Monday, June 16, 2008

अपने वतन का नाम बताओ -दो


विजय गौड


सुबह 9.00 बजे के आस-पास ही धर्म सिंह हर्षिल पहुंच गया। धर्म सिंह झाला का रहने वाला है। लमखागा का रास्ता उसका देखा हुआ है। एक बार आईटीबीपी के जवानों के साथ, माल ढुलाई के वक्त लमखागा को पार कर चुका है। इसीलिए हमारा पोर्टर भी ओर हमारा गाइड भी।

तिरेपन ओर किशन भी हमारे सहयोगी ही थे, जो उत्तरकाशी से ही साथ चले थे लेकिन लमखागा का मार्ग नहीं जानते थे। किशन की सलाह पर ही झाला से धर्म सिंह को तय किया। साफ था कि कम से कम कोई तो हो जिसे थोड़ा बहुत ही सही, रास्ते का अंदाजा हो। धर्म सिंह के पहुंचते ही पिट्ठू कंधें पर लादे और निकल पड़े।
जलंधरी गाड़ के किनारे-किनारे ही आगे बढ़ने लगे। रास्ता चढ़ाई भरा था। चढ़ाई ऐसी कि घुटनों पर हाथ खुद-ब-खुद ही पहुंच जाते । सीधे लाल देवता पहुंचे । एक पेड़ के मुख्य तने पर पुराने कपड़े बंधें थे। जानवरों के सिंग भी पेड़ पर धंसाये गये थे। पेड़ के नजदीक पहुंचकर ही अनिल काला रुक गया। उसका अनुमान सही था- यही लाल देवता है।

लाल देवता से सीधा ढाल उतरता गया। ऊंची चट्टानों से रिपटकर आये हुए पत्थरों भरा इलाका। हर्षिल से जब चले तो धूप तेज थी। देवदार के घने जंगलों के बीच ही चढ़ाई भरे रास्ते पर चले थे। देवदार की ठंडी छांव तेज धूप से बचाती रही। निर्मम हाथ छायाओं को कम नहीं कर पाये थे। प्रकृति की महानता है कि वृक्षों के नृशंस कत्लेआम के बावजूद भी उनका उगना जारी रहा। जगह-जगह कटे हुए वृक्षों के ठूंठों को, देवदार की घनी झाड़ियां मुंह चिढ़ाती रही।
पहले दिन ही बर्फ रास्ते के किनारे दिखायी देने लगी। रपटा पार कर मोरा सोर का मैदान दिखायी देने लग, जहां धूप जानवरों की शक्ल में मौजूद थी। कुछ साथियों ने भोज-पत्रों की छाल स्मृतियों को बचाये रखने के लिए पिट्ठुओं में रख ली। किशन, तिरेपन, विमल और सतीश टैन्ट लगाने लगे। हम कुछ साथी इधर-उधर बिखरी लकड़ियों को रात में आग सेंकने के लिए इक्ट्ठा करते रहे। धूप ढलती जा रही थी। हवा में ठंडक थी।
सुबह जब उठे तो किशन चाय बना चुका था। दाल की बड़ियों को उबालकर नाश्ता किया जाये, यह रात ही तय हो चुका था। अन्य साथी टैन्ट खोलकर सामानों की पैकिंग करने लगे। मैं और किशन नाश्ता तैयार करते रहे। पैकिंग निबटाकर नाश्ता किया और मोरा सोर से आगे बढ़ लिये। मोरासोर से जब चले, जलंधरी हमारे बांयें हाथ पर थी। गंगनानी के नजदीक ही लकड़ी के पुल से जलंधरी को पार किया और जलंधरी हमारे दांयें हाथ पर। भोज पत्रों के वृक्ष जो मोरा सोर से दिखने शुरु हुए थे, क्यारकोटी से थोड़ा पहले तक दिखायी देते रहे। यानी लगभग 12000 फुट की ऊंचाई पर हम चल रहे थे। मोरा सोर से मैं कभी किशन के साथ तो कभी धर्म सिंह के साथ चलता रहा। झाला में सुनी गयी बीरासिंह की कथा मेरी बातचीत का विषय बनी हुई थी।

