Sunday, April 20, 2008

जूते बेचने के लिए

सुभाष पंत
मो० 09897254818
( सुभाष पंत 'समांतर" कहानी आंदोलन के दौर के एक महत्तवपूर्ण हस्ताक्षर हैं। समांतर कहानी आंदोलन की यह विशेषता रही है कि उसने निम्न-मध्यवर्गीय समाज और उस समाज के प्रति अपनी पक्षधरता को स्पष्ट तौर पर रखा है। निम्न-मध्यवर्गीय समाज का कथानक और ऐसे ही समाज के जननायकों को सुभाष पंत ने अपनी रचनात्मकता का केन्द्र बिन्दु बनाया है। या कहा जा सकता है कि सामान्य से दिखने वाले व्यक्तियों की जीवन गाथा ही उनकी रचनात्मकता का स्रोत है।पिछले लगभग पचास वर्षों में सरकारी और अर्द्ध-सरकारी महकमों की बदौलत पनपे मध्यवर्ग और इसी के विस्तार में अपरोक्ष रुप से पनपे निम्न-मध्यवर्ग के आपसी अन्तर्विरोधों को बहुत ही खूबसूरत ढंग से सुभाष पंत ने अपनी कहानियों में उदघाटित करने की कोशिश की है। उनके कथा पात्रों के इतिहास में झांकने के लिए पात्रों के विवरण, उनके संवाद, उनके व्यवसाय और उनकी आकांक्षओं के जरिये पहुंचा जा सकता है।
यहां प्रस्तुत कहानी, शीघ्र ही प्रकाशन के लिये तैयार उनके नये संग्रह से ली गयी है. अभी तक सुभाष जी के छ: कथा संग्रह, एक नाटक और दो उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं. "पहाड चोर"(उपन्यास) अभी तक प्रकाशित उनकी सबसे अन्तिम रचना हैं जो साहत्यिक जगत में लगातार हलचल मचाये हुए है. )


पुत्र की आत्मा चैतन्य किस्म के उजाले से झकाझक थी, जिसने उसके चेहरे की जिल्द का रंग बदल दिया था। भूरी काई दीवाल से ताजा सफेदी की गई दीवाल में। वह गहरे आत्मविश्वास से लबालब था, जो पैनी कटार की तरह हवा में लपलपा रहा था, जिसके सामने हम जमीन पर चारों खाने चित्त गिरे हुए थे। उसकी बगल में एक ओर राष्ट्रीय बैंक में अफसरनुमा कुछ चीज उसका पिता पशुपतिनाथ आसीन था। वो प्रसन्न था और वैसे ही प्रसन्न था जैसे किसी पिता को अपने बेटे की विलक्षण उपलब्धि पर होना चाहिए। खुशी से उसकी आंखें भरी हुई थीं और गला भरभरा रहा था। लेकिन उसकी अफसरनुमा चीज हड़काई कुतिया की तरह दुम दबाए बैठी थी। वह भौंकना भूल गई थी। पर जैसे ही उसे अपने महान संघर्षों और उपलब्धियों की हुड़क उठती, वैसे ही हड़काई कुतिया की पूंछ सौंटी हो जाती और हवा में लहराने लगती।
उसके संघर्ष सचमुच महान थे और उपलब्धियां चमत्कारी। वह घोर पहाड़ के ऐसे हिस्से में पैदा हुआ था, जहां कोई स्कूल नहीं था, लेकिन वहां एक दरिद्र-सा मंदिर जरुर था। उसके पिता उस मंदिर के पुजारी थे। वे बहुत गरीब थे। और सज्जन भी। पशुपतिनाथ उनकी पांचवीं संतान था। पिता कुण्डलियां बनाने और पढ़ने के माहिर थे। अपने बच्चों की कुंडलिया उन्होंने खुद ही बनाई थी और उनके गलत होने का कोई सवाल ही नहीं था। बच्चों की कुंडलियां पढ़कर उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि मेरी पांचवीं संतान पशुपति धर्मपरायण होगा और मेरे बाद इस मंदिर के पुजारी के आसन पर सुशोभित होगा। हालांकि तब पशुपति कुछ सोचने की उम्र से छोटा था, लेकिन पिता की इस भविष्यवाणी से उसकी नींद गायब हो गई। वह क्रांतिकारी किस्म का लड़का था और मंदिर में घंटी बजाना उसे कतई स्वीकार नहीं था। वह मौका देखकर घर से भागकर मौसा के पास शहर आ गया। शहर में आकर उसने बेहद संघर्षं किए और घोर पहाड़ का यह लड़का निरन्तर प्रगति करते हुए बैंक में अफसरनुमा कोई चीज बन गया। वह होशियार और चौकन्ना था। उसने जमीन की खरीद-फरोख्त और दलाल बाजार से काफी पैसा पीटा। अब उसके पास शहर की संभ्रान्त कालोनी में कोठी है। माली है, बागवानी है, ए।सी। है, कम्प्यूटर है, बाइक है, कार है और न जाने क्या क्या है। यह भयानक प्रगति छलांग थी जो घोर पहाड़ के गरीब पुजारी की पांचवीं सन्तान ने मंदिर की छत से एलीट दुनिया में लगाई थी। अपनी इस महान संघर्ष गाथा को, जिसका उत्तरार्ध सफलताओं से भरा हुआ था, सुनाने के लिए वह हमेशा बेचैन रहता।
