालिक चमक क्षणिक ही साबित होगी। रुपयों पैसों की वो गठरी जिसको संभालने में अभी बेशक अफरातफरी का एक माहौल दिखायी दे रहा हो पर उसका क्षरण होते ही स्थितियां एकदम साफ नजर आने लगेंगी। सरकारी महकमों के दम पर टिकी देहरादून की अर्थव्यवस्था को भविष्य तो पहले ही आये दिन बढ़ती जा रही निगमीकरण और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की चपेट में है। ऐसे में पारम्परिक खेती के बासमति चावल, गन्ना और चाय के एकड़ों खेतों पर उगते जा रहे कंक्रीट के जंगलों का यह आक्रमण जल्द ही युवाओं के भीतर हताशा पैदा करने लगेगा।दागिस्तान के तीन खजानों का जिक्र करते हुए रसूल हमजातोव द्वारा सुनाया गया किस्सा याद आ रहा है -''किसी पहाड़िये ने अपने खेत को जोतने का इरादा बनाया। उसका खेत गाूंव से दूर था। वह शाम को वहीं चला गया ताकि तड़के काम में जुट पाये। यह पहाड़ी आदमी वहॉं पहुॅंचा, उसने अपना लबादा वहॉं बिछाया और सो गया। वह सुबह ही जाग गया ताकि खेत जोतना शुरु कर सके, लेकिन खेत तो कहीं था ही नहीं। उसने इधर-उधर नज़र दौड़ाई, मगर खेत कहीं दिखायी ही नहीं दिया। गुनाहों की सज़ा देने के लिए अल्लाह ने छीन लिया था या ईमानदार आदमी की खिल्ली उड़ाने के लिए शैतान ने उसे कहीें छिपा दिया। कोई चारा नहीं था। पहाड़ी आदमी म नही मन दुखी होता रहा और आखिर उसने घ्ार लौटने का फैसला किया। उसने ज़मीन पर से लबादा उठाया और - हे भगवान! यह रहा लबादे के नीचे उसका खेत।
देहरादून ही नहीं पूरे पहाड़ पर उगे रहे ऐसे नीरस कंक्रीट के जंगलों की खबर, लबादे के नीचे ढके इन खेतों पर टिकी गिद्ध निगाहों और उनके कारनामें का बेहतरनीन नमुना बनकर, ग्लोबल विज्ञापन जगत में छाती जा रही है। शिक्षा के मन्दिर के रुप में स्थापित देहरादून के बारे में मैं आज भी अपनी उसी राय पर कायम हूॅं, जो मैंने एक दौर में अपनी कविता 'बस यात्रा" में रखने की कोशिश की थी -बदलते ही जा रहे हैं ईटों के भट्ठे जगह-जगह खुले स्कूलों की तरह जबकि ताजा बनी दीवारें लगातार ढह रही हैं।
राजनीति की अखाड़ेबाजी ने उममीदों की बजाय निराशा का माहौल रचा है जिसकी परिधि में जीवन कार्यव्यापार के सभी क्षेत्र जकड़े हुए दिखायी देने लगे हैं। मैं कोई इतिहासविद्ध नहीं। समय दर समय की शिनाख्त तारीखों के रूप में नहीं बल्कि दौर के रूप्ा में मेरे भीतर अंगड़ाई लेती है। वैसे भी समय की नपी तुली तथ्यात्मकता शायद ही मुझे अपनी बात रखने में मद्द पहुॅंचाये। दौर के हिसाब से कहॅंू तो साहित्यिक, सांस्कृतिक वातावरण में 'टिप-टाप' की टंटा समिति पूरी तरह से उखड़ चुकी है। टंटाधीश, टंटाधिपति, टंटा शिरोमणि की उपाधियों से नवाज़े जाने का वक्त समाप्त हो चुका है। आत्मीयता और एकजुटता का बचा खुचा, बेहद झीना पर्दा ही 'संवेदना" की प्रासंगिकता के रूप्ा में दर्ज किया जा सकता है। नाटकों के क्षेत्र में भी एक दौर में संलग्न संस्थाऍं और रंगकर्मी लूप्तप्राय: से हो गये हैं। ज़मीनों की खरीद-फ़रोख्त और मल्टीस्टोरिज ईमारतों की अवधारणा ने भी एक हद तक इसमें अपना रंग दिखाया है। एक दौर में रंगकर्मियों का अड्डा रही वह बिल्डिंग, नेहरुयुवा