बीरा सिंह झाला का सयाणा, थोकदार था। झाला में उसकी पांच मंजिला इमारत आज भी मौजूद है। झाला वाले उसका नाम आदर से लेते हैं। औजी उसके गीत गाते हैं। पर बड़ासू! बड़ासू बीरा सिंह का दुश्मन है- धर्म सिंह बताता रहा।
धर्म सिंह की बातों में आने वाले संदर्भों के हिसाब से बीरा सिंह को विलसन का समकालीन ही होना चाहिए। उस समय पहाड़ के इस पार झाला और दूसरी ओर की घाटी में यमुना के पार बड़ासू वाले अपनी भेड़ बकरियों को पहाड़ की दोनों ओर की ढलानों पर चुगाने के लिए बर्फ के गल जाने के पर पहुंचते थे। वहीं वक्त-बे-वक्त एक दूसरे की भेड़ बकरियों को बल पूर्वक हांक लेजाने पर दोनों ही ओर के लोगों के बीच ठनी रहती थी। वैसे नाते-रिश्तेदारियां भी झाला और बड़ासू वालों के बीच आम थी।
धर्म सिंह के ही मुताबिक बीरा सिंह की एक बहन बड़ासू में ब्याही हुई थी। बीरा सिंह के बारे में धर्म सिंह का कहना था कि वह झाला का ऐसा सयाणा था जिसने झाला वालों की खातिर बड़ासू वालों से दुश्मनी मोल ली। बीरा सिंह के रहते बड़ासू वालों की हिम्मत नहीं होती थी कि झाला वालों की बकरियों को हांक ले जायें। बस इसीलिए बड़ासू वालों ने एक दिन - जब बीरा सिंह अपनी बहन को सुसराल खेदने बड़ासू पहुंचा तो वहां घेर कर उसे खत्म कर दिया। हालांकि अपने ऊपर एकाएक हुए हमले का बीरा सिंह ने अपनी पूरी ताकत से प्रतिरोध किया पर अन्तत: वह मारा गया। बड़ासू में आज भी बीरा सिंह का स्मारक है। धर्म सिंह की इस कथा की सत्यता पर से पर्दा तो शायद बड़ासू जा कर ही उठे। कभी वक्त निकल पाया और जाना संभव हुआ तो अवश्य जाना चाहूंगा। देखना चाहूंगा बड़ासू में बीरा सिंह का स्मारक जैसे देखना चाहूंगा तिब्बत में लदृदाख के सामंत जोरावर सिंह का स्मारक, जो तिब्बत वालों की जीत का प्रतीक है।
बीरा सिंह की बहादुरी को लेकर जो कथा धर्म सिंह ने सुनायी, उसे सुनकर मुझे लगता है, बड़ासू और झाला वालों के बीच यदि वाकई कोई ऐसी दुश्मनी रही हो तो उसके कारणों को उस कथा में ढूंढा जा सकता है। बीरा सिंह बड़ासू की किसी स्त्री से प्रेम करने लगा था जो विधवा थी। बड़ासू वाले बीरा सिंह और उस स्त्री के बीच पनप रहे संबंधों को नाजायज मानते थे। इस बाबात उन्होंने बीरा सिंह तक अपनी नाराजगी उसकी बहन के मार्फत भी पहुंचायी। बहन ने भी एक विधवा