पुत्र की बगल में दूसरी तरफ अलका बैठी थी। उसकी गर्वीली मां। औसत कद की गुटमुटी, गोरी और चुनौती भरे अहंकार से उपहास-सा उड़ाती आंखों वाली। उसने ढीला-सा जूड़ा किया हुआ था, जो उसकी गोरी गर्दन पर ढुलका हुआ था और उसके बोलने के साथ दिलकश अंदाज में नृत्य करता था। वह बनारसी साड़ी पहने हुए थी, जो शालीन किस्म से सौम्य और आक्रामक ढंग से कीमती थी। लेकिन अट्ठाइस साल पहले जब वह पशुपतिनाथ की दुल्हन बनकर आई थी, जो उन दिनो हमारे पड़ोस में एक कमरे के मकान में विनम्र-सा किराएदार था, तब वह ऐसी नहीं थी। उन दिनो वह किसी स्कूल मास्टर की दर्जा आठ पास लड़की हुआ करती थी। सांवली, छड़छड़ी। कसी हुई लेकिन लम्बी चुटिया। आंखों में विस्मय भरी उत्सुकता और सहमा हुआ-सा भय और काजल के डोरे। लेकिन जैसे जैसे उसका पति छलांग मारता गया वैसे वैसे यह सांवली लड़की भी बदलती चली गई। और पशुपति के अफसरनुमा चीज बनने के बाद तो उसे हमारा मौहल्ला, जो उस समय तक उसका मौहल्ला भी था, बहुत वाहियात और घटिया लगने लगा।
''यह रहने लायक जगह नहीं है। पता नहीं लोग ऐसी जगह कैसे रह लेते हैं बहनजी --- मेरा तो यहां दम घुटता है। लोग एक दूसरे की टांग खींचने के अलावा कुछ जानते ही नहीं। और बच्चे? हे भगवान ऐसे आवारा और शरारतती बच्चे तो मैंने कहीं देखे ही नहीं। यहां रह गई तो मेरे बेटे का भविष्य बरबाद हो जाएगा।'' वह बेटे को बांहों के सुरक्षा-घेरे में लेकर कहती। और उसकी पुतलियां किसी अज्ञात भय से थरथराने लगतीं।
उसका डर भावनात्मक नहीं, जायज किस्म का था। मुहल्ले के लड़के वाकई भयानक रूप से आवारा, विलक्षण ढंग के खिलन्दड़ और सचेत किस्म से शिक्षा-विमुख थे। पशुपतिनाथ का सुकुमार उनके खांचे में कहीं फिट नहीं बैठता था। वे उससे इसलिए भी खार खाते थे कि उन दिनों वह 'स्टैपिंग स्टोन" का पढ़ाकू छात्र था। जाहिर है कि यह मुहल्ले के उस शिक्षा-संस्कार पर घातक हमला था, जिसे बनाने में कई पीढ़ियों ने कुर्बानियां दीं थी और जिसकी रक्षा करना यह पीढ़ी अपना अहोभाग्य मानती थी। इसलिए जब भी लौंडे-लफाड़ों को मौका मिलता, खेल के मैदान में या उससे बाहर कहीं भी, तो वे उसकी कुट्टी काटे बिना न रहते। वह हर दिन पिटकर लौटता और मां के लिए संकट उत्पन्न हो जाता। वह गहराई से महसूस करती कि ऎसी स्थिति में उसके बेटे का मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाएगा। और वो हो भी रहा था। वह लड़कियों की तरह व्यवहार करने लगा था। लड़के का लड़की में बदलना एक गम्भीर समस्या थी और इसका एकमात्र हल मुहल्ला बदलने में निहित था। आखिर उन्होंने हमारा मुहल्ला छोड़ दिया। एक संभ्रात कालोनी में कोठी बनाली। इस छकड़ा मुहल्ले से नाता तोड़कर वे प्रबुद्ध किस्म के नागरिक बन गए। उनका लड़की में बदलता लड़का फिर से लड़के में बदलने लगा। उसकी अवरुद्ध प्रतिभा निखरने लगी और वह अपने स्कूल का एक शानदार छात्र बन गया। पशुपतिनाथ मुझे भी मुहल्ला छोड़ने के लिए उकसाते। उनका खयाल था कि मैं एक प्रतिभाशाली आदमी हूं और यह मुहल्ला मेरी प्रतिभा को डस रहा है। लेकिन मैं उनके बहकावे में नहीं आया। दरअसल एक तो मुझमें इसे बदलने की ताकत नहीं थी। दूसरे, अगर मेरे भीतर सचमुच कोई प्रतिभा थी, तो यह मुझे इस मुहल्ले ने ही दी थी। इसके अलावा मुझें इससे प्यार था, क्योंकि यहां बच्चे सचमुच बच्चे थे, जवान; जवान और बूढ़े; सचमुच के बूढ़े। देशज और खांटी। अद्भुत और विस्मयकारी। मुहल्ला कविता बेशक नहीं था, लेकिन इसका हरेक एक दिलचस्प और धड़कती कहानी जरूर था।।।