केन्द्र के नाम से जिसे जाना जाता था, उजड़ चुकी है। अभ्यास के लिए स्थान की अनुपलब्धता एक तर्क के रूप्ा में स्थापित होती चली गयी है। माहौल में फैली निराशा और हताशा ने ज्यादातर को घ्ार, परिवार और बच्चों में उलझा दिया है। जिनमें थोड़ी बहुत ऊर्जा या उत्साह बाकि है, वे मेले-ठेलों के खेल में जुटे हैं या बड़े पर्दे के कल्पनालोक में गोते लगा रहे हैं। कुछ उत्साही युवा रंगकर्मियों की ज़मात है जो अनुभवहीनता के चलते या तो दोहराव की राह पर है या फिर सरकार और गैर सरकारी तंत्र के तंत्र के द्वारा तय किये जा रहे एजेन्डे के तहत अपनी रचनाधर्मिता में संलग्न है।खेलों के क्षेत में अखबारी उपलब्धियों के बावजूद भी माहौल में उल्लास की वो चमक नहीं है जो सचमुच की जीत की खुशी देती है। हॉं, देहरादून का फुटबॉल कुछ-कुछ ज़िन्दा होता हुआ सा दिख रहा है। एक दौर में खॅंूटियों पर टंग चुके जूते फिर से फुटबॉल खिलाड़ियों के पॉंवों में चरमराने लगे हैं और चमड़े को पीटने के लिए कुछ बेताब भी नज़र आने लगे हैं। उत्तेजना और उल्लास की यह चमक कायम रहे। नहीं जानता कि जो कुछ भी मैंने अभी तक कहा, उससे देहरादून की कोई छवी बनी भी या नहीं। पर यह तो कहना ही पड़ रहा है कि पहाड़ी समाज के सामूहिक विकास की स्वाभाविक जीवन शैली के खिलाफ़ दलाल किस्म की गतिविधियों ने व्यक्तिवाद को चरम पर पहुॅंचाया है और असंवेदनशील समाज के सर्जन एवं विकास का बीज बोया है। देहरादून के चरित्र को जानने और समझने के लिए, अतीत के एक हिस्से पर, मैं भी देहरादून जनपद के कवि राजेश सकलानी की इस बात से इत्तिफाक रखता हॅूं कि एक दौर था जब पहाड़ का भागा हुआ कोई नवयुवक पहले से भाग आये अपने किसी साथी, नाते-रिश्तेदार के सहॉं शरण पाता था और महीनो-महीनों दर7दर की ठोकरें खाता हुआ अपने लिए अपनी कही जा सकने वाली ऐसी ही किसी शरणगाह का जुगाड़ कर लेता था, जो बाद में दूसरे किसी वैसे के लिए ही शरणगाह बन जाती। ऐसी ही सामूहिक कार्यवाहियों ने देहरादून के चरित्र को गढ़ा है। लेकिन आज किसी के पास इतनी फुर्सत या इतनी अनुकूल स्थिति नहीं बची ि कवह मद्द के नाम पर भी ऐसा कुछ कर पाये। आज का देहरादून, एक दौर में रोजगार के वास्ते पहाड़ से भाग-भाग कर आये ऐसे ही तमाम लोगों की सामूहिक गतिविधियों का प्रमाण है। पहाड़ के लोगों के लिए वे दिन उनके अपने जीवन के स्वर्णिम दिन भी कहे जा सकते हैं। उन्हीं पहाड़ी बुजुर्गो को, आज की युवा पीढ़ी, चौंधियाते माहौल में शायद याद भी नहीं करना चाहती। उस अतीत से उसका कोई लेना देना नहीं जो सहयोगात्मक तरह से दूसरे को भी आगे बढ़ाने की जगह बनाता है। वह तो गला काटू प्रतियोगिता में सिर्फ और सिर्फ अपने लिए ही सब कुछ बटौर लेना चाहती है।