से बीरा सिंह को संबंध न बनाने के लिए बार-बार कहा पर बीरा सिंह का मन उससे जुड़ता चला गया और बड़ासू वालों की नाराजगी जो लगातार धमकियों में बदलती चली गयी, उसने उसकी भी परवाह नहीं की। एक दिन सरेआम उस महिला को अपने साथ झाला लेकर निकल गया और अपनी पत्नी बना लिया। उसके बाद ही वह एक दिन गुस्से से उबल रहे बड़ासू वालों के बीच घिरकर मारा गया। उस स्त्री को लेजाने वाले दिन की घटना, जैसा धर्म सिंह ने बताया, बड़ी ही दिलचस्प है।
एक दिन बीरा सिंह जब अपनी बहन की सुसराल बड़ासू पहुंचा तो उसकी बहन ने बीरा सिंह को सूचना दी कि बड़ासू वाले बुरी तरह से खार खाये बैठे हैं और तेरी जान के दुश्मन बन गये हैं। मैं तुझ सरिखे भाई को अपने सुसरालियों के हाथों मरते नहीं देख सकती बीरा। तू उस स्त्री से अपने संबंध तोड़ दे बीरा। पूरी तरह से तोड़ दे बीरा। बीरा सिंह चुपचाप बहन को सुनता रहा। प्रेम जीवन का कोई ऐसा कार्य-व्यापार तो नहीं जिसे जब मन में आया जमा लिया और जब मन में आया उजाड़ दिया। बीरा सिंह ने कोई जवाब नहीं दिया बल्कि अपने भीतर ही भीतर बड़ासू वालों द्वारा दे दी गयी चुनौति का जवाब देने की तरकीब सोचता रहा। बहन ने बताया कि आज तेरे आने की खबर पर पूरा बड़ासू चौकन्ना है। गांव का हर मर्द तेरी जान का दुश्मन है। यह तय है कि यदि आज की रात तू उस ओर को गया भी तो चारों ओर हाथों में पाठल लिये तेरी फिराक में घूम रहे बड़ासू के मर्द तुझे जिन्दा न छोड़ें। तुझे मेरी कसम है बीरा, तू आज कतई नी जाना वहां।
गहन काली रात थी। बीरा की आंखों में नीद नहीं थी। प्रेमिका से मिलने की इच्छा उसे बेचैन किये हुए थी। चोर कदमों से उठते हुए किवाड़ खोल वह बाहर निकल आया। सामने यमुना का उछाल मारता जल शोर कर रहा था। बीरा सिंह के भीतर भी बहुत तेज उछल रहा था कुछ। बस जा पहुंचा अपनी प्रेमिका के पास। किवाड़ खड़खड़ाये।कौन ?बीरा सिंह।
भड़भड़ाकर खुल गये किवाड़। झट हाथ पकड़ उसने बीरा सिंह को भीतर खींच लिया।
तू क्यों आया बीरा। चला जा, चला जा। तुझे मार देगें वो। तू अभी निकल जा बीरा। मेरी खातिर तू अभी यहां से चला जा बीरा।
मंद मंद मुस्कराता रहा बीरा, निगाहों से शरारत करते हुए।
तू चला जा बीरा। तुझे मेरी सों। देख, तू अभी निकल जल्दी।
बीरा नहीं माना। तुझे भी मेरे साथ चलना होगा।
कहां ?