इसलिए मैं मुहल्ला नहीं छोड़ पाया। चूंकि उन्हें सफल और महान बनना था इसलिए वे इस जीवन्त मुहल्ले को छोड़कर नगर की शालीन उदासी से लिपटी सम्भ्रान्त कालोनी में चले गए, जो एक दूसरी भाषा बोलती थी और जहां दूसरी तरह के लोग रहते थे, जो न लड़ना जानते थे और न प्यार करना--- बहरहाल कालोनी में आते ही वे प्रबुद्ध नागरिक बन गए। उनका लड़की में बदलता लड़का फिर से लड़के में बदलने लगा। उसकी अवरुद्ध प्रतिभा निखरने लगी और वह अपने स्कूल का शानदार छात्र बन गया। पशुपतिनाथ को अपने औहदे की वजह से जरूर कुछ दित हुई। वह बैंक का अफसर जैसा कुछ होने के बावजूद कालोनी की दृष्टि में तुच्छ और हिकारत से देखे जाने वाली चीज था। लेकिन इस उपेक्षा से उसकी रचनात्मक प्रतिभा पल्लवित हो गई और वह अपने गार्डन में घुसकर बेहतरीन फूल और पौष्टिक तरकारियां उगाने लगा। अलका को जरूर यह नई जगह रास आ गई। उसने किट्टी पार्टियों में शामिल हो कर फैशन और घर संवारने के आधुनिक तरीके, भले लोगों में उठने-बैठने का सलीका और कुछ अंग्रेजी के शब्द सीख लिये। बहरहाल मुहल्ले से नाता तोड़ने के बावजूद उन्होने हमारे परिवार से सम्बंध बनाए रखा। वे जब भी मिलते तो बहुत देर तक बतियाते रहते। उनकी बातचीत का एकमात्र विषय बेटा होता। सचमुच उनका बेटा विनम्र, शिष्ट और प्रतिभाशाली था और पढ़ाई में निरन्तर उपलब्धियां हासिल कर रहा था। उसका कद बहुत बड़ा हो गया था और उसके माता-पिता बजते हुए भोपुओं में तब्दील हो गए थे।
वे आज कुछ ज्यादा ही बेचैन लग रहे थे।
''इधर की याद कैसे आ गई पशुपति जी।।।"" मैंने कहा।
वे सहसा उत्साहित हो गए। ''हमने सोचा यह खबर सबसे पहले आप को ही दी जानी चाहिए।"" अलका ने मिठाई का डिब्बा हमारी ओर बढ़ते हुए कहा, ''आपके बेटे की नौकरी लग गई है।""
''यह तो बहुत अच्छी खबर है। आज के जमाने में नौकरी मिलना तो जंग जीतने के बराबर है।" मैंने कहा।
यह उनकी विनम्रता थी कि वे अपने उस लड़के को हमारा लड़का कह रहे थे, जिसने इस हा-हाकार के युग में नौकरी प्राप्त कर ली थी। मैं उनकी सदाशयता पर मुग्ध था।
''बहुत बहुत बधाई।" मेरी पत्नी ने भी उत्साह जाहिर किया।
''यह सब आपकी दुआ है। नौकरी भी बहुत अच्छी मिली। मल्टी नेशनल में।" अलका ने चहकते हुए कहा।
''वाकई आपके बेटे ने तो कमाल कर दिया।"
''यह दुनिया वैसी नहीं है, जैसी आम लोगों की धारणा है। मैं कहता हूं कि यह अकूत संभावनाओं से भरी है। यहां कुछ भी पाया जा सकता है। बशर्ते आदमी मेहनत करे और उसमें हौंसला हो। अब मुझे ही देखो।।।"
वे अपने महान संघर्षों की प्रेरणादायक कहानी सुनाने के लिए बेताब हो गए, लेकिन उनके बेटे ने, जो अब एमएनसी का मुलाजिम था, उन्हें बीच में ही रोक दिया। ''पापा आप भी।।।"
हालांकि यह बेटे की पंगेबाजी को शालीनता से पचा लेने का अवसर था। यह मौके की नजाकत थी और वक्त की जरूरत भी। लेकिन पशुपति ऐसा नहीं कर पाये। घर की ताजा हरी सब्जियों के नियमित सेवन से लहू में बढ़ी लौह मात्रा, दलाल बाजार से अनाप-शनाप पीटे पैसे की उछाल और चिरयौवन के लिए प्रतिदिन खाए जाने वाले कमांडो कैपसूल से उपजे पौरुष ने उनकी पूंछ सौंटी कर दी और वे तिक्त स्वर में बोले, ''तो क्या तुम्हारी निगाह में मेरे संघर्षों के कोई मानी नही हैंं?"