कथाकार सुभाष पंत की कहानियां देहरादून के ऐसे ही अतीत को पुन:सर्जित करती हैं। अरुण कुमार 'असफल" अपनी कहानियों में उसी छद्म की पड़ताल करते हैं जो दलाल संस्कृति का संवाहक है। नवीन नैथनी की कल्पनाओं में उछाल लेता देहरादून का एक दूसरा क्षेत्र ''सौरी"" के रूप्ा में ज़िन्दा होता है। कथाकार विद्यासागर नौटियाल की रचनाऐं जिनमें टिहरी बार7बार अपने इतिहास को सुना रहा होता है, हमें देहरादून के इतिहास में झांकने को मज़बूर करता है। पूरब से पहाड़ तक, तमाम स्त्रियों के जीवन में अवसाद के क्षणों की पड़ताल और उनको बदलने की चाह अल्पना मिश्र की रचनाओं का ताना-बाना है। अवधेश, हरतीज और सुखबीर विश्वकर्मा (कवि जी) ऐसे ही देहरादून का पुन:सर्जन करते हुए हमसे विदा हो चुके हैं। हिन्दी में दलित विमर्श की गूॅंज देहरादून से ही उठी - यह एक तथ्य के रुप में रखा जा सकता है। 'सदियों का संताप" दलित रचनाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि का पहला कविता संग्रह है, जिसकी खोज में दलित साहित्य का पाठ्क आज भी उस कविता संग्रह पर छपे उस पते को खड़खड़ाता है जो इसी देहरादून की एक बेहद मरियल सी गली में कहीं हैं। हिन्दी साहित्य के केन्द्र में दलित विमर्श जब स्वीकार्य हुआ, तब तक कवि जी (सुखबीर विश्वकर्मा) वैसी ही न जाने कितनी ही रचनाऐं जैसी बाद में दलित चेतना कीसंवाहक हुई, लिखते-लिखते ही विदा हो गये। मिथ और इतिहास के वे प्रश्न जिनसे हिन्दी दलित चेतना का आरम्भिक दौर टकराता रहा उनकी रचनाओं का मुख्य विषय था। अग्नि परीक्षा के लिए अभिशप्त सीता की कराह वेदना बनकर उनकी रचनाओं में बिखरती रही। पेड़ के पीछे छुप कर बाली का वध करने वाला राम उनकी रचनाओं में शर्मसार होता रहा। देहरादून की तस्वीर को रख पाऊँ, मैं पहले भी कह चुका हॅूं, असमर्थ हॅंू। मैं तो साहित्य से बाहर ही नहीं निकल पा रहा हूॅं। जबकि स्पष्ट कहूॅं कि देहरादून को आकार और पहचान देने में फुटबॉलर श्याम थापा जैसे ढेरों नामी गिरामी खिलाड़ी, दंगल के उस्ताद शर्मा जी और एक दौर के वे नामी पहलवान लियाकत अली और फकीरा, राजनैतिक कार्यकर्ता समर भण्डारी और उन जैसे ही अन्य क्षेत्रों में संलग्न प्रतिबद्ध साथी जगदीश कुकरेती, स्वाध्यायी राजेन्द्र प्रसाद गुप्ता, मिचमिची ऑंखों वाला वह बूढा पत्रकार - चारु चन्द्र चंदोला। जिसकी ऑंखों की रोशनी आज भी 'युगवाणी" के रुप में निखर-बिखर रही है। जगमोहन रौतेला, अरविन्द शेखर, राजू गुंसाई, अशोक मिश्रा आदि न जाने कितने लोगों के नाम लिये जा सकते हैं। ऐसे बहुत से लोग जिन तक मेरी पहुॅंच नहीं या जो बहुत चुपचाप सत्त कार्यवाहियों को अंजाम तक पहुॅंचाने में जुटे हैं वे सारे के सारे ही देहरादून कहे जा सकते हैं। उनसे ही बनती है पहचान देहरादून की।कुछ के नाम जो मुझे याद पड़ रहे हैं यहॉं लिए गये हैं पर अनेकों हैं जो छूट गये हैं। वे छूटे हुए नाम पाठक ले लेगें। पाठक हम लिखने वालों से ज्यादा दुनियादार हैं। हम तो निश्चित ही एक सीमित दुनिया के बीच में हैं। फिर जैसा मेरा मानना है भी है और यही सच भी कि किसी भी भू-भाग को आकार देने में जहॉं एक ओर सचेत कार्यवाहियों में जुटे लोगों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है, वहीं नैतिक ईमानदार और कर्तव्यबोध के तहत अपने-अपने विशेष क्षेत में जुटे लोगों की भूमिका को भी नज़र अंदाज नहीं किया जा सकता। ऐसे सामान्य लोगों ने फुॅटबॉल, खो-खो, शतरंज, तीरअंदाजी जैसे खेलों में अपनी उपस्थिति दर्ज कर देहरादून की जो तस्वीर गढ़ी है, उससे मॅंुह