झाला।
क्या---!
हां, मेरी पत्नी बनकर।
लेकिन चारों ओर पहरा है। हमारा यहां से बाहर निकलना ही संभव नहीं।
उसके लिए तू निसफिक्र हो जा। बस बोल मेरे साथ चलेगी कि नहीं ?

क्षण भर को ही ठहरा होगा मौन कि ओबरे की दीवार फोड़ दी उस पहाड़ी स्त्री ने। खेत में हाड़ तोड़ मेहनत करने वाली उस पहाड़ी स्त्री का शरीर ही नहीं उसका दिमाक भी दुगनी शक्ति से चल रहा था। नीचे गयी और गाय का मौल उस जगह लाकर ढोलने लगी जहां से दीवार फोड़ी गयी थी। घनी काली रात थी। अपने शिकार बीरा सिंह की फिराक में चौकीदार करते बड़ासू के बांकुरे कैसे अनुमान लगाते थे कि बीरा सिंह उसके पास पहुंचा हुआ है जबकि वह तो इस रात में भी जानवरों की गोठ में जुटी है।
जब गोबर का अच्छा खासा ढेर खड़ा हो गया और उसने निश्चित कर लिया कि इस पर छलांग लगाने के बाद भी बीरा सिंह के शरीर को कोई क्षती नहीं पहुंचेगी तो उसने ओबरे में बैठे बीरा सिंह को छलांग लगा देने को कहा। उसके इस तरह एकाएक गायब हो जाने और उसकी प्रतिक्षा में बैठे बीरा सिंह ने जब उसकी आवाज के इशारे पर ओबरे की टूटी हुई दीवार से झांका तो गोबर से सनी उस खूबसूरती पर उसकी निगाह अटकी की अटकी रह गयी, जिसकी निगाहों में उल्लास की चमक थी। बस, बीरासिंह ने छलांग लगा दी। गोबर में धंसी टांगों के कारण बीरा सिंह का बदन ज्योंही डगमगाने को हुआ गोबर सनी बांहों ने उसे थाम लिया। उसकी बांहों में अपनी संभली हुई देह को हटाने की इच्छा बीरा सिंह को हुई ही नहीं। उसके वश में होता तो इन क्षणों को गुजरने ही न देता। रात से पहले ही झाला की सरहद को छू लेना चाहिए। और सामने बहती यमुना को पार करने के लिए वे दोनों दबे कदमों से बढ़ने लगे। बीरा सिंह जब खुद कायर नहीं था तो किसी कायर स्त्री से प्रेम भी कैसे करता।
अपनी प्रेमिका को यूंही चुपके से उसे लेजाना गंवारा नहीं हुआ। एकाएक उसको न जाने क्या हुआ। दुबारा ओबरे में गया और लम्बे समय से एक कोने में गुमसुम पड़े उस ढोल को उसने उठा लिया जिसके बजाये जाने के लिए परम्परा के अनुसार एक मर्द की दो मजबूत भुजाओं की जरुरत होती है और फिर से उसने ओबरे के नीचे लगाये गये गोबर के ढेर पर छलांग लगायी।
अब वे दोनों यमुना के उस कच्चे पुल पर थे जिसे पालसिंयों ने भेड़ और बकरियों को पार ले जाने के लिए डाला हुआ था। नदी के बहाव से पैदा होती कम्पन और शरीर के भार से झूलते पुल को पार कर दोनों ही उस पहाड़ की तलहटी में पहुंच गये थे जहां से खड़ी चढ़ाई शुरु होती थी। लकड़ी का कच्चा पुल उन्होंने तोड़ दिया। जिस वक्त बीरा सिंह पुल की बल्ली को निकाल कर यमुना में बहा रहा था ढोल उसने अपनी साथिन को पकडा दिया था। तभी बीरा सिंह ही नहीं पूरा बड़ासू चौंक गया जब उसने एकाएक ढम-ढमाते ढोल की आवाज सुनी। गले में टंगे ढोल को पूरे उल्लास के साथ वह ढम ढमा रही थी। नदी के उस पार से ताकते बड़ासू वालों को चुनौति देकर दो युवा प्रेमी एकदम सामने खड़े थे और यमुना का तेज बहाव उनके दुश्मनों के होंसले पस्त कर रहा था।
धर्म सिंह की कथा समाप्त होने तक हमारे सभी साथी क्यारकोटी निकल चुके थे। धर्म संह के मुताबिक वे आज के पड़ाव पर पहुंच चुके होगें। क्यारकोटी खूबसूरत बुग्याल है जहां भेड़े चुग रही थी। साथी टैन्ट लगा चुके थे। क्यारकोटी में बारिस पड़ रही थी। ठंड ज्यादा थी। एक बार तो बादल इतना नीचे तक घिर आये कि हमारे टैन्ट भी ढक गये। कुछ दिखायी नहीं दे रहा था। लेकिन ऐसा ज्यादा देर नहीं रहा और बादल छंटने लगे। रात के वक्त क्यारकोटी का हरापन, अंधेरे के बीच ढक गया। अपने टैन्टों में दुबके हुए हम भेड़ों की आवाज सुनते रहे। भले ही भेड़-चरवाहे भी अपनी कम्बलों के भीतर दुबक चुके थे पर स्मृतियों में भेड़ों को पुकारती उनकी सीटियां स्वप्न बुनती रही।


--जारी

1 comment:

Udan Tashtari said...

पढ़ रहे हैं, बह रहे हैं-जारी रहिये. बड़ी रोचक शैली है.