लड़का मुस्कराया। यह बहुत हौली-सी मुस्कुराहट थी, लेकिन उसके भीतर से ठंडी उपेक्षा का अरूप तीर निकला और शब्दहीन पिता के कलेजे में धंस गया, जिससे वे आहत हो गए और शायद पलटवार करने को सन्नद्ध भी।
मुझे लगा जैसे सहसा सब कुछ अघोषित युद्ध-स्थल में बदल गया है, जिसके एक ओर विनम्र सम्मान के साथ बेटा खड़ा है और दूसरी ओर विशद ममता के साथ पिता है, लेकिन उनके हाथों में नंगे खंजर हैं। युग युगान्तर से आमने-सामने खड़ी दो युयुत्स पीढ़ियां। मैं दुविधा में था और सममझ नहीं पा रहा था कि मेरी मंशा युद्धरत पीढ़ियों में किसे आहत देखने की थी। हमारी पीढ़ी एक थी पर पशुपति मुझ से और उनका बेटा मेरे बेटे से आश्चर्यजनक रूप से सफल था।
वातावरण बेचैन किस्म की चुप्पी से भरा हुआ था। अलका ने बेटे के चेहरे पर उपहास उड़ाती मुस्कुराहट और पति का तमतमाया चेहरा देखा तो वह उनके बीच एक पुल की तरह फैल गई।
''तुम्हारे पिता की सफलताएं बहुत बड़ी हैं। खासकर तब जब इन्होंने ऐसी जगह से शुरु किया जहां कोई उम्मीद नहीं थी। इनके सिर पर किसी का हाथ नहीं था। इन्होंने सब कुछ अपनी मेहनत के बल पर पाया है। ट्युशन करके और अखबार बेचकर इन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की। फिर बैंक में नौकर हो गए। वहां भी तरी की और अफसर बने। यह इन्हीं का बूता था कि शहर की सब से शानदार कालोनी में इन्होंने कोठी बनाई। शुरु में हमारी वहां कोई पूछ ही नहीं थी। आईएएस, आईपीएस जैसे बड़े अफसरों, बिजनेसमैंनों, कांट्रेक्टरो, कालाधंधा करने वालों की निगाह में बैंक के एक छोटे से अफसर, क्या कहते हैं उसे 'कैश मूवमैंट आफिसर" की बिसात ही क्या होती है। लेकिन आज ये ही हैं जिनके बिना कालोनी में पत्ता तक नहीं खड़क सकता। कोई भी काम हो चाहे मंदिर बनवाने का या भगवती जागरण का या सड़कों की मरम्मत का या फिर और भी कोई दीगर काम सबसे आगे ये ही रहते हैं। जीवन में एक एक इंच जगह इन्होंने लड़कर हासिल की है। इनके संघर्ष महान हैं और प्रेरणादायक हैं।" उसने कहा और उसका चेहरा आभिजात्य गरिमा से तमतमाने लगा।
''मम्मा, पापा के संघर्षों के प्रति मेरे मन में सम्मान है, लेकिन ये प्रेरणादायक नहीं हैं। सच कहूं तो ये अब इतिहास की चीज हो गए हैं। प्रीमिटिव एण्ड आउट ऑव डेट।" इनकी सक्सेस स्टोरी के आज कतई मायने नहीं हैं।" बेटे कहा।
इस बीच पत्नी ने चाय भी सर्व कर दी। बोन चायना की प्यालियों में। इस परिवार से हमारा आत्मीय सम्बंध था और बेतकल्लुफी से हम इन्हें चाय मगों में पिलाते थे, जिनमें देशजपन था और जिन्हें हमने फुटपाथ से खरीदा था। लेकिन यह बात लड़के के एमएनसी में जाने से पहले की थी। इस समय वह सम्मानित आतंक से भरी हुई थी और फुटपाथ से खरीदे मगों में चाय पिलाना उसे नागवार लगा था। बेटे ने पिता के संघर्षों को परले सिरे से नकार दिया था। और यह सब उसने उत्तेजना में नहीं, बहुत ठंडे स्वर में किया था। नि:संदेह यह एक खतरनाक किस्म की बात थी।