फेरा जा सकता है क्या ? देहरादून के धावकों को याद करने का मन किसका नहीं होगा। ये वे क्षेत्र हैं, कमोबेश जिनसे मेरा वास्ता रहा। जबकि जीवन के कार्यव्यापार के न जाने ऐसे कितने ही क्षेत्र हैं जिनके बारे में न तो मेरी जानकारी है और न जिन्हें जान पाने की मेरी क्षमता। ण्ेसे हीसामान्य लोग आज भी बेचैन स्थिति में हैं। आये दिन सड़कों पर उतरने वाली महिलाऐं, हर गलत पर चौकन्नी निगाह रखने वाले छात्र-नौजवान और मेहनतकशों की छोटी-छोटी कोशिशे ही इस बेचैनी को तोड़ेगीं। उम्मीदों के पौधे हमारे खेतों में ऐसे ही सामान्य लोगों के प्रयासों से लह-लहायेगें। उन सबसे सीख और समझ लेकर ही मैं देहरादून की तस्वीर शायद रख पाऊँगा। यह जो कुछ भी कहा गया देहरादून के बारे में, नितांत मेरी व्यक्तिगत राय का अक्श है, जो मेरी स्मृतियों में दर्ज घ्ाटनाओं और मेरे निजी अनुभवों के आकाश से उपजा है। बहुतों की राय इससे भिन्न हो सकती है। मैं उस भिन्नता का सम्मान करता हॅूं। वैसे भी इसे हीअन्तिम माना जाये, यह तो मैं इसलिए भी नहीं कह सकता क्योंकि मेरे ही भीतर दर्ज स्मृतियों के कोनों में अभी और भीकई बातें हैं जिन्हें पूरी तरह से नहीं रख पाया हॅूं। फिर कैसे मान लूं कि यही एक मात्र और माकूल छवी हो सकती है देहरादून की। रतन और ली पतंगबाज, कुसम्बरी का मांजा, भरतू और बारु की दोस्ती-दुश्मनियों के किस्से, देहरादून की रामलीलाऐं, गुरुबचन तांगे वाले का जीवन, रोशन हलवाई के रसगुल्ले, मैंगा राम के समोसे, देहरादून का कबाड़ी बाजार, कागज के लिफाफे बनाने वाले लोग, सड़के पर पड़े हुए गोबर को इक्टठा करके कंउे थापने वाली लड़कियां, पॉंच पैसे - दस पैसे वाली लाटरी के पत्ते को फाड़कर हर क्षण भाग्य आजमाने वाले लोग, गोली वाली सोडे की बोतल का पानी बेचता वह बूढ़ा सिक्ख - देश के विभाजन ने जिसको पूरी तरह से तोड़ देने के बाद भी जीवन के संघ्ार्ष में जुटे रहने की ताकत दी। ऐसे ढेरों लोगों की बाते मेरे भीतर स्मृतियों के रुप में अब तक जिन्दा है। अभी तो नुडत्र नाटक आंदोलन में 'दृष्टि" की भूमिका 'दादा" अशोक चक्रवर्ती और अरुण विक्रम राणा सरीखे अपने न जाने कितने अग्रजों के माध्यम से मैं और भी बहुत कुछ कहने को बेचैन हॅूं। अभी देहरादून का लघ्ाु उद्योग - बल्ब फैक्ट्री का जिक्र करना बाकी है। उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन का खदबदाता हुआ समय फिर से वैसे ही हुज़ूम को सड़क पर उतर आने का समना दिखा रहा है। छात्राों का आंदोलन, जो बी।एड के संदर्भ में शिक्षा के निजीकरण की मुखालफ़त को लेकर शुरु हुआ। छात्र आंदोलन का वह दौर भी जब विवेकानन्द खण्डूरी निर्विवाद रुप से छात्र नेता के रुप में स्थापित था। उसके बाद के दौर में वेदिका वेद सरीखे छात्र नेताओं की भूमिकादमदार रही। जिनके रहते एस एफ आई ने अपना परचम लहराया। कामरेड सुनिल चंद्र दत्ता के दौर के देहरादून,जिसे मैंने कारखाने में जाने के बाद अपने वरिष्ठ साथी कामगारों और ट्रेड यूनियन साथियों से जाना। मुझे लगता है, देहरादून की तस्वीर जो अभी और आगे भी, लगातार मेरे भीतर दर्ज होने वाली है, उसको भी कहना होगा।

Friday, March 14, 2008

दो वरिस्थ कवियों की कविताएँ

इब्बार रब्बी और भगवत रावत, जिन्होंने हाल ही में अपने-अपने ढंग से दिल्ली को परिभाषित किया.
दिल्ली पर भागवत रावत की कविता “नया ज्ञानोदय” मैं पर्कासित हुई थी और इब्बार रब्बी की कविता “वाक”
मैं. यहाँ इब्बार रब्बी के संग्रह – “लोग बाग” से एक और कविता हैं जिसमें उसी दिल्ली की उनके भीतर
बसी छवी दिखाई देती है. भगवत रावत की कविता उनके संग्रह “निर्वाचित कविताओं” से लिया गया
है. इसे पूर्व ये कविता उनके अपने कविता संग्रह “ऐसी कैसी नींद” में सम्मलित थी.
दोनों ही कविताएँ अपने परिवेश के प्रति लगाव और जुडाव का उदाहार्ण है. यह महज संयोग नहीं बल्कि दो
सचेत और गंभीर नागरिकों का वक्तव्य भी .

भगवत रावत की कविता

यह महज संयोग है

अभी पृथी इतनी छोटी नहीं हुई की गेंद की तरह
उनकी मुट्ठी में आ सके
और समुन्द्र इतने उथले नहीं हुए कि उनके लिए
टेनिस का कोर्ट बन सके
और यह महज संयोग है
हमारी किसी बचाव की तैयारी के तहत नहीं कि अभी
बहुत सारी चीजें
कुछ लोगों की पकड़ के बाहर हैं
वैसे उनके नक्शों पर
पृथ्वी और आकाश के बीच जो भी जघह खाली है
उसके प्लाट्स काटे जा चुके हैं और उन पर
ताले डाले जा चुके हैं
और हम आदिवासियों की तरह आज भी
खुले आकाश के नीचे
अपनी दारुण अकिंचनता में
रोते हैं, गाते हैं
गाते हैं, रोते हैं
सूरज हमारा है, चन्द्रमा हमारा है
हमारा है आकाश, वायु, जल
और धरती हमारी है .

इब्बार रब्बी

इच्छा

मैं मरूँ दिल्ली की बस में
पायदान पर लटक कर नहीं
पहिये से कुचलकर नहीं
पीछे घसीटता हुआ नहीं
दुर्घटना में नहीं
मैं मरूँ बस में खड़ा-खड़ा
भीड़ में चिपक कर
चार पाँव ऊपर हों
दस हाथ नीचे
दिल्ली की चलती हुई बस में मरूँ मैं
अगर कभी मारून तो
बस के योवन और सोन्दर्य के बीच
कुचलकर मरूँ मैं
अगर मैं मरूँ कभी तो वहीं
जहाँ जिया गुमनाम लाश की तरह
गिरुं मैं भीड़ में
साधारण कर देना मुझे है जीवन!