पशुपति चुपचाप चाय सिप करने लगे। लेकिन वे आहत थे। अलका भी, जो स्कूल मास्टर की दर्जा आठ पास लड़की से पति के अफसर होने के साथ प्रबुद्ध किस्म की महिला में रूपान्तरित हो चुकी थी, पशोपेश में थी। दरअसल, पत्नी और मां की सामान्य मजबूरी की वजह से दो हिस्सों में बंटकर वह निस्तेज हो गई थी। अब सामान्य शिष्टाचार के कारण मेरा ही दायित्व हो गया था कि मैं सुलह का कोई रास्ता तजबीज करूं।
''क्या तुम सचमुच ऐसा समझते हो कि पिता की संघर्ष-गाथा महत्वहीन हो गई है।"
''जी हां अंकल। यह आज का रोल मॉडल नहीं है। अगर हम इतिहास को थामकर बैठेंगे तो पीछे छूट जाएंगे। अब यह देश पूरी तरह अमीर और गरीब में बंट चुका है। गरीबों के साथ आज कोई भी नहीं है। न व्यवस्था, न धर्म, न न्याय, न बाजार यहां तक कि मीडिया भी नहीं, जो हर जगह पहुंचने का दावा करता है। वह भी उनके बारे में तभी बोलता है, जब वे कोई जुर्म करते हैं, क्योंकि आज बाजार में जुर्म बिकता है। गरीब कितना ही संघर्ष करे वह गरीब ही रहेगा। पापा की तरह संघर्ष करके और उन्हीं की तरह कामर्स में थर्ड क्लास एमए करने के बाद मैं किसी बजाज की दुकान में थान फाड़ रहा होता। इतना ही नहीं फर्स्ट क्लास होने पर भी मेरा भाग्य इस से अलग नहीं होता। संघर्ष के मायने बदल गए हैं और ये तभी कोई परिणाम दे सकते हैं जब आपकी जेब में पैसा हो।"
''लेकिन तुम तो पूरी तरह सफल हो। एमएनसी की नौकरी से बेहतर क्या हो सकता है।"
''हां, क्योंकि पापा की हैसियत मेरे लिए अच्छी शिक्षा खरीदने की थी और उन्होंने ऐसा किया भी --- मुझे शहर के सब से बढ़िया स्कूल में पढ़ाया। टाट-पट्टी के हिन्दी स्कूल में पढ़ाते तो मैं आज घास छील रहा होता। या यह भी संभव है कि मुझ में घास छीलने की काबलियत भी न होती।"
आहत पिता के सीने में हुलास की एक लहर दौड़ गई। बेटा भले ही उनके महान संघर्षों की प्रेरणादायक कहानी के प्रति निर्मम है, जो दो पीढ़ियों के सोच का अन्तर है, लेकिन वह उसका कैरियर बनाने के लिए किए उनके प्रयासों के लिए पूरा सम्मान प्रर्दशित कर रहा है। उन्होंने उसके लिए रात-दिन एक कर दिया था। उसे अंग्रेजी माध्यम के सबसे बड़े स्कूल में पढ़ाते हुए वे आर्थिक रूप से पूरी तरह टूट गए थे। लेकिन राहत की बात थी कि बेटा उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतर रहा था। पढ़ने के अलावा तो उसकी कोई और दुनिया ही नहीं थी। उसके दोस्त भी ऐसे ही थे। वे सिर्फ कैरियर की बात करते। दुनिया जहांन से उनका कोई वास्ता ही नहीं था। उनके खयाल से देश में सब ठीक और कुछ ज्यादा ही ठीक चल रहा था। ये बड़े बापों के लायक बेटे थे। देश का उदारवाद उनके और उनके जैसों के लिए ही संभावनाओं के दरवाजे खोल रहा था।
अलका अब तक पिता-पुत्र के बीच का वह स्पेस तलाद्गा कर चुकी थी जहां से दोनों को संभाला जा सकता था। उसने गर्वीली चमक, जो पति-पुत्र की सफलताओं ने उसके भीतर पैदा की थी, के साथ कहा, ''एकदम ठीक बात है। इन्होंने बेटे को अच्छे स्कूल में ही नहीं पढ़ाया, बल्कि ये उसके साथ पूरी तरह घुल गए थे। इनकी दुनिया भी सिर्फ बेटे में ही सिमटकर रह गई थी। बैंक से लौटते ही ये उसे पढ़ाने बैठ जाते। और पढ़ाने के लिए खुद रात रात भर पढ़ते। मैं कई बार झल्ला जाती कि इम्तहान आपने देना है कि बेटे ने। ये एक जिम्मेदार पिता की तरह जवाब देते, 'क्या बताऊँ? अब बच्चों को पढ़ना भी तो क्या क्या पड़ता है। हमने तो ऐसा कुछ नहीं पढ़ा था। वक्त ही बदल गया है। अगली पीढ़ी को सफल बनाने के लिए पिछली पीढ़ी को भी उतनी ही मेहनत करनी पड़ती है।" बाप-बेटे दोनों रात-दिन मेहनत करते और यह अस्सी प्रतिशत नम्बर लाता। ये उसका रिजल्ट देखते और इन्हें निराशा का दौरा पड़ जाता। अस्सी प्रतिशत का बच्चा बाजार में अपनी कोई जगह नहीं बना सकता। फिर बेटे के लिए ट्युशन लगाए गए। भाई साहब इंटर में तो तीन ट्युशन थे हजार हजार के। स्कूल की भारी फीस और स्कूटर-पैट्रोल का खर्च अलग। इसने मेहनत कितनी की इसे तो बयान ही नहीं किया जा सकता। तब कहीं जाकर इसके छियास्सी प्रतिद्गात नम्बर आए।"
''छियास्सी प्रतिशत नम्बर तो सचमुच बहुत होते हैं।" मैंने कहा, ''ही"ज रियली जीनियस।"
''नहीं अंकलजी ये नम्बर बहुत नहीं थे। लेकिन इतने कम भी नहीं थे कि मैं निराश हो कर घुटने टेक देता।" बेटे ने चाय का प्याला, जिसमें से थोड़ी-सी चाय सिप की गई थी, मेज पर रखते हुए कहा, ''मेरे सामने अगला लक्ष्य आईआईटी था। मैंने अपनी सारी ताकत झोंक दी। पूरे साल मेहनत की और कितनी की यह मैं ही जानता हूं। बैस्ट कोचिंग इंसटीट्यूट से कोचिंग ली। लेकिन मैं आईआईटी तो दूर किसी अच्छी जगह मैरिट में नहीं आ सका। यह बहुत निराशा का दौर था और मैं पूरी तरह टूट गया था। मुझ में इतनी हिम्मत नहीं रह गई थी कि फिर से कम्पीटीशन की तैयारी कर सकूं।"
''मेरा तो भाई साहब दिमाग बिल्कुल खराब हो गया था।" अलका ने कहा, ''आंखों की नींद छिन गई थी। इसके दोस्त जो पढ़ने में इससे मदद लेते थे वे तो अच्छी जगह आ गए थे। ये रह गया था। किसी की नजर लग गई थी इसकी पढ़ाई पे। मैं कहां कहां नहीं भटकी। मंदिरों में शीश नवाया, गुरद्धारों में मत्था टेका, मजारों में शिजदा की, पीर-फकीरों के सामने झोली फैलाई। इन प्रार्थनाओं का असर हुआ भाई साहब और ये कमान संभालने के लिए कमर कसकर खड़े हो गए।"
अलका पशुपति को सहसा हाशिए से खिसकाकर परिदृश्य के केन्द्र में ले आई। ऐसा होते ही पशुपति की आवाज में गम्भीर किस्म का ओज भर गया। ''मैंने इससे कहा तू हिम्मत क्यों हारता है। कम्पीटीशन में न आ पाना दु:ख की बात तो अवश्य है लेकिन तेरे सारे रास्ते बंद नहीं हुए। डोनेशन का रास्ता तो खुला है। कहीं न कहीं तो सीट मिल ही जाएगी। और चार लाख डोनेशन देकर मैंने इसके लिए सीट खरीद ली।"
''चार लाख तो बड़ा अमाउंट होता है पशुपतिजी।।।।खासकर नौकरीपेशा के लिए।"
''भाई साहब छै साल पहले तो यह और भी बड़ा अमाउंट था। सर्विसवाले के पास कहां इतनी ताकत होती है। ये तो साहब आपके आशीर्वाद से शेयर मार्र्केट से रुपया बना रखा था। क्या थ्रिल है शेयर मार्केट भी --- कोई मेहनत नहीं बस दिमाग और स्पैकुलेशन का खेल। मैं तो कहता हूं भाईजान आप भी शेयर मार्केट में लाख-दो लाख डाल दी जिए। मेरे कहने से शेयर खरीदिए। देखिए सालभर में क्या कमाल होता है।"
ये पशुपति की जर्रानवाजी थी कि वे इसे मेरा आशीर्वाद मान रहे हैं, हालांकि मैंने अकसर सट्टा-बाजारी के लिए उन्हें हतोत्साहित किया था। मैं कृतज्ञता से मुस्कराया कि वे मुझे भी दलाल बाजार में किस्मत आजमाने का निमत्रण दे रहे हैं और मेरी सहायता करने को भी तैयार हैं। उनके चंगुल से बचने के लिए मैं उनके पुत्र की ओर मुखातिब हुआ, ''तुम्हारी सफलता के पीछे तुम्हारे पिता खड़े हैं और उन्होंने इस कहावत को गलत सिद्ध कर दिया है कि हर सफल व्यक्ति के पीछे किसी औरत का हाथ होता है।" लड़का हंसने लगा। ''हां अंकलजी पुरानी सारी बातें अब व्यर्थ होती जा रही हैं। पर पहले आप मेरी बात तो सुन लीजिए।"
''जाहिर है कि मैं सुनना चाहता हूं। शायद मैं उस पर कभी कोई कहानी ही लिख दूं।"
कहानी लिखने के मेरे प्रलोभन को उसने कोई तरजीह नहीं दी। शायद उसके जीवन में कहानी वगैरह का कोई महत्व नहीं रह गया था।
''हां अंकलजी जब मैं डोनेशन से मिली सीट ज्वाइन करने जा रहा था तो मेरा सिर शर्म से झुका हुआ था। मेरे एमएनसी में जाने के सपने पूरी तरह टूट चुके थे। सीट भी सिविल में मिली थी। मेरे नाम के साथ इंजीनियर जरूर जुड़ जाने वाला था। लेकिन भविष्य किसी कंस्ट्रकशन कम्पनी में छै हजार की नौकरी वाले टटपूंजिया नौकर से अधिक कुछ नहीं था। ऐसे इंजीनियरों को तो पुराना और अनुभवी मिस्त्री ही हड़का देता है। लेकिन तभी मेरे मन ने कहा कि असली आदमी तो वह है जो वहां से भी रास्ता निकाल सके, जहां उसके निकलने की संभावना अत्यंत क्षीण हो। बस अंकलजी मैंने उसी समय निर्णय लिया कि मैं अपनी हार को विजय में बदलकर दिखाऊँगा।"
''हां, मनुष्य के भीतर एक मन होता है, जो टूटकर भी कभी नहीं टूटता।" मैंने समर्थन में सिर हिलाया। ''इसके बाद अंकलजी मैंने पढ़ाई में रात-दिन एक कर दिए। मैरिट में आया मैं। यह आश्चर्य की बात थी कि डोनेद्गान का लड़का मैरिट में आए। लेकिन इंजीनियरिंग कॉलेज की क्रेडिटेबिलिटी ऐसी नहीं थी कि उसकी मैरिट का छात्र एमएनसी में लिया जा सके। रास्ता सिर्फ मैनेजमैंट का कोर्स करके निकल सकता था। फिर मैंने कैट क्लीयर किया। लेकिन दुर्भाग्य ने यहां भी मेरा साथ नहीं छोड़ा और मैं पहले दस बी0 स्कूल में नहीं आ सका। अब सिर्फ एक ही रास्ता रह गया था कि मैं किसी एमएनसी के साथ कोई प्र्रोजेक्ट करूं और अपनी प्रतिभा का परिचय दे सकूं। मैं हर रोज तीस किलोमीटर का सफर करके एमएनसी के ऑफिस में जाता। अपने और स्कूल के नाम की चिट भेजककर सीइओ से मिलने की प्रार्थना करता। और हर दिन मेरी प्रार्थना ठुकरा दी जाती। लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी और पच्चीस दिन की दौड़ के बाद आखिर सीइओ ने मुझे मिलने का वक्त दे दिया। और अब मैं सीइओ के सामने था। आत्मविश्वास से भरा, शार्प, मुस्कराता और मैगेटिक पर्सनेलिटी का मुश्किल से तीस साल का आदमी, जो सारे एशिया में कम्पनी के प्र्रॉडक्ट्स की सेल्स के लिए जिम्मेवार था। वह घूमने वाली कुर्सी पर बैठा था और उसकी शानदार टेबल पर कुछ फोन और बस एक लैपटॉप था। 'फरमाइए मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूं।" कुर्सी की और बैठने का संकेत करते हुए उसने मुस्कराते हुए पूछा। मैंने अपना बायोडाटा उसकी ओर बढाते हुए कहा, 'सर मैं आपके साथ एक प्रोजेक्ट करना चाहता हूं।"
इसी बीच कॉफी आ गई। उसने कॉफी पीते हुए मेरे बायेडाटा पर सरसरी निगाह डाली और फिर मेरी आंखों में आंखे डालते हुए कहा, ''मिस्टर बाजपेई आपके पास सेल्स के बारे में कोई ओरिजीनल आइडिया हो, जिस पर आप प्रोजेक्ट करना चाहते हैं, तो बताएं। लेकिन खयाल रहे कि आपके पास सिर्फ दो मिनट हैं।"
मैंने अपना आइडिया बताया, जो शायद सीइओ को पसन्द आ गया, हालांकि उसके चेहरे पर ऐसा कोई भाव नहीं था।
''ओके यू कैन प्रोसीड। मीट माई सेक्रेटी मिसेज रामया। शी विल फेसेलिटेट यू फॉर कैरिंगआउट द प्रॉजेक्ट।" उसने कहा, ''अंकलजी यही मेरे जीवन का टर्निंग पाइंट सिद्ध हुआ।"
''वाकई यह दिलचस्प है।" मैंने कहा, ''तुम्हारी हिम्मत सचमुच तारीफ के काबिल है।"
''जी हां अंकलजी यह आज का रोल मॉडल है। मैंने प्रोजक्ट को अपनी सारी ताकत और क्षमता झोंककर पूरा किया। सीइओ को यह प्रोजेक्ट बहुत पसन्द आया। यहां तक तो सब ठीक था। अब सवाल था प्रेजेंटेशन का। एमएनसी के कानफ्रेंस हॉल में गैलेक्सी ऑव इंटेलेक्चुअल्स के सामने प्र्रजेंटेशन देने में अच्छे-अच्छे की हालत पतली हो जाती है। यह मेरी अग्निपरीक्षा थी। प्रेजेंटेशन सचमुच बहुत अच्छा रहा। मेरा आत्मविश्वास अपने चरम पर था। क्वेश्चन सैशन में मैंने बहुत कॉन्फीडेंस से सवालों के जवाब दिए। और ये सवाल किसी ऐरे-गैरे के नहीं गैलेक्सी ऑव इंटेलेक्चुअल्स के सवाल थे। तालियों की गड़गड़ाहट में जब मुझे पुरस्कार में कम्पनी के प्रॉडक्ट दिए गए तब मुझे यकीन हुआ कि सेल्स सम्बंध मेरी मौलिक अवधारणाओं को मान्यता मिल गई है। दरअसल अंकलजी ये प्रेजेंटशन ही मेरा इंटरव्यू था। इस बात का पता मुझे उस समय हुआ जब मैंनेजमैंट का फाइनल करते ही एमएनसी का अप्वाइटमैंट लैटर मेरे हाथ में आया। जानते हैं अंकलजी यह फोर्टी फारचून कम्पनीज में से एक है, जो हमारे देश के मार्केट में दस हजार का तो जूता ही उतार रही है।"
दस हजार के जूते की बात से मैं लड़खड़ा गया। ''इस गरीब मुल्क में जहां हर साल कपड़ों के अभाव में ठंड से सैकड़ों लोग मर जाते हैं।।।दस हजार का जूता ---" मैंने शंका जाहिर की।
''क्या बात करते हैं अंकलजी, इस देश में पूरे युरोप से भी बड़ा मध्यम वर्ग है। उसकी लालसायें अनन्त हैं और उसके बीच मार्केट की विशद संभावनाएं हैं। वह दस जगह बचत करेगा, या दस जगह बेईमानी से रूपया कमाएगा और एएमएनसी का दस क्या बीस हजार का जूता भी खरीदेगा। जानते हैं न अंकलजी यहां आदमी की औकात वस्तुएं तय करती हैं। भले ही हम अपने को आध्यात्मिक कहते हों, लेकिन स्कूटर, कार, फ्रिज वगैरह की खरीद पे पूजा-पाठ करके प्रसाद हम ही बांटते हैं।" उसने कहा और विजयी भाव से मेरी ओर देखा।
मैं सहसा उसकी बात का कोई जवाब नहीं दे सका।
वह सफलता के गरूर में था और इस गरूर के साथ ही उसने कहा, ''कम्पनी मुझे अगले महीने ट्रेनिंग के लिए यूएसए भेज रही है। वापस आकर मैं नार्थ इंडिया में कम्पनी की सेल्स देखूंगा।"
मैंने उसकी और देखा तो वह मुझे बहुत भव्य और महान दिखाई दिया, जिसके सामने हम अकिंचन और बौने थे।
मेरे पास सचमुच कोई विकल्प नहीं रह गया था, सिवा इसके कि मैं उसे उसकी विलक्षण सफलता के लिए बधाई दूं।
मैंने ऐसा किया भी। और उसका हाथ थामकर गर्मजोशी से हिलाने लगा।

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