Thursday, March 13, 2008

उनींदे की लोरी

सांप सुने अपनी फुंफकार और सो जाए
चिन्तियाँ बसा ले घर बार और सो जाये
गुरखे कर जाये खबरदार और सो जाये
(गिरधर राठी के इसी नाम के कविता संग्रह से)

पृथ्वी पर सबके लिए सुकून चाहने की इच्छा रखने की ऐअसी कविता शायद अन्य कहीं सम्भव हो। नींद यहाँ एक भरी पुरी आत्मीय दुनिया बनाटी हे। ध्वनी की दृष्टि से अनुस्वार की आवृति कविता को प्यारी रचना बनाटी he.
(कवि राजेश सकलानी की टिपणी )

Wednesday, March 12, 2008

ओम परकाश वाल्मीकि की नई किताब - "सफ़ाई देवता"

“सफ़ाई देवता” दलित धारा के रचनाकार ओम परकाश वाल्मीकि
की एकदम तजा पुस्तक हें. दलित वाल्मीकि समाज का एक संचिप्त इतिहास पुस्तक में दर्ज हें. पुस्तक की
भूमिका में लेखक इस बात का जिक्र करतें हें की दलित जातियों में पड़े लिखे एअसे लोग हें जो
अपनी जात छुपाकर अपने इतिहास और समाज से किनारा कर त्रासद पीडा को भोगने को मजबूर हें (मजबूर- भाव मेरा ).
दलित साहित्य का वर्तमान paridrisay भी दलित जातियों के मधय्वार्गिये जीवन में परवेश कर सके एसे
ही ढेरों पत्रों को हम समकालीन दलित रचनाओं में पड़ते हें. भारत में पूंजीवादी विकास हो
चुक्का हें, इस धारणा पर यकीन करते हुए समाजवादी क्रांति के लिए संघर्षरत सामाजिक’ राजनेतिक
karyakartaon (कर्य्कर्तों) के लिए यह एक सोच्निये विषय होना चाहिए की क्यों कर दलित समाज के एसे लोग भी अपनी पहचान को छुपाने के लिए मजबूर हें. पूंजीवादी जनतंत्र को टू विभिन्न्त्ता का सम्मान करना ही
चाहिए था. सम्कल्लें दलित चेतना का उभर इसी अस्मित्ता की बात करता हें. पूंजीवादी विकास का यह झूठा
तंत्र टू उस सामंती ढांचे से भी ज्यादा क्रूर नजर आने लगता हें जो सिर्फ़ और सिर्फ़ तथा कतित स्थापित
सर्वोछ्ता के बीच भी, किसी को उसकी अस्मित्ता के साथ स्वीकार कर्त्ता ही nhin हें, यहाँ ammanviyatta को swikarne का सम्मान नही बल्कि मोजुदा समाज में उसे छुपा कर जीने की majboori ही मुख्य roop से चिन्हित की जा रही हें। जो तंत्र मनुसय को उसके उप्पर अरोप्ती कर दी गयीं pahchaan को भी उसे खुल कर विरोध करने
की स्वतंत्रअ न देता हो वो जनतांत्रिक आखिर केसे हो सकता हें फ़िर ?
यहाँ ये स्पस्ट माना जाए की आजादी के बाद जो पूंजीवादी ढांचा खड़ा हुआ और राजनेतिक तंत्र panppa क्या वह
जनतांत्रिक बन पाया ? टू फ़िर समाजवाद की स्थापना के लिए इस etihasik भोतिक्वाद की अव्धारना को केसे पआर
किया जा सकता हें ?

Tuesday, March 11, 2008

एल्फ्रेड जेलेनिक क्या लिखती हें

वर्ष २००४ में साहित्य के लिए नोबेल पुरुस्कार से सम्मानित नारीवादी लेखिका एल्फ्रेड जेलेनिक पर वर्तमान साहित्य के मार्च ०८ में परकासित विजय शर्मा का आलेख लेखिका का परिचय हिन्दी पाठकों से अच्छे से करता हे।
एल्फ्रेड जेलेनिक ऐसा क्या लिखती हे ? उसी आलेख से -
उनका साहित्य नारीवादी हे और आस्ट्रिया के समाज का कटु आलोचक हे। उनके आलोचक उनके साहित्य को अश्लील, kheejane vala और उपास्पूर्ण मानते हे । व्यंग्यात्मक लहजे और भाषा se khelane vali एल्फ्रेड जेलेनिक in baton की परवाह नहीं करती हे और समाज की कमयीओं को खोल कर दिखाआतीं हे।
----------------
जिस परम्परा के कारन स्त्री का दमन, सोसन और और आप्मान होत्ता हे अत्याचार सह्तीं हे - उसे वे स्पस्ट रूप से चित्रित करतीं हे।
एल्फ्रेड जेलेनिक के बारें में और जानने के लिए लिंक करें-

http://nobelprize.org/nobel-prizes/literatures/2004/jelinek-bibl.html
http://almaz.com/nobel/literature/2004a.html

Monday, March 10, 2008

तेलगु के क्रन्तिकरिकवि वर्वारा राव की kavita

वसंत कभी अलग होकर नही आता

वसंत कभी अलग होकर नही आता
ग्रीष्म से मिल कर आता हे।
झरे हूउए फूलों की यद्
शेष रही कोपलों के पास
नई कोपलें फूटती हें
आज पत्तों की ओत में
अद्रिशय भविष्य की तरह

कोयल सुनती हे बीते हूए दुःख का माधुर्य
परतीचा के चानों की अवधि बढकर स्वपन समय घटता हे।

सारा दिन गरम आकाश में
माखन के कोर सा पिघलता रहता हे चाँद ।
यह मुझे केसे पता चलायादें, चांदनी कभी अलग होकर नही आती
रत के साथ आती हे।

सपना कभी अकेला नही आता
व्यथाओं को सो जन होता हे

सपनों की अंत तोड़ कर
उखड कर गिरे सूर्य बिम्ब की तरह
जागना नही होता।

आनद कभी अलग नही आता पलकों की खली जगहों में
वह कुछ भीगा सा वजन लिए
इधर-उधर मचलता रहता हे।

"सहस गाथा क्रांतिकारी कवि वर्वारा राव ख कविअतों का हिन्दी मी पर्कसित कविता संग्रह हे। ससी नारायण स्वाधीन एवम नुस्रात्र मोहियोद्दीय ने कविताओं का अनुवाद हिन्दी मी किया हे।

दलित धारा के कवि ओम परकाश वाल्मीकि की कविता

ठाकुर का कुआँ

चुल्ला मिटटी का
मिटटी तलब की
तलब ठाकुर का ।
भूक रोटी की
रोटी बाजरे की
बाजरा खेत का
खेत ठाकुर का

बेल ठाकुर का
हल ठाकुर का
हल की मूठ पर हथेली अपनी
फसल ठाकुर की

कुआँ ठाकुर का
पानी ठाकुर का
खेत-खलियान ठाकुर के।
फ़िर अपना क्या ?
गाओं ?
सहर ?
देश ?
हिन्दी मी दलित साहित्य की स्थापना से काफी पहले पर्कसित ओम परकाश वाल्मीकि की कविता पुस्तक - "सदियों का संताप" दलित धारा के साहित्य की एक महत्वपूर्ण पुस्तक हे। ठाकुर का कुआँ सब्ग्रह की पहली कविता हे जो उसी चेतना का पर्तिनिधितव करती हे, परवर्ती डोर मी जिसे दलित धरा के रूप mearkasitHindi मी जन जाने लगा

राजेश सकलानी की दो कविताएँ

खील के दाने

उछालते कूदते, फर्श पर ही
सो जाते
संभाले नही जाते खील के दाने

मेह्नात्काशों के घरों में
तारों की तरह जगमग रहें
खील के दाने
-----------------
खील के दानों सबको पुगना
कड़े हाथों आना
बोरों से लगते हुए आना
ठगने वाले रंगीन डिब्बों मी कभी नही आना

राजेश सकलानी जिन्दी कविता के महाताव्पूर्ण कवि हें। "सुनता हूँ पानी गिरने की आवाज" इनकी कवितों की पुस्तासे पाठक अच्छे से